Sunday 26 September 2010

Temples (मंदिर)

मंदिर एक ऐसा शब्द है जिसका नाम सुनते ही या पढ़ते ही आप के मन में श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है, श्रद्धा जो आप के अंतरमन से उत्पन्न होती है और होनी भी चाहिये. यदि ऐसा नहीं होता तो उस श्रद्धा के कोई मायने नहीं रह जाते, वो महज़ एक दिखावा बनकर रहे जाती है और इसलिए मेरा आप सभी पाठको से निवेदन है  कि यदि आप को भी ऐसा लगता है कि आप के मन में भगवान के प्रति कोई श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो रही है तो मंदिर जाने का दिखावा मत कीजिये, अर्थात हमेशा वही काम कीजिये जिसके  लिए आप अन्दर से तैयार हों  यानी सच्चे मन से आप उस काम को करने के लिए तयार हों तभी करिए फिर चाहे वो पूजा हो या अन्य कोई और कार्य.

जब यहाँ(UK) पहली बार मंदिर जाने का मौका आया तो मुझे लगा था, कि मंदिर तो सभी जगह के एक जैसे ही होते है उसमें क्या India या UK मगर यहाँ के मंदिरों में जाने के बाद मुझे एक अलग ही अनुभूति का अनुभव हुआ, मैं यह  सोच कर गई थी कि भारत के मंदिरों में जैसा माहौल होता है वैसा ही यहाँ भी कुछ होगा. पहले भी मैं रोज़ मंदिर जाने वालों में से नहीं थी. मगर हाँ इतना जरुर है कि मुझे मंदिर जाना हमेशा से अच्छा लगता था वहां का माहौल, मंदिर की घंटियाँ, पंडित जी का जाप, आरती, प्रसाद, इन सबसे बहुत अच्छे और पवित्र भाव मन में उत्पन्न होते थे. बचपन में जब हम अपनी नानी के घर जाया करते थे तो हमारी मम्मी और मौसी हम सब भाई बहिनों को एक साथ मंदिर ले जाया करती थी और प्रसाद के लालच में हम लोग भी हमेशा तैयार रहा करते थे,


खैर.... ये तो थी बचपन की बात और मैं बात कर रही हूँ यहाँ London के मंदिर के विषय में.  यहाँ आने के बाद मैंने सब से पहला मंदिर जो देखा वो था Neasden (london) का स्वामीनारायण मंदिर, जो कि बहुत ही भव्य मंदिर है और उतना ही विशाल और सुंदर भी, मगर वहां जाने पर मेरे मन में वो श्रद्धा के भाव उत्पन्न नहीं हुए जो भारत के मंदिर में हुआ करते हैं. शायद इसलिए कि मेरे मन पर उस वक़्त भारत के मंदिरों कि छवि बनी हुए थी मगर यहाँ LONDON के इस मंदिर ने अंग्रेज़ी कि उस कहावत को सच साबित किया है की Something is better then nothing जहाँ दूर-दूर तक मंदिर के बारे में सोचा भी ना हो वहां इतना भव्य मंदिर का मिलना या होना सच  में अपने आप में एक बहुत महत्वपूर्ण बात है और जैसा कि हम जानते हैं, आज के ज्यादातर हिंदी धारावाहिकों के चलते लोगों के मन में गुजराती समाज कि छवि ही ऐसी बन गयी है वो अन्य समाजों कि तुलना में पैसे वाली society है तो यहाँ भी वही बात देखने को मिली. यहाँ london का स्वामीनारायण मंदिर हो या crawley का apple tree center संस्था के द्वारा बनाया गया मंदिर हो.  दोनों ही गुजराती समाज द्वारा बनवाये गए मंदिर है जो कि यहाँ आपको अपने वतन से दूर होने के बावजूद भी आप को धार्मिक स्थल पर पास होने का एहसास दिलाते हैं. जैसे हर एक त्यौहार पर उस मंदिर में सभी हिन्दू जाति के लोग एक साथ होकर पूजा करते है और छोटे मोटे कार्यक्रम करके त्यौहार का मज़ा उठाते है. जैसे नवरात्रि  पर गरबा जिसके बिना शायद नवरार्त्री का मज़ा ही नहीं आता, उसका भी आयोजान मंदिर में किया जाता है और लोग वहां जाके अपने उस इच्छा को पूरा कर लेते है भले ही वो मंदिर के हॉल में ही क्यूँ न हो मगर बहुत अच्छा लगता है कि चलो उतने बड़े स्तर पर न सही मगर कुछ तो है जो आप को महसूस करता है कि आज कोई त्यौहार है  और सिर्फ इतना ही नहीं दीपावली पर Prince Charles खुद भी आते हैं london के स्वामी नारायण मंदिर में पूजा के लिए. अंग्रेजों के देश में पहले ही हिन्दुस्तानियौं का इतना बड़ा मंदिर होना उस पर इतने बड़े त्यौहार दीपावली का इतना भव्य आयोजन होना और उस पर भी यहाँ के रोयल फॅमिली का उसमें शामिल होना.  उन के देश मैं अपने त्यौहार की महत्ता को और भी ज्यादा बढ़ा देता है और यह अपने आप मैं एक बहुत ही बड़ी और महत्वपूर्ण बात है.

अब में आप को बताऊँ Crawley के मंदिर का मेरा अपना अनुभव मैं यहाँ UK में सिर्फ दो ही बार मंदिर गयी हूँ.  यहाँ एक और मंदिर है जो की गुजराती संस्था द्वारा बनाया गया है और उसके सभी सदस्य ज्यादातर गुजराती ही हैं. जब हम पहली बार उस मंदिर में गए तो वहां के मंदिर कि खूबसूरती और वहां विराजे भगवान् जी कि खुबसूरत मूर्तियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया था. मगर वहां जिस तरीके से लोग व्यवहार कर रहे थे और जिस तरीके से वहां के पंडित जी ने पूजा अर्चना और आरती की तो लगा ही नहीं कि हम मंदिर में खड़े हैं. सब कुछ बनावटी महसूस हो रहा था, हालांकि यह हो सकता है कि गुजराती समाज में भारत मैंने भी इसी तरह से पूजा अर्चना की जाती हो, मगर जब यहाँ देखा तो सब औपचारिकता लगी. न पूजा में मज़ा आया, न आरती में कोई श्रद्धा आई. अर्थात मन के अंदर से जो भगवान् जी के प्रति आदर श्रद्धा और भक्ति के भाव आना चाहिये, वो ज़रा भी नहीं आये जैसे भारत के मंदिरों में जाने से आते हैं. अब पता नहीं ये मेरे साथ ही हुआ या फिर यहाँ रहने वाले सभी भारतीय हिन्दुओं के साथ भी होता है. इससे तो अच्छा मुझे अपने घर में ही स्वयं पूजा करना ज्यादा अच्छा लगता है. पहले तो एक छोटी सी जगह में बना मंदिर था, Crawley का  यह मंदिर तो बहुत बाद में बना है यूँ कहिये कि अभी-अभी ही बना है.
 अंतत  इतना ही कहूँगी कि यदि आप पहली बार UK या अन्य किसी भी और दूसरे देश में जा रहे हैं और आप बहुत ही ज्यादा धार्मिक प्रवत्ति के इन्सान है तो भारत के मदिरों की छवि लेकर मत जाइयेगा बस अपने अंतरमन की श्रद्धा  और भक्ति से पूजा अर्चना करियेगा वरना शायद आप कि धार्मिक भावना  को ठेस  भी पहुँच सकती है.

Tuesday 21 September 2010

Village visit...

गाँव एक ऐसा शब्द है जिसको सुनते ही ज्यादातर भारतवासीयों को अपनत्व की भावना उत्पन्न होने लगती है, आँखों के सामने वहां के सारे चित्र दिखाई देने लगते है बिलकुल एक चलचित्र कि तरह, जैसे भारत से बाहर रह कर हम भारत को बहुत याद करते हैं ठीक वैसे ही भारतवासी भारत में रहे कर खुद के गाँव को बहुत याद किया करते हैं, बच्चों के दादा दादी, अपने नाती पोतों को अपने-अपने गाँव के किस्से  सुनाया करते हैं कि उन्होंने कितने  मज़े किये हैं अपने गाँव में और उनकी कितनी सारी यादें जुडी हैं उनके अपने गाँव से और आज कि युवा पीढी (young generation ) उसने तो गाँव नाम कि चीज़ सिर्फ फिल्मों में ही देखी है, जैसा सुहाने गावँ का नक्शा उसमें खिंचा जाता है उससे बच्चे यही समझते हैं कि सच में हर गाँव ऐसा ही होता होगा, यहाँ तक कि मुझे भी ऐसा ही लगता था और अगर सच कहूँ तो शायद पंजाब के गाँव ऐसे ही होते भी होंगे लेकिन मैंने जो गाँव अपनी ज़िन्दगी में पहली बार देखा था वो था राजस्थान राज्य  के झालावाड जिले का एक छोटा सा गाँव जिसका नाम था "डग" जो कि.....इंदौर से कुछ 200 km दूर है.



वहां मैं अपनी मौसी और अपने बड़े भाई के साथ गयी थी और मेरे साथ मन्नू भी था, वहां जाकर पहली बार मैंने जाना कि खेत क्या होते हैं, कैसे दिखते हैं, वहां मैंने पहली बार लहसुन का खेत देखा और जो कुछ भी मैंने वहां देखा सब एक तरह से पहली बार ही देखा था, सिवाय एक कुंए के. वहां पास ही में एक खुली प्याऊ जैसी थी जिसमें जानवरों के पीने के लिए पानी भरा जाता था, वो भी मैंने पहली बार ही देखा था. वो मेरे लिए एक बहुत ही अच्छा और यादगार अनुभव है, वहां मैंने पहली बार मिट्टी में गड्ढा करके बाटी बनाते देखी और खेत में बैठ कर खाने का मज़ा और स्वाद तो मुझे आज तक याद है, तब मुझे मेरे भाई साहब ने ताज़े ताज़े खोद कर  निकले हुए लहसुन को आग में भून कर खिलाया था खाने के साथ, तब उस वक़्त मुझे वो बहुत अच्छा लगा था मगर उसके बाद से आज तक फिर वो स्वाद  मुझे कभी नहीं मिला जो उस दौरान मिला था. फिर मेरे मौसी मुझे भिन्डी और फलियौं(French beans ) के खेत में लेकर गयी थीं वहां मैंने पहली बार अपने हाथों से सब्जियां तोड़ीं, मन्नू को भी बहुत मज़ा आरहा था.

उस दिन बहुत मज़े और  मस्ती की थी हम ने. यहाँ तक के आम के पेड़ों से कैरियां तोड़ी थीं और हम आस पास कि बहुत सारी जगह भी घुमने गय थे. जैसे वो गुरु चेला कि समाधी जिससे एक कहानी जुडी है कि वो समाधियाँ पहले दो अलग स्थानो पर थोड़ी दूरी पर बनाई गयी थी, मगर अब धीरे-धीरे पास आती जा रही हैं. ऐसा कुछ मगर अभी पूर्ण रूप से मुझे भी याद नहीं है. खैर उस बारे  में फिर कभी ...वहां पास में एक देवी का मंदिर भी हैं वहां भी गए थे हम और वहीँ एक चमत्कारी हनुमान मंदिर भी  है. हम वहां थोडा ऊपर वहां भी गए थे,  इतने करीब से मन्नू ने शायद पहली बार हकीकत में बंदर और मोर देखा था, हम सब ने उसका फोटो खीचने के लिए तो बहुत जतन  किये थे, हमारे साथ एक और शख्स थे जिनका नाम था पार्थो दादा, वो तो मोर के पीछे मेरा cell फ़ोन लेकर काफी दूर तक गए थे, मगर जैसा फोटो वो खींचना चाहते थे वैसा नहीं खिंच पाए थे. वहां जाने पर एक अरसे बाद में छत पर सोई थी वो रात को छत पर लेटे-लेटे चाँद को देखते हुए सोना और सुबह -सुबह चिड़ियों कि चहचहाने से उठना, उसके बाद पोहा और गाँव के बाज़ार में बनी जलेबी का नाश्ता, जिस पर हल्की सी धूल कि परत भी थी. मगर  बिना कुछ देखे बिना खा लिया, गावं का स्वाद पूरी तरह लेने के लिए. पूरी तरह उन सारे अनुभवों का लुफ्त उठाया, यहाँ तक कि मैंने वो १ रुपये वाली रंगीन ice cream भी खाई और मन्नू को भी खिलाई, तब यह जान कर बहुत अजीब लगा था कि अब भी १ रूपये में कुछ मिलता है  जिसमें मुंह से लेकर हाथ पैर तक सब रंगीन हो जाता है. बिना यह सोचे समझे कि वो किस पानी से बनी है या कब की बनी है मन्नू ने भी बहुत Enjoy की थी वो ट्रिप या यूँ कहो कि सही मायने में उसने ही सब से ज्यादा आनंद उठाया था. खेत में घूमते वक़्त उसके पैरों में कई बार बहुत सारे कांटे भी चुभे, जिन्हे देखकर मुझे बहुत दर्द हुआ क्यूंकि उन नन्हे पैरों ने कभी जाना ही नहीं था कि कांटे क्या होते हैं.

इसलिए शायद मुझे दर्द हुआ था मगर उसे ज्यादा नहीं, क्यूंकि उसे तो मज़ा आरहा था अपने मामाजी के साथ मस्ती करने में उसे इन सब चीज़ों की कोई परवाह ही नहीं थी और मैंने भी उसे पूरी तरह उसे फ्री छोड़ दिया था.  इससे  मुझे मेरी मौसी की कही हुई एक बात याद आती है, खास कर जब भी मैं गर्मियौं में चाय पीती हूँ तब, बात उस वक़्त कि है जब हम सब लोग खेत में बैठ कर खाना खा  रहे, तब आंधी आई थी और सभी की पत्तलों में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी मिल गई थी तब सबने कहा था कोई बात नहीं, कभी कभी खाने के साथ अपनी मिटटी का भी स्वाद ले लेना चाहिये और उस के बाद जब एक नींद लेने के लिए वहीँ खेत में चटाई  डाल के सोये, पता नहीं कब नींद आ गयी थी, जब कि वहां इतनी ज्यादा सड़ी गर्मी थी कि सारे कपडे पसीने से भर गये थे, तब भी बहुत सुकून की नींद आई थी. उस के बाद वहां जब में उठी तो मौसी ने मेरे भैया से चाय लाने  के लिए कहा, उस पल मुझे ऐसा लगा कि यार इतनी सड़ी गर्मी भरी दोपहर में चिलचिलाती धूप में मौसी चाय के पीने के बारे में सोच भी कैसे सकती हैं. और मैंने उनको बोला भी था कि इस टाइम चाय, तो वो बोलीं हाँ यही सही वक़्त है चाय का, ठंडा पीने का नहीं. क्यूंकि जैसे ''जहर को जहर काटता है वेसे ही गर्मी को गर्मी मारती है'' ऐसे में अगर तुमने ठंडा पिया तो (लू) लग जाएगी और चाय पीने तो कुछ नहीं होगा और फिर उसके बाद सब ने गरम-गरम चाय पी और फिर शाम को वहां से वापस इंदौर के लिए रवाना हुए, रास्ते में खूब चाट भी खाई और उज्जैन में Ice cream भी.



 अन्तः मैं इतना ही कहना चाहूंगी अपने सभी पाठकों से कि आप भी अपने बच्चों को अपने गाँव ज़रूर लेकर जाइये, आपका अपना ना  भी हो तो भी ज़रूर लेकर जाइये और उन्हें अपनी मिटटी से मिलवाइये. उनको बताइए  कि क्यूँ भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है और कैसा लगता है अपने गाँव कि मिट्टी से मिलकर, उसे जुड़ कर. वहां कि यादों में खो कर उस मिट्टी के सहारे अपने देश से जुडी भावना को महसूस करके. एक किसान कैसे और कितनी मेहनत  करता है जिसके बाद आप को खाना मिलता है और अपने बच्चों को गावं से जुडी सभी जानकारियाँ दीजिये.  ताकि आगे चल कर वो समझ सके अपने देश कि अहमियत को और एक किसान की महनत को भी और अपने संस्कारों को भी ......

इस यादगार यात्रा के कुछ फोटो Mannu In DAG

Saturday 18 September 2010

Transfer (स्थानांतरण)

अब अपने इस अनुभव के बारे में, मै आप से क्या कहूं ये भी मेरे लिए एक ऐसा विषय है कि जितना भी लिखूं मुझे शायद वो कम ही लगेगा वैसे तो (स्थानांतरण) शब्द ऐसा है जिसको सुनकर हमेशा ऐसा लगता है जैसे साधारण भाषा में सरकारी नौकरी वाले लोगों का हुआ करता है ,मेरा भी अनुभव कुछ ऐसा ही है मगर फर्क इतना है कि मेरे पतिदेव की नौकरी सरकारी नहीं रही है कभी मगर फिर भी हम लोगों के स्थानांतरण बहुत हुए हैं. यहाँ में शुरुवात करना चाहूंगी अपने स्कूल के दिनों से जब में स्कूल में पढ़ा करती थी और मेरे किसी भी सहेली के पापा का जब भी स्थानांतरण हुआ करता था और मेरी वो सहेली जब स्कूल छोड़ कर जाया करती थी तो मन ही मन बहुत बुरा भी लगता था और बहुत Excitement भी बहुत होता था, कि सब कुछ नया मिलेगा उसे, नया घर, नई जगह,  नए लोग, नया स्कूल, नए दोस्त सब कुछ कितना अच्छा लगेगा उसे और तब मन में बहुत ख्याल आता था की मेरे पापा का कभी कोई स्थानांतरण क्यूँ नहीं होता, जब कि मेरे case में तो बात यह थी कि मेरे पापा के तो पहले ही बहुत सारे स्थानांतरण हो चुके थे और हम लोगों कि पढाई के कारण पापा ने खुद ही स्थानांतरण लेना बंद कर दिया था मेरे पापा Veterinary Dr हैं और जब कि में बात कर रही हूँ अपने स्कूल days कि तो तब तो मेरे पापा ने hospital से अपना तबादला lab में करा लिया था ताकि उनको Tour पर भी न जाना पड़े क्यूँ मेरी पढाई शुरू होने से पहले पापा hospital में थे और तब उस के कारण उनको बहुत सारी जगह पर जाना पड़ा था, स्थानांतरण के कारण. पहले पचमढ़ी,  फिर खिलचीपुर, फिर अब्दुल्लागंज  और फिर भोपाल. मेरा जन्म स्थान भोपाल ही है उस के बाद पापा ने तय किया की बस अब और नहीं. इसलिए उन्होंने अपना तबादला hospital से Lab में करवा लिया था. खैर में तो बात कर रही थी मेरे अनुभवों की....


मेरा सब से पहला अनुभव था शादी, यहाँ आप को हंसी आए शायद पढ़ कर, मगर यह सच है जो हर लड़की के ज़िन्दगी का एक तरह का स्थानांतरण जैसा ही अनुभव होता है जिनकी शादी एक ही शहर में होती है उनका अनुभव कैसा और क्या होता हैं वो में नहीं बता सकती मगर हाँ जिनकी शादी अपने शहर से बाहर होती है उन सभी लड़कीयों के लिए यह एक तरह का स्थानांतरण ही होता है कम से कम मेरी समझ तो यही कहती है, हो सकता है आप सभी पढने वाले लोगों मेरे इस बात से सहमत ना हो......मगर मुझे तो ऐसा ही लगा था मेरे शादी के बाद नए लोग, नए रिश्ते,  नई जगह, सारा का सारा वातावरण एक दम नया, खाना पीना पहनना ओढना, सभी कुछ पूर्ण रूप से नया  ही अनुभव था इसलिए मैंने पहले भी कहा और अब एक बार और कह रही हूँ कि ये मेरे हिसाब से सभी लड़कियों की ज़िन्दगी का एक तरह का स्थानांतरण ही होता है. 


इस से जुदा मेरा दूसरा अनुभव जब हम लोग दिल्ली छोड़ करा गाज़ियाबाद की एक सोसाइटी Shipra suncity में जाके रहना पड़ा हालांकि हम लोग वहां केवल आठ (८) महीने ही रहना पड़ा. शुरू-शुरू में तो ऐसा लगा था मानो किसी शहर से उठा कर किसी गाँव में रहने के लिए बोल दीया हो. मगर धीरे-धीरे वहां अच्छा लगने लगा था, क्यूंकि वहां भी हमको पडोसी बहुत ही अच्छे मिले थे आज भी हमारी उनसे दोस्ती है और यहाँ इतनी दूर लन्दन में होने के बावजूद भी मैं उनको के बार बहुत miss किया करती हूँ तो फ़ोन पर बात कर लिया करती हूँ. मगर वो जो अनुभव था उस दिन का जब हम लोगों ने नई दिल्ली वाला अर्जुन नगर का घर छोड़ा था, उफ़ इतना सारा सामान सारा का सारा खुद पैक करना और भिजवाना. क्या रखो क्या छोड़ो कुछ समझ नहीं आ रहा था. बड़ी मुश्किलों से किसी तरह सारा सामान पैक करके भिजवाया था और जब हम वहां पहुंचे तो सोने पे सुहागा, हम सारे दिन के थके हारे हुए थे,  ऊपर से नए मकान में जब हम पहुंचे तो न तो वहां कोई लाइट के व्यवस्था थी और नहीं कोई पंखा इत्यादी, हमारा गर्मी और मच्छरों से बुरा हाल था,  ऊपर से सारा सामान भी पैक, तो ये भी नहीं पता की  कहाँ क्या रखा था क्या नहीं, वो तो ये अच्छा था की मनीष के एक दोस्त श्री मुकुट बिहारी जी वहां पहले से रहा करते थे तो उनकी महरबानी से, हमलोगों ने रात का खाना तो उनके घर में ही हो गया था. बस सोने की समस्या रह गई थी और वो एक रात हम लोगों कैसे निकाली थी, हम लोग ही जानते है और कभी भूल भी नहीं सकते. नया मकान होने के वजह से दुगने मच्छर और ऊपर से दुगनी गर्मी. हम लोगो ने पता नहीं उस रात कितनी कछुआ छाप अगरबत्तियां जला डालीं और जेट mats भी जला डालीं मगर मच्छरों से पीछा  न छुड़ा सके. फिर हार कर आधी रात को मनीष उठे, उन्होंने कूलर में पानी भर कर चलाया, तब कहीं जाके हम लोग वो एक रात निकाल पाए. उस रात हमारे उस नए घर में मात्र एक बल्ब  लग कर दिया था हमारे मकान मालिक ने, उस एक बल्ब के सहारे पूरी रात हम ने कैसे निकाली. उफ़.....

वहां आठ महीने बाद जब मनीष का selection cognizant में हो गया तो फिर न्यूज़ मिली कि हमको अब पूना शिफ्ट होना होगा,  तब भी मनीष तो बहुत खुश थे, मगर मेरा मन दो भागो में बंट गया था. पूना जाने के खुशी तो थी मगर घर छोड़ने का ज़रा भी मन नहीं था.  उन आठ महीनो में ही उस घर से ऐसी मधुर यादें जुड़ गयी थी,  कि उस आधार पर तो वहां से जाने का ज़रा भी मन नहीं हो रहा था मेरा कि मैं वो घर छोडूं ...मगर अपना सोचा हुआ हमेशा हो ही जाये ऐसा कम ही होता है और यहाँ ऐसी स्थिति में मुझे मेरे मन को वो कहावत समझनी पड़ी कि ''जाही विधि रखे राम ताही विधि रहिये'' मगर इस बार स्थानांतरण के समय समस्या और भी गंभीर लग रही थी कि इतना सारा सामान कैसे पूना पहुंचेगा. मन्नू भी बहुत छोटा था उस वक्त, उस के रहते कैसे सारा सामान पैक होगा.  हम दोनो में से किसी एक को ही लगना  पड़ेगा और एक को मन्नू को संभालना होगा और जो एक लगेगा पैकिंग में वो बहुत थक जायेगा. तब हमने तय किया कि इस बार हम खुद सामान पैक नहीं करेगे और फिर हमने Movers & Packers वालों को बुलाकार सारा सामान पैक करवाया और हमारे जाने से  एक दिन पहले ही सारा सामान पूना के लिए भेज दिया अब समस्या खडी हूई कि रात कहाँ और कैसे गुज़ारेगे हम. उस रात खाना तो हमने बाहर खा लिया था मस्त सर्दियौं के दिन थे, वो दिल्ली की कड़ाके वाली सर्दी थी उस रात 2-3 डिग्री temperature था. वो तो भला हो हमारे पड़ोसी 'वरुण मंगल' का जिन्होंने ने हमारे ऐसे समय में बहुत मदद की हमको सोने के लिए बिस्तर दिया. सर्दी से बचने के लिए heater दिया, कम्बल दिए. उस सब के लिए, आज भी उस मदद का सोच कर अच्छा ही निकलता है उन के लिए, जब सामान पैक हो रहा था तब हम ने मन्नू को उनके घर ही सुला दिया था. तब कहीं जाके हम दोनों मिल करा सामान पैक करवा पाए थे.  फिर अगले दिन हमारी फ्लाईट  थी Delhi to Pune तो उन्होंने हमको सुबह चाय नाश्ता भी करवाया, उनके उस मदद के लिए हम आज भी उनके शुक्रगुज़ार हैं. वो मेरी पहली  हवाई यात्रा थी, बहुत मज़ा आया था मुझे, उसमें मैंने बहुत मस्ती और एन्जॉय  किया था. उसके बाद हम पूना पहुंचे, वहां शुरू में हमको होटल में रुके थे करीब पन्द्रह दिन. शुरू में तो सब बहुत अच्छा लग रहा था मगर पन्द्रह दिन होटल का खाना खा-खा कर इतना बुरा हाल हो चुका था कि भूख लगना ही बंद हो गयी थी. मन ही नहीं होता था ज़रा भी, तब मुझे पता चला कि मेरी एक ममेरी बहन वहीँ रहती हैं, तब हम ने उन से contact किया, एक दिन उनका घर जाके खाना भी खाया, तो ऐसा लगा था मानो खाने के मामले में जन्नत मिल गई हो और इस दिन का एक मजेदार किस्सा और भी  है, हुआ ये था उस दिन कि जब हम को दीदी ने खाने पर बुलाया था न तब मैंने सोचा कि चलो मैं दीदी की मदद करवा देती हूँ खाना परोसने मैं, तो मैंने दीदी से पूछा कि बताइए कि कहाँ क्या रखा है में परोस देती हूँ. अब यहाँ मजेदार बात यह है कि दिल्ली में तो हमको आदत थी पंजाबी खान पान की और पूना में तो सारा का सारा culture ही बदल चुका था, तो स्वाभाविक है की खानपान भी पूर्ण रूप से अलग ही होना था और ऐसे में हुआ यह कि जब दीदी ने बोला परांठे परोसने के लिए तो मैंने उनसे पूछा कि हैं कहाँ हैं परांठे, तो दीदी ने कहा वहीँ तो है उसी में ही, तो मैंने उत्तर दिया कहाँ हैं इस में तो मुझे सिर्फ घी लगी रोटियां ही दिख रही हैं. बस मेरे इतना कहेने कि डर थी के दीदी ने तुरत कहा यार ऐसा मत बोल तू, वो घी लगी रोटियां नहीं परांठे ही हैं.....फिर तो सब लोग जो हँसे थे कि क्या बोलूं में खैर ...यह तो था पूना का अनुभव



फिर बारी आगई एक साल बाद पूना छोड़ने के बारी अब तो पूना ही क्या हमको देश छोड़ना था इसलिए इस अवसर पर मेरे और मनीष के परिवार आकर हमारे साथ रहे पूरे दो महीने और आखिर उसके बाद वो दिन आ ही गया जब हमको पूना छोड़ कर London के लिए निकल ना था, तब भी हमने यही तय किया कि mover and packers वालों से ही सामान Pack करवा कर जबलपुर भिजवा देंगे और हमने किया भी यही, जिस दिन हमने उनको बुलाया था उस ही दिन हमको पूना छोड़ कर  मुंबई के लिए निकलना था. शाम को इधर सामान जबलपुर गया और उधर हम लोग टेक्सी से मुंबई निकल गए. मुंबई की वो शाम भी में कभी नहीं भूल सकती उस दिन हम लोग निमिष भईया के घर रुके थे. इतनी मस्ती हुए थी उस रात के हमेशा याद रहेगी मुझे उनके सारे दोस्तों से मिलकर लगा ही नहीं मुझे कि मैं पहली बार मिली हूँ सब से. सबने इतना ध्यान रखा मेरा, कि जितनी तारीफ़ करूँ कम है हम सब लोगो ने उस दिन साथ मिलकर खाना बनाया था रोटियां बस बाहर से मंगवाई गयीं थी, फिर रात को ice -cream खाना, समुंदर के किनारे मस्ती करना बहुत अच्छा लगा था और उस मस्ती के बाद से तो मन्नू को भी निमिष मामा के साथ बहुत मज़ा आ रहा था फिर देर रात २ बजे तक गप्पे मारना, समय का पता ही नहीं चल रहा था किसी को, वो तो सुबह flight की मजबूरी थी वरना शायद उस रात कोई सोता ही नहीं, सब को मन मार कर सोना पड़ा था उस रात खैर ...अगले दिन हम Filght पकड़ कर London पहुंचे वहां का किस्सा तो और भी दिलचस्प  लगे शायद आप को, जिस रात हम वहां पहुँच उस वक़्त वहां भी तेज़ बारिश, कड़ाके की ठण्ड, सर्द हवाएं, सब एक साथ चल रहा था. कुल मिला कर मौसम  के मिजाज़ बहुत ख़राब थे, ऐसी हालत में हमको उस व्यक्ति का घर ढूँढना था, जिस के पास हमारे घर(गेस्ट हाउस) की चाबी थी और नए-नए इंडिया से आने के कारण हमको जरूरत से ज्यादा ही ठण्ड लग रही थी, तभी मनीष हमको यानि मुझे और मन्नू को हमारे ही घर कि bulding के सामने खड़ा करके चले गए उस व्यक्ति का घर ढूँढने,  जिस के पास हमारे घर की चाबियाँ थी. अब दिक्कत ये थी कि मनीष के पास ना तो UK सिम थी और न ही खुले पैसे की वो उस व्यक्ति को कॉल करके बुला सकें, उस के लिए हम दोनो को वहीँ अनजाने देश की उस सुनसान बरसाती हवा के साथ पड़ती कड़ाके की ठण्ड में छोड़ कर, पहले असद(departmental  store) जाना पडा जो की हमारे घर के ठीक सामने ही था. मगर मुझे उसकी जानकारी नहीं थी उस वक़्त पहले वो वहां गए फिर उस व्यक्ति को call किया उस का नाम वरुण था ..और उतनी देर में मन्नू को लिए ठण्ड में बाहर ही खडी और मन्नू ठण्ड के मारे मुझसे चिपका जा रहा था, यह बोल-बोल कर के मम्मा ठण्ड लगी. वो तो भला हो उस पडोसी का जिसने मुझे और मन्नू को यूँ सुनसान सड़क पर अकेला खड़ा देख कर हमारे बिल्डिंग का दरवाज़ा खोल दिया फिर मैंने उससे बताया कि हमारा घर भी इस बिल्डिंग में है मगर मेरे पास चाबी नहीं है और मेरे पतिदेव वही लेने गए हैं. उसने यह सुन कर हमारे लिए बिल्डिंग का दरवाज़ा भी खोल दिया और मेरा सामान भी बिल्डिंग के अंदर रखवा लिया.  थोड़ी देर बाद मनीष वरुण के साथ वहां पहुंचे और तब जाके हम अपने फ्लैट में पहुंचे और मैंने चैन की साँस  ली. दो महीने वहां रहने के बाद हम लोग Bournmouth पहुंचे  वहां भी काफी समय company guest house में रहने के बाद जाके हम को एक घर मिला और हम वहां शिफ्ट हुए,  फिर डेढ़ साल वहां रहने के बाद मनीष का प्रोजेक्ट फिर change  हुआ और हमको वहां से यहाँ Crawley शिफ्ट होना पड़ा. बताने के अनुभव तो इन दो जगहों के भी बहुत अच्छे-अच्छे हैं मगर यदि मैंने बताना शुरू किया तो फिर बहुत ही लम्बी कहानी हो जायेगी इसलिए फिलहाल इस विषय को में यहीं समाप्त करती हूँ और उम्मीद करती हूँ आपको मेरे यह स्थानांतरण के अनुभव भी पसंद आये होंगे और जो यदि न भी आये हों तो भी आपने अपने विचार मुझसे ज़रूर बांटीयेगा ...comments लिख कर.

Saturday 11 September 2010

Social Welfare in UK

अब इस के बारे में क्या कहूँ ,इस विषय पर बोलने को या लिखने को इतना कुछ है कि जितना भी लिखो उतना कम है. मुझे तो यही  नहीं समझ में आ रहा है कि कहाँ से शुरू करूँ. SOCIAL WELFARE क्या है - ये एक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें UK की सरकार उन सभी नौकरीपेशा लोगों से उनकी आय का 11 प्रतिशत National Insurance ( NI ) टैक्स लेती है और वही पैसा कुछ माध्ह्यमों से लोगों की सुविधाओं के रूप में उपलब्ध कराती है.


1. NHS (नेशनल हेल्थ सर्विस)
इसके अंतर्गत चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं में अंतर देखा जाये तो यह एक बहुत बड़ा अंतर है. हमारे देश में और यहाँ UK  में, जैसे यहाँ पर एक गर्भवती स्त्री को एक साल तक यानि कि  जब तक उसकी प्रसूति हो नहीं जाती तब तक पूरी चिकित्सा मुफ्त है उसकी सारी दवाइयों से लेकर जितनी भी चिकित्सा सम्बन्धी जरूरतें हैं वो सभी एकदम मुफ्त हैं यहाँ और अपने देश में (भारत) में उतना ही ज्यादा खर्चा  होता है.  कहने का मतलब यह है की चाहे वो  गर्भावस्था  हो या किसी  को किसी प्रकार का कोई रोग हो या अन्य कोई भी शारीरिक चिकित्सा हो या मानसिक  चिकित्सा हमारे यहाँ लोग डॉ. के  नाम से घबराते है  इसलिए नहीं कि वो इलाज कैसे करवाएगा,  अच्छा भी होगा या नहीं  बल्कि इसलिए की पता नहीं वो कितना पैसा लेगा.  कितना खर्चा होगा, रोग ठीक होगा  या नहीं वो नहीं सोचता कोई, बल्कि सब से पहले अगर लोगों के दिमाग में कोई बात आती है तो सिर्फ यही के खर्चा  कितना होगा इस रोग की चिकित्सा में, हम उठा भी पायेंगे या नहीं, खास कर एक आम आदमी तो इस बारे में सोच कर ही  रह जाता है और अपने रोग के साथ समझोता कर के ही अपनी पूरी ज़िन्दगी उस रोग से लड़ते-लड़ते खुद ही गुज़र जाता है.  मगर यहाँ ऐसा ज़रा भी नहीं है यहाँ तो सरकार  ने इतनी सुविधाएँ दे रखी हैं की जितना भी बोलो इस विषय में या जितनी भी उसकी तारीफ करो वो उतनी ही  कम है. जैसे मैंने पहले भी बताया यहाँ गर्भवती स्त्री को पूरे नौ महीने तक चिकित्सा सम्बन्धी कोई खर्चा नहीं उठाना पड़ता, उसका सारा इलाज मुफ्त किया जाता है यहाँ तक के प्रसूति भी, चाहे नोर्मल हो या ऑपरेशन से. सभी व्यस्को को डॉ. की कोई फीस नहीं देनी पड़ती बस दवाई के लिए मेडिकल स्टोर पर Prescription की तय फीस देनी पड़ती है. कोई भी दवा हो, एक ही फीस देनी पड़ती है और तो और जो लोग रिटायर्ड है, या अपंग है,या फिर मिलिट्री से हैं, उनको भी मेडिकल सम्बन्धी सारी चिकित्सा एकदम मुफ्त है TOTALY FREE. अब बात करे बच्चो की तो सोलह (१६) साल तक के सभी बच्चों की सारी चिकित्सा भी मुफ्त है किसी प्रकार की कोई फीस नहीं है ना. डॉ. को दिखाने की ना हीं दवाईयों का कोई खर्चा, सब फ्री है. यहाँ पर यदि सब से महंगा इलाज देखा जाये तो वो है आंख का और दांतों का, मगर यहाँ उसके लिए भी कुछ तयशुदा कायदे  कानून है जैसे बच्चो के लिए आँख और दांतों का इलाज भी फ्री है. हमारे यहाँ के तरह नहीं है कि यदि डॉ. मशहूर है तो उसकी फीस ज्यादा होगी और नहीं तो कम होगी या जिसका जितना मन करेगा वो उतना पैसा बतायेगा अपने मरीज़ को, सरकार का कोई क़ानून ही नहीं है कोन कितनी फीस लेगा. जबकि  यहाँ सब पहले से ही तय  है.  इस विषय  में यानि की  इस रोग की या इस समस्या कि चिकित्सा में इतना खर्चा  आता है तो उतना  ही आयेगा, फिर आप चाहे जहाँ जाके दिखा लो यानि की किसी भी और डॉ को दिखा लो, वो भी उतनी  ही फीस बतायेगा जितना की पहले वाले डॉ. ने आप को बताया होगा, यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी यहाँ की. जैसे :- मैं यदि खुद के एक अनुभव के बारे में आप को बताऊँ, मुझे अपने एक दांत में समस्या हो गई  थी और मुझे ये पता था के जब भी मैं इस समस्या को दिखाने जाउंगी डॉ. के पास, वो मुझे ROOT CANAL का ही  सुझाव देगा मगर मेरा यहाँ कोई REGISTRATION नहीं था जो के यहाँ दांत की चिकित्सा के लिए होना अनिवार्य  है, तब जब समस्या इतनी बढ़ गई कि सहना मुश्किल हो गया तब  मैंने अपना REGISTRATION  यहाँ के एक  DENTAL CLINIC में करवाया और करवाने से पहले  दो चार जगहों पर पता भी किया  कि क्या तरीका है. कहने का मतलब यह की  हर चीज़ के FIXED RATES हैं यहाँ, और मैंने डॉ को दिखाया और जैसा मैंने आपको पहले भी कहा कि उसने मुझे वही ROOT CANAL का सुझाव दिया उसके भी दाम निश्चित थे कि ROUTE CANAL + गोल्ड / सेरामिक CAPING की फीस £198. अब ऐसा नहीं था कि  उन्होंने ही इतना लिया हो बल्कि पूरे UK में कहीं भी, किसी भी जगह आप चले जाओ, आप को इतनी ही फीस देना होगी.  ऐसा नहीं होगा की कहीं और का डॉ. बहुत अच्छा है या बहुत मशहूर है तो वहां ज्यादा पैसा लगेगा आपका.  यहाँ में एक बात और कहना चाहूगी जोकि मुझे पसंद आया  और जिससे  मेरे पतिदेव भी सहमत हैं की यहाँ के डॉ अपने मरीजों को पूरी तरह समय देते है उनकी पूरी बात सुनते है फिर चाहे कितना भी समय क्यूँ न लगे उनको एक मरीज़ को देखने में. मगर हमारे यहाँ सभी डॉ ऐसा नहीं करते, बस शायद कुछ ही डॉ. ऐसा  करते हैं. जिस डॉ के पास ज्यादा मरीजों की लम्बी कतार हो वो तो अपने मरीज़ की पूरी बात को ज़रा भी नहीं सुनता. यह मेरा ही नहीं मनीष का भी अनुभव है जब उन्होंने अपने दांत का इलाज भारत में BHOPAL में करवाया था तब उनको वहां के सब से मशहूर डॉ अग्रवाल जो की एक बहुत ही बढ़िया दाँतों के डॉ माने जाते है उनको दिखाया था और उनका अनुभव यह रहा, उसके बाद की वो डॉ ऐसा है जो अपने मरीज़ कि बात तक नहीं सुनता कि  उसको समस्या कहाँ है और कितनी है बस ज़रा देखता है वो और अपने JUNIORS को बोल देता है की ऐसा करदो वेसा कर दो...जिस के कारण मरीज़ को ज़रा भी वो  मानसिक संतुष्टी नहीं मिल पाती जो की उसको मिलनी चाहिये  ..मगर ऐसा यहाँ नहीं होता ,और यहाँ तो एक बार NHS में REGISTRATION के बाद बाकि सारे इलाज मुफ्त में ही होते हैं बस केवल PRESCRIPTION  का खर्चा  होता है ,और वो भी सिर्फ बड़ों के लिए, बच्चों के  लिए तो वो भी मुफ्त है और कुछ खास बीमारियों के लिए आपके डॉ की अनुमति से आपका Excemption Card बन सकता है जिससे आपको Prescription का चार्ज भी नहीं लगता , कुछ बिमारियों के नाम हैं  Thyriod , Diebeties ... इत्यादी.


2 . Pensions
मगर यहाँ यही नहीं और भी कई  चीज़ों में लोगों को बहुत सी  सुविधाएँ उपलब्ध है जिसके कारण यहाँ के लोगों की ज़िन्दगी ज्यादा आसान लगती है हमारे देश में रहेने वाले नागरिकों के बनिस्बत  अब जैसे PENSION को ही ले लो हमारे यहाँ सिर्फ और सिर्फ जिसके पास सरकारी नौकरी है उसे PENSION मिला करती. मगर यहाँ ऐसा नहीं है यहाँ तो एक मामूली से TAXI DRIVER को भी PENSION मिलती है अब यहाँ CRAWLEY की ही बात ले लो यहाँ PAKISTAN से आये ज्यादा तर लोग Taxi  ही चलाते हैं और आराम से अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं खैर ये तो बात उनकी है जो बाहर से आये हैं  खैर....हम भी कहाँ से कहाँ आगये बात कर रहे थे welfare की और आगये Emotions पर  तो बात उनकी कर रही थी जो की यहीं के  है उनको सरकार  PENSION देती है ,जो लोग MILITRY से रिटायर्ड है उनको भी सरकार  PENSION देती  है जो लोग विकलांग है उनको भी और जो स्वाभाविक रूप से भी अपनी नोकरी से रिटायर्ड है उनको भी PENSION मिलती है यह सारी सुविधाएँ देख कर लगता है की यह सब हमारे देश में भी होना चाहिये पूरे तौर  पर न सही मगर कुछ तो होना ही चाहिये यह तो सब बड़े-बड़े उद्धरण थे जो मैंने आप को बताये


3. Tax Credits
यहाँ पर जो लोग किसी भी कारण बेरोजगार हैं तो उन्हें टैक्स क्रेडिट के तहत उनको अपना खर्चा चलाने के लिए सरकार हफ्ते के हिसाब से कुछ खर्चा देती है हालाँकि उसके भी कुछ कायदे क़ानून हैं जिनका मैं पूरा व्याख्यान नहीं करना चाहती. बच्चों को पालने के लिए भी सरकार खर्चा देती है. लेकिन ये सब फायदे हम को नहीं मिल सकते जब तक हमारे पासपोर्ट पर "No Recourse to Public Fund " लिखा है. यानी आपका पासपोर्ट जब तक British पासपोर्ट नहीं हो जाता.  

Wednesday 8 September 2010

My European countries experience

आज भी कभी जब मैं अपने मस्ती वाले या enjoyable days को याद करती हूँ तो सब से पहले मेरे दिमाग में चार  जगहों का नाम आता है. गोवा (भारत), यहाँ (UK), Switzerland और Paris (European countries).

अब अगर मैं गोवा की बात करूं तो क्या कहूँ वहां तो मैं honeymoon पर गई थी अब ये पढ़ कर तो आप सभी पढने वाले समझ ही गए होंगे कि वहां मुझे कितना मज़ा आया होगा, हमने बहुत सारी मस्ती की थी, दुनियादारी से परे खुल कर बिना किसी चिंता के बिलकुल आजाद पंछी के ज़िन्दगी गुजारी थी हमने वहां, कहने को वो केवल एक हफ्ता ही था मगर ज़िन्दगी के वो सबसे खुबसूरत दिन थे मेरे लिए, जिन्हें अगर मैं अपनी ज़िन्दगी की पुस्तक में लिखना चाहूं तो उसे सुनहरी अक्षरों से लिखना पसंद करुँगी आज भी जब वो दिन हम याद करते हैं तो ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो वहां का हर एक लम्हा जेसे हमारे लिए कीमती मोती या यूँ कहिये की हीरों के जैसा है. उन दिन को एक एक लम्हा हमारी ज़िन्दगी में आज भी महकता है और हमेशा महकता रहेगा वहां का हर एक लम्हा हमारे लिए एक महकते फूल की तरह है जिसकी खुशबू आज भी उत्तनी ही ताज़ा है जित्तनी के उन दिनों हुआ करती थी वो समंदर के किनारे की मस्ती वो बेधडक बिना मोटापे की परवाह किये चिकन खाना, Pastries खाना, वो रोज़ रोज मिलने वाले गुलाब के फूल का इंतज़ार, वो दिन की मस्ती वो रातों के खुमारी.... अगर मुझसे कोई पूछे की में अपनी अभी तक की ज़िन्दगी मैं से भी यदि अपने ज़िन्दगी के किसी एक हिस्से को असल में ज़िन्दगी का नाम देना चाहूं तो किसे दूंगी तो मेरा जवाब होगा GOA Golden days of my life ....खैर ये तो थी गोवा के बातें.

अब मैं शेयर करना चाहूंगी यहाँ अपने EUROPE के अनुभवों को, यहाँ आकर मैंने सब से पहली जगह देखी वो तो SWITZERLAND दिनांक १६-दिसम्बर २००७ भरी सर्दियौं मैं बर्फीली वादियौं में घूमने का एक अपना अलग ही अनुभव था वो, तब शायद ज़िन्दगी में मैंने पहली बार इतने गरम कपडे पहने होगे मगर सर्दी क्या होती है और किस हद्द तक हो सकती है. इस का पता मुझे -१३ डिग्री centigrade तापमान मे जाकर अहसास हुआ, ऐसा सर घुमा था मेरा कि आज भी याद है मुझे चक्कर आ गया था और मैं बर्फीले रास्ते पर से फिसल गई थी मैंने तभी अपने हाथ खड़े कर दिये थे कि मैं और आगे नहीं जा सकती... तब इन्होने मुझसे कहा तुम अंदर जाके restaurant में बेठो हम आते हैं और वहां जाने के बाद मैंने दो कप काफी पी और दो हॉट एंड चिली सूप भी पी डाले. पता भी नहीं किया कि उसमें क्या था क्या नहीं. उस वक़्त तो बस एसा लग रहा था कहीं से भी कैसे भी कुछ ऐसा मिल जाये जो शरीर को गर्मी दे सके, ऐसा ही एक बार तब भी हुआ था जब हमने GENEVA लैंड किया था और वहां भी कड़ाके की ठण्ड थी और सर्द हवाएं चल रहीं थी. झील के किनारे जो स्टील की रेलिंग लगी तो वो भी कम्पन से बज रही थी. लोग ऊनी टोपे पहने होने के बावजूद भी अपने दोनों हाथों से अपने कानो को ढके हुए निकल रहे थे मगर हम लोग इतनी कड़ाके के सर्दी मे भी फोटो खीचने और खिचवाने में लगे थे तभी जब ऐसा महसूस हुआ की अब ठण्ड बहुत जायदा बढ़ गई है तब कहीं जाके बड़ी मुश्किल से एक काफी शॉप मिली और हमने वहां जाके काफी ली और अपने पास रखे Egg sandwich खाए वहीँ हमको एक और हिन्दुस्तानी परिवार भी मिला जो कि Amsterdam  से आया था, जल्द ही हमारी दोस्ती भी हो गयी  और हमने उनके साथ भी अपनी sandwiches बाँट कर खायी. बहुत अच्छा लगा परदेस मे किसी हिन्दुस्तानी परिवार से मिलना. वहां हमने चार cities घूमी INTERLAKEN ,  BERN , ZURICH AND GENEVA . INTERLAKEN में हमको बहुत आसानी से हिन्दुस्तानी खाना मिल गया था मगर बाकि जगहों पर थोड़ी परेशानी का सामना करना पड़ा था क्यूंकि मन्नू (मेरा बेटा) छोटा था तो वो पिज्जा बर्गर जैसा कुछ भी नहीं खा पता था. मगर हाँ यहाँ मैं BERN मे खाए गए पिज्जा का स्वाद कभी नहीं भूल सकती उस दिन भी कड़ाके की ठण्ड थी, यहाँ तक कि बर्फ गिरना भी शुरू होगयी  थी और भूख से भी बुरा हाल हो रहा था तब हम वही के एक restaurant मे गए और पिज्जा मंगवाया और मिर्च के तेल के साथ उसने वो पिज्जा हमको खिलाया वैसा पिज्जा मैंने आज तक फिर कभी नहीं खाया. पिज्जा खाने का भी एक अलग सा ही अनुभव था वो मेरा. आज भी जब कभी मैं कोई भी पिज्जा मंगवाती हूँ या खाती हूँ तो एक बार BERN के उस restaurant Pizzeria को एक बार ज़रूर याद करती हूँ.

कुछ ऐसा ही मजेदार किस्सा हुआ था पहले दिन भी कहने को मजेदार था मगर अंदर से मैं थोडा डर गई थी वेसे तो ये बात सब से पहले बताने वाली है मगर मैं ही सब से आखिर में बता रही हूँ हम लोगों को Interlaken पर उतरना था. मैं और मन्नू हम दोनों तो उतर गए मगर मनीष (पतिदेव) नहीं उतर पाए और ट्रेन आगे निकल गई. उस वक़्त उन दिनों मेरे पास अपना खुद का मोबाइल भी नहीं हुआ करता था कि मनीष हम से संपर्क कर सकें. और तो और मनीष का मोबाइल मेरे पास था अब मुझे ये लगने लगा था कि मैं उनसे contact कैसे करूं.  उपर से मन्नू ने अपने पापा को न पाकर जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया. पहले तो मुझे इतनी घबराहट नहीं हुए थी मगर मन्नू के रोने से मैं बहुत घबरा गए थी कि क्या करूँ क्या न करूँ, कुछ समझ मैं नहीं आ रहा था और वो कहते है न विनाशकाले विपरीत बुद्धी ...बस इतना ही बहुत है कुछ ग़लत नहीं हुआ. मगर उस वक़्त मेरे दिमाग ने काम करना बिलकुल बंद कर दिया था और जो करता भी तो मन्नू के रोने ने मेरे हाथ पैर फुला दिए थे. तभी  मनीष ने किसी और के मोबाइल से मुझे कॉल करके बताया कि वो अगले स्टेशन पर उतर गए हैं और १० मिनिट में आ रहे हैं. तब कहीं जाके मेरी  जान मे जान आई ...क्योंके वहां सब से बड़ी अड़चन थी भाषा की, वहां इंग्लिश कम ही लोग जानते हैं ये सोच कर मैं और भी घबरा गयी थी ..खैर ये सब हुआ और उसके १० मिनिट बाद ही मनीष आगये और सब ठीक हो गया. ५ दिन हम लोगों ने खूब मस्ती की और "दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे" से प्रेरित होकर वो गाय के गले में बाँधने वाली घंटी भी खरीदी...सच कहते हैं लोग, धरती पैर स्वर्ग है SWITZERLAND . जित्तना खूबसूरत सर्दियों मे है उतना ही गर्मियों मैं भी ...ऊपर से हम लोग Christmas के आस पास वहां थे  तो वहां के रोनक्  और भी ज़यादा देखने लायक थी. बर्फ् से ढकी सजीली सड़कें चारों तरफ रौशनी ही रौशनी भरे हुए सजीले मार्केट. फुल ऑफ गिफ्ट आईटम्स, chocolates तो वहां खुली मिलती है ठेलों पर. बिलकुल हमारे हिंदुस्तान की तरह और तौल कर मिलती हैं.  हमलोग वहां से सबके लिए वही लाये थे, उपहार के रूप में देने के लिए और अच्छी बात तो ये है कि सबको पसंद भी बहुत आई  थी.

अब बात आती है PARIS की. यहाँ जाने का हमारा प्रोग्राम दो बार पहले भी बना, एक बार तो बस सोच कर ही रह गए थे दूसरी बार मनीष के दो colleague परिवार के सांथ जाने का प्रोग्राम बना मगर वो लोग तो गए,  हम नहीं जा पाए क्यूँकी मेरे नवरात्री का उपवास आ रहा  था बीच में, तो वहां फिर खाने पीने की समस्या हो जाती इसलिए हम लोगों ने मना कर दिया था कि हम नहीं जा पायेंगे. तब तक तो हम लोगों को Schengen वीसा भी नहीं मिला था ...उसके बाद इस बार जाके finally प्रोग्राम बना और हम लोग ७- अगस्त -२०१० को जापाये. पहले की बात करूँ तो में यह कह सकती हूँ की मन्नू को शायद पहले इतना मज़ा नहीं आता जितना की उसने इस ट्रिप में मस्ती की और वो बहुत उत्साहित भी था, EURO STAR TRAIN  को लेकर और DISNEY LAND के नाम से.
उसे अगर कुछ घूमना था PARIS में तो वो बस एक मात्र DISNEY LAND ही था और दूसरा इस ट्रेन का आकर्षण भी उसे बहुत बेसब्री से इंतज़ार था कि कब ट्रेन पानी में से निकलेगी मगर कब निकल गई हमको ही पता नहीं चला तो उसे कहाँ से चलता ..उसके दिमाग में शायद ये कल्पना थी कि जब वो ट्रेन से बाहर देखेगा तो उससे पानी दिखेगा. जैसे कि  अक्सर बच्चों कि कल्पनाये हुआ करती हैं ,मगर न तो उसको उसकी कल्पना के अनुसार ही कुछ मिला और न हमको ही ऐसा कुछ महसूस हुआ. इस ट्रेन का अनुभव कुछ वैसा ही रहा जैसे वो कहावत है "ना नाम बड़े और दर्शन छोटे". बस बिलकुल वेसे ही कुछ अलग या खास महसूस नहीं हुआ की ये इतनी FAST ट्रेन है तो कुछ अलग सा लगे, और मज़े कि बात तो ये लगी थी जब हम  वहां पहुचे तो वहां के स्टेशन(Gare Du Nord ) के पास वाली रोड पर ऐसा लगा ही नहीं के हम लोग PARIS में खड़े हैं. ऐसा लगा था मानो हम दक्षिण भारत में ही खड़े हों चारों तरफ केवल South INDIAN MARKET और INDIAN FASHION , यहाँ तक के साड़ियाँ भी मिल रही थीं. हमने वहां के खूब फोटो खींचे और वहीँ एक SOUTH INDIAN रेस्तोरेंट में खाना खाया और उसके बाद ट्रेन पकड़ी अपने होटल के लिए. इसके बाद मन्नू को वहां पहुँचते -पहुँचते तक EIFFEL TOWER का भी आकर्षण बहुत हो गया था क्यूंकि उसने  ट्रेन से EIFFEL TOWER देखा तो उसे बहुत मज़ा आया और बहुत उत्साहित भी हुआ, कि उसने सब से पहले इतनी दूर से ही देख लिया ..वेसे अगर सही मायने में कहो तो PARIS का एक मुख्य आकर्षण है EIFFEL TOWER,
दूसरा LOUVRE MUSEUM  और तीसरा DISNEY LAND . ये तीन ही जगह सब से जादा खास हैं. PARIS में वेसे देखने को बहुत कुछ है और ३ दिनो में लगभग हमने सभी कुछ घूम भी लिया था बस हमारा कुछ  छूटा था तो वो था बोट का NIGHT TRIP जो की वहां कि एक खास आकर्षण कि श्रेणी में आता है. वहां पहुँचते से ही हम लोगों ने घूमना शुरू कर दिया था. वैसे तो आम तोर पर काम चल गया मगर वहां एक बात जो पसंद नहीं आयी हमको वो तो "भाषा" यानि कि वहां सैलानियौं के लिए भी कहीं इंग्लिश में कुछ नहीं लिखा था हर जगह सब कुछ बस फ्रेच भाषा मैंने ही था तो कहीं -कहीं थोड़ी बहुत दिक्कत का सामना  करना पडा, और ये बात मुझे कुछ ज्यादा ही महसूस हुई क्यूँकि जब हम वापस लौट कर CRAWLEY आये यानि (UK ) आये तो ऐसा लगा मानो अपने ही देश में वापस आये हों जो की मुझे आज से पहले कभी नहीं लगता था (UK) में ये एहसास मुझे हमेशा भारत जाने पर ही महसूस हुआ करता था, अपना देश अपनी मिटटी वाला एहसास वो मुझे FRANCE से वापस आने के बाद हुआ, UK में ये मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात लगी मुझे अपने आप मैं. खैर जो भी हो हम ने खूब मस्ती की और घुमने का भरपूर लुफ्त भी उठाया.

मन्नू को भी DISNEY LAND बहुत पसंद आया उसका तो मन ही नहीं हो रहा था, वहां से वापस आने का Incidence मुझे आज भी याद है उसने कहा था, हमसे की जब सारे कार्टून्स सोने जाएंगे तब हम घर चलेंगे माँ ...और वहां से आने के बाद भी कई बार उसने कहा था, मुझे DISNEY LAND की याद आ रही है, मुझे वहां वापस जाना है और EIFFEL TOWER का भी कम उत्त्साह नहीं था. उसने ५-६ Keyrings भी लिए जिसमें EIFFEL TOWER के MINIATURE रेप्लिका लगे हुए थे हम लोगो ने भी सब से ज्यादा Effiel  Tower ही ENJOY किया था क्यूंकि वो हमारे होटल के बहुत करीब था, इतना कि बस ५ मिनट का रास्ता. तो लगभग रोज़ ही देखा करते थे हम. दूसरा हमको सब से ज़यादा कुछ पसंद आया तो वो था LOUVERE MUSEUM वो तो इतना बड़ा है कि एक दिन में घूम पाना तो संभव ही नहीं है.  वहां का हर एक section अपने आप में अद्भुत है चाहे वो चित्रकारी का हो, या फिर मूर्ति कला सभी कुछ अपने आप में बहुत अद्भुत है. वहीँ उसके अंदर एक NAPOLEON का महल भी है . उसमें जो राजसी चमक देखने को मिलती है आज भी वैसे ही है. इतने सालों बाद जैसे वहां के लोगों ने उसे संभाल कर रखा हुआ है वो सच में देखने लायक है. जिसे देख कर आज भी लोगों के आंखें चोधिया जाती हैं और सच में महसूस होता है की सच में ऐसा होता है महल. मगर इसका मतलब ये हर्गिज़ नहीं की भारत में ये सब देखने को नहीं मिलता. असल मैं मैंने नहीं देखा इसलिए मुझे यहाँ का ज्यादा अच्छा लगा. भारत में भी ये सब होगा मैंने नहीं देखा है की वहां कैसा है, क्या है मगर हाँ यहाँ के जैसी  देखभाल वहां भी है या नहीं ये में नहीं कह सकती. मगर हाँ इतना ज़रूर कह सकती हूँ की  एहसास ज़रूर एक सा है जो वहां की राजा या रानी के सामान को देखकर लगा यानि जो दिमाग में एक कल्पना बनती है, कि रानी ऐसी लगती होगी, वैसा राजा लगता होगा. जब वो लोग इन चीज़ों को इस्तेमाल करते होंगे. वो एहसास एक से हैं क्यौंकी मैंने भारत में ऐतहासिक जगहों के नाम पर GWALIOR का किला और दिल्ली की जगहों को ही घूमा है और वहां भी वो सब देखकर मुझे ऐसा ही महसूस हुआ था. ऐसी ही कुछ कल्पनाये बनी थी मन में.... खैर मुझे अपने बिंदु से भटकना नहीं चाहिये, मैं बात कर रही थी तो PARIS की वेसे तो हमको यहाँ जितने  भी हिन्दुस्तानी परिवार जो कि हम से पहले Paris  घूम कर आ चुके हैं उन्होंने पहले ही काफी कुछ बता दिया था मगर फिर भी थोडा तो आश्चर्य लगता ही है. कि ऐसी जगह जहाँ कोई  इंग्लिश नहीं समझ  रहा हो और आप को सुने मिले ''रस्ते का माल सस्ते में, १ EURO में ५ कीरिंग लेलो'' तो आप बहुत ही अचंभित तरीके से प्रतिक्रिया करते हो वेसे ही जब किसी नीग्रो के मुंह से नमस्ते सुनो तो भी बहुत अजीब लगता है या यूँ कहो कि मुझे लगा,  क्यूंकि मैंने आज तक अंग्रेजों के मुंह से तो बहुत हिंदी सुनी थी मगर कभी किसी नीग्रो के मुंह से नहीं और ऐसे में जब वो आप से बोले "नमस्ते कैसे हैं आप, सब चंगा" तो बहुत ही अजीब लगता है. मुझे तो लगा......सबको लगता है या नहीं वो मुझे पता नहीं ...मगर इस ट्रिप का भी अपना एक अलग ही मज़ा था अपना एक अलग सा अनुभव जो मुझे हमेशा याद रहेगा ... वहां हमने जितना पिज्जा और बर्गर खाया था उतना पहले कभी नहीं खाया. वापस आने के बाद तो जैसे इन चीज़ों से नफरत सी होगी थी, मन ही नहीं करता था. बहुत दिनों तक इन चीज़ों की तरफ देखने तक का, हम तो हम मन्नू का मन  भी नहीं जबकि उसको पिज्जा बेहद पसंद है मगर वो भी यहाँ आने क बाद साफ़ मना कर देता था की वो नहीं खाना. सादा खाना चाहिये. वो ४ दिन कैसे निकल गए पता ही नहीं चले और अब बस यादें -यादें रहे जाती हैं ....