"कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी बड़ा अजीब होता है
गुज़रता भी वहीं से हैं जहां रास्ते नहीं होते"
हज़ार ख्वाइशें ऐसी की हर ख्वाइश पर दम निकले,
जितने भी निकले मेरे अरमान बहुत कम ही निकले....
हर इंसान के साथ आख़िर ऐसा क्यूँ होता है। किसी के पास सब कुछ है, तो भी उसे और भी बहुत कुछ पाने की चाह है और जिसके पास कुछ भी नहीं उसे तो किसी न किसी चीज़ की चाह होना लाज़मी है ही, क्यूँ कभी कोई इंसान संतुष्ट नहीं होता ? शायद इसलिए, कि जिस दिन इंसान अपने आपसे संतुष्ट हो गया उस दिन उसकी आगे बढ़ने की चाह ख़त्म हो जायेगी और यदि ऐसा हुआ तो उसका विकास रुक जायेगा। इसलिए शायद किसी ने ठीक ही कहा है।
"इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफन के बाद"
मगर जैसा कि मैंने उपरोक्त पंक्तियों में कहा है कि कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी अजीब होता है। जब तक मंज़िल मिल नहीं जाती तब तक ऐसा ही महसूस होता रहता है, कि इन ख्वाइश के पूरा होने के लिए कोई रास्ता ही नहीं है। कुछ ख्वाइशों को तो हम भूलकर अपने जीवन में आगे बढ़ते रहते हैं मगर वास्तव में उन्हें भी हम भूला नहीं करते कहीं न कहीं हमारे मन में वो ख्वाइशें सदा बनी रहती हैं। जिनको लेकर यही लगता है कि काश यह ख्वाइश कभी पूरी हो पाती तो कितना अच्छा होता। मगर इंसान के जीवन में कुछ ख्वाइशें ऐसी भी होती हैं। जिसका उसे यकीन होता है,कि यह तो पूरी हो ही सकती हैं और होती भी हैं मगर यह ज़रूरी नहीं होता की एक बार के प्रयास से ही वो पूरी हो जायें, कई बार बार-बार प्रयास करने पर भी सफलता देर से हाथ लगती है। जिसके कारण हम कभी-कभी बहुत ही हताश और निराश हो जाते हैं ऐसे में जरूरत होती है धेर्य रखने की जो कुछ लोग ऐसी परिस्थिति में नहीं रख पाते।
नतीजन कभी-कभी तो स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि कुछ पलों के लिए ऐसा भी लगने लगता है कि अब तो बस दुनिया ही ख़त्म है। अब कुछ बचा ही नहीं जीने के लिए, ऐसी परिस्थियों के चलते कुछ लोग तो इस कदर हताश और निराश हो जाते है, अपनी ज़िंदगी से कि आत्महत्या जैसा गंभीर कदम तक उठा लेते हैं। उस वक्त हम अक्सर यह भूल जाते हैं, कि "जहां चाह हो वहाँ राह भी निकल ही आती है" इसलिए किसी भी परिस्थिति से घबराना नहीं चाहिए बल्कि ठंडे दिमाग से उसका हल निकालने के बारे में सोचना चाहिए। मगर उस वक्त और उन हालातों में उस इंसान की मनस्थिति इन बातों को समझने की शक्ति जैसे खो ही देती है। तब दिमाग में अधिकतर नकारात्मक खयाल ही ज्यादा आते है। कोई समझाये तो भी कुछ समझ नहीं आता है, बस एक ही बात मन में रह-रह कर उठती है, कि जिस पर गुज़रती है वही जानता है। कहना बड़ा आसान होता है, या यूं कहिये कि किसी दूसरे को समझना भी एक बार आसान लगता है, मगर जब वही स्थिति खुद पर आती है, तो अक्सर हम खुद को ही नहीं समझा पाते कि क्या सही है और क्या गलत। तब हमारे मन में भी तो यही आता है ना!!!
नतीजन कभी-कभी तो स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि कुछ पलों के लिए ऐसा भी लगने लगता है कि अब तो बस दुनिया ही ख़त्म है। अब कुछ बचा ही नहीं जीने के लिए, ऐसी परिस्थियों के चलते कुछ लोग तो इस कदर हताश और निराश हो जाते है, अपनी ज़िंदगी से कि आत्महत्या जैसा गंभीर कदम तक उठा लेते हैं। उस वक्त हम अक्सर यह भूल जाते हैं, कि "जहां चाह हो वहाँ राह भी निकल ही आती है" इसलिए किसी भी परिस्थिति से घबराना नहीं चाहिए बल्कि ठंडे दिमाग से उसका हल निकालने के बारे में सोचना चाहिए। मगर उस वक्त और उन हालातों में उस इंसान की मनस्थिति इन बातों को समझने की शक्ति जैसे खो ही देती है। तब दिमाग में अधिकतर नकारात्मक खयाल ही ज्यादा आते है। कोई समझाये तो भी कुछ समझ नहीं आता है, बस एक ही बात मन में रह-रह कर उठती है, कि जिस पर गुज़रती है वही जानता है। कहना बड़ा आसान होता है, या यूं कहिये कि किसी दूसरे को समझना भी एक बार आसान लगता है, मगर जब वही स्थिति खुद पर आती है, तो अक्सर हम खुद को ही नहीं समझा पाते कि क्या सही है और क्या गलत। तब हमारे मन में भी तो यही आता है ना!!!
"जाके पैर न फटे बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई"
वैसे देखा जाये तो ऐसी परिस्थियाँ आमतौर पर सभी के जीवन में एक न एक बार ज़रूर आती हैं। कुछ लोग इन परिस्थियों से पार पा जाते है। तो कुछ लोग इन से जूझते रहते है और कुछ वो जो हारकर कोई गलत कदम उठा लिया करते हैं। मैं यह तो नहीं कहती, कि ऐसा बड़ों के साथ कम और बच्चों के साथ ज्यादा होता है। लेकिन देखा जाये तो यह भी गलत नहीं होगा। माना कि ऐसी परिस्थियाँ दोनों के जीवन में ही आती है, मगर बड़े लोग खुद पर शायद काबू पाने में थोड़े ज्यादा सक्षम होते हैं। बच्चों से यहाँ मेरा तात्पर्य (टीनएजर्स) से हैं यानि कि 13,14 साल के बच्चों से लेकर 20,22 साल तक के लोग। मुझे ऐसा लगता है, कि यही वो आयु वर्ग है जो जीवन में आने वाली नित-नई परिस्थियों का सामना करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ना सीख रहे होते हैं और उस वक्त उन बेचारों की गिनती न तो बच्चों में होती है और ना ही बड़ों में जिसके कारण वह कभी-कभी परिस्थितियों के अनुसार सही निर्णय नहीं ले पाते। शायद यही एक कारण हो, कि परीक्षा में फेल हो जाने जैसे मामूली कारण को भी वह झेल नहीं पाते और बात आत्महत्या जैसा गंभीर रूप धारण कर लेती है या फिर प्यार में नाकायाबी भी कुछ हद तक ऐसा ही गंभीर परिस्थिति में ला खड़ा कर देती है।
ऐसा केवल मेरा कहना या मानना नहीं है, बहुत सारी फिल्मों में भी यह बात दिखाई गई है। फिर चाहे वो 3 Idiots जैसी कोई फिल्म हो या फिर मुन्ना भाई MBBS जैसी कोई फिल्म, खैर हम बात कर रहे थे उन टीनएजर
बच्चों के भटकने की वैसे देखा जाये तो गलती उनकी भी नहीं है आज कल के आधुनिक युग में बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा ने बच्चों और अभिभावकों दोनों को इस कदर हैरान परेशान कर रखा है कि शायद दोनों ही अपने-अपने दायित्वों को भूलकर बस भागे चले जा रहे हैं इस प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में, जिसके चलते इसका सबसे ज्यादा दबाव पड रहा सिर्फ और सिर्फ बच्चों पर, जहां उनको हर ओर से मात्र इतना कहा जा रहा है और समझाया जा रहा है कि
"जीवन एक दौड़ है यदि तुम तेज़ नहीं भागोगे तो
कोई और तुम को कुचलकर आगे निकल जाएगा"
इसलिए बस भागो और हमेशा अव्वल आने की कोशिश में लगे रहो। मगर कोई उनसे एक बार भी यह पूछने का कष्ट नहीं करता कि तुम क्या चाहते, और जो भी चाहते उसको करने के लिए सही तरीका क्या है। जबकि मेरे हिसाब से तो अभिभावकों को खुद आगे बढ़कर अपने बच्चे की इच्छा अनुसार उसका मार्ग दर्शन करना चाहिए। मगर अफसोस कि आज के इस युग में भी बहुत ही कम अभिभावक ऐसा कर पाते हैं। मेरी तो यह समझ में नहीं आता की जब अभिभावक खुद उन परिस्थितियों से गुज़र चुके होते हैं तो फिर वो बजाए अपने उन अनुभवों को अपने बच्चों के साथ सांझा करने के उन पर अपनी मर्ज़ी क्यूँ थोपते है। ? फिर चाहे वो मामला पढ़ाई लिखाई का हो या प्यार मोहब्बत का, बाकी मुझे तो ऐसा लगता है, कि उस उम्र में तो माता-पिता को बच्चों से दोस्तों जैसा व्यवहार करते हुए अपने जीवन के ऐसे अनुभवों को अपने बच्चों के साथ सांझा करना ही चाहिए। इससे ना सिर्फ बच्चे आपके और भी करीब हो सकते हैं। बल्कि उनको अपने जीवन में आने वाली वैसी परिस्थियों से लड़ने की प्रेरणा भी मिल सकती है।
अन्तः बस इतना ही कहना चाहूंगी की परीक्षा का समय नजदीक आ रहा है और फिर उसके बाद परिणाम, हमारी कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि हम न सिर्फ अपने बच्चों को बल्कि दूसरों के बच्चों को भी इतना प्रोत्साहन दें कि उसका मन भी आगे आने वाली परिणाम रूपी समस्या से जूझने के लिए मजबूत हो सके और यदि संभव हो तो अपने आसपास रह रहे ऐसे अभिभावकों को भी समझाने की कोशिश करें कि यदि परिणाम अच्छा न भी आया तो भी बच्चों को शांत मन और ठंडे दिमाग से समझाये न की उसको यह एहसास दिलाये कि उसने अव्वल न आकर समाज में उनकी नाक कटवादी अब तेरे लिए दुनिया ख़त्म ....
मुझे तो केवल एकमात्र यही एक तरीका सही नज़र आता है आपको क्या लगता है?