मैंने इस blog के जरिये अपने जिन्दगी के कुछ अनुभवों को लिखने का प्रयत्न किया है
Sunday, 29 December 2013
विदेश का खोखला आकर्षण
आज हर कोई विदेश आने को उत्सुक है। बस इस एक अवसर की तलाश में लोग गिद्ध की भांति नजरें गड़ाए बैठे रहते हैं। इसका कारण उनसे पूछो तो वे कहते हैं कि विदेश में काम के बदले अच्छा पैसा मिलता है। वहां भ्रष्टाचार बहुत कम है। अपने देश भारत में तो जीवन कई तरह से असुरक्षित हो चुका है।
विदेशों में भौतिक विलासिता की ओर बढ़ते जनजीवन के रुझान ने एशिया प्रशांत के अविकसित, अल्पविकसित व अर्द्धविकसित देशों के लोगों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। भारतीय लोगों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है। इस समय एशिया, अफ्रीका के अनेक देशों में अपनी पुरासंस्कृति से दूर होने और आधुनिकता के सिरमौर यूरोपीय पूंजी-संस्कृति को अपनाने की होड़ सी मची हुई है। हालांकि इन देशों के कुछ लोग यूरोप के इस पूंजीगत प्रभाव के दुष्परिणामों से भलीभांति परिचित हैं और वे इनको दूर करने के लिए अपने देश के लोगों को अपनी धरती व देश से जुड़े रह कर रोजगार, उद्यम करने को प्रेरित कर रहे हैं। चूंकि अधिकांश लोग वैश्विक रूप से पनप रहे एक प्रकार के विनाशी वातावरण को आत्मसात किए हुए चल रहे हैं इसलिए स्वदेशी संस्कृति और वैश्विक कुसंस्कृति के बीच के अंतर को समझने की उनकी दृष्टि कुन्द पड़ चुकी है। दूसरी-तीसरी दुनिया के देश जिसे “वैल्यू ऑफ लाइफ” समझते हैं वास्तविक रूप से वह कुछ और ही है और इसका सही-सही आकलन दूर से नहीं लगाया जा सकता। विदेशों में बसने का सपना देख रहे लोगों को यह कड़वा अनुभव उन्हें वहां जाने के बाद ही समझ आता है।
आज के इस आधुनिक युग में फर्राटेदार अँग्रेजी बोलता बच्चा सभी को बहुत लुभाता है। विदेश में शिक्षा ग्रहण करना भारत में हमेशा से ही बड़े गर्व की बात समझी जाती रही है। अब भी ऐसा ही प्रभाव व्याप्त है। पहले केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए ही बच्चों को विदेश भेजा जाता था, लेकिन आज के अभिभावक ये चाहते हैं कि उनके बच्चे की प्रारंभिक और उच्च शिक्षा विदेश में ही हो। इसमें माता-पिता को ज्यादा गर्व होता है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। अगर विशुद्ध पढ़ाई की बात की जाए तो विदेशी बच्चे भारतीय बच्चों की तुलना में उन्नीस ही सिद्ध होते हैं। भारतीय लोगों का ये सोचना कि यूरोपीय देश में जीवन बेहतर तरीके से जिया सकता है और इसमें वहां की शिक्षा महत्वपूर्ण योगदान देती है, एकदम गलत है। असल में यहां के समृद्ध जीवन के पीछे शिक्षा का कम और परिवार इकाइयों का आर्थिक रूप से समृद्ध होने का ज्यादा योगदान है।
अगर भारत की पढ़ाई किसी भी लिहाज से कमतर होती तो आज मैं यहाँ विदेश में नहीं बैठी होती और विदेशी अपने ही देश में अपनी ही नौकरियों के छिनने के कारण असुरक्षित नहीं होते। मैंने अपनी पूरी पढ़ाई-लिखाई अपने देश में रहकर ही की है। वहीं की शिक्षा-दीक्षा का ही असर है कि आज मैं ठोक बजाकर कह सकती हूँ कि भारतीय शिक्षा पद्वति में यूरोपीय शिक्षा पद्वति से अधिक गुणवत्ता है। देशवासियों को जान कर आश्चर्य होगा कि यहाँ लंदन की युवा पीढ़ी मतलब “टीनेजर”, इनमें भी खासकर लड़कियां आज कई खतरों से घिरी हुई हैं। कारण है युवाओं की गुटबाजी। सामान्य तौर पर गुटबाजी को बहुत आम बात माना जाता है क्योंकि यह चलन तो भारत में भी बहुत पहले से रहा है। लड़कों-लड़कियों के गुट में शामिल लड़कियां यहां आमतौर पर बलात्कार, सामूहिक सेक्स हिंसा की शिकार होती रहती हैं। खासकर लंदन में तो ऐसी घटनाएं युवाओं के जीवन का एक जरूरी हिस्सा बनती जा रही हैं। इस विषय को लेकर शासन, शिक्षक और अभिभावक बहुत परेशान हैं। युवाओं को ऐसे रास्तों पर चलने से रोकने के लिए आजकल यहां की पुलिस ही नहीं बल्कि कई समाजसेवी संस्थाएं और विश्वविद्यालय विशेष अनुसन्धान कर रहे हैं।
यहां बच्चों और युवाओं के समूह को गैंग कहा जाता है। ये अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। हर गैंग के अपने कुछ नियम-कानून होते हैं, जिनका पालन करना गैंग के सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य है। कोई भी इन नियमों का पालन करने से इनकार नहीं कर सकता। फिर चाहे उसकी मर्जी हो या न हो। कई बार तो गैंग के निर्धारित नियमों का उसके किसी सदस्य द्वारा उल्लंघन किए जाने पर उसकी जान तक का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
आखिर ऐसे गैंग बनते ही क्यूं हैं। इसके अनेक कारण हैं। पहला, यहाँ एक परिवार में कम अंतराल पर 4 से 5 बच्चे होते हैं। अभिभावक सबका ढंग से ध्यान नहीं रख पाते। बच्चा या बच्ची खुद को अकेला महसूस करने लगता है। घरवालों द्वारा उसकी अनदेखी होते रहने के कारण उसे अपनी अहमियत की जरूरत महसूस होती है। गैंग का मुखिया ऐसे बच्चे को भरमाने में देर नहीं लगाते और इस प्रकार एक अच्छे-भले परिवार का बच्चा कानूनन अवैध घोषित गैंग में शामिल हो जाता है। दूसरा, स्कूल में बड़ी कक्षा के बच्चों का छोटी कक्षा के बच्चों पर शारीरिक और मानसिक दबाव बनाना। बड़ी कक्षा के बच्चों का छोटी कक्षा के बच्चों से नौकर की तरह काम करवाना। छोटे बच्चों को यह सब पसंद है या नहीं इसकी चिंता बड़े बच्चे बिलकुल नहीं करते। डरा-धमका कर वे अपने से छोटे आयु-समूह के बच्चों से मनमाने और गलत व्यवहार करते हैं। बेशक यह सब स्कूली नियमों के विरुद्ध हो, पर इनकी हरकतें रुकने का नाम नहीं लेतीं। भारत में कॉलेज जानेवाले विद्यार्थियों के साथ रैंगिंग के नाम पर जो उल्टा-सीधा व्यवहार किया जाता है, वह यहां छोटी कक्षाओं में ही शुरु हो जाता है। तीसरा, कामकाजी माता-पिता घर में ज्यादा समय नहीं दे पाते। यह ध्यान देने वाला कोई नहीं होता कि बच्चा क्या कर रहा है, कहाँ जा रहा है इत्यादि। चौथा, किसी गुट की गुंडागर्दी, छेड़छाड़ से बचने के लिए बच्चा या बच्ची अपने मनपसंद गैंग का हिस्सा बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि अब उनसे कोई बत्तमीजी नहीं कर सकता। इस प्रकार की गलत युवा-गतिविधियों के चलते किसी भी नवयुवक या नवयुवती का गैंग से प्रभावित होकर उसमें शामिल हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
ऐसे गैंग यहां बड़ी आसानी से पहचाने जा सकते हैं। सड़क पर हल्ला-गुल्ला करना, शोर मचाना, गंदगी फैलाना, गंदे शब्दों या गालियों का प्रयोग करना इनकी सामान्य गतिविधियां हैं। महंगे ट्रेक सूट, कूल्हों पर पोछानुमा भद्दी जींस, हुडवाली जेकेट या टोपी पहने लड़के रास्तों पर शोर मचाते, मस्ती करते हुए अकसर दिखाई पड़ जाते हैं। धुआँ उड़ाते और अपने साथियों को गन्दे स्ट्रीट नामों से जोर-जोर से पुकारते हुए इन्हें प्राय: देखा जा सकता है।
युवा होते बच्चों के माता-पिता के लिए यह समस्या एक डर का कारण बनती है, जिसके चलते परिवार में एक अजीब सी असमंजस की स्थिति बनी रहती है। खासकर एशिया मूल के अभिभावकों के लिए तो ऐसी परिस्थिति से समझौता करना और भी मुश्किल होता है। चूंकि उनके धार्मिक, राष्ट्रीय संस्कार अपने बच्चों को ऐसे कुपथ की छंटनी करने की इजाजत नहीं देते इसलिए उनके सिर पर रोजगार, काम, परिवार की जिम्मेदारियों के साथ-साथ बच्चों के प्रति ज्यादा सचेत रहने की जिम्मेदारी का बोझ भी आ जाता है। इस तरह के नकारात्मक व्यवहार के साथ समझौता करना माता-पिता को अनचाहे ही अवसादग्रस्त बना देता है।
हिन्दुस्तान में आमतौर पर अभिभावक लड़की के पालन-पालन, उसकी सुरक्षा के लिए ज्यादा चिंतित रहते हैं, लेकिन विदेश और खासकर लंदन में रहनेवाले एशियाई माता-पिता के लिए गैंग-संभावित क्षेत्र में लड़के को बड़ा करना ज्यादा बड़ी चुनौती होती है। वे चाहते तो हैं कि उनका बेटा भी बाहर की दुनिया में घुले-मिले, घूमे-फिरे, दोस्त बनाए और अनुकूल माहौल में अपने आपको ढालना सीखे, लेकिन एक डर उन्हें हमेशा घेरे रहता है कि अपने हमउम्रों की तरह बनने के चक्कर में उनका बेटा या बेटी अनजाने में कहीं किसी आपराधिक गैंग का हिस्सा न बन जाए।
अभी पिछले दिनों लंदन के एक अखबार ‘लंदन इवनिंग स्टैंडर्ड’ की खबर के मुताबिक एक संस्था ने आपराधिक गैंग के विषय पर शोध किया। इसके जो नतीजे सामने आए वह वास्तव में दिल दहला देनेवाले थे। संस्था के शोध के अनुसार दो सालों से हो रही जांच-पड़ताल के बाद इस तरह के गैंग में शामिल होनेवाली लड़कियों के शारीरिक शोषण की बात सामने आई है। स्कूली बच्चों के विषय में ऐसी बात सुन कर अभिभावकों को धक्का लगना स्वाभाविक है। यहाँ की केवल 11 साल की स्कूली लड़कियों के साथ बलात्कार ही नहीं बल्कि सामूहिक बलात्कार भी हो चुके हैं। जबकि किसी आपराधिक गैंग में शामिल सभी टीनएजर लड़कियों के साथ बलात्कार होना बड़ी सामान्य बात हो गई है। रेप शब्द अब लड़कियों की जिंदगी का एक आम हिस्सा बन गया है।
शोध करनेवाले संस्थान ने लड़के और लड़कियों के गैंग के बारे में 180 लोगों से बात की। लोगों की राय के आधार पर उक्त संस्थान का दावा है कि अकेले लंदन में 2,500 लड़कियां बलत्कृत होने के खतरे से जूझ रही हैं। उनके अनुसार लोगों का खुल कर इस बारे में बात नहीं करने से ऐसे मामलों की गिनती कम ही दर्ज की जा सकी। जबकि हकीकत कुछ और ही बयां करती है। अपने स्तर पर संस्था ने जो शोध-पत्र तैयार किया है उसमें अकेले लंदन में ही लगभग 3,500 गैंग सदस्य हैं, जिसमें से लगभग 2,500 जेल जा कर बाहर भी आ चुके हैं। अगर हर गैंग के सदस्य की एक-एक गर्लफ्रेंड भी होगी तो करीब 3500 के करीब लड़कियां हमेशा रेप के खतरे में हैं। जबकि गैंग के कई सदस्य तो ऐसे हैं जिनकी 10-10 गर्लफ्रेंड्स भी हैं। इनमें से कुछ लड़कियां तो 21 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते पांच बच्चों की मां बन चुकी होती हैं।
इस मामले पर काम कर रही संस्था और बेडफोर्डशायर विश्वविद्यालय ने जब ऐसे ही किसी गैंग की एक लड़की से बात की तो इन्हें ज्ञात हुआ कि गैंग की सदस्य लड़कियां उस गैंग के लड़कों के लिए एक मांस के टुकड़े से ज्यादा और कुछ नहीं हैं। गैंग में शामिल लड़की गैंग द्वारा थोपे गए वातावरण से इतनी दिग्भ्रमित हो जाती है कि स्कूल के गेट से बाहर आते ही उसका इंतजार करता हुआ लड़का जब उसको कहता है कि मेरे साथ चलो तो वह उसे मना नहीं कर सकती, क्योंकि गैंग के नियम के अनुसार लड़की के पास ‘ना’ कहने का कोई विकल्प ही नहीं है। यदि एक लड़की एक लड़के से शारीरिक संबंध बना भी ले तो इस पर उसकी जान नहीं छूट सकती। इसके अलावा गैंग के अन्य लड़के भी उसी लड़की के साथ संबंध बनाना चाहें तो वह लड़की मना नहीं कर सकती। इस प्रकार एक मासूम लड़की वासना में लिप्त कुत्तों के लिए मांस के टुकड़े के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहती। जिसका बारी-बारी सभी उपभोग करना चाहते हैं और करते भी हैं। पुलिस के अनुसार इस तरह से पीड़ित कोई भी लड़की गैंग या इसके किसी लड़का सदस्य के विरुद्ध कभी कोई शिकायत दर्ज नहीं कराती।
साक्षात्कार में उस लड़की ने यह भी बताया कि जब पहली बार किसी लड़के के साथ संबंध बनाने के लिए कहा जाता है तो गैंग-मुखिया के शब्द होते हैं, ‘तुम्हें और मुझे मालूम है कि यह गलत है मगर धीरे-धीरे तुम्हें इसकी आदत पड़ जाएगी, क्योंकि यदि तुम्हें इस गैंग में रहना है तो इसके नियमों का पालन तो करना ही होगा। वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा’।
इस समस्या से निपटने के लिए यहां की पुलिस ने कुछ कार्यक्रम भी बनाए हैं, जिसके तहत पुलिस ऑफिसर बच्चों को इन गैंग्स में शामिल होने से रोकने के लिए स्कूलों में जाकर जागरुकता का कार्यक्रम चला रहे हैं। इनमें बातचीत के माध्यम से बच्चों को गैंग के प्रति आकर्षित होने से रोके जाने की कोशिश की जाती है। कई स्कूलों में सेक्स शिक्षा (सेक्स एजुकेशन) भी दी जा रही है ताकि बच्चे भ्रमित न हों, सही और गलत का फर्क समझ सकें। साथ ही बच्चों को यह भी बताया जा रहा है कि यदि कोई उन्हें किसी गैंग में शामिल करने की कोशिश करे या इसके लिए जबर्दस्ती करे तो कैसे इन सब से बचा जा सकता है।
(साभार : राजस्थान पत्रिका के बुधवार 25 दिसंबर 2013 के अंक में प्रकाशित मेरा एक आलेख) http://epaper.patrika.com/203312/Rajasthan-Patrika-Jaipur/25-12-2013#page/12/3
Sunday, 22 December 2013
फुटबाल मैच का कुछ खट्टा कुछ मीठा अनुभव...
यह बात है इंग्लैंड बनाम मोंटीग्रो के दौरान हुए फुटबाल मैच की, कहने को तो अब यह अनुभव पुराना हो चुका है। पिछले कई दिनों से सोच रही थी कि इसके बारे में लिखूँ मगर लिख ही नहीं पा रही थी। यह बात कुछ महीनों पुरानी है। जब हम लंदन के वेम्बले स्टेडियम में फ़ुटबाल का खेल देखने के लिए गए थे। यूं भी लंदन आकर यदि फुटबाल और विम्बलडन का खेल नहीं देखा तो क्या देखा। विम्बलडन के बारे में तो मैं पहले भी अपना अनुभव आपके साथ बाँट चुकी हूँ इसलिए इस बार मैं बात करूंगी फुटबाल की, हालांकी इंग्लैंड का राष्ट्रिय खेल क्रिकेट है लेकिन लोग फुटबाल खेलना और देखना बेहद पसंद करते हैं। जिसे देखो फुटबाल का दीवाना है। जब कभी कोई मैच होता है, तो बिल्कुल वैसा ही माहौल होता है यहाँ जैसे अपने भारत में क्रिकेट के मैदान में भारत पाकिस्तान के किसी मैच के दौरान हुआ करता है। लोग पूरी तरह जोश और खरोश से भरे हुए रहते है।
बाज़ार से लेकर घरों तक, आम दुकानों से लेकर बियर बार तक, सारा माहौल फुटबालमयी नज़र आता है। यहाँ तक की उन दिनों बच्चे बूढ़े जवान, जैसे सभी एक रंग में रंग जाते है। इसके पीछे भी कई कारण है, यहाँ अपने भारत की तरह बच्चों को केवल यह घोल कर नहीं पढ़ाया जाता कि यदि तुम पढ़ाई लिखाई में कमजोर हो तो तुम्हारा भविष्य अंधकारमय ही है और कुछ नहीं रखा है जीवन में केवल पढ़ाई के सिवा। बल्कि यहाँ इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है कि बच्चे की रुचि पढ़ाई के अतिरिक्त और किस श्रेणी में है और उसे उसी के रुझान की ओर बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाता है, जो अपने आप में एक बहुत ही अच्छी बात है। हालांकी हर चीज़ के पीछे उस बात से जुड़े, अच्छे बुरे दोनों ही पहलू जुड़े होते है, इस बात के पीछे भी है। लेकिन उन पर चर्चा कभी और करेंगे।
फिलहाल विषय से न भटकते हुए, मैं उस रात की बात करती हूँ जब हमें भी यहाँ इस अद्भुत खेल को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस दिन मैंने पहली बार देखा वह माहौल जिसकी लोग बातें करते है। जिसके विषय में मैंने केवल सुन रखा था मगर देखा कभी नहीं था, इसलिए शायद जब वहाँ जाने का कार्यक्रम बना। तब मैं मन ही मन बहुत उत्साहित थी, तेज़ बारिश और पैर में तकलीफ होने के बावजूद भी मैंने वहाँ जाना ज्यादा ज़रूरी समझा था। क्यूंकि मुझे लगा, ऐसे मौके बार बार नहीं आते। जो अभी मिल रहा है उसे ले लो, क्या पता कल हो न हो। यही सोचकर हम चले भरी बारिश में वेम्बले स्टेडियम। वहाँ पहुंचे ही थे कि लोगों की भीड़ का एक ऐसा हुजूम देखा कि आंखो को यक़ीन ही नहीं आया कि महज़ एक खेल को देखने के लिए इस कदर लोग पागल है।
यह देखकर माहौल का असर हम पर भी हुआ और हम भी थोड़ा थोड़ा जोश में आने लगे थे। तभी क्या देखते हैं कि सामने कुछ लड़के गैंग बनाए खड़े है और खुल कर बदतमिजी कर रहे हैं। हालांकी मैंने पहले भी कई बार इस तरह लोगों को गैंग रूप में घूमते देखा है, ढीली खिसकती हुई जींस पहने, टोपी(हुड) वाली जैकेट पहने, शोर मचाते, गंदगी फैलाते, धुआँ उड़ाते,एक दूसरे को अलग ही नाम से गंदी भाषा का प्रयोग करते हुए अपशब्दों का इस्तेमाल करते, मैंने पहले भी सड़कों पर कई बार देखा है। इतना ही नहीं आते जाते लोगों को भी परेशान करते हैं यह छोटे मोटे गैंग कई बार तो छोटी मोटी लूटपाट तक करते हैं।
लेकिन उस दिन सड़क पर कुछ ज्यादा ही बुरा हाल था। शराब के नशे में धुत कुछ लड़के सड़क के बीचों बीच खुले आम (सुसू) कर रहे थे और गंदगी फैला रहे थे। यह देखकर मेरा मन मैदान में अंदर जाने से पहले ही थोड़ा खट्टा हो गया। भीड़ की तादाद ज्यादा होने के कारण पुलिस भी इन्हें रोक पाने में नाकाम नज़र आ रही थी। उस दिन मैच देखने की चाहत में लोगों की भीड़ के जत्थे ऐसे जान पड़ रहे थे, मानो यहाँ कोई मैच नहीं बल्कि कोई क्रांति की शुरुआत होने वाली है। जिसमें लोग जी-जान से भाग लेने किए उतावले हुए जा रहे हैं। लोगों की ऐसी शर्मनाक हरकत देखने बाद मेरे मन में एक पछतावा सा होने लगा था। यूं लगा नाहक ही इतना कष्ट उठाया यहाँ आने का, इस सब से तो घर बैठे टीवी पर ही ज्यादा अच्छे से इस खेल का आनंद लिया जा सकता था और एक बात मन में यह भी आई कि जब भीड़भाड़ वाला माहौल हो तो देश चाहे कोई भी हो, कितना भी विकसित क्यूँ न कहलाता हो। लेकिन जनता का व्यवहार सभी जगह एक सा ही नज़र आता है। सभी जैसे अपनी-अपनी सभ्यता को ताक पर रखकर वही सब करते है जो उन्हें नहीं करना चाहिए।
खैर पछताने से कुछ होने जाने वाला तो था नहीं, अब आ ही चुके थे और टिकिट भी खरीद ही चुके थे तो वापस लौटने से तो रहे। सो तय हुआ कि अब जो होगा देखा जाएगा चलो, सो अंदर पहुँचने के बाद मन को थोड़ी शांति मिली कि माहौल कुछ काबू में दिखने लगा था। हम लोगों की सीट फेमिली स्टैंड में थी, इस कारण आस पास कई सारे परिवार और छोटे बड़े बच्चे हर्ष और उल्लास से उत्साहित होकर शोर मचा रहे थे और माहौल का मज़ा ले रहे थे। साथ ही भारी बारिश के बावजूद खेल के मैदान और दोनों खिलाड़ियों की टीम की लाल पीली वेषभूषा दोनों ने मिलकर खेल के मैदान को और भी रंगीन बना दिया था, बच्चों के हाथ में ताली की जगह लाल रंग के गत्ते से बनने जापानी पंखे नुमा पंखे थे। जो वहीं सभी को सीटों पर रखे मिले थे। जिनका उपयोग ताली बजाने के लिए किया जाना था क्यूंकि उनसे शोर ज्यादा निकल रहा था।
जिसे वहाँ बैठे सभी लोग कभी अपने हाथ पर मार कर बजाते थे, तो कभी कुर्सियों पर मारकर। स्टेडियम की व्यवस्था करने वालों के द्वारा वहाँ बैठने की व्यवस्था और कुर्सियों का रंग साथ ही गत्ते से बने पंखों का रख रखाव भी वहाँ कुछ इस तरह से किया गया था कि जब जनता जोश में आकर उसका प्रयोग करे तो वहाँ लगे बड़े बड़े कैमरे पर वह सब कुछ इंग्लैंड के झंडे के रूप में उभर कर नज़र आए। जैसे लाल पर सफ़ेद प्लस का निशान उभरे जो टीवी पर मैच देख रही जनता को भी जोश से भर दे। इसलिए आधी सीटों पर लाल रंग था और आधी पर सफ़ेद कुल मिलकार सभी चीजों के लाल पीले, हरे नीले, रंगों ने मिलकर वहाँ के माहौल को न सिर्फ रंगीन बल्कि जोशीला भी बना दिया था। यही नहीं स्टेडियम की व्यवस्था दवारा जनता के लिए बीच-बीच में सफ़ेद पर्दे नुमा झंडे भी फेंके गए थे। जिसे गोल होने पर खोलते हुए लहरिया तरीके से हिलाया जाना था। इंग्लैंड का गोल होते ही सारा स्टेडियम शोर शराबे से गूंज उठता था। मोंटीग्रो की टीम हार ज़रूर गयी थी यह मैच किन्तु इंग्लैंड के लिए भी यह मैच जीतना आसान नहीं था। उन्होने इंग्लैंड को बहुत कड़ी टक्कर दी थी लेकिन ज़मीन इंग्लैंड की, जनता इंग्लैंड की, तो जोश और प्रोत्साहन भी ज्यादा इंग्लैंड की टीम को ही मिला। शायद इस वजह से भी मोंटीग्रो की टीम यह मैच हार गयी। मगर जो माहौल बनता था बस वही खेल की जान होता है।
हम भी मज़ा ले ही रहे थे कि अचानक हम से ज्यादा असर शायद हमारे आगे बैठे व्यक्ति के सर चढ़कर बोला और फिर उसने जो किया....उसके विषय में मैं क्या कहूँ।
हमारे आगे वाली सीट पर एक अँग्रेज़ व्यक्ति अपने दो बच्चों के साथ मैच देखने आया हुआ था। अपनी टीम का हौंसला बढ़ाना, उसके लिए ज़ोर ज़ोर से चिल्ला चिल्लाकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करना और विपक्ष की टीम को गरियाना यह सब समझ आता है। आखिर यह सब न हो तो भला खेल के मैदान में माहौल ही न बने। मगर खेल के मध्यांतर में जैसे ही इंग्लैंड की टीम ने दूसरा गोल किया, उसने जोश में अपनी पतलून उतार दी थी और इतनी जनता के बीच नग्न खड़ा होकर अपनी तशरीफ़ को ठोक-ठोक कर विपक्ष के लोगों को गरिया रहा था। मैं तो वह देखकर सन्न रह गयी थी जबकि उस व्यक्ति के बच्चे मेरे बेटे से भी छोटे थे। यह सब देखकर तो मुझे ऐसा लगा कि मैं क्या करू, कहाँ जाऊँ। उसके अपने बच्चे यह सब बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। सारे मैच का तो जैसे मज़ा ही किरकिरा हो गया। उस दिन से मैंने कान पकड़े कि फिर कभी कोई मैच देखने जाने के विषय में सोचूँगी तक नहीं। जाना तो बहुत दूर की बात है। तौबा :)
Saturday, 14 December 2013
जीवन दर्शन का प्रभाव
कभी-कभी सब चीजों को देखते हुए मुझे ऐसा लगता हैं कि उनके प्रति उत्पन्न होने वाले अनुभव सभी के एक जैसे ही होते हैं। बस इन्हें देखने का सभी का नज़रिया अलग-अलग हो जाता है। क्यूंकि सभी मनुष्यों को एक सा ही तो बनाया है विधाता ने। सबके पास सब कुछ एक सा ही तो है।एक सा चेहरा, एक सा दिमाग, एक सा दिल और एक सी आत्मा, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं व्यक्तिगत अनुभव के स्तर पर सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं। इस स्तर पर सब की सोच अलग हो जाती है। चीजों को देखने-परखने का नज़रिया बदल जाता है, लेकिन चीज़ें वही हैं। यह कुछ वैसी ही बात है जैसे "गिलास आधा खाली है या आधा भरा"। ठीक इसी तरह यह जीवन क्या है, यह आत्मा क्या है, किसी के द्वारा इसकी कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती। इन सबके बीच जो चीज महत्वपूर्ण है वो है वह भाव,जो हमारे जीवन के मूल तत्व को उजागर करता है। जिसे दिल-दिमाग या मन-मस्तिष्क के विश्लेषण के रोड़े के कारण हम देख नहीं पाते या महसूस नहीं कर पाते। जो लोग अपने साधारण जीवन से अलग हो कर इस मूल तत्व को देख पाने में समर्थ होते हैं, वे ही अपने जीवन के भूत, भविषय और वर्तमान को देखने की क्षमता रखते हैं, लेकिन दुनिया में ऐसे कितने इंसान होंगे जिनके अंदर इस गुण को जानने या परखने की शक्ति विद्यमान है। देखा जाए तो शायद सभी के अंदर यह गुण मौजूद है, लेकिन उसे पहचानने की वो नज़र नहीं है जो होनी चाहिए। मेरे विचार से तो दिल-दिमाग भी आत्मा का ही रूप हैं बल्कि अगर मैं यह कहूँ कि यही आत्मा है तो इसमें कुछ गलत नहीं होना चाहिए।
बात अगर आत्मा को पहचान कर इसके अनुकूल कार्य करने की है, तो आत्मा ही हर इंसान को सही और गलत का भेद बताती है। शायद इसीलिए यह प्रचलन में है कि अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुनो, क्योंकि दिल-दिमाग के निर्णय गलत हो सकते हैं मगर आत्मा के नहीं।
एक विचार यह भी उभरता है कि हम अपने दिल और दिमाग को आत्मा से अलग कैसे कर सकते हैं। इनको अलग करके तो आत्मा की कल्पना करना भी व्यर्थ है। इस घोर कलियुग में ऐसे अपरिग्रहण की बात करना ही निरर्थक है। माना कि सारे फसाद की जड़ केवल वस्तुओं की लालासा, जरूरतों का बढ़ना है। जबकि एक अच्छे शांतिपूर्ण,सफल एवं सुखी जीवन के लिए जरूरत का कम होना ही जीवन का मूलमंत्र सिद्ध होता है, लेकिन आज की तारीख में शायद यह असंभव सी बात है। कहने को तो यह कहा जाता है कि असंभव कुछ नहीं होता। मेरा भी यही मानना है कि कुछ भी असंभव नहीं है, लेकिन मैं ऐसा भी सोचती हूँ कि जीवन में जो भी मिले उसको उसी रूप में लेते चलना चाहिए जिस रूप में वो है।यही जीवन है और यही इसकी सच्चाई।
जीवन का सार गीता में भी लिखा हुआ है, लेकिन फिर भी कुछ बुजुर्ग ऐसा कहते हैं कि गीता भी एक साधारण मनुष्य को 50 वर्ष की आयु के बाद ही पढ़नी चाहिए, क्योंकि इससे एक अच्छे-भले इंसान की बुद्धि गृहस्थ से विलग हो जाने का ख़तरा बना रहता है। मतलब फिर वह अपना जीवन सहजता से नहीं जी सकता। दुनिया के साथ तारतम्य स्थापित नहीं कर सकता, क्योंकि गीता में लिखी ज्ञान की बातें इतनी गहरी हैं कि यदि एक आम आदमी उस पर पूरी ईमानदारी से अमल करके चलने लगे तो निश्चित ही वह संत-महात्मा की श्रेणी में आ जाएगा और ऐसा होना उसके पारिवारिक जीवन के लिए सही नहीं होगा।
मैं इस आधुनिक युग में बस यही मानकर चलती हूँ कि जब जो जैसा मिले उसमें मिलकर वैसे ही हो जाओ तो ज्यादा अच्छा है। वरना पानी का बहाव तो चट्टान को भी काट देता है। मैं कोशिश करती हूँ पानी की तरह बने रहने की। चट्टान की तरह नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि मैं किसी वाद-विवाद को जन्म दे रही हूँ या मैंने ठान रखी है कि मुझे किसी की कोई बात माननी ही नहीं है। इसलिए कृपया मेरी बातों को अन्यथा न लिया जाए। मैं चाहती हूँ कि दुनिया हर एक इंसान को उस रूप में ही पहचाने जैसे वह वास्तविक रूप से होता है।
जीवन क्या है, इस पर बहुत सोचा मगर अब तक समझ नहीं आया। कितनी ही बार पूछा मैंने अमलतास के फूलों से, तपती काली सड़कों से, कूकती हुई कोयल से मगर हर किसी ने मुझे जीवन की एक नई परिभाषा दी। लेकिन जब कभी खुद से एकांत में पूछा तो उपरोक्त भाव आए। जीवन तो प्रकृति के कण-कण में है, लेकिन आखिर में इस सिद्धांत पर आकर रुकी कि इंसान का जीवन बड़ी ही तपस्या के बाद मिलता होगा। बड़ा ही जटिल है यह प्रश्न कि जीवन क्या है या आत्मा किसे कहते हैं। इस की कोई निश्चित परिभाषा तो नहीं है,लेकिन फिर कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस सब को ठीक तरह से शायद तभी परिभाषित किया जा सकता है जब कोई मृत्यु के बाद की दुनिया को भी देख सकता हो। जिसने उस दुनिया को भी वैसे ही महसूस किया हो जैसे हम इस दुनिया को महसूस करते हैं शायद तभी हम इस जीवन-मरण की परिधि से निकलकर जीवन के सही मायनों को जान सकें। कहते हैं आत्मा अमर होती है। जिस तरह हम कपड़े बदलते हैं उसी तरह से वह शरीर बदलती है। अगर यह सच है तो फिर दिल और दिमाग क्या हैं। ये तो इस शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। फिर वो कौन सा ऐसा तत्व है जो मरने के बाद भी गुंजायमान रहता है। क्या उसी को आत्मा कहते हैं। इस हिसाब से तो व्यक्ति की आवाज़ का दर्जा दिल और दिमाग दोनों से ऊपर होना चाहिए क्योंकि व्यक्ति मरता तो है मगर उसकी आवाज़ कभी खत्म नहीं होती। कहते हैं मनुष्य द्वारा बोले गए सभी शब्द हवा में घुल जाते हैं और तरंगित हो-हो कर बार-बार प्रतिध्वनित होते रहते हैं।
खैर वाकई ऐसा कुछ है या यह सब कुछ केवल हमारे मन का भ्रम मात्र है कहना बहुत मुश्किल है। अगर वाकई यह केवल भ्रम है तो फिर कुछ लोगों को कैसे अपना अगला-पिछला जन्म याद रह जाता है। क्यों नवजात शिशु घंटों घर की छत को विचित्र भाव से निहारा करते हैं। ऐसा क्या चल रहा होता है उस वक्त उनके मन-मस्तिष्क में कि पल भर के लिए भी उनकी नज़र वहाँ से नहीं हटती। जबकि तब तक तो उनका मस्तिष्क पूरी तरह से विकसित भी नहीं होता। फिर भी उनके चेहरे पर आनेवाले सभी मनोभाव गहरी चिंता में लीन किसी बुजुर्ग व्यक्ति जैसे नज़र आते हैं। अब पता नहीं यह मेरा ही अनुभव है या सभी को ऐसा लगता है। या फिर शायद कोई जवाब ही नहीं इन प्रश्नों का और शायद कभी होगा भी नहीं,क्योंकि प्रकृति के खेल निराले है। जिनको समझने के लिए केवल इंसान होना ही काफी नहीं है।
बात अगर आत्मा को पहचान कर इसके अनुकूल कार्य करने की है, तो आत्मा ही हर इंसान को सही और गलत का भेद बताती है। शायद इसीलिए यह प्रचलन में है कि अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुनो, क्योंकि दिल-दिमाग के निर्णय गलत हो सकते हैं मगर आत्मा के नहीं।
एक विचार यह भी उभरता है कि हम अपने दिल और दिमाग को आत्मा से अलग कैसे कर सकते हैं। इनको अलग करके तो आत्मा की कल्पना करना भी व्यर्थ है। इस घोर कलियुग में ऐसे अपरिग्रहण की बात करना ही निरर्थक है। माना कि सारे फसाद की जड़ केवल वस्तुओं की लालासा, जरूरतों का बढ़ना है। जबकि एक अच्छे शांतिपूर्ण,सफल एवं सुखी जीवन के लिए जरूरत का कम होना ही जीवन का मूलमंत्र सिद्ध होता है, लेकिन आज की तारीख में शायद यह असंभव सी बात है। कहने को तो यह कहा जाता है कि असंभव कुछ नहीं होता। मेरा भी यही मानना है कि कुछ भी असंभव नहीं है, लेकिन मैं ऐसा भी सोचती हूँ कि जीवन में जो भी मिले उसको उसी रूप में लेते चलना चाहिए जिस रूप में वो है।यही जीवन है और यही इसकी सच्चाई।
जीवन का सार गीता में भी लिखा हुआ है, लेकिन फिर भी कुछ बुजुर्ग ऐसा कहते हैं कि गीता भी एक साधारण मनुष्य को 50 वर्ष की आयु के बाद ही पढ़नी चाहिए, क्योंकि इससे एक अच्छे-भले इंसान की बुद्धि गृहस्थ से विलग हो जाने का ख़तरा बना रहता है। मतलब फिर वह अपना जीवन सहजता से नहीं जी सकता। दुनिया के साथ तारतम्य स्थापित नहीं कर सकता, क्योंकि गीता में लिखी ज्ञान की बातें इतनी गहरी हैं कि यदि एक आम आदमी उस पर पूरी ईमानदारी से अमल करके चलने लगे तो निश्चित ही वह संत-महात्मा की श्रेणी में आ जाएगा और ऐसा होना उसके पारिवारिक जीवन के लिए सही नहीं होगा।
मैं इस आधुनिक युग में बस यही मानकर चलती हूँ कि जब जो जैसा मिले उसमें मिलकर वैसे ही हो जाओ तो ज्यादा अच्छा है। वरना पानी का बहाव तो चट्टान को भी काट देता है। मैं कोशिश करती हूँ पानी की तरह बने रहने की। चट्टान की तरह नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि मैं किसी वाद-विवाद को जन्म दे रही हूँ या मैंने ठान रखी है कि मुझे किसी की कोई बात माननी ही नहीं है। इसलिए कृपया मेरी बातों को अन्यथा न लिया जाए। मैं चाहती हूँ कि दुनिया हर एक इंसान को उस रूप में ही पहचाने जैसे वह वास्तविक रूप से होता है।
जीवन क्या है, इस पर बहुत सोचा मगर अब तक समझ नहीं आया। कितनी ही बार पूछा मैंने अमलतास के फूलों से, तपती काली सड़कों से, कूकती हुई कोयल से मगर हर किसी ने मुझे जीवन की एक नई परिभाषा दी। लेकिन जब कभी खुद से एकांत में पूछा तो उपरोक्त भाव आए। जीवन तो प्रकृति के कण-कण में है, लेकिन आखिर में इस सिद्धांत पर आकर रुकी कि इंसान का जीवन बड़ी ही तपस्या के बाद मिलता होगा। बड़ा ही जटिल है यह प्रश्न कि जीवन क्या है या आत्मा किसे कहते हैं। इस की कोई निश्चित परिभाषा तो नहीं है,लेकिन फिर कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस सब को ठीक तरह से शायद तभी परिभाषित किया जा सकता है जब कोई मृत्यु के बाद की दुनिया को भी देख सकता हो। जिसने उस दुनिया को भी वैसे ही महसूस किया हो जैसे हम इस दुनिया को महसूस करते हैं शायद तभी हम इस जीवन-मरण की परिधि से निकलकर जीवन के सही मायनों को जान सकें। कहते हैं आत्मा अमर होती है। जिस तरह हम कपड़े बदलते हैं उसी तरह से वह शरीर बदलती है। अगर यह सच है तो फिर दिल और दिमाग क्या हैं। ये तो इस शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। फिर वो कौन सा ऐसा तत्व है जो मरने के बाद भी गुंजायमान रहता है। क्या उसी को आत्मा कहते हैं। इस हिसाब से तो व्यक्ति की आवाज़ का दर्जा दिल और दिमाग दोनों से ऊपर होना चाहिए क्योंकि व्यक्ति मरता तो है मगर उसकी आवाज़ कभी खत्म नहीं होती। कहते हैं मनुष्य द्वारा बोले गए सभी शब्द हवा में घुल जाते हैं और तरंगित हो-हो कर बार-बार प्रतिध्वनित होते रहते हैं।
खैर वाकई ऐसा कुछ है या यह सब कुछ केवल हमारे मन का भ्रम मात्र है कहना बहुत मुश्किल है। अगर वाकई यह केवल भ्रम है तो फिर कुछ लोगों को कैसे अपना अगला-पिछला जन्म याद रह जाता है। क्यों नवजात शिशु घंटों घर की छत को विचित्र भाव से निहारा करते हैं। ऐसा क्या चल रहा होता है उस वक्त उनके मन-मस्तिष्क में कि पल भर के लिए भी उनकी नज़र वहाँ से नहीं हटती। जबकि तब तक तो उनका मस्तिष्क पूरी तरह से विकसित भी नहीं होता। फिर भी उनके चेहरे पर आनेवाले सभी मनोभाव गहरी चिंता में लीन किसी बुजुर्ग व्यक्ति जैसे नज़र आते हैं। अब पता नहीं यह मेरा ही अनुभव है या सभी को ऐसा लगता है। या फिर शायद कोई जवाब ही नहीं इन प्रश्नों का और शायद कभी होगा भी नहीं,क्योंकि प्रकृति के खेल निराले है। जिनको समझने के लिए केवल इंसान होना ही काफी नहीं है।
Sunday, 8 December 2013
पुराना मोहल्ला
कुछ ऐसा है हमारी भाबो का पुराना मोहल्ला ।
मंदिरों में मंत्र उच्चारण और भजन कीर्तन से पूरे मोहल्ले का वातावरण बहुत ही शालीन महसूस हो रहा है। लोग मंदिरों में अपनी-अपनी पूजा की थाली के साथ आ रहे हैं। मोहल्ले की सभी बुज़ुर्ग महिलाएं अपनी-अपनी पूजा की टोकरी से रूई निकाल कर बाती बनाने में मग्न हैं। कोई अपनी पूरी दिनचर्या सुना रहा है तो कोई आनेवाले कल की बातें बता रहा है और कोई हर आने-जानेवाले को राम–राम कहते हुए मंदिर में अपनी हाजिरी दर्शा रहा है। बच्चे वहीं मंदिर के आस-पास खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। मंदिर के बूढ़े पंडितजी, जिनकी कमर ज़रा झुकी हुई है, सदा किसी न किसी मंत्र का जाप करते रहते हैं और बीच-बीच में मंदिर में चल रही गतिविधियों पर नज़र भी रखे रहते हैं। अब भी उनका मंत्र जाप चल रहा है लेकिन अगर जरूरत पड़े तो वे किसी की खबर लेने में भी हिचकिचाते नहीं।
मंदिर में खेलते बच्चों से उन्हें ख़ासी परेशानी रहा करती है। वे बच्चों पर चिल्लाते हैं, ''हजार बार मना किया है तुम सबको। यह कोई खेलने की जगह नहीं है। ये मंदिर है, भगवान का घर है। यहाँ शांति रखा करो। जाओ बाहर जाकर खेलो। मगर नहीं तुम बच्चे लोग तो किसी की सुनते ही नहीं हो। ठहर जाओ, मिलने दो तुम्हारे माता-पिता को सब बताऊंगा।’’ ये उनका रोज़ का कहना है और बच्चों का रोज़ का सुनना। न बच्चे ही मानते हैं खेलने से और ना ही उन्हें टोके बिना पंडित जी का ही भोजन हज़म होता है। …….कहते-कहते भाबो अपने अतीत में खो जाती है। लम्बी-गहरी उसांसे लेते हुए भाबो बच्चों से कहती है, ''ऐसा था यह हमारा मोहल्ला। जहां कभी सन्नाटा अपने पाँव नहीं पसार सकता था। जहां हर गली-कूचे में कौन-कौन रहता है, कौन क्या करता है, सभी की खबर सभी को रहा करती थी। जहां वक्त आने पर सभी एक-दूसरे के दुःख-सुख में साथ खड़े होते थे। आते-जाते सब एक-दूसरे का कुशल-मंगल पूछते चलते थे।’’ पुराने मोहल्ले की सच्ची कहानी बच्चे ऐसे सुन रहे हैं जैसे भाबो उनकी आंखों के सामने इसे एक चलचित्र की भांति प्रस्तुत कर रही हो। भाबो बताती जाती है, ''वहाँ ना, बच्चे बिना किस डर के बीच सड़क पर क्रिकेट खेलते थे। उन्हें देखकर तो सड़क पर आने-जानेवाले लोगों का मन भी करता कि वे भी कुछ समय उन बच्चों के खेल में शामिल हो जाएं। अपना मनोरंजन कर लें। उन दिनों ऐसा लगता मानो पूरा मोहल्ला एक संयुक्त परिवार है। जहां सब मिलजुल कर रहते। जैसे किसी को किसी से कोई शिकायत ही न हो और अब सोचती हूँ तो लगता है जैसे उस समय सभी बड़े संतुष्ट थे वहाँ अपने जीवन से। बच्चों का बीच सड़क पर खेलना। उनकी गेंद का जब-तब किसी के भी घर में चले जाना और महिलाओं से डांट खाना और फिर खेलने लगना। यही बातें तो हमारे मोहल्ले की शान थीं। मोहल्ले में किसी को किसी की बात का बुरा नहीं लगता था कभी। आज की तरह नहीं कि ज़रा किसी के बच्चे को ऊंची आवाज में कुछ बोल क्या दो कि लोग ज़माना सर पर उठा लेते हैं। इतना ही नहीं। तब ये जो आजकल के औपचारिकता वाले रिश्ते हैं न, जिन्हें तुम सब लोग अंकल-आंटी कहते हुए निभाते हो, ऐसा नहीं होता था तब। उस वक्त पास-पड़ोस के सभी लोग बुआ, चाचा, मौसी और ताऊ के मीठे रिश्तों से बंधे होते थे। इसलिए कोई भी अपने से बड़ों की बात का बुरा नहीं माना करता था। और ऐसा हो भी क्यूँ नहीं! डांटनेवाले भी सभी को अपना बच्चा समझकर ही तो डाँटते थे। यह तो कुछ भी नहीं है। कई बार मोहल्ले के बड़े-बूढ़े पड़ोसी बच्चों को चपत भी लगा देते थे। मगर कोई बुरा नहीं मानता था। और एक आज का ज़माना है। डांट तो बहुत दूर की बात है आजकल के बच्चों से तो बात करना भी मुसीबत को न्यौता देने से कम नहीं है हाँ...।’’
बच्चों को पुराने मोहल्ले की बातों में रुचि लेते हुए देख भाबो जैसे एक सांस में सारी पुरानी बातें कह देना चाहती हो, ''और पता है वो जो बाजूवाले चाचा की परचून की दुकान थी ना, वहीं से सारे मोहल्ले का राशन आता था। मजाल है किसी की जो उनके रहते बाहर जाकर कुछ खरीद लाए। मोहल्ले के बाहर थोड़ी दूर एक और बाज़ार था ज़रूर। मगर चाचा की दुकान सा अपनापन नहीं था वहां। चाचा तो यूँ भी उधारी कर लेते थे। कई बार तो खुश होने पर वे बच्चों को नारंगी-संतरेवाली दो-चार गोलियां भी दे देते। वो भी मुफ्त।’’
कहानी में मनपसन्द चीज के जिक्र पर उत्सुकतावश सभी बच्चे अचानक पूछ बैठते हैं, ''सच भाबो!!’’
''और क्या। नहीं तो क्या मैं झूठ बोल रही हूँ? अरे यह तो कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तो राशन पहले देते थे और पैसा बाद में लेते हमारे चाचा। वैसे भी बात पैसे की नहीं विश्वास की होती है। चाचा भी सब जानते-समझते थे। इसलिए कभी बुरा नहीं मानते थे। पता है मोहल्ले से कुछ दूर बच्चों का एक स्कूल भी था, जहां तुम्हारे पिता जी पढ़ा करते, जो बारहवीं कक्षा तक ही था। मोहल्ले के सभी घरों के बच्चे उसी स्कूल में जाया करते। मोहल्ला, स्कूल, मंदिर, चाचा की दुकान सब जगह बच्चे अकेले जाते लेकिन उनकी चिंता-फिक्र किसी को नहीं होती थी। आह कितने खूबसूरत दिन हुआ करते थे वो! पुरुषों की सुबह अधिकतर मंदिर की घंटी बजने की आवाज से होती और नाश्ता मोटे हलवाई के गरमा-गरम पोहा, जलेबी और कट चाय से। मेरे मुंह में तो मोटे हलवाई का नाम सुन कर अब भी पानी आ जाता है। तब घर में नाश्ता पानी सिवाय महिलाओं के और कोई नहीं करता था। सो उन्हें भी सुबह के नाश्ते की कोई खास फिक्र नहीं होती थी।’’
खाने की बात पर बच्चे अपनी लार पोंछते हुए पूछते हैं, ''अच्छा। सच भाबो ऐसा क्या जादू था मोटे हलवाई के पोहे जलेबी में जो आज भी उसके नाम से ही तुम्हारा मन ललचा रहा है।''
''अरे यह न पूछो बच्चों। आह क्या स्वाद था उसके हाथ की बनी करारी जलेबी में वाह!!! पहले महिलायें अपने-अपने घर के काम से निपटने के बाद एक-दूसरे के घर जाया करतीं। आपस में दुख-सुख बांटतीं। आज की तरह नहीं कि पड़ोस में कौन रहता इतना भी पता नहीं होता एक ही मोहल्ले में रहनेवालों को। अब तो किसी को टीवी से ही फुर्सत नहीं है। जाने ऐसा क्या आता है मुए उस बुद्धू बक्से में कि सब बा से ही चिपके रहते हैं सारा-सारा दिन। न खाने की फिकर है न सोने की। हमारे जमाने में ऐसा नहीं था लल्ला। तब औरतें घर-बार की साफ-सफ़ाई, भोजन आदि से निपट कर दोपहर 2 बजे ऊन और सलाई लेकर मोहल्ले के नुक्कड़ पर डेरा जमा लिया करतीं थीं। शाम के चार बजते ही सभी को नल आने की फिक्र और शाम की चाय की याद सताने लगती। घरों में पानी भरने की हड़कंप मच जाती। क्या दोपहर और क्या सुबह दोनों में कोई फर्क ही नज़र नहीं आता था। बच्चे स्कूल से आते ही अपनी-अपनी चीजें इधर-उधर फेंक कर खेलने जाने को मचलने लगते। तब सब तुम लोगन की तरह नहीं होते थे कि धूप में काले हो जाने के डर से सारा-सारा दिन घर में ही पड़े रहवें। तब तो बच्चों को खेलने के नाम पर न खाने की फिक्र रहती न नहाने की। उन्हें तो बस दोस्त यार ही नज़र आते थे’’।
पुराने मोहल्ले के बच्चों की कहानी सुन कर बच्चों को भाबो का मुख टी.वी. स्क्रीन सा दिखने लगा। वे तरह-बेतरह की कल्पनाओं में डूबते-उतरते गौर से भाबो की कथा सुनते रहे। पुराने जमाने का सुखद चरित्र-चित्रण करते हुए भाबो में आत्मविश्वास भर गया। इस वक्त उसे नया जमाना भी पुराना ही प्रतीत होने लगा।
वह बोलती गई, ''अरे तब तो, जब तक माँ कुछ कहे तब तक तो बच्चे घर से “'यह जा वह जा’”। इधर कार्यालय से सबके पतिदेवों के आने का समय भी हो जाता था। तब ना हम सब लोग घर आए मेहमान का भगवान समझ कर स्वागत करते थे। उसके बाद रात के भोजन की तैयारी करते थे।''
रिंकू को गौर से अपनी ओर मुखतिब देख भाबो उसके गाल को प्यार से थपथपाते हुए कहती, ''रिंकू बेटा तेरी माँ की तरह नहीं कि पति दफ़्तर से कब आया कब चला गया मैडम को पता ही नहीं होता। चाय-पानी पूछना तो दूर की बात है। अरे हमारे जमाने में तो मोहल्लेवाले सूरज के ढलते-ढलते ही रात के भोजन की तैयारी शुरू कर देते थे। बड़े-बजुर्ग, बच्चों को चिल्ला-चिल्ला कर घर वापस बुलाते। अपने-अपने घर के दरवाजे से सभी महिलाएं बच्चों को घर आने की आवाज देतीं।'' भाबो की बातें सुन कर रिंकू को मजा आ रहा था। इसलिए वह भाबो के पास थोड़ा और खिसक आया। भाबो उसको देख कर मुस्कुरा गई और कहती रही, ''रिंकू बेटा तब तेरे पापा भी उन्हीं बच्चों में शामिल रहते जो इतना चिल्लाने के बाद भी घर आने का नाम नहीं लेते थे। तेरा पापा पता क्या बोलता था?''
''क्या बोलते थे भाबो?'' उत्सुकता से रिंकू बोला।
भाबो के दिमाग में जैसे पुराने मोहल्ले की एक-एक बात रिकॉर्ड की गई हो। वह बोली, ''तेरा बाप कहता, माँ ज़रा देर और रुको तो। यह अधूरा खेल तो पूरा कर लें।'' मगर ना बच्चे ही समय पर घर आते और ना ही माताएं उन्हें जोर-जोर से पुकारने से बाज आतीं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान घड़ी की सुइयां इशारा करना शुरू कर देतीं कि मंदिर की आरती का समय हो रहा है और सब अपनी-अपनी पूजा की टोकरी लिए सन्ध्या पूजा करने टोली बना कर मंदिर की ओर निकल पड़ते। रिंकू बेटा, प्रसाद का लालच तेरे पापा को भी मंदिर तक खींच ही लाता था।''
''वो क्यूँ भाबो, भला मंदिर जाने जैसा बोरिंग काम भी कोई करता है? क्या वो भी सिर्फ जरा से प्रसाद के लिए? मैं तो कभी न जाऊँ।'' पाश्चात्य स्टाइल में कन्धे उचकाते हुए टोनी बोला।
भाबो ने तुनकमिजाजी मुंह बनाते हुआ कहा, ''अरे तुम लोग तो घर गुसु हो घर गुसु। तुम क्या जानो दोस्तों से बार-बार मिलने का चाव क्या होता है। प्रसाद तो केवल एक बहाना हुआ करता था। मंदिर और प्रसाद के बहाने एक बार फिर दोस्तों से गपियाने का मौका भी भला कोई छोड़ सकता था। इस बहाने थोड़ा और खेलने को जो मिल जाया करता।''
बच्चों को लग रहा था जैसे भाबो उन्हें एकदम नई दुनिया की बात बता रही है। अब बच्चे किसी तरह का कोई प्रश्न ही नहीं कर रहे थे। भाबो को लगा उन्हें पुराने मोहल्ले की सच्ची कथा अच्छे से रुच रही है। इसलिए उसने कहने की रफ्तार बढ़ा दी। वह आवाज साध कर कहने लगी, ''परिवार के सब लोग साथ में खाना खाते थे। खाने के बाद बच्चे अपनी पढ़ाई-लिखाई में लीन हो जाते। पुरुष लोग रेडियो पर देश-दुनिया के समाचार सुनने लगते। महिलाएं चौका उठा कर बचा हुआ खाना गाय को खिलाने की व्यवस्था करती। फिर थोड़ी देर के लिए टीवी देख लेती थी। तब टीवी बस नाम के लिए देखा जाता था। आज की तरह नहीं कि घर-परिवार समेत सारी दुनिया ही बा में सिमट कर रह जाए। कछु सूजता ही नहीं बाके बिना किसी को। तब तो हर काम का एक निश्चित समय हुआ करता था। ऐसा नहीं कि कभी भी कुछ भी करते रहो। देर रात तक जागने को अपनी शान समझते रहो। तब रात को जल्दी सो जाया करते। तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा कि उन दिनों रात इतनी जल्दी सुनसानी हो जाने पर भी किसी के मन में किसी चोर, डाकू या लुटेरे का डर नहीं था। आह!!! कैसा स्वर्ग जैसा था हमारा मोहल्ला। जहां सब अपनी-अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट थे। जो वहाँ बसे सभी परिवारों की एक छोटी सी खूबसूरत दुनिया थी।'' कहते-कहते भाबो की आंखों के पोर भीग गए।
जिस जगह पर बैठ कर भाबो कॉलोनी के बच्चों को पुराने मोहल्ले की स्वर्गिक जीवन की कथा सुना रही थी उसी के एक घर से तभी तेज कर्कश आवाज आई, ''रिंकू ओ रिंकू।'' सुनते ही सब चुप। थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया। रिंकू धीरे से भाबो के कान में बोला, ''लो हो गया पूरे मूड का सत्यानास। कितना अच्छा लग रहा था भाबो आपसे से कहानी सुनना। अब माँ की सुनो।'' भाबो उँगली होंठों पर रख रिंकू को इशारे से चुप रहने को कहती है। एक बार फिर वही कर्कश आवाज गूंजती है, ''रिंकू ओ रिंकू। कितनी बार कहा है दादी को परेशान मत किया करो। देखो कितनी रात हो गई है। अभी स्कूल का होमवर्क भी करना है तुम्हें। कहीं फेल हो गए तो क्या होगा। सारे मोहल्ले में हमारी नाक कट जाएगी। दिनभर बस खेल-खेल-खेल और कुछ सूझता ही नहीं है तुम्हें। धूप में ज्यादा खेलोगे तो काले हो जाओगे। ऊपर से ज़माना बहुत खराब है। खेलना ही है तो घर में खेलो ना। किसके लिए ला कर दिये हैं तुम्हें इतने गेम और इतने मंहगे-महंगे खिलौने। अरे जो खिलौने तुम्हारे पास हैं वे पूरी कॉलोनी में किसी के पास नहीं हैं समझे।'' अपनी मम्मी के भाषण पर रिंकू और भाबो के चेहरे उतर गए। पुराने मोहल्ले की कहानी सुन कर उन्हें जितनी सुखानुभूति हो रही थी, रिंकू की मम्मी का स्वार्थी और घमण्डी व्याख्यान सुन कर उन्हें उतना ही दुख हुआ। वे अपने को संयत कर पुराने मोहल्ले की कुछ और बातों का आनन्द लेते लेकिन रिंकू की मम्मी चुप न हुई। वह बोलती रही, ''और हाँ कल वो शर्मा आंटी मिली थी। उसने बताया कि कल तुमने उनके घर जम कर पकोड़े खाये! कोई जरूरत नहीं है किसी के घर कुछ भी खाने-पीने की। राम जाने कौन क्या खिला-पिला दे। अपने घर का साफ पानी ही पिया करो। या फिर बिसलरी खरीद कर ही पिया करो। पता नहीं लोगों के घर में एक्वागार्ड है भी या नहीं। वह है ना, क्या नाम है उनका शर्मा आंटी। उनका दिया कुछ भी न खाया करो। वह सब घर में ही बनाती है। उनके यहाँ तो जैतून का तेल भी इस्तेमाल नहीं होता। बेकार में तुम्हारी तबियत खराब हो जाएगी। इससे अच्छा है पिज्जा ऑर्डर कर दिया करो। कम से कम ताज़ा तो मिलेगा। पता नहीं शर्मा आंटी कॉलोनी के बच्चों को इतना क्यूँ खिलाती है! साफ सफाई का भी ध्यान रखा है या नहीं, पता नहीं। इसलिए कह रही हूँ कोई जरूरत नहीं उनके यहाँ कुछ खाने-पीने की समझे। रही बात खेल की तो अपने घर के आँगन में जो खेलना है खेल लिया करो, पर ज्यादा किसी से घुलने-मिलने की जरूरत नहीं है। फिर कोई कुछ कहता है तो अच्छा नहीं लगता।''
मोहल्ले में जैसे इस वक्त रिंकू की मम्मी की आवाज डरावनी बन कर गूंज रही थी। सहसा भाबो को लगा जैसे अन्दर कुछ टूटने लगा है। बच्चों को आदर्श सिखाने के बहाने उसने पुराने मोहल्ले की जो अधूरी कहानी सुनाई और जिसे बच्चे ध्यान से सुनने लगे थे, उसमें जैसे बड़ा विघ्न उत्पन्न हो गया। रिंकू की मम्मी थी कि चुप होने को राजी ही न हो। वह तीखे स्वर में बोलती रही, ''क्रिकेट खेलने की तो बिलकुल ही जरूरत नहीं है। बेकार में यहाँ-वहाँ गेंद चली जाती है और मेहता अंकल को चिल्लाने का मौका मिल जाता है। किसी की खिड़की का काँच टूटने का खर्चा देना पड़ता है सो अलग। इससे तो अच्छा वीडियो गेम खेल लिया करो। और सुनो कल मुझे कुछ सामान ला देना। कुछ मेहमान आने वाले हैं। सामान माल से जा कर ही लाना। पास की डेरी से मत ले आना। कितना गंदा रखता है वह सब कुछ। मक्खियाँ छी मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं उसकी दुकान पर। छी छी छी…उफ़्फ़ तू तो माल से ही पैकेट वाला दूध और दही लाना। अब तो छोटी दुकानों से कुछ भी ख़रीदने का धर्म ही नहीं बचा। किसी बड़ी कंपनी का ही लाना। ऐसा न हो कि पैसा भी खर्च कर दो और किसी ऐरी-गैरी कंपनी का उठा लाओ। केवल अमूल या नेसले का ही लाना।'' रिंकू परेशान है और मन में सोचता है कि एक बार माँ का रिकॉर्ड शुरू हो जाये तो बंद होने का नाम ही नहीं लेता। चिढ़ कर रिंकू जोर से कहता है, ''हाँ हाँ माँ मैं सब समझ गया। तुम बिलकुल चिंता न करो। मैं तुम्हारी सब बातों को याद रखूँगा।''
रिंकू अपने घर जाते-जाते भाबो की बातों के बारे में सोच रहा है। भाबो, रिंकू और कॉलोनी के दूसरे बच्चों के दिल और दिमाग में एक ही प्रश्न चक्की की तरह घूम रहा है। कि भाबो के पुराने मोहल्ले में कितना अपनापन, प्यार और एकता थी। और हमारी कॉलोनी में रह रहे आज के लोगों में स्वार्थ, घमण्ड और परायेपन की भावना कितनी गहरा गई है! रिंकू को भाबो का मोहल्ला एक सपना सा लग रहा है। जैसे भाबो ने उसे अपनी ज़िंदगी की असलियत नहीं बल्कि कोई मनगढ़ंत कहानी सुनाई थी। भाबो को अनुभव हुआ जैसे वह अब इस दुनिया में ही नहीं है। जहां वह रहा करती थी उसके मुकाबले ये दुनिया तो कुछ और ही है। जहां लोगों को न तो खुद पर भरोसा है और ना ही अपने परिवार वालों पर।
(साभार जनसत्ता, रविवार०८ दिसम्बर २०१३ को जनसत्ता के रविवारी विशेषांक में प्रकाशित कहानी)http://epaper.jansatta.com/195615/Jansatta.com/08122013#page/14/1
Monday, 2 December 2013
बार्सिलोना भाग -3 तीसरा और अंतिम भाग
दूसरे भाग में हम छोड़ ज़रूर आए थे वो गालियां...लेकिन जब तक हम वहाँ थे, तब तक कैसे छोड़ सकते थे वहाँ की गलियों को, सो अगले दिन फिर चले हम उन्हीं गलियों में कुछ नया देखने की चाह में कुछ नया पाने की चाह में और जैसा कि मैंने पहले भाग में भी बताया था। स्पेन का यह शहर बार्सिलोना गाउडी की खूबसूरत इमारतों से भरा पड़ा है। तो इस बार भी आपको यह नाम बार-बार पढ़ने को मिलेगा।
खैर अब बारी है तीसरे दिन की इस दिन हम लोग सुबह गाउडी के बनाये एक भव्य गिरजा घर (चर्च) में पहुँचे जो अंदर और बाहर दोनों ही जगह से देखने में लाजवाब था। वहाँ उस चर्च के बाहर बनी ईसा की ज़िंदगी से जुड़ी कहानी कहती मूर्तियाँ अपने आप में इतनी अदबुद्ध और सचेत लग रही थी कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रही था, मानो अभी बोल पड़ेंगी। और एक खास बात उस चर्च के दरवाजे पर अलग–अलग भाषा में कुछ लिखा हुआ था और लोग उसकी तस्वीरें लेने में व्यस्त थे। भीड़ इतनी थी कि उस वक्त वहाँ खड़े रहना मुश्किल हो रहा था। जिसके कारण हम ध्यान नहीं दे पाये कि आखिर ऐसा क्या लिखा है, जो लोग टूटे पड़े हैं उस दरवाजे की तस्वीर लेने के लिए। फिर जब अंदर भी एक दीवार पर टंगे परदे पर वही सब लिखा देखा तब समझ आया कि उस पर क्या लिखा था। उस पर हर भाषा में एक ही बात लिखी थी। यहाँ तक के संस्कृत में भी जो लिखा था वो यह "Give us this day our daily bread" था आगे चलकर अंदर से उस चर्च की खूबसूरती देखते ही बन रही थी। बड़ी-बड़ी खिड़कीयों में रंग बिरंगे काँच लगे थे। जो वहाँ उस चर्च में एक अलग ही तरह की रोशनी बिखरे रहे थे और गाउडी की कलाकारी के चलते वहाँ लगे बड़े-बड़े स्तंभों पर बने फूल जो न सिर्फ उन स्तंभों की शोभा बड़ा रहे थे बल्कि उन स्तंभों की मज़बूती की वजह भी वही थे।
सच कहूँ तो उस ज़माने में ऐसी तकनीक के प्रयोग को देखकर तो मेरा मन बाग़-बाग़ हुआ जाता था। उस तकनीक को दर्शाने और आम लोगों को समझाने के लिए वहाँ अंदर कम्प्यूटर भी लगे थे। जिन पर उन स्तंभों को बनाये जाने की वजह दिखायी जा रही थी। वो देखने के बाद अगली मंजिल की और चलना तय हुआ। बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। मगर घूमना तो था ही, ज्यादा इंतज़ार करना संभव नहीं लग रहा था। तो हम चले पिकासो की बनी चित्रकारी का संग्रहालय देखने। अर्थात (पिकासो म्यूजियम) लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वहाँ पहुँचते पहुँचते हम लोग हल्का-हल्का भीग ही गए थे। इसलिए भी वहाँ घूमने वो मज़ा नहीं आया जो आना चाहिए था। यह संग्रहालय था भी बहुत बड़ा। तो उसे देखते से ही सबसे पहले एक ही ख्याल दिमाग में आया "इतना बड़ा म्यूज़ियम एक दिन में पूरा अच्छे से देख पाना संभव नहीं" कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उस संग्रहालय को देखने का आधा जोश तो वहीं ठंडा पड़ गया था। शायद इसी वजह से वहाँ मुझे तो ऐसा कुछ खास मज़ा नहीं आया। हाँ यदि फिर भी कोई कहे कि किसी एक पेंटिंग को चुनो। तो मैं एक मरते हुए ऊँट की चित्रकारी को चुनूंगी। वह तस्वीर सच में अपने आप में अदबुद्ध थी , जिसमें उस ऊँट की पीड़ा को इतने सशक्त ढंग से उकेरा गया था कि शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं है। सही मायने में तो वह पेंटिंग नहीं थी। वह महज़ पेंसिल से बनाया गया एक स्केच था। लेकिन वहाँ फोटो खींचने की अनुमति न होने के कारण हम फोटो नहीं ले पाये।
खैर वहाँ शायद बारिश में हल्का भीग जाने की वजह से हम लोगों का ज्यादा मन नहीं लगा। तो तय हुआ “पहले पेट पूजा बाद में काम दूजा” सो वहाँ से फिर हम चले एक "स्पेनिश रेस्टोरेन्ट" में जहां हमने कॉफी के साथ कुछ थोड़ा बहुत खाया और फिर हम चले अपनी अगली मंजिल की और वो था वहाँ का प्रसिद्ध मछली घर ( Aquàrium de Barcelona) जहां हमारे साहब ज़ादे जाने को व्याकुल हो रहे थे। वहाँ पहुँच कर हम थक के चूर हो चुके थे। मेरे तो पैरों ने जवाब दे दिया था, मगर बालक बहुत उत्साहित था । तो थके होते हुए भी उसका साथ निभाना ही पड़ा। तरह-तरह की मछलियाँ देखकर बहुत खुशी हो रहा था वो, सबसे ज्यादा बड़ी-बड़ी शार्क और औक्टोपस देखने में मज़ा आ रहा था। काँच की गुफा में अपने चारों तरफ समुद्री दुनिया देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम सब समुद्र के अंदर ही आगए हैं। जो अपने आप में बड़ा ही रोचक अनुभव रहा। वहाँ से लौट कर यह दिन भी खत्म हो गया।
अगले दिन सुबह पहाड़ (Montserrat, Catalonia) पर जाने वाली ट्रेन का कार्यक्रम बना। लेकिन यह अनुभव कुछ वैसा रहा जैसे वो कहते है न “खोदा पहाड़ और निकली चुहिया” जब सभी स्टेशनों और बस अड्डों पर हमने इस ट्रेन के पोस्टर देखे थे। तो हमें लगा था यह शिमला या डार्जिलिंग की ट्रेन जैसा सफर होगा प्राकृतिक नज़ारों से गुज़रती हुई सपनों जैसी ट्रेन के जैसा। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। वहाँ पहुँचकर पता चला केवल खड़ी चढाई चढ़ने के लिए यह ट्रेन बनाई गयी थी, जो चींटी की चाल से भी धीरे चला करती है। इस ट्रेन को funicular कहा जाता है। पर हाँ एक बात अच्छी लगी ऊपर पहाड़ पर ले जाने से लेकर वापस नीचे लौटने तक ट्रेन चालक महिला ही थी। नहीं तो अमूमन ऐसे कामों के लिए महिलाओं की नियुक्ति कम ही देखने को मिला करती है। नहीं ? वहाँ से वापस आते समय हम केबल कार से आए जिसे Aeri de Montserrat कहा जाता है। उस दिन केवल एक यही जगह घूमी हमने और इसी में पूरा दिन निकल गया।
फिर उसके अगले दिन प्रोग्राम बना साइन्स म्यूज़ियम देखने का बेटा आज भी बहुत उत्साहित था। क्योंकि आगे का तो पता नहीं मगर अभी ज़रूर जनाब की ईच्छा साइंटिस्ट बनने की है। खैर वहाँ के लिए जब निकले तो एक से नाम होने की वजह से भ्रमित हो गए थे हम लोग और वो गाना है ना
जैसा काम हो गया।
लेकिन जापान अर्थात गलत जगह पहुँचकर भी अफ़सोस नहीं हुआ। क्योंकि वहाँ हमें देखने को मिला "पिस्सारो संग्रहालय" जहां उनकी बनायी गयी अदबुद्ध चित्रकारी की प्रदर्शनी लगी हुई थी। कुछ पेंटिंग तो अपने आप में इतनी सुंदर थी की मेरा तो दिल किया सभी ख़रीद लूँ। मगर दिल की बात न पूछो दिल तो आता रहेगा... तो हमने किसी तरह अपने दिल को मनाया और आँखों को उन तसवीरों को देखने और मन भर लेने का हुक्म दिया। पर यहाँ भी फोटो लेना मना था।
उस दिन तो जैसे बस संग्रहालय देखने का ही दिन था। पिस्सारो से फ़ारिब होने के बाद हम पहुँचे एक दूजे संग्रहालय (Museu d'Història de Barcelona) में जहां ना हमें केवल बेहतरीन चित्रकारी ही देखी। बल्कि अदबुद्ध मूर्ति या शिल्पकला जो भी कह लीजिये भी देखी। यह सब देखते-देखते शाम हो चुकी थी।
अब भी गाउडी के द्वारा बनायी हुए एक अदबुद्ध इमारत देखना बाक़ी थी। जिसका नाम था LA Padrera सो यहाँ से फिर हम चले उसी इमारत की और जहां इतना कुछ था देखने के लिए कि यदि सभी कुछ बताने बैठी तो यह ब्लॉग पोस्ट, पोस्ट न रहकर पुराण बन जायेगी। तो आप सब लोग फ़िलहाल तस्वीरें ही देखकर काम चला लें। क्योंकि इतना कुछ बताने के बाद भी अभी साइंस मुसीयम बाकी है।
अब आता है अंतिम दिन उस दिन हम लोगों ने केवल यही जाना तय किया और सुबह जल्दी ही होटल से चेक आउट करके उन्हीं के क्लॉक रूम में समान रखकर हम निकल लिए "साइन्स म्यूज़ियम" (CosmoCaixa) की ओर वहाँ पहुँचकर बहुत कुछ देखा, जाना, समझा एक तरह से बचपन की पढ़ी चीज़ें ताज़ा हो गयी और साथ-साथ ही साथ कुछ नया भी देखने को मिला। जैसे वहाँ अमेज़न के जंगल को एक काल्पनिक रूप से नकली जंगल बनाकर दिखाने की कोशिश की गयी है, जहां पर इतनी बारिश होती है जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते और वहाँ के पेड़ लंबाई में करीब करीब आधे से ज्यादा पानी में डूबे रहते हैं। बेटा वहाँ जाकर बहुत खुश हुआ। उसका तो जैसे वहाँ से लौटने का मन ही नहीं हो रहा था, मगर मंजिल कितनी भी खूबसूरत क्यूँ न हो अपने आशियानें में तो सब को लौटकर आना ही पड़ता है।
सो हम भी उसी शाम बार्सिलोना को बाय-बाय कह आए और इस तरह हमारी यह यात्रा यही समाप्त हो गयी। वहाँ हमें क्या देखा उसकी तस्वीरें नीचे है आप भी देखीए और मज़े लीजिये।
खैर अब बारी है तीसरे दिन की इस दिन हम लोग सुबह गाउडी के बनाये एक भव्य गिरजा घर (चर्च) में पहुँचे जो अंदर और बाहर दोनों ही जगह से देखने में लाजवाब था। वहाँ उस चर्च के बाहर बनी ईसा की ज़िंदगी से जुड़ी कहानी कहती मूर्तियाँ अपने आप में इतनी अदबुद्ध और सचेत लग रही थी कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रही था, मानो अभी बोल पड़ेंगी। और एक खास बात उस चर्च के दरवाजे पर अलग–अलग भाषा में कुछ लिखा हुआ था और लोग उसकी तस्वीरें लेने में व्यस्त थे। भीड़ इतनी थी कि उस वक्त वहाँ खड़े रहना मुश्किल हो रहा था। जिसके कारण हम ध्यान नहीं दे पाये कि आखिर ऐसा क्या लिखा है, जो लोग टूटे पड़े हैं उस दरवाजे की तस्वीर लेने के लिए। फिर जब अंदर भी एक दीवार पर टंगे परदे पर वही सब लिखा देखा तब समझ आया कि उस पर क्या लिखा था। उस पर हर भाषा में एक ही बात लिखी थी। यहाँ तक के संस्कृत में भी जो लिखा था वो यह "Give us this day our daily bread" था आगे चलकर अंदर से उस चर्च की खूबसूरती देखते ही बन रही थी। बड़ी-बड़ी खिड़कीयों में रंग बिरंगे काँच लगे थे। जो वहाँ उस चर्च में एक अलग ही तरह की रोशनी बिखरे रहे थे और गाउडी की कलाकारी के चलते वहाँ लगे बड़े-बड़े स्तंभों पर बने फूल जो न सिर्फ उन स्तंभों की शोभा बड़ा रहे थे बल्कि उन स्तंभों की मज़बूती की वजह भी वही थे।
सच कहूँ तो उस ज़माने में ऐसी तकनीक के प्रयोग को देखकर तो मेरा मन बाग़-बाग़ हुआ जाता था। उस तकनीक को दर्शाने और आम लोगों को समझाने के लिए वहाँ अंदर कम्प्यूटर भी लगे थे। जिन पर उन स्तंभों को बनाये जाने की वजह दिखायी जा रही थी। वो देखने के बाद अगली मंजिल की और चलना तय हुआ। बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। मगर घूमना तो था ही, ज्यादा इंतज़ार करना संभव नहीं लग रहा था। तो हम चले पिकासो की बनी चित्रकारी का संग्रहालय देखने। अर्थात (पिकासो म्यूजियम) लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वहाँ पहुँचते पहुँचते हम लोग हल्का-हल्का भीग ही गए थे। इसलिए भी वहाँ घूमने वो मज़ा नहीं आया जो आना चाहिए था। यह संग्रहालय था भी बहुत बड़ा। तो उसे देखते से ही सबसे पहले एक ही ख्याल दिमाग में आया "इतना बड़ा म्यूज़ियम एक दिन में पूरा अच्छे से देख पाना संभव नहीं" कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उस संग्रहालय को देखने का आधा जोश तो वहीं ठंडा पड़ गया था। शायद इसी वजह से वहाँ मुझे तो ऐसा कुछ खास मज़ा नहीं आया। हाँ यदि फिर भी कोई कहे कि किसी एक पेंटिंग को चुनो। तो मैं एक मरते हुए ऊँट की चित्रकारी को चुनूंगी। वह तस्वीर सच में अपने आप में अदबुद्ध थी , जिसमें उस ऊँट की पीड़ा को इतने सशक्त ढंग से उकेरा गया था कि शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं है। सही मायने में तो वह पेंटिंग नहीं थी। वह महज़ पेंसिल से बनाया गया एक स्केच था। लेकिन वहाँ फोटो खींचने की अनुमति न होने के कारण हम फोटो नहीं ले पाये।
खैर वहाँ शायद बारिश में हल्का भीग जाने की वजह से हम लोगों का ज्यादा मन नहीं लगा। तो तय हुआ “पहले पेट पूजा बाद में काम दूजा” सो वहाँ से फिर हम चले एक "स्पेनिश रेस्टोरेन्ट" में जहां हमने कॉफी के साथ कुछ थोड़ा बहुत खाया और फिर हम चले अपनी अगली मंजिल की और वो था वहाँ का प्रसिद्ध मछली घर ( Aquàrium de Barcelona) जहां हमारे साहब ज़ादे जाने को व्याकुल हो रहे थे। वहाँ पहुँच कर हम थक के चूर हो चुके थे। मेरे तो पैरों ने जवाब दे दिया था, मगर बालक बहुत उत्साहित था । तो थके होते हुए भी उसका साथ निभाना ही पड़ा। तरह-तरह की मछलियाँ देखकर बहुत खुशी हो रहा था वो, सबसे ज्यादा बड़ी-बड़ी शार्क और औक्टोपस देखने में मज़ा आ रहा था। काँच की गुफा में अपने चारों तरफ समुद्री दुनिया देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम सब समुद्र के अंदर ही आगए हैं। जो अपने आप में बड़ा ही रोचक अनुभव रहा। वहाँ से लौट कर यह दिन भी खत्म हो गया।
अगले दिन सुबह पहाड़ (Montserrat, Catalonia) पर जाने वाली ट्रेन का कार्यक्रम बना। लेकिन यह अनुभव कुछ वैसा रहा जैसे वो कहते है न “खोदा पहाड़ और निकली चुहिया” जब सभी स्टेशनों और बस अड्डों पर हमने इस ट्रेन के पोस्टर देखे थे। तो हमें लगा था यह शिमला या डार्जिलिंग की ट्रेन जैसा सफर होगा प्राकृतिक नज़ारों से गुज़रती हुई सपनों जैसी ट्रेन के जैसा। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। वहाँ पहुँचकर पता चला केवल खड़ी चढाई चढ़ने के लिए यह ट्रेन बनाई गयी थी, जो चींटी की चाल से भी धीरे चला करती है। इस ट्रेन को funicular कहा जाता है। पर हाँ एक बात अच्छी लगी ऊपर पहाड़ पर ले जाने से लेकर वापस नीचे लौटने तक ट्रेन चालक महिला ही थी। नहीं तो अमूमन ऐसे कामों के लिए महिलाओं की नियुक्ति कम ही देखने को मिला करती है। नहीं ? वहाँ से वापस आते समय हम केबल कार से आए जिसे Aeri de Montserrat कहा जाता है। उस दिन केवल एक यही जगह घूमी हमने और इसी में पूरा दिन निकल गया।
फिर उसके अगले दिन प्रोग्राम बना साइन्स म्यूज़ियम देखने का बेटा आज भी बहुत उत्साहित था। क्योंकि आगे का तो पता नहीं मगर अभी ज़रूर जनाब की ईच्छा साइंटिस्ट बनने की है। खैर वहाँ के लिए जब निकले तो एक से नाम होने की वजह से भ्रमित हो गए थे हम लोग और वो गाना है ना
“जान था जापान पहुँच गए चीन समझ गए ना”
जैसा काम हो गया।
लेकिन जापान अर्थात गलत जगह पहुँचकर भी अफ़सोस नहीं हुआ। क्योंकि वहाँ हमें देखने को मिला "पिस्सारो संग्रहालय" जहां उनकी बनायी गयी अदबुद्ध चित्रकारी की प्रदर्शनी लगी हुई थी। कुछ पेंटिंग तो अपने आप में इतनी सुंदर थी की मेरा तो दिल किया सभी ख़रीद लूँ। मगर दिल की बात न पूछो दिल तो आता रहेगा... तो हमने किसी तरह अपने दिल को मनाया और आँखों को उन तसवीरों को देखने और मन भर लेने का हुक्म दिया। पर यहाँ भी फोटो लेना मना था।
उस दिन तो जैसे बस संग्रहालय देखने का ही दिन था। पिस्सारो से फ़ारिब होने के बाद हम पहुँचे एक दूजे संग्रहालय (Museu d'Història de Barcelona) में जहां ना हमें केवल बेहतरीन चित्रकारी ही देखी। बल्कि अदबुद्ध मूर्ति या शिल्पकला जो भी कह लीजिये भी देखी। यह सब देखते-देखते शाम हो चुकी थी।
अब भी गाउडी के द्वारा बनायी हुए एक अदबुद्ध इमारत देखना बाक़ी थी। जिसका नाम था LA Padrera सो यहाँ से फिर हम चले उसी इमारत की और जहां इतना कुछ था देखने के लिए कि यदि सभी कुछ बताने बैठी तो यह ब्लॉग पोस्ट, पोस्ट न रहकर पुराण बन जायेगी। तो आप सब लोग फ़िलहाल तस्वीरें ही देखकर काम चला लें। क्योंकि इतना कुछ बताने के बाद भी अभी साइंस मुसीयम बाकी है।
अब आता है अंतिम दिन उस दिन हम लोगों ने केवल यही जाना तय किया और सुबह जल्दी ही होटल से चेक आउट करके उन्हीं के क्लॉक रूम में समान रखकर हम निकल लिए "साइन्स म्यूज़ियम" (CosmoCaixa) की ओर वहाँ पहुँचकर बहुत कुछ देखा, जाना, समझा एक तरह से बचपन की पढ़ी चीज़ें ताज़ा हो गयी और साथ-साथ ही साथ कुछ नया भी देखने को मिला। जैसे वहाँ अमेज़न के जंगल को एक काल्पनिक रूप से नकली जंगल बनाकर दिखाने की कोशिश की गयी है, जहां पर इतनी बारिश होती है जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते और वहाँ के पेड़ लंबाई में करीब करीब आधे से ज्यादा पानी में डूबे रहते हैं। बेटा वहाँ जाकर बहुत खुश हुआ। उसका तो जैसे वहाँ से लौटने का मन ही नहीं हो रहा था, मगर मंजिल कितनी भी खूबसूरत क्यूँ न हो अपने आशियानें में तो सब को लौटकर आना ही पड़ता है।
सो हम भी उसी शाम बार्सिलोना को बाय-बाय कह आए और इस तरह हमारी यह यात्रा यही समाप्त हो गयी। वहाँ हमें क्या देखा उसकी तस्वीरें नीचे है आप भी देखीए और मज़े लीजिये।
Wednesday, 27 November 2013
बार्सिलोना भाग -2 (यात्रा वृतांत)
स्पेन यात्रा के विषय में लिखा गया मेरा यात्रा वृतांत .... बार्सिलोना -भाग-2 मेरी इस ताज़ा पोस्ट पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें।
Monday, 25 November 2013
बार्सिलोना भाग -2
अब बारी थी अगले दिन के कार्यक्रम को बनाने की, पहले दिन जब गाउडी की बनी शानदार इमारत देखी। तब जाकर मन में स्पेन घूमने का थोड़ा उत्साह जागा। हालांकी मुझे तो इतनी शानदार इमारत देखने के बाद भी, मन में हल्की सी निराशा हुई थी। क्योंकि स्पेन जाने से पहले जैसा मैंने इस इमारत के विषय में पढ़ा था और जैसी मेरे मन ने कल्पना की थी, वैसा वहाँ कुछ भी नहीं था। लेकिन जो था, वह शायद मेरी कल्पना से ज्यादा बेहतर था। खैर उस दिन देर रात तक घूमने के बाद जब हम वापस होटल पहुँचे तो पैर जवाब दे रहे थे कि बस अब बहुत हुआ। अब और नहीं चला जाएगा हम से, अगले दिन के लिए कोई छोटी मोटी सी यात्रा का ही चयन करना। वरना हम चलने से इंकार कर देंगे। अब भला ऐसे में हम अपने पैरों की कही हुई बात को नज़र अंदाज़ कैसे कर सकते थे। आखिर हमारे लिए तो सभी एक बराबर है न। क्या दिल क्या दिमाग और क्या पैर, सबकी सुननी पड़ती है भई...
सो अगले दिन “ला रांबला” जाना तय हुआ। सुबह आराम से उठकर नहा धोकर जब स्पेन की गरमागरम धूप में बैठकर नाश्ता किया तो जैसे दिल बाग़-बाग़ हो गया। फिर तरो ताजे मन से हम चले अपनी मंजिल की और “वहाँ पहुँच कर क्या देखते है” कि अरे यह तो यहाँ का लोकल मार्किट है। अर्थात सड़क के एक छोर से दूर कहीं दूसरे छोर तक लगा हुआ बाज़ार है। जैसे अपने दिल्ली का सरोजनी मार्केट या करोल बाग है ना, ठीक वैसा ही। यह “ला रांबला” नाम की सड़क भी स्पेन के मुख्य आकर्षण में से एक है। जहां पर्यटकों को लुभाने के लिए साज सज़्जा से लेकर खाने पीने की कई तरह की दुकानें थी। छोटे मोटे कई रेस्टोरेन्ट थे। मगर अधिकांश लोग मदिरा (बियर) का सेवन करते हुए ही नज़र आए। मुख्यता इस सड़क पर हमने देखा कि वहाँ “बार्सिलोना” के मुख्य स्थलों की तसवीरों से सज़ा, साज़ो समान बिक रहा था। महिलाएं और बच्चे कपड़ों और खिलौनों की ख़रीदारी में व्यस्त थे। वहाँ सभी इमारते नंबर से जानी जाती है। वहीं पास में एक भारतीय रेस्टोरेन्ट भी था जिसका नाम "बोलीवुड" था, तीन दिन हम लोगों ने वहीं खाना खाया था तब एक दिन उस रेस्टोरेन्ट में काम करने वाले एक कर्मचारी ने हम से पूछा कि आपने वो डांस देखा क्या जो उस फिल्म में "ज़िंदगी न मिलेगी दुबारा" में दिखाया गया था। यह सुनकर हमारे दिमाग में एकदम से वह गाना आया नहीं तो वह बोला "अरे वही गाना सेनियोरिटा वाला" तब अचानक से याद आया अच्छा-अच्छा हाँ वो गीत ... तो "उसने कहा हाँ वही वाला डांस, यहाँ पास ही एक जगह है जहां होता है"। यह सुनकर हमारे मन भी बड़ी इच्छा हो आई कि हम भी वो डांस देखें। मगर जब टिकिट का दाम जाना तो इरादा रद्द करना ही उचित समझा। तीनों का मिलकर दो सो पचास यूरो हो रहा था वह भी यदि कोई अपना टिकट रद्द कर दे तब, उसके लिए 45 मिनट इंतज़ार करना।
खैर विषय से ना भटकते हुए हम फिर हम फिर वहीं आते है उस बाज़ार में भटकने बाद तभी हमने वहाँ सामने सड़क के उस पार एक और बाज़ार नजर आया। जहां सिर्फ खाने के शौक़ीन लोगों के लिए ही वहाँ मौजूद था। फिर चाहे वह मुर्गा, मच्छी हो या केंकड़े या फिर तरह-तरह की मिर्चीयां और मीठे के नाम पर चॉकलेट और आइसक्रीम, जी हाँ मजे की बात तो यह थी, कि वहाँ कई जगह रंग बिरंगी आइसक्रीम भी थी ठीक वैसी ही जैसी बचपन में हम और आप खाते थे ना, नारंगी रंग वाली। जिसमें सिवाय बर्फ़ और रंग के कोई स्वाद ही नहीं होता था। आह !!! फिर भी कितनी स्वादिष्ट लगती थी न। ठीक वैसी ही आइसक्रीम यहाँ भी बिक रही थी। मुँह में पानी आरहा है ना !!! फ़िलहाल आप तस्वीरों में भी देखकर ही काम चला सकते हैं। वहाँ भी (स्पेन) में और यहाँ (लंदन) में भी आजकल अलग-अलग स्वाद वाला फ़्रोजन दही बड़े चलन में है। जो देखने में एकदम आइसक्रीम की तरह ही दिखता है, मगर होता दही है। क्या बच्चे और क्या बड़े सभी इस दही का आनंद लेते नज़र आते है।
वहाँ से घूमते-घूमते हम पहुँचे एक थिएटर (Palau de la Música Catalana) जिसकी सुंदरता देखने लायक थी। उस थिएटर की विशेषता भी वही थी कि वहाँ बने स्तंभों दीवारों और छत पर टूटे हुए टाइल्स के टुकड़ों से बहुत ही सुंदर आकृतियाँ बनाकर उन्हें सजाया गया था और यह टूटे हुए टाइल्स से बनी चीज़ें भी बार्सिलोना के प्रमुख्य आकर्षणों में से एक है। मगर अफ़सोस कि उस दिन वहाँ पहुँचने में देर हो जाने के कारण, हम वह थिएटर अंदर से नहीं देख पाये। इतने सुंदर थिएटर को अंदर से ना देख पाने का दुःख तो हुआ। मगर क्या किया जा सकता था।
वहाँ से हम गोथिक क्वाटर्स की ऐतिहासिक गलियों से घूमते हुये, हम पहुँचे वहाँ के एक प्रसिद्ध गिरजाघर (Barcelona Cathedral) के पास जिसके द्वार पर बनी मूर्तियों की नक़्क़ाशी अपने आप में अत्यंत अदबुद्ध, अत्यंत सुंदर एवं सराहनीय थी। उस वक्त शायद वह गिरजाघर (चर्च) बंद था या नहीं ठीक से याद तो नहीं है। लेकिन ज्यादातर सभी पर्यटक गिरजाघर (चर्च) के बाहर सीढ़ियों पर ही अपना-अपना डेरा जमाए बैठे थे। जिनमें से अधिकांश लोग मुख्यतः गिरजाघर (चर्च) के द्वार की तस्वीरें लेने में व्यस्त थे। तो मेरा भी मन हो गया और हमने भी वहाँ एक फोटो खिंचवा ही लिया। यह सब घूमते घामते थक के चूर हो चुके भूख से व्याकुल हम लोगों ने फिर बर्गर किंग पर धावा बोला। क्या करो विदेश में हम जैसे चुनिंदा खाने पीने वाले लोगों के साथ बड़ी समस्या हो जाती है। ऐसे में फिर “मेकडोनाल्ड” या “बर्गर किंग” ही हम जैसों का एकमात्र सहारा बचता है। खैर फिर थोड़ा बहुत खा पीकर होटल वापस लौटने का तय हुआ। मगर फिर याद आया कि जहां हम खड़े हैं “एसपानीया” में वहाँ से कुछ ही दूर पर एक और दार्शनिक फब्बारा(The Magic Fountain at Montjuic) है। जिसे देखने लोग दूर-दूर से आते है। हमने सोचा चलो अब जब यहाँ तक आ ही गए है तो देख लेते हैं। बस यही सोचकर हम लोग किसी तरह गिरते पड़ते बस से वहाँ पहुँचे। लेकिन शायद उस दिन जैसे किसी बहुत अच्छी चीज़ को देखने का मुहूर्त ही नहीं था। वहाँ जाकर पता चला यह फुब्बारा केवल हफ़्ते में केवल दो ही दिन चलते है। शनिवार और इतवार को, यह सुनकर दिमाग का दही हो गया। मगर अब हो भी क्या सकता था। वापस लौट जाने के अलावा और कोई दूजा विकल्प भी नहीं था। तो बस “एसपानिया” से ट्रेन पकड़कर छोड़ आए हम वो गलियां...
सो अगले दिन “ला रांबला” जाना तय हुआ। सुबह आराम से उठकर नहा धोकर जब स्पेन की गरमागरम धूप में बैठकर नाश्ता किया तो जैसे दिल बाग़-बाग़ हो गया। फिर तरो ताजे मन से हम चले अपनी मंजिल की और “वहाँ पहुँच कर क्या देखते है” कि अरे यह तो यहाँ का लोकल मार्किट है। अर्थात सड़क के एक छोर से दूर कहीं दूसरे छोर तक लगा हुआ बाज़ार है। जैसे अपने दिल्ली का सरोजनी मार्केट या करोल बाग है ना, ठीक वैसा ही। यह “ला रांबला” नाम की सड़क भी स्पेन के मुख्य आकर्षण में से एक है। जहां पर्यटकों को लुभाने के लिए साज सज़्जा से लेकर खाने पीने की कई तरह की दुकानें थी। छोटे मोटे कई रेस्टोरेन्ट थे। मगर अधिकांश लोग मदिरा (बियर) का सेवन करते हुए ही नज़र आए। मुख्यता इस सड़क पर हमने देखा कि वहाँ “बार्सिलोना” के मुख्य स्थलों की तसवीरों से सज़ा, साज़ो समान बिक रहा था। महिलाएं और बच्चे कपड़ों और खिलौनों की ख़रीदारी में व्यस्त थे। वहाँ सभी इमारते नंबर से जानी जाती है। वहीं पास में एक भारतीय रेस्टोरेन्ट भी था जिसका नाम "बोलीवुड" था, तीन दिन हम लोगों ने वहीं खाना खाया था तब एक दिन उस रेस्टोरेन्ट में काम करने वाले एक कर्मचारी ने हम से पूछा कि आपने वो डांस देखा क्या जो उस फिल्म में "ज़िंदगी न मिलेगी दुबारा" में दिखाया गया था। यह सुनकर हमारे दिमाग में एकदम से वह गाना आया नहीं तो वह बोला "अरे वही गाना सेनियोरिटा वाला" तब अचानक से याद आया अच्छा-अच्छा हाँ वो गीत ... तो "उसने कहा हाँ वही वाला डांस, यहाँ पास ही एक जगह है जहां होता है"। यह सुनकर हमारे मन भी बड़ी इच्छा हो आई कि हम भी वो डांस देखें। मगर जब टिकिट का दाम जाना तो इरादा रद्द करना ही उचित समझा। तीनों का मिलकर दो सो पचास यूरो हो रहा था वह भी यदि कोई अपना टिकट रद्द कर दे तब, उसके लिए 45 मिनट इंतज़ार करना।
खैर विषय से ना भटकते हुए हम फिर हम फिर वहीं आते है उस बाज़ार में भटकने बाद तभी हमने वहाँ सामने सड़क के उस पार एक और बाज़ार नजर आया। जहां सिर्फ खाने के शौक़ीन लोगों के लिए ही वहाँ मौजूद था। फिर चाहे वह मुर्गा, मच्छी हो या केंकड़े या फिर तरह-तरह की मिर्चीयां और मीठे के नाम पर चॉकलेट और आइसक्रीम, जी हाँ मजे की बात तो यह थी, कि वहाँ कई जगह रंग बिरंगी आइसक्रीम भी थी ठीक वैसी ही जैसी बचपन में हम और आप खाते थे ना, नारंगी रंग वाली। जिसमें सिवाय बर्फ़ और रंग के कोई स्वाद ही नहीं होता था। आह !!! फिर भी कितनी स्वादिष्ट लगती थी न। ठीक वैसी ही आइसक्रीम यहाँ भी बिक रही थी। मुँह में पानी आरहा है ना !!! फ़िलहाल आप तस्वीरों में भी देखकर ही काम चला सकते हैं। वहाँ भी (स्पेन) में और यहाँ (लंदन) में भी आजकल अलग-अलग स्वाद वाला फ़्रोजन दही बड़े चलन में है। जो देखने में एकदम आइसक्रीम की तरह ही दिखता है, मगर होता दही है। क्या बच्चे और क्या बड़े सभी इस दही का आनंद लेते नज़र आते है।
वहाँ से घूमते-घूमते हम पहुँचे एक थिएटर (Palau de la Música Catalana) जिसकी सुंदरता देखने लायक थी। उस थिएटर की विशेषता भी वही थी कि वहाँ बने स्तंभों दीवारों और छत पर टूटे हुए टाइल्स के टुकड़ों से बहुत ही सुंदर आकृतियाँ बनाकर उन्हें सजाया गया था और यह टूटे हुए टाइल्स से बनी चीज़ें भी बार्सिलोना के प्रमुख्य आकर्षणों में से एक है। मगर अफ़सोस कि उस दिन वहाँ पहुँचने में देर हो जाने के कारण, हम वह थिएटर अंदर से नहीं देख पाये। इतने सुंदर थिएटर को अंदर से ना देख पाने का दुःख तो हुआ। मगर क्या किया जा सकता था।
वहाँ से हम गोथिक क्वाटर्स की ऐतिहासिक गलियों से घूमते हुये, हम पहुँचे वहाँ के एक प्रसिद्ध गिरजाघर (Barcelona Cathedral) के पास जिसके द्वार पर बनी मूर्तियों की नक़्क़ाशी अपने आप में अत्यंत अदबुद्ध, अत्यंत सुंदर एवं सराहनीय थी। उस वक्त शायद वह गिरजाघर (चर्च) बंद था या नहीं ठीक से याद तो नहीं है। लेकिन ज्यादातर सभी पर्यटक गिरजाघर (चर्च) के बाहर सीढ़ियों पर ही अपना-अपना डेरा जमाए बैठे थे। जिनमें से अधिकांश लोग मुख्यतः गिरजाघर (चर्च) के द्वार की तस्वीरें लेने में व्यस्त थे। तो मेरा भी मन हो गया और हमने भी वहाँ एक फोटो खिंचवा ही लिया। यह सब घूमते घामते थक के चूर हो चुके भूख से व्याकुल हम लोगों ने फिर बर्गर किंग पर धावा बोला। क्या करो विदेश में हम जैसे चुनिंदा खाने पीने वाले लोगों के साथ बड़ी समस्या हो जाती है। ऐसे में फिर “मेकडोनाल्ड” या “बर्गर किंग” ही हम जैसों का एकमात्र सहारा बचता है। खैर फिर थोड़ा बहुत खा पीकर होटल वापस लौटने का तय हुआ। मगर फिर याद आया कि जहां हम खड़े हैं “एसपानीया” में वहाँ से कुछ ही दूर पर एक और दार्शनिक फब्बारा(The Magic Fountain at Montjuic) है। जिसे देखने लोग दूर-दूर से आते है। हमने सोचा चलो अब जब यहाँ तक आ ही गए है तो देख लेते हैं। बस यही सोचकर हम लोग किसी तरह गिरते पड़ते बस से वहाँ पहुँचे। लेकिन शायद उस दिन जैसे किसी बहुत अच्छी चीज़ को देखने का मुहूर्त ही नहीं था। वहाँ जाकर पता चला यह फुब्बारा केवल हफ़्ते में केवल दो ही दिन चलते है। शनिवार और इतवार को, यह सुनकर दिमाग का दही हो गया। मगर अब हो भी क्या सकता था। वापस लौट जाने के अलावा और कोई दूजा विकल्प भी नहीं था। तो बस “एसपानिया” से ट्रेन पकड़कर छोड़ आए हम वो गलियां...