ज़िंदगी
ज़िंदगी एक बहुत बड़ी नियामत है जिसका कोई आकार-प्रकार, कोई आदि कोई अंत नहीं है। जहां एक और एक ज़िंदगी खत्म हो रही होती है। वहीं दूसरी और न जाने कितनी नयी ज़िंदगियाँ जन्म ले रही होती है। क्यूंकि ज़िंदगी तो आखिर ज़िंदगी ही होती है। फिर चाहे वो मानव की हो या किसी अन्य जीव जन्तु की, होती तो ज़िंदगी ही है। यह वो शब्द है, जो ‘ईश्वर की तरह’ है। अर्थात जो जिस रूप में इसे देखता है, या जो जैसा इस विषय में सोचता है। यह उसे वैसी ही नज़र आती है। किसी के लिए पहाड़ तो किसी के लिए शुरू हो से पहले ही खत्म हो जाने वाली एक छोटी सी डगर। अमीर घर में पैदा हुए किसी बच्चे के लिए ज़िंदगी कुदरत का अनमोल तोहफा होती है, तो बहुत ज्यादा गरीबी में ज़िंदगी कुदरत का अभिशाप भी बन जाती है।
मगर न जाने क्यूँ...पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ते हुए आतंकवाद और हादसों को लेकर आज मन बहुत उदास है। अभी हम कश्मीर में हुई तबाही से उबर भी नहीं पाये थे कि आसाम में भी इतने लोग मारे गए। मगर कहीं कोई दुख की लहर दिखाई नहीं दी, न आम जनता के चेहरे पर न वहाँ के प्रशासन पर, तभी तो जितना अफसोस पेशावर कांड के लिए दिखाया गया उसके मुक़ाबले तो शायद एक प्रतिशत भी आसाम या कश्मीर में मारे गए लोगों के लिए नहीं दिखया गया था।
एसा शायद इसलिए हुआ क्यूंकि वक्त तो किसी के लिए नहीं रुकता। कोई आए कोई जाये उसे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता। ज़िंदगी का दूसरा नाम वक्त ही तो है। वो भी तो किसी के लिए नहीं रुकती। एक ओर लोग मर रहे हैं। तो वहाँ दूसरी ओर लोग शादी ब्याह में अपना रुतबा दिखाने के लिए पैसा पानी की तरह बहा-बहाकर जश्न माना रहे है। दान धर्म तो जैसे भूली बिरसी बात हो गयी। फिर भी यदि कोई करता भी है तो मिडीया में आने क लिए। कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है। इसलिए चाहे वक्त कितना भी बुरा क्यूँ न चल रहा हो, इंसान को उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। क्यूंकि हर रात चाहे कितने भी गहरी, कितनी भी लंबी क्यूँ ना हो! किन्तु हर रात की सुबह ज़रूर होती है। सुनने और पढ़ने में तो यह बातें बहुत अच्छी लगती हैं। मगर कोई जाकर उनसे पूछे जो इस रात से गुज़र रहे हैं। उनके हालात देखकर तो मेरे अंदर की सारी उम्मीदें अब खत्म हो चुकी हैं। अब कोई फरिश्ता भी आकर सब कुछ ठीक कर दे तो बहुत अच्छा नहीं करे तो भी अब तो जैसे आदत हो चली है यह सब देखने सुनने की अब कोई फर्क ही नहीं पड़ता। शायद उसके आने में भी अब देर हो चुकी है।
कितनी आजीब है न यह ज़िंदगी ! कोई इसे पाकर फुला नहीं समाता, तो कोई इसे खोकर ही चैन पाता है। इतनी जटिल होने के बावजूद भी हरदिल अज़ीज़ होती है यह ज़िंदगी। फिर भी अब न जाने क्यूँ जब कभी किसी मासूम की ज़िंदगी छिन जाने की कोई खबर सामने आती है, तो चाहे अनचाहे दिल से एक आह ! निकल ही जाती है। ‘फिर भी यदि मैं यह कहूँ’ कि अब कोई दर्द नहीं होता इस सीने में, न अब कभी कोई कतरा ही आता है इन आँखों में किसी के घर का बुझता हुआ चिराग देख-सुन या पढ़कर। अब तो जैसे रोज़ सांस लेने जैसा आम होगया है यह मंज़र। मर गयी है अब सारी समवेदनाएं मेरे अंदर की, अब न इन आँखों में कोई गुस्सा है, न होंठों पर कोई गाली, अब नहीं उतरता कोई खून इन आँखों में आतंकवाद को लेकर। क्यूंकि अब तो यह लगभग हर एक घर का किस्सा है। मर रहे हैं इंसान चारों तरफ, क्या फर्क पड़ता है कि यह घर तेरा है या मेरा है! अब तो लगता है कुदरता का रंग भी अब आँखों में लहू बनकर ही उतर आया है कि अब कहीं कोई हरियाली कोई शीतलता दिखाई ही नहीं देती। अब चमन में भी कहाँ फूल महकते है। अब तो बस बारूद की ही गंध सूंघने को कुछ दिल तरसते है।
अब तो लगता है कुदरत ने भी अपना रंग बदल लिया है शायद क्यूंकि अब नहीं गिरते झरने पहाड़ों से, अब तो बसें गिरती है विद्यार्थियों से भरी आए दिन। अब बच्चे बीमार पड़ने पर गोलीयाँ नहीं खाते, बल्कि स्कूल जाने पर खाते है। हाँ यह बात अलग है कि कभी कोई सरफ़िर आ घुस्ता है (अमरीका) के किसी स्कूल में, तो कहीं जिहाद के नाम पर (पाकिस्तान) में बली चढ़ा दी जाती है। तो कहीं मिड डे मील (हिंदुस्तान) के नाम पर उन्हें जहर खिला दिया जाता है। अकाहीर कब तक यूं ही चढ़ाई जाती रहेंगी बलियाँ उन मासूमों की जो यह जानते तक नहीं की उनकी गलती क्या है। बच्चों के लिए तो अब जैसे कोई स्थान सुरक्षित ही नहीं रह गया है। पहले ही कन्या भूर्ण हत्या से लेकर बाल उत्पीड़न जैसे अपराध कम नहीं थे और अब जिहाद के नाम पर यह आतंकवाद।
लेकिन अब अफसोस नहीं होता मुझे क्यूंकि "जो जैसा बोता है वो वैसा ही काटता भी है” पाकिस्तान ने जो बोया वही उसने स्वयं पेशवार में हुए हत्याकांड में पाया। दूसरों के घरों को जलाकर जश्न मनाने वालों के घर में भी आज उसी आग का कहर बरपा है। क्या पहले कभी हिंदुस्तान में नहीं हुआ ऐसा ? जो आज पाकिस्तान का दर्द देख, हर हिन्दुस्तानी दिल दर्द से तड़पा है। पाकिस्तान से तो कभी ऐसी कोई हवा तक नहीं आई, फिर क्यूँ यह मंज़र देख हिंदुस्तान तर्राया है। सब से पहले तो एक औरत और एक माँ होने के नाते बहुत अच्छे से समझ सकती हूँ मैं उन माँओं के दिल का वो दर्द जिन्होंने एक आम नागरिक होने के नाते सियासत के इस खेल में अपना सब कुछ गवाया है। लेकिन न जाने क्यूँ अब यह खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि अब एक इंसान होने के बावजूद भी दिल से दर्द का रिश्ता ख़त्म हो गया सा लगता है।
जैसे अब कोई इंसानी रूह नहीं बची है मेरे अंदर, बल्कि यह जिस्म जैसे कोई बेजान बुत बन गया है। जिसके चेहरे पर अब कोई भाव नहीं आते। जिसकी आंखे में अब कोई ख़्वाब नहीं आते। अब तो पथरा चुकी है यह आँखें भी उस दिन के इंतज़ार में जब कोई ऐसा आएगा जो अमन का पैगाम लाएगा। जो इस धरती को फिर से हरा और आसमान को नीला कर जाएगा। जिसके आने से महकने लगेंगे फिर फूल और एक बार फिर बच्चा-बच्चा मुस्कुराएगा। जिसके आने से इंसान फिर इंसान कहलाएगा। पता नहीं ऐसा कोई कभी आयेगा भी या नहीं।
मगर वर्तमान हालातों को मद्दे नज़र रखते हुए तो ऐसा लगता है कि इंसान को इंसानियत पर यह एहसान करना होगा कि वह नए बच्चे को जन्म देना ही बंद करदे या फिर हे मेरे ईश्वर तू यह दुनिया को ही ख़त्म कर दे।