मैंने इस blog के जरिये अपने जिन्दगी के कुछ अनुभवों को लिखने का प्रयत्न किया है
Saturday, 25 April 2015
एक सपना
प्राय: लोग कहते हैं कि पत्थरों को दर्द नहीं होता, उनमें कोई भावना ही नहीं होती। किन्तु न जाने क्यों मुझे उन्हें देखकर भी ऐसा महसूस होता है कि पत्थर सिर्फ नाम से बदनाम है। दुख-दर्द जैसी भावनाएं उनमें भी व्याप्त होती हैं। तभी तो पत्थरों में भी फूल खिल जाते हैं।
पानी भी पत्थर को काट देता है। वैसे ही जैसे कोई भारी दुख या असहनीय पीड़ा मानव मन को काट देती है। क्या कभी हम ऐसा कुछ सोच पाते हैं! तेज धूप और चिलचिलाती गर्मी में तप रहे पत्थरों के दर्द का एहसास हमें तब होता है, जब हमारे घरों की बत्ती गुल हो जाती है। वरना उसके पहले तो हम सभी अपने-अपने घरों में बंद होकर एसी और कूलर के सामने डटे रहते हैं। हम लोग तो कल्पना तक नहीं करते कि हमारे ही घर के बाहर लगे पत्थर प्रतिदिन कितनी ग्रीष्म-पीड़ा सहते हैं। जब शाम ढलते ही दिनभर की तपिश कम होने लगती है तब हमें शायद थोड़ा-सा एहसास होता है दूसरों की पीड़ा, उनके दुख-दर्द का। रात के अंधेरे में जब अचानक बिजली चली जाती है और पास- पड़ोस में चलते पंखों व कूलरों का शोर जब एकदम-से बंद हो जाता है, जब मच्छरों के काटने व भिनभिनाने से हमारी नींद टूट जाती है, जब पसीने में लथपथ-अधूरी नींद से जागे-उनींदी आंखों को मसलते हुए हम खीझ रहे होते हैं, तब हमें प्रकृति याद आती है। उस समय लगता है कि चाँदनी रात की ठंडक क्या होती है। चंद्रमा की मनमोहक आभा क्या होती है। उस हाहाकारी क्षण में हम किसी मृग की भांति शीतलता की तृष्णा में बंद कमरों से निकल बाहर छत या बालकनी में आते हैं और ढूँढने लगते हैं उस चाँद को, जिसे हम सामान्यत: देखते तक नहीं या उसकी उपस्थिति से अनजान ही रहते हैं।
तब ऐसा लगता है जैसे पत्थर भी हम से क्रोधित होकर यह कहना चाहते हैं कि लोग तो हमें व्यर्थ ही हमारे नाम से बदनाम करते हैं, हमने तो तुम से ज्यादा स्वार्थी कोई देखा नहीं, हम पत्थरों ने कभी किसी की तरफ की इच्छा या कामना से कभी नहीं देखा, जैसे भी हरे अपने हाल पर रहे और तुम मनुष्य तो इतने स्वार्थी हो कि जब तक तुम्हें किसी चीज या व्यक्ति की जरूरत नहीं होती तब तक तुम उसे पूछना तो दूर उसे देखते तक नहीं हो और जब जरूरत होती है तो उसे ही ढ़ूढने व पाने के प्रयत्न करने लगते हो।
लेकिन बस, अब बहुत हुआ। अब हम तुम्हें दिखाते हैं कि गर्मी की तड़प क्या होती है। गरम होकर पसीना बहाना किसे कहते हैं और फिर जब पत्थर अपनी गर्मी बरसाने पर आते हैं तो अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है और बड़े-बड़ों की नींद उड़ जाती है।
ऐसे में जब गर्मी से राहत पाने इच्छा से बिजली के इंतज़ार में दूर हाइवे पर रेंगती हुई गाड़ियों की लाल बत्तियों पर जब नज़र पड़ती है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो यह लाल बत्तियाँ गाड़ियों की लाल बत्तियाँ नहीं बल्कि हमारे दिमाग में घूम रहे वह विचार हैं, जो व्यर्थ ही सोते-जागते हमारे दिमाग में घूमते रहते हैं। लेकिन बहुत चाहकर भी हम इनमें से किसी एक विचार पर अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते।
यह सब देखते ही जैसे हमारी नींद पूरी तरह उड़ जाती है और हमें याद आने लगते हैं वह सारे विचार, बातें, दिनभर हमारे साथ हुई छोटी-बड़ी घटनाएं। सब कुछ एक–एक कर हमारे मस्तिष्क में किसी चलचित्र की भांति घूमने लगता है।
मुझे तो अकसर सोने से पहले यही सब कुछ याद आता है। सबके साथ ऐसा होता है या नहीं, कहना मुश्किल है। शुरुआत होती है समाचार पत्रों में छपे समाचारों को पढ़ने से। समाचार भी किसी मौसम की तरह लगते हैं। आजकल बेमौसम बारिश से नष्ट हुई और सूखे से बर्बाद होनेवाली फसलों से परेशान हो आत्महत्या करने को विवश किसानों की खबरों का मौसम गरमाया हुआ है। इसे मौसम कहते दुख तो बहुत होता है लेकिन सच तो यही है।
हर साल यही होता है। सरकारें बदलती हैं, नेता बदलते हैं, परंतु जो कुछ नहीं बदलता, वह है गरीब किसान की किस्मत! जिसे हर साल प्रकृतिक आपदा का सामान करते हुए भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में बजाए उनकी सहायता करने के, उनकी जीवन-परिस्थितियों को सुधारने के नेतागण केवल अपनी राजनीतिक चालों को भुना रहे होते हैं। सभी समाचारपत्र और पत्रिकाएँ भी उन गरीब बेबस किसानों की लाचारी और उनकी मजबूरी को मसाला बनाकर बेच रहे होते हैं। यह बेहद शर्म की बात है।
हमारे देश के सभी नेता सत्ता पाते ही इतने स्वार्थी क्यों हो जाते हैं कि उन्हें सिवाय अपनी स्वार्थपूर्ति के और कुछ दिखाई ही नहीं देता। हर वर्ष ब्रह्मपुत्र नदी में बाढ़ आने से न जाने कितने लोग डूबकर मर जाते हैं और कितने ही गाँव बह जाते हैं, हजारों लोग बेघर हो जाते हैं, परंतु फिर भी कोई नेता इस समस्या पर ध्यान नहीं देता और घटना हो जाने पर सहायता राशि देने की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लिया करता है। मामला प्रकृतिक आपदा का हो या देश के लिए शहीद हुए सैनिकों का, सहायता राशि की घोषणा तो ऐसे की जाती है जैसे यह दे देने से जानेवाला लौटकर चला आएगा या जान की क्षति की भरपाई हो जाएगी।
यही सब सोचते हुए कल रात मुझे एक सपना आया। सपना कुछ ऐसा था कि डर है कहीं किसी दिन यह सच ही न हो जाए। मैंने देखा मैं एक अनजानी सी जगह पर खड़ी हूँ, जहां मेरे चारों ओर सिर्फ कंक्रीट का जंगल है। बिलकुल वैसा ही जंगल जैसा असली जंगल होता है। थोड़ी देर खड़ा रहकर मैंने देखा वहाँ उपस्थित सभी लोगों के हाथों में भरपूर पैसा है। इतना कि उनसे संभाले नहीं संभल रहा है। उस जगह कोई भी गरीब नहीं है। कोई भिखारी नहीं है। कोई भी भूखा-नंगा नहीं है। सभी के हाथों में सोने के सिक्के हैं और घरों में नोटों की बारिश हो रही है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति पैसों और सोने-चांदी के सिक्के से सम्पन्न होते हुए भी भूख से तड़प रहा है। कई तो मेरे सामने ही तड़प-तड़प कर मर गए। इंसान, हैवान बन गया है। सब एक-दूसरे को खाने पर आमादा हैं।
अचानक से मैंने कभी आज को देखा, तो कभी गुजरे हुए कल को। आज में देखा कि लोग कंक्रीट के जंगल बनाने के लिए अपनी उपजाऊ धरती व्यापारियों को बेच रहे हैं, ताकि वह उस पर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल खड़े कर सकें या फिर गगनचुम्बी इमारतें बना सकें। बीते हुए कल में देखा कि लोग उसी धरती को माँ मानकर पूज रहे हैं। भविष्य में देखा कि लोग भूख-प्यास से तड़पते हुए इन्हीं इमारतों को गिराकर वापस खेती-किसानी करने को लालायित हैं। क्यूंकि पैसा चाहे कितना भी ताकतवर क्यूँ न हो किन्तु पेट भरने के लिए इंसान को अन्न ही चाहिए।
एक सपना
प्राय: लोग कहते हैं कि पत्थरों को दर्द नहीं होता, उनमें कोई भावना ही नहीं होती। किन्तु न जाने क्यों मुझे उन्हें देखकर भी ऐसा महसूस होता है कि पत्थर सिर्फ नाम से बदनाम है। दुख-दर्द जैसी भावनाएं उनमें भी व्याप्त होती हैं। तभी तो पत्थरों में भी फूल खिल जाते हैं।
पानी भी पत्थर को काट देता है। वैसे ही जैसे कोई भारी दुख या असहनीय पीड़ा मानव मन को काट देती है। क्या कभी हम ऐसा कुछ सोच पाते हैं!
आगे पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें धन्यवाद http://mhare-anubhav.in/?p=625
Thursday, 16 April 2015
कंजका भोज बना - खुशी का बड़ा कारण
भारत वापसी के बाद इस बार रामनवमी के शुभ अवसर पर जब मुझे कन्या भोज कराने का सुअवसर प्राप्त हुआ तब सर्वप्रथम मन में यही विचार आया कि कन्याएँ मिलेंगी कहाँ? वैसे तो मेरे पास-पड़ोस में कन्याओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन उस दिन सभी के घर भोज के निमंत्रण के चलते पहले ही कन्याओं का पेट इतना भर चुका होता है कि फिर किसी दूसरे घर में उन्हें मुँह जूठा करने में भी उबकाई आती है। इसलिए बुलाने पर वह घर तो आ जाती हैं, किन्तु बिना कुछ खाए केवल कंजका-उपहार लेना ही उनका एक मात्र उदेश्य रह जाता है, जिसे लेकर वह जल्द से जल्द अपने घर लौट जाना चाहती हैं।
ऐसे में कन्या-भोज सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। इससे न तो कन्या-भोज करानेवाले व्यक्ति को ही संतोष मिलता है और ना ही स्वयं कन्याएँ ही भोजन का आनंद ले पाती हैं। इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है। वह बेचारी भी क्या करें। नन्ही-सी जान भला कितना खाएँगी।
लेकिन चूंकि इस बार कन्या-भोज कराने का मन बना ही लिया था, तो किसी भी स्थिति में यह भोज तो मुझे कराना ही था। बस यही सोचकर मैंने भोग बनाया और मंदिर में जाकर जरूरतमंद कन्याओं को भोज कराने का मन बना लिया। मैं किसी भी कन्या को जोर-जबर्दस्ती से भोजन नहीं करवाना चाहती थी। उस दिन काम की अधिकता और लंबी पूजा हो जाने के कारण सुबह से दोपहर हो गई। दोपहर तक दिन व्यतीत हो जाने की चिंता से मुझे लगा कि अब बहुत देर हो गई है। मुझे पास-पड़ोस की कन्याओं की अपने घर आने की प्रतीक्षा व्यर्थ लगने लगी। सोचा, पता नहीं अब मंदिर में भी कोई कन्या मिलेगी भी या नहीं या फिर कहीं मंदिर के द्वार ही बंद न हों, और यदि ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा! इन्हीं चिंताओं से घिरी हुई मैं दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में मंदिर जा पहुंची।
वहाँ न सिर्फ माता के दर्शन हुए बल्कि चार-पाँच नन्ही-नन्ही कन्याओं को भोज कराने का अवसर भी मिला। शायद माता रानी की भी यही इच्छाथी। उस दिन मुझे एक पल के लिए लगा जैसे माँ मेरा मन टटोलना चाह रही थी। तभी मेरी नजर मंदिर में बैठी एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी, जो लगभग अस्सी साल की होंगी। पहले मन में आया कि कन्याओं को भोजन खिला दूँ, और फिर यदि भोजन बचेगा तो महिला को भी दे दूँगी। लेकिन मन न माना, तो मैंने उन्हें भी प्रसाद स्वरूप वही भोजन दे दिया, जो कन्याओं के लिए बनाया था। वृद्ध स्त्री ने जब काँपते हाथों से प्रसाद ग्रहण किया, तो यह देख व महसूस कर मन को असीम शांति मिली। हालांकि उस समय तक मैंने नौ कन्याओं को भोजन नहीं कराया था, लेकिन न जाने क्यों वृद्धा के उन काँपते हाथों ने मुझे उस पल इतना भाव-विभोर कर दिया कि मैं सम्पूर्ण कंजका-संस्कार भूलकर उसे भोजन कराने को आतुर हो गई।
इस सब के बाद भी नौ कन्याओं को भोजन कराने की इच्छा मन के किसी कोने में एक चुनौती की भांति चुभ रही थी। शायद मेरे मन की यह बात अब भी किसी न किसी माध्यम से माता रानी तक पहुँच रही थी। इसीलिए मन में अपने घर के पीछे बन रहे भवन में काम करनेवाले मजदूरों का विचार आया। मैं कंजका भोज लेकर तुरन्त वहां पहुंच गई। वहाँ मुझे तीन कन्याएँ दिखीं, जिन्हें मैंने अपने हाथों से भोजन कराया।
जिस समय मैं निर्माणाधीन भवन में पहुंची, वहाँ के मजदूर संयुक्त रूप से दोपहर का खाना खाने के लिए अपने-अपने खाने के डिब्बे खोलकर बैठ हुएथे। उनके साथ वहां उपस्थित तीन कन्याओं के पास भोजन का अपना-अपना डिब्बा जरूर था, लेकिन उनमें रखा भोजन देख मेरी आँखों में पानी आ गया। खाना क्या था, खाने के नाम पर रूखा-सूखा अन्न था। उस दिन यह सब देखकर आँखों से ज्यादा दिल रोया था।
उस दिन के अनुभव से मुझे सही मायने में खाने के वास्तविक मूल्य के बारे में पता चला कि खाना क्या होता है, भूख क्या होती है और हमें भोजनका सम्मान करना चाहिए। मेरे द्वारा दिये गए भोजन के प्रति उन कन्याओं की आँखों की चमक, खिले हुए मासूम चेहरे मेरी आँखों के सामने आज भी जीवंत हैं।
लेकिन वह नन्ही मासूम कलियाँ यह समझ ही नहीं पाई होंगी कि मैंने उन्हें वह खाना क्यों खिलाया था। भोजन कराने और उपहार भेंट करने के पश्चात जब मैंने उन नन्ही कलियों के चरण स्पर्श किए तो मुझे बिलकुल वैसे ही महसूस हुआ, जैसे मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चरण स्पर्श के बाद महसूस होता है।
यकीन मानिए उन तीन कन्याओं को भोजन कराने के बाद मेरे मन को जैसा सुकून, शांति मिली वह आज से पहले शायद ही कभी मुझे मिली हो।मन में तो यह आया कि उन्हें गले लगा लूँ, इतना प्यार करूँ कि थोड़ी देर के लिए ही सही, वह अपने सारे दुख-दर्द भूल जाएँ। लेकिन यह थोड़ी देर की बात नहीं थी। मेरे उन्हें कुछ क्षण गले लगाने से, उनके जीवन भर की खाने-रहने की जरूरतें पूरी नहीं होनवाली थीं। इसलिए मैं उन्हें भोजन कराकर तुरंत वापस आ गई और एक प्रण किया कि आज से जब भी कभी दान-दक्षिणा जैसी कोई भावना उत्पन्न हुई, तो किसी मंदिर जाने के बदले मैं किसी जरूरतमंद की सहायता करूंगी।
यह सच है दोस्तों कि दूसरों को सुख देकर, थोड़ी-सी हंसी या मुस्कुराहट देकर, मन में जो अपार सुख व शांति संचारित होती है, वह दुनिया के दूसरे काम और उसके पुरस्कार से संचारित नहीं हो सकती। दूसरों के दुख, तकलीफ़ें, परेशानियाँ देखने के बाद वाकई अपना हर गम, परेशानी बहुत छोटी लगने लगती है। इसलिए हमें उस ईश्वर का बहुत शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने हमें आज वह सब कुछ दिया है, जो दूसरों को नहीं मिला और जिस कारण आज हमें अपने जीवनयापन की कोई चिंता नहीं है।
उस दिन के बाद से मुझे यह एहसास हुआ कि वाकई भूखों, गरीबों की सेवा से बड़ी और कोई पूजा नहीं है और ना ही इससे बड़ा कोई धर्म ही है। क्योंकि जब किसी के कांपते हाथ आपके सिर पर आशीष के लिए उठते हैं, तो वह किसी धर्म विशेष की धार्मिक भावना से नहीं उठते। ऐसे हाथ केवल आशीर्वाद ही देते हैं। ठीक इसी तरह जब गरीब, गन्दे बच्चों के नन्हे हाथ हमसे कुछ पाकर खुशी से झूम उठते हैं, तो खुशी में फैला उनकी बाहों का हार हमारे जिस्म को गंदा नहीं करता, बल्कि हमारे मन में इकट्ठा जाति, धर्म, ऊंच-नीच की गंदगी को गंगाजल की भांति धो डालता है। इसके बाद हमारा मन साफ-सुथरा हो जाता है। मैं जानती हूँ कि यह बातें उपदेश जैसी ज़रूर हैं, लेकिन इन बातों के पीछे की भावनाएं वास्तव में सत्य हैं।
ऐसे में कन्या-भोज सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। इससे न तो कन्या-भोज करानेवाले व्यक्ति को ही संतोष मिलता है और ना ही स्वयं कन्याएँ ही भोजन का आनंद ले पाती हैं। इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है। वह बेचारी भी क्या करें। नन्ही-सी जान भला कितना खाएँगी।
लेकिन चूंकि इस बार कन्या-भोज कराने का मन बना ही लिया था, तो किसी भी स्थिति में यह भोज तो मुझे कराना ही था। बस यही सोचकर मैंने भोग बनाया और मंदिर में जाकर जरूरतमंद कन्याओं को भोज कराने का मन बना लिया। मैं किसी भी कन्या को जोर-जबर्दस्ती से भोजन नहीं करवाना चाहती थी। उस दिन काम की अधिकता और लंबी पूजा हो जाने के कारण सुबह से दोपहर हो गई। दोपहर तक दिन व्यतीत हो जाने की चिंता से मुझे लगा कि अब बहुत देर हो गई है। मुझे पास-पड़ोस की कन्याओं की अपने घर आने की प्रतीक्षा व्यर्थ लगने लगी। सोचा, पता नहीं अब मंदिर में भी कोई कन्या मिलेगी भी या नहीं या फिर कहीं मंदिर के द्वार ही बंद न हों, और यदि ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा! इन्हीं चिंताओं से घिरी हुई मैं दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में मंदिर जा पहुंची।
वहाँ न सिर्फ माता के दर्शन हुए बल्कि चार-पाँच नन्ही-नन्ही कन्याओं को भोज कराने का अवसर भी मिला। शायद माता रानी की भी यही इच्छाथी। उस दिन मुझे एक पल के लिए लगा जैसे माँ मेरा मन टटोलना चाह रही थी। तभी मेरी नजर मंदिर में बैठी एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी, जो लगभग अस्सी साल की होंगी। पहले मन में आया कि कन्याओं को भोजन खिला दूँ, और फिर यदि भोजन बचेगा तो महिला को भी दे दूँगी। लेकिन मन न माना, तो मैंने उन्हें भी प्रसाद स्वरूप वही भोजन दे दिया, जो कन्याओं के लिए बनाया था। वृद्ध स्त्री ने जब काँपते हाथों से प्रसाद ग्रहण किया, तो यह देख व महसूस कर मन को असीम शांति मिली। हालांकि उस समय तक मैंने नौ कन्याओं को भोजन नहीं कराया था, लेकिन न जाने क्यों वृद्धा के उन काँपते हाथों ने मुझे उस पल इतना भाव-विभोर कर दिया कि मैं सम्पूर्ण कंजका-संस्कार भूलकर उसे भोजन कराने को आतुर हो गई।
इस सब के बाद भी नौ कन्याओं को भोजन कराने की इच्छा मन के किसी कोने में एक चुनौती की भांति चुभ रही थी। शायद मेरे मन की यह बात अब भी किसी न किसी माध्यम से माता रानी तक पहुँच रही थी। इसीलिए मन में अपने घर के पीछे बन रहे भवन में काम करनेवाले मजदूरों का विचार आया। मैं कंजका भोज लेकर तुरन्त वहां पहुंच गई। वहाँ मुझे तीन कन्याएँ दिखीं, जिन्हें मैंने अपने हाथों से भोजन कराया।
जिस समय मैं निर्माणाधीन भवन में पहुंची, वहाँ के मजदूर संयुक्त रूप से दोपहर का खाना खाने के लिए अपने-अपने खाने के डिब्बे खोलकर बैठ हुएथे। उनके साथ वहां उपस्थित तीन कन्याओं के पास भोजन का अपना-अपना डिब्बा जरूर था, लेकिन उनमें रखा भोजन देख मेरी आँखों में पानी आ गया। खाना क्या था, खाने के नाम पर रूखा-सूखा अन्न था। उस दिन यह सब देखकर आँखों से ज्यादा दिल रोया था।
उस दिन के अनुभव से मुझे सही मायने में खाने के वास्तविक मूल्य के बारे में पता चला कि खाना क्या होता है, भूख क्या होती है और हमें भोजनका सम्मान करना चाहिए। मेरे द्वारा दिये गए भोजन के प्रति उन कन्याओं की आँखों की चमक, खिले हुए मासूम चेहरे मेरी आँखों के सामने आज भी जीवंत हैं।
लेकिन वह नन्ही मासूम कलियाँ यह समझ ही नहीं पाई होंगी कि मैंने उन्हें वह खाना क्यों खिलाया था। भोजन कराने और उपहार भेंट करने के पश्चात जब मैंने उन नन्ही कलियों के चरण स्पर्श किए तो मुझे बिलकुल वैसे ही महसूस हुआ, जैसे मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चरण स्पर्श के बाद महसूस होता है।
यकीन मानिए उन तीन कन्याओं को भोजन कराने के बाद मेरे मन को जैसा सुकून, शांति मिली वह आज से पहले शायद ही कभी मुझे मिली हो।मन में तो यह आया कि उन्हें गले लगा लूँ, इतना प्यार करूँ कि थोड़ी देर के लिए ही सही, वह अपने सारे दुख-दर्द भूल जाएँ। लेकिन यह थोड़ी देर की बात नहीं थी। मेरे उन्हें कुछ क्षण गले लगाने से, उनके जीवन भर की खाने-रहने की जरूरतें पूरी नहीं होनवाली थीं। इसलिए मैं उन्हें भोजन कराकर तुरंत वापस आ गई और एक प्रण किया कि आज से जब भी कभी दान-दक्षिणा जैसी कोई भावना उत्पन्न हुई, तो किसी मंदिर जाने के बदले मैं किसी जरूरतमंद की सहायता करूंगी।
यह सच है दोस्तों कि दूसरों को सुख देकर, थोड़ी-सी हंसी या मुस्कुराहट देकर, मन में जो अपार सुख व शांति संचारित होती है, वह दुनिया के दूसरे काम और उसके पुरस्कार से संचारित नहीं हो सकती। दूसरों के दुख, तकलीफ़ें, परेशानियाँ देखने के बाद वाकई अपना हर गम, परेशानी बहुत छोटी लगने लगती है। इसलिए हमें उस ईश्वर का बहुत शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने हमें आज वह सब कुछ दिया है, जो दूसरों को नहीं मिला और जिस कारण आज हमें अपने जीवनयापन की कोई चिंता नहीं है।
उस दिन के बाद से मुझे यह एहसास हुआ कि वाकई भूखों, गरीबों की सेवा से बड़ी और कोई पूजा नहीं है और ना ही इससे बड़ा कोई धर्म ही है। क्योंकि जब किसी के कांपते हाथ आपके सिर पर आशीष के लिए उठते हैं, तो वह किसी धर्म विशेष की धार्मिक भावना से नहीं उठते। ऐसे हाथ केवल आशीर्वाद ही देते हैं। ठीक इसी तरह जब गरीब, गन्दे बच्चों के नन्हे हाथ हमसे कुछ पाकर खुशी से झूम उठते हैं, तो खुशी में फैला उनकी बाहों का हार हमारे जिस्म को गंदा नहीं करता, बल्कि हमारे मन में इकट्ठा जाति, धर्म, ऊंच-नीच की गंदगी को गंगाजल की भांति धो डालता है। इसके बाद हमारा मन साफ-सुथरा हो जाता है। मैं जानती हूँ कि यह बातें उपदेश जैसी ज़रूर हैं, लेकिन इन बातों के पीछे की भावनाएं वास्तव में सत्य हैं।
Wednesday, 15 April 2015
कंजका भोज बना – खुशी का बड़ा कारण
भारत वापसी के बाद इस बार रामनवमी के शुभ अवसर पर जब मुझे कन्या भोज कराने का सुअवसर प्राप्त हुआ तब सर्वप्रथम मन में यही विचार आया कि कन्याएँ मिलेंगी कहाँ? वैसे तो मेरे पास-पड़ोस में कन्याओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन उस दिन सभी के घर भोज के निमंत्रण के चलते पहले ही कन्याओं का पेट इतना भर चुका होता है कि फिर किसी दूसरे घर में उन्हें मुँह जूठा करने में भी उबकाई आती है। इसलिए बुलाने पर वह घर तो आ जाती हैं, किन्तु बिना कुछ खाए केवल कंजका-उपहार लेना ही उनका एक मात्र उदेश्य रह जाता है, जिसे लेकर वह जल्द से जल्द अपने घर लौट जाना चाहती हैं।
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Wednesday, 8 April 2015
विज्ञापन और हम
जाने क्यूँ कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि शायद मुझे इस युग में पैदा होना ही नहीं चाहिए था। क्यूंकि इस युग के हिसाब से मेरी सोच मेल नहीं खाती। मुझे हमेशा पुरानी चीज़ें आकर्षित करती है। न जाने क्यूँ मुझे पुराना ज़माना ही आज की तुलना में अधिक प्रभावित करता है। अब मुझे यह पता नहीं कि ऐसा सिर्फ मुझे ही महसूस होता है या सभी ऐसा ही महसूस करते है।
खैर अब टीवी पर प्रसारित किए जाने वाले विज्ञापनो को ही ले लो। लोगों के मन में बसे डर कमजोरियों या फिर उनकी कमियों को निशाना बनाकर धनार्जन करने की कला तो कोई इन विज्ञापन निर्माताओं से सीखे। मुझे तो कई बार ऐसा भी लगता है कि एक सामाजिक राजनैतिक या फिर कोई धार्मिक अथवा पारिवारिक धारावाहिक बनाने या लिखने से कहीं अधिक कठिन होता होगा यह विज्ञापन बनाना, नहीं! इंसान के सर से लेकर पाँव तक उपयोग में लायी जाने वाली हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीजों को लोग के समक्ष इस तरह से प्रसारित करना कि न सिर्फ देखने वाला अपितु उस विज्ञापन को सुनने वाला प्रत्येक व्यक्ति भी उस वस्तु को लेने के लिए लालायित हो जाये। अर्थात साम दाम, दंड भेद सब करके मुर्गा फंसना चाहिए बस, फिर हलाल तो वो खुद ब खुद हो ही जाएगा।
कहीं न कहीं यह विज्ञापन हमारी ज़िंदगी से जुड़ा एक अहम पहलू है। जिसे आज हर एक व्यक्ति का जन जीवन प्रभावित है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। क्यूंकि कहीं न कहीं चाहे अनचाहे हर व्यक्ति अपनी किसी न किसी चीज़ का विज्ञापन कर रहा है। हाँ यह बात अलग है कि इंसान की ज़िंदगी से जुड़ा हर विज्ञापन आपको टीवी या रुपहले पर्दे पर नज़र नहीं आता। पर फिर भी कुछ विज्ञापन सड़कों पर देखे जा सकते हैं, तो कुछ अखबारों मे रखकर किसी बिन बुलाये महमान की भांति रोज़ ही घर आ जाते है। रही सही कसर रेडियो टीवी और समाचार पत्र पूरी कर देते हैं। फिर इस विषय में यह क्या सोचना कि ‘क्या तेरा क्या मेरा’ यह तो आज के आधुनिक युग की अहम अवश्यकता है। क्यूंकि विज्ञापन हमारी रोज़ मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पहलू है। आज सभी को इसकी जरूरत है। फिर चाहे वह कोई व्यापारी हो या फिर कोई आम इंसान। विज्ञापन की जरूरत तो होती ही है।
अब हम ब्लॉगर्स को ही ले लीजिए अपने ब्लॉग के प्रचार प्रसार के लिए हम भी तो सोशल साइट का सहारा लेते ही है। खैर यह महज़ एक उदाहरण के तौर पर कही गयी बात है, कोई इसे दिल पर न लगाएँ। लेकिन यूं देखा जाए तो हम सभी व्यापरी है। कोई पैसा लेकर चीज़ें बेचता है ,तो कोई ईमान, रही सही कसर तो लोग रिश्ते बेचकर पूरी कर देते है। तभी तो आज इस मुल्क में सभी कुछ बिकता है, क्या शरीर क्या आत्मा। खैर विषय से न भटकते हुए हम वापस आते हैं विज्ञापन पर, कुछ विज्ञापन ऐसे होते है जो हमारे दिलो दिमाग पर छा जाते है। जिन्हे हम कभी नहीं भूल पाते। जैसे ''वॉशिंग पाउडर निरमा'' का विज्ञापन, इत्यादि और फिर ऐसा हो भी क्यूँ न आखिर विज्ञापन निर्माता विज्ञापन बनाते ही इसलिए हैं ताकि उनके बनाए विज्ञापन का जादू लोगों के सर चढ़कर बोले और उनका उत्पाद या वस्तू धड़ा-धड़ बिके।
लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है। आज के युग में हर चीज़ को विज्ञापन बनाकर बेचा जाता है। खासकर लोगों की भावनाओं को, सही मायने में देखा जाये तो लोग की भावनाओं से खेलना ही विज्ञापन निर्माताओं का असल पैंतरा है, नहीं ! आज की तारीख में लोगों की भावनाओं से खेलकर डर बेचने का दूसरा नाम ही तो विज्ञापन है। जैसे हाथ धोने या नहाने के साबुन के विज्ञान को ही ले लीजिये। जिसमें यह कहा जाता है कि ‘साबुन शेयर करना मतलब किटाडूँ शेयर करना’ अब बताइए भला यह कोई भी कोई बात हुई। साबुन भी भला कभी गंदा होता है क्या ? हाँ बर्तन साफ करने के मामले में मान सकती हूँ। लेकिन यदि आपके घर में कोई अस्वस्थ नहीं तो मेरी समझ से एक ही साबुन का इस्तेमाल कोई बुरी बात नहीं है। या फिर वॉटर फ़िल्टर के विज्ञापनों को ले लों उनमें भी तो बीमारियों का डर दिखाया जाता है। कि यदि किसी आम फिल्टर का पानी पियो तो आप बीमार पड़ सकते हो इसलिए केवल हमारी कंपनी के फ़िल्टर से पियो वो ज्यादा स्वच्छ पानी देगा। वगैरा-वगैरा।
विज्ञापन की दुनिया में मुझे कमाल की बात तो यह लगती है कि एक व्यक्ति के जीवन से जुड़ी हर एक वस्तु फिर चाहे वो भोग विलास की सामग्री हो या जीवन की एक अहम जरूरत ऐसा कुछ भी नहीं जिसका विज्ञापन न बना हो। मगर मुझे अफसोस तो तब होता है। जब जागुरुकता के नाम पर एक व्यक्ति के गोपनीय विषयों तक का विज्ञापन बना दिया गया है। गोपनिए विषय जैसे ‘’सैनिट्री नैपकिन, गर्भनिरोधक गोलियाँ’’, ‘’शक्तिवर्धक दवाएं’’ हों या कोंडम इत्यादि। लेकिन आमतौर पर लोगों का ऐसा मानना है कि जिन लोगों को ऐसे विषयों में अपने चिकित्सक से भी बात करने में असहजता या शर्म महसूस होती है वह इन विज्ञापनो के माध्यम से ही उस विषय में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते है।
ताकि उन्हे उनकी समस्या से जुड़ा हल किसी भी औषधि की दुकान पर आसानी से उपलब्ध हो जाएगा। वह भी बिना किसी हिचकिचाहट और परेशानी के और उन्हें किसी शर्मिंदगी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। कुछ हद तक यह बात सही है। लेकिन यह समस्या की गंभीरता पर अधिक निर्भर करता है। फिर चाहे व साधारण बुखार खांसी जैसी आम समस्या हो या एड्स (AIDS), ब्रेस्ट कैंसर (breast cancer) जैसी अन्य अहम शारीरिक समस्याएँ। मगर एक सीमित समय के विज्ञापन के दौरान आपको उस विषय की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती और ना ही सही परामर्श ही मिल सकता है। ऐसे में आप विज्ञापन से प्रभावित होकर सामान या दवा तो खरीद सकते हैं किन्तु कब कहाँ और कब तक उसका सेवन आपके लिए उपयुक्त है यह केवल आपका चिकित्सक ही आपको बता सकता है। और एक सही परामर्श दे सकता है। याद रहे यहाँ में उन लोगों के विषय में बात कर रही हूँ जिन्हें आज भी आपने बात खुल कर कहने में शर्म आती है। खासकर अपने शरीर से जुड़ी बातें।
विदेशों में तो ऐसा कोई भी समान खरीदने से पहले आपको अपने वयस्क होने का प्रमाण पत्र दिखाना अनिवार्य होता है। किन्तु शायद हमारे यहाँ ऐसा कोई नियम नहीं है या फिर हो भी तो उसका कोई पालन नहीं करता फिर चाहे वह ग्राहक हो या दुकानदार। पर यह सही नहीं है।
इसलिए कई बार यह विज्ञापन जितने उपयोगी सिद्ध होते हैं उतने ही हानिकारक भी सिद्ध होते हो सकते है। मेरी समझ से केवल विज्ञापन से प्रभावित होकर उल्टी सीधी चीज़ें खरीदने से अच्छा है। उस वस्तु से जुड़े विशेषज्ञ का परामर्श अवश्य ले ले। अब जब बात ऐसी हो तो बच्चों का ज़िक्र आना तो स्वाभाविक ही है। वैसे यूं देखा जाये तो आजकल इंटरनेट का ज़माना है। और आजके बच्चे हम से कहीं ज्यादा जागरूक और समझदार भी है। अब किसी को किसी की विशेष टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। लेकिन फिर भी जब यौवन आता है तो नए जोश और नयी उमग के साथ हजारों सवाल भी लाता है। जिसका यदि सही समय पर सही उत्तर न मिले तो मामला बिगड़ भी सकता है इसलिए अभिभावक होने के नाते हमारी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उन्हें सही समय पर सही जानकारी से अवगत कराएं। क्यूंकि आज भले ही उनके सारे सवालो के जवाब इंटरनेट पर मौजूद क्यूँ ना हो। मगर अभिभावकों के अनुभव से भरा एक प्रेम और सहोदर्य बच्चों में आत्मविश्वास जगाता है ताकि वह जोश और भावनाओं में बह कर कोई ऐसा कदम न उठा लें। जिससे आगे जीवन में उन्हें पछताना पड़े।
विज्ञापन और हम...
लोगों के मन में बसे डर कमजोरियों या फिर उनकी कमियों को निशाना बनाकर धनार्जन करने की कला तो कोई इन विज्ञापन निर्माताओं से सीखे। मुझे तो कई बार ऐसा भी लगता है कि एक सामाजिक राजनैतिक या फिर कोई धार्मिक अथवा पारिवारिक धारावाहिक बनाने या लिखने से कहीं अधिक कठिन होता होगा यह विज्ञापन बनाना, नहीं!
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Wednesday, 1 April 2015
समाचार पत्र और मेरे विचार
पिछले कुछ महीनों मैं मुझे ऐसा लगने लगा था कि समाचार पत्रों में केवल राजनीतिक अथवा अपराधिक समाचारों के अतिरिक्त और कोई समाचार आना ही बंद ही हो गए हैं या यह भी हो सकता है कि शायद मैंने ही समाचार पत्र पढ़ने में आज से पहले कभी इतनी रुचि ही न ली हो। इसलिए मुझे पहले कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि आज की तारीख में समाचर से अधिक उसके शीर्षक का महत्व है। फिर चाहे उस शीर्षक के अंतर्गत आने वाले समाचार में दम हो न हो पर शीर्षक में दम अवश्य होनी चाहिए। ताकि वह पाठकों को उस विषय में सोचने के लिए विवश कर दे।
आज ऐसा ही कुछ मुझे भी महसूस हुआ जब मैंने एक और ग्रामीण बच्चों की शिक्षा के विषय में उन्हें ग्लोबल शिक्षा देने की बात पढ़ी। ग्लोबल शिक्षा बोले तो उन्हें (कमप्यूटर और नेट से संबंधित जानकारी देना) या उन्हें यह बताना कि इंटरनेट के माध्यम से भी शिक्षा कैसे ग्रहण की जा सकती, और अपने यहाँ (भारत) में तो शिक्षा प्राणाली का पहले ही बंटाधार है। ऊपर से यह नई पहल खैर वही दूसरी और महिलाओं से संबन्धित एक अन्य आलेख के अंतर्गत मैंने यह पढ़ा कि समाज में महिलाओं के प्रति लोगों के नज़रिये को बदलने के लिए महिलाओं को अपनी पारंपरिक सोच बदलने की आवश्यकता है। इन दोनों ही विषयों ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया कि जहां आज भी एक ओर ग्रामीण बच्चों की प्राथमिक शिक्षा तक का ठिकाना नहीं है, वहाँ उन बच्चों को ग्लोबल शिक्षा से अवगत कराना क्या सही होगा ?
लेकिन आगे कुछ भी कहने से पहले मैं यहाँ यह बताती चलूँ कि मैं बच्चों के विकास के विरुद्ध नहीं हूँ। किन्तु सोचने वाली बात है यह है कि जहां एक और गाँव में आज भी बहुत से लोग अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते वहाँ ग्लोबल शिक्षा की जानकारी देना। बात कुछ हजम नहीं होती।
ऐसा नहीं कि गाँव के बच्चों को नयी तकनीकों के माध्यम से आगे बढ़ने या पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं है। है, बिलकुल है ! लेकिन जहां गाँव के शिक्षक ही पूर्णरूप से शिक्षित न हों, जो अपने गाँव के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा ही सही तरीके से दे पाने में असमर्थ हों। जहां गरीबी के चलते आज भी शिक्षा के प्रति उदासीनता का भाव हो। वहाँ ग्लोबल शिक्षा की बातें करना मेरी समझ से तो कोई समझदारी वाली बात नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं ग्रामीण बच्चों कि ग्लोबल शिक्षा के खिलाफ हूँ। लेकिन मेरा मानना यह है कि कोई भी नयी इमारत के निर्माण से पहले उसकी नीव का मजबूत होना अधिक आवश्यक है। तभी आप उस पर एक मजबूत इमारत बनाने में सफल हो सकते हैं। पर कई इलाकों में तो जीवन जीने का ही आभाव है क्यूंकि किसानों की हालत और बढ़ती मंहगाई कि मार से जब कोई भी इंसान अछूता नहीं है तो फिर हमारे उन अन्न दाताओं की तो बात ही क्या।
ऐसे में जीवन यापन से जुड़ी जरूरतों के अभाव में जब प्राथमिक शिक्षा का ही अभाव होगा, जो स्वाभाविक भी है। वहाँ ग्लोबल शिक्षा की बातों को भला कौन समझेगा।
रही महिलाओं के विकास की बात जिसमें एक महिला के द्वारा यह कहा गया कि यदि हमें समाज में अपने प्रति लोगों का नज़रिया बदलना है तो उसके लिए सर्वप्रथम हम स्त्रियॉं को ही अपनी पारंपरिक सोच को बदलना होगा। कुछ हद तक यह बात सही है। लेकिन यदि हम हर वर्ग की महिलाओं की बात करें तो शायद यह एक नामुमकिन सी बात है। क्यूँ ? क्यूंकि हम उस देश में रहते हैं जहां बड़े से बड़े शहर में रहने वाला उच्च शिक्षा प्राप्त इंसान आज भी बेटे और बेटी की परवरिश में फर्क करता है। जहां या तो बेटी पैदा ही नहीं होने दी जाती या फिर उसके पैदा होते ही उसे पारंपरिक रूप से चली आरही दक़ियानूसी बातों को उसके मन में बैठाना शुरू कर दिया जाता है।
खैर यह एक अंत हीन विषय है और अभी यहाँ इस विषय को मद्दे नज़र रखते हुये मैं यहाँ इस बारे में ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं समझती। लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है। ऐसे में भला कोई भी लड़की जिसके दिमाग में बचपन से ही गलत बातें भर दी गयी हों वो आगे जाकर अपनी पारंपरिक सोच को कैसे बदल सकती है। या फिर एक ऐसी लड़की जिसने सदा अपनी माँ पर अत्याचार होते देखा हो। उसके साथ दुर्व्यवहार होते देखा हो। वो लड़की विरासत में क्या पाएगी। फिर ऐसे में हम समग्र रूप से यह कैसे कह सकते हैं कि हमें अपनी पारंपरिक सोच को छोड़कर एक नए सिरे से नए समाज के निर्माण हेतु कुछ नया सोचना चाहिए।
चलिये एक बार को हम यह मान भी लें कि कुछ मुट्ठी भर लोग ऐसा करने मैं सफल हो भी गए, तो क्या होगा। मैं कहती हूँ कुछ नहीं होगा ! क्यूंकि हमारी जनसंख्या का एक बड़ा तबका या एक बड़ा भाग ऐसा है जो इन बातों को या तो समझना ही नहीं चाहता या फिर समझ ही नहीं सकता है। ऐसे हालातों में यह बात समाज का वो बड़ा हिस्सा कैसे समझेगा। यह बात मेरी समझ से तो बाहर है।
अरे जिसे जीने के लिए रोटी कपड़ा और मकान जैसी अहम जरूरत की पूर्ति नहीं हो पा रही है। उसके लिए तो यह बातें किसी प्रवचन से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। जो महिला रोज़ काम से थक्कर चूर होने पर भी रोज़ अपने ही घर में, अपनों के द्वारा घरेलू हिंसा का शिकार होती है। वह महिला कैसे बदलेगी अपनी सोच और क्या सिखाएगी अपनी बेटी को, जहां आज भी अपने घर की बहू बेटियों को घर के अहम सदस्य की भांति बराबर का सम्मान नहीं मिलता। जहां एक औरत को आज भी केवल बेटा पैदा करने के लिए किसी बच्चे पैदा करने वाली मशीन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। और बेटी पैदा करने पर प्रताड़ित किया जाता है। वह महिला भला अपनी सोच तो क्या अपना कुछ भी बदल सके तो बहुत है। सोच बदलना तो दूर की बात है।
मुझे तो ऐसा लगता है कि जब तक हमारा समाज एक पुरुष प्रधान समाज रहेगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। क्यूंकि सोच बदलने की जरूरत महिलाओं से अधिक पुरुषों को है। जो सदैव अपने अहम में अहंकारी बनकर अपने ही घर की स्त्रियॉं पर जुल्म करते है। अगर कोई सोच बदलनी है तो सिर्फ इतनी कि एक बेटे की परवरिश करते वक्त हमें उसे यह सिखाना है कि बेटा एक लड़की भी एक इंसान है और तुम भी एक इंसान ही हो। यदि वह रो सकती है तो तुम भी रो सकते हो। रोने से कोई लड़का कभी लड़की नहीं बन जाता या कमजोर नहीं हो जाता। अपनी भावनाओं को छिपाने का नाम पुरषार्थ नहीं कहलाता। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भावनाओं को दिखा देने से या जाता देने से कोई स्त्री कमजोर नहीं हो जाती। ठीक उसी प्रकार भावनाओं को छिपा लेने से कोई लड़का या कोई पुरुष मजबूत नहीं हो जाता। बल्कि कहीं न कहीं पुरुषों की यही बात उन्हें अंदर ही अंदर खोखला एवं कमजोर बना देती है। क्यूंकि यदि ऐसा न होता तो सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति को मिलाकर एक स्त्री (जो नारी शक्ति का प्रतीक है) माँ दुर्गा का निर्माण नहीं किया होता। यदि वह चाहते तो अपनी शक्तियों को कोई और भी रूप दे सकते थे। किन्तु उन्होने ऐसा नहीं किया क्यूंकि वह जानते थे कि नारी में ही वह शक्ति है जो पुरुषों को संभाल सकती है।
बस केवल यही एक बात को समझाते हुए हमे अपने व्यवहार के माध्यम से अपने बच्चों के सामने कुछ ऐसे उदाहरण रखने की जरूरत है जिसे देखकर वह स्वयं ही इंसानियत का पाठ पढ़ जाये क्यूंकि अच्छा या बुरा/सही या गलत बच्चे जो भी सीखते हैं, सर्वप्रथम अपने घर से ही सीखते है और वहीं से उनकी सोच का निर्माण शुरू होता है। इसलिए यदि पारंपरिक सोच बदलने की जरूरत किसी को है तो वो पुरुषों को अधिक है और स्त्रियॉं को कम। जिस दिन सामाज की यह सोच बदल गयी उसी दिन से स्त्रियों के प्रति समाज का नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा। जय हिन्द....
समाचार पत्र और मेरे विचार
पिछले कुछ महीनों मैं मुझे ऐसा लगने लगा था कि समाचार पत्रों में केवल राजनीतिक अथवा अपराधिक समाचारों के अतिरिक्त और कोई समाचार आना ही बंद ही हो गए हैं या यह भी हो सकता है कि शायद मैंने ही समाचार पत्र पढ़ने में आज से पहले कभी इतनी रुचि ही न ली हो। इसलिए मुझे पहले कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि आज की तारीख में समाचर से अधिक उसके शीर्षक का महत्व है। आगे पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें धन्यवाद