Sunday 4 October 2015

ममता के बदलते अर्थ

आज के वातावरण में जहां एक ओर प्रतियोगिता का माहौल है। वहाँ क्या रिश्ते और क्या व्यापार अर्थात रिश्तों में भी इतनी औपचारिकता आ गयी है कि कई बार यकीन ही नहीं होता। इस का कारण जागरूकता है या विकास, यह कहना मुश्किल है। क्यूंकि यदि जागरूकता की बात की जाये तो आज की नारी जागरूक है। जो घर में रहकर केवल गृहकार्य में उलझकर अपनी ज़िंदगी बिताना नहीं चाहती और यदि विकास की बात की जाए तो गाँव के विकास के नाम पर शहरों में बढ़ रही आबादी है। जिसने जहां एक ओर संयुक्त परिवारों को नष्ट किया तो वहीं दूसरी और आपसी प्रतियोगिता ने न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक स्तर पर भी लोगों को बिगाड़ दिया।

खैर संयुक्त परिवारों के नष्ट हो जाने से यदि किसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, तो वह इन बच्चों का हुआ है। छोटे-छोटेनन्हें –नन्हें बच्चे। जो संयुक्त परिवारों में कब पलकर बढ़े हो जाते थे, इसका पता ना उन्हें स्वयं लगता था न उनके माता-पिता को ही पता चलता था। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अपनो के बीच माँ से दूर रहकर भी बच्चा माँ की ममता पा लिया करता था। सयुंक्त परिवारों में अक्सर परिवार की कुछ बन्दिशों के चलते पैसों का अभाव हो ही जाता था। मगर तब भी अपने बच्चों के प्रति माँ की ममता कभी कम ना होती थी। किन्तु आज ऐसा नहीं है। आज न पैसों का अभाव है न सयुंक्त परिवारों की ही कोई बंदिश है। मगर तब भी बच्चा अपनी माँ की ममता पाने के लिए लालायित रहता है। क्यूंकि कामकाजी महिला चाहकर भी अपने परिवार को उतना समय नहीं दे पाती, जितना वो देना चाहती है।

सच कभी-कभी उन नन्हें-नन्हें बच्चों को देखकर बहुत दया आती है। वो छोटे-छोटे से बच्चे जो अभी बोलना भी नहीं जानते, वह बेचारे सुबह से शाम तक अपनी माँ की गोद या उसकी एक जादू की झप्पी पाने के लिए तरस जाते है। हालांकी यूं देखा जाये तो माँ की ममता का कोई निश्चित रूप नहीं होता। कोई भी अन्य स्त्री या महिला, चाहे तो किसी भी बच्चे को ममता दे सकती है। फिर चाहे वो मासी के रूप में हो या ताई चाची या फिर किसी आया का ही रूप क्यूँ न हो। मगर वो कहते है न माँ, `माँ ही होती है`। उसकी जगह इस दुनिया में कोई दूजा कभी ले ही नहीं सकता। बस वही बात यहाँ भी लागू होती है।

लेकिन फिर आजकल के जमाने में एक की आमदनी से भी तो काम नहीं चलता। दूजा यदि चल भी जाता है, तब भी कोई स्त्री घर में रहकर बच्चे पालना या घर संभालने जैसा उबाऊ काम करना नहीं चाहती। क्यूंकि घर का काम तो केवल वह महिलाएं करती है, जिन्हें या तो काम नहीं मिलता या फिर उनमें बाहर काम करने की काबलियत नहीं होती। वही तो ग्रहणी कहलाती है। क्यूंकि आजकल की पढ़ी लिखी जागरूक महिलाओं के माता-पिता ने भला उन्हें इन सब कामों के लिए थोड़े ही पढ़ाया लिखाया था। यह सब काम करने से तो उनकी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी। इसलिए यदि उच्च शिक्षा प्राप्त की है, तो नौकरी तो करना ही करना है। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा। बच्चे के लिए एक आया ही तो रखनी पड़ेगी न। या फिर उसे (डे केयर) में डालना होगा। तो डाल देंगे व्हाट्स ए बिग डील अर्थात उसमें कौन सी बड़ी बात है। आखिर कमा किस के लिए रहे है। उस बच्चे के लिए ही ना ! ताकि भविष्य में उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवा सकें। उसके सभी अरमान पूरे कर सकें। नहीं ?

आज की नारी आत्मनिर्भर है। उसे किसी के सहारे की कोई जरूरत नहीं है। वह घर और नौकरी दोनों एक साथ बखूबी संभाल सकती है। सच है। ऐसे ही थोड़ी 'सुपर वुमन' या 'सुपर मोम' होने का खिताब मिल जाता है भई!!! मगर अफसोस इस सब में यदि कोई पिस जाता है, तो वह है वो नन्ही सी जान। क्यूंकि उस मासूम को तो शायद यह समझ ही नहीं आता कि उसकी असली माँ कौन सी है। जो सारा दिन में कुछ घंटों के लिए उसके साथ समय बिता पाती है वो। या फिर जो सारा दिन आया के रूप में उसके साथ रहकर उसका लालन पालन करती है वो। लेकिन मुझे तो यह समझ नहीं आता कि जब एक माँ खुद के सपनों को पूरा करने की खातिर या खुद को साबित करने की खातिर नौकरी करती है। ठीक उसी तरह यह आया का काम करने वाली औरतें भी तो केवल पैसा कमाने के लिए ही यह काम करती है। भावनाओं के लिए नहीं। फिर कैसे कोई माँ अपने दिल के टुकड़े को किसी अंजान औरत के पास छोड़कर बे फिक्र हो जाती है।

ऐसी महिलाएं का एकमात्र उदेश्य सिर्फ पैसा कमाना ही होता है। बच्चे की जरूरत या आवश्यकता से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। कई मामलों में तो ऐसी औरतें बच्चे को प्यार करना तो दूर, उल्टा प्रताड़ित तक करने लग जाती है। बात-बात पर उसे डाँटती है। उसके हिस्से के दूध की चाय बनाकर पी जाती है। उसके लिए दिये गए बिस्कुट फल आदि उसे कम देती है और खुद ज्यादा खाती है। इतना ही नहीं बल्कि सारा दिन बैठकर या तो टीवी देखती है या फिर मोबाइल पर लगी रहती है। ऐसे मामले कम नहीं है। मगर जिस प्रकार हाथ की पांचों उंगलियां एक सी नहीं होती। उसी प्रकार हर इंसान एक सा नहीं होता। कभी-कभी कोई कोई आया या दायी, माँ से बढ़कर भी होती है। इतिहास गवाह है। पन्ना दायी का नाम यूं ही स्वर्ण अक्षरों में नहीं लिखा गया है। मगर वह वक्त और था। क्यूंकि यह कलियुग है। यहाँ जन्म देने वाली माँ को ही स्वयं अपने बच्चे के लिए समय नहीं है। तो किसी और से हम उम्मीद ही कैसे रख सकते है।

इतनी सब बातें मेरे दिमाग में इसलिए आयी क्यूंकि मैं रोज ही अपनी सोसाइटी में कई सारे ऐसे परिवार देख रही हूँ जिनमें बच्चे बाइयों के सहारे पाले जा रहे हैं और बाइयाँ तो फिर बाइयाँ ही होती है। जो बच्चों को पार्क में छोड़कर खुद मोबाइल पर बतियाती रहती है या फिर दूसरी बाई से गप्पे लड़ाती रहती है। बच्चा पार्क में क्या कर रहा है, कहाँ जा रहा है, क्या खा रहा है, जैसी बातों का ध्यान रखना तो दूर। कई बार उन्हें होश ही नहीं रहता कि एक बच्चे की ज़िम्मेदारी भी है उन पर, मगर उन्हें इस सब से क्या मतलब। उन्हें तो बस एक निश्चित तारीख़ पर मिलने वाले अपने पैसों से मतलब होता है। बच्चा यदि बीमार पड़ा, तो माँ-बाप कराएंगे इलाज।

मै यह नहीं कहती कि एक स्त्री केवल पैसा कमाने के लिए ही नौकरी करती है। ना ऐसा नहीं है। नौकरी करने का अर्थ किसी भी इंसान के लिए सिर्फ पैसा कमाना ही नहीं होता है। और बहुत से कारण होते है। मगर उस सब की चर्चा फिर कभी। अभी तो बात परवरिश की हो रही है। तो मुझे ऐसा लगता है कि एक अबोध बच्चे को यूं किसी नौकर के भरोसे छोड़कर जाने से तो अच्छा है। माँ या पिता में से कोई एक कुछ दिनों के लिए नौकरी छोड़ दे। मगर आज कल नौकरी भी आसानी से कहाँ मिलती है। इसलिए छोड़ने का दिल नहीं करता। सही है। मगर इस समस्या का हल यह नहीं कि आप पैसा कमायें और और आपके बच्चों की देखभाल आपके माता-पिता या सास ससुर करें। 

आपको पाल पोस कर बड़ा कर उन्होंने अपना फर्ज़ निभा दिया। अब आपका बच्चा आपकी ज़िम्मेदारी है, उनकी नहीं। अब उनके भी आराम के दिन है। तो अब ऐसे में क्या सही विकल्प बचता है? मेरे विचार से तो माँ या पिता में से किसी एक का नौकरी छोड़ देना ही बेहतर है। लेकिन पुरुष प्रधान समाज होने के कारण पिता जी तो नौकरी छोड़ने से रहे कम से कम अपने हिन्दुस्तानी परिवारों में तो कतई ऐसा हो ही नहीं सकता है। लेकिन एक बच्चे की सही और अच्छी परवरिश केवल उसके अपने माँ-बाप के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता। यह एक कड़वा सच है। फिर चाहे कोई माने या ना माने। आप पैसा देकर सब कुछ खरीद सकते है मगर माँ की ममता या पिता का प्यार नहीं खरीद सकते। 

10 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (05-10-2015) को "ममता के बदलते अर्थ" (चर्चा अंक-2119) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. पल्लवी जी ऐसे विषयों पर जिस बेबाकी और बिंदास लहजे में आपकी लेखनी चलती है उसके लिए आपका साधुवाद | सच में धीरे धीरे ज़माना बहुत बदल गया है , सारे दस्तूर सारी रवायतें बदल रही हैं | लिखती रहें | शुक्रिया

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  3. आधुनिक युग का यह एक ज्वलंत समस्या है ,इसे प्रत्येक दम्पति को अपनी परिस्थिति के अनुसार समाधान निकालना पडेगा |--सुन्दर आलेख

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  4. पल्लवी जी, आपका लेख पढ कर एक बार कहीं पढा हुआ याद आ रहा है कि आज-कल बच्चों से ज्यादा कुत्ते नशीब वाले होते है। क्योंकि बच्चे आया की गोद में पलते है और कुत्ते मालिकों की गोद में!!
    सुंदर प्रस्तुती...

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  5. एकदम सहमत हूँ पल्लवी जी आपके विचारों से.

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  6. लेख का अन्‍तर्विचार महत्‍वपूर्ण है।

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  7. आप सभी का धन्यवाद।

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  8. सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

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  9. आप ने सारी समस्या को तार-तार करके देखा है और दिखा दिया है. लेकिन इस समस्या का कोई हल नजर नहीं आता. डॉक्टरों का तो यह कहना है कि जहाँ माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं वहाँ उनके बच्चों की सेहत पर आगे जाकर अधिक खर्चा करना पड़ता है.
    इस बढ़िया आलेख के लिए आपको बधाई.

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