भारत वापस आने के बाद यह मेरी दूसरी दीपावली थी। जिसने मुझे अनगिनत अनुभव की पोटली दे डाली। पिछले साल दिवाली यही मेरे घर पुणे में मनाई गयी थी और इस साल दिवाली मनाने हम जबलपुर गए, वह भी कार से, यह शुरुआत थी उन अनुभवों की जो आज तक के जीवन में मुझे पहले कभी न हुए थे। ऐसा इसलिए कहा क्यूंकि इस से पहले भोपाल इंदौर से अधिक लंबी यात्रा मैंने कार से पहले कभी न की थी। हालांकि अब तो भोपाल इंदौर यात्रा भी लंबी यात्रा के अंतर्गत नहीं आती। वह अलग बात है। इस मामले में मुझे ऐसा लगता है कि बी.जे.पी की सरकार के राज्य में और चाहे कुछ अच्छा हुआ हो या न हुआ हो। मगर (मध्य प्रदेश) की सड़कों और शहरों का पहले से अधिक विकास ज़रूर हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं है। एक समय था जब महाराष्ट्र की सड़कों के विषय में भी ऐसा ही कुछ कहा जाता था।
रेलवे स्टेशन |
इस तस्वीर में दूर वही चिता जल रही है जिसका मैंने ज़िक्र किया |
यह एक दृश्य था। दूसरा नदी किनारे लगी नाव की सवारी आह ! प्रकृति की गोद का ऐसा सुखद अनुभव तो मुझे पहले कभी न हुआ था कि नाव में ही बस जाने को जी चाह रहा था। ऐसी सुंदरता का जिक्र ना कभी सुना ना देखा। जो बस आंखो से पीया जा सके और आत्मा से महसूस कीया जा सके। जिसको ना कोई पढ़कर समझ सके। जिसको न कोई लिखकर समझा सके। वह ही तो कहलाता है अदबुद्ध प्रकर्तिक सौंदर्य जिसके रूप के आगे कामदेव की बनायी संरचना भी फीकी सी लगने लगे। जिसकी ओर मन स्वतः ही मुड़ जाये। शायद यही वह आकर्षण होता होगा जो एक इंसान को साधू बनने पर विवश कर दिया करता होगा। लिकिन एक सच्चा साधू, एक योगी। कोई भोगी या पाखंडी नहीं। नदी के जल की कलकल ध्वनि घर लौट रहे परिंदों का करलव और लंबी खामोशी। नदी के बीच लगे दूर इक्का दुक्का ठूंठ से नंगे पेड़ जिन पर कुछ पक्षियों ने अपना घरौंदा बना लिया था। दूर बहुत दूर जहां तक नज़र जा सकती है उतनी दूर। नदी के किनारे कुछ और जलती हुई चिताएँ जिनकी सिर्फ अग्नि ही दिखी दे रही थी। पुल पर से गुजरती रेलगाड़ी और उसके पीछे से धीरे धीरे डूबता हुआ सूरज जो विवश कर गया उस गीत के बोल गुन गुनाने के लिए कि
कहीं दूर जब दिन ढाल जाए, साँझ की दुल्हन बदन चुराय, चुपके से आए
मेरे ख्यालों के आँगन में, कोई सपनों के दीप जालाए, चुपके से आए।
फिर अचानक ही ऐसा लगने लगा मानो यह सन्नाटा और यह अंधेरा धीरे-धीरे पग बढ़ता हुआ निगल लेना चाहता है यह सारे नज़ारे। अभी इस आभा से मन भर भी नहीं पाया था कि वह किनारा आ गया जहां हमें उतरना था। नाव से उतरकर भी वही कार की सवारी रास्ते में घर लौटते मवेशियों की बड़ी बड़ी चमकीली आंखे, बैलगाड़ी की गड़गड़ाहट और घर लौटे गड़रियों का अपनी गाये भैंसों और बकरियों को हकालने के स्वर मुझे जैसे सभी कुछ एक स्वप्न सा प्रतीत हो रहा था। इतनी दुनिया देखने के बाद और घूमने के पश्चात भी आज भी जैसे यह मिट्टी मुझे अपनी ओर खींचती है। यह नज़ारे देखकर आँखों को जितनी ठंडक और मन को जितनी शांति मिली। उतनी तो शायद पुजा पाठ में भी नहीं मिलती। लेकिन दूसरी तरफ मन में रह रह कर यह सवाल उठता रहा कि क्यूँ छोड़ दी हमने अपनी मिट्टी, अपना गाँव, अपना परिवेश, अपनी सभ्यता, अपना संस्कृति। काश ऐसा होता कि शहरों में काम करने की मजबूरी न होती तो आज शायद मेरी पहली पसंद किसी गाँव की नागरिकता ही होती।
आज भी गाँव में कुछ नहीं बदला है। आज भी वहाँ मैंने देखा घर आँगन को गोबर से लीपते हुए। चूने से मुंडेर को संवारते हुए। मिट्टी के आँगन में जमीन पर रंगोली डालते हुए। घर द्वार को फूलों और आम के पत्तों से बनी बंधवार से सजाते हुए। जिसे देखकर लगा यह है वास्तविक दीपावली जिसे मनाने के लिए कोई आडंबर नहीं है। जो है, जितना है। वही अपने आप में इतना भव्य है कि वहाँ किसी और औपचारिकता की कोई आवश्यकता ही नहीं है। सब कुछ एक साफ सुथरे निर्मल मन की कोमल भावनाओं जैसा ही तो है। हालांकि आज के माहौल में यह सब भी कोई पूर्णतः सच नहीं है। आपसी रंजिशों के चलते अब गाँव में भी मानवता का वैसा वास देखने को नहीं मिलता जैसा प्रेमचंद की कहानियों में पढ़ने को मिलता है।
मुझे तो ऐसा लगता है गाँव के विकास के नाम पर जो गांवों का शहरी कारण किया गया। जिसके चलते वह ना पूरी तरह शहर ही बन पाये और ना गाँव ही रह पाये। उन्हें जिला करार दे दिया गया होगा। लेकिन यहाँ आकर यहाँ घूमकर जो मुझे यह सुखद अनुभव हुए वह सदा मेरे साथ रहेंगे 'मेरे अनुभव' बनकर।