Thursday, 15 December 2016

यह बदलाव नहीं तो और क्या है २




बदलते समय के साथ बदलना शायद सब के बस की बात नहीं और मैं उन्हीं में से एक हूँ| आप लोगों को जानकर शायद आश्चर्य हो, लेकिन यह सच है मैंने अपने जीवन में आज से पहले कभी (पब) का चेहरा भी नहीं देखा था | एक तरह से देखा जाए तो पांच साल नई दिल्ली में रहने के बाद और आठ साल लन्दन में रहने के बाद भी यदि कोई वयक्ति यह कहे तो कि उसने कभी पब का चेहरा नहीं देखा तो आज कल के ज़माने के हिसाब से यह बहुत ही अजीब बात है | नहीं ?

खैर वहां जाकर मुझे जीवन का एक अलग ही अनुभव हुआ, जिसके अंतर्गत जीवन का एक ऐसा पहलू सामने आया जिसमें सिवाए अत्यधिक बनावट और दिखावे के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था | औरों का तो मुझे पता नहीं लेकिन मुझे तो उसके अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं दिया | कुछ देर के लिए यदि मैं उन चंद घंटों को एक अलग दुनिया का नाम दे दूं तो शायद गलत नहीं होगा | एक अलग ही दुनिया थी वो जहाँ बड़े बाप के बिगड़े बच्चे पैसों के आधार पर शराब के नशे में धुत केवल अपने पैसों की नुमाइश नहीं बल्कि अत्यधिक छोटे कपड़ों में अपने जिस्म की नुमाइश करते हुए भी प्रतीत हो रहे थे | यहाँ मैं पहले ही बता दूँ कि यह मेरा नजरिया है, हो सकता है बहुत को मेरे विचार दकियानूसी या महिलाओं की स्वतंत्रता विरोधी (एंटी वुमन लिबर्टी) प्रकार के लगे | अब भई जिसको जो लगना हो सो लगे मुझे जो लगा मैं तो वही लिखने का प्रयास कर रही हूँ |

कहने को लोग ऐसी जगह पर मनोरंजन के लिए जाते हैं, वहां भी एक दो परिवार आये हुए थे किन्तु वहां जाकर तो मुझे लगा जैसे लोगों को मनोरंजन की परिभाषा ही नहीं पता है बस भेड़ चाल में जो सब कर रहे हैं वही खुद भी करते चलो हो गया मनोरंजन, फिर चाहे वह नृत्य के नाम पर अनचाहे अंग्रेजी गीतों की धुन पर जबरन थिरकना ही क्यूँ न हो. लेकिन मनोरंजन के नाम पर मेरी सोच अलग है | मेरे विचार में नृत्य चाहे कोई भी हो देसी या विदेशी परन्तु जब तक आप उसे अन्दर से अर्थात अपने अंतर मन से महसूस नहीं करेंगे तब तक आप से वह नृत्य होगा ही नहीं, रही बात पहनने ओढने और खाने पीने की तो मेरा मत कहता है कि माना कि आपको आपना जीवन अपने ढंग से जीने का पूर्ण अधिकार है और व्यक्ति को ऐसे ही जीना भी चाहए. लेकिन यदि आप समाज में रहते है तो उसका भी थोड़ा ध्यान रखना आपका फ़र्ज़ बनता है और यदि आप ऐसा नहीं कर सकते तो फिर कुछ बुरा अर्थात कुछ ऊंच नीच हो जाने पर शिकायत करनें का भी आपको कोई अधिकार नहीं है | क्यूंकि माना की ज़माना बदल रहा है लेकिन अभी इतना भी नहीं बदला है जितना बदलना चाहिए भारत आज भी भारत ही है  यहाँ आज भी कम कपड़ों में शराब पीती या उल्टी करती लड़कियों को लोग सहजता से हजम नहीं कर पाते और जब उन्हें यह सब दिखाई देता है तो बस उन्हें लगता है उनका रास्ता साफ़ है, इस सब के उपर देर रात तक बाहर रहना रही सही कसर पूरी कर देता है |

लेकिन आजकल की पीढ़ी को देखते हुए ऐसा लगता है कि इस सब पर पाबंदी भी नहीं लगायी जा सकती, क्यूंकि आज की युवा पीढ़ी को पैसा समय से पहले ही मिल जाता है जो शायद हमारे ज़माने में मांगने पर भी सिर्फ उतना ही मिलता था जितने की आवशयकता हो | इसलिए कहा गया है कि  “ चीटियों के पर निकलते देर नहीं लगती ”, यह सब कारस्तानी देखकर मुझे एक बार फिर वही महसूस कि हाय मैं कितने जल्दी बुढा गयी हूँ, जो इतनी सहज चीजों को भी सहजता से पचा नहीं पा रही हूँ | लेकिन फिर भी मुझे ख़ुशी इस बात की है कम से कम जीवन का एक नया पहलू तो देखने को मिला और उससे भी अच्छी बात यह रही की मुझे यह शाम एक ऐसी इंसान के साथ बिताने को मिली जिसके साथ समय बिताना, गप्पे मारना, मौज मस्ती करना मुझे बहुत अच्छा लगता है | इस पर सोने पर सुहाग यह हुआ कि वहां चाहे और कुछ अच्छा हो या नहो मगर वहां का खाना काफी स्वादिष्ट था | शाकाहारी खाने में भी इतना कुछ अलग- अलग बनाया जा सकता है, यह भी एक छोटा ही सही किन्तु अच्छा अनुभव था | खासकर दही के कबाब यह अपने आप में एक बहुत ही अद्भुत स्वाद वाली नयी चीज़ थी |

और क्या कहूँ बस इतना ही कह सकती हूँ कि वाकई ना सिर्फ पीढ़ी दर पीढ़ी बल्कि हर एक चीजों को लेकर ज़माना बदल गया है थोड़ा बहुत ही नहीं बल्कि बहुत कुछ बदल गया है | यदि आप भी समय रहते समय के साथ ना बदले तो ज़माना आपको एक भूली बिसरी याद समझ कर भूल जाएगा और आपको पता भी नहीं चलेगा क्यूंकि बदलाव का दूसरा नाम ही जीवन है और मैं समय के साथ खुद को पूरा तो नहीं मगर थोडा बहुत बदलने के प्रयास में मैं भी प्रयासरत अवश्य हूँ |

Tuesday, 20 September 2016

यह बदलाव नहीं तो और क्या है ~१


आज बहुत दिनो बाद कुछ लिखने का मन हो रहा है। न जाने क्यूँ पिछले कुछ महीनों से लिखने से मन उचट गया था। व्यतीत होते समय के साथ ऐसा लगता है मानो सब कुछ कितना तेजी से बदल रहा है। औरों के बारे में सोचो, तो लगता है मानो समय ने पंख लगा लिए हों। कई बार अपने गुजरते अच्छे समय के साथ भी ऐसा ही महसूस होता है। मन तो बहुत करता है आज में जीने का, मगर दिमाग है कि आने वाले कल की चिंता की चिता में जलाए डालता है। फिर कभी यूं भी लगता है कि समय ठहर सा गया, जीवन रुक सा गया है। तब मन होता है कि काश कोई तो ऐसा उपाय मिले या कार्य मिले कि जिसमें स्वयं को डुबाकर हम इतना व्यसत हो जाएँ कि खुद को भूल जाएँ। लेकिन चाहत कब किसकी पूरी होती है। जो चाहो वो ही नहीं मिलता और जब मिलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। तभी ग़ालिब का वो शेर याद आता है कि


"हजारों ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमा लेकिन फिर भी कम निकले"

खैर आज मुझे मेरी बात नहीं करनी। लेकिन किसकी करनी है यह भी मैं नहीं जानती। इतना कुछ चल रहा है इतना कुछ हो रहा है हमारे आस पास किसी एक विषय पर बात करना ही कठिन प्रतीत होता है। फिर दिल को सुकून पहुँचाता है बचपन। अब हम तो अपने बचपन में वापस लौटकर जा नहीं सकते किन्तु औरों का बचपन देखकर अपना दिल तो बहला ही सकते है। लेकिन फिर महसूस होता है कि यह वो बचपन नहीं जिसमें हम जीना चाहते है। यह तो नया बचपन है नयी पीढ़ी का बचपन जिससे न हमारी सोच मेल खाती है और ना ही हमारी कल्पना। ऐसा लगता है मानो आजकल के बच्चे किसी और ही दुनिया में जीते है। जहां शायद भावनाओं के लिए कोई जगह ही नहीं है। नयी पीढ़ी में केवल सोच और समझ का ही अंतर नहीं दिखाई देता बल्कि उनका चीजों को महसूस करने का तरीका भी बहुत अलग होता है। तब यह परिवर्तन देख स्वयं को यह महसूस होता है कि अब न सिर्फ हम पुराने हो गए हैं, बल्कि हमारी सोच, हमारा जीवन को देखने का नज़रिया भी बहुत पुराना हो गया है।

इस सब के बावजूद हममें से कुछ लोग समय के साथ बदल जाते है। लेकिन जो नहीं बदल पाते उन्हें यह परिवर्तन असभ्य उद्दण्ड प्रकार के लगते हैं। उनकी नज़र में सब दिखावा होता है। लेकिन जो लोग खुद को सो कॉल्ड व्यवहारिक (प्रेकटिकल) सोच रखने वाला समझते है वह हर बात को स्वीकार करने के लिए राज़ी रहते है। क्यूंकि उन्हें लगता है कि नयी पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का यही एक उपाय है क्यूंकि भावनात्मक लोग तो सदियों से कमजोर की श्रेणी में गिने जाते रहे है। पिछले दिनों यहाँ गणेश उत्सव की बहुत धूमधाम रही। यूँ भी महाराष्ट्र में गणेश उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता है तब मैंने महसूस किया आज की पीढ़ी और अपने आप में आए हुए अंतर को, या यूँ कहूँ कि अंतराल को देखकर। सब के विषय में तो मैं कह नहीं सकती किंतु मेरे अनुभव ने जो मुझे महसूस कराया वो तो यही था कि कितना उदासीन है आज का बचपन कितना अकेला, दुनिया के सुखों से विमुख केवल अपने आप में अपनी ही बनाई हुई दुनिया में मग्न। 

जिसमें मुझे तो जीवन के प्रति कोई जोश कोई उमंग या उत्साह दिखाई नयी दिया। ना मौज ,ना मस्ती ,ना हुल्लड़ ना कोई ज़िद ना उमंग मुझे तो ऐसा कुछ भी दिखाई नयी देता। अगर कुछ है तो वह है केवल गैजेट्स पर खेले जाने वाले काल्पनिक खेल। जिसके आज के बच्चे इतने अत्यधिक आदि हो गए है कि अपनी वास्तविक ज़िंदगी को ही भूल उसमें ही जीने लगे है ।उनके दिमाग़ में सदैव यदि कुछ चलता है तो वह है यह काल्पनिक खेल और कुछ नहीं। कहीं न कहीं इस सबके जिम्मेदार शायद हम ही हैं या शायद बदलता समय जिसके अनुसार हम खुद को आसानी से  बदल नहीं पा रहे हैं। तभी तो हम अपने आराम के लिए छोटे से साल दो साल के बच्चे को भी रोने पर या ज़िद करने पर मोबाइल पकड़ा देते हैं और जब उसे उसकी लत लग जाती है तो केवल उसे ही दोष देते हैं।

ग़ौर से देखा जाए तो आजकल का बचपन है क्या, सुबह उठे स्कूल चले गए। वहाँ से आए नहा धोकर खाया पिया बहुत हुआ तो ग्रहकार्य किया और भिड़ गए टीवी देखने या लेपटॉप पर खेलने, कुछ नहीं मिला तो मोबाइल पर ही शुरू हो गए और जब उससे भी मन भर गया तब याद आती है इस दुनिया में उनके कुछ दोस्त भी हैं। पर फ़ायदा क्या उनका भी हाल वैसा ही है जैसा मैंने उपरोक्त पंक्तियों में व्यक्त करने का प्रयास किया है। आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब गणपति महोत्सव की इतनी धूमधाम और आस -पास हो रही हलचल के बावजूद बच्चों में कोई ख़ास उत्साह या लगाव दिखाई नही दिया। ना बच्चों की आँखों में त्यौहार के प्रति वो चमक ही दिखाई दी जो हम अपने समय में महसूस किया करते थे।

जैसे अपने मुहल्ले के गणपति के लिए ख़ुद फूल चुनकर लाना, प्रतिदिन उनके लिए एक नयी माला बनाना । माता -पिता से ज़िद करके प्रसाद के लिए रोज़ कुछ नया ले जाना। नृत्य एवं खेल ख़ुद प्रतियोगिता में पूरी उमंग और जोश से भाग लेना। मानो यह कोई साधारण प्रतियोगिता नहीं बल्कि जीवन का आधार हो। लेकिन आज इस सब की झलक मात्र भी दिखाई नहीं देती इन बच्चों में, ~"यह बदलाव नहीं तो और क्या है"' ? या शायद मैं ही समय से पहले बुढ़ा गयी हूँ जो ना चाहते हुए भी अपने समय से आज के समय की तुलना कर बैठती हूँ। बस इतना कह सकती हूँ कि यदि अभिभावक अपने बच्चों की क़दम ताल से अपनी ताल मिलाना चाहते है तो उसके लिए उन्हें व्यावहारिक होना होगा। भावनात्मक लोगों या व्यक्तियों की अब इस ज़माने को ज़रूरत नहीं है। मैं बहुत भावनात्मक हूँ इसलिए मुझे तो ताल मिलाना कठीन लगता है पर कोशिश जारी है। आगे तो समय ही बताएगा कि क्या होना है तब तक


जाहि विधि राखे राम, ताही विधि रहिए।
जय राम जी की

Sunday, 17 April 2016

~"ज़िंदगी से सस्ती मौत" ~


वर्तमान हालातों को देखते हुए लगता है कि आज ज़िंदगी मौत से सस्ती हो गयी है। जान देना मानो बच्चों का खेल हो गया है। ज़रा कुछ हुआ नहीं कि लोग जान ऐसे देते है मानों कुछ हुआ ही नहीं।  देखो न प्रत्यूषा प्रत्यूषा प्रत्यूषा, आज चारों और बस एक ही नाम है। मेरे विचार में तो वह इतनी लोकप्रिय और प्रसिद्ध तब भी नहीं थी जब वह जीवित थी। लेकिन आज अपने एक गलत कदम की वजह से वह इतनी चर्चित है। मनो कह रही हो कि "बदनाम हुए तो क्या नाम ना होगा"। लेकिन वह पहली ऐसी कलाकार तो ना थी जिसने आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध किया। सिल्क स्मिता, परवीन बाबी से लेकर दिव्या भारती, जिया खान और अब यह प्रत्यूषा बेनर्जी सभी ने तो यही रास्ता अपनाया था इसमें नया क्या है। सभी के समय आशंकाओं से भरी चर्चायें यूं ही उठी और फिर समय के साथ साथ सब शांत हो गया। 

लेकिन अफसोस इस बात का है कि हँगामा केवल चर्चित चेहरों पर ही क्यूँ होता है। क्या एक आम इंसान की जान की कीमत इस चर्चित सितारों की जान से भी सस्ती है। हर रोज़ न जाने कितने किसान भाई और बहने इस मार्ग पर चलकर अपनी जान दे देते है और किसी को पता भी नहीं चलता। कोई रोटी के लिए जान दे रहा है, तो कोई प्यार के लिए। जो इन सब से परे है आज, वही बचपन भी इसी समस्या से जूझ रहा है। 

आज मरना जीने से ज्यादा आसान हो गया है। जब ऐसा कुछ सोचती हूँ तो लगता है केवल किसानो भाइयों की समस्या ही ऐसी है जिसके चलते उनके पास और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उन्हें यूं ही मरने दिया जाता रहे। लेकिन बाकी अन्य लोगों की तो ऐसी समस्याएँ नहीं है जिनका हल निकाला नहीं जा सकता। फिर क्यूँ आज की युवा पीढ़ी इतनी कमजोर हो गयी है कि ज़रा सी परेशानी का सामना हुआ नहीं कि बस चले जान देने। इतना भी क्या सामाजिक दबाव के तले दबना कि जान देना मौत से भी आसान लगने लगे। इन हरकतों से तो मुझे ऐसा लगता है कि वास्तव में समस्या शायद उतनी जटिल नहीं होती, जितने स्वार्थी यह खुदखुशी करने वाले इंसान हुआ करते हैं। बात कड़वी ज़रूर है लेकिन सच है। क्यूंकि जाने वाला तो चला जाता है मगर पीछे छोड़ जाता है एक कभी न भरने वाला जख्म अपने माँ-बाप के लिए। जिन्होंने न जाने कितनी तकलीफ़े उठाकर, न जाने कितने सपने सँजोकर अपने बच्चों को पाल पोसकर बड़ा किया होता इस उम्मीद के साथ की कल को उनके बच्चे उनका सहारा बनेगे।

लेकिन बच्चे इतने स्वार्थी हो गये हैं कि इतना बड़ा कदम उठाने से पहेले एक बार भी अपने परिजनो एवं प्रियजनो के बारे में नहीं सोचते। मैं जानती हूँ यह सब कहना बहुत आसान है क्यूंकि "जिस तन लागे वो मन जाने" लेकिन फिर अगले ही पल यह विचार भी रह रहकर मन में आता है कि ऐसा कदम लड़कियां ही ज्यादातर क्यूँ उठती है। बचपन से लेकर युवावस्था तक स्व्छंद जीवन जीने वाली लड़कियां आगे जाकर इतनी कमजोर कैसे हो जाती है कि महज़ प्यार में धोखा मिलने के कारण अपनी जान तक देना उन्हें गलत नज़र नहीं आता। तब मेरा मन कहता है इसका एक ही कारण हो सकता है। लड़की, लड़की ही होती है फिर चाहे देसी हो या विदेशी भावनाएं सभी की समान होती है। अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीते हुए अपनी पसंद का जीवनसाथी पाकर अपना छोटा सा आशियाना बनाने की चाह पहले भी हर लड़की के मन में हुआ करती थी और आज भी होती है।  

लेकिन इस चाह में जब स्वार्थ मिल जाता है तो प्यार भरे रिश्ते में शक का जहर घुलते देर नहीं लगती। क्यूंकि खुद की स्व्छंदता में अंधी लड़कियां अक्सर यह भूल जाती है कि सामने वाले व्यक्ति भी अपनी ज़िंदगी स्व्छंदता से जीने का उतना ही अधिकार रखता है जितना कि वह स्वयं रखती है। अब ज़माना बदल गया है। रिश्तों की परिभाषा भी बदल रही है। अब प्रेम विवाह तो क्या अब तो लिविंग रिलेशनशिप को भी बुरा नहीं माना जाता ऐसे में आप सामने वाले को अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने के लिए विवश नहीं कर सकते। आपकी मर्ज़ी है शादी करने की मगर यदि उसकी मर्ज़ी है रिश्ता खतम करने की तो आपको उसके लिए जान देने की जरूरत नहीं है, बल्कि उसे जाने देने की जरूरत है। क्यूंकि जिस तरह आपको अपनी ज़िंदगी में किसी और का दखल पसंद नहीं उसी तरह सामने वाले को भी उसकी निजी ज़िंदगी में किसी और का दखल पसंद नहीं आयेगा। खासकर जब, जब वह आप से नाता तोड़ना चाहता हो। फिर चाहे विवाह हुआ हो या ना हुआ हो। यह मायने नहीं रखता और जब ऐसा नहीं हो पाता, बस यही से शुरू होता है दर्द और अकेलेपन का वो सफर जो आत्महत्या पर जाकर ही थमता है। 

चर्चित चेहरों या फिल्मी सितारों में यह सफर आत्महत्या का रूप ले लेता है और आम जन जीवन में यह जहर परिवारों को तोड़ देता है। कहीं न कहीं प्रेम विवाह के सर्वाधिक टूटने के पीछे यही स्वार्थपरक स्व्छंदता ही एक अहम कारण है। हांलाकी अब तो साधारण विवाह में भी यही हाल है। अपनी अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने की चाह और दोनों के अहम का टकराव दो इन्सानों को विवाह उपरांत भी एक नहीं होने देती। प्रत्यूषा की ज़िंदगी में भी तो ऐसा ही कुछ हुआ जान पड़ता है। वरना लाखों कमाने वाली लड़की की ज़िंदगी में ना तो धन का अभाव था न ही विवाह हेतु लड़कों की कमी। किन्तु उसने जिसे चाह उसी ने उसे छला दिन रात अपने रिश्ते को लेकर असुरक्षा की भावना लिए इंसान कब तक जिएगा। आखिरकार थक हारकर उसने भी समस्या का समाधान खुद को खत्म कर देना ही पाया। ताकि "ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी"।

लेकिन न जाने क्यूँ आत्मनिर्भर होने के चक्कर में आजकल की युवा पीढ़ी यह अहम बात भूल जाती है कि एक इंसान के जीवन में पैसा ही सबसे बड़ी जरूरत नहीं होती। प्यार और अपनेपन की भावनाओं का भी एक अहम स्थान होता है जिस पर इंसान का जीवन टिका होता है। जब यह भावनाएं खत्म तो समझो ज़िंदगी खत्म क्यूंकि फिर चाहे आपके पास कितना भी धन क्यूँ ना हो किन्तु वह आपके जीवन के खालीपन को नहीं भर सकता।   

Wednesday, 6 April 2016

~संदेह ग्रसित विश्वास~


आज की तारीख में 'विश्वास', जैसे किसी दुरलभ चिड़िया का नाम हो गया है। जो अब कभी-कभी या कहीं- कहीं ही देखने को मिलती है। हर देखी सुनी बात पर भी विश्वास करने में संदेह होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जो देख रहे हैं जो पढ़ रहे है उसके पीछे का सच कुछ और ही हो। दिल तो कहता है कि विश्वास करो किन्तु दिमाग कहता है नहीं सावधान! जो दिखाई दे रहा है वह पूर्णतः सत्य ही हो ऐसा ज़रूरी नहीं है। विशेष रूप से सोशल मीडिया के द्वारा प्रसारित किया जाने वाला कोई भी समाचार संदेहास्पद ही होता है। जिसके एक नहीं कई उदाहरण आपने भी देखे सुने और पढे होंगे। जहां हुआ कुछ होता है और तस्वीर बदलकर मिर्च मसाला लगाकर दिखाया कुछ और ही जाता है जिससे पूरा घटनाक्रम ही बदल जाता है। ऐसा सब देखकर, पढ़कर ऐसा लगता है कि कितना फालतू समय है लोगों के पास जो इस तरह की हरकतें करते हैं और बेधड़क परिणाम की परवाह किये बिना उसे सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। उससे भी ज्यादा दुख तो तब होता है जब पाठक भी बिना सच्चाई जाने उसे अपने अन्य मित्रों के साथ दुगनी तेज़ी से सांझा करना प्रारम्भ कर देते हैं। 

यह तो थी सोशल मीडिया की खबरों पर आधारित संदेह में घिरा सच। अब यदि बात की जाये वास्तव में हो रही घटनाओ की तो दलितों को लेकर पहले भी ऐसी कई शर्मनाक घटनायें सामने आयी है जिन्होंने इंसानियत का सर शर्म से एक नहीं बल्कि हजारों बार झुकाया है। पर फिर भी किसी ने उन घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया। उलटा ऐसी घटनाओं में वृद्धि ही होती आयी है। हालांकी उनमें भी कुछ ऐसी घटनाएँ भी शामिल हैं जो पूर्ण रूप से सच नहीं है। परंतु अधिकतर वह घटनाएँ है जो सच है। अभी कुछ दिन पहले ही राजस्थान के चित्तौड़गढ़ शहर में तीन दलित लड़कों को मोटरसाइकिल चोरी करने के इल्ज़ाम में उनके कपड़े उतार कर उन्हें जानवरों की तरह पीटा गया। अब यह बात किस हद तक सही है, यह मैं नहीं कह सकती। लेकिन मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि भले ही हमने आतंकवाद के शतरंज में कसाब को मार कर एक बड़ी जीत हाँसिल की हो। लेकिन इस तरह की घटनाओ को अंजाम देकर न जाने कितने कसाब हमने खुद अपने ही घर में तैयार कर लिए है जिसका हमें स्वयं भी अंदाज़ा नहीं है। 

मुझे कोई हैरानी नहीं होगी यदि कल को यह तीनों दलित बच्चे जिनके साथ यह घटना घटी कल को चोरी चकारी लूटमार हत्या या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करते हुए पकड़े जायेँ। क्यूंकि जब हम अपने किशोर अवस्था के बच्चों के प्रति सजग हैं और हम यह भली भांति जानते हैं कि यह उम्र ही ऐसी होती है जब खुद इस उम्र से गुजरने वाले बच्चे अपने अंदर आ रहे मानसिक एवं शारीरिक परिवर्तनों को ठीक तरह से समझ नहीं पाते तब ऐसे में उनके साथ इस तरह का दर्दनाक दुर्व्यवहार निश्चित तौर पर उन्हें गलत रास्ते पर ही ले जाएगा। फिर बच्चे तो बच्चे ही होते है। फिर हम उन्हें सजा देते वक्त यह क्यूँ भूल जाते है कि वह भी तो बच्चे ही हैं चाहे हमारे हो या किसी और के, दलित भी तो आखिर इंसान ही है। बल्कि मैं तो कहूँगी कि दलित होने जैसे घटिया और ऊंच नीच की बात आज के जमाने में करना ही अपने आप में एक बेवकूफी है। लेकिन आज के समय में भी ऐसी घटनाओ का सामने आना हमारे विकासशील देश के विकसित नागरिक होने पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। 

आखिर कहाँ गए हमारे वो संस्कार जब हम भूखे को खाना खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना एक पुण्य का काम समझा करते थे। राहगीरों के लिए पियाऊ और शर्बत पिलाना सबाब का काम समझा जाता था। क्यूँ लुप्त हो गयी यह पुरानी परम्पराएँ यह संस्कार ? क्या वर्तमान हालातों को देखते हुए स्वयं अभिभावक ही इतने आधुनिक हो गए कि उन्होंने अपने बच्चों को इन बातों का महत्व सिखाना तो दूर बताना भी आवश्यक नहीं समझा ? तभी तो आज एक इंसान जो प्यासा है, पानी मांगने पर भी उसे कोई पानी नहीं देता और यदि वो प्यास की अति हो जाने के कारण किसी की बोतल से पानी पीले तो उसे मार-मारकर चलती रेल से टांग दिया जाता है। क्या इंसान की जान की कीमत एक बोतल पानी से भी सस्ती हो गयी है कि लोग "प्राण जाये पर पानी न जाये" की तर्ज पर चलने लगे है। 

उपरोक्त लिखी यह सारी बातें और घटनाए कहीं न कहीं एक इंसान को दूसरे इंसान के प्रति विश्वास पर संदेह का घेरा बनाती है। जो यह सोचने पर विवश करती हैं कि हर घटना हर समाचार विश्वास करने से पहले ही संदेह से ग्रसित होता है। जो ना चाहते हुए भी यह सोचने पर विवश करता है कि क्या वाकई अब इस दुनिया से इंसानियत का जनाज़ा उठ चुका है। यह भी अपने आप में एक संदेह ग्रसित बात है।

Saturday, 12 March 2016

“~डर के आगे ही जीत है~”

“~डर के आगे ही जीत है~”

आज फिर एक विज्ञापन देखा जिसमें हवा को स्वछ बनाने वाले यंत्र का उपयोग करने की सलाह दी जा रही थी अर्थात आसान शब्दों में कहूँ तो (एयर प्यूरीफायर) का विज्ञापन देखा। क्या वास्तव में हम इतने भयानक वातावरण में जी रहे हैं कि हमारे घर की हवा तक स्वच्छ नहीं है। यदि वास्तविकता यही है तो फिर हम किस आधार पर देश की प्रगति या विकास की बात करते हैं। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि चाँद से मंगल तक की यात्रा भी शायद लोगों को सभ्य बनाने से ज्यादा आसान काम रहा होगा। मगर भारत में लोगों को सभ्य बनाना “लोहे के चने चबाने जैसी बात है”। आपको वैल एजुकटेड(Well Educated) लोग मिलेंगे लेकिन सभ्य नहीं।

खैर हम बात कर रहे थे एक एयर प्यूरीफायर के विज्ञापन की, तो भई जिस देश की हवा ही स्वच्छ और सुरक्षित नहीं है वहाँ किसी और तरह के विकास के बारे में तो सोचना ही व्यर्थ है नहीं ! लेकिन मैं कहूँगी कि “डर के आगे ही जीत है” अब आप कहेंगे ऐसा नहीं है।

विज्ञापन कंपनियों का तो काम ही है लोगों में डर बेचकर अपनी जेबें भरने का, सही बात है लेकिन मुझे आश्चर्य इसलिए होता है कि यह बात सभी जानते हैं मगर फिर भी उस बेचे जा रहे डर को खरीद लेने में ही समझदारी समझते है और खरीद भी लेते है। क्यूँ ? क्यूंकि अपनों की सुरक्षा के आगे इंसान सब करने को तैयार रहता है। लेकिन इस तरह के यंत्रों का उपयोग करके हम अपने अपनों की सुरक्षा नहीं कर रहे बल्कि उन्हें और भी ज्यादा कमजोर बना रहे हैं। खासकर बच्चों को क्यूंकि घर में हम भले ही उन्हें कितना भी शुद्ध वातावरण क्यूँ न प्रदान करें लेकिन घर के बाहर का माहौल तो सदैव ही घर से पूर्णतः भिन्न ही मिलता है। फिर चाहे वह आबो हवा की बात हो, खाने पीने की बात हो या पानी की बात हो, घर की चार दीवारी के बाहर तो जैसे सभी कुछ प्रदूषित होता है।

ऐसे में हमें या तो अपने पर्यावरण को पहले की तरह स्वच्छ बनाना होगा जो इतना आसान नहीं है किन्तु यदि प्रयास किया भी तो उसमें समय भी अधिक लगेगा। तो फिर क्या किया जा सकता है ? तो जवाब है फिर हमें अपने शरीर को ही मजबूत बनाना होगा। जैसे एक मजदूर का शरीर होता है जिसे कैसा भी खाना और कहीं का भी पानी हानि नहीं पहुंचाता क्यूंकि उसका पालन पोषण डरे हुए माहौल में नहीं होता। वह आज भी हमसे ज्यादा प्रकृति के करीब होता है। ज़मीन पर सोता है। मिट्टी में काम करता है। और अन्य सारे कामों के लिए भी ज़मीन का ही सहारा लेता है फिर चाहे काम के दौरान मिले अंतराल में भोजन करना हो या फिर झपकी लेनी हो। उसके लगभग सभी काम जमीन पर बैठकर ही होते है और एक हम हैं ! जो अपनी ही ज़मीन से कोसौं दूर रहते है और अपने बच्चों को भी दूर रखते है।

मुझे तो ऐसा लगता है कि हम सभी जब मंदिर जाते हैं तभी शायद जमीन पर बैठते होंगे, वरना घर में तो ऐसी नौबत ही नहीं आती। आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में समय के अभाव के कारण तो हम अपने घर की पूजा भी खड़े-खड़े करके ही चलते बनते है। बच्चों को घर की साफ सुथरी ज़मीन पर गिरा खाना भी खाने से रोक देते है। दिन में पच्चीस बार हाथ धोने की हिदायत देते हैं। अर्थात साफ सफाई के पीछे जान दिये देते हैं। फिर भी आए दिन बड़ी बड़ी बीमारियों का शिकार हम ही लोग ज्यादा होते हैं। क्यूँ? मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि आप यह सब छोड़कर एक मजदूरों वाली जीवन शैली अपना लें और गंदे तरीके से जीना शुरू कर दें। सफाई से रहना तो अच्छी बात है। किन्तु वो कहते है न अति हर चीज़ की बुरी होती है। बस मैं भी वही कहना चाहती हूँ कि जो लोग इस एयर प्यूरीफायर के विज्ञापन को देखकर इसे लेने का विचार कर रहे हों वह कृपया एक बार फिर से अपने विचार पर विचार कर लें। क्यूंकि मेरा ऐसा मानना है कि जितना प्रकृति के निकट रहेंगे उतना स्वस्थ रहेंगे। क्यूंकि “डर के आगे ही जीत है”!!

Saturday, 5 March 2016

'~अंकों में सिमटी ज़िंदगी~'


कभी कभी बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते जब अपना बचपन याद आता है तो तब कैसी अच्छी सुखद अनुभूति का एहसास होता है। जिसके विषय में सोचकर ही चेहरे पर स्वतः एक भीनी सी मुस्कान आ जाती है। वैसे तो इन दिनों परीक्षा का माहौल है। जिसके चलते न सिर्फ बच्चे बल्कि हम बड़े भी परेशान हैं । फिर चाहे अपना समय याद करें या इन बच्चों के समय अनुसार चलने का प्रयास करें, किन्तु परीक्षा हमेशा परीक्षा ही रहती है। यानि कम शब्दों में कह जाये तो "~अंकों में सिमटी ज़िंदगी~"।  विद्यार्थी जीवन जितना सुखद होता है शायद एक विद्यार्थी की दृष्टि से उतना ही दुखद भी होता है। विशेष रूप से लड़कों के लिए क्यूंकि लड़कियां तो स्वाभाविक रूप से पढ़ाई में लड़कों से ज्यादा तेज़ ही होती है। ऐसा सिर्फ मेरा मानना नहीं है बल्कि हर साल 10 वी और 12वी के परिणाम भी यही कहते हैं। लड़के तो जैसे पढ़ना ही नहीं चाहते। या यह कहूँ कि कम उम्र में तो नहीं ही पढ़ते तो यह गलत न होगा और किसी का मैं नहीं कह सकती। किन्तु मेरे अपने बेटे के साथ तो मेरा अनुभव कुछ ऐसा ही है। उसे पढ़ाते वक्त भी रह रहकर मेरे दिमाग में एक ही बात घूमती है। जो अपने समय में भी घूमती थी "अंकों में सिमटी ज़िंदगी"।

न जाने किसने यह परीक्षा की रीति बनाई और क्यूँ बनाई, मेरी समझ में तो आज तक यह बात नहीं आयी। मात्र तीन घंटे के आधार पर किसी के जीवन का इतना बड़ा एवं अहम फैसला लेना कि वह बालक या बालिका इस समाज में आर्थिक रूप से एक अच्छा जीवन यापन करने के लायक हैं भी या नहीं यह तय कर देना कहाँ का इंसाफ है। यहाँ आर्थिक रूप से अच्छे जीवन की बात मैंने इसलिए कही क्यूंकि आज के आधुनिक युग में जहां प्रतियोगिता का बोलबाला है वहाँ चाहे कोई बच्चा एक अच्छा सभ्य या नेक नागरिक बने ना बने, किन्तु धनवान अवश्य बनाना चाहिए। क्यूंकि जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होता वह इस दुनिया के हिसाब से कामयाब भी नहीं माना जाता। आज की तारिख़ में कामयाब वही है जो पैसों का धनी है। जिसके पास पैसा नहीं वह गुणी होते हुए भी कुछ भी नहीं है।

हां आप ऐसा माने या ना माने मगर दुनिया ऐसा ही सोचती है। बहुत कम ऐसे लोग मिलते है जो अपनी मेहनत और किस्मत के दम पर ज़मीन से उठकर शिखर तक पहुँच पाते है। पहले के जमाने में तो परीक्षा का महत्व फिर भी थोड़ा बहुत समझ आता था किन्तु आज जो हालात है उसके अनुसार तो सिर्फ किसी भी तरह पास होना या डिग्री प्राप्त कर लेना ही परीक्षा का अर्थ रह गया है। फिर चाहे उसे प्राप्त करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद जैसी कोई भी नीति क्यूँ न अपनानी पड़े। परीक्षा के नाम पर लोग बेचे और खरीदे जा रहे हैं। देश के भविष्य  की चिंता न माता-पिता को है न समाज को, ना ही शिक्षा प्रशासन को तभी तो रोज़ ही समाचारों में धडल्ले से खुले आम नकल की खबरों को प्रसारित किया जा रहा है। उसके बावजूद भी इसमें कोई कमी नहीं आयी है। ऐसे में योग्य छात्र जो मेहनत करके परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते है या करते हैं उनकी मेहनत का भी कोई मोल नहीं रह जाता। जब पैसा लेकर पास सभी को कर दिया जाता है। तो फिर क्या फर्क पड़ता है प्रतियोगिता में अव्वल आओ या ना आओ।

यह सब जानते है। फिर भी अव्वल आने की होड ऐसी मची है कि विद्यार्थी के बारे में खुद विद्यार्थी ने सोचना ही छोड़ दिया है। नतीजा मानसिक दबाव के चलते परिणाम आने पर छोटे -छोटे बच्चों से लेकर युवा वर्ग तक के लिए एक मात्र रहा आत्महत्या ही बचती है। जीवन इतना जटिल हो जाता है कि मरना, जीने से ज्यादा आसान दिखाई देने लगता है और न जाने कितने परिवार अपने आँखों के तारों को सदा के लिए खो बैठते है। लेकिन जिस सामाजिक दबाव के कारण माता-पिता एवं स्कूल बच्चों पर यह ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त करके अव्वल आने का दबाव डालते है। ताकि समाज में उनका या उनके स्कूल का नाम चमक सकें और वह गर्व से सर उठाकर यह कह सकें की यह मेरा बेटा /बेटी है जिसने अपनी कक्षा, विद्यालय, शहर या जिले में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए है। लेकिन उन सर्वाधिक अंकों को प्राप्त करने वाला किस मानसिक प्रताड़णा से गुज़र रहा है। यह हम सब भूल जाते है। "कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है" यह सत्य है। लेकिन कुछ पाने के लिए उसे प्राप्त करने वाला स्वयं को ही खो दे तो क्या मायने रह जाते है उस चीज़ के जिसे पाने की चाह में उसने खुद को ही खो दिया!

सीधी सी बात है जो हम सभी जानते है। अकेला इंसान दुनिया से आसानी से लड़ सकता है। क्यूंकि उसके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। किसी भी काम के परिणाम का पूर्णतः दारोमदार उस एक अकेले इंसान पर ही होता है। फिर परिणाम चाहे अच्छा हो या बुरा। लेकिन जब आप पर दूसरों की भावनाओं का भावनात्मक बोझ होता है। लोगों की आप से जुड़ी उम्मीदों और आशाओं का भार होता है। तब आप खुद को मजबूत नहीं बल्कि कमजोर महसूस करने लगते हो। आपके मन में उनकी उम्मीदों पर खरा न उतर पाने का डर घर कर लेता है। जिसे आप न दिखा सकते हो न छिपा सकते हो। कोई माने या माने किन्तु सत्य यही है। हर विद्यार्थी की ज़िंदगी ऐसी ही होती है। परिणाम अच्छे आ जाते है तो आगे बढ्ने की प्रेरणा का संचार हो जाता है और जिनके परिणाम किसी भी कारण वश अच्छे नहीं आ पाते वह ज़िंदगी से हार जाते है। 

लेकिन इस डर से दोनों ही प्रकार के विद्यार्थी लगभग रोज़ ही गुजरते है। फिर चाहे वह होशियार विद्यार्थी हो या कमजोर, न जाने कब हम और हमारा समाज इस सब से ऊपर उठकर अपने बच्चों की कमजोरी बनने के बजाए उनकी हिम्मत और होंसला बनना सीखेँगे कब उनकी ज़िंदगी को अंकों में सिमटी ज़िंदगी से मुक्त करके एक चिड़िया की भांति उन्हें खुले आसामान में अपनी जगह स्वयं तलाशने और पाने की आज़ादी दे पाएंगे। ताकि वह अपने हिस्से का आसमान स्वयं अपनी मेहनत, अनुभव और नजरिये के अनुसार पा सके ताकि उन्हें आगे चलकर कभी अपने किए पर यह पछतावा न हो कि यार उस समय यदि अपने मन की सुनी होती तो आज बात ही कुछ और होती। 

यहाँ कोशिश तो हम सभी कर रहे है ऐसा अभिभावक बनने की मगर यह सामाजिक दबाव इतना ज्यादा होता है कि कई बार चाहकर भी हम अपने बच्चों के साथ वैसा व्यवहार नहीं कर पाते जैसा वास्तव में करना चाहते है क्यूंकि ज़ाहिर है हर माता-पिता अपने बच्चे को कामयाब देखना चाहते है जिसके चलते ना चाहते हुये भी वह उस पर वह दबाव बनाने की कोशिश करते है कि वह भी अन्य बच्चों की तरह पढे और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सके। फिर चाहे बच्चा पढ़ना चाहता हो या ना चाहता हो मगर हम हिन्दुस्तानी अभिभावक कभी भी अपने बच्चों को उनकी मर्जी पर नहीं छोड़ पाते और शायद कभी छोड़ भी नहीं पाएंगे। और जब तक ऐसा होता रहेगा तब तक हिंदुस्तान के हर बच्चे की ज़िंदगी अंकों में सिमटी ज़िंदगी थी है और रहेगी। 

Thursday, 28 January 2016

बदलाव (परिवर्तन)


कहते है परिवर्तन ही जीवन का आधार है। जो समय के साथ बदल जाये वही व्यक्ति सफल कहलाता है। लेकिन मेरी सोच और समझ यह कहती है कि “परिस्थिति के आधार पर समग्ररूप से मानवता का जो कल्याण करने में सक्षम हो या फिर जिसमें मानवता के कल्याण की भावना निहित हो, सही मायने में वही सच्चा बदलाव है”।
मेरे विचार से तो बदलाव की यही सही परिभाषा है। लेकिन फिर दूसरी ओर यह विचार भी मन में आता है कि जिस तरह सही और गलत कुछ नहीं होता केवल व्यक्तिगत दृष्टिकोण की बात ही होती है। ठीक उसी तरह `बदलाव` का अर्थ भी विभिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न स्थान रखता है। जैसे किसी को अपने निजी जीवन में बदलाव की आवश्यकता महसूस होती है, तो किसी को सामूहिक तौर पर किसी बड़े बदलाव की आशा होती है। किसी को छोटे-छोटे बदलाव भी बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग अचानक आए बदलावों को संभाल ही नहीं पाते और अपने आप में बड़ा असहज महसूस करने लगते है। इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति के स्तर पर बदलाव की परिभाषा बदलती रहती है। लेकिन उपरोक्त कथन में दी गयी बदलाव की परिभाषा के आधार पर यदि वर्तमान हालातों को मद्देनजर रखते हुए सोचा जाये, तो जनकल्याण और मानवता की बात तो दूर, आजकल तो लोगों ने बदलाव को अधिकारों से जोड़कर देखना परखना प्रारम्भ कर दिया है। जो सही नहीं है।
विषय चाहे कोई भी हो उसे सर्व प्रथम इंसानियत की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। लेकिन उसे स्त्री और पुरुष के दृष्टिकोण से देखना प्रारम्भ कर दिया जाता है। फिर चाहे बात देश, धर्म कानून की ही क्यूँ न हो या फिर अन्य कोई भी मामला हो, बात अधिकारों में आकर उलझ जाती है। मैं मानती हूँ कि पुरुष प्रधान समाज होने के कारण स्त्रियॉं के अधिकारों का हनन होता आया है, इसमें कोई दो राय नहीं है। अपने अधिकारों के लिए लड़ने में भी कोई बुराई नहीं है। इसलिए शायद जब में बदलाव की बात करती हूँ तो मेरे मन में भी सबसे पहले एक स्त्री की छवि ही उबरती है। (स्त्री) जिसको लेकर आए दिन कोई न कोई बवाल मचा रहता है। हर रोज़ कोई नया विवाद जन्म लेता है। लेकिन फिर भी मैं यह कहना चाहती हूँ की ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं आया है। लेकिन फिर भी कुछ लोगों को लगता है कि यह तो केवल शुरुआत है। जो हुआ है, उसे बदलाव इसलिए नहीं कहा जा सकता क्यूंकि अभी उसका स्वरूप बहुत छोटा है या सीमित है। जब तक समग्र रूप से या सार्व्भोमिक रूप से परिवर्तन नहीं आ जाता तब तक वह परिवर्तन नहीं कहलाता। अब भला यह भी कोई बात हुई !
अब और कुछ नहीं तो शिंगनापुर के शनि मंदिर की बात ही ले लो। इस मामले में मैं तो यह मानती हूँ की जहां सम्मान पूर्वक प्रवेश न मिले वहाँ जाना व्यर्थ है फिर चाहे वह ईश्वर का दरबार ही क्यूँ न हो। आज महिलाएं वहाँ प्रवेश को लेकर अपने अधिकारों का प्रदर्शन कर रही है। एक तरह से सही है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है किसी तरह लड़ झगड़कर उनको वहाँ प्रवेश मिल भी जाता है तो क्या ? ऐसा क्या है जो उन्हें हांसिल हो जाएगा। जो उन्हें अब तक हांसिल नहीं हो पाया है। क्या ऐसे प्रवेश पा लेने से भगवान जी उनको औरों से ज्यादा आशीर्वाद दे देंगे। या फिर उनकी उपस्थिती को अलग से किसी पन्ने पर लिख लेंगे। ऐसा तो कुछ होना नहीं है फिर ऐसा अधिकार मिले न मिले क्या फर्क पड़ता है। ऐसी ही विचारधारा रखने वाले चंद मुट्ठी भर लोग नित नए बदलावाओं से महज़ इसलिए परेशान है क्यूंकि उन्हें लगता है कि यह तेज़ी से आ रहे परिवर्तन ही उन्हें पतन की और लेजा रहे है। यह सब देखते हुए लगता है आज हर कोई स्वार्थी है। यहाँ बदलाव की जरूरत है। आज देश जिन हालातों से गुज़र रहा है वहाँ एकल रूप से सोचने के बजाए समग्र रूप से सोचकर साथ चलने की जरूरत है। आतंकवाद बढ़ रहा है, भूख, गरीबी, चिकित्सा का आभाव, बेरोजगारी, नशा, महंगाई, जहां देखो, जो देखो तेज़ी से बढ़ रहा है। शिक्षा का स्तर गिर रहा है, किसान मर रहा है, बच्चे जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हो गए है, व्यक्ति का परस्पर संवाद खत्म हो रहा है। इससे अधिक और क्या गंभीर कारण हो सकते है जो एक देश के नागरिक को उस देश के विषय में सोचने के लिए मजबूर कर सकें।
इसके बावजूद भी इतने स्वार्थी हो गए हैं हम कि हमें अब भी यही लगता है कि विदेशों में जीवन आसान है सुरक्षित है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। जहां एक बच्चे की मात्र स्पेलिंग मिस्टेक से उसके घर पुलिस चली जाये और उसके माता पिता से सौ तरह के सावल किये जाये। इससे ज्यादा असुरक्षित होने का और क्या प्रमाण चाहिए लोगों को, बावजूद इसके लोगों को यही लगता है कि बाहर रहने में ही समझदारी है। तो उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता। हालांकि यह बात अलग है कि विदेशों में आबादी कम होने की वजह से समस्या पर काबू पाना यहाँ भारत की तुलना में थोड़ा आसान होता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वहाँ समस्याएं ही नहीं होती। या उन लोगों को आतंकवाद से डर नहीं लगता। बल्कि उन्हें हमसे ज्यादा डर लगता है। इसलिए आए दिन वीसा के नियम कानून बदलते रहते है।     

खैर वह एक अलग मुद्दा है। लेकिन हमारा क्या हम तो हर बार अपनी गलतियाँ दौहराते है। चंद राजनैतिक दलों के बहकावे में आकर हर बार आपस में ही लड़ भिड़कर अहम मुद्दे से अपनी नज़र हटा लेते हैं। जबकि सच्चाई यही है कि किसी भी गंभीर मुद्दे को लेकर यदि हम लोगों की सोच में परिवर्तन लाना चाहते है या उन में एक क्रान्ति जगाना चाहते है तो सबसे पहले हमें उस मुद्दे को स्त्री और पुरुष के तराजू से बाहर निकालकर एक इंसान के हित के नजरिये से देखना होगा और फिर उस पर काम करना होगा तभी इस देश इस समाज में परिवर्तन संभव है अन्यथा नहीं क्यूंकि न जाने कौन से बदलाव की तलाश है हमें जिसकी तृष्णा में इतने अंधे हो चुके हैं हम कि आज अपनी जड़े ही हमें अपने पैरों की बेड़ियाँ महसूस होने लगी है। अपनी ही परंपरा और संस्कृति को आज हम स्वयं ही रूढ़िवादी सोच करार देते हैं। अपने ही धर्म का हम स्वयं मज़ाक बना देते है और कहते है हिन्दूत्व कोई धर्म नहीं यह तो केवल एक जीवन शैली है जिसमें किसी तरह का कोई निश्चित नियम कानून नहीं है। जैसा की अन्य धर्मों में होता है। बात धर्म की हो तो उससे पहले अधिकार आ जाता है और अधिकारों के हनन पर बहस छिड़ जाती है और धर्म का मुद्दा ही बदल जाता है। धर्म तो कहीं दूर बहुत दूर ही पीछे ही छूट जाता है और सुई घूमकर वापस वहीं आ जाती है कि इस देश में बदलाव की सख्त आवश्यकता है जब तक यहाँ रह रहे लोगों की सोच नहीं बदल जाती तब तक इस देश का कुछ हो ही नहीं सकता है। वाह रे बदलाव