Monday, 22 June 2020

~और वो चला गया ~


फिर खो गया एक सितारा, अभी उम्र ही क्या थी उसकी, अभी तो जीवन चलना शुरू ही हुआ था। अभी इतनी जल्दी कैसे हार मान सकता था वो...? इतना भी आसान नही होता जीवन को छोड़कर मृत्यु का चुनाव करना। नाम, पैसा, दौलत, शोहरत सभी कुछ तो था उसके पास, दिलों पर राज था उसका। फिर ऐसी क्या बात हुई होगी कि उसने यह कदम उठाया। यदि खबरों की माने तो वजह थी अवसाद, अकेलापन और जब कोई व्यक्ति अकेला होता है या खुद को बहुत ही अकेला महसूस करता है। जब उसे अपने आस पास ऐसा कोई नही मिलता जिससे वह अपने मन की बात कह सके, जो उसे सुन सके, चुप चाप, जो उसे समझ सके तब ऐसे हालात में उस अवसाद के शिकार व्यक्ति को सारी झंझटों का हल केवल मृत्यु ही समझ में आती है। यह कोई नयी बात नहीं है। जब भी ऐसा कुछ होता है किसी के साथ तब यह दौलत शोहरत, नाम, कुछ मायने नही रखता। सब कुछ बेमाना सा हो जाता है। उसमें भी जब अपने किसी खास के द्वारा छले जाने का तड़का लग जाए तब तो इंसान अंदर से ही टूट जाता है और तब उससे आवश्यकता होती एक ऐसे कंधे की जो कोई सवाल न पूछे, बस उसके आँसुओं को पीता जाए, चुपचाप.....बस उससे सुनता जाए।

मृत्यु एक शास्वत सत्य है यह हम सभी जानते है। परन्तु जब हमारा कोई अपना इसका शिकार होता है या इसे गले लगता है तो हम यह सारा ज्ञान भूल कर केवल उस व्यक्ति के चले जाने का शोक मनाते है। और यदि किसी दूसरे के घर से कोई चला जाए तो उसे गीता का उपदेश याद दिलाने लगते है। खैर यह पोस्ट मैंने इसलिए लिखी क्योंकि में चंद लोगों से यह जानना चाहती हूँ कि जो आया है वो जाएगा ही रोज़ ही कोई न कोई जाता ही है फिर किसी एक के चले जाने पर इतना हंगामा क्यों है बरपा, ऐसा कोई पहली बार तो नहीं हुआ है मेरे नज़र से देखें तो रोज़ ही ऐसा कुछ होता है। फिर आज यह सन्नाटा यह खामोशी क्यूँ ...? सिर्फ इसलिए कि उस व्यक्ति को हम सिने जगत के जरिये देखते आरहे है बस...? वह व्यक्ति अपनी निजी ज़िन्दगी में कैसा है, किन हालातों और किन परेशानियों से गुज़र रहा है, उसकी आदतें क्या है, उसकी जीवन चर्या कैसी है,हम कुछ भी नहीं जानते। फिर भी आज पूरा देश उस एक व्यक्ति की मृत्यु की वजह से शोक में डूबा हुआ है। और वह व्यक्ति बिना कुछ सोचे समझे सब कुछ छोड़कर चला गया।

तो फिर हम जिन्हें नहीं जानते पर उनके विषय में लगभग रोज़ ही, कहीं न कहीं चाहे समाचार पत्र हो या सोशल मीडिया आत्महत्या की खबर देखते, सुनते, पढ़ते हैं। पर तब तो जैसे किसी को कोई फर्क ही नही पड़ता। किसी का बच्चा चला जाता है, तो कोई अपने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेता है। तब देश में शोक की लहर फैलना तो दूर की बात है, कई बार कोई खबर ही नही बनती और जब बन जाती है, तो भी लोग ऐसे शोक नही मानते जैसे इन दिनों सिने जगत के लोगों के चले जाने के बाद मना रहे हैं। क्यों ...?

हजारों में एक चला गया तो क्या हुआ। रोज़ जो जाते हैं उनकी जान भी तो उतना ही मायने रखती है, जितना इन लीगों की इस करोना काल में सारी दुनिया अवसाद का शिकार हो चली है, पर इसका मतलब यह तो नही की हर कोई हालातों से हार कर मौत को गले लगा ले। दिल्ली के हालात भी इन दिनों किसी से छिपे नही है। जरा उन लोगों के परिजनों के विषय में सोचिये जिन्हें अपने प्रिय जन के शव को देखने तक नही मिला छुना और अंतिम संस्कार तो बहुत दूर की बात है और जो पिछले दिनों शवों का हाल किया गया कभी उस विषय में भी तो सोचिये। वो ज्यादा दिल देहलादेंने वाला था या यह ज्यादा दिल देहलादेंने वाला है।

केवल हम उन लोगों को नही जानते, नही पहचानते इसलिए उनके प्रति संवेदना न व्यक्त करना भी तो एक तरह की अवमानवीय सोच को दर्शता है। हाँ मैं मानती हूँ सिने जगत के लोगों से अक्सर हमें प्यार हो जाता है। सुशांत सिंह राजपूत से भी हो गया था। मुझे तो अब तक सभी जाने वालों से था क्या इफरान खान और क्या ऋषि जी और अब यह सुशांत सिंह राजपूत और उसके यूँ अकस्मात हम सब को छोड़कर चले जाने का ग़म मुझे भी है। लेकिन इसका यह मतलब कतई नही है कि हम बाकी इंसानों के प्रति असंवेदन शील हो जाएं। इस दुनिया में आज शायद हर दूसरा व्यक्ति अवसाद से गुज़र रहा है। फिर क्या बच्चे और क्या बड़े। अभी जिस दौर से गुज़र रहे हैं हम तब सबसे ज्यादा जरूरी और महत्यवपूर्ण है इंसान बनाना, एक दूसरे के प्रति सकारात्मकता बनाये रखना और जैसे ही किसी के अकेलवपन के विषय में पता चले उनके साथ खड़े होना। उसे गले लगाकर यह कहना कि हमें तुम से प्यार है। तुम अकेले नही हो जीवन की इस जगदोजहद में हम सब तुम्हारे साथ है।

अवसाद से गुज़र रहे प्राणी को केवल एक श्रोता की जरूरत होती है। यदि हम किसी एक के लिए भी वो श्रोता बन जाएं तो यकीन माननिये हम ज्यादा नही तो कम से कम एक जीवन तो बचा ही सकते हैं। जाने वाला जा चुका है उसके प्रति हम केवल ॐ शांति ही बोल सकते है और चाह सकते हैं। लेकिन जो अब भी हमारे साथ उन्हें इस से बचाना ही हमारा धर्म है।

Thursday, 11 June 2020

नंजेली और चीरू की कहानी


कल रात एक छोटी फिल्म (शॉर्ट फिल्म) देखी, देखकर मन व्यथित हो गया। न जाने कितने सालों से हम स्त्रियाँ इस दोगले पुरुष प्रधान समाज में सर उठाकर सम्मान से जीने के लिए कितना कुछ करती आ रही है। कितना कुछ सहती आ रही हैं, तब कहीं जाकर आज हम इन पुरुषों के कंधे से कंधा मिलकर चलने के काबिल हुई है। कहा जाता है एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन होती है। अगर यह बात सच है तो फिर यह बात भी उतनी ही सच है की एक स्त्री के हृदय की पीड़ा भी केवल एक स्त्री ही समझ सकती है दूसरा और कोई नहीं, इस कहानी में भी यही दिखाया गया था कि किस तरह एक दलित स्त्री ने अपने वर्ग की अन्य स्त्रियों को न्याय दिलाने और उन्हें भी बाकी स्त्रियों कि तरह सम्मान से जीने का हक दिलाने के लिए एक कितना बड़ा त्याग किया।

मेरी नज़र में यहाँ बात दलित वर्ग या उच्च वर्ग की स्त्री से नहीं है यहाँ बात केवल एक स्त्री की है। एक स्त्री को इस (कर) के चलते जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा, उस अपमान से है। अब तक कि पढ़ी मेरी सभी कहानीयों में यह पहली ऐसी कहानी है जिसमें मैंने पहली बार एक पति को अपनी पत्नी की चिता में सती होते देखा सुना। मेरे विचार से इतिहास में यह पहली और आखिरी घटना रही होगी। यह कहानी केरल की एक दलित महिला की कहानी है जिसके गाँव में स्त्रियों के स्तन के आकार और वजन के हिसाब से उन्हें मूलाकारम नामक (कर) देना होता था। यह प्रथा केवल दलित महिलाओं के लिए थी उच्च वर्ग की अन्य महिलाओं की तरह इन दलित महिलाओं को अपने सीने को कपड़े से ढकने का अधिकार नहीं था। जिसने ऐसा किया उसे उसके स्तन के आकार प्रकार और वजन के हिसाब से दुगना मूलाकारम अर्थात कर (tax) देना पड़ता था।

सुनकर ही कितना अजीब लगता है ना...! किन्तु यह एक कड़वा और निर्वस्त्र सत्य है। सारी कहानी आपको दिये गए लिंक में मिल जाएगी। लेकिन अपनी जाती और समाज की अन्य स्त्रियों को इस घिनोने (कर) से मुक्त करने के लिए नंजेली नमक एक दलित स्त्री ने इस नियम के विरुद्ध जाकर अपने सीने को उच्च वर्ग की महिलाओं के अनुसार कपड़े से ढका जिसकी सजा के तौर पर उससे दुगना मूलाकारम मांगा गया और जब उसने सजा के तौर पर  कर लेने आए लोगों को कर के रूप में अपने स्तन काटकर उन्हें देते हुए कहा सारा रोना इन मांस के टुकड़ों का ही है ना तो ले जाइए इन्हें यही है आपका वास्तविक मूलाकारम कहते हुए उसने अत्यधिक रक्त बहाव के कारण प्राण त्याग दिये।

नंजेली के द्वारा उठाए गए ऐसे भयानक कदम को देखकर कर लेने वाले भाग खड़े हुए जिसके परिणाम अनुसार वहाँ के राजा को दलित स्त्रियों के ऊपर से यह मुलाकरम नामक (कर)हमेशा के लिए समाप्त करना पड़ा। नंजेली के पति ने उसका अंतिम संस्कार किया और अपनी पत्नी से किए गए वादे के अनुसार उसका साथ निभाने के लिए उसकी जलती हुई चिता में खुद जल गया। नंजेली तो मरते मर गयी किन्तु इस दोगले समाज के सीने में एक ऐसा खंजर घोंप गयी जिसकी चुभन सदियों तक चुभती रहेगी।    

Friday, 5 June 2020

~आखिर कब तक ~



साल 2020 अर्थात 21वी सदी का वो भयानक साल जिसमें करोना नामक महामारी के चलते आज सारी दुनिया खत्म होने की कगार पर खड़ी है। तीन पीढ़ियों ने यह महामारी देखी और झेली सभी को याद रहेगा यह साल। इतिहास के पन्नों में फिर एक बार दर्ज होगा, दुख दर्द एक असहनीय पीड़ा एक ऐसा जख्म जिसकी भरपाई शायद कभी न हो पाएगी। क्यूंकि यह सिर्फ अपनों के दूर चले जाने मात्र की बात नहीं है, बल्कि अपनों के अंतिम संस्कार या आखरी बार उन्हें ना देख पानेआखरी बार उन्हें ना छू पानेएक आखरी बार उन्हें अपने गले से लगाकर ना रो पाने का वो दर्द है जो दिल में घुटकर रह गया। इसलिए जब तक यह सांस है इस शरीर में प्राण है तब तक यह साल याद रहेगा।

कहने को तो हम ना जाने कितने वर्षों से बदलाव की बातें करते चले आ रहे हैं, इक्कीसवीं सदी की बातें करते चले आ रहे हैं पर सही मायनों में देखा जाये तो आज भी क्या बदला है ? कुछ भी तो नहीं, दुनिया जहां थी आज भी वही हैं। विदेशों में गोरे काले का भेद नहीं बदला, हमारे यहाँ हिन्दू मुसलमान का भेद नहीं बदला, अपने मनोरंजन के लिए बेज़ुबान जानवरों की बली चढ़ाने या उन्हें प्रताड़ित कर मरने के लिए छोड़ देने का चलन नहीं बदला।

केरल में उस मासूम गर्भवती हथनी को पटाखों भरा अन्नानास खिलाये जाने और फिर मरने के लिए छोड़ देने वाली शर्मनाक घटना के बाद मानव की मानव के प्रति ईर्ष्या नहीं बदली, लोगों के अंदर की दरिन्दगी नहीं बदली, जो पहले ही क्रूर था वह और ज्यादा क्रूर होता चला गया। इंसान रह गया इंसानियत मरती चली गयी। मेनका गांधी के विचार सुनने के बाद तो यही लगता है जिस प्रकार उन्होंने बताया कि केरल के उस इलाके में सरकार की भी नहीं चलती गुंडाराज है वहाँ तो इसका मतलब उन मासूम बेजुबानों की सुनने वाला वहाँ कोई नहीं है। सब कुछ वैसा का वैसा ही तो है, कुछ भी तो नहीं बदला सिवाय सरकार के...!

ऐसे हालातों में जब संवेदनशील होते हुए एक दूसरे के प्रति सद्भावना रखने का समय है तब भी अपराधियों के मन की मनःस्थिति नहीं बदली अपराधों में कोई गिरावट नहीं, यह सब पहले भी होता था, आज भी हो रहा है और यदि यह दुनिया बची तो आगे भी होता रहेगा। सच कहूँ तो अब ऐसी खबरों के बाद मुझे तो यही लगता है कि यह दुनिया अब रहने लायक नहीं बची। कोई खुश नहीं है इस धरा पर न इंसान, न जानवर, न प्रकृति, तो फिर किस के लिए जी रहे है हम...? जी भी रहे हैं या सिर्फ सांस ले रहे हम...? आखिर ऐसा कब तक चलेगा। कब तक ...?











  
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