आज बस मन हुआ कि कुछ लिखा जाये, मगर क्या? तो ऐसे ही मन में कुछ ख़्याल आने लगे, कुछ ऐसे विचार जिनका न कोई सर था न कोई पैर,Jक्या कभी आपने भी ऐसा कुछ सोचा है, कि हम हमारे ही शरीर के अंगों के एहसानों तले दबे हुए हैं। आप भी सोच रहे होंगे कि आज मैं भी क्या बेबकूफी की बातें कर रही हूँ। दरअसल बात यह है कि मैं खुद क्या सोच रही हूँ, क्या लिख रही हूँ, मुझे खुद भी शायद ढंग से पता नहीं है J तभी तो मैंने आज अपनी इस पोस्ट को शीर्षक ही ऐसा दिया है “कुछ उलझे हुए विचार” यूँ तो हम जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए ही करते है और हमारा शरीर हमारा अपना है। किन्तु यदि हम अपने शरीर को खुद से अलग करके देखें तो शायद कितना कुछ ऐसा है, जो हम खुद अपने शरीर से ही स्वयं सीख सकते है उसके लिए न तो हमें किसी और के अनुभवों को जानकर सीखने की जरूरत है और न ही किसी और तरह से, हमारा अपना शरीर ही हम को वो सब कुछ सीखा सकता है। जिसकी जरूरत हमको एक नेक इंसान बनने के लिए होती है।
यूँ तो शरीर का हर अंग महत्वपूर्ण होता है। हमारे शरीर में ऐसा कोई अंग नहीं है, जिसके न होने से हमको कोई फर्क न पड़ता हो। जैसे हमारी आँखें जो हमारी जरूरत का एक अहम हिस्सा हैं। कितना कुछ करती हैं हमारी यह आँखें हमारे लिए, हम को तकलीफ न हो, इसलिए अँधेरे में अपने आप को बड़ा कर के हमको देखने में सक्षम बनाती हैं और यदि रोशनी जरूरत से ज्यादा हो, तो खुद को सिकुड़ कर तेज़ रोशनी से हमको होने वाली तकलीफ से हमें बचाती हैं, हमारी यह आँखें। ऐसे ही हमारे हाथ ,वैसे तो हाथों की महिमा पर मैं पहले भी एक पोस्ट लिख चुकी हूँ। लेकिन फिर भी देखिये न, हमारे लिए, हमारे हाथ भी कितना कुछ करते हैं। यदि देखा जाये तो शायद ही कोई ऐसा कम हो जिसकी कल्पना बिना हाथों के की जा सकती है। अगर हाथ न हो तो हम किसी और व्यक्ति पर कितने आश्रित हो जाते है। कभी गौर से देखिये अपने ही हाथों को तो बहुत प्यार आता है उन पर और मन अंदर से जैसे धन्यवाद देता है, अपने ही हाथों को,J
ठीक इसी तरह हमारे पैर जो दिन रात हमारा वज़न उठाया करते हैं। मगर कभी उफ़्फ़ तक नहीं करते, कभी बहुत ज्यादा थकान होने पर भी, यदि मंजिल थोड़ी ही क़रीब हो तब भी हमारी ही ज़बरदस्ती को यह सुनते हुए कि बस थोड़ी दूर और है, थक कर चूर हो जाने के बाद भी हमारे लिए चला करते हैं हमारे पैर,J बदले में कभी नहीं कहते कि अब हम तुम को यहाँ तक लाये हैं, तो अब तुम हमारी खुशामत करो अगर आपने स्वयं उनकी परवाह करते हुए उनको आराम दिया, तो ठीक। नहीं भी दिया तो वो खुद कभी कुछ नहीं कहते। वो क्या हमारे शरीर का कोई भी अंग चाहे जितनी तकलीफ में हो खुद कभी कुछ नहीं कहता। सिवाय एक दो हिस्सों के Jजैसे दाँत या कान का दर्द यदि हो, तो वो चुप नहीं बैठता चाहे जो कर लो। इतना बुरा होता है कि आप दर्द से कराहते ही रहते हो, लेकिन जब इतना कुछ हमारे पास है, तब भी हम खुद से कुछ क्यूँ नहीं सीखते। क्यूँ हमको हमेशा हमारे द्वारा किए हुए किसी भी कार्य के बदले, ना चाहते हुए भी हमारे मन में बदले में कुछ पाने कि उम्मीद आ ही जाती है। अब दूर क्यूँ जायें यही देख लीजिये। अपने ब्लॉग जगत में जब आप किसी के ब्लॉग पर जाकर स्वयं कोई टिप्पणी करते हैं, तभी बदले में आपको कोई टिप्पणी देता है, मतलब दोनों तरफ बराबर की उम्मीदें हैं क्यूँ ?
अब आप लोग कहेंगे नहीं ऐसा नहीं है। बहुत से ऐसे ब्लॉग भी हैं, जिन पर आप बिना कोई बदले की उम्मीद किए हुए भी सिर्फ उस ब्लॉग को पसंद करते हैं, इसलिए उस पर टिप्पणी देते हैं। तो हाँ मैं भी मानती हूँ, कि यह बात भी सच है। कुछ हैं, ऐसे ब्लॉग जिन पर हम सिर्फ इसलिए टिप्पणी देते हैं, क्यूँकि वो ब्लॉग हमको अच्छे लगते हैं। फिर भले ही हमको उसके बदले मे कोई टिप्पणी मिले या ना मिले, मगर बहुत कम और गिने चुने ब्लॉग ही ऐसे होते है। ज्यादातर टिप्पणी वापस पाने की चाह तो सभी में होती है।J भले ही कोई व्यक्ति इस बात को स्वीकारे या न स्वीकारेJ हाँ यह ज़रूर है कि नये-नये लेखकों के साथ ऐसा ज्यादा होता है और जो काफी समय से लिख रहे हैं, अब उनकी ऐसी कोई चाह न हो, या कम हो गई हो, लेकिन यह एक नियम कह लीजिये या इंसानी प्रवत्ति, कि जो जितनी ज्यादा टिप्पणीयाँ देता है, उसके ब्लॉग पर उतनी ही ज्यादा टिप्पणीयाँ आती हैं।J और क्यूँ न हो दुनिया का उसूल है "एक हाथ दे एक हाथ ले"। अगर यह वाकई झूठ है, तो अपने दिल पर हाथ रखकर कहिए कि यह झूठ है।JJJ
जबकि होना तो यह चाहिए कि हमारे द्वारा किए गए किसी भी कार्य के बदले हमको कुछ भी पाने की चाह होनी ही नहीं चाहिए, मगर ऐसा होता नहीं है। जबकि यही बात हमको खुद अपने शरीर से सीखना चाहिए कि दूसरों के लिए समर्पण की भावना क्या होती है। जैसे वो गीता में लिखा है, न कि"कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर" शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे शरीर का निर्माण किया गया हो, नहीं J क्यूँकि यह बात तो हमारे शरीर में कूट-कूट कर भरी है। लेकिन फिर भी हमको इस बात को समझने के लिए गीता और रामायण जैसे पवित्र एवं महान धर्म ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है।J यह थे मेरे कुछ उलझे हुए विचार जो पता नहीं कहाँ से शुरू हुए और कहाँ आ गये, कुछ पता नहीं, इसलिए इन पंक्तियों के साथ अपने इन विचारों को यहीं विराम देती हूँ। यदि मेरी किसी बात से किसी को कोई ठेस पहुँची हो तो मैं उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
"कितने ही वजूद हैं ऐसे दुनिया में ,
कुछ अनदेखे – अनजाने, फिर भी पहचाने से -
शायद हर जिंदगी का अपना दस्तूर है ,
कोई कम तो कोई ज्यादा मजबूर है ....... “
priyanka rathore ....