Tuesday, 29 November 2011

कुछ उलझे हुए विचार



आज बस मन हुआ कि कुछ लिखा जाये, मगर क्या? तो ऐसे ही मन में कुछ ख़्याल आने लगे, कुछ ऐसे विचार जिनका न कोई सर था न कोई पैर,Jक्या कभी आपने भी ऐसा कुछ सोचा है, कि हम हमारे ही शरीर के अंगों के एहसानों तले दबे हुए हैं। आप भी सोच रहे होंगे कि आज मैं भी क्या बेबकूफी की बातें कर रही हूँ। दरअसल बात यह है कि मैं खुद क्या सोच रही हूँ, क्या लिख रही हूँ, मुझे खुद भी शायद ढंग से पता नहीं है J तभी तो मैंने आज अपनी इस पोस्ट को शीर्षक ही ऐसा दिया है “कुछ उलझे हुए विचार” यूँ तो हम जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए ही करते है और हमारा शरीर हमारा अपना है। किन्तु यदि हम अपने शरीर को खुद से अलग करके देखें तो शायद कितना कुछ ऐसा है, जो हम खुद अपने शरीर से ही स्वयं सीख सकते है उसके लिए न तो हमें किसी और के अनुभवों को जानकर सीखने की जरूरत है और न ही किसी और तरह से, हमारा अपना शरीर ही हम को वो सब कुछ सीखा सकता है। जिसकी जरूरत हमको एक नेक इंसान बनने के लिए होती है।

यूँ तो शरीर का हर अंग महत्वपूर्ण होता है। हमारे शरीर में ऐसा कोई अंग नहीं है, जिसके न होने से हमको कोई फर्क न पड़ता हो। जैसे हमारी आँखें जो हमारी जरूरत का एक अहम हिस्सा हैं। कितना कुछ करती हैं हमारी यह आँखें हमारे लिए, हम को तकलीफ न हो, इसलिए अँधेरे में अपने आप को बड़ा कर के हमको देखने में सक्षम बनाती हैं और यदि रोशनी जरूरत से ज्यादा हो, तो खुद को सिकुड़ कर तेज़ रोशनी से हमको होने वाली तकलीफ से हमें बचाती हैं, हमारी यह आँखें। ऐसे ही हमारे हाथ ,वैसे तो हाथों की महिमा पर मैं पहले भी एक पोस्ट लिख चुकी हूँ। लेकिन फिर भी देखिये न, हमारे लिए, हमारे हाथ भी कितना कुछ करते हैं। यदि देखा जाये तो शायद ही कोई ऐसा कम हो जिसकी कल्पना बिना हाथों के की जा सकती है। अगर हाथ न हो तो हम किसी और व्यक्ति पर कितने आश्रित हो जाते है। कभी गौर से देखिये अपने ही हाथों को तो बहुत प्यार आता है उन पर और मन अंदर से जैसे धन्यवाद देता है, अपने ही हाथों को,J

ठीक इसी तरह हमारे पैर जो दिन रात हमारा वज़न उठाया करते हैं। मगर कभी उफ़्फ़ तक नहीं करते, कभी बहुत ज्यादा थकान होने पर भी, यदि मंजिल थोड़ी ही क़रीब हो तब भी हमारी ही ज़बरदस्ती को यह सुनते हुए कि बस थोड़ी दूर और है, थक कर चूर हो जाने के बाद भी हमारे लिए चला करते हैं हमारे पैर,J बदले में कभी नहीं कहते कि अब हम तुम को यहाँ तक लाये हैं, तो अब तुम हमारी खुशामत करो अगर आपने स्वयं उनकी परवाह करते हुए उनको आराम दिया, तो ठीक। नहीं भी दिया तो वो खुद कभी कुछ नहीं कहते। वो क्या हमारे शरीर का कोई भी अंग चाहे जितनी तकलीफ में हो खुद कभी कुछ नहीं कहता। सिवाय एक दो हिस्सों के Jजैसे दाँत या कान का दर्द यदि हो, तो वो चुप नहीं बैठता चाहे जो कर लो। इतना बुरा होता है कि आप दर्द से कराहते ही रहते हो, लेकिन जब इतना कुछ हमारे पास है, तब भी हम खुद से कुछ क्यूँ नहीं सीखते। क्यूँ हमको हमेशा हमारे द्वारा किए हुए किसी भी कार्य के बदले, ना चाहते हुए भी हमारे मन में बदले में कुछ पाने कि उम्मीद आ ही जाती है। अब दूर क्यूँ जायें यही देख लीजिये। अपने ब्लॉग जगत में जब आप किसी के ब्लॉग पर जाकर स्वयं कोई टिप्पणी करते हैं, तभी बदले में आपको कोई टिप्पणी देता है, मतलब दोनों तरफ बराबर की उम्मीदें हैं क्यूँ ?

अब आप लोग कहेंगे नहीं ऐसा नहीं है। बहुत से ऐसे ब्लॉग भी हैं, जिन पर आप बिना कोई बदले की उम्मीद  किए हुए भी सिर्फ उस ब्लॉग को पसंद करते हैं, इसलिए उस पर टिप्पणी देते हैं। तो हाँ मैं भी मानती हूँ, कि यह बात भी सच है। कुछ हैं, ऐसे ब्लॉग जिन पर हम सिर्फ इसलिए टिप्पणी देते हैं, क्यूँकि वो ब्लॉग हमको अच्छे लगते हैं। फिर भले ही हमको उसके बदले मे कोई टिप्पणी मिले या ना मिले, मगर बहुत कम और गिने चुने ब्लॉग ही ऐसे होते है। ज्यादातर टिप्पणी वापस पाने की चाह तो सभी में होती है।J भले ही कोई व्यक्ति इस बात को स्वीकारे या न स्वीकारेJ हाँ यह ज़रूर है कि नये-नये लेखकों के साथ ऐसा ज्यादा होता है और जो काफी समय से लिख रहे हैं, अब उनकी ऐसी कोई चाह न हो, या कम हो गई हो, लेकिन यह एक नियम कह लीजिये या इंसानी प्रवत्ति, कि जो जितनी ज्यादा टिप्पणीयाँ देता है, उसके ब्लॉग पर उतनी ही ज्यादा टिप्पणीयाँ आती हैं।J और क्यूँ न हो दुनिया का उसूल है "एक हाथ दे एक हाथ ले"। अगर यह वाकई झूठ है, तो अपने दिल पर हाथ रखकर कहिए कि यह झूठ है।JJJ

जबकि होना तो यह चाहिए कि हमारे द्वारा किए गए किसी भी कार्य के बदले हमको कुछ भी पाने की चाह होनी ही नहीं चाहिए, मगर ऐसा होता नहीं है। जबकि यही बात हमको खुद अपने शरीर से सीखना चाहिए कि दूसरों के लिए समर्पण की भावना क्या होती है। जैसे वो गीता में लिखा है, न कि"कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर" शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे शरीर का निर्माण किया गया हो, नहीं J क्यूँकि यह बात तो हमारे शरीर में कूट-कूट कर भरी है। लेकिन फिर भी हमको इस बात को समझने के लिए गीता और रामायण जैसे पवित्र एवं महान धर्म ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है।J यह थे मेरे कुछ उलझे हुए विचार जो पता नहीं कहाँ से शुरू हुए और कहाँ आ गये, कुछ पता नहीं,  इसलिए इन पंक्तियों के साथ अपने इन विचारों को यहीं विराम देती हूँ। यदि मेरी किसी बात से किसी को कोई ठेस पहुँची हो तो मैं उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
  
"कितने ही वजूद हैं ऐसे दुनिया में ,
कुछ अनदेखे – अनजाने, फिर भी पहचाने से -
शायद हर जिंदगी का अपना दस्तूर है ,
कोई कम तो कोई ज्यादा मजबूर है ....... “

priyanka rathore ....                               

Thursday, 24 November 2011

परवरिश ....


आप सभी पाठकों से मेरा अनुरोध है कि कृपया, आप अपनी टिप्पणी देने के बाद, थोड़ी देर ठहर कर  देखलें कि आपकी टिप्पणी वहाँ दिख रही है, या नहीं, और यदि संभव हो तो कृपया मुझे अपनी  टिप्पणी मेल भी कर दें, क्यूंकि यहाँ ब्लॉग साइट पर कुछ गड़बड़ी चल रही है। जिसके चलते बहुत लोगों की टिप्पणियाँ आकर गायब हो रही है, अर्थात नज़र नहीं आरही है। आप सभी लोगों की टिप्पणियाँ मेरे लिए बहुत मत्वपूर्ण है  
ध्न्यवायद  


मैंने यह कार्यक्रम कल पहली बार देखा। देखकर अच्छा भी लगा और कई सारे सवाल भी मन में उठे इसलिए सोचा क्यूँ न इस पर भी कुछ लिखा जाय यह एक प्रोग्राम का नाम है, जो अभी-अभी सोनी चैनल पर आना शुरू हुआ है। मुझे यहाँ आने वाले सभी चैनलों में सबसे ज्यादा सोनी ही पसंद है। मैं उस पर आने वाले लगभग सभी कार्यक्रम देखना पसंद करती हूँ।
 
कल जब यह प्रोग्राम मैंने देखा तो मुझे काफी अच्छा लगा। इस प्रोग्राम के ज़रिये ही सही मगर बहुत अहम मुद्दा उठाया गया है। यूँ तो हर माँ-बाप चाहते हैं, कि उनका बच्चा दुनिया का सबसे आदर्शवादी बच्चा बने और इसके लिए माता-पिता अपने बच्चे को जितनी हो सके, उतनी अच्छी से अच्छी परवरिश देने की कोशिश भी किया करते हैं। आज कल के हालात को देखते हुए कई बार "परवरिश" को लेकर मन में सवाल उठता है, कि हम जो परवरिश अपने बच्चों की कर रहे हैं, क्या वो सही है ? क्यूंकि हमारा यह समाज उसी मापदंड पर परवरिश को निरधारित करके देखा करता है।

यदि बच्चा अपने जीवन में कामयाब है, आदर्शवादी है, तो आपकी परवरिश सबसे बेहतर है और यदि किसी भी कारण से जाने-अंजाने आपके बच्चे से कोई ऐसी भूल हो जाय जो, कि नहीं होनी चाहिए थी। तब भी आप ही की परवरिश में दोष रहा होगा, ऐसा माना जाता है। यहाँ तक कि माँ-बाप खुद भी, अपने आप को दोषी मानने लगते है। इसलिए यह सब सोच कर कभी-कभी लगता है कि हम अपने बच्चों को जो परवरिश दे रहे हैं, कहीं उसमें कोई कमी तो नहीं ? क्या हम भी कहीं कोई ऐसी बात तो अपने बच्चों के साथ नहीं दोहरा रहे, जो कभी हमको भी अपने समय में नागवार थी, जब हम बच्चे हुआ करते थे।

इस आधार पर बहुत सी ऐसी बातें हैं, जिन्हें करने की छूट हम अपने बच्चों को अकसर दे दिया करते है। वैसे भी देखा जाये तो आज कल के बच्चों को देखकर, उनकी बातों को सुनकर ही ऐसा लगता है, कि शायद हम तो अपने बचपन में गधे थे। J हमको अक्ल ही नहीं थी, जितनी आज के बच्चों में होती है या शायद जागरूकता की  कमी थी, या पता नहीं क्या था। जो भी था, मगर यह बात तो तय है, कि कहीं न कहीं हमें अपने आप पर उतना भरोसा नहीं था। जितना आज कल के बच्चों को खुद पर होता है। शायद इसका एक बड़ा कारण यह रहा हो, कि हमको कभी अपने फैसले खुद करने की आज़ादी उस समय दी ही नहीं जाती थी, जितनी जल्दी आज कल के बच्चों को मिल जाती है। क्यूंकि आज कल फैसले लेने से पहले पूछा नहीं जाता। बल्कि  फैसले ले लेने के बाद केवल बताया जाता है और इन्हीं सब बात को, भावनाओं को, इस कार्यक्रम के माध्यम से, बहुत ही खूबसूरती के साथ दिखाया गया है।     

मुझे याद है उस वक्त हम जो भी काम करते थे, हमारे मन में एक बात, एक बार तो ज़रूर आती थी, कि यदि किसी भी बात में हमारे द्वारा लिया गया कोई निर्णय है, तो उस पर एक बार हमारे माता-पिता की रज़ामंदी की भी मुहर लग जाये तो अच्छा है।J शायद बहुत कम ही ऐसी बातें रही होंगी, जिस पर हम ने अपना फ़ैसला सुनाया हो। ज्यादातर हम लोग फ़ैसले मानने के आदि हुआ करते थे। सुनाने के नहीं,J मगर हाँ इतना ज़रूर होता था कि कभी-कभी मम्मी-पापा यूँ ही, हम से हमारी राय भी पूछ लिया करते थे। वो भी तब, जब बात हमसे जुड़ी हो, लेकिन तब भी केवल सुझाव देने तक ही अधिकार सीमित था, हमारे लिए फैसला लेने का नहीं,J मगर आज कि पीढ़ी ऐसी नहीं है। आज की पीढ़ी शुरू से ही खुद को आत्मानिर्भर समझती है और उसी में विश्वास रखती है। एक समयसीमा की उम्र गुज़र जाने के बाद, तो उनकी ज़िंदगी उनकी अपनी हो जाती है और उनकी ज़िंदगी में फिर उनके माता–पिता की दखलअंदाज़ी भी उन्हें गवारा नहीं होती। उनके फ़ैसले उनके अपने होते हैं। 

फिर चाहे वो पढ़ाई लिखाई से संबन्धित कोई फ़ैसला हो, या और कोई मसला। वो केवल अपनी मर्ज़ी से अपने आप लिए गए फ़ैसलों पर जीना चाहते हैं। एक यह वक्त है और एक वो वक्त था, कि हम कपड़े भी अपनी मम्मी कि पसंद के अनुसार सिलवाया करते थे। आज सोचो तो हँसी आती है, खुद पर कभी-कभीJJ बड़ों के लिहाज़ के चक्कर मे हमने खुद की पसंद को ना जाने कितनी बार मारा है और जब दूसरों को वही सब करते देखते थे। तो मन में कितनी बार आता था, कि जब इन लोगों के माता-पिता इनको यह सब करने की छूट दे सकते हैं। तो हमारे माता पिता ने हमको ऐसा क्यूँ नहीं करने दिया। वगैरा-वगैरा... और एक आज का वक्त है आप लाख माना कर लो मगर होगा वही जो उनका दिल करेगा। यदि सामने न हुआ तो पीठ पीछे होगा, मगर होगा ज़रूर। हांलांकी, मैं यह नहीं कहती कि हमने कभी अपने माता-पिता से छुप-छुप कर कोई काम नहीं किया। हमने भी किया है, मगर वो कोई ऐसा काम नहीं था कि जिसके वजह से कोई भारी खामियाज़ा उठाना पड़े। यह सब सोचते हुए आज कल माता-पिता वैसे ही अपने बच्चों को छूट दे देते हैं, कि पीठ पीछे होने से तो अच्छा है, जो कुछ हो सामने हो। 

बात सही है, मगर हर बात के लिए यह रवैया अपनाया जाना क्या ठीक है ? कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं जो वक्त की  मांग होने के साथ जरूरत भी है। जिसे ठुकराया नहीं जा सकता। जैसे मोबाइल फोन, जो लगभग आपको आज के दौर मे हर बच्चे के पास मिलेगा, माना कि यह आज कल के दौर की सबसे अहम जरूरत बन गया है और कुछ हद तक आपकी चिंता का समाधान भी, मगर जिस तरह हर चीज़ के नफे और नुक़सान दोनों होते है, इसके भी हैं। क्या गारंटी है कि आपके बच्चे इसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। वैसे गारंटी तो, जीवन में किसी भी चीज़ की नहीं होती। माना कि बच्चों पर विश्वास करना चाहिए, जितना जल्दी आप आपने बच्चों पर विश्वास करना सीख जाए उतना अच्छा, मगर फिर भी आप अपने बच्चों पर हर वक्त नज़र नहीं रख सकते। क्योंकि अब पहले का ज़माना तो है नहीं, कि बच्चे घर से सीधे स्कूल और स्कूल से सीधे घर आयें। अब तो बच्चों को पढ़ने के लिए न जाने कहाँ-कहाँ जाना पड़ता है। कभी इस कोचिंग तो कभी उस कोचिंग, कहाँ–कहाँ और किन-किन दोस्तों पर नज़र रख पाएंगे आप, कि आपका बच्चा कहाँ जा रहा। किन लोग से मिलता है। किस संगति में रहता है। केवल एक मोबाइल दे देने भर से आप चिंता मुक्त नहीं हो सकते।
 
जरूरत है आपसी ताल मेल की, कि आपका बच्चा आप से दोस्त की तरह व्यवहार तो करे, मगर उसमें भी कुछ मर्यादा हो, यह नहीं कि उसकी बात यदि आपने न मानी, तो वो आपसे यह कहने लगे कि मुझे आप से नफ़रत है। जैसा आजकल आमतौर पर बच्चे पल-पल में कहा करते है, यदि उनकी मांग पूरी हो गई बिना किसी सवाल जवाब के तो कहेंगे I love you papa you are the best papa in this world और यदि आपने उनकी मांग पूरी करने से पहले उस मांग से संबन्धित कुछ सवाल पूछ लिए और बाद में किसी कारणवश मना कर दिया तो तुरंत गुस्सा आ जाएगा और कहेंगे I just hate you.... हांलंकी यह सब महज़ गुस्से में कहा जाता है। जिसका आत्मिक तौर पर कोई मतलब नहीं होता।

मगर फिर भी मेरी समझ से यह आपसी रिश्ता तो ऐसा होना चाहिए, कि न तो उसको ऐसा महसूस हो कि आप उसकी ज़िंदगी में अपने फ़ैसले उस पर थोप रहे हैं और न ही ऐसा हो कि वो आपके द्वारा कही हुई कोई बात को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दे। बल्कि यह आपसी रिश्ता ऐसा हो जिसमें अपनेपन की भावना के साथ बड़ों का लिहाज़ भी सम्मिलित हो। बच्चा आपसे खुला हुआ तो हो, मगर साथ ही उसके मन में आपके लिए प्यार और विश्वास के साथ आँखों की शर्म भी हो, इसलिए शायद इस प्रोग्राम की झलक में जो बात कही गई है, वो सोलह आने सही है। कि बच्चों के लिए क्या कुछ नहीं करते माँ–बाप वक्त आने पर, विश्वसनीय दोस्त से लेकर जासूस और जासूस से लेकर ATM और ATM से लेकर चौकीदार तक बना करते है, माँ-बापJ शायद सही मायने में यही होती है, असली और सही परवरिश....आपको क्या लगता है।J

Sunday, 20 November 2011

अपना या पराया


अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है, हम लोग मेरे श्रीमान जी के कुछ खास दोस्तों से मिलने "रीडिंग"गए थे। खास मतलब उनके जो दोस्त यहाँ UK में रह रहे हैं, उन दोस्तों से मिलने गए थे। जाने के पहले मन में बहुत उत्साह था। इतने सालों बाद अपने कॉलेज के दोस्तों से मिलना जो होने वाला था। मुझे भी नए लोगों से मिलने की उत्सुकता हो रही थी। क्योंकि मैं भी उनके उन सभी दोस्तों में से केवल एक को ही अच्छे से जानती थी। बाकी के दो अन्य दोस्तों को मैंने न तो कभी देखा था, न ही उनके बारे में ज्यादा कुछ सुना था। मगर ख़ुशी इस बात की ज्यादा थी कि सभी अपने परिवारों के साथ मिलने वाले थे। खैर हम वहाँ सबसे पहले पहुँचे जिनके घर पहुँचना था या यूँ कहिए कि जिनके घर सभी को इकट्ठा होना था, बस उस ही परिवार को मैं अच्छे से जानती थी। हम लोगों ने उस दिन देर रात तक जागकर बातें की, पुरानी यादें ताज़ा हुई। इनके चेहरे पर एक अलग ही चमक देखने को मिल रही थी और होती भी क्यूँ नहीं, रोज़-रोज़ कहाँ मिल पाते है, ज़िंदगी में पुराने दोस्त, खास कर शादी के बाद तो दोनों ही पक्षों के लिए थोड़ा मुश्किल हो ही जाता है, न लड़कियाँ मिल पाती हैं अपनी सहेलियों से और न लड़के अपने दोस्तों से। सब अपनी-अपनी ज़िंदगी की भाग-दौड़ में ऐसे व्यस्त हो जाते हैं कि इन छोटे-छोटे ख़ुशनुमा पलों के लिए चाह कर भी समय ही नहीं मिल पाता।

खैर अगले दिन बाकी लोग भी आये सब से मुलाक़ात हुई, बात हुई सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। सभी दोस्त तो शामिल हो गए अपने पुराने दिनों की यादें ताज़ा करने में, अब बची सबकी बीवियाँ, पहली बार मिलने के हिसाब से हम लोगों में भी अच्छी दोस्ती हो ही गई थी। तभी चाय पीते-पीते यूँ हीं बातों ही बातों मे बात निकली, बच्चा गोद लेना उचित है या नहीं। इस बात पर सभी ने सबसे पहले यही कहा कि यदि भविष्य हमको ऐसा कोई मौक़ा मिलता है, तो हम ज़रूर एक बच्चा गोद लेना चाहेंगे। कुछ लोगों ने कहा कि जब अपना हो सकता है, तो गोद लेने की क्या जरूरत है। ऐसा कहने वाले वो लोग थे, जिनकी अभी नई शादी हुई थी, या फिर जिनके अभी एक ही बेटा-या बेटी थी। तो एक ने यह भी कहा की बच्चा गोद लेना इतना भी आसान काम नहीं जितना कि दिखता है। मैंने कहा क्यूँ यदि एक बच्चा गोद लेने से किसी एक मासूम की ज़िंदगी को सँवारा जा सकता है, तो उससे अच्छी और क्या बात हो सकती है।


अब यह विषय एक डिबेट में बदलने लगा था। कुछ लोग हाँ, तो कुछ लोग ना के पक्ष में बोलने लगे थे। मेरी इस बात के जवाब में मुझे उत्तर मिला कि आप बच्चा गोद ले, तो लो, मगर क्या आपके परिवार वाले उसे अपना पायेंगे? दूसरा सवाल था यदि मान लीजिये उन्होने अपना भी लिया, तो क्या जब एक समय ऐसा आयेगा जब आपको अपनी जमापूंजी या जायदाद जो कुछ भी है। आपने बच्चों में बाँटना होगी तो क्या तब आप उस गोद लिए हुए बच्चे को भी उसका हिस्सा दे पाओगे? तब मेरे अंदर से आवाज आई हाँ क्यूँ नहीं... बहुत सोचने पर लगा कि यदि इस बात पर समग्रता से गौर किया जाये तो शायद हम बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या और भूर्ण हत्या जैसे मसलों को कुछ हद तक कम कर सकते है। मगर सवाल यह उठता है कि ऐसी सोच रखने वाले कितने लोग होंगे समाज में मेरे एक ऐसे ही आलेख पर "वंदना गुप्ता" जी ने सुझाव दिया था कि भूर्ण हत्या से अच्छा है, किसी ऐसे दंपत्ति को अपनी संतान दे दो जिनके घर में कोई संतान नहीं हो सकती। वाकई सराहनीय सुझाव है। मगर सवाल यह कि इस समाज में कितने ऐसे लोग है,जो बच्चा गोद लेने के बारे में सोचते हैं या फिर कितने ऐसे लोग होंगे जो भूर्ण हत्या के बदले अपनी संतान दूसरे जरूरत मंद लोगों को दे सकें। जहां तक मेरी समझ कहती है बहुत कम ही लोग होंगे उँगलियों पर गिनने लायक जो इतना बड़ा दिल रखते होंगे।    

इन सब विचारों ने जैसे मेरे अंदर भी प्रश्नों का एक मकड़ जाल सा फैला दिया कि लोगों की ऐसी सोच क्यूँ है। यह मैं भी मानती हूँ, कि यह कोई आसान काम नहीं है। किसी की पूरी ज़िंदगी का सवाल है। कोई मज़ाक नहीं कि गए और बाज़ार से दाम देकर कुछ भी ख़रीद लाये और पसंद नहीं आया तो फेंक दिया। यह बहुत ही जिम्मेदारी का काम है।  जिसमें हर कदम शायद आपको फूँक-फूँक कर भी रखना पड़ सकता है। मगर जब आप किसी भी कार्य को करने का एक बार मन बना लो, तो फिर वो कार्य कैसे न कैसे हो ही जाता है। इसी तरह जब आप इस विषय पर गंभीरता से सोचते हुए कोई कदम उठाते हो, तो आगे भी सब ठीक हो ही जाएगा। ऐसा मेरा मानना है।  क्योंकि जब आप किसी बच्चे को गोद लोगे, तो यह सोच कर ही लोगे ना, कि अब से यह भी आपके परिवार का ही एक हिस्सा है। उसके प्रति भी आपकी वही ज़िम्मेदारियाँ हैं, जो घर के बाकी बच्चों के प्रति है। तभी आप उसके साथ, उसकी ज़िंदगी के साथ इंसाफ़ कर पाओगे वरना नहीं, और यदि आप ऐसा नहीं कर सकते तो फिर आपको इस विषय में सोचना भी नहीं चाहिए। 

क्योंकि आपको कोई अधिकार नहीं कि आप किसी की ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ करो, मगर यदि आपने या किसी भी दंपति ने यह कदम उठाया है, तो मुझे नहीं लगता कि आगे जाकर जब संपत्ति वितरण का समय आयेगा, तब आपको किसी तरह की कोई धर्मसंकट जैसी किसी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। हाँ अकसर फिल्मों में यही दिखाया जाता है, कि बच्चा गोद लेने के बाद यदि उस दंपत्ति का अपना कोई बच्चा हो जाता है तो वो उस गोद ली हुई संतान को अनदेखा कर देते हैं। मगर असल ज़िंदगी में भी ऐसा होता है या नहीं, मेरे लिए कह पाना मुश्किल है। क्यूंकि मैं आज तक ऐसे किसी परिवार से मिली नहीं हूँ। शायद होता भी हो क्योंकि सोच तो वही है कि अपना-अपना ही होता है। जबकि यह सोच गलत है,फिर भी मैं यह कहना चाहूँगी जब हम किसी जानवर को भी अपने घर में रख कर पालते हैं। तो हमको भी उस जानवर से इतना प्यार, इतना लगाव हो जाता है, कि वो जानवर हमारे लिए हमारे परिवार के एक सदस्य की जगह ले सकता है। तो फिर क्या एक गोद लिए हुए बच्चे से हमें वो लगाव, वो प्यार नहीं होगा या नहीं हो सकता कि वो हमारे परिवार का एक अहम हिस्सा बन सके ? 

मेरे इन सवालों के जवाब में केवल बहस होती रही कटाक्ष होते रहे, मगर कोई नतीजा न निकल सका। लोगों का कहना था कि यदि आपको किसी बच्चे की ज़िंदगी इस तरह सँवारना ही है, तो आप वैसी ही उसका खर्च उठाओ मगर उसे अपने घर में लाकर आपने साथ रखने की जिम्मेदारी न लो, तो ही अच्छा है। अतः अब आप लोग ही बतायें कि इस विषय में क्या सही है और क्या गलत.... क्या किसी मासूम बच्चे कि ज़िंदगी सँवारने के लिए केवल रुपया ही काफी हैं ? क्या उसे केवल रुपयों कि ही जरूरत है ? क्या आपके मन को शांति मिल सकती है रूपये के माध्यम से कि आपने किसी की ज़िंदगी में कोई सुधार किया ? माना कि पैसा एक बहुत बड़ी चीज़ है, उसके बिना इस दुनिया में कुछ भी संभव नहीं। पैसा सब कुछ नहीं मगर बहुत कुछ है। लेकिन इस सबके बावजूद भी मुझे नहीं लगता, कि यह कागज़ी नोट किसी की ज़िंदगी कि अहम कमियों को पूरा कर सकते हैं। क्योंकि यदि कर सकते होते तो प्यार, रिश्ते, परिवार, समाज इन सब चीजों की शायद कोई आवश्यकता ही नहीं होती। आपको क्या लगता है ???           
                               

Thursday, 17 November 2011

बच्चों को दीजिये वो जो उन्हे देखने में भाय....



नवभारत टाइम्स पर आया मेरा यह लेख मेरे उन दोस्तों और पाठकों के लिए है जो मेरे साथ मेरे facebook account पर जुड़े हुए नहीं है।J 
मगर बाकी सब लोग भी पढ़ सकते है। J

यूँ तो सभी बच्चे बहुत ही मूड़ी होते हैं कब किस बात पर उनका मूड बदल जाये, कहना मुश्किल ही होता है। खास कर खाने-पीने के मामले में तो बहुत ही नखरेल, आज कल के जमाने में बच्चों को स्वाद कम बल्कि देखने में आकर्षित खाना ज्यादा पसंद आता है।इसलिए यदि आप अपने बच्चों को कुछ पौष्टिक भोजन खिलाना चाहते हैं तो, उसमें अंदर भरिये प्यार, ममता के साथ पोष्टिक खाने के तत्त्व जैसे हरी सब्जियाँ, दालें, चने, राजमा जैसी प्रोटीन से भरपूर चीजों से बनी चीज़ें और बाहरी रंग रूप रखिए विदेशी खान पान का, जिसका आजकल चलन है। क्यूँकि किसी ने कहा है कि "खाने के स्वाद से पहले हमेशा उसका रंगरूप आता है" और उसे देखकर ही खाने की ओर आपकी ललक बढ़ती है। आज कल के "फास्ट फूड" के जमाने में बच्चों को सम्पूर्ण पोषण वाला आहार मिले वो बहुत ज़रूरी हो गया है। क्यूंकि आजकल के बच्चे सिर्फ पिज्जा, बरगर, कोलड्रिंक जैसी चीजों को ही ज़्यादा पसंद करते हैं और कभी भी पूछने पर उनकी पसंद और सबसे पहली डिमांड भी यही सब चीज़ें होती हैं। उस पर "कार्टून नेटवर्क" चैन्नल की मेहरबानी कि अब तो कार्टून्स को भी यही सब खाते दिखाया जाता है। जिसके चलते बच्चों की सोच और रुझान इस ओर पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ गया है। पिछले कुछ दिनों में मैंने भी यही महसूस किया और बहुत सोचा कि ऐसा क्या किया जाये कि बच्चों को उनकी पसंद के अंदर ही सम्पूर्ण पोषण वाला खाना भी मिल जाये और उनकी पसंद भी रह जाये। तब मुझे कुछ टिप्स मिले तो सोचा क्यूँ न आप सब के साथ भी इन टिप्स को बाँट लिया जाये। क्यूंकि बच्चों का टिफ़िन बनाते वक़्त इस परेशानी से तो लगभग हर माँ को रोज़ ही गुजरना पड़ता है J है न !!! तो लीजिये कुछ टिप्स आपकी सेवा में हाजिर हैं ।

  • यदि आप अपने बच्चों को बर्गर देती हैं, तो उसके अंदर की टिक्की स्प्राऊट या कई दालों के मिश्रण से बना सकती है, या फिर काले चने को उबाल कर उसका भी प्रयोग किया जा सकता है।   
  • बच्चों को अक्सर बाज़ार में बिकने वाले काठी रोल जिन्हें यहाँ (फजीता रैप)  भी कहा जाता है जो बच्चों को बहुत आकर्षित करते हैं। आप भी "होल मील" आटे से बनी चपाती के अंदर पनीर को हल्का सा तल कर चाट मसाला डालकर बाकी सारा सलाद का सामान रखकर रोल्स बनाकर दे सकते है। चाहे तो उसमें चटनी या सौस का प्रयोग भी कर सकते हैं, या फिर यदि आप अंडा खाते हैं या मांसाहारी है तो चिकन के साथ अंडे के ऑमलेट का या उबले अंडे का प्रयोग भी कर सकते हैं।  
  • सैंडविच बच्चों का सबसे पसंदीदा खाना है। क्यूंकि बच्चों को अक्सर वो खाना पसंद आता है, जो चलते फिरते खाने में सुविधा हो और हाथ भी ज्यादा गंदे न हो, तो ऐसे में यदि कोई सबसे पहले नाम दिमाग में आता है तो वो है सैंडविच, उसके अंदर हर बार कोई नई दाल या फिर कई सारी सब्जियों के मिश्रण से बने कटलेट्स का प्रयोग भी किया जा सकता है। 
  • ऐसे ही चाकलेट की जगह आज कल "कॉर्नफ़्लेक्स" से बनी चाकलेट भी बाज़ार में उपलभ्ध है। जो तुरंत लगी भूख के लिए पर्याप्त भी है, साथ ही पोष्टिक भी, या फिर किशमिश और अन्य कई प्रकार कि मेवा पर चढ़ी चाकलेट भी उतना नुकसान नहीं करेगी। 
अंत में बस इतना कहना चाहती हूँ, कि बच्चों को दीजिये वो जो उन्हे देखने में भाय, मगर अंदर हो वो जो उनके स्वाद के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य को भी भायJ .... जय हिन्द

     

Sunday, 13 November 2011

लुप्त होता अस्तित्व .....


आज मैं जिस विषय पर लिख रही हूँ उस विषय पर में पिछले कई वर्षों से अनुभव कर रही थी लेकिन किसी न किसी कारणवश इस विषय पर लिख पाना संभव ही नहीं हो पा रहा था। वह है "छोटी-छोटी दुकानों का खोता हुआ अस्तित्व", जो इन बड़े-बड़े शॉपिंग माल के आ जाने के कारण कहीं खो गया है। एक नज़र से देखो तो लगता है, अच्छा ही हुआ, अब कम से कम बनिये कि दुकान के कर्ज़ से तो लोगों को मुक्ति मिल जाएगी, तो वहीं दूसरी और लगता है, एक तरफ तो लोग बातें करते हैं 32 रुपये पाने वाला इंसान गरीबी रेखा के नीचे नहीं आयेगा और दूसरी तरफ मिट रहा है उन छोटी-छोटी दुकानों का स्वरूप, जहां से कभी पूरे दाम चुका कर, तो कभी उधार लेकर हर घर में चूल्हा तो कम से कम जल ही जाया करता था। मगर क्या आजकल के महँगाई के इस दौर में 32 रुपये कमाने वाला इंसान सुख से दो वक्त की रोटी खा सकता है?

इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आप ही लोग मुझे बताइयेगा, कि मैं इस विषय के साथ इस विषय पर लिखते हुए न्याय कर पाई या नहीं। वैसे तो मेरा भी मानना यही है, कि उधार से बुरी शायद दुनिया में और कोई चीज़ नहीं, अतः किसी भी तरह का उधार आपके सर पर ना ही हो, तो अच्छा, लेकिन जिस तरह जीवन का हर पहलू किसी न किसी वजह से आपके जीवन में भावनात्मक रूप में भी जुड़ा होता है। वैसे ही यह विषय मेरे जीवन से जुड़े होने के साथ-साथ, कहीं न कहीं शायद यदि मैं गलत नहीं हूँ, तो आप सभी के जीवन से भी जुड़ा होगा। भले ही वो आपके बचपन की यादों में ही क्यूँ न हो, मुझे तो आज इस विषय पर लिखते हुए याद आ रहे हैं, वो बचपन के दिन जब छोटी-छोटी दुकानों पर जाकर ही उन दिनों हम बच्चों की सभी ज़रूरतें पूरी हो जाया करती थी। उस वक्त तो बस चीज़ मिलने से मतलब हुआ करता था। फिर चाहे वो नारंगी रंग की संतरे वाली गोली हो, या फिर महज़ पक्की हुई इमली को रंग बिरंगी पन्नियों में बंधे होने के कारण उसकी तरफ बड़ा हुआ आकर्षण, या फिर वो “गटागट” की गोलियाँ जिन्हें खाने के पहले "हाइजीन" के बारे में सोचना नहीं पड़ता था।  तब न तो हमारे माता-पिता को हाइजीन की चिंता सताती थी और न हमें, उद्देश्य केवल एक होता था उस चीज़ के स्वाद का भरपूर मज़े लेना। J

वो भी क्या दिन हुआ करते थे, जब स्कूल के बाहर छुट्टी होने के बाद जैसे टूट पड़ते थे, सब वो सूखे हुए बेर खाने के लिए जिन पर वो स्कूल के बाहर बैठी औरत नमक मिर्च डाल कर देती थी, मात्र एक दो रुपये के वो बेर खाकर जैसे मन अंदर तक तृप्त सा हो जाता था। याद है आपको वो कबीट के गोले, खट्टी इमली, वो सूखे हुए बेर, वो लालिपोप बाबा बच्चा, वो चटर-मटर और खास कर वो गुड और मूँगफली से बनी गुड पट्टी जिसे आज खाने का सोचो तो शायद दाँत टूट जाएँ, मगर उस वक्त उसमें जो स्वाद मिला करता था, वो आज कल की ferrero rocher  में भी नहीं मिल सकता। हा हा हा J मेरे मुँह में तो लिखते हुए भी पानी आ रहा है। J यह तो बचपन के उन दिनों की बातें हैं जिन दुकानों पर से हमारी ज़रूरतें पूरी हो जाती थी। कभी-कभी एक आद बार यूँ भी होता था, कि किसी राशन की दुकान से कोई चीज़ घर में आई मगर छुट्टे पैसे न होने कारण मम्मी ने बोल दिया कल वल ले लेना, या हम ही को दुकान पर भेजा, बोलने के लिए कि चाचा मम्मी ने कहा है, आज अभी खुल्ले पैसे नहीं है, कल भिजवा देंगे और दुकान वाले चाचा कहा करते थे। अरे बेटा कोई बात नहीं घर की बात है। अपनी दुकान कहीं भागी थोड़ी न जा रही है... आप भी यही हो, हम भी यहीं है। जब पैसे हों तब भिजवा देना कोई जल्दी नहीं है। तब हम लोग घर आकर समाचार पत्र कि तरह मम्मी के सामने खड़े होकर पूरी बात दोहरा दिया करते थे।J

मगर आजकल की इस बढ़ती हुई आधुनिकता के दौर में वो मिठास ज़रा भी नहीं, यहाँ तो यदि आप किसी शॉपिंग माल में गए हो और एक पेन्स(रुपया) भी कम है तो आपको पूरा सामान लौटाना पड़ेगा कल के लिए कोई कुछ नहीं छोड़ता। फिर चाहे बच्चों का दिल टूटे या आपका, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। माना कि व्यापार में भावनाओं की जगह नहीं होती, और वो उनका नियम होने के साथ काम भी है। वो भी मजबूर हैं, ऐसा करने के लिए, वरना शायद हर दूसरा इंसान उधारी करने लगेगा। मगर व्यापार तो पहले भी हुआ करता था। परंतु तब एक इंसान दूसरे इंसान की भावनाओं को समझ भी लिया करता था। क्यूँकि तब किसी भी व्यापार की नींव विश्वास हुआ करती थी। जो आज ज़रा भी नहीं है। आज तो इंसान को खुद आपने परिवार के लोगों पर विश्वास नहीं है, तो व्यापार क्या चीज़ है। कहने को शॉपिंग माल में आपको बहुत सारी नई से नई चीज़ें देखने को मिलती है, पता चलता है कि दुनिया में क्या चल रहा है। आपके पास अपनी पसंद का सामान चुनने के लिए बहुत सारी चॉइस होती है। फिर चाहे वो कोई भी वस्तु क्यूँ न हो, उस वस्तु से संबन्धित आपको इतनी सारी चीज़ें देखने को मिलती है, कि कभी-कभी तो यह तय करना पाना मुश्किल हो जाता है, कि क्या लें और क्या ना लें। मैं यह नहीं कहती कि शॉपिंग माल में सब कुछ महँगा ही होता है या सब आपके बजट के बाहर ही होता है, मगर मुझे ऐसा लगता है कि इतना सस्ता भी नहीं होता कि 32 रूपये पाने वाला इंसान वहाँ से अपनी ज़रूरतों की पूर्ति कर सके।

शॉपिंग माल कुछ तो आज की जरूरत बन गए हैं और कुछ समाज में दिखावे का कारण भी, जिसे हम अँग्रेज़ी में "स्टेटस सिंबल" कहते हैं। सही मायने में देखा जाये तो आज कल यह "सिंबल" यह दिखावा ही हमारे लिए कई बार कई सारी मुसीबतों की जड़ बन जाता है। क्यूंकि जब पहले छोटी-छोटी दुकाने घर के आस पास हुआ करतीं थी तब ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम इस बात का सुख तो था कि कभी अचानक कोई चीज़ की जरूरत पड़ जाये तो आप फटाक से जाकर ला सकते हो न पार्किंग का जंझट न ज्यादा कुछ और सोचने की ज़रूरत, यहाँ तक कि आप फोन करके भी घर पर समान मँगवा सकते हो, यह सब सोच कर तो यही लगता है कि यार राजाओं वाली ज़िंदगी जीना केवल अपने इंडिया में ही संभव है, यहाँ यूके में नहीं। आधुनिकता ने ना केवल महँगाई ही बड़ाई है बल्कि उसके साथ-साथ इंसान पर से दूसरे इंसान का भरोसा भी छीन लिया है। ज़ाहिर सी बात है बच्चे भी जैसा देखते हैं, वैसे ही सीखते हैं और करते भी हैं। कपड़ों का मामला हो या खिलौनो का यदि उन पर किसी बड़ी ब्रांडेड दुकान का नाम चिपका है, तो आपका बच्चा भी बड़े गर्व से अपने दोस्तों से कहता है अरे यह खिलौना मैंने फलाना शॉप से लिया है। एक ज़माना था जब हम लोग पेड़ से तोड़कर कोई भी फल यूँ ही खा लिया करते थे और एक आज का दौर है, कि मेरा बेटा माल से लाये हुए फलों को भी मेरे बिना कहे भी धोए बिना नहीं खाता। आदत अच्छी है, मगर विश्वास खो गया है, कि यदि बिना धोए खा लिया तो कहीं बीमार न पड़ जाएँ।

देखने मे आकर्षित लगती हुई चीज़ कोई भी हो सभी बच्चे वो खाने को हमेशा तैयार रहते है। मगर कोई ऐसी चीज़ जो देखने में ज़रा भी आकर्षित नहीं है, वो खा ही नहीं सकते। माना कि बच्चों को हमेशा आकर्षित करने वाली चीज़ें ही ज्यादा पसंद आती हैं।  भई आख़िर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। J मगर खासकर जिनकी पेकिंग सुंदर हो, दिखने में सुंदर लगे केवल वही चीज़ उनके मन को भाती हैं। फिर चाहे उसमें स्वाद हो, या न हो। मगर हम लोग भी तो कभी बच्चे थे और सब कुछ खा लिया करते थे। फिर चाहे वो रंगबिरंगा बर्फ़ का गोला हो, या क्वालिटी की कोई ice cream हमें तो मतलब केवल स्वाद से हुआ करता था। मगर आज स्वाद की जगह भी बनावट ने ले ली है और इन बड़े-बड़े शॉपिंग माल ने उन छोटी–छोटी दुकानों के अस्तित्व को खत्म कर दिया है।  जहां आप कभी-कभी भले ही पूरे दाम देने में असमर्थ हो जाते थे। मगर बच्चों का दिल नहीं टूटा करता था। आज अभी यदि आप किसी छोटी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार आपकी चाय से खातिर ज़रूर करता है।शायद छोटी दुकानों में आज भी इंसान को इंसान पर भरोसा है जैसा पहले हुआ करता था, कि आज नहीं तो कल दाम मिल ही जायेगे। गरीब के घर उधारी में ही सही, मगर चूल्हा जल जाया करता था। जिसकी तो शायद आज कल्पना भी ना मुमकिन है।

अंततः बस इतना कहना चाहती हूँ कि मैं शॉपिंग माल के खिलाफ नहीं हूँ, ना ही मुझे उनसे कोई शिकवा है मगर इस पोस्ट के ज़रिये मैंने कोशिश की है, उन छोटी-छोटी दुकानों के खोते अस्तित्व पर लिखने की इसलिए उन पर ही ज्यादा ज़ोर दिया है। जय हिन्द .....

Friday, 11 November 2011

हाथों की महिमा....


हाथों की महिमा.... 

आज तक आपने शायद चेहरे की सुंदरता के बारे में पढ़ा होगा ,आँखों की सुंदरता के बारे में भी पढ़ा होगा,या यूँ कहना ज्यादा ठीक होगा कि आज तक आप सभी ने चेहरा, आँखें, केश, होंट यहाँ तक के पाँव की खूबसूरती के बारे में भी पढ़ा होगा। कई  कवियों ने इस विषय पर कवितायें लिखी, शायरों की शायरी तो खूबसूरती पर ही आधारित होती है, इस प्रकार, आपने औरत कि खूबसूरती पर आधारित ग़ज़लें, गीत सब कुछ सुने देखे और पढ़े भी होंगे। मगर मुझे यक़ीन है, कि आपने हाथों कि खूबसूरती के बारे बहुत कम ही पढ़ा या सुना होगा। है न!! 
J वैसे अब जो विचार में आपके सामने प्रस्तुत करने जा रही हूँ। वह मेरे विचार नहीं है, उन विचारों का निर्माण किसी और के दिमाग कि उपज है। जिसे किसी के प्रस्तुतिकरण ने और भी ज्यादा सुंदर और प्रभावशाली बना दिया है। मगर किस के दिमाग उपज है यह मुझे भी नहीं पता। यह मैंने एक विज्ञापन में देखा। कहने को वो मात्र विज्ञापन ही है, मगर एक ऐसा विज्ञापन, जो मेरे दिल को छू गया जिसने मुझे इस विषय पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि मैं भी इस विषय पर कुछ लिखूँ। 

वैसे तो विज्ञापन बनाने वाली कंपनियों का तो काम ही होता है, उपभोगता को भावनात्मक तरीक़े से अपनी और आकर्षित करना। मगर भावनायें तो भावनायें ही होती है। वह यह नहीं देखती कि उनकी उत्पत्ति कहाँ से और किस माध्यम से हो रही है। सो मेरे अंदर भी उस विज्ञापन को देखकर कुछ भावनायें जागीं। जिन्हें मैं आप सभी के साथ बाँटना चाहती हूँ। क्योंकि यहाँ जो विज्ञापन टीवी पर आते है, वो वहाँ भारत के टीवी चैनल्स पर नहीं आते। यह सब पढ़कर शायद आप सभी को यह लग रहा होगा कि मैं भी क्या कभी टीवी सीरियल, तो कभी विज्ञापनों पर ही पोस्ट लिखती रहती हूँ। 
J मगर मैं यहाँ यह कहना चाहूँगी, सच में मुझे यह विज्ञानपन इतना अच्छा लगा कि उसको आपके साथ इस पोस्ट के ज़रिये बाँटे बिना मैं रह ना सकी।J 
 "हाथ जो मिट्टी से बेहद सुंदर निर्माण करते हैं"

कहने को यह विज्ञापन शक्तिभोग आटे का है, किन्तु उस विज्ञापन कि तस्वीरें यहाँ लगा पाना संभव नहीं हो रहा है J मगर इस विज्ञापन के माध्यम से जो हाथों के महत्व को प्रदर्शित किया गया है वो सराहनीय है। "हाथ जो मिट्टी से बेहद सुंदर निर्माण करते हैं" बच्चों के खिलौने से लेकर अदबुद्ध मूर्तियों तक जिन्हें भगवान मान कर लोग पूजा करते हैं। जैसे ईश्वर ने कभी रचना की हो इस संसार की,

वैसे ही जब यही हाथ यदि विनाश की और बढ़ जायें, तो क्या नहीं कर सकते। ऐसे पेड़ काटना या और भी कई बुरे काम.... 

कभी यह हाथ सहारा हैं,

तो कभी प्रार्थना के रूप में विश्वास और आस्था का प्रतीक,  

वहीं कभी यह हाथ प्यार से खिलते हैं ,तो कभी प्यार से सुलाते भी हैं। J कितने महत्वपूर्ण होते है यह हाथ भी फिर ना जाने क्यूँ वंचित रह जाते है, खूबसूरती के पैमानों पर, हर एक चीज़ के दो पहलू होते हैं। एक अच्छा तो एक बुरा भी, हाथों के भी हैं, मगर मैंने यहाँ सब का वर्णन नहीं कर रही हूँ। क्योंकि हर सकारात्मक चीज़ के साथ उसका नाकारात्मक पहलू भी जुड़ा ही होता है। वो आपको पढ़कर ही समझ आ जाएगा। इसलिए अब इस विज्ञापन से उत्पन्न हुई भावनाओं को यही विराम देती हूँ। साथ ही यह उम्मीद भी करती हूँ कि आपको भी यह भावनात्मक प्रस्तुति पसंद आयेगी जय हिन्द ......  आप सभी लोगों के कहने पर में यहाँ उस विज्ञापन का लिंक दे रही हूँ। यहाँ आपको न केवल शक्ति भोग आटा, बल्कि उसके सभी product का विज्ञापन देखने को मिल जाएगा।  
http://www.youtube.com/watch?v=klX9S4pyXlw&feature=results_main&playnext=1&list=PL4EC230769270C92E               

Monday, 7 November 2011

मन: स्थिति .....


यूँ तो यह विषय अब बहुत पुराना हो चुका है और बहुत लोग इस बारे में बहुत कुछ, एवं बहुत अच्छा-अच्छा लिख चुके है। कुछ ऐसा जो मन को छू जाये। मगर मैंने अपना यह लेख उन कई लोग से तुलना करने के लिए नहीं लिखा, कि मेरा उन से बेहतर है, या नहीं। बल्कि आज मैंने भी अपने मन में उठती हुई कुछ तरंगों को शब्द रूप देना का प्रयत्न किया है। मन के बारे में क्या कहूँ, कहाँ से शुरुआत करूँ इस एक शब्द के विस्तार की, जो कि  एक भावनाओं का समुंदर है। या फिर यूँ कहिए कि भावनाओं का मकड़ जाल है। जिसमें हम चाहे अनचाहे पड़ ही जाते है और हर पल इस समुद्र रूपी मन में भावना रूपी कोई न कोई लहर उठती ही रहती है। जो हर पल कुछ न कुछ सोचने को मजबूर करती है। जैसे "शिखा जी" ने अपने ब्लॉग में भी लिख रखा है अंतर मन से उठती हुई भावनाओं की तरंगें" जो कभी सुखद होती हैं, तो कभी दुखद भी। वो कहते हैं,
“मन के हारे हार है,
 मन के जीते जीत” 

कितनी गहरी बात है। देखने और पढ़ने में भले ही इस बात का अर्थ बहुत ही साधारण प्रतीत होता हो, कि यदि आपका मन अच्छा है, तो आपको अपने आस-पास सब कुछ अच्छा लगता है और आप हर परिस्थिति पर विजय पाने में सफल होने की क्षमता रखते हो। कहने का मतलब यह कि जब आप का मन खुश होता है, तब आपकी सोच सकारात्मक होती है और जब आपका मन दुःखी होता है, निराश होता है, तब आपकी सोच नकारात्मक हो जाती है। मगर इन दो पंक्तियों में जीवन का सार छुपा है, जो अपने आप में एक इंसान के सम्पूर्ण जीवन को दर्शाता है कि एक इंसान किस तरह अपने मनोभावों के साथ जीता है। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि इंसान बना ही भावनाओं से है, जो उसे अन्य जीवों से अलग करती हैं। जिस इंसान के अंदर भावनायें नहीं होती वो मेरे हिसाब से तो इंसान कहलाने लायक ही नहीं है।
मुझे तो आज तक अपने जीवन में, अब तक ऐसा कोई इंसान नहीं मिला जिसके अंदर भावनायें न हो। हाँ कुछ लोग खुद को जानबूझ कर कठोर दिखाने का प्रयत्न जरूर करते हैं, किन्तु वास्तव में वह लोग खुद अंदर से बहुत ही साफ दिल और नरम स्वभाव के होते है। बिलकुल नारियल की तरह बाहर से सख़्त और अंदर से नरम।J कभी सोचो तो ऐसा लगता है जैसे मन और भावनायें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। फिर कभी यूं भी होता है कि हम अपने ही मन को समझ पाने में असमर्थ हो जाते हैं। हम खुद ही नहीं समझ पाते कि हम क्या चाहते हैं। जब कभी हम बहुत खुश होते हैं, तो लगता है जैसे हम ने सब कुछ पा लिया हो। अब और कुछ पाने की चाह नहीं और उस ख़ुशी में भी हमारी आँखें छलक जाती है और दिल यह गीत गुनगुनाने लगता है। J  
"आज फिर जीने की तमन्ना है 
आज फिर मरने का इरादा है"


इस गीत में भी तो कुछ ऐसे ही भावों को व्यक्त किया गया है न J कई बार हमारा मन बहुत छोटी-छोटी बातों में,चीजों में, सुकून ढूंढ लेता है। तो कई बार सब कुछ होते हुए भी कहीं सुकून नहीं मिल पाता। कई बार आपने भी देखा और महसूस किया होगा कि सुकून की तलाश में तनहाई कारगर साबित होती है। जब अकेले में हमको खुद  से बातें करने और खुद को समझने का मौक़ा मिलता है। आपने आस-पास हो रही गतिविधियों पर गौर करने का मौक़ा मिलता है, कि हमारे लिए क्या सही है, क्या गलत है। कभी-कभी सारी परेशानियों से भाग कर मन करता है, किसी ऐसी जगह चले जाने को जहां शांत माहौल हो। अगर कुछ शोर हो या आवाज हो तो केवल प्राकृतिक हो जैसे समुंदर का किनारा या फिर किसी झील के किनारे किसी सुनसान जगह पर आप बैठे हो ठंडी बहती हुए हवा और पक्षीयों का करलव हो, इसके अतिरिक्त और कुछ न हो। जब उस एकांत माहौल में जहां दूर-दूर तक नज़र डालने पर भी सिवाय शांति के और कुछ महसूस ना हो तो मन को उस वक्त जो सुकून महसूस होता है, उस एहसास, उस सुकून को शब्दों में बयां कर पाना मेरे लिए संभव नहीं।J

एक ऐसी शांति का एहसास जो समुद्र की लहरों के शोर से भी भंग नहीं होती, बल्कि मन को बहुत सुकून देती है और आपको एक अलग ही दुनिया में दूर कहीं ले जाती है। जहाँ सिर्फ आप इस रंज़ ओ ग़म कि दुनिया से दूर केवल आपकी तनहाई आपके साथ होती है। मन एकदम शांत होता है, किसी प्रकार की कोई परेशानी आप पर हावी नहीं होती। तब जब आप अपने अंतर मन में उठते सभी सवालों का हल पा लेते हो, अर्थात किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में या किसी निर्णय को लेने में कामयाब हो जाते हो।उस वक्त और शांत वातावरण में जो मन: स्थिति होती है उसकी तलाश में तो शायद लोगों का सारा जीवन बीत जाता हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि "भगवान बुद्ध" ने कहा था, शायद, मुझे ठीक से याद तो नहीं मगर, ऐसा कुछ कि इंसान के मन में उठते सभी प्रश्नों का उत्तर स्वयं उसके मन में ही छुपा होता है। जरूरत होती है, तो केवल अपने आप से उस प्रश्न को ईमानदारी से और ठंडे दिमाग एवं शांत मन से पूछने की, जो साधारण तौर पर हम कर नहीं पाते और नतीजा सारी उम्र भटकते रहते हैं, उस शांति रूपी संतुष्टि की तलाश में जो साधारण तौर पर इंसान को कभी नहीं मिलती। जिस प्रकार एक मृग अपने ही अंदर छुपी कस्तूरी की खोज में भटकता रहता है, ठीक उसी प्रकार इंसान भी शांति और संतुष्टि की खोज में मृगतृष्णा कि भांति ही भटकता रहता है। अतः इन मन में उठती हुई तरंगों कि बातों को, इस मकड़ जाल को, जिसमें फंस जाने के बाद शायद कभी बातों का अंत ही न हो, मैं यहीं इन कुछ मशहूर शेरों के साथ यही विराम देती हूँ।J 

“कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता , 
कभी ज़मी तो कभी आसमान नहीं मिलता” 
या फिर 
इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं 
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद 

Saturday, 5 November 2011

एक खास ओ आम व्यक्ति को भावपूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि


श्रद्धांजलि एक आम इंसान को जो आम होते भी मेरे लिए खास है। जिनकी मौत शायद ऊपर वाले ने तय कर रखी थी। बिमारी को जिनने अपनी जीवटता से तो हरा दिया किन्तु मौत को नहीं हरा पाया। वो कहते है न "ज़िंदगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकरायेगी मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी"। मगर मौत एक ऐसा अटल सत्य है जिसे स्वयं ईश्वर भी नहीं बदल सकता। जिसने भी इस धरती पर जन्म लिया है उसकी मौत आनी ही है जो आया है वह जाएगा भी फिर चाहे वह हमारा कितना भी करीबी क्यूँ न हो। बस यही सब सोच कर हमको अपने मन को समझाना पड़ता है

 स्व. दिलीप जोशी उर्फ पेंटर सहाब 
आज मैं आपको एक ऐसे ही खास ओ आम आदमी की एक रोंगटे खड़े कर देने वाली भयावह मौत कि दास्तान सुनाती हूँ। जिसे पढ़कर निश्चित ही आप सभी का दिल भी कुछ पल के लिए दहल जाएगा। यह एक सत्य घटना है। दिलीप जोशी नाम के शख़्स की कहानी जिसने अपनी ज़िंदगी में बहुत से उतार चढ़ाव देखे थे। पेशे से वह पेंटर थे। बहुत दिनों तक उन्होने यही कार्य किया फिर उनकी माँ का देहांत हो जाने के बाद वह अपने गाँव, अपने परिवार के पास जाकर रहने लगे उसके बाद उन्होने जीवन यापन हेतु बस में कंडक्टर का काम भी किया। यह काम एक तरह से उनका पुश्तैनी काम था, क्यूंकि उनके पिता जी भी यही काम किया करते थे किन्तु माँ के देहांत के बाद उन्होने लगभग हिम्मत हार दी थी कि अब वो दुबारा शहर की तरफ रुख भी नहीं करेंगे, मगर उनकी पत्नी ने उन्हें फिर होंसला दिया कि चलो हम वापस इंदौर चलते है। यहाँ गाँव में कुछ नहीं रखा है। तब जाकर वह शहर वापस आये और फिर पुनः वाल पेंटिंग और फ़्लेक्स पोस्टर बनाने का काम शुरू किया। क्यूँकि जब वह वापस आये तब तक बाज़ार में फ़्लेक्स पोस्टर का दौर आ चुका था मगर पेंटिंग उनका पेशा ही नहीं उनका शौक़ भी था।

LIC, इंदौर के लिए कितनी ही दीवारे (LIC के wall advertise) पूरे प्रदेश में घूम घूम कर उन्होंने बनाये थे। उस जमाने में वह एलआईसी के लिए ही कार्य किया करते थे। उन्होने अपने बड़े लड़के को भी यह फ्लेक्स पोस्टर का काम सिखा कर तैयार कर लिया था। उनके तीन बच्चे हैं, दो बेटे और एक बेटी ,बेटी की शादी हो चुकी है। बेटे दोनों कॉलेज में पढ़ रहे हैं। उनकी पत्नी उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। जैसे शरीर के लिए रीढ़ की हड्डी का होना आवश्यक होता है। वैसे ही उनके लिए उनके जीवन रूपी शरीर की रीढ़ की हड्डी उनकी पत्नी थी, जिन्होंने हमेशा उनके अच्छे बुरे वक्त में उनका साथ दिया और हमेशा ही उनका भरपूर होंसला बढ़ाया एक अच्छी पत्नी होने का पूरा फर्ज़ निभाया। तभी खबर मिली की वह गले के केन्सर जैसी भयावह बीमारी से ग्रस्त है। जैसे ही यह खबर उनको मिली तुरंत इलाज शुरू कर दिया गया।

यह अभी मार्च 2011 की ही बात है होली पर मेरे छोटे भाई की उनसे मुलाक़ात हुई थी।  उस वक्त उन्होने वहीं इंदौर में ही मकान भी ले लिया था। तब तक उनको केन्सर है यह भी पता चल चुका था। उसके बाद भी वह बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे। शुरुआत में ही पता चल जाने के कारण डॉ ने भी आश्वासन दिया कि अब घबराने की कोई बात नहीं है। वह जल्द ही ठीक हो जायेगे। वह खुद भी बहुत ही सजग और हंसमुख स्वभाव के मेहनती इंसान थे इसलिए भी शायद उनकी तबीयत में और लोगों की तुलना में बहुत जल्द सुधार हो रहा था। उनका स्वभाव इतना मधुर था कि वह बच्चों के साथ बच्चा और बड़ों के साथ बड़ा बन जाया करते थे। कहने का तात्पर्य यह कि उनका स्वभाव बिलकुल जल की तरह निर्मल था जिसे जिसमें मिला दो वैसा ही हो जाता था। उनका इलाज बड़ौदा के किसी केन्सर अस्पताल में चल रहा था वही उसी अस्पताल के पास एक नदी बहती है। जिसके किनारे अकसर उस अस्पताल के ज्यादातर मरीज़ टहला करते थे। एक दिन वह भी अपनी पत्नी के साथ सुबह-सुबह उसी नदी के किनारे टहलने गए थे। यह उनका रोज़ का नियम था।

सुबह जल्दी उठ कर पहले योगा और फिर टहलना उस दिन भी वह रोज की ही भांति योगा करने के पश्चात अपनी पत्नी के साथ नदी किनारे टहलने के लिए गए थे, पर शायद उन्होंने सोचा न था कि वह आज वापस आ पाएँगे, क्यूंकि टहलते वक़्त अचानक ही कहीं से एक मगरमच्छ प्रकट हुआ जो उनके लिए काल बन कर आया था। उस मगरमच्छ ने उन पर हमला कर दिया और उन्हें अपने साथ खींच कर पानी के अंदर ले गया। यह सारा वाक़या उनकी पत्नी ने अपनी आँखों से देखा। पुलिस में खबर कि गई उनके बेटों को भी फोन से संदेश पहुंचाया गया मगर उस वक्त उनको इस हादसे की खबर नहीं दी गई थी। दो दिन बाद पुलिस को उनकी लाश मिली शरीर का कुछ हिस्सा जैसे चेहरा पैर दोनों ही पर काफी गहरे घाव के निशान थे और बहुत ही अस्तव्यस्त हालत में उनकी लाश बरामद होने के कारण उनका दाह संस्कार भी वहीं के वहीं करवा दिया गया था।

ज़रा सोचिए कैसा लगा होगा उनकी पत्नी को उस वक्त और क्या गुज़र रही होगी उनपर। सुनने में आया था कि इस हादसे से पहले भी वहाँ दो बार इस तरह के हादसे हो चुके थे। मगर किसी को कुछ पता नहीं चल पाया था कि इंसान गायब कहाँ हो गया। यह इस तरह का तीसरा हादसा था। मगर ऐसा जिसमें यह पता चल सका कि वहाँ कोई “मगरमच्छ"  भी है। जब से मुझे यह समाचार मिला मेरे मन में रह-रह कर बस एक ही सवाल घूमता रहा है और अभी भी घूम रहा है कि क्या प्रतिक्रिया रही होगी उनकी पत्नी की उस वक्त यक़ीनन स्तब्ध कर देने वाली तो होगी ही, कैसा लगा होगा उनको उस वक्त इसकी तो कल्पना भी रुला देती है। परंतु फिर भी न जाने क्यूँ मेरे मन में बस यही सवाल उठता है। मुझे तो सुन कर ही ऐसा लगा दो मिनट के लिए कि जैसे कुछ पलों के लिए मेरे दिल की धड़कन ही बंद हो गई हो। यह सब कुछ सुन कर मन मानने को ही तैयार नहीं हुआ कि यह सब कुछ सच में हुआ है। ऐसा लगा जैसी यह कोई हक़ीक़त नहीं बल्कि कोई फिल्मी वाक़या हो, यक़ीन ही नहीं आता कि ऐसा सच में भी हो सकता है। अभी तक मैंने तो ऐसी घटनाएँ केवल क़िस्सों और कहानियों में ही सुनी थी और जब-जब इस दुखद घटना के बारे में मैंने जिस किसी को भी बताया उस ही के रोंगटे खड़े हो गये। सोचिये जब मेरे सुनने मात्र से यह हाल था तो भाभी का क्या हाल हुआ होगा जब उन्होने यह सब होते अपनी आँखों के सामने देखा होगा।

ना जाने हमेशा मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि हंसमुख और अच्छे इन्सानों के साथ ही ऐसा क्यूँ होता है। क्यूँ हमेशा अच्छे लोग को जरूरत ऊपर ईश्वर को भी हम से ज्यादा होती है, जिसके चलते वह उन्हें हम से छीन कर अपने पास बुला लेता है। अब तो बस भगवान से यही प्रार्थना है की भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे और उनके परिवार के सभी सदस्यों को इस गहन दुःख को सहन करने की शक्ति दे।

Wednesday, 2 November 2011

दीया और बाती हम



तारे हैं बराती

चाँदनी है, यह बारात

सातों फेरे होंगे अब हाथों में लेकर हाथ

जीवन साथी हम, दिया और बाती हम


जाने क्यूँ आज सुबह से ही यह गीत मेरी ज़ुबान पर चढ़ा हुआ था और में बस यही गुनगुनाए जा रही थी। तब मन में यूंहीं एक ख्याल आया कि क्यूँ ना इस पर भी एक पोस्ट लिखी जाये सो लिख डाली।Jजैसा कि इस पोस्ट के शीर्षक से ही पता चल रहा है कि यह मेरी पोस्ट का नाम होने के साथ-साथ एक टीवी सिरियल का नाम भी है। पिछले दिनों टीवी पर आने वाले दो कार्यक्रम काफी चर्चा में रहे एक “कौन बनेगा करोड़ पति” और दूजा “बड़े अच्छे लगते है”। वैसे देखा जाये तो यह दोनों यानी मेरी पोस्ट का शीर्षक“दीया और बाती हम” और “बड़े अच्छे लगते हैं” यह दोनों ही कार्यक्रमों के नाम हिन्दी फ़िल्म के गीतों पर आधारित है। खैर इस सप्ताह के अंत में इस बार में कहीं भी बहार नहीं गई। यहाँ तक बाज़ार भी नहीं, जब की  यह हमारे हफ़्ते के अंतिम दो दिन का फिक्स प्रोग्राम होता है। मगर इस बार शायद मौसम में आये बदलाव के कारण इतनी ठंड बढ़ गई कि मेरा कहीं भी बाहर जाने का मन ही नहीं हुआ। तब मैंने घर में टाइम पास के लिए यह कार्यक्रम देखा जिसका नाम था "दिया और बाती हम" जो कि स्टार प्लस पर आता है, आप लोगों ने भी शायद देखा होगा।

इस प्रोग्राम के अंतर्गत यह दिखाने की कोशिश की गई है,कि यदि कोई पुरुष आपने परिवार के वीरुध जाकर अपनी पत्नी का आगे पढ़ने मे साथ देता है, ताकि वो अपनी पढ़ाई जारी रख सके और अपनी मन चाही  मंजिल को पासके, तो लोग उसे ना जाने क्यूँ इस मूहवारे से जोड़ने लगते है और उसे "जोरु का गुलाम" कहने लगते हैं। इस सीरियल ने मेरे मन के अंदर कई सवाल उठाये, कि आखिर ऐसा क्यूँ ? जब विवाह के वक्त दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को जीवन के हर मोड़ पर साथ निभाने का वचन देते हैं और लेते है, फिर क्यूँ आम ज़िंदगी में आमतौर पर इस वचन का अधिकतर पालन करती केवल महिलायें ही नज़र आती हैं। बहुत कम ही यह वचन निभाते पुरुष नज़र आते है क्यूँ ?

आज तो "सदा जी" ने भी अपनी कविता में औरत को दूसरों के सुख में सुखी होने के भाव को बड़ी ही खूबसूरती के साथ उकेरा है, तो वहीं दूसरी और "प्रियंका जी" ने भी "गुड मॉर्निंग" कविता के माध्यम से औरत के दिन की शुरुवात को बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में प्रस्तुत किया। मगर बात यहाँ औरत या मर्द की नहीं है, बात है उस वचन की, उस वादे की, जो दो लोग विवाह के बंधन में बँधते वक्त एक दूसरे से करते है और जब निभाने की बारी है तो निभाती केवल स्त्री ही है, यदि कोई पुरुष अपने उस वचन को, उस वादे को निभाना भी चाहे, तो यह पुरुष प्रधान समाज उसे निभाने नहीं देता और "जोरु का गुलाम" कहकर उसका मज़ाक बना दिया जाता है क्यूँ ? 

"दीया और बाती" अर्थात एक के बिना दूसरा अधूरा है। यही तो है न मतलब शादी के बंधन का भी, फिर क्यूँ लोग यह भूल जाते है और बस अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि जब से नारी जागरुक हुई है और जबसे उसने अपने अस्तित्व की पहचान बनना शुरू की है, तब से यह दिया और बाती की भावनायेँ, तो जैसे मर ही गई हैं, यह रिश्तों में बढ़ती दूरियाँ, यह आये दिन होते तलाक, सभी में जैसे एक दम से व्रद्धि सी हो गई है। मगर इसका मतलब यह नहीं कि में कमकाजी महिलों के वीरुध हूँ, क्यूँकि में खुद एक ग्रहणी हूँ। मगर कहीं न कहीं दोनों ही ज़िम्मेदार है इन टूटते रिश्तों के लिए। पहला समाज, दूसरा पति-पत्नी, क्यूँकि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती, और मुझे ऐसा लगता है कि आज कल कामकाजी महिलाओं के मन में अहम ने बहुत बड़ी जगह लेली है।

जिसके चलते रिश्तों में यह दूरियाँ आने लगी हैं। बेशक बहुत से लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे। मैं जानती हूँ क्यूंकि सारी जिम्मेदारियाँ केवल औरत ही उठाय और हर वचन का पालन भी केवल औरत ही करे यह सही नहीं है। जहां औरत ने इस सबसे इंकार कर अपनी मर्जी कि बात कि वहीं से शुरुवात हो जाती है, परिवार के बिखरने कि कई बार यूं भी होता है कि इस सबके चलते "मैं"आत्मनिर्भर हूँ और अब मुझे किसी कि जरूरत नहीं वाला अहम से भरा भाव भी आज कल बड़ी आसानी से औरतों में देखने को मिलता है। हो सकता है कुछ लोग इस अहम को आत्मनिर्भरता का नाम दें, मगर मेरे हिसाब से दोनों दो अलग-अलग बातें हैं। बाकी तो जिसकी जैसी सोच होगी उसे वही सही लगेगा। यह अपनी-अपनी सोच और नज़रीय पर निर्भर करता है।
 
 "पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना -अपना"     

कभी गहराई से सोचती हूँ तो यह लगता है कि शायद बुज़ुर्गों ने ठीक ही कहा था, कि औरत में कुछ गुण होना स्वाभाविक है, तो कुछ का होना बेहद ज़रूर जैसे धरती के समान सहनशीलता और अंबर जितना बड़ा ह्रदय, क्यूँकि यह मर्द तो बहुत कमज़ोर होते हैं, जो अपने दिल के आस-पास उसूलों कि दीवार तो बना लेते हैं, मगर उन्हें निभा नहीं पाते। वो शायद यह भूल जाते हैं कि दिल के रिश्ते चुप रहने से नहीं, बल्कि दिल की बात कह देने से बनते है।

वाह क्या बात है, है ना J हाँ सच में यह संवाद ही है, मगर अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण सच्ची और गहरी बात लिए हुए है। इसलिए मैंने इसका प्रयोग यहाँ किया। कुल मिलकर सब कुछ कहने का मतलब यह है कि जब औरत कि दिन रात सेवा करने पर उसे पति का गुलाम नहीं समझा जाता, तो इसी प्रकार जब कोई पति आगे आकार किसी सही कार्य में अपनी पत्नी का सहयोग करना चाहे, तो उसे "जोरु का गुलाम" कहकर अपमानित नहीं करना चाहिए। बल्कि दूसरों को भी उससे सीख लेते हुए अपनी-अपनी पत्नियों का साथ देना और निभाना चाहिए तभी यह "दीया और बाती हम" वाली बात या "बड़े अच्छे लगते है" वाली बात को सही मायने मिल सकते है। J है ना !!!!!! जय हिन्द ......