Sunday, 30 September 2012

दोहरी सोच


यूं तो विषय नारी विमर्श का नहीं है लेकिन जब बात हो दोहरी मानसिकता की और नारी का ज़िक्र न आए तो शायद यह विषय अधूरा रह जाएगा। नारी विमर्श एक ऐसा विषय जिस पर जितनी भी चर्चा की जाए या जितना भी विचार विमर्श किया जाए कम ही होगा। लेकिन यदि हम सब एक स्वस्थ समाज का निर्माण चाहते है तो उसके लिए लिंग भेद को मिटा कर स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देते हुए समान भाव से देखा जाना। जब तक यह सोच हमारे अंदर विकसित नहीं हो जाती तब तक एक स्वस्थ एवं सभ्य समाज की कल्पना करना भी व्यर्थ है। बेशक आज कुछ क्षेत्रों में नारी की स्थिति में पहले की तुलना में बहुत परिवर्तन आया है और नारी ने यह साबित कर दिखाया है कि वो भी एक कामयाब और आत्मनिर्भर इंसान है जो अपने बलबूते पर सब कुछ कर सकती है जो शायद एक पुरुष भी नहीं कर सकता। लेकिन इसके बावजूद भी आज भी सामाजिक स्तर पर कुछ क्षेत्र या परिवार ऐसे हैं जहां सिर्फ कहने का परिवर्तन आया है वास्तव में नहीं, मुझे यह समझ नहीं आता कि लोग दिखावे के लिए कुछ चीजों क्यूँ मानते है। लड़की के अधिकारों के विषय में सोचते -सोचते हम लड़कों को भूल गए है। ऐसा क्यूँ ? जबकि लड़का और लड़की तो स्वयं एक दूसरे के पूरक है तो फिर लड़की के चक्कर में हम लड़कों के साथ दोगला व्यवहार क्यूँ करने लगते हैं ??

मैं जानती हूँ आपको पढ़कर शायद अजीब लग रहा होगा कि लड़कों के साथ दोगला व्यवहार, यह दोगला पन तो खुद इस पुरुष प्रधान देश के महापुरुषों का इजाद किया हुआ शब्द है फिर उन्हीं के प्रति यह शब्द कैसे इस्तेमाल हो सकता है या फिर शायद इसलिए भी क्यूंकि हमारे कानों को आदत पड़ चुकी है इस तरह की बातें या शब्द केवल लड़कियों के लिए पढ़ने और सुनने की, मगर सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अंजाने में ही सही, मगर कहीं न कहीं हम लड़कों के साथ नाइंसाफ़ी कर रहे हैं या फिर अंजाने में हम से उनके प्रति यह नाइंसाफ़ी हो रही है, जो सरासर गलत है। आजकल लड़की के माता-पिता बड़े गर्व के साथ यह कहते हुए नज़र आते हैं कि अरे मैं आपको क्या बताऊँ मेरी लड़की में तो लड़कियों वाले कोई गुण ही नहीं है। एकदम लड़का है मेरी लड़की, उसे तो कपड़े भी लड़कियों वाले ज़रा भी नहीं पसंद, ना कपड़े, ना खिलौने, यहाँ तक कि उसके आधे से ज्यादा दोस्त भी लड़के ही हैं। जाने क्यूँ लड़कियों से उसकी बहुत कम बनती हैं।

भई मुझे तो समझ नहीं आता कि इसमें शान दिखाने जैसी कौन सी बात है, बल्कि मेरे हिसाब से तो ऐसी लड़की के अभिभावकों को अपने बच्ची के ऐसे व्यवहार के प्रति थोड़ा अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। क्यूंकि जब हम किसी लड़के के मुंह से यह सब सुनते हैं कि उसको नेल पोलिश लगाने का शौक है या उसका मन फ्रॉक पहनने का करता है या गुड़ियों से खेलने का करता है तो हमारा दिमाग घूमने लगता है फिर भले ही वो कोई छोटा सा बच्चा ही क्यूँ न हो, हमें उसके मुंह से यह सब बातें अजीब लगने लगती है। फिर भले ही हमने उसे खुद छोटे में अपने मनोरंजन के लिए फ्रॉक क्यूँ न पहनाई हो :-) मगर जब हम उसके मुंह से ऐसी कोई ख्वाइश सुनते है तो हम उसे समझाने का प्रयास करने लगते है। यहाँ तक यदि वह लड़का ज्यादा रोता है या बात-बात पर रोता है तो हम उसे समझाने के लिए यह तक कह देते हैं "अरे रो मत बेटा लड़के रोते नहीं" आख़िर यह दोगला व्यवहार या दोहरी सोच क्यूँ बसी है हमारे दिमाग में ?

हमारे लिए तो लड़का और लड़की दोनों ही बराबर है खास कर छोटे बच्चे, फिर हम उनमें इस तरह का भेद भाव क्यूँ करते हैं ??? यहाँ मैं आप सभी को एक बात और बताना चाहूंगी, यह विचार पूरी तरह मेरे नहीं है क्यूंकि मैंने इस विषय को किसी और के ब्लॉग पर पढ़ा था जहां अपने ब्लॉग जगत के बहुत कम लोग पहुंचे थे अब तो मुझे उस ब्लॉग का नाम भी याद नहीं है। मगर उन्होने  इस बिन्दु पर बहुत जोरा डाला था और जहां तक मुझे याद है उन्होंने भी इस विषय में शायद टाइम्स मेगज़ीन में कहीं पढ़ा था फिर उन से भी इस विषय पर लिखे बिना रहा नहीं गया। मुझे भी बात अच्छी लगी और ऐसा लगा कि यह भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है और इस पर भी विचार विमर्श ज़रूर होना चाहिए। इसलिए मैंने भी इस विषय को चुना और आज आप सभी के समक्ष रखा अब आप बतायें क्या मैंने जो कहा वो गलत है ?

हालांकी उन्होंने तो इस विषय पर मानसिक विकृति तक की बात की मगर मैंने वो सब यहाँ बताना ज़रूरी नहीं समझा क्यूंकि यहाँ मुझे ऐसा लगा कि लड़कियों के ऐसे शौक को जब मानसिक विकृति की दृष्टि से नहीं देखा जाता तो लड़कों के ऐसे शौक को भी नहीं देखा जाना चाहिए। क्यूंकि मेरी सोच यह कहती है कि समान अधिकार की बात अलग है, उसका मतलब यह नहीं कि लड़के और लड़कियां अपना सामान्य व्यवहार ही छोड़ दें। समाज ने, बल्कि समाज ने ही क्यूँ प्रकृति ने खुद दोनों के व्यवहार में, कार्यक्षेत्र में, कुछ भिन्नता रखी है तो ज़रूर उसके पीछे भी कोई न कोई कारण रहा ही होगा। हाँ यह बात अलग है कि आज दुनिया में लोगों ने अपनी सहूलियत के मुताबिक प्रकृति के नियम ही बदल डाले। कुछ ने मजबूरी में, तो कुछ लोगों ने महज़ शौक के लिए और कुछ लोगों ने अपने अहम के कारण, उसी का परिणाम है यह समलेंगिक विवाह पहले तो यह केवल विदेशों तक ही सीमित थे। मगर अब तो अपने देश में भी यह सुनने में आने लगा है।

हालांकी दुनिया में सभी को अपने मन मुताबिक अपनी ज़िंदगी जीने का सम्पूर्ण अधिकार है। लेकिन फिर भी यह सब है तो प्रकृति के नियम के विरुद्ध ही। लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता है क्यूंकि हमें तो आदत पड़ चुकी है नकल करने की, फिर चाहे वो भारतीय सिनेमा हो या परिवेश। अपने संस्कारों को तो हम इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगभग भुला ही चुके हैं जिसका सबसे बड़ा प्रमाण है हमारा अपना मीडिया जो सरे आम खुलकर वो सब दिखा रहा है जो कभी पहले मर्यादा में हुआ करता था। क्यूंकि ऐसा तो है नहीं जो कुछ आज दिखाया जा रहा है वो पहले नहीं होता था। होता तो वह सब तब भी था मगर तब बड़ों के प्रति सम्मान हुआ करता था आँखों में शर्म हुआ करती थी। जो अब ज़रा भी नहीं बची है जिसका असर सब पर नज़र आता है। लोग इस आधुनिकता की अंधीदौड़ में इस कदर अंधे हो चुके हैं कि आधुनिक शब्द के मायने भूल गए हैं। शायद इसलिए आज हम जब लड़कियों को लड़कों की तरह व्यवहार करने पर अचरज से नहीं देखते। वह व्यवहार हमको आज के परिवेश के मुताबिक स्वाभाविक लगता है या लगने लगा है। इसलिए अब हम लड़कियों को उनके ऐसे व्यवहार के प्रति रोकते टोकते नहीं बल्कि बढ़ावा देते है। तो फिर हमें लड़कों को भी नहीं रोकना टोकना चाहिए है ना ??? मगर वास्तव में ऐसा होता नहीं है हम लड़की को भले ही जींस या पेंट पहनने से कभी न टोके मगर यदि कोई लड़का भूल से भी अगर मात्र नेल पोलिश भी लगा ले तो हम उसे ऐसे देखते हैं जैसे पता नहीं उसने ऐसा क्या कर दिया जो उसे नहीं करना चाहिए था।

खैर मैं तो बात कर रही थी दोहरी मानसिकता की, न कि आधुनिकता की, लेकिन देखा जाये तो कहीं ना कहीं आधुनिकता का असर मानसिकता पर ही तो पड़ रहा है "तो मानसिकता बदलने की जरूरत तो है", मगर आधुनिक शब्द के सही अर्थ को समझते हुए क्यूंकि आधुनिक होने का मतलब है सोच का खुलापन, ना कि खुद की पहचान बदलकर विदेशी परिवेश को अपना कर दिखावे की होड़ करना। आप सभी को क्या लगता है ????      

Monday, 24 September 2012

निर्णय


आज एक किस्सा आप सबके समक्ष रखना चाहती हूँ कहने को तो बात कम से कम शब्दों में भी कही जा सकती है। मगर यदि कम शब्दों में कहने के चक्कर में, मैं बात को ठीक तरह से कह नहीं पायी तो हो सकता है, विषय के प्रति इंसाफ न हो पाये। यूं तो बात सिर्फ निर्णय की है सिर्फ निर्णय इसलिए कहा क्यूंकि मेरी नज़र में सही या गलत कुछ नहीं होता। वह तो हर व्यक्ति के अपने नज़रीये पर निर्भर करता है कि किसको कौन सी चीज़ सही और कौन सी चीज गलत लगती है। ऐसे ही आज एक किस्से को लेकर मुझे आप सब के विचार जानने है आपका नज़रिया क्या है उस एक निर्णय के प्रति जो मैं अब आपको बताने जा रही हूँ। बात कुछ यूं है कि हम बचपन से यही देखते और सुनते आ रहे हैं कि सभी बच्चों को अपने बड़ों की बात माननी चाहिए। खासकर अपने माता-पिता की, क्यूंकि वह अपने बच्चों के विषय में जो भी सोचेंगे उसमें निश्चित तौर पर कोई न कोई अच्छाई ही छिपी होगी। जो अधिकतर मामलों में छिपी भी होती है क्यूंकि कोई भी अभिभावक अपने बच्चों का बुरा कभी नहीं सोचते इसलिए हम भी अपने बच्चों को भी वही शिक्षा देते है। मगर क्या हमेशा हमारा अपने बच्चों के प्रति लिया गया निर्णय सही ही होता है ? इसी बात से जुड़ा है यह किस्सा या एक छोटी सी कहानी....निर्णय

यह एक लड़की की छोटी सी कहानी है वह लड़की कोई भी हो सकती है इसलिए उसका कोई नाम नहीं दिया मैंने वह लड़की जिसने हमारी और आपकी तरह अपने परिवार से यही सीखा कि "जो न माने बड़ों की सीख लिए कटोरा मांगे भीख" अर्थात जो अपने माता-पिता की बात नहीं मानता उसे सदैव जीवन में पछताना ही पड़ता है और इसलिए उसने हमेशा अपनी माँ की हर बात मानी उसकी ज़िंदगी के लगभग सारे फैसले उसकी माँ ने ही किए जैसे कैसे कपड़े पहनना है, कौन सा रंग पहना है, कौन सा विषय लेना है यहाँ तक कि शादी भी, जाने क्यूँ लड़की को कभी एतराज़ नहीं हुआ अपनी माँ के द्वारा लिए हुए अपनी ज़िंदगी के फैसलों को लेकर और यदि शायद कभी हुआ भी होगा तो उसकी माँ के अनुशासन तले उसका विरोध कहीं दबकर रह गया। ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि उसके मन पर उस उपरोक्त लिखी कहावत ने बचपन से इतना गहरा प्रभाव छोड़ा था कि हर छोटी-छोटी बात में जब ऐसा कुछ होता कि उसने अपनी माँ की कही बात ना सुनी होती तो नतीजा भी विपरीत ही आता और उसकी माँ उसे यही समझती देख मैंने कहा था न ऐसा मत करना वरना यह हो जाएगा, मगर तू नहीं मानी, अब हुआ न वही जो मैंने कहा था।

ऐसे में लड़की को धीरे-धीरे यह बात सच लगने लगी मगर अब लड़की का जीवन अलग है। अब उसकी शादी हो चुकी है उसका एक बेटा भी है खुश किस्मत है वह कि सब कुछ अच्छा मिला है उसे, भरा पूरा घर परिवार और एक बहुत प्यार करने वाला पति, लेकिन एक संतान के बाद उसकी ज़िंदगी में दो और संतानों का मौका आया मगर वह दोनों ही संताने उसके जीवन में आ ना सकी। क्यूंकि दोनों ही बिना सोचे समझे हो जाने वाली भूल का नतीजा थी। इसलिए इस संबंध में भी लड़की की माँ ने लड़की की आयु या यूं कहें कि परिस्थित को देखते हुए उसे गर्भपाथ का ही सुझाव दिया। लड़की ने इस विषय में कोई भी कदम उठाने से पहले अपने पति से भी पूछा और पति ने भी यह कहा तुम देख लो जो भी तुम्हारा निर्णय होगा मैं उसमें राजी हूँ। उसके पति का ऐसा कहने के पीछे शायद उसके मन में दबी यह भावना थी कि कहीं ऐसा न हो कि आगे जाकर कोई बात हो और ज़िंदगी भर मुझे यह सुनना पड़े कि तुम्हारे कारण ही ऐसा हुआ। मगर आज दोनों ज़िंदगी के जिस मोड़ पर खड़े हैं, वहाँ आज उनकी इकलौती संतान बड़ी हो रही है और लड़की को उसकी आँखों में आज अपनी गलती की झलक दिखाई देती है। उसका बेटा उसे कभी क़हता तो कुछ नहीं है, मगर कहीं उसके दिल में यह सवाल आता है कि माँ आप लोगों ने मुझे अकेला क्यूँ रखा औरों कि तरह मेरा भी कोई भाई या बहन क्यूँ नहीं है लड़की को समझ नहीं आता कि वो अपने बेटे के उस सवाल का क्या जवाब दे। यह सब सोचते हुए लड़की को कई बार यह ख़याल आता है कि क्या उसने अपनी माँ की बात मानकर सही किया या फिर माँ बाप के द्वारा अपने बच्चों के लिए गए निर्णय हमेशा सही नहीं होते, कभी-कभी माँ-बाप का एक गलत फैसला बच्चों को ज़िंदगी भर पश्चाताप करने के लिए मजबूर भी कर सकता है।

वैसे मेरा मानना तो यह है कि संतान से संबन्धित कोई भी फैसला लेने का अधिकार केवल माता-पिता को है इसलिए उन्हें यह निर्णय एक दूसरे से सहमत होने के बाद ही लेना चाहिए। यदि दोनों में से कोई एक भी दूसरे से सहमत न हो तो इस बारे में नहीं सोचना चाहिए क्यूंकि महज़ अपने किए की सज़ा किसी मासूम को देने का अधिकार आपको नहीं वो भी उसे जो अभी ठीक तरह से इस दुनिया में आया भी नहीं, यह कोई महज़ ज़िंदगी के उतार चढ़ाव का दूसरा नाम नहीं है बल्कि यह किसी की ज़िंदगी से जुड़ा अहम सवाल है जिसका असर परिवार के हर एक सदस्य पर पड़ता है चाहे वो छोटा बच्चा ही क्यूँ ना हो पुराने जमाने की बात अलग थी जब अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से ऐसी बातें बड़ी आसानी से छिपा लिया करते थे। क्यूँकि उस जमाने में एक नहीं दो नहीं बल्कि 4-5 बच्चों का ज़माना हुआ करता था। साथ ही संयुक्त परिवार भी जिसके कारण लाख आपसी मत भेद होने के बावजूद भी किसी को अकेला पन महसूस नहीं होता था।   

लेकिन यह आज की कहानी है, आज की बात है क्यूंकि आज तो एक ही संतान को अच्छे से पढ़ा लिखाकर एक सभ्य इंसान बनाना ही किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है ...ऐसे में क्या उस लड़की का अपनी माँ की बात मानने का निर्णय सही था या गलत। यदि गलत था तो फिर अब हमें अपने बच्चों को यह सीख देना बंद कर देनी चाहिए कि बड़ों का अपने बच्चों के प्रति लिया गया निर्णय हमेशा सही होता है या फिर बचपन से ही उन्हें अपना हर छोटा बड़ा निर्णय स्वयं लेने की आज़ादी दे देनी चाहिए, वह भी बिना किसी दखल अंदाजी के, क्यूंकि इस पूरी कहानी में केवल वो लड़की ही गलत थी, ऐसा मुझे कहीं नहीं लगा जो भी हुआ उसकी जिम्मेदार अकेली वह नहीं बल्कि उसे जुड़े सभी लोग हैं। फिर चाहे वो उसकी माँ हो या पति या फिर वो खुद क्या अब यह सब जानकार आप बता सकते हैं कि अपनी उन दोनों अनचाही संतानों के प्रति लिया गया उसका निर्णय सही था या गलत क्या उसे अपनी उन दोनों संतानों को दुनिया में आने देना चाहिए था ?? आप को क्या लगता है ??                      

Wednesday, 19 September 2012

दोस्ती - एक प्यारा सा बंधन ...


दोस्ती क्या है एक इन्द्रधनुष के रंगो सा रिश्ता, या फिर एक खुले आसमान सा रिश्ता, पंछियों के मधुर कलरव  सा रिशता, झगड़ा करके फिर खुद ही रोने का रिश्ता, पूजा की थाली में रखे दीपक की लौ सा पावन रिश्ता या फिर भगवान के चरणों में चढ़े फूलों सा रिश्ता, कभी अल्हड़ नदी सा मनचला रिश्ता, तो कभी बहती हवा सा बहकता सा रिश्ता, या फिर फूलों की सुंगंध सा महकता रिश्ता, कभी अर्पण का रिश्ता तो कभी तर्पण का रिश्ता.. यानि कुल मिलाकर रिश्ता एक रूप अनेक, :-) दोस्ती के इस एक रिश्ते में न जाने कितने रंग छिपे हैं ज़िंदगी के, तभी तो है यह दोस्ती है एक प्यार सा बंधन। फिर भी कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि एक लड़का और एक लड़की कभी अच्छे दोस्त नहीं हो सकते। यदि उनमें दोस्ती है भी तो आगे जाकर उनकी यह दोस्ती प्यार में बदल ही जाती है। काफी मामलों में यह देखा भी गया है और रही सही कसर पूरा कर देतीं है, हमारी यह फिल्में जो एक तरफ दोस्ती जैसे पाक साफ रिश्ते को कभी बड़ी खूबसूरती से हमारे सामने लाती हैं "जय और वीरू" के रूप में तो कभी यही फिल्में "कुछ-कुछ होता है" के रूप में यह कहती नज़र आती है कि यदि कोई आपका अच्छा दोस्त नहीं बन सकता तो आप उससे प्यार कर ही नहीं सकते क्यूंकि प्यार दोस्ती है।

सच है प्यार दोस्ती है मगर प्यार का भी तो केवल एक ही रूप नहीं होता ना, यहाँ इन फिल्मों का उदाहरण मैंने इसलिए नहीं दिया कि मुझे लड़के या लड़की कि दोस्ती पर कोई सवाल जवाब करना है मेरा मतलब यहाँ सिर्फ दोस्ती से है फिर चाहे वो लड़के लड़की हो या लड़कों-लड़कों की हो या फिर दो सहेलियों की बात केवल दोस्ती की है। इसलिए मुझे तो आज तक यह बात न कभी सच लगी थी, ना लगी है और ना कभी लगेगी। मेरी नज़र में दोस्ती जैसे रिश्ते को कभी शब्दों में ढाल कर व्यक्त नहीं किया जा सकता। क्यूंकि दोस्ती में जो एहसास जो जज़्बात आप महसूस करते हैं वही एहसास कोई अगला व्यक्ति तभी महसूस कर सकता है जब उसने भी अपने जीवन में कोई सच्चा दोस्त बनाया हो, या पाया हो। क्यूंकि दोस्त वो है जो ज़िंदगी के हर मोड़ पर आपका साथ दे फिर चाहे आप थोड़ा बहुत गलत ही क्यूँ ना हो वैसे तो दोस्त का काम है आपका सही मार्ग दर्शन करना। लेकिन कई बार सोचने वाली बात यह हो जाती है कि आपके दोस्त का मानसिक स्तर भी तो वही है जो आपका है तभी तो आप एक दूसरे के पक्के दोस्त बन पाते हैं फिर यदि आप खुद सही और गलत का फैसला नहीं कर पा रहे हैं तो वह भला कहाँ से करेगा ऐसे हालातों में कई बार ऐसा भी तो होता है जब सारी दुनिया एक तरफ हो जाती है और आप खुद को अकेला महसूस करने लगते हैं ऐसे में यदि आपका साथ कोई देता है तो वो होते हैं दोस्त, जो यह कहते हैं तू कर यार, जो होगा वो सब साथ मिलकर देखेंगे मतलब जीवन में हर कदम पूरे विश्वास के साथ आपके पीछे खड़े रहने वाला आपका अपना दोस्त जो आपकी खुशी में खुश और आपके गम में दुखी भी होता है।  

तभी तो दोस्ती या दोस्त एक ऐसा शब्द जिसके ज़हन में आते ही आपके होंठों पर स्वतः ही एक मधुर मुस्कान आ जाती है। शायद इसलिए दुनिया में दोस्ती से अच्छा और सच्चा दूजा कोई रिश्ता नहीं क्यूंकि बाकी रिश्ते तो हमें विरासत में मिलते हैं मगर दोस्त हम खुद चुनते है। वैसे यह बात काफी घिसी पिटी सी लगती है। मगर सच तो यही है और मुझे यह रिश्ता बहुत पसंद है क्यूंकि इसमें कोई लड़के-लड़की का भेद भाव नहीं होता। अगर कुछ होता है तो वो है सिर्फ दोस्ती आपसी समझ जो एक सच्चे और अच्छे दोस्त की सबसे पहली निशानी होती है और सबसे अहम बात तो यह होती है कि दोस्ती वो रिश्ता है जिसे कभी जबर्दस्ती नहीं निभाया जा सकता। खैर अच्छे दोस्त तो फिर भी बहुत आसानी से मिल जाते है इस दुनिया में, मगर सच्चा दोस्त बहुत ही किस्मत वालों को बड़े नसीब से मिल पाता है। दोस्त इसलिए कहा क्यूंकि सच्चा दोस्त केवल एक ही व्यक्ति हो सकता है क्यूंकि दोस्तों के समूह के नाम पर भले ही आपके गिने चुने दोस्त हों मगर उन सब में से भी कोई एक ऐसा ज़रूर होता है जिसे आप बाकी सभी दोस्तों की तुलना में अपने आप से ज्यादा करीब महसूस करते है।

आप भी सोच रहे होंगे आज तो friend ship day भी नहीं है फिर क्यूँ मुझे दोस्ती या दोस्तों याद आ रही है। मगर याद पर भला किसका बस चला है याद का क्या है वो तो कभी भी किसी भी वक्त आ सकती है। मेरे भी कुछ दोस्त हैं जिन्हें न जाने क्यूँ आज मैं बहुत याद कर रही हूँ। वैसे कहने को तो मेरे भी बहुत दोस्त ऐसे हैं जिन्हें मैं अपना करीबी मानती हूँ। लेकिन लोग कहते हैं कि आपका बहुत अच्छा दोस्त बनाना तो बहुत ही आसान है क्यूंकि आप बहुत ही आसानी से लोगों में हिल मिल जाती है। हो सकता है यहाँ आपको लगे कि मैं अपनी तारीफ खुद ही कर रही हूँ यानि "अपने मुंह मियां मिट्ठू" लेकिन वास्तविकता यह है कि लोगों को शायद लगता हो कि वो मेरे करीबी दोस्त बन गए हैं या मैं उनको अपना करीबी दोस्त समझने लगी हूँ। मगर मेरे करीबी दोस्त तो मेरे दिल के करीब है वो आज भी 3-4 ही हैं, जिन्हें मैं यहाँ रहकर बहुत मिस (Miss) करती हूँ।

जिनमें से मेरा एक ओर दोस्त है शिव कहने को वह मेरे भईया का दोस्त है मगर उससे मेरी दोस्ती ज्यादा अच्छी है। यूं तो वो मुझसे 7-8 साल बड़ा है लेकिन फिर भी हमारे बीच की आपसी समझ बहुत पक्की है इसलिए मैंने कभी उन्हें बड़े होने के नाते वो सम्मान ही नहीं दिया जो देना चाहिए था, बल्कि हमें कभी यह उम्र का फासला महसूस ही नहीं हुआ, उनको कई बार मैंने कहा तुम्हारी उम्र शादी लायक हो गयी है। न्यू मार्केट आ जाना, न्यू मार्केट यानि भोपाल का ऐसा बाज़ार जो, भोपाल चाहे जितना पुराना हो जाये मगर वहाँ का यह न्यू मार्किट कभी ओल्ड नहीं होता। खैर जैसा मैंने कहा कि मैं उनको वहाँ बुलाया करती थी यह कहकर कि वहाँ जो आइसक्रीम पार्लर है न, वहाँ मिलना एक से एक लड़कियां आती हैं वहाँ जिसे भी पसंद करोगे अपन सीधा उसके घर पर धावा बोल देंगे, तो वो कहता था हाँ मुझे पता है वहाँ सब "प्लग पाने" बोले तो मनचले लोग ही आते है एक वही जगह मिली ही तुझे लड़की पसंद करवाने के लिये। ऐसे कामों में बड़ा दिमाग चलता है तेरा, तो मैं हमेशा यही कहती थी चलो इसका मतलब कम से कम मुझ में दिमाग तो है तुझ में तो वो भी नहीं है। हा हा हा :-)

एक दोस्त और है मेरा संजीव कहने को वो मेरे देवर का दोस्त हैं और हम कभी आज तक आमने-सामने मिले भी नहीं है मगर फिर भी जब मेरी उससे पहली बार फोन पर बात हुई तो उसने मुझसे कहा यार आप कहाँ थे भाभी। आपको तो हमारे साथ कॉलेज में होना चाहिए था बहुत जमती अपनी, आपसे बात करके ऐसा लगा जैसे हमारे दिमाग को तो जंग ही लग गयी थी, बहुत दिनों बाद कोई ऐसा मिला है। खैर देर आए दुरुस्त आए याद रखिएगा बहुत जमने वाली है अपनी....:) बहुत अखरता है कभी-कभी यह सब कुछ मुझे, बहुत कमी महसूस होती इस अपनेपन की क्यूंकि शायद इस मामले में मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हूँ।  

वह भी शायद इसलिए कि यहाँ रहकर कई बार ऐसा होता है मेरे साथ कि दिल के अंदर मन के किसी कोने में बहुत सारी ऐसी बातों का जमावड़ा एकत्रित हो जाता है, जिसे हम सार्वजनिक रूप से बांटने के बजाये केवल अपने उस खास दोस्त के साथ ही बांटना चाहते है। भले ही वह कितनी भी साधारण बातें ही क्यूँ न हो। कई बार ऐसा लगता है जैसे दिल एक डायरी हो और उस पर वो बातें जिन्हें हम अपने उस खास दोस्त के साथ बांटना चाहते है अपने आप ही किसी ऑटोमैटिक टाइप रायटर की तरह दिल के कागज़ पर छपती चली जाती है और हर बार हम यही सोचते है की इस बार वो जब मिलेगा / मिलेगी न तो उसे यह बताना है। ऐसा सोचते-सोचते न जाने कितनी बातें उस दिल के कागज़ पर उतर जाती है कुछ को तो हम खुद भी भूल जाते है और कुछ याद रह जाती है ठीक उस गीत की चंद पंक्तियों की तरह

आते जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पर 
कभी-कभी इत्तफ़ाक से कितने अंजान लोग मिल जाते है 
उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं 
कुछ याद रह जाते हैं ... 

यक़ीनन आप लोगों के साथ भी कई बार ऐसा ही होता होगा है ना, खैर मज़े की बात तो यह है कि जब वो दोस्त हमें मिलता है तो उस वक्त तो जैसे समय को दो और एक्सट्रा पंख लग जाते है और पलक झपकते ही वक्त का पंछी उड़ जाता है। खासकर तब, मुझे अक्सर ऐसा महसूस होता है कि जैसे किसी ने दिल की किताब से वो बातों का पन्ना गायब ही कर दिया हो और हम उन बातों को छोड़कर गड़े मुर्दे ही उखड़ते चले जाते है या फिर इधर-उधर की जाने कहाँ-कहाँ की बात कर लिया करते हैं अपने उस दोस्त के साथ मगर जो सोचकर रखी हुई बातें होती है उन में से शायद ही कुछ बातें ऐसी होती है जो हम वास्तव में उसके साथ बांटना चाहते थे और फिर उस दोस्त के जाने के बाद जब फिर याद आता है वो हर एक पल जो हमें उसके साथ गुज़रा तो लगता है अरे यह तो बताया ही नहीं उसे यही तो सबसे खास बात थी जो उसे कहनी थी और उस वक्त भी हम खुद को कभी पहले दोष नहीं देते, आदत के मुताबिक :-) यही निकलता है मुंह से, कि देखा गधे/गधी के चक्कर में मैं भी भूल गयी कि मुझे क्या कुछ कहना था उससे, नालायक कहीं का/की उल्लू की दुम :-) इस शब्दों के लिए माफी चाहूंगी मगर करीब दोस्त के लिए अक्सर ऐसे ही शब्दों का प्रयोग हो जाता है। कई बार तो इसे भी ज्यादा ....मगर उन सब का प्रयोग करना यहाँ उचित नहीं :)

मगर उस हर दिल अजीज़ से मुलाक़ात के बाद जब उस मुलाक़ात कर हर लम्हा दिमाग में किसी फिल्म की तरह चलता है। तब बहुत याद आते हैं वो हसीन लम्हे जो उसके साथ गुज़ारे थे कभी जैसे उस तीखे समोसे पर डली खट्टी चटनी जिसको एक ही प्लेट में खाने की ज़िद भी रहा करती थी और फिर समोसे और चटनी का बटवारा और केंटीन की चाय और कॉफी जिसे बातों के चक्कर में हमेशा ठंडा कर दिया जाता था और जब कॉलेज  ख़तम हो गये तो CCD (कैफ़ कॉफी डे) में मिलना तय रहता था और यदि वो न मिली तो कोई सा भी आइसक्रीम पार्लर भी चलता था या फिर वो गली के नुक्कड़ पर बिकती कुल्फी का ठेला सच कहूँ त उसी में सबसे ज्यादा मज़ा आता था, उन दिनों दोस्तों के साथ खाने पीने का मज़ा ही कुछ और होता था। अब तो बस सब यादें हैं। मगर दोस्त आज भी वही है और हमेशा वही रहेंगे।

यूँ तो आज के इस आधुनिक युग में दोस्तों से जुड़े रहने के बहुत सारे उपाए और सुविधाएं है। मगर साथ में आमने सामने बैठकर उस खास दोस्त से मिलना, घंटो बतियाना बात-बात में उसे एक चपत लगा देना कभी-कभी तो पूरी-पूरी रात जागते हुए बातें करना बातें करते -करते ही सो जाना, सुबह नाशते के लिए झगड़ा एक ही प्लेट से खाना भी है मगर पसंद अलग-अलग भी रखनी है यह सब मैं इसलिए बता रही हूँ क्यूंकि मेरी एक दोस्त है  सारिका उर्फ स्वीटी जो अक्सर पहले मुझसे मिलने आने के बाद मेरे घर ही रुक जाया करती थी तब भी यही होता था जो उपरोक्त कथन में मैंने लिखा है। मगर अब उसकी भी शादी हो चुकी है जिस की वजह से अब हमारा साथ रहना संभव नहीं हो पाता इसलिए हम कुछ घंटों के लिए ही मिल पाते हैं और वो मिलना मुझे ऐसा लगता है जैसे "ऊंट के मुंह में जीरा" फिर भी शुक्र इस बात का है कि वो आज भी भोपाल में ही रहती है। जिससे मैं आसानी से उससे मिल पाती हूँ। वरना अलग से मिलने जाना बहुत मुश्किल होजाता है खासकर जब ,जब साल में एक बार इंडिया आना हो इस मामले में मुझे मेरी मम्मी की एक बात बहुत सही लगती है उसका कहना है कि बहने तो फिर भी शादी के बाद नाते रिशतेदारों की शादी ब्याह या तीज त्यौहार पर मिल ही लिया करती हैं।मगर दोस्त बहुत कम मिल पाते हैं।   

शायद इसलिए मुझे जब भी कभी उसकी याद आती है तो एक टीस सी उठती है कि यह देश की दूरियाँ वास्तव में कितनी दूरियाँ ले आती है इंसान के जीवन में घर परिवार तो छूट ही जाता है साथ ही छूट जाते है वो यार दोस्त जिनके बिना सांस लेना भी मुनासिब नहीं था कभी, यूँ तो आज भी फोन पर घंटो बतिया सकते है हम, और बतियाते भी हैं। मगर उसमें वो मज़ा नहीं जो हमें चाहिये और यह सब सोचने पर बस एक ही गीत है जो मेरे ज़हन में आता है। 
दिये जलते हैं, फूल खिलते है 
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्त मिलते है
जब जिस वक्त किसी का यार जुदा होता है
कुछ ना पूछो यारों दिल का हाल बुरा होता है
दिल में यादों के जैसे दीप जलते हैं.....

सच ही कहते हैं लोग आदमी नाते रिशतेदारों के बिना एक बार ज़िंदा रह सकता है मगर दोस्तों के बिना नहीं दोस्तों की ज़रूरत तो हर कदम पर पड़ती है हाँ यह बात अलग है कि कुछ दिल के करीब होते हैं तो कुछ सिर्फ कहने के लिए। मगर हमारी ज़िंदगी में आने वाला हर इंसान हमें कुछ न कुछ ज़रूर सिखा जाता है इसलिए दुनिया के सभी दोस्तों को और दोस्ती के इस पावन रिश्ते को मेरा सलाम ..... 

Friday, 14 September 2012

हादसे और ग्लानि


हादसा जैसे किसी एक दुःख़ या तकलीफ़ का दूसरा नाम है शायद आपको याद हो बहुत पहले भी मैंने इसी विषय पर एक पोस्ट लिखी थी जिसमें मैंने भोपाल गैस कांड और बावरी मस्जिद का ज़िक्र किया था। मगर आज इस विषय पर लिखने का कारण कुछ और ही है और वह कारण है ग्लानि।आज भी जगह-जगह होते हादसे और दुर्घटनाएँ आतंकवादी गतिविधियाँ जिसमें हजारों क्या बल्कि लाखों बेगुनाह और मासूम लोगों की जाने चली चली जाती है। कई सारे परिवार अपने प्रियजनो को खो बैठते है। सिर्फ कुछ लोगों की लापरवाही के कारण आतंकवादी हमलों में तो फिर भी कुछ न कुछ मकसद छिपा होता है। भले ही वो कितना भी बुरा मकसद ही क्यूँ न हो, लेकिन दुर्घटनाओं में ऐसा कुछ नहीं होता खासकर आजकल रोज समाचार पत्रों में छपने वाली कोई न कोई बड़ी घटना जैसे कहीं रेल का पटरी पर से उतर जाना, तो कहीं डब्बों में आग लग जाना, या फिर सड़क चलते वाहनों के द्वारा फुटपाथ पर सोते हुए गरीब और बेसहारा लोगों को कुचला जाना, या बड़े स्तर पर विमान  दुर्घटनाएँ होना। यह सभी ऐसी ही स्वाभाविक या यूं ही अचानक घट जाने वाली घटनाओं सी नहीं जान पड़ती इनका विवरण पढ़ने के बाद दिमाग में यही एक पहला ख़्याल आता है कि किसी न किसी की ज़रा सी लापरवाही ही एक बड़ी दुर्घटना का कारण बन जाती है। जैसे एक चिंगारी किसी बड़े अग्निकांड का रूप ले लेने  में सक्षम होती है जो सोचने पर विवश कर ही देती हैं। किन्तु फिर भी हम उसके प्रति सचेत नहीं होते क्यूँ ?

जैसे आज ही की बात ले लीजिए तमिलनाडु में पटाखों के कारखाने में आग लग गयी जिसमें 30 लोगों की जान चली गयी ऐसा अपने आप तो नहीं हो सकता किसी न किसी की गलती ज़रूर रही होगी। जिसका खामियाज़ा उन 30 बेगुनाह लोगों को अपनी जान देकर भुगतना पड़ा। इसी तरह हर साल दिवाली पर लोग पटाखों की वजह से गंभीर रूप से घायल हो जाते है कभी खुद की लापरवाही के कारण तो कभी दूसरों के मज़ाक के कारण मगर इन सब हादसों या दुघटनाओं को यहाँ आप सब के बीच ज़िक्र करने का मेरा मकसद इन हादसों पर प्रकाश डालना नहीं है। बल्कि मेरा प्रश्न तो यह है कि क्या ऐसे किसी हादसे के बाद लोगों को अपने किए पर सारी ज़िंदगी कोई ग्लानि रहती है या नहीं ? या सिर्फ मुझे ही ऐसा लगता है। क्यूंकि आपके कारण जाने-अंजाने कोई मासूम या बेगुनाह अपनी जान से हाथ धो बैठे इससे बड़ा ग्लानि का कारण और क्या हो सकता है एक आम इंसान के लिए।

मैं तो यह सोचती हूँ जब नए-नए डॉक्टर के हाथों किसी मरीज की मौत हो जाती है तब उन्हें कैसा लगता होगा। क्या वह डॉक्टर उसे होनी या अनुभव का नाम देकर आसानी से जी लिया करते है। हालांकी कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज की जान जानबूझकर नहीं लेता। मगर हर डॉक्टर की ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसा मौका ज़रूर आता है खासकर सर्जन की ज़िंदगी में, जब जाने अंजाने या परिस्थितियों के कारण उनके किसी मरीज की मौत हो जाती है। तब उन्हें कैसा लगता है और वो क्या सोचते हैं। वैसे तो आज डॉक्टरी पेशे में भी लोग बहुत ही ज्यादा संवेदनहीन हो गए हैं जिन्हें सिर्फ पैसों से मतलब है मरीज की जान से नहीं, खैर वो एक अलग मसला है और उस पर बात फिर कभी होगी या फिर यदि उन लोगों की बात की जाये जो बदले की आग में किसी पर तेज़ाब फेंक दिया करते है। क्या ऐसा घिनौना काम करने के बाद भी वो उस व्यक्ति के प्रति ग्लानि महसूस करते होंगे ? शायद नहीं क्यूंकि यदि ऐसा होता तो शायद वो इतना घिनौना काम करते ही नहीं मगर क्या ऐसे लोग उस हादसे को महज़ एक होनी समझ कर भूल जाते है ? या ज़िंदगी भर कहीं न कहीं दिल के किसी कौने में उन्हें इस बात की ग्लानि रहा करती है कि उनकी वजह से किसी की ज़िंदगी बरबाद हो गयी या जान चली गयी क्या इस बात का अफसोस उन्हें रहा करता है ? क्या ऐसे पेशे में यह बात इतनी साधारण और आम होती है जिस पर बात करते वक्त उस हादसे से जुड़े लोगों के चहरे पर किसी तरह का कोई अफसोस या एक शिकन तक नज़र नहीं आती।

कितनी आसानी से लोग उस हादसे के बारे में अपने साक्षात्कार के दौरान उस हादसे से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी देते नज़र आते हैं कि किन कारणों कि वजह से यह हादसा हुआ। एक दिन ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे उन लोगों को देखकर ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यह लोग खुद की सफाई दे रहे हो, कि इन हादसों के पीछे जिम्मेदार हम नहीं तकनीक थी जिसके चलते आप इन हादसों का जिम्मेदार केवल हमें नहीं ठहरा सकते। मुझे तो वह कार्यक्रम देखकर ऐसा भी लगा जैसे वह लोग अपने ज़मीर को समझाने के लिए खुद को बेकसूर थे हम, यह समझाने का एक असफल प्रयास कर रहे हों। मगर फिर दूसरे ही पल मुझे यह ख़्याल भी आया कि आखिर कुछ भी हो, हैं तो वो भी इंसान ही। हो न हो उनको भी अंदर ही अंदर अपने दिल के किसी कोने में इन हादसों का अफसोस ज़रूर रहता होगा कि उनकी ज़रा सी लापरवाई का खामियाज़ा इतने सारे बेकसूर लोगों को अपनी जान देकर भुगतना पड़ा।

मगर सोचने वाली बात है लापरवाही एक बार हो तो फिर भी समझ आता है। लेकिन वही गलती दूसरे रूप में फिर दुबारा हो तो उसे क्या कहेंगे आप ??जैसा की अपने इंडिया में आए दिन होता रहता है एक दिन भी ऐसा नहीं गुज़रता यहाँ जब समाचार पत्रों या टीवी न्यूज़ चैनलों पर ऐसी कोई बड़ी दुर्घटना की कोई ख़बर न हो और जब आप अपने आसपास के लोग पर इन विषयों पर बात करो तो एक अलग ही नज़रिया सामने आता है लोग कहते है अरे इतना बड़ा देश है अपना, यह सब तो चलता ही रहता है और वैसे भी बढ़ती जनसंख्या का बोझ पहले ही कम नहीं देश के नाजुक कंधों पर, ऐसे हालातों में यदि 100 ,50 लोग मर भी गए तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता। क्या पता प्रकृति इसी तरह संतुलन बनाए रखने की कोशिश करती हो।यह सब सुनकर दो मिनट के लिए तो मेरे जैसों का चेहरा आवाक सा रह जाता है। जिस देश के लोग ही अपने आप में ऐसा महसूस करते हों वहाँ भला किसी को क्या फर्क पड़ेगा और क्या ग्लानि होगी। यह तो कुछ वैसी ही बात हुई जैसे वो कहावत है न

"जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई"

क्या वाकई ऐसे हादसों के बाद भी ज़िंदगी इतनी आसान होती है, उन लोगों के लिए जो कहीं न कहीं जाने अंजाने जुड़े होते हैं इन हादसों से जो जिम्मेदार होते हैं, इन हादसों के, जिनकी वहज से न जाने कितने बेगुनाह और मासूम लोग बिना किसी कारण मौत के घाट उतर जाते है। न जाने कितने हँसते खेलते परिवार उजड़ जाते है। बात केवल दुर्घटनाओं की नहीं बल्कि आम ज़िंदगी में होने वाली सभी छोटी बड़ी दुर्घटनाओं से जुड़ी है। फिर चाहे वो कोई चलती सड़क पर होता कोई हादसा हो, या रेल दुर्घटना, या कोई भी ऐसा हादसा जिसे कोई जान बूझकर नहीं करता। मगर जिसके होने से लाखों परिवार उजड़ जाते है। ऐसे हादसे होने के बाद भी क्या उन लोगों के मन में कभी इस बात की ग्लानि रहती है कि उनकी वहज से ऐसा कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था। यूं तो ग्लानि का कोई उपाय नहीं वो तो एक आग की तरह होती है जिसमें सारी ज़िंदगी धुआँ-धुआँ होकर जला करता है इंसान का मन, जिसका कोई उपचार नहीं। मगर कितने लोग हैं ऐसे जिन्हें वास्तव में ग्लानि होती है। इस बात की, कि उनकी वहज से किसी बेगुनाह और मासूम की जान गयी फिर चाहे वो कोई इंसान रहा हो या जानवर...

वैसे देखा जाये तो जाने वाला चला जाता है, लेकिन उसके जाने से ज़िंदगी नहीं रुकती न ठहरती है कहीं, मगर मुझे ऐसा लगता है कि किसी अपने के जाने से जैसे दिल के अंदर की कोई एक धड़कन मन में अटक कर रह जाती है। जिसे यादों का सैलाब बार-बार आकर झँझोड़ता है, निकाल बाहर करने के लिए। मगर उस शक्स से जुड़ी यादों का आवेग उस धड़कन को बाहर आने ही नहीं देता कभी और सारी ज़िंदगी हमें उस इंसान की याद दिलाता रहता है उन जख्मों को तो वक्त का मरहम भी सुखा नहीं पाता कभी, कहने को हम बाहर से एक सूखे हुए ज़ख्म पर पड़ी बेजान खाल की पपड़ी की तरह नज़र आते है। मगर अंदर से वो ज़ख्म वास्तव में कभी सूखता ही नहीं....तब हम कैसे कह सकते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये ज़िंदगी किसी के लिए नहीं रुकती वो तो निरंतर चलती ही रहती है एक बहती हवा की तरह, एक बहती नदी की तरह, जो आगे बढ़ने के साथ अपने साथ लिए चलती इंसान के अच्छे बुरे पल।

मगर क्या वाकई ऐसे हादसों के बाद ज़िंदगी चलायमान रहती है?? या  यह भ्रम मात्र होता है हमारे मन का कि जी रहे है हम उनकी यादों के सहारे, मेरा ऐसा मानना है कि कोई किसी कि यादों के सहारे नहीं जी सकता। यह सिर्फ कहने की बातें हैं जो किताबों में अच्छी लगती हैं वास्तव में ऐसा नहीं होता। क्यूंकि यादें यदि अच्छी होती है, तो बुरी भी होती है। इंसान को अपने दुखों के साथ यदि जीना पड़े तो उसके पीछे भी ज़िंदगी का कोई मक़सद होना ज़रूर होता है। बिना किसी मक़सद या ज़िम्मेदारी के जीवन जिया नहीं जा सकता। खासकर किसी ऐसे हादसे से जुड़ी कोई ग्लानि के साथ कम से कम मेरे जैसे लोग तो नहीं जी सकते। यह मेरी सोच है आपको क्या लगता है।  

Saturday, 8 September 2012

परिवर्तन


परिवर्तन जीवन का दूसरा नाम है क्यूंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है, कहते हैं समय के साथ बदल जाना ही समझदारी की निशानी है क्यूंकि समय कभी एक सा नहीं रहता। इन्हीं कहावतों के चलते आइये आज बात करें शिक्षा के क्षेत्र में आये कुछ परिवर्तनों पर, युग बदला, बदला हिंदुस्तान जिसके चलते इंसानी जीवन में न जाने कितने अनगिनत बदलाव आये जो आज हमारे सामने है। जिन्होंने इंसानी जीवन के हर एक पहलू को छुआ फिर क्या समाज और क्या ज़िंदगी, इस ही बात को मद्देनज़र रखते हुए हम बात करते है अपनी शिक्षा प्रणाली की, क्यूंकि शिक्षा ही सच्चे जीवन का आधार है ऐसा मेरा मानना है। क्यूंकि ज्ञान ही सभी भेद भाव मिटाकर आपको आपका सच्चा हक़ दिला सकता है। :-)


अब बात करते हैं शिक्षा प्रणाली में आये हुए परिवर्तनों पर पहले हमारे देश में शिक्षा के लिए गुरुकुल की  व्यवस्था थी जो आज कि वर्तमान स्थिति को देखते हुए शायद सबसे अच्छी परंपरा थी, फिर उसके बाद स्कूल का चलन शुरू हुआ, जो आज भी बरक़रार है, किन्तु वहाँ अब ज्ञान की वर्षा नहीं केवल प्रतिस्पर्धा का माहौल है। जहां केवल ज्यादा से ज्यादा फ़ीस लेकर ज्यादा से ज्यादा अंक कैसे प्राप्त करने हैं केवल यह सिखाया जाता है। लेकिन उन अंकों को हासिल करने के पीछे जिस ज्ञान का रट्टा लगवाया जाता है। वह विद्यार्थी के मनस पटल पर कितना उतरा, उतरा भी या नहीं इस बात से ना तो शिक्षक को मतलब है और ना ही स्वयं विद्यार्थी को कोई लेना देना। 

ऐसे हालातों में अक्सर ऐसे बच्चे जो वास्तव में पढ़ना चाहते हैं, किन्तु अभिभावकों की आमदनी कम होने के कारण पढ़ नहीं पाते अर्थात आर्थिक तंगी के कारण वह चाह कर भी वो सब हासिल नहीं कर पाते जो वो करना चाहते हैं, जिसके वह वास्तव में सच्चे हकदार है। फिर चाहे वह शुरुआती शिक्षा हो या आगामी उच्च शिक्षा ऐसे हालातों में ऑनलाइन शिक्षा पद्धति के बारे में सोचना आपको शायद हास्यपद लगे। क्यूंकि हमारे देश में जनसंख्या के स्तर पर देखें तो एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जिन्हें आज भी दो वक्त का खाना तक ठीक से नसीब नहीं है। ऐसे में भला वह बेचारे क्या जाने की कंप्यूटर क्या है और कैसे काम करता है। लेकिन फिर भी जो लोग पढ़ना चाहते हैं वास्तव में ज़िंदगी में कुछ कर दिखाना चाहते है वो यदि इस विकल्प पर ध्यान दें तो सच में वह अपने जीवन में सफलता के मार्ग पर बहुत आगे जा सकते है। क्यूंकि मेरी नज़र में यह एक बहुत ही अच्छा विकल्प है जिसमें पैसे कमाने के साथ-साथ शिक्षा प्राप्त करने का भी साधन है और ऐसे में यदि इस क्षेत्र में आज की तारीख में कोई नाम उभर कर सामने आता है तो वह है Dewsoft जो एक ऐसी संस्था का नाम है जिससे शायद आप भी वाक़िफ़ होंगे।


जाहिर सी बात है की यह नाम पढ़ते ही आपके दिमाग में सबसे पहला प्रश्न यही आया होगा कि Dewsoft ही क्यूँ ? है ना तो इसका भी जवाब है मेरे पास :) Dewsoft एक भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी है। यह भारत में ई-लर्निंग की सबसे बड़ी संस्थाओं में से एक है यह दुनिया भर में 20,000,00 से अधिक संतुष्ट ग्राहकों की आवश्यकताओं का ध्यान रखती है कंपनी और इसके प्रमोटर दुनिया भर की प्रतिष्ठित परियोजनाओं पर काम करते हैं यह योजना सरकार के साथ कई प्रतिष्ठित परियोजनाओं पर भी काम करती है केवल इतना ही नहीं 12 साल से अधिक वर्षों के अनुभ के साथ कुशल प्रबंधन और सभी आयु समूहों के लिए 200 से अधिक डिज़ाइन किए गए कार्यक्रम है। इसलिए यदि इस विषय में यह कहा जाये कि Dewsoft का दूसरा नाम ही स्थिरता, निश्चिता और सुरक्षा है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी हालांकी पिछले एक दशक में कई कंपनियाँ आई और उन्होने सीधे अर्थात डारेक्ट सेलिंग और नेटवर्क मार्केटिंग के नाम पर लोगों में अविश्वास बढ़ाया है लेकिन Dewsoft एक ऐसी संस्था है जिसके पास लोगों को सफल बनने के एक दूरगामी दृष्टि है।


अब एक नज़र कंपनी के काम पर Dewsoft overseas D.E group का एक हिस्सा है जो software design development and export के क्षेत्र में काम करती थी। लेकिन अब कंप्यूटर शिक्षा के क्षेत्र में पार संभावनाओं को देखते हुए Dewsoft overseas ने एक नारा दिया।


"एक ही मक़सद एक निशाना, कंप्यूटर साक्षर सारा जमाना"


अपने इस विश्व स्तरीय शिक्षा का ला जन-जन तक पहुंचाने के लिए MLM (multi level marketing) के माध्यम से एक कार्यक्रम की शुरुआत की गयी है पढ़ाई के साथ कमाई अर्थात (earn while you learn ) इसकी स्थापना 24 अक्टूबर 2000 धनतेरस के पावन अवसर पर की डॉ. नरेन्द्र् नाथ तत्कालीन शिक्षा एवं उद्योग मंत्री, दिल्ली सरकार के कर कमलों द्वारा हुआ। भारत में इसका मुख्यालय दिल्ली में स्थिति है। 12 वर्षों की कम अवधि में कार्यक्रम में 8 लाख से अधिक सदस्य है जो भार ही नहीं बल्कि दुनिया भर से जुड़े हैं जैसे कनाडा नेपाल मॉरीशस एवं संसार के अन्य देशों से हैं जिसके चलते Dewsoft आज एक सफल नाम है।


अब आप सोच रहे होंगे की यह multi level marketing क्या बला है। तो मैं आप सभी को बता दूँ कि एम.एल.एम एक मात्र ऐसा उद्योग है जिसमें मंदी की कोई संभावना नहीं है क्यूंकि इस उद्योग का कच्चा माल आम लोग हैं जिसकी वृद्धि दर सिर्फ भारत में ही हर 3 सेकंड में 2 है M.L.M एक मात्र ऐसा उद्योग है जो बिना आपकी लागत को बढ़ाए आपके संसाधनो को बढ़ाता है। यह M.L.M आज सारी दुनिया में बहुत तेज़ी से फैलता जा रहा है अर्थात यदि कम शब्दों में बड़ी कही जाये या छोटा मुँह बड़ी बात कही जाये तो इस व्यवसाय में सफलता की दर 22. 5 प्रतिशत है जो किसी भी अन्य व्यवसाय की तुलना में बहुत ज्यादा है।क्यूंकि इसमें आपको कंप्यूटर का ज्ञान मिलता है और साथ ही बनाने का मौका भी मिलता है  

बस इस क्षेत्र में आगे बढ्ने के लिए यदि सबसे ज्यादा ज़रूरी कुछ है तो वो है कंप्यूटर शिक्षा। क्यूंकि आजकल केवल उनको ही रोज़गार के अच्छे अवसर मिल पाते हैं जो कंप्यूटर शिक्षित हों और जैसा की आप जानते हैं कि कंप्यूटर जीवन शैली का एक अभिन्न अंग बन गया है। जिसने आज हमारे जीवन जीने का ढंग बदल दिया है जिसका बहुत ज्यादा प्रभाव हम अपने रोज़मर्रा की जीवन शैली पर आसानी से देख सकते हैं कंप्यूटर आज हमारे लिए भोजन, वस्त्र, आवास और यहाँ तक ऑक्सीज़न की तरह ज़रूरी हो गया है और एक महत्वपूर्ण बात आज आई टी उद्योग के क्षेत्र में भारतीय उप-महाद्वीप में एक जबर्दस्त उछाल आया है आज भारत के लगभग सभी कार्य क्षेत्र या प्रत्येक विभाग जैसे बैंकिंगप्रत्येक सरकारी और गैर सरकारी दफ़तर, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, रेलवे, बिजली विभाग, अस्पताल आदि सभी कंप्यूटरीकरण हो रहे हैं। इसलिए इस संस्था से जुड़ने के लिए केवल आपको जिस एक मात्र पद्धति का ज्ञान होना आवश्यक है वह है कंप्यूटर शिक्षा अर्थात information technology. लेकिन यदि आपको कंप्यूटर शिक्षा न भी आती हो तो भी आप इस संस्था से जुड़कर यहीं से कंप्यूटर शिक्षा भी प्राप्त कर सकते हैं क्यूंकि इसमें ना सिर्फ आपको कंप्यूटर का ज्ञान मिलता ही है बल्कि आमदनी के साथ-साथ भविषय बनाने का सुनहरा मौका भी मिलता है। यानि एक तरह से "आम के आम गुठलियों के दाम"जैसी बात है, है ना मज़े की बात। बाकी अधिक जानकारी के लिए तो गूगल बाबा जिंदाबाद हैं हीं :-) ....               

Sunday, 2 September 2012

ख़ुशबू या महक नाम कोई भी हो आती केवल सुगंध ही है :-)


महक या ख़ुशबू एक ऐसा शब्द या एक ऐसा एहसास जो मन मंदिर के अंदर से गुज़रता हुआ अंतर आत्मा में विलीन होता हुआ सा महसूस होता है। मुझे ख़ुशबू बहुत पसंद है फिर चाहे वो किसी इत्र की ख़ुशबू हो, या फिर मंदिर में जलने वाली किसी अगरबत्ती या धूप की ख़ुशबू हो, या फिर किसी मज़ार पर जलने वाले लोबान की ख़ुशबू या फिर चाहे वो हवन सामाग्री की ही ख़ुशबू क्यूँ न हो, मुझे महका-महका सा माहौल बहुत पसंद आता है। भीनी-भीनी सी दूर से आती सुगंध में जैसे मन को एक आसीम शांति का आभास होता है मुझे, यहाँ तक कि मेरे जीवन में कुछ ख़ुशबू ऐसी भी हैं, जिसका मेरे जीवन में किसी न किसी याद से एक नाता सा जुड़ा है। जैसे बचपन जुड़ा है चंदन और मोगरे की महक से, तो कॉलेज की ज़िंदगी और यादें जुड़ी है विको टर्मरिक और पॉंन्डस टेल्कम पाउडर की ख़ुशबू से जिसमें कहीं हल्की सी महक हिमानी टेल्कम पाउडर की भी शामिल है। जिसे याद करते ही मेरा मन मुझे सीधे परीक्षा हाल में ले जाता हैं। जहां आस पास बैठे सभी लोग के पास से उन दिनों यह गिनी चुनी ख़ुशबुओं की महक ही आया करती थी।

चंदन और मोगरा मुझे इसलिए प्यारा है क्यूंकि बचपन में मेरे नाना जी पूजन करते वक्त अक्सर हम बच्चों से चंदन घिसवाया करते थे और पूजा ख़त्म होने के पश्चात सभी को चंदन का टीका भी लगाया करते थे और केवल महज़ उस एक चंदन के टीके के लालच में सभी मामा मौसी के बच्चों में होड़ सी रहा करती थी।  कौन पहले जाकर चंदन घिसेगा और किसे सबसे ज्यादा चंदन लगाने को मिलगा कि सब सुबह से शाम तक महक सकें। इसलिए शायद आज भी मेरे घर में असली चंदन न सही मगर विको टर्मरिक क्रीम ज़रूर मिल जाएगा आपको, मगर किसी सौंदर्य प्रसाधन की  दृष्टि से नहीं, बल्कि बस कुछ महकी हुई सी यादों को याद करने के लिए और एक दवा के रूप में जो जलने, कटने, या छिलने पर लगाने के काम आती है। यानि एक antiseptic cream के रूप में,
वैसे सौदर्य प्रसाधन की दृष्टि से में यहाँ एक बात बताना चाहूंगी यूं तो चंदन से अच्छी पूरे विश्व में कोई सुगंध नहीं है  और चूंकि यह मस्तिष्क ठंडा रखता है, इसलिए औषधि के रूप में भी मस्तिष्क को ठंडा रखने वाली इसे अच्छी कोई बूटी नहीं, किन्तु यदि आप इसे एक सौदर्य बढ़ाने वाले प्रसाधन के रूप में प्रयोग करना चाहते हैं तो याद रखें शुष्क अर्थात रूखी सुखी त्वचा वाले व्यक्ति कभी इसके पाउडर का सीधा प्रयोग अपनी त्वचा पर ना करें इसे हमेशा किसी नमी युक्त पढ़ार्थ के साथ ही प्रयोग करें, वरना आपकी शुष्क त्वचा और भी रूखी हो सकती है।


अब बात आती है मोगरे के फूलों की, यूं तो दुनिया में सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला फूल गुलाब का है।  जिसे लोग अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में नहाने के पानी से लेकर, गुलकंद के रूप में खाने और गुलाबी कपड़ों और प्रसाधनों को इस्तमाल कर गुलाब जैसा दिखने और महकने की ख्वाइश भी रखते है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि पूरी दुनिया में सभी लड़कियों को केवल गुलाब का ही फूल सबसे ज्यादा पसंद आता है। जबकि मैं उन में से नहीं हूँ :) मुझे गुलाब से ज्यादा पसंद है मोगरा ,राजनीगंधा, और लेवेंडर की ख़ुशबू। मोगरा मुझे इसलिए पसंद है क्यूँकि यह मेरे घर के आँगन में ही लगा था गर्मियों की हर रात मेरे घर का आँगन हमेशा मोगरे के फूलों से महकता था और हम लोग हर रात उस पौधे से माफी मांगते और रात में ही सारे फूल तोड़ कर पानी में डालकर रख लिया करते थे और मम्मी हर सुबह उन फूलों को शिवजी पर चढ़ाया दिया करती थी। क्यूंकि ऐसा माना जाता है न कि शिवजी को सफ़ेद चीज़ें बहुत अधिक प्रिय होती हैं और इसलिए मैं और मेरी मम्मी दोनों ही शिवजी को बहुत मानते हैं
खैर उन दिनों रात को ही मोगरे के फूल तोड लेने के पीछे भी एक कारण था। वो यह कि सुबह कितनी भी जल्दी उठो फूल चोरी हो ही जाया करते थे। जिसके चलते हमारे ही घर के गृह देवता को हमारे ही आँगन के फूल ही नहीं मिल पाते थे इसलिए मजबूरी में हमे वो सारे फूल रात में ही तोड़ने पड़ते थे। मगर सुबह शिवजी को वह फूल अर्पण करने के बाद जो पानी बचा होता था, जिसमें रात भर वो फूल भिगो के रखे गए होते थे उस पानी को  अपने नहाने वाले पानी में शुमार करने में मुझे बड़ा मज़ा आता था हालांकी उस ज़रा से पानी से महक शायद नाम चार की भी ना आती हो मगर उस पानी को इस्तमाल करने से मन को एक महकने का भ्रम और एक प्रकार का संतोष ज़रूर मिला करता था, खैर यह सब ख़ुशबू में डूबे रहने की दिवानगी थी और कुछ नहीं। उन दिनों हमारे घर में एक छोटी सी कृष्ण जी की चंदन की लकड़ी से बनी प्रतिमा भी थी जो कुछ देर पानी में डालने से पूरा पानी चंदन की ख़ुशबू से महका दिया करती थी। हमारे पूरे घर में शायद ख़ुशबू के लिए ऐसा पागल पन सिर्फ मुझे ही था।

ख़ुशबू से संबन्धित एक और बात बताऊँ आपको, जिसे पढ़कर शायद आप मुझे पागल समझे :-) मगर ख़ुशबू के मामले में, ज़रा ऐसी ही हूँ मैं :-) मुझे कोई भी इत्र या पेरफ्यूम शरीर से ज्यादा कपड़ों पर लगाने और डालने में मज़ा आता है जैसे दुपट्टे या साड़ी के पल्लू पर, गले और कलाई पर तो मैं बस नाम के लिए लगाया करती हूँ। इन सब बातों के अलावा एक बात और मुझे इन ख़ुशबुओं के अलावा कुछ ऐसी चीजों की महक भी पसंद है जो शायद ख़ुशबुओं के शब्दकोश में नहीं पायी जाती। जैसे मुझे कभी-कभी पेट्रोल, बूट पोलिश की महक भी बुरी नहीं लगती और यदि खाने पीने की बात करें तो मुझे कॉफी पाउडर की सुगंध बेहद पसंद है। आज भी कॉफी बनाने से पहले में एक बार कॉफी को सूँघती ज़रूर हूँ और मसालों में घर के बने गरम मसाले की ख़ुशबू भी मुझे बेहद पसंद है।

मगर इन सब ख़ुशबुओं से परे भी इंसान के जीवन में कुछ एक ख़ुशबू ऐसी भी होती हैं, जिनको कोई नाम नहीं दिया जा सकता, बस केवल महसूस किया जा सकता है। जैसे पहले-पहले प्यार की ख़ुशबू, किसी खास के जिस्म की वो ख़ुशबू जो आपके अंतस में उसकी पहचान बन के बस जाती है। जिसे सिर्फ आप महसूस कर सकते हो दूसरा और कोई नहीं....यह सब पढ़कर लग रहा है ना आपको की मैं एकदम पागल हूँ। मगर क्या करूँ जब बात ख़ुशबू की हो रही हो तो इन सभी ख़ुशबुओं का ज़िक्र न करना इस महक शब्द के साथ नाइंसाफ़ी होगी मेरे लिए, आपके जीवन में भी आपकी यादों से जुड़ी कई सारी ऐसी ही ख़ुशबू होंगी जिनको आज भी सूंघने पर आप यादों के काफिलों में खो जाते होंगे।  है ना ? तो आज आप भी अपनी टिप्पणियों में मेरे साथ सांझा कीजिये अपने-अपने जीवन की महक।  धन्यवाद.... :-)