यूं तो विषय नारी विमर्श का नहीं है लेकिन जब बात हो दोहरी मानसिकता की और नारी का ज़िक्र न आए तो शायद यह विषय अधूरा रह जाएगा। नारी विमर्श एक ऐसा विषय जिस पर जितनी भी चर्चा की जाए या जितना भी विचार विमर्श किया जाए कम ही होगा। लेकिन यदि हम सब एक स्वस्थ समाज का निर्माण चाहते है तो उसके लिए लिंग भेद को मिटा कर स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देते हुए समान भाव से देखा जाना। जब तक यह सोच हमारे अंदर विकसित नहीं हो जाती तब तक एक स्वस्थ एवं सभ्य समाज की कल्पना करना भी व्यर्थ है। बेशक आज कुछ क्षेत्रों में नारी की स्थिति में पहले की तुलना में बहुत परिवर्तन आया है और नारी ने यह साबित कर दिखाया है कि वो भी एक कामयाब और आत्मनिर्भर इंसान है जो अपने बलबूते पर सब कुछ कर सकती है जो शायद एक पुरुष भी नहीं कर सकता। लेकिन इसके बावजूद भी आज भी सामाजिक स्तर पर कुछ क्षेत्र या परिवार ऐसे हैं जहां सिर्फ कहने का परिवर्तन आया है वास्तव में नहीं, मुझे यह समझ नहीं आता कि लोग दिखावे के लिए कुछ चीजों क्यूँ मानते है। लड़की के अधिकारों के विषय में सोचते -सोचते हम लड़कों को भूल गए है। ऐसा क्यूँ ? जबकि लड़का और लड़की तो स्वयं एक दूसरे के पूरक है तो फिर लड़की के चक्कर में हम लड़कों के साथ दोगला व्यवहार क्यूँ करने लगते हैं ??
मैं जानती हूँ आपको पढ़कर शायद अजीब लग रहा होगा कि लड़कों के साथ दोगला व्यवहार, यह दोगला पन तो खुद इस पुरुष प्रधान देश के महापुरुषों का इजाद किया हुआ शब्द है फिर उन्हीं के प्रति यह शब्द कैसे इस्तेमाल हो सकता है या फिर शायद इसलिए भी क्यूंकि हमारे कानों को आदत पड़ चुकी है इस तरह की बातें या शब्द केवल लड़कियों के लिए पढ़ने और सुनने की, मगर सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अंजाने में ही सही, मगर कहीं न कहीं हम लड़कों के साथ नाइंसाफ़ी कर रहे हैं या फिर अंजाने में हम से उनके प्रति यह नाइंसाफ़ी हो रही है, जो सरासर गलत है। आजकल लड़की के माता-पिता बड़े गर्व के साथ यह कहते हुए नज़र आते हैं कि अरे मैं आपको क्या बताऊँ मेरी लड़की में तो लड़कियों वाले कोई गुण ही नहीं है। एकदम लड़का है मेरी लड़की, उसे तो कपड़े भी लड़कियों वाले ज़रा भी नहीं पसंद, ना कपड़े, ना खिलौने, यहाँ तक कि उसके आधे से ज्यादा दोस्त भी लड़के ही हैं। जाने क्यूँ लड़कियों से उसकी बहुत कम बनती हैं।
भई मुझे तो समझ नहीं आता कि इसमें शान दिखाने जैसी कौन सी बात है, बल्कि मेरे हिसाब से तो ऐसी लड़की के अभिभावकों को अपने बच्ची के ऐसे व्यवहार के प्रति थोड़ा अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। क्यूंकि जब हम किसी लड़के के मुंह से यह सब सुनते हैं कि उसको नेल पोलिश लगाने का शौक है या उसका मन फ्रॉक पहनने का करता है या गुड़ियों से खेलने का करता है तो हमारा दिमाग घूमने लगता है फिर भले ही वो कोई छोटा सा बच्चा ही क्यूँ न हो, हमें उसके मुंह से यह सब बातें अजीब लगने लगती है। फिर भले ही हमने उसे खुद छोटे में अपने मनोरंजन के लिए फ्रॉक क्यूँ न पहनाई हो :-) मगर जब हम उसके मुंह से ऐसी कोई ख्वाइश सुनते है तो हम उसे समझाने का प्रयास करने लगते है। यहाँ तक यदि वह लड़का ज्यादा रोता है या बात-बात पर रोता है तो हम उसे समझाने के लिए यह तक कह देते हैं "अरे रो मत बेटा लड़के रोते नहीं" आख़िर यह दोगला व्यवहार या दोहरी सोच क्यूँ बसी है हमारे दिमाग में ?
हमारे लिए तो लड़का और लड़की दोनों ही बराबर है खास कर छोटे बच्चे, फिर हम उनमें इस तरह का भेद भाव क्यूँ करते हैं ??? यहाँ मैं आप सभी को एक बात और बताना चाहूंगी, यह विचार पूरी तरह मेरे नहीं है क्यूंकि मैंने इस विषय को किसी और के ब्लॉग पर पढ़ा था जहां अपने ब्लॉग जगत के बहुत कम लोग पहुंचे थे अब तो मुझे उस ब्लॉग का नाम भी याद नहीं है। मगर उन्होने इस बिन्दु पर बहुत जोरा डाला था और जहां तक मुझे याद है उन्होंने भी इस विषय में शायद टाइम्स मेगज़ीन में कहीं पढ़ा था फिर उन से भी इस विषय पर लिखे बिना रहा नहीं गया। मुझे भी बात अच्छी लगी और ऐसा लगा कि यह भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है और इस पर भी विचार विमर्श ज़रूर होना चाहिए। इसलिए मैंने भी इस विषय को चुना और आज आप सभी के समक्ष रखा अब आप बतायें क्या मैंने जो कहा वो गलत है ?
हालांकी उन्होंने तो इस विषय पर मानसिक विकृति तक की बात की मगर मैंने वो सब यहाँ बताना ज़रूरी नहीं समझा क्यूंकि यहाँ मुझे ऐसा लगा कि लड़कियों के ऐसे शौक को जब मानसिक विकृति की दृष्टि से नहीं देखा जाता तो लड़कों के ऐसे शौक को भी नहीं देखा जाना चाहिए। क्यूंकि मेरी सोच यह कहती है कि समान अधिकार की बात अलग है, उसका मतलब यह नहीं कि लड़के और लड़कियां अपना सामान्य व्यवहार ही छोड़ दें। समाज ने, बल्कि समाज ने ही क्यूँ प्रकृति ने खुद दोनों के व्यवहार में, कार्यक्षेत्र में, कुछ भिन्नता रखी है तो ज़रूर उसके पीछे भी कोई न कोई कारण रहा ही होगा। हाँ यह बात अलग है कि आज दुनिया में लोगों ने अपनी सहूलियत के मुताबिक प्रकृति के नियम ही बदल डाले। कुछ ने मजबूरी में, तो कुछ लोगों ने महज़ शौक के लिए और कुछ लोगों ने अपने अहम के कारण, उसी का परिणाम है यह समलेंगिक विवाह पहले तो यह केवल विदेशों तक ही सीमित थे। मगर अब तो अपने देश में भी यह सुनने में आने लगा है।
हालांकी दुनिया में सभी को अपने मन मुताबिक अपनी ज़िंदगी जीने का सम्पूर्ण अधिकार है। लेकिन फिर भी यह सब है तो प्रकृति के नियम के विरुद्ध ही। लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता है क्यूंकि हमें तो आदत पड़ चुकी है नकल करने की, फिर चाहे वो भारतीय सिनेमा हो या परिवेश। अपने संस्कारों को तो हम इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगभग भुला ही चुके हैं जिसका सबसे बड़ा प्रमाण है हमारा अपना मीडिया जो सरे आम खुलकर वो सब दिखा रहा है जो कभी पहले मर्यादा में हुआ करता था। क्यूंकि ऐसा तो है नहीं जो कुछ आज दिखाया जा रहा है वो पहले नहीं होता था। होता तो वह सब तब भी था मगर तब बड़ों के प्रति सम्मान हुआ करता था आँखों में शर्म हुआ करती थी। जो अब ज़रा भी नहीं बची है जिसका असर सब पर नज़र आता है। लोग इस आधुनिकता की अंधीदौड़ में इस कदर अंधे हो चुके हैं कि आधुनिक शब्द के मायने भूल गए हैं। शायद इसलिए आज हम जब लड़कियों को लड़कों की तरह व्यवहार करने पर अचरज से नहीं देखते। वह व्यवहार हमको आज के परिवेश के मुताबिक स्वाभाविक लगता है या लगने लगा है। इसलिए अब हम लड़कियों को उनके ऐसे व्यवहार के प्रति रोकते टोकते नहीं बल्कि बढ़ावा देते है। तो फिर हमें लड़कों को भी नहीं रोकना टोकना चाहिए है ना ??? मगर वास्तव में ऐसा होता नहीं है हम लड़की को भले ही जींस या पेंट पहनने से कभी न टोके मगर यदि कोई लड़का भूल से भी अगर मात्र नेल पोलिश भी लगा ले तो हम उसे ऐसे देखते हैं जैसे पता नहीं उसने ऐसा क्या कर दिया जो उसे नहीं करना चाहिए था।
खैर मैं तो बात कर रही थी दोहरी मानसिकता की, न कि आधुनिकता की, लेकिन देखा जाये तो कहीं ना कहीं आधुनिकता का असर मानसिकता पर ही तो पड़ रहा है "तो मानसिकता बदलने की जरूरत तो है", मगर आधुनिक शब्द के सही अर्थ को समझते हुए क्यूंकि आधुनिक होने का मतलब है सोच का खुलापन, ना कि खुद की पहचान बदलकर विदेशी परिवेश को अपना कर दिखावे की होड़ करना। आप सभी को क्या लगता है ????