Monday, 29 December 2014

ज़िंदगी

ज़िंदगी


ज़िंदगी एक बहुत बड़ी नियामत है जिसका कोई आकार-प्रकार, कोई आदि कोई अंत नहीं है। जहां एक और एक ज़िंदगी खत्म हो रही होती है। वहीं दूसरी और न जाने कितनी नयी ज़िंदगियाँ जन्म ले रही होती है। क्यूंकि ज़िंदगी तो आखिर ज़िंदगी ही होती है। फिर चाहे वो मानव की हो या किसी अन्य जीव जन्तु की, होती तो ज़िंदगी ही है। ‘यह वो शब्द है’ जो ‘ईश्वर की तरह’ है। अर्थात जो जिस रूप में इसे देखता है, इस विषय में सोचता है। यह उसे वैसी ही नज़र आती है। किसी के लिए पहाड़ तो किसी के लिए शुरू हो से पहले ही खत्म हो जाने वाली एक छोटी सी डगर। अमीर घर में पैदा हुए किसी बच्‍चे के लिए ज़िंदगी कुदरत का अनमोल तोहफा होती है, तो बहुत ज्‍यादा गरीबी में ज़िंदगी कुदरत का अभिशाप भी बन जाती है।
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ज़िंदगी...

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ज़िंदगी एक बहुत बड़ी नियामत है जिसका कोई आकार-प्रकार, कोई आदि कोई अंत नहीं है। जहां एक और एक ज़िंदगी खत्म हो रही होती है। वहीं दूसरी और न जाने कितनी नयी ज़िंदगियाँ जन्म ले रही होती है। क्यूंकि ज़िंदगी तो आखिर ज़िंदगी ही होती है। फिर चाहे वो मानव की हो या किसी अन्य जीव जन्तु की, होती तो ज़िंदगी ही है। यह वो शब्द है, जो ‘ईश्वर की तरह’ है। अर्थात जो जिस रूप में इसे देखता है, या जो जैसा इस विषय में सोचता है। यह उसे वैसी ही नज़र आती है। किसी के लिए पहाड़ तो किसी के लिए शुरू हो से पहले ही खत्म हो जाने वाली एक छोटी सी डगर। अमीर घर में पैदा हुए किसी बच्‍चे के लिए ज़िंदगी कुदरत का अनमोल तोहफा होती है, तो बहुत ज्‍यादा गरीबी में ज़िंदगी कुदरत का अभिशाप भी बन जाती है।

मगर न जाने क्यूँ...पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ते हुए आतंकवाद और हादसों को लेकर आज मन बहुत उदास है। अभी हम कश्मीर में हुई तबाही से उबर भी नहीं पाये थे कि आसाम में भी इतने लोग मारे गए। मगर कहीं कोई दुख की लहर दिखाई नहीं दी, न आम जनता के चेहरे पर न वहाँ के प्रशासन पर, तभी तो जितना अफसोस पेशावर कांड के लिए दिखाया गया उसके मुक़ाबले तो शायद एक प्रतिशत भी आसाम या कश्मीर में मारे गए लोगों के लिए नहीं दिखया गया था।

एसा शायद इसलिए हुआ क्यूंकि वक्त तो किसी के लिए नहीं रुकता। कोई आए कोई जाये उसे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता। ज़िंदगी का दूसरा नाम वक्त ही तो है। वो भी तो किसी के लिए नहीं रुकती। एक ओर लोग मर रहे हैं। तो वहाँ दूसरी ओर लोग शादी ब्याह में अपना रुतबा दिखाने के लिए पैसा पानी की तरह बहा-बहाकर जश्न माना रहे है। दान धर्म तो जैसे भूली बिरसी बात हो गयी। फिर भी यदि कोई करता भी है तो मिडीया में आने क लिए। कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है। इसलिए चाहे वक्त कितना भी बुरा क्यूँ न चल रहा हो, इंसान को उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। क्यूंकि हर रात चाहे कितने भी गहरी, कितनी भी लंबी क्यूँ ना हो! किन्तु हर रात की सुबह ज़रूर होती है। सुनने और पढ़ने में तो यह बातें बहुत अच्छी लगती हैं। मगर कोई जाकर उनसे पूछे जो इस रात से गुज़र रहे हैं। उनके हालात देखकर तो मेरे अंदर की सारी उम्मीदें अब खत्म हो चुकी हैं। अब कोई फरिश्ता भी आकर सब कुछ ठीक कर दे तो बहुत अच्छा नहीं करे तो भी अब तो जैसे आदत हो चली है यह सब देखने सुनने की अब कोई फर्क ही नहीं पड़ता। शायद उसके आने में भी अब देर हो चुकी है।

कितनी आजीब है न यह ज़िंदगी ! कोई इसे पाकर फुला नहीं समाता, तो कोई इसे खोकर ही चैन पाता है। इतनी जटिल होने के बावजूद भी हरदिल अज़ीज़ होती है यह ज़िंदगी। फिर भी अब न जाने क्यूँ जब कभी किसी मासूम की ज़िंदगी छिन जाने की कोई खबर सामने आती है, तो चाहे अनचाहे दिल से एक आह ! निकल ही जाती है। ‘फिर भी यदि मैं यह कहूँ’ कि अब कोई दर्द नहीं होता इस सीने में, न अब कभी कोई कतरा ही आता है इन आँखों में किसी के घर का बुझता हुआ चिराग देख-सुन या पढ़कर। अब तो जैसे रोज़ सांस लेने जैसा आम होगया है यह मंज़र। मर गयी है अब सारी समवेदनाएं मेरे अंदर की, अब न इन आँखों में कोई गुस्सा है, न होंठों पर कोई गाली, अब नहीं उतरता कोई खून इन आँखों में आतंकवाद को लेकर। क्यूंकि अब तो यह लगभग हर एक घर का किस्सा है। मर रहे हैं इंसान चारों तरफ, क्या फर्क पड़ता है कि यह घर तेरा है या मेरा है! अब तो लगता है कुदरता का रंग भी अब आँखों में लहू बनकर ही उतर आया है कि अब कहीं कोई हरियाली कोई शीतलता दिखाई ही नहीं देती। अब चमन में भी कहाँ फूल महकते है। अब तो बस बारूद की ही गंध सूंघने को कुछ दिल तरसते है।

अब तो लगता है कुदरत ने भी अपना रंग बदल लिया है शायद क्यूंकि अब नहीं गिरते झरने पहाड़ों से, अब तो बसें गिरती है विद्यार्थियों से भरी आए दिन। अब बच्चे बीमार पड़ने पर गोलीयाँ नहीं खाते, बल्कि स्कूल जाने पर खाते है। हाँ यह बात अलग है कि कभी कोई सरफ़िर आ घुस्ता है (अमरीका) के किसी स्कूल में, तो कहीं जिहाद के नाम पर (पाकिस्तान) में बली चढ़ा दी जाती है। तो कहीं मिड डे मील (हिंदुस्तान) के नाम पर उन्हें जहर खिला दिया जाता है। अकाहीर कब तक यूं ही चढ़ाई जाती रहेंगी बलियाँ उन मासूमों की जो यह जानते तक नहीं की उनकी गलती क्या है। बच्चों के लिए तो अब जैसे कोई स्थान सुरक्षित ही नहीं रह गया है। पहले ही कन्या भूर्ण हत्या से लेकर बाल उत्पीड़न जैसे अपराध कम नहीं थे और अब जिहाद के नाम पर यह आतंकवाद।

लेकिन अब अफसोस नहीं होता मुझे क्यूंकि "जो जैसा बोता है वो वैसा ही काटता भी है” पाकिस्तान ने जो बोया वही उसने स्वयं पेशवार में हुए हत्याकांड में पाया। दूसरों के घरों को जलाकर जश्न मनाने वालों के घर में भी आज उसी आग का कहर बरपा है। क्या पहले कभी हिंदुस्तान में नहीं हुआ ऐसा ? जो आज पाकिस्तान का दर्द देख, हर हिन्दुस्तानी दिल दर्द से तड़पा है। पाकिस्तान से तो कभी ऐसी कोई हवा तक नहीं आई, फिर क्यूँ यह मंज़र देख हिंदुस्तान तर्राया है। सब से पहले तो एक औरत और एक माँ होने के नाते बहुत अच्छे से समझ सकती हूँ मैं उन माँओं के दिल का वो दर्द जिन्होंने एक आम नागरिक होने के नाते सियासत के इस खेल में अपना सब कुछ गवाया है। लेकिन न जाने क्यूँ अब यह खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि अब एक इंसान होने के बावजूद भी दिल से दर्द का रिश्ता ख़त्म हो गया सा लगता है।

जैसे अब कोई इंसानी रूह नहीं बची है मेरे अंदर, बल्कि यह जिस्म जैसे कोई बेजान बुत बन गया है। जिसके चेहरे पर अब कोई भाव नहीं आते। जिसकी आंखे में अब कोई ख़्वाब नहीं आते। अब तो पथरा चुकी है यह आँखें भी उस दिन के इंतज़ार में जब कोई ऐसा आएगा जो अमन का पैगाम लाएगा। जो इस धरती को फिर से हरा और आसमान को नीला कर जाएगा। जिसके आने से महकने लगेंगे फिर फूल और एक बार फिर बच्चा-बच्चा मुस्कुराएगा। जिसके आने से इंसान फिर इंसान कहलाएगा। पता नहीं ऐसा कोई कभी आयेगा भी या नहीं।

मगर वर्तमान हालातों को मद्दे नज़र रखते हुए तो ऐसा लगता है कि इंसान को इंसानियत पर यह एहसान करना होगा कि वह नए बच्चे को जन्म देना ही बंद करदे या फिर हे मेरे ईश्वर तू यह दुनिया को ही ख़त्म कर दे।

 

 

 

Tuesday, 2 December 2014

अजीब दास्तां है यह !

यह ज़िंदगी भी तो एक ऐसी ही दांस्ता हैं। एक पहेली जो हर पल नए नए रंग दिखती है। जिसे समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगता है। कब कहाँ, किस मोड पर ज़िंदगी का आपको कौन सा रंग देखने को मिलेगा, यह अपने आप में एक पहेली ही तो है ! इसका एक उदाहरण अभी कुछ दिनों पहले दीपावली के अवसर पर ही मैंने स्वयं अपने घर के पीछे ही देखा और तब से मेरे मन में रह रहकर यह विचार उठ रहा है कि चाहे ज़माना कितना भी क्यूँ न बदल जाये। चाहे दुनिया के सारे रिश्ते बदल जाएँ। मगर माता-पिता का अपने बच्चों से रिश्ता न कभी बदला था, न बदला है और ना ही कभी बदलेगा।

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अजीब दास्तां है यह!

सच ही तो हैं इस गीत की यह पंक्तियाँ कि...अजीब दास्तां है यह, कहाँ शुरू खत्म यह मंजिल हैं कौन सी न वो समझ सके न हम....

यह ज़िंदगी भी तो एक ऐसी ही दास्तां हैं। एक पहेली जो हर पल नए नए रंग दिखती है। जिसे समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगता है। कब कहाँ किस मोड पर ज़िंदगी का आपको कौन सा रंग देखने को मिलेगा यह अपने आप में एक पहेली ही तो है। इसका एक उदाहरण अभी कुछ दिनों पहले दीपावली के अवसर पर ही मैंने स्वयं अपने घर के पीछे ही देखा और तब से मेरे मन में रह रहकर यह विचार उठ रहा है कि चाहे ज़माना कितना भी क्यूँ न बदल जाये। चाहे दुनिया के सारे रिश्ते बदल जाएँ। मगर माता-पिता का अपने बच्चों से रिश्ता न कभी बदला था, न बदला है और ना ही कभी बदलेगा। इस बार जब मुझे इतने वर्षों बाद अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ दीपोत्सव मनाने का मौका मिला तो मन बहुत खुश था। लेकिन साथ ही एक ओर आसमान छूती महँगाई कहीं न कहीं मन को झँझोड़ रही थी कि क्या फायदा ऐसे उत्सव मनाने का जहां आपके ही घर के नीचे रह रहे मजदूरों के घर एक दिया भी बामुश्किल जल पा रहा हो।

विशेष रूप से पटाखे खरीदते वक्त यह विचार आया कि कहाँ तो हम आप जैसे लोग हजारों रुपये पटाखों के रूप में यूं ही जला देंगे और कहाँ उन घर के मासूम बच्चों को शायद एक फुलझड़ी भी नसीब न हो। ऐसे मैं मुझे मेरे भोपाल की एक रीत बहुत याद आती है। जिसमें हर दिपावली पर पटाखे जलाने से पूर्व और लक्ष्मी पूजन के बाद सभी आस-पास के लोग एक दूसरे के घर जलते हुए दिये लेकर जाते हैं और अपने से पहले पड़ोसी के घर से रोशनी की शुरुआत करते हैं। आज भी यह परंपरा वहाँ कायम है या नहीं मैं कह नहीं सकती।

मगर मुझे वो रीत बेहद पसंद थी और आज भी है। किन्तु इतने सालों बाद यहाँ लौटने पर जो मुझे एक अपार निराशा हुई वह यह थी कि अब यहाँ आमने सामने भी कौन रहता है यह तक पता नहीं। कभी यदि भूल से सामने पड़ गए तो नमस्कार, चमत्कार जैसा ही महसूस होता है। फिर भला ऐसे माहौल मैं कौन किसके घर दिया रखने जाएगा। ऐसे मैं तो लोग यदि एक दूसरे को देखकर दिपोत्सव की शुभकामनायें भी दे दें तो बहुत है।

खैर मैं बात कर रही थी कि दुनिया का कोई भी रिश्ता बदल जाये मगर माता पिता का अपने बच्चों से रिश्ता कभी नहीं बदल सकता। मैंने देखा दिवाली के बहुत दिनों बाद एक दिन अचानक तड़के सुबह-सुबह बहुत तेज़ी से पटाखे चलने की आवाज आ रही है वो भी वो (लड़) वाले पटाखे जिनकी आवाज से अचानक ही नींद टूट गयी और ज़्यादातर लोग हड्बड़ा कर उठे होंगे इसका मुझे यकीन हैं। उनींदी आँखों से जब घर की बालकनी में जाकर देखा तो जो देखा उसे देखकर चेहरे पर एक मोहक सी मुस्कान बिखर गयी। मैंने देखा हमारे ही इमारत के नीचे रहने वाले कुछ मजदूर भाइयों ने अपने छोटे छोटे मासूम बच्चों के लिए अपने घर से एक छोटा सा टीन की छत का एक टुकड़ा जमीन पर बिछा दिया है और वहाँ मौजूद कुछ 10-12 बच्चे उस पर तेज़ी से एक साथ उछल रहे हैं। जिसके कारण पटाखों की सी आवाज़ आरही है और सभी बच्चे उस आती हुई तेज़ आवाज़ से इतने खुश हैं कि शायद असली पटाखे बजाते वक्त हम आप भी इतना खुश नहीं होते होंगे, जितना वह खुश थे।

आखिर गरीब माता-पिता ने भी अपने बच्चों की खुशियों का रास्ता ढूंढ ही लिया। उनके इस जज़्बे को मेरा सलाम और दुनिया के हर माता-पिता को मेरा प्रणाम....जय हिन्द                             

Friday, 14 November 2014

यह कैसा बाल दिवस !

कितना कुछ है मन के अंदर इस विषय पर कहने को, किसी से अपनी मन की बात कहने को किन्तु हर किसी को नहीं बल्कि किसी ऐसे इंसान को जो वास्तव में इंसान कहलाने लायक हो। जिसके अन्तर्मन में अंश मात्र ही सही मगर इंसानियत अब भी कायम हो। वर्तमान हालातों को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है कि बहुत मुश्किल है ऐसे किसी इंसान का मिलना। लेकिन ऐसा नहीं है कि दुनिया में सभी बुरे हैं। अच्छे इंसानों से भी दुनिया भरी पड़ी है। लेकिन समाचार पत्रों में जो देखा पढ़ा और जो रोज़ ही सुनते है उससे तो ऐसा ही लगता है कि शायद इस दुनिया में अच्छे लोग दिन प्रतिदिन घटते ही जा रहे हैं। क्यूंकि आज की तारीख में अच्छा बनने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते है। यूं ही किसी को (नोबल प्राइज़) नहीं मिल जाता। वरना आज हर कोई (कैलाश सत्यार्थी) ही होता। बाल मजदूरों के लिए उन्होंने जो किया वो वाक़ई कबीले तारीफ़ है। वरना गलियों में पलने-बढ़ने वाला बचपन क्या जाने बाल दिवस किस चिड़िया का नाम है।

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धन्यवाद!

यह कैसा बाल दिवस !

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कितना कुछ है मन के अंदर इस विषय पर कहने को, किसी से अपनी मन की बात कहने को किन्तु हर किसी को नहीं बल्कि किसी ऐसे इंसान को जो वास्तव में इंसान कहलाने लायक हो। जिसके अन्तर्मन में अंश मात्र ही सही मगर इंसानियत अब भी कायम हो। वर्तमान हालातों को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है कि बहुत मुश्किल है ऐसे किसी इंसान का मिलना। लेकिन ऐसा नहीं है कि दुनिया में सभी बुरे हैं। अच्छे इंसानों से भी दुनिया भरी पड़ी है। लेकिन समाचार पत्रों में जो देखा पढ़ा और जो रोज़ ही सुनते है उससे तो ऐसा ही लगता है कि शायद इस दुनिया में अच्छे लोग दिन प्रतिदिन घटते ही जा रहे हैं। क्यूंकि आज की तारीख में अच्छा बनने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते है। यूं ही किसी को (नोबल प्राइज़) नहीं मिल जाता। वरना आज हर कोई (कैलाश सत्यार्थी) ही होता। बाल मजदूरों के लिए उन्होंने जो किया वो वाक़ई कबीले तारीफ़ है। वरना गलियों में पलने-बढ़ने वाला बचपन क्या जाने बाल दिवस किस चिड़िया का नाम है।


मुझे तो कई बार लगता है कि कहीं न कहीं इस सब के जिम्मेदार हम ही हैं। हमने ही मक्कारी और भ्रष्टाचार कर-करके अपने चारों तरफ एक ऐसा दूषित माहौल बना दिया है जिसमें न हम खुद खुल कर सांस ले पा रहें हैं और ना ही अपने बच्चों को खुला छोड़ पा रहे हैं ताकि वह स्वयं उड़कर अपने हिस्से के आसमाँ से अपनी साँसे मांग सकें। विशेष रूप से लड़कियाँ, यूं तो कहने को हर साल बाल दिवस बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। मगर बाल शब्द से बना बालक/बालिका जैसे शब्दों के मायनों से क्या हम वाकई परिचित हैं ? शायद नहीं ! क्यूंकि हम कुछ भी कहें और कर लें मगर आस-पास घट रही घटनाओं का असर जितना हम पर होता है उसे कहीं ज्यादा बाल मन पर होता है। महिला उत्पीड़न का शिकार महिलाएं/घरेलू हिंसा /मारपीट / तो कहीं देह व्यापार कहीं बलात्कार तो कहीं तेजाबी हमला/और जब कुछ न बचा तो नन्ही सी जान का यौन उत्पीड़न फिर चाहे वो बालक हो या बालिका इन सब में से बाल शब्द तो लुप्त हो ही गया। फिर कैसा बाल दिवस? खुद ही सोचकर देखिये डरे सहमें से बच्चे क्या एक दिन का बाल दिवस मनाने से निडर हो जाएंगे ?


इसी तरह चाणक्य की तरह ज्ञान देने वाले लोग परवरिश पर ज्ञान देते हुए कहते हैं कि बच्चों को आठ वर्ष की आयु तक उनका बचपन जीने देना चाहिए और नवें वर्ष से अनुशासन सीखना प्रारम्भ कर देना चाहिए। जैसे अनुशासन कोई घुट्टी है कि पानी में घोल कर पिला दो और बस समझो काम हो गया। मगर मुझे परेशानी इस बात से भी नहीं है। मुझे परेशानी इस बात से है कि यह अनुशासन केवल बालिकाओं के लिए ही क्यूँ ? बालकों के लिए क्यूँ नहीं ? कच्ची उम्र में शादी कर बच्चे पैदा करना /अपने से पहले अपने भाई के लिए सोचना /खुद भूखी रहकर भी उसके लिए भीख मांगकर रोटी का इंतजाम करना/ परिवार चलाने के लिए बाल मजदूरी करता अबोध बचपन। जिन कंधों पर स्कूल का बस्ता शोभा देना चाहिए वहाँ उन नन्हें से कंधों पर सम्पूर्ण परिवार की ज़िम्मेदारी उठाता बचपन। भूख-प्यास गरीबी जैसे बड़े दानवों से रोज़ लड़ता हुआ बचपन। दिन रात गालियां और फटकार को सुन-सुनकर बड़ा होता बच्चा, भला क्या जाने बाल दिवस किस चिड़िया का नाम है। इतना ही नहीं जिसे न अपने माता-पिता का पता हो न खुद अपने जन्म की तारीख। वो क्या जाने कौन थे चाचा नेहरू और क्यूँ मनाया जाता है बाल दिवस। अरे जिसने कभी प्यार के दो मीठे बोल तक न सुने हो जिसे बालमन, बचपन, बच्चा जैसे शब्दों का बोध तक न हो वो क्या जाने बाल दिवस क्या होता है।


 ऐसे में हम उम्मीद भी कैसे कर सकते है अपने बच्चे के साथ यह दिवस मनाने की, इतना सब काफी नहीं है क्या सीखने के लिए ? मगर फिर भी हम आप जैसे सभ्य कहे जाने वाले (सो कॉल्ड मिडिल क्लास लोग) क्या करते हैं अपने बच्चों के लिए ? क्या कभी गौर किया है आपने ? नहीं ! तो ज़रा करके देखिये। मेटेरनिटी लीव से पक चुकी माँ बच्चे के पैदा होने के बाद बड़ी मुश्किल से घर में रहकर अपने दिन काटती है। क्यूंकि नौकरी भी ज़रूरी है। भई इतनी पढ़ाई लिखाई इसलिए थोड़ी न की थी कि घर में बैठकर बच्चे पाले। पैसा है ही तो आया रख लेंगे या फिर बच्चे के नाना नानी /दादा दादी तो हैं ही बच्चा पालने के लिए। आखिर उनकी भी कुछ जिम्मेदारी तो बनती ही है। और यदि यह भी न हुआ तो क्रच और प्ले स्कूल ज़िन्दाबाद! इसलिए तो आजकल बच्चा एक साल का हुआ नहीं की लोग उसे प्ले स्कूल में डालने के विषय में सोचने लगते हैं। क्यूँ? क्यूंकि वहाँ जाएगा तो जल्दी जल्दी खाना-पीना/पढ़ना लिखना /हँसना बोलना सब सीख जाएगा। अरे कोई यह बता दे मुझे, इतनी भी क्या जल्दी है भाई। बच्चा है...समय आने पर सब अपने आप ही सीख जाएगा। मगर उफ़्फ़ आज कल इन फिजूल बातों के लिए समय किसके पास है।


 अब बताइये भला यह भी कोई बात हुई। नन्ही सी जान जो अभी तक ठीक तरह से अपना नाम भी नहीं जानती/जानता उसे स्कूल के बोझ तले डालने के विषय में सोचने लगते है लोग। क्या यह सही है? माता-पिता का अहम एक मासूम बच्चे को झेलना पड़ता है और कहा यह जाता है कि हम जो कुछ कर रहे हैं उसी के लिए तो कर रहे हैं। वही तो है हमारा सब कुछ। जबकि वास्तविकता तो यह है कि अपने-अपने अहम के चलते न माँ झुकने को तैयार है न पिता। और इस सब के बीच पिस रहा है मासूम बचपन और हम मना रहे हैं बाल दिवस। वाह !!! क्या खूब बाल दिवस है यह...कोई बताएगा क्या कि यह कैसा बाल दिवस है।

Wednesday, 20 August 2014

बातें अपने मन की ...

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कभी सुना है किसी व्यक्ति को दीवारों से बातियाते हुए ? सुना क्या शायद देखा भी होगा। लेकिन ऐसा कुछ सुनकर मन में सबसे पहले उस व्यक्ति के पागल होने के संकेत ही उभरते है। भला दीवारों से भी कोई बातें करता है! लेकिन यह सच है। यह ज़रूरी नहीं कि दीवारों से बात करने वाला या अपने आप से बात करने वाला हर इंसान पागल ही हो या फिर किसी मनोरोग का शिकार ही हो। मेरी दृष्टि में तो हर वक्ता को एक श्रोता की आवश्यकता होती है। एक ऐसा श्रोता जो बिना किसी विद्रोह के उनकी बात सुने। फिर भले ही वह आपकी भावनाओं को समझे न समझे मगर आपके मन के गुबार को खामोशी से सुने। शायद इसलिए लोग डायरी लिखा करते हैं। ताकि अपने मन को पन्नों पर उतारकर खुद को हल्का महसूस कर सकें। जिस प्रकार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना जीवित नहीं रह सकता। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के लिए एकांत भी उतना ही प्रिय है जितना उसके लिए समाज में रहना। क्यूंकि एकांत में ही व्यक्ति अपने आप से बात कर पाता है। 'कोई माने या ना माने' अपने आप से बातें सभी करते हैं। मगर स्वीकार कोई-कोई ही कर पाता है। न जाने क्यूँ अक्सर लोग इस बात को स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं। शायद उन्हें ऐसा लगता हो कि यदि वह यह बात स्वीकारेंगे तो कहीं लोग उन्हें पागल न समझलें... नहीं ? है ना यही वजह है न!

लेकिन होता यही है। एकांत पाते ही हम अपने आप से बातें करते हैं। अपने जीवन से जुड़े भूत वर्तमान और भविष्य के विषय में सोचते हुए मन ही मन बहुत गहरा चिंतन मनन चलता है हमारे अंदर जिसे हम किसी अन्य व्यक्ति से सांझा नहीं कर पाते। इस दौरान कभी हम चुप की मुद्रा में अपने मन के अंतर द्वंद पर सोच विचार करते रहते है, तो कभी बाकायदा अपने आप से बात भी करते हैं जैसे हमारे सामने कोई व्यक्ति खड़ा हो और हम उसे अपने मन की बातें बता रहे हो। ठीक वैसे ही जैसा सिनेमा में दिखाया जाता है। बस फर्क सिर्फ इतना होता है कि सिनेमा में हमें अपना मन साक्षात अपने रूप में दिखाया जाता है। किन्तु वासत्व में ऐसा नहीं होता। यूं भी वास्तविकता हमेशा ही कल्पना से विपरीत होती है। इसलिए वास्तव में तो हम अपने सामने रखी हुई वस्तु को ही अपना अन्तर्मन मन समझ कर बातें करने लगते है। फिर चाहे वह वस्तु कोई दर्पण हो या फिर दरो दीवार उस वक्त उस सब से हमें कोई अंतर नहीं पड़ता ! क्यूंकि तब हमें अचानक ही ऐसा महसूस होने लगता है कि वह हमारे ऐसे खास मित्र हैं जो हमारे मन की पीड़ा हमारे अंदर चल रहे अंतर द्वंद को भली भांति समझ सकते हैं जिनके समक्ष हम अपने मन की हर एक कोने में दबी ढकी छिपी बात रख सकते है। ऐसे में हम अपने मन के अंदर छिपी हर गहरी से गहरी बात भी उनके समक्ष रख देते हैं। "ऐसा पता है क्यूँ होता है" ? क्यूंकि इंसान सारी दुनिया से झूठ बोल सकता है मगर खुद से कभी झूठ नहीं बोल सकता।

लेकिन जब कोई व्यक्ति भावनात्म रूप से किसी किसी बेजान चीज़ के प्रति अपना संबंध स्थापित करले तब क्या हो ? जैसे अक्सर एक ही शहर में रहते हुए जब हमें उस शहर से एक गहरा लगाव हो जाता है या फिर एक ही घर में वर्षों से रहते हुए जब हमारा उस घर से एक रिश्ता बन जाता है तब अचानक ही किसी कारणवश हमें उन्हें छोड़ना पड़े उस वक्त जो दुख जो पीड़ा होती है उसके चलते यदि हम उस शहर या उस घर को उपहार स्वरूप कुछ देना चाहें जैसे जाते वक्त उस घर को उपहार स्वरूप हम उसे सजाकर छोड़े यह उसके दरो दीवार पर कोई ऐसी निशानी छोड़ें जिसे सदा-सदा के लिए वह घर हमारी स्मृतियों में जीवित रहे और हम उस घर की स्मृतियों में जीवित रहे तो उसे क्या कहेंगे आप क्या उसे पागलपन की श्रेणी में रखा जान चाहिए या फिर उस भावना की कदर करते हुए उसका सम्मान किया जाना चाहिए? इस विषय में आप क्या सोचते हैं ज़रा खुलकर बताइये।

Tuesday, 19 August 2014

बातें अपने मन की ...


कभी सुना है किसी व्यक्ति को दीवारों से बातियाते हुए ? सुना क्या शायद देखा भी होगा। लेकिन ऐसा कुछ सुनकर मन में सबसे पहले उस व्यक्ति के पागल होने के संकेत ही उभरते है। भला दीवारों से भी कोई बातें करता है! लेकिन यह सच है। यह ज़रूरी नहीं कि दीवारों से बात करने वाला या अपने आप से बात करने वाला हर इंसान पागल ही हो या फिर किसी मनोरोग का शिकार ही हो। मेरी दृष्टि में तो हर वक्ता को एक श्रोता की आवश्यकता होती है। एक ऐसा श्रोता जो बिना किसी विद्रोह के उनकी बात सुने। फिर भले ही वह आपकी भावनाओं को समझे न समझे मगर आपके मन के गुबार को खामोशी से सुने। शायद इसलिए लोग डायरी लिखा करते हैं। 

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Monday, 4 August 2014

एक जीवन ऐसा भी

आज सुबह उनींदी आँखों से जब मैंने अपनी बालकनी के बाहर यह नज़ारा देखा तो मुझे लगा शायद आँखों में नींद भरी हुई होने के कारण मुझे ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए स्थिर चीजें भी मुझे चलती हुई सी दिखाई दे रही है। मगर फिर तभी दिमाग की घंटी बजी और यह ख़्याल आया कि चाहे आँखों में जितनी भी नींद क्यूँ न भरी हो मगर नशा थोड़ी न किया हुआ है कि एक साथ इतनी सारी सफ़ेद काली वस्तुएं इधर उधर घूमती फिरती सी नज़र आने लगें। "आँखों का धोखा भी कोई चीज़ है भई" 'हो जाता है कभी-कभी'   
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एक जीवन ऐसा भी ...

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आज सुबह उनींदी आँखों से जब मैंने अपनी बालकनी के बाहर यह नज़ारा देखा तो मुझे लगा शायद आँखों में नींद भरी हुई होने के कारण मुझे ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए स्थिर चीज भी मुझे चलती हुई सी दिखाई दे रही है। मगर फिर तभी दिमाग की घंटी बजी और यह ख़्याल आया कि चाहे आँखों में जितनी भी नींद क्यूँ न भरी हो! मगर नशा थोड़ी न किया हुआ है कि एक साथ इतनी सारी सफ़ेद काली वस्तुएं इधर उधर घूमती सी नज़र आने लगें। तब लगा शायद आँखों का धोखा होगा यह सोचकर आँखें मलते हुए जब ठंडे पानी से अपना चेहरा धोया तब जाकर साफ-साफ नज़र आया कि यह काली सफ़ेद कोई वस्तु नहीं है। बल्कि जीती जाति भेड़ बकरियाँ है। यह नज़ारा मेरे चौथे माले के मकान की बालकनी से काफी दूर का नज़ारा है। इसलिए इन भेड़ बकरियों का शोर मुझ तक नहीं आ पा रहा है। मगर इनकी कदम ताल को मैं बखूबी देख सकती हूँ। लेकिन मैं हैरान इसलिए हूँ क्यूंकि जहां गयी रात तक केवल हरा मैदान था, वहाँ आज सुबह एक गडरिये ने ना सिर्फ अपनी भेड़ बकरियों के साथ अपितु अपने पूरे परिवार के साथ वहाँ अपना डेरा जमाया हुआ है!

गडरिया अर्थात भेड़-बकरियाँ चराने वाला ऐसे लोग सामान्यता किसी गाँव या फिर उसके आसपास के इलाके में ही देखने को मिलते है और आज के बच्चों के लिए तो यह केवल उनके पाठ्यक्रम की पुस्तक में किसी कहानी का (पात्र) मात्र ही होता है। इसे साक्षात देखना तो शायद आज के बच्चों के लिए एक बड़ी उपलब्धि हो।

खैर जब आज के इस आधुनिक युग में मुझे इसे यहाँ शहर में यूं घूमते देखकर अचरज हो रहा है तो फिर बच्चों की तो बात ही क्या...तभी सहसा मेरी नज़र पड़ी मैदान के ठीक बीचों बीच लगे उस प्लास्टिक के तम्बू पर जो बांस की छोटी-छोटी चार लकड़ियों पर लगभग यूं खड़ा है जैसे कोई अपंग या लाचार इंसान बस गिरने की कगार पर ही खड़ा हो। तब उसे देखकर मेरे मन में रह रहकर यह ख़्याल आ रहा था कि आखिर इस तम्बू का फायदा क्या है। यह तो केवल किसी साधारण से पेड़ की तरह ही है। जो सिर्फ मौसम की मार से आपको ज़रा देर के लिए गीला होना से बचा सकता है मगर सुरक्षा नहीं कर सकता। क्यूंकि उस तम्बू में केवल सर छिपाने के लिए छत है मगर आजू बाजू से हवा के बचाव हेतु आड़ तक नहीं है। ऐसे में बरसाती ठंडी हवा और मैदान की कीचड़ में पलने वाले तरह-तरह के जहरीले जीव जन्तु के साम्राज्य के बीच भला कोई इंसान कैसे रह सकता है। वह भी अपने इतने सारे जानवरों के साथ क्यूंकि भले ही जानवर ही सही मगर धूप, हवा, पानी, गर्मी से बचाव तो उन्हें भी चाहिए ही होता है और इस गडरिये के पास तो 'खुद अपना सिर छिपाने के लिए जगह नहीं है' फिर यह भला अपने जानवरों क्या देगा। एक दो जानवर हो तो फिर भी बात समझ में आती है। मगर यहाँ तो भेड़-बकरियों की पूरी बारात है।

ऐसे में उसका तम्बूनुमा मकान या घर जो भी कह लीजिये देखकर मुझे लगता है कि आखिर क्या मजबूरी रही होगी इस इंसान कि जो रातों रात इसे अपना मकान छोड़कर यहाँ इस मैदान में यूं अपना डेरा जमाना पड़ा होगा। 'पता नहीं पहले भी इसका अपना घर रहा भी होगा या नहीं'। या सदा से ही यह ऐसा जीवन व्यतीत करता आया है। कैसा होगा इसका जीवन! भेड़-बकरियों के भोजन के लिए तो फिर भी इस पृथ्वी ने अपनी धानी चुनर फैला रखी है। मगर यह इंसान क्या खाता होगा? क्या जरिया होगा इसकी कमाई का, कैसे पालता होगा यह अपना और अपने परिवार वालों का पेट। क्या रोज़ अपनी एक बकरी या भेड़ कर देता होगा किसी कसाई के हवाले ? या फिर कुछ और करता होगा। क्यूंकि आजकल रमज़ान का वक्त है कमाई अच्छी होने के दिन हैं। मगर क्या इसे ज़रा भी प्यार नहीं होगा अपनी भेड़ों-बकरियों से ? ऐसे न जाने कितने सवाल मेरे दिल पर हर रोज़ दस्तक देते हैं मगर फिर अगले ही पल दिमाग अपनी राय देकर इन सभी सवालों का मुंह बंद कर देता है। यह कहकर कि भूख और गरीबी के आगे इंसान को जानवर बनते देर नहीं लगती। एक बार इंसान अकेला भूखा रहकर गुज़र कर सकता है। मगर अपने पूरे परिवार को यूं रोज़-रोज़ भूख से लड़ता हुआ नहीं देख सकता। इसलिए बहुत संभव है कि इस मानव की मानवता को भी इस भूख और गरीबी का अजगर निगल गया हो।

यह सब महज मेरे मन की एक सोच है। सच्चाई क्या है मैं नहीं जानती। कई बार मेरा मन किया कि मैं जाकर मिलूँ उससे, ''पूछूं कि वह यहाँ यूं इस तरह से क्यूँ जी रहा है''। क्या मजबूरी है! क्या कहानी है उसकी! जिसने उसे इस तरह सड़क पर रहने के लिए मजबूर कर दिया है। फिर लगता है कहीं अंजाने में उसके जीवन की किसी दुखती रग को न दबा दूँ। कहीं वो मुझे गलत न समझ बैठे। बस यही सब सोचकर रोज़ चुप बैठ जाती हूँ और एक मूक दर्शक बनी देखती रहती हूँ हर रोज़ उसका यह अंतहीन संघर्ष भरा जीवन। जिसमें संघर्ष है, भूख है, गरीबी है मगर हौसला फिर भी बुलंद है कि कभी तो इस रात की सुबह होगी।

Monday, 7 July 2014

जाने कब समझेंगे हम…!


बात उस समय कि है जब इंसान अपनी निजी एवं अहम जरूरतों के लिए सरकार और प्रशासन पर निर्भर नहीं था। खासकर पानी जैसी अहम जरूरत के लिए तो ज़रा भी नहीं। उस वक्त शायद ही किसी ने यह सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब पानी भी बेचा और खरीदा जायेगा। हाँ यह बात अलग है कि तब जमींदारों की हुकूमत हुआ करती थी। निम्नवर्ग का जीना तब भी मुहाल था और आज भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि तब जमींदार गरीबों को लूटा करते थे। आज यह काम सरकार और प्रशासन कर रहे हैं। रही सही कसर बैंक वाले पूरी कर रहे हैं। तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तब से आज तक गरीब किसान की किस्मत में सदा पिसना ही लिखा है। आगे पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें ...
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जाने कब समझेंगे हम...!

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बात उस समय कि है जब इंसान अपनी निजी एवं अहम जरूरतों के लिए सरकार और प्रशासन पर निर्भर नहीं था। खासकर पानी जैसी अहम जरूरत के लिए तो ज़रा भी नहीं। उस वक्त शायद ही किसी ने यह सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब पानी भी बेचा और खरीदा जायेगा। हाँ यह बात अलग है कि तब जमींदारों की हुकूमत हुआ करती थी। निम्नवर्ग का जीना तब भी मुहाल था और आज भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि तब जमींदार गरीबों को लूटा करते थे। आज यह काम सरकार और प्रशासन कर रहे हैं। रही सही कसर बैंक वाले पूरी कर रहे हैं। तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तब से आज तक गरीब किसान की किस्मत में सदा पिसना ही लिखा है।

मगर सोचने वाली बात यह है कि इतनी परेशानियाँ, दुःख तकलीफ सहन करने के बाद भी कभी इंसान ने जंगल काटने के विषय में नहीं सोचा। क्यूँ ! क्योंकि पहले हर कोई यह भली भांति जानता था कि यह जंगल ही हमारे जीने का सहारा है जो हमें न सिर्फ रोटी देते है बल्कि हमारी सभी अहम जरूरतों की पूर्ति भी करते है। यह पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं, यादों का घरौंदा हुआ करते थे। क्या आपको याद नहीं, वो बचपन के खेल जिनमें इन पर वो पल-पल चढ़ना उतरना, तो कभी इनसे घंटों बतियाना वो सुख दुःख में इन्हें गले लगा वो हँसना वो रोना, वो नीम की निबोली, वो आम के पत्ते, वो बरगद की बाहें, वो अमरूद थे कच्चे।

मगर अब सब कुछ बस क़िस्से और कहानियों में क़ैद होकर रह गया। क्यूँ क्योंकि आज ऐसा नहीं है। आज तो नज़र उठाकर देखने पर जहां तक नज़र जाती है वहाँ तक केवल कंक्रीट के जंगल ही दिखाई देते है। फिर चाहे उसके लिए तापमान का बढ़ता प्रकोप ही क्यूँ ना झेलना पड़े या पानी का अभाव। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए आज हर इमारत हर सोसाइटी में जल का अभाव है ऊपर से ठेकेदार रोबदार आवाज में कहता है अपनी सोसाइटी में तो पाँच से छः बोरवेल है और यदि फिर भी कभी जरूरत पड़ जाये तो टैंकर मँगवा लेते है कुल मिलाकर आपको कभी पानी का अभाव नहीं झेलना पड़ेगा। इस पर भी जब उनसे कहो यदि सभी इसी तरह लगातार बोरवेल लगवाते रहे तो एक दिन धरती के अंदर का सारा जल सूख जाएगा फिर क्या करेंगे तो कहता है सच कल किसने देखा अभी अपनी सोसाइटी में तो पानी है फिर बाकी जगह क्या है क्या नहीं उस से अपने को क्या। सच कितना स्वार्थी हो गया है आज का इंसान जिसे केवल अपनी स्वार्थपूर्ति से मतलब है। फिर चाहे वो इमारतें बनाने वाले ठेकेदार हों या आज कल की सरकार फिर भले ही उसका खामियाजा पूरी मानव जाति को ही क्यूँ ना भोगना पड़े। सब का बस एक ही राग है ‘पैसा फेंक तमाशा देख’ ऐसे हालातों में आज जिसके पास पैसा है उसके पास निजी जरूरतों जैसे रोटी कपड़ा और मकान के साथ-साथ बिजली पानी जैसी अहम जरूरतों की पूर्ति भी है। इसका अर्थ यह निकलता है कि पानी की कमी नहीं है। मगर मिलता उन्हें ही है जिनके पास पैसा है और जिनके पास पैसा नहीं हैं उन बेचारों की ज़िंदगी तो खाने कमाने के चक्करों में ही निकल जाती हैं। उनके घरों में तो रोज़ चूल्हा जलना ही उनकी अहम जरूरतों की पूर्ति के बराबर है।

क्या यही है एक विकासशील देश की पहचान ? आज भी मैं देख रही हूँ एक ओर खड़ी तीस-तीस माले की बड़ी-बड़ी इमारतें जिनमें सभी सुख सुविधाओं के साथ बिजली चले जाने पर पावर बैकप की सुविधा भी उपलब्ध है। मगर उन विशाल एवं भव्य इमारतों के ठीक सामने है निम्नवर्ग की अँधेरी कोठरी। जहां एक और साँझ ढलते ही पूरी इमारत रोशनी से नहा जाती है। वहीं दूसरी और उस सामने वाली कोठरी में एक दिया तक नहीं होता जलाने के लिए। क्यूँ ? क्यूंकि बिजली का बिल भरने लायक उनकी कमाई नहीं होती। नतीजा वह बिजली की चोरी करते हैं और टेक्स के नाम पर खामियाजा आम आदमी (मध्यम वर्ग) भरता है। तो ज़रा सोचिए उन गाँवों का क्या हाल होता होगा जो आज भी बिजली से वंचित हैं।

अब बात आती है पानी की ‘जल ही जीवन है’ यह सभी जानते है और मानते भी है। मगर फिर भी जल को बचाने का प्रयास कोई नहीं करता। न बड़ी-बड़ी इमारतों के छोटे-छोटे मकानों में रह रहे लोग और ना ही निम्नवर्ग के लोग। पानी की पूर्ति की चिंता जब सरकार को नहीं तो फिर भला और कोई कैसे करेगा। क्योंकि उन्हें तो पानी की कमी है नहीं और जिन्हें है उन्हें भी पानी की बचत से कोई मतलब नहीं है। उन्हें बस पानी मिलना चाहिए। बचत हो, न हो, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता। उदाहरण के तौर पर मेरे घर की काम वाली बाई को ही ले लीजिये। उसे बर्तन साफ करने और झाडू पोंछे के लिए नल से बहता तेज़ धार वाला पानी ही चाहिए। रखे हुए पानी से काम करने में उसे एतराज़ है। क्यूँ ! क्योंकि उसमें बहुत कष्ट होता है और समय भी ज्यादा लगता है। उसका कहना है कि नल खुला रहे तो बर्तन जल्दी साफ होते हैं। फिर उसके लिए चाहे जितने लीटर पानी बहे तो बह जाये उसे उससे कोई मतलब नहीं।

इतना ही नहीं घर में रखे भरे हुए पानी पर भी उसे लालच आता रहता है। वैसे चाहे वो दिन में शायद एक बार नहाने के बाद मुँह भी न धोती हो। मगर खुद को जरूरत से ज्यादा साफ सुथरा दिखाने के लिए उसे पच्चीस बार हाथ पैर धोने होते है। कुल मिलाकर जब तक सामने दिख रहा भरा हुआ पानी खत्म नहीं हो जाता, उनका भी काम खत्म नहीं होता। यह सिर्फ मेरी नहीं बल्कि हर घर की समस्या है। और जब समझाने की कोशिश करो तो उनका मुँह फूल जाता है। फिर जब खुद के घर के लिए कार्पोरेशन के पानी हेतु लंबी लाइन में लगनी होती है   तब पानी की अहमियत समझ आती है। मगर सिर्फ कुछ घंटों के लिए अगले ही पल से फिर वही ‘ढाक के तीन पात’ हो जाते है। इसी तरह हर रोज़ आम लोग पानी का अभाव झेलते रह जाते है।                    

Tuesday, 1 July 2014

पागल होना,शायद सामान्य होने से ज्यादा बेहतर है...!

यूं तो एक पागल व्यक्ति लोगों के लिए मनोरंजन का साधन मात्र ही होता है। लोग आते हैं उस पागल व्यक्ति के व्यवहार को देखते है। उस पर हँसते और उसका परिहास बनकर अपने-अपने रास्ते निकल जाते है। इस असंवेदनशील समाज से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। कभी-कभी सोचती हूँ तो लगता है कैसा होता होगा पागल होना। क्या महसूस करता होगा कोई पागल। भले ही कोई पागल हो किन्तु उसका दिमाग तो फिर भी काम करता ही है। क्या सोचता होगा वह इंसान जिसे दुनिया की नज़रों में पागल घोषित कर दिया गया हो।

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पागल होना,शायद सामान्य होने से ज्यादा बेहतर है...!

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यूं तो एक पागल व्यक्ति लोगों के लिए मनोरंजन का साधन मात्र ही होता है। लोग आते हैं उस पागल व्यक्ति के व्यवहार को देखते है। उस पर हँसते और उसका परिहास बनकर अपने-अपने रास्ते निकल जाते है। इस असंवेदनशील समाज से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। कभी-कभी सोचती हूँ तो लगता है कैसा होता होगा पागल होना। क्या महसूस करता होगा कोई पागल। भले ही कोई पागल हो किन्तु उसका दिमाग तो फिर भी काम करता ही है। क्या सोचता होगा वह इंसान जिसे दुनिया की नज़रों में पागल घोषित कर दिया गया हो।

खासकर वह पागल व्यक्ति जिसे पागलखाना भी नसीब न हुआ हो। जो सड़क पर दर-दर की ठोकरें खाकर भी दुःखी प्रतीत नहीं होता। लोगों के मनोरंजन और परिहास का पात्र बने रहने पर भी जिसे कभी किसी से कोई शिकायत नहीं होती। किसी पागल व्यक्ति का मज़ाक उड़ाने तक तो फिर भी बात समझ में आती है। किन्तु यदि वह पागल व्यक्ति कोई स्त्री हो तो मुझे दुःख और भी ज़्यादा होता है। इसलिए नहीं कि वह एक स्त्री है। बल्कि इसलिए कि इस बेरहम समाज को उस स्त्री के पागल होने पर भी दया नहीं आती। उसका दर्द उसका दुःख नज़र नहीं आता। अगर कुछ नज़र आता है! तो वह है केवल उसका फटे कपड़ों से झाँकता हुआ शरीर। क्योंकि भूखे कुत्तों को तो बस हड्डी से मतलब होता है। फिर चाहे वो हड्डी किसी की भी क्यूँ ना हो।

खैर आजकल तो लोग छोटी-छोटी बच्चियों को भी नहीं छोड़ते। यहाँ तो फिर भी एक पागल स्त्री की बात हो रही है। फिल्मों के अलावा मैंने कभी नहीं देखा कि कभी कोई इंसान किसी पागल व्यक्ति का तन ढ़क रहा हो या उसे खाना खिला रहा हो। हालांकी दुनिया में सभी बुरे नहीं होते। निश्चित ही ऐसे दयावान और संवेदनशील व्यक्ति भी होते ही होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है। 

कितनी अजीब बात है ना ! इस दुनिया में इंसान से बड़ा जानवर और कोई नहीं है। फिर भी एक इंसान को इंसान से ही सबसे ज्यादा डर लगता है। फिर चाहे वह इंसान कोई चोर, डाकू लुटेरा या हत्यारा ही क्यूँ न हो या फिर कोई पागल व्यक्ति हो। बाकी सबसे डरने का अर्थ तो फिर भी समझ में आता है। लेकिन एक पागल इंसान से भला क्या डरना। मुझे तो बहुत आश्चर्य होता है जब कोई व्यक्ति विशेष रूप से कोई स्त्री जब यह कहती है कि मुझे तो शराबियों से ज्यादा पागलों से डर लगता है। 'अरे पागलों से क्या डरना'! वह बेचारे तो पहले ही अपने होश खो चुके बेबस इंसान है। अव्वल तो किसी से भी डरने की जरूरत ही नहीं होती। फिर भी हर इंसान को किसी न किसी से डर लगता ही है। किन्तु फिर भी मैंने अधिकतर स्त्रियॉं को यह कहते सुना है कि उन्हें नशे में धुत्त लोगों से ज्यादा पागल व्यक्ति से डर लगता है।

मेरी समझ से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारे मन में पागल व्यक्ति के लिए एक निश्चित परिभाषा बैठी हुई है कि ‘अरे पागल का क्या भरोसा’ जाने क्या करे। जबकि दूसरी और हर समझदार इंसान यह बात भली भांति जानता है कि हर पागल एक सा नहीं होता अर्थात आक्रामक नहीं होता। जबकि वह पागल व्यक्ति किसी से कुछ भी न बोले। केवल अपनी ही धुन में रहता हो। फिर भी वो एक अकेला इंसान सबकी नज़रों में खटकता रहता है।

जबकि उन डरने वाली स्त्रियों के स्वयं अपने ही परिवार में दारू पीकर रोज़ मारपीट का शिकार होती हैं। गाली गलौच के कारण घर में रोज़ महाभारत होता है। जिसका बच्चों पर भारी मात्र में बुरा प्रभाव पड़ता है। लेकिन इस सबसे उन्हें डर नहीं लगता है। मगर हर उस चीज़ से डर लगता है जो उन्हें ज़रा भी नुक़सान नहीं पहुँचाती। जैसे किसी इंसान की लाश...मेरी नज़र में तो डर ने लायक ज़िंदा इंसान होते है। मुर्दे बिचारे किसी का क्या बिगाड़ लेंगे। मगर फिर भी लोग मुरदों से ज्यादा डरते है। यह सब देखकर तो लगता है, हम समझदारों से अच्छे तो यह पागल इंसान ही है। कम से कम दुनिया की परवाह किए बिना अपनी दुनिया में मस्त तो रहते हैं। बहुत पहले कभी लगता था कि 'ईश्वर ने यह कैसा अन्याय किया है इन इंसानों के साथ'! जो इन्हें पागल बना दिया।

लेकिन आज जब कभी किसी पागल इंसान को देखती हूँ तो दिल से यह नहीं निकलता कि ‘हे ईश्वर इन्हें ठीक कर दे’।बल्कि अब तो यही फ़रियाद निकलती है कि ''हे ईश्वर बुद्धिजीवियों को थोड़ी सद्बुद्धि दे''। ताकि हम ऐसे लोगों का परिहास बनाने के बजाए उनकी सहायता कर सकें। या कम से कम जो लोग विभिन्न प्रकार के मनोरोगों से जूझ रहे हैं और आत्महत्या करने पर विवश हो रहे हैं हम उन्हें ही यह एहसास दिला सके कि इस दुनिया में 'जीना मौत को गले लगाने से ज्यादा आसान है'। क्योंकि ईश्वर की बनाई यह दुनिया वास्तव में खूबसूरत है और जीने लायक भी है। अगर कुछ बुरा है, तो वह है 'चंद बुरे लोग'। तो उन चंद बुरे लोगों के कारण भला कोई मासूम ज़िंदगी क्यूँ अंतिम साँस ले !!!    

Monday, 23 June 2014

बदलाव को अपनाना ‘आसान है या मुश्किल’

अजीब है यह दुनिया और इसके प्रपंच। कुछ चीजें ‘जस की तस’ चली आ रही हैं और कुछ इतनी बदल गई हैं कि उनके वजूद में उनसे जुड़ी उनकी पुरानी छाया का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं होता। फिर भी कभी-कभी कुछ चीजों को देखकर लगता है कि अब बस बहुत हो गया। अब तो बदलाव आना ही चाहिए। नहीं? किन्तु जब बदलाव आता है तब भी जाने क्यूँ हम चाहकर भी उस बदलाव को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते। इन दोनों स्थितियों में हमारा मन अशांत ही रहता है। ऐसा शायद इसलिए भी होता है क्योंकि बदलाव को देखते वक्त हमें उसमें खुद का दुःख (खेद) या हमारे साथ अतीत में हुई नाइंसाफ़ी नज़र आने लगती है। अतीत में अपने साथ हुए दुर्व्‍यवहार का हम बदलाव के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते। ऐसे में अकसर न्याय भी हमें अन्याय लगने लगता है। नतीजा बदलाव में भी ईर्ष्‍या उत्‍पन्‍न हो जाती है और हम जहां-तहां खड़े बदलाव भूलकर लकीर ही पीटते रह जाते हैं।

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बदलाव को अपनाना ‘आसान है या मुश्किल’

बदलाव को अपनाना ‘आसान है या मुश्किल’

अजीब है यह दुनिया और इसके प्रपंच। कुछ चीजें ‘जस की तस’ चली आ रही हैं और कुछ इतनी बदल गई हैं कि उनके वजूद में उनसे जुड़ी उनकी पुरानी छाया का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं होता। फिर भी कभी-कभी कुछ चीजों को देखकर लगता है कि अब बस बहुत हो गया। अब तो बदलाव आना ही चाहिए। नहीं? किन्तु जब बदलाव आता है तब भी जाने क्यूँ हम चाहकर भी उस बदलाव को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते। इन दोनों स्थितियों में हमारा मन अशांत ही रहता है। ऐसा शायद इसलिए भी होता है क्योंकि बदलाव को देखते वक्त हमें उसमें खुद का दुःख (खेद) या हमारे साथ अतीत में हुई नाइंसाफ़ी नज़र आने लगती है। अतीत में अपने साथ हुए दुर्व्‍यवहार का हम बदलाव के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते। ऐसे में अकसर न्याय भी हमें अन्याय लगने लगता है। नतीजा बदलाव में भी ईर्ष्‍या उत्‍पन्‍न हो जाती है और हम जहां-तहां खड़े बदलाव भूलकर लकीर ही पीटते रह जाते हैं।

बदलाव और उसे सहजता से अपना नहीं पाने के सन्‍दर्भ में एक क़िस्सा आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर क़ायम है, जो अकसर पुराने दोस्तों से मिलने पर ताज़ा हो जाता है। ज़िंदगी में कई बार कुछ क़िस्से ऐसे होते हैं जिन्हें याद करके चेहरे पर मुस्कान भी आती है और मन से क्रोध भी उभरता है। खैर इतने सालों बाद भारत वापस आने पर जब पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई तो यूं समझिए जैसे बस यादों की बरसात हुई। पुराने दोस्तों की बातें, पुराने मोहल्ले के अच्छे-बुरे लोग, उनके तरह-तरह के क़िस्से और उनकी अनगिनत कहानियाँ। उस वक्त उनकी ये सब बातें केवल बातें नहीं रहतीं। एक चलचित्र बन जाया करती हैं।

बात उस वक्त की है जब मैंने कॉलेज में प्रवेश लिया था। मेरे घर से कुछ दूर गुप्ता जी का परिवार रहा करता था। उनकी बेटी थी शालिनी उर्फ़ शालू। हमउम्र होने के नाते हम दोस्त थे। लेकिन हमारे बीच इतनी गहरी मित्रता नहीं थी कि वह मुझे अपना हमराज़ बना सके। किन्तु रूढ़िवादी विचारधारा वाले उस परिवार में शालिनी अपनी ही माँ और भाई से बहुत दुःखी व परेशान थी। एक दिन मैंने उसे उसके घर की बालकनी में खड़े होकर आँसू बहाते देखा।

मुझे देखकर उसने अपने आँसू पोंछने, छुपाने का प्रयास किया। मगर वह आंसूं रोक न सकी। मुझे भी इस तरह अचानक उसके सामने आने पर संकोच हुआ। लेकिन मैंने सोचा कि जब इसने मुझे देख ही लिया है तो क्‍यों न इससे रोने का कारण पूछ लूं। उसके कंधे पर हाथ रखकर मैंने कहा, ‘‘क्‍या बात है शालिनी! क्‍यों रो रही हो?’’ आंसुओं से गीली उसकी आंखों ने मुझमें दया की तरंगें उभार दीं। रहा नहीं गया तो मैंने फिर कहा, ‘‘अगर अपना दुख मुझे बताने से यदि तुम्हारा मन हलका होता हो और यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास हो तो कृपया मुझे बताओ कि बात क्‍या है, क्‍यों रो रही हो? शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।’’ मुझसे थोड़ी सी सान्‍त्‍वना पाकर ही उसका दिल मोम की तरह पिघल गया। उसने एक बार में ही अपना सारा दुःख कह सुनाया। उसने बताया, ‘‘मैं अपने ही घर में विश्‍वास के काबिल नहीं रही। मां और भाई दोनों मुझे सन्‍देह भरी नजर से देखते हैं। उन्‍हें मेरी समझदारी पर थोड़ा सा भी यकीन नहीं है। वे मुझे हमेशा टोकते हैं कि इसे सही-गलत का फर्क पता नहीं है। जबकि मैं जानकर कभी किसी गलत राह पर नहीं जाऊंगी, मगर कोई विश्वास करे तब ना। मोहल्‍ले के लड़कों की वजह से मेरी माँ व भाई मुझ पर बिलकुल भरोसा नहीं करते। जो काम मैंने किए ही नहीं उसमें निर्दोष निकलने की मेरी रोज परीक्षा होती है। हालांकि मोहल्‍ले के लड़के इतने बुरे भी नहीं हैं। यहां रहनेवाले लोगों को उनसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है। फिर भी उनके कारण मेरा भाई मुझ पर चौबीसों घंटे नज़र रखता है। मैं बिना कार्य के कहीं भी नहीं जाती। तब भी मुझ पर नज़र रखी जाती है। यह मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। अपने दोस्तों के सामने मुझे शर्मिंदगी महसूस होती है। मगर इस सब से केवल मुझे फर्क पड़ता है, मेरे घरवालों को नहीं। यहाँ तक कि मेरी माँ को भी भाई का कहा ही सच लगता है। जो उसने कहा वही सही है। फिर चाहे उसने कोई कहानी बनाकर ही क्यूँ न सुना दी हो। मेरा पक्ष तो कोई जानना ही नहीं चाहता और ना ही मुझे कभी अपनी बात कहने का कोई मौक़ा दिया जाता है। उन्‍होंने मुझे यह चेवावनी पहले से ही दे रखी है कि पिताजी तक यह बात नहीं जानी चाहिए। ऐसे में मैं कहाँ जाऊँ, क्या करुँ! मुझे कुछ समझ नहीं आता। तुम ही कहो पल्लू... यदि कोई लड़का मुझसे प्रेम कर बैठे तो उसमें मेरी क्या गलती है! मैं तो उसे केवल समझा ही सकती हूँ ना कि वो भले ही मुझे पसंद करता है परंतु मेरे मन में उसके प्रति ऐसी कोई भावना नहीं है। फिर भी वो न माने तो मेरी क्या गलती! घर आकर घरवालों को ऐसी बात बताना या उस बारे में बात करना खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। पहले ही बिना किसी दोष के हजार पाबंदियों में जी रही हूँ मैं। न घर के बाहर खड़ी हो सकती हूँ न खिड़की पर। ना ही स्वतन्त्रता से कहीं आ-जा ही सकती हूँ। अब तुम ही कहो कि मैं क्या करुँ। मेरे भाई की अनावश्‍यक पाबंदियों के कारण सारा मोहल्‍ला मुझे शक की नज़र से देखता है। सभी की आँखों में मुझे मेरे प्रति चरित्रहीनता का भाव नज़र आता है। दम घुटता है मेरा। साँस नहीं ली जाती मुझ से। जब बिना कुछ किए ही इतनी सज़ा मिल रही है तो इससे अच्छा है कि ऐसी सजा मैं कुछ करके ही भुगतूं। मन करता है उस लड़के को हाँ बोल दूं और भाग जाऊँ उसके साथ। या मर जाऊँ कहीं जाकर, मगर पापा के बारे में सोचकर रह जाती हूँ।’’

उसकी सारी कहानी सुनकर मेरा मन किया कि मैं खुद उसकी माँ से बात करुँ। लेकिन फिर अगले ही पल लगा कि जब उन्हें खुद अपनी बेटी पर विश्वास नहीं है तो फिर भला वो मेरी बात क्या समझेंगी। खैर यह उस वर्षों पुरानी बात थी। आज स्थिति यह है कि शालिनी और मैं अच्‍छे दोस्त हैं। पहले जो कुछ समाज में घटता था, उसकी परवाह अब किसे है, पर दुख है कि लड़कियों के प्रति भेदभाव के मामले में इतने सालों बाद भी लोगों की मानसिकता में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। यह सोचकर बहुत दुख होता है।एक ओर हम इक्‍कीसवीं सदी की बात करते हैं और दूसरी ओर आज भी लड़के और लड़की के फर्क को अपने दिलो-दिमाग में लिए फिरते हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों में शायद यह फर्क बहुत हद तक कम ज़रूर हुआ है, पर मिटा अब भी नहीं है। मगर निम्‍न मध्‍यमवर्गीय व निम्‍न वर्गीय लोगों की सोच तो अब भी वैसी की वैसी ही है , जिससे मेरी मित्र शालिनी पीड़ित थी।  क्या किसी भी मामले में बदलाव लाना या उस बदलाव को अपनाया जाना वास्तव में इतना कठिन है? यह चिन्‍तन का एक गंभीर विषय है।

                                        

Wednesday, 11 June 2014

ज़िंदगी और मौत, दोनों एक साथ...


ज़िंदगी को क्या नाम दें यह समझ नहीं आता। लेकिन मौत भी तो किसी पहेली से कम नहीं होती। कभी-कभी कुछ ऐसे मंजर सामने आ जाते है, जो दिल और दिमाग पर अपनी एक छाप सी छोड़ जाते है। ऐसा ही एक मंजर मैंने भी देखा। यूं तो हर खत्म होने वाली ज़िंदगी  किसी नए जीवन की शुरुआत ही होती है। फिर चाहे वो पेड़ पौधे हों या इंसानों का जीवन। लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ जब किसी इंसान की मौत होती है तब हमें आने वाली ज़िंदगी या हाल ही में जन्म ले चुकी नयी ज़िंदगी का खयाल ही नहीं आता। ऐसा शायद इसलिए होता होगा, क्योंकि जाने वाले इंसान से फिर कभी न मिल पाने का दुःख हम पर इतना हावी हो रहता है कि हम नयी ज़िंदगी के बारे में चाहकर भी उतनी गंभीरता से नहीं सोच पाते। दिवंगत आत्मा के परिवारजनों के लिए तो यह उस वक्त संभव ही नहीं होता। लेकिन यदि मैं अन्य परिजनों की बात करुँ तो शायद हर संवेदनशील इंसान के दिमाग में उस नयी ज़िंदगी का ख़्याल आता ही है। नहीं ? मैं जानती हूँ आज के असंवेदनशील समाज में यह बात बेमानी लगेगी। मगर इस बार मेरा अनुभव कुछ ऐसा ही रहा। 
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ज़िंदगी और मौत, दोनों एक साथ...

नमस्कार दोस्तों आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखने का समय मिल पाया है। भारत वापस आने के बाद घर मिलने से लेकर रोज़ मर्रा कि दिनचर्या व्यवस्थित होने तक समय ही नहीं मिल सका कि कुछ पढ़ भी सकूँ, लिखना तो दूर की बात थी। लेकिन अब सब व्यवस्थित हो गया है। अब पहले की ही भांति लिखना पढ़ना पुनः प्रारम्भ होगा। यूं भी पिछले दो महिनों में पढ़ने लिखने के लिए बहुत कुछ है। पढ़ने में समय लगेगा तो कृपया ब्लॉगर मित्र यह न समझने कि मैंने उनके ब्लॉग पर आना ही छोड़ दिया है। इसलिए मेरा सभी ब्लोगर मित्रों से निवेदन है कि आप सभी कृपया फिलहाल मेरी ब्लॉग पोस्ट पढ़ें। मैं भी शीघ्र ही आपकी ब्लॉग पोस्ट पर पहुँचने का प्रयास अवश्य करूंगी। मुझे देर हो सकती है, मगर आऊँगी ज़रूर.... आशा है आप मेरा निवेदन स्वीकार करेंगे। और मेरी पोस्ट भी ज़रूर पढ़ेंगे धन्यवाद  

ज़िंदगी और मौत, दोनों एक साथ

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ज़िंदगी को क्या नाम दें यह समझ नहीं आता। लेकिन मौत भी तो किसी पहेली से कम नहीं होती। कभी-कभी कुछ ऐसे मंजर सामने आ जाते है, जो दिल और दिमाग पर अपनी एक छाप सी छोड़ जाते है। ऐसा ही एक मंजर मैंने भी देखा। यूँ तो हर खत्म होने वाली ज़िंदगी किसी नए जीवन की शुरुआत ही होती है। फिर चाहे वो पेड़ पौधे हों या इंसानों का जीवन। लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ जब किसी इंसान की मौत होती है तब हमें आने वाली ज़िंदगी या हाल ही में जन्म ले चुकी नयी ज़िंदगी का खयाल ही नहीं आता।

ऐसा शायद इसलिए होता होगा, क्योंकि जाने वाले इंसान से फिर कभी न मिल पाने का दुःख हम पर इतना हावी हो रहता है कि हम नयी ज़िंदगी के बारे में चाहकर भी उतनी गंभीरता से नहीं सोच पाते। दिवंगत आत्मा के परिवारजनों के लिए तो यह उस वक्त संभव ही नहीं होता। लेकिन यदि मैं अन्य परिजनों की बात करुँ तो शायद हर संवेदनशील इंसान के दिमाग में उस नयी ज़िंदगी का विचार आता ही है। नहीं ? मैं जानती हूँ आज के असंवेदनशील समाज में यह बात बेमानी लगेगी। मगर इस बार मेरा अनुभव कुछ ऐसा ही रहा।

२४ अप्रैल २०१४ आज मैंने फिर एक मौत देखी। अपने ही घर के पड़ोसी परिवार के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति की मौत। यूँ तो वो एक साधारण या आज की तारीख में आम समझे जाने वाले रोग (हृदय घात) से होने वाली मौत ही थी। कोई हादसा या दुर्घटना नहीं थी। मगर न जाने क्यूँ मुझे जब से उनका स्वस्थ बिगड़ने का समाचार मिला था। तब से ही मेरे मन में रह-रहकर यह ख़्याल आ रहा था कि उन्हें कुछ नहीं होगा। ठीक हो जाएंगे वे, जबकि दूसरी ओर न सिर्फ उनके परिवार वाले, अपितु आस पड़ोस के लोग भी उम्मीद का दामन छोड़कर आने वाले बुरे वक्त के प्रति अपना –अपना मन बना चुके थे। इसलिए जब यह दुखद समाचार मिला तब भी घर वालों के चेहरे पर बहुत ज्यादा दुःख दिखायी नहीं दिया। हालांकी दुःख तो होता ही है।

लेकिन इसके बाद जो मैंने देखा। वह मेरे लिए तो इस प्रकार का पहला अनुभव ही था। जब मैं और मेरा परिवार दुःख व्यक्त करने उनके घर पहुँचे तो मैंने देखा, सामने जहां एक ओर उस परिवार के (मुखिया) दिवंगत आत्मा की मिट्टी रखी है। वहीं दूजी ओर उसी घर का सब से नन्हा सदस्य जो मात्र अभी कुछ महीनों का है लेटा-लेटा ज़ोर-ज़ोर से किलकारियाँ मार-मारकर खेल रहा है। हालांकी मैं भली भांति जानती हूँ कि एक अबोध शिशु भला क्या जाने कि जिसकी गोद में वो कल तक खेल रहा था आज वो गोद हमेशा के लिए उस से छिन गयी।

लेकिन न जाने क्यूँ उस वक्त यह ज़िंदगी और मौत का नजारा देखकर मन में एक अजीब सी ही भावना उत्पन्न हुई। जिसे शायद शब्दों में ब्यान कर पाना संभव नहीं है। उस वक्त समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या प्रतिक्रिया है मन मस्तिष्क की, कैसा खेल है यह वक्त या ईश्वर का, इसे किस्मत का खेल कहें या समय की विडंबना। एक तरफ लेटी हँसती खेलती ज़िंदगी और दूजी ओर लेटी शांत स्वभाव लिए मौत। सच कितना अजीब है यह सब। वाकई ज़िंदगी और मौत सच में एक अदबुद्ध, असमान्य पहेली ही तो है। जिसे कभी कोई इंसान समझ ही नहीं सकता। अपनी जिस पोती के साथ खेलने की चाह में उनकी ज़िंदगी गुज़र गयी और जब उसके साथ हंसने खेलने का समय आया। तब ही ईश्वर ने उनसे उनकी ज़िंदगी ही छीन ली।

एक तरफ मातम और दूजी ओर नवजीवन की किलकारियाँ, यह मंज़र भी अजीब था। कुछ क्षणों के लिए तो स्वयं परिवार वालों की समझ में भी नहीं आ रहा था कि पिता की मौत का ग़म मनाए या नव जीवन की किलकारियों की खुशी। मैंने अपनी ज़िंदगी में बहुत सी मौतें देखी  मगर, ज़िंदगी और मौत का ऐसा मंज़र मैंने पहले कभी नहीं देखा। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाये।  तब भी लोग नन्ही सी जान को तो मृत शरीर से दूर ही रखते है। मगर वहाँ ऐसा नहीं था। हालांकी मृत शरीर काँच के बक्से में बंद ही था। किन्तु फिर भी...

लेकिन यदि भावनात्मक दृष्टि को मद्देनज़र रखते हुए देखा जाये, तो हो सकता है कि इसके पीछे का कारण यह हो कि जीते जी तो वह दादा अपनी पोती के साथ खेल ना सके। तो कम से कम अंतिम समय में ही उनकी आत्मा अपनी पोती का वो हँसना खिलखिलाना देख सके, सुन सके। ताकि उनकी आत्मा को शांति मिल सके। हालांकी यह सब मन बहलाने वाली बातें है। लेकिन दुःखी परिवार के लिए उस वक्त यह सभी बातें और बातों से कहीं ज्यादा मायने रखती हैं।

सच कभी-कभी हम जिन लोगों को करीब से जानते नहीं, सिर्फ पहचानते हैं। तब भी उन्हीं लोगों के माध्यम से हमें ज़िंदगी अपना एक नया ही रूप दिखा जाती है। कभी-कभी सोचती हूँ तो लगता है, यदि जीवन की अंतिम सच्चाई और परिणाम यही है। तो फिर हम क्यूँ इतनी घ्रणा, प्रेम, सुख दुःख, अमीरी गरीबी, जैसी मोह माया के फेरे में पड़े रहते है। इतना ही नहीं संतुष्टि नाम की हवा तक हमें कभी छूकर नहीं गुजरती। बाकी सब तो दूर की बात है। क्यूँ हमें जितनी मिले यह ज़िंदगी कम ही लगती है। जबकि जिसे जो चाहिए उसे वो कभी नहीं मिल पाता है। जो ज़िंदगी को तरसता है, उसे मौत 'धीमे जहर' की तरह खत्म करती है और जो मौत चाहता है, उसे ज़िंदगी “प्यासे को पानी की तरह” तरसाती है।      

Friday, 7 March 2014

दिवस नहीं अधिकार मनाएं महिलाएं...


हम अपने आसपास के लोगों के जीवन-स्तर को देखकर ही सम्‍पूर्ण समाज को उस स्‍तर पर ला खड़े करते हैं। और उसी स्तर पर हो रहे विकास को देखते हैं। जबकि उस निर्धारित स्तर से ऊपर या नीचे भी जीवन चलायमान होता है। उधर हमारी नज़र जाती ही नहीं। जाती भी है तो उस जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के कोई प्रयास नहीं होते। आज कितने लोग होंगे, जो घर की बहू-बेटियों की तरह ही घर की कामवाली बाई की इज्‍जत करते होंगे। शायद उंगलियों में गिनने लायक। घरेलू हिंसा से पीड़ित बाई अपने नीले-पीले शरीर को दिखाकर जब हमारे सामने रोती-बिलखती है, तो भी सालों हमारी सेवा करनेवाली बाई के लिए हम कुछ नहीं कर पाते। क्योंकि हम कानूनी पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहते।

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दिवस नहीं अधिकार मनाएं महिलाएं

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महिला दिवस आने को है। हर वर्ष की तरह इस बार भी इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जाएगा। महिला मुक्ति मोर्चा या महिला सशक्तिकरण संस्थाएँ एक बार फिर खुलकर समाज विरोध-प्रदर्शन करेंगी। जगह-जगह महिलाओं के हक में अभियान चलाए जाएँगे। मीडिया भी ‘गुलाब गेंग’ फिल्म के साथ ना सिर्फ इस विषय को बल्कि इस दिन को भी भुनायेगा। कुछ दिनों के लिए लोग जोश और आक्रोश से भरकर इस दिशा में कुछ सकारात्मक कदम उठाने का प्रण भी लेंगे। लेकिन कुछ दिनों में ही सारा जोश ठंडा पड़ जाएगा और सभी की ज़िंदगी वापस ढर्रे पर जहां की तहां आ जाएगी। हर साल यही होता आया है और शायद यही होता रहेगा।

मेरे लिखे पर भी यह बात लागू होती है। अमूमन तो मैं इस तरह का दिवस मनाने में कोई विश्वास नहीं रखती लेकिन फिर भी कभी-कभी वर्तमान हालातों के बारे में सोचकर ऐसा कुछ मन में आने लगता है कि वह किसी न किसी दिवस के साथ स्वतः ही जुड़ जाता है। अब इस महिला दिवस को ही ले लीजिये। महिलाओं के अधिकारों के लिए क्या कुछ नहीं किया सरकार ने। फिर चाहे वो महिलाओं की सुरक्षा का मामला हो या फिर संसद से लेकर सभी निजी व सरकारी संस्‍थानों में कोटे का, लेकिन जो भी हुआ वो सिर्फ कागज़ों पर। हक़ीक़त में तो कुछ हुआ ही नहीं। हो भी कैसे। सरकार को तो राजनीतिक खेलों से ही फुर्सत नहीं। उनके लिए तो यह देश एक शतरंज की बिसात है और मासूम जनता उस बिसात की मोहरें। एक ऐसा जंग का मैदान जहां हर कोई राजनेता केवल अपने लिए खेलना चाहता है। जनता और देश जाये भाड़ में।  सभी को केवल अपना मतलब साधना है।  इसलिए तो आए दिन देश के टुकड़े हो रहे हैं। कभी खुद देशवासी ही आपस में लड़-लड़कर अपना एक अलग राज्य बनाने को आतुर हैं। तो कहीं बाहरी देशों के लोग अपने घर में घुसकर अपनी सीमा बाँध रहे हैं। जब जिसका जैसा जी चाहा, उसने जनता को प्यादा जानकार अपनी मनमर्ज़ी की और आज भी कर रहे हैं।

इसी तरह यह महिलाओं का मामला है। इनकी स्थिति में पहले से काफी सुधार है। यह बात जितनी कहने और सुनने में आसान लगती है,वास्तव में उतनी है नहीं। इसके अनगिनत उदाहरण हैं। जेसिका लाल हत्‍याकाण्‍ड हो या निर्भया कांड, किस्‍सों की भरमार है। ये क़िस्से महिलाओं की तथाकथित तरक्की या उन्नति पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं।

कहने को महिलाएं पहले की तुलना में पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बन गईं हैं, लेकिन मैं पूछना चाहती हूँ कि ऐसी पढ़ाई, आत्मनिर्भरता किस काम की, जो उन्‍हें हरदम असुरक्षा में होने का अहसास कराए। इससे अच्छा तो महारानी लक्ष्मी बाई का ज़माना था। तब औरतों को पढ़ाई-लिखाई के साथ शस्त्रविद्या भी प्रदान की जाती थी ताकि वक्त आने पर हर नारी अपने शत्रु को मुँह तोड़ जवाब दे सके। इसीलिए कोई अंग्रेज़ उनकी ओर आँख उठाकर देखने की हिम्मत भी न कर सका।

एक वो दौर था और एक यह दौर है। जब हम आज से ज्यादा पहले अच्छे थे तो फिर क्यूँ भूल गए अपनी वो सभ्यता, संस्कृति जिसमें एक स्त्री को पुरुषों के समान हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाती थी। ऐसे में सवाल उठने लाजिमी हैं कि क्‍यों आज की नारी पढ़-लिखकर केवल पैसा कमाने तक ही सीमित है? आज भी एक नारी को अपनी सुरक्षा के लिए किसी पुरुष या किसी न्याय व्यवस्था की जरूरत क्‍यों है? यदि ऐसा है तो फिर क्या फायदा नाममात्र का महिला दिवस मनाने का।

वास्तव में महिलाओं का कोई दिवस हो या न हो, मेरी नज़र में केवल पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े हो जाना ही नारी के सम्मान के लिए पर्याप्त नहीं है। जब तक नारी को घर-परिवार, समाज और कार्यक्षेत्र में सम्मान सहित एक सुरक्षित माहौल नहीं मिलता, तब तक महिला दिवस मनाना कोरी औपचारिकता ही रहेगा। महिला दिवस पर जिन महिलाओं पर ध्‍यानाकर्षण होता है वे केवल मध्यम वर्गीय परिवार की बहू-बेटियाँ ही नहीं है। बल्कि इनमें वे भी शामिल हैं, जो लोगों के घर-घर जाकर चौका-बर्तन, साफ-सफाई के कार्य कर रही हैं। निर्माणाधीन भवनों, घरों में ईंट-गारा, मिट्टी-पत्थर ढो रही हैं। उनके अधिकारों के लिए क्‍या महिला दिवस अलग से आयोजित किया जाएगा? उनकी सुरक्षा, स्वास्थ,  जीवन के बारे में कैसे सोचा जाएगा? उन बच्चियों पर कैसे विचार होगा, जो सड़कों पर भीख मांगा करती हैं या फिर बाल-विवाह में बंधकर परिवार का भार संभालती हैं? क्या वे हमारे समाज का हिस्सा नहीं हैं? क्या उनकी सुरक्षा, उनका जीवन हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है?

हम अपने आसपास के लोगों के जीवन-स्तर को देखकर ही सम्‍पूर्ण समाज को उस स्‍तर पर ला खड़े करते हैं। और उसी स्तर पर हो रहे विकास को देखते हैं। जबकि उस निर्धारित स्तर से ऊपर या नीचे भी जीवन चलायमान होता है। उधर हमारी नज़र जाती ही नहीं। जाती भी है तो उस जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के कोई प्रयास नहीं होते। आज कितने लोग होंगे, जो घर की बहू-बेटियों की तरह ही घर की कामवाली बाई की इज्‍जत करते होंगे। शायद उंगलियों में गिनने लायक। घरेलू हिंसा से पीड़ित बाई अपने नीले-पीले शरीर को दिखाकर जब हमारे सामने रोती-बिलखती है, तो भी सालों हमारी सेवा करनेवाली बाई के लिए हम कुछ नहीं कर पाते। क्योंकि हम कानूनी पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहते।

सिर्फ आधुनिक कपड़े पहन लेने, पब में शराब-सिगरेट पीने, पुरुषों के साथ शिक्षा ग्रहण करने और उनकी तरह व्यवहार करने से महिलाओं की प्रगति प्रकट नहीं होती। यह सब उनके अधिकारों की श्रेणी में नहीं आता। फिर भी सभ्य कहा जानेवाला समाज का वर्ग इन्हीं सब बातों को महिला अधिकारों में गिनता है। जबकि सही मायनों में समान अधिकार का मतलब पुरुष-महिला के एकसमान सामाजिक व सरकारी अधिकार एवं कर्तव्‍य से है।  किसी भी स्त्री की प्रगति तब ही होगी जब उसे खुद को सफल दिखाने के लिए आधुनिक आडंबरों की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब बिन बताए, जताए हरेक पुरुष और खुद नारियां भी पूरे सम्मान के साथ उसके अधिकारों का पालन करेंगी।

Saturday, 1 March 2014

विज्ञापन का असर...


बहुत याद आता है वो गुज़रा ज़माना। वो होली के रंग, वो दीवाली के दिये। वो संक्रांति की पतंग, वो गणेश उत्सव की धूम, वो नवरात्रि में गरबे के रंग, वो पकवानों की महक, वो गली की चाट, वो मटके की कुल्फी और भी न जाने क्या-क्या....ज़िंदगी तो जैसे आज भी वहीं बस्ती है। 

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विज्ञापन का असर

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कल टीवी पर एक विज्ञापन देखा विज्ञापन एक आटा बनाने वाली कंपनी का था। नाम था चैंपियन आटा। शुरू-शुरू में जब यहां पर ऐसे आटा दाल चावल मसाले के विज्ञापन देखा करते थे तो बहुत हंसी आती थी। जाने क्यूँ तब इस तरह के विज्ञापन देखना बड़ा अजीब लगता था। हालांकी तब अपने यहाँ भी एम.डी.एच के मसालों के विज्ञापन और शायद पिल्सबरी आटे का विज्ञापन आया करता था। अब भी आता है या नहीं पता नहीं। तब यह उतना अजीब नहीं लगता था जितना यहाँ आने के बाद लगा। खैर उस विज्ञापन के माध्यम से यह संदेश दिया जा रहा था कि यदि आप इस आटे से बनी रोटियाँ बनाकर खाओगे तो अपने पिंड की याद में खो जाओगे और यहाँ ना सिर्फ अपने देश बल्कि अपने अपनों से हुई दूरी को भी कम महसूस करोगे।

यह सब देखकर कई बार सोचो तो आज भी यहाँ रहना ऐसा ही लगता है, जैसे किसी गाँव के व्यक्ति को अपना गाँव छोड़कर शहर में रहने में लगता होगा। हाँ यह बात अलग है कि हिंदुस्तान में भी अब वो पुराना भारत नहीं बसता। जिसकी मिट्टी से अपने देश की सभ्यता और संस्कृति की भीनी –भीनी महक आया करती थी। ठीक उसी तरह विदेश का यह शहर लंदन भी अब विदेश नहीं लगता। इसलिए नहीं कि अब मुझे यहाँ रहने की आदत हो गयी है। बल्कि इसलिए क्योंकि अब यहाँ विदेशी कहे जाने वाले (गोरे) खुद अपने ही देश में विदेशियों की भांति ही इक्का दुक्का नज़र आते है और जो वास्तव में यहाँ के लिए विदेशी है। जैसे हम हिन्दुस्तानी उनकी तो यहाँ जैसे भरमार है। लेकिन आज जब दोनों ही देशों में खान पान से लेकर रहन सहन तक सब एक सा हो चला है। उसके बावजूद भी भारतीय लोगों में विदेश आने का आकर्षण कम होता नज़र नहीं आता। देश प्रेम या अपनी मिट्टी से जुड़ी भावनाएं तो अब केवल किताबी बातें बनकर रह गयी है। वास्तविक ज़िंदगी से तो अब इनका दूर-दूर तक कोई नाता नज़र नहीं आता। आ भी कैसे सकता है क्योंकि अब तो किताबों का भी वास्तविक ज़िंदगी से कोई वास्ता ही नहीं रहा। तो फिर किताबी बातों का कहाँ से रहेगा।

लेकिन दुःख केवल इस बात का होता है कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हर इंसान का ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही एक मात्र उदेश्य बनकर रह गया है। इसके अतिरिक्त किसी की भी ज़िंदगी में और कुछ बचा ही नहीं है। अब केवल पैसा ही ज़िंदगी है। पहले लोग जरूरत के लिए पैसा कमाते थे। अब पैसा ही जरूरत बन गया है। अब यह सरकार और प्रशासन की अनदेखी का नतीजा है। या विदेशों का आकर्षण ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। इस सब में बहुत से लोग (समूह या विभाग) जिम्मेदार है। इसलिए यहाँ किसी एक का नाम लेकर दोषारोपण करना उचित नहीं लगता। जाने क्यूँ आज भी आम लोगों को ऐसा लगता है कि विदेशों में तो जैसे पैसा बरसता है। मगर वास्तव में ऐसा है नहीं।  हाँ इतना ज़रूर है कि यहाँ और वहाँ की विनिमय दर में अंतर होने के कारण शायद आप यहाँ, वहाँ के मुकाबले थोड़ा ज्यादा पैसा बचा सकते हो। लेकिन फिर यहाँ के खर्चे भी तो वैसे ही होते है, जैसी आपकी आय। फिर क्यूँ हम भारतीय अपना देश छोड़कर बाहर विदेश जाने को व्याकुल हैं। भारतीय इसलिए कहा क्योंकि भारत के लोग ही ऐसे है जो दुनिया के लगभग हर देश में बसते हैं।

लेकिन यहाँ सोचने वाली बात यह है कि गाँव छोड़कर शहर आकर हमने या हमारे बुज़ुर्गों ने जो कुछ भी अनुभव किया वो क्या कम था जो अब हम देश छोड़कर विदेश जाकर करना चाहते है। जिस तरह एक गाँव से जुड़े व्यक्ति को शहर की आबो हवा रास नहीं आती और उसे हर पल अपने गाँव की याद सताती है। ठीक उसी तरह एक सच्चे हिन्दुस्तानी को यहाँ (लंदन) अपने देश की याद बहुत सताती है। जबकि अब यहाँ हर वो सुविधा है जो अपने यहाँ है (कुछ एक चीजों को छोड़कर) फिर भी अपना देश अपना ही होता है। लेकिन उसके बावजूद भी जब याद आती है अपने अपनों की, अपने समाज, अपने तीज त्यौहारों की, तब ऐसे ही अपने देश की बनी चीजों से काम चलाकर ही भारी मन से एक औपचारिक भाव लिए अपने मन के साथ-साथ घरवालों का दिल भी बहलाना पड़ता है।

default3तब बहुत याद आता है वो गुज़रा ज़माना। वो होली के रंग, वो दीवाली के दिये। वो संक्रांति की पतंग, वो गणेश उत्सव की धूम, वो नवरात्रि में गरबे के रंग, वो पकवानों की महक, वो गली की चाट, वो मटके की कुल्फी और भी न जाने क्या-क्या....ज़िंदगी तो जैसे आज भी वहीं बस्ती है। मगर यहाँ यह सब पूरा होता है ‘हल्दी राम के संग’ यानी ‘होली के रंग हल्दी राम के बने पकवानों के संग’ मिठाई हो या भरवा पराँठे हल्दी राम ही है यहाँ जो सब कुछ है बनाते, या फिर भारतीय पकवान बनाने वाली अन्य कंपनीयां। फिर क्या होली की गुजिया और क्या माँ के हाथों से बने आलू गोभी के भरवां पराँठे। ‘दूध दही और मक्खन घी की जगह तो अब (लो फेट) ने ले ली’। ‘चाय भी हो गयी अब केटली की सहेली’।

समझ नहीं आता जब इतना याद आता है अपना देश और मन को भाता नहीं परदेस तो फिर क्यूँ हमने मन मारकर जीना सीख लिया। क्यूँ ज़िंदगी को जीने के बजाय एक बोझ समझकर ढ़ोना सीख लिया। कहने वाले तो अब यही कहते है कि अब भारत में भी वो भारत नहीं बसता जिसकी बातें हम तुम करते है। यहाँ भी अब वही हाल है विदेशों की नकल करने में हो रही हड़ताल है। पर जाने क्यूँ अब भी मेरा मन कहता है। भारत , भारत ही रहता है। भारत में अब भारत ना भी रहता हो शायद, पर हर भारतीय के दिल में भारत अब भी रहता है। भारत का भारत में ही अब शायद कुछ ना रहा हो बाकी। जैसे किसी नेता या अभिनेता की खादी या कानून के रखवालों की ख़ाकी। किन्तु विदेश में रहना वाला कोई भी इंसान चाहे हिन्दुस्तानी हो या पाकिस्तानी, देसी हो या विदेशी, जिस तरह कभी अपना नाम पता, जाती धर्म नहीं भूलता। ठीक उसी तरह वह चाहे नागरिकता कहीं की  भी ले ले मगर अपने वतन को नहीं भूलता।

तभी तो लोग विदेशों में रहकर भी अपने बच्चों के दिलों में अपने देश धर्म की शमा जलाए रखना चाहते हैं। उन्हें अपने देश की सभ्यता और संस्कृति से वाकिफ़ कर के रखना चाहते है। फिर आगे भले ही उनकी वो संतान अपनी आने वाली पीढ़ी को वो धरोहर दे न दे। लेकिन मैं एक बात दावे के साथ कह सकती हूँ कि विदेशों में बसने वाले मुझ जैसे प्रवासी भारतीयों की चाहे जो भी मजबूरियाँ हों, जिनके चलते वह अपना देश छोड़कर विदेशों में रहने को मजबूर हैं मगर उनमें से जितने भी मेरी बात से सहमत है और मुझ जैसी सोच रखते है वह सभी आज न सही किन्तु अपने जीवन के अंतिम पड़ाव (बुढ़ापे) के क्षण अपने ही देश में बिताना पसंद करेंगे। नहीं ? जय हिन्द....

Sunday, 16 February 2014

ये कहाँ आ गए हम…

फरवरी का महीना यानी हमारे परिवार के लिए वैवाहिक वर्षगाँठ का महीना है। इस महीने हमारे घर के सभी जोडों की शादी की सालगिरह होती है। कल १७  फरवरी को मेरी भी है। लेकिन आज इतने सालों बाद जब पीछे मुड़कर देखो तो ऐसा लगता है।
“ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते”
लेकिन ....आगे पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें http://mhare-anubhav.in/?p=424  धन्यवाद।  

ये कहाँ आ गए हम...

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फरवरी का महीना यानी हमारे परिवार के लिए वैवाहिक वर्षगाँठ का महीना है। इस महीने हमारे घर के सभी जोडों की शादी की सालगिरह होती है। कल १७  फरवरी को मेरी भी है। लेकिन आज इतने सालों बाद जब पीछे मुड़कर देखो तो ऐसा लगता है।

“ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते”


लेकिन आज जब वर्तमान ज़िंदगी को इस गीत से जोड़कर देखो। तो तब भी तो ऐसा ही लगता है। समय के साथ-साथ कितना कुछ बदल गया। आज से तेरह साल पहले ज़िंदगी क्या थी और आज क्या है। घर में सबसे छोटी होने के नाते शादी के पहले कभी कोई ज़िम्मेदारी उठायी ही नहीं थी। मगर शादी के बाद किस्मत से मम्मी पापा (सास –ससुर) के बाद सबसे बड़ा बना दिया। सभी की ज़िंदगी में शायद बदलाव का यह दौर तो शादी तय होने के दिन से ही शुरू हो जाता है। नहीं ? न सिर्फ रिश्ते बदल जाते है। बल्कि उनके साथ-साथ ज़िंदगी भी एक नए रंग में, एक नए साँचे में ढलने लगती है।

वैसे तो ऐसा सभी के साथ होता है। लेकिन फिर भी यहाँ रहकर ऐसा लगता है जैसे अंग्रेजों की ज़िंदगी में शायद उतना परिवर्तन नहीं आता है। जितना कि हम भारतीय लोग महसूस करते हैं। यहाँ ज़िंदगी शादी के बाद भी पहले की तरह ही चलती है। सब की अपनी-अपनी ज़िंदगी में अपने आप से जुड़ी एक अलग एवं एक निजी जगह होती है। जिसमें कोई दखल नहीं देता। यहाँ तक कि पति पत्नी भी एक दूसरे की उस निजी कही जाने वाली ज़िंदगी में दखल नहीं देते। यहाँ आपकी ज़िंदगी केवल आपकी रहती है। यहाँ तक कि डॉक्टर भी एक की रिपोर्ट दूसरे के साथ नहीं बाँटता। आपके कहने पर भी नहीं, जब तक दूसरा बाँटने के लिए आज्ञा नहीं दे देता।

मगर अपने यहाँ तो मान्यता ही यह है कि शादी दो व्यक्तियों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन है। दो ऐसे परिवार जो एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न होते है। जिनका न सिर्फ रहन सहन, बल्कि सोच तक मेल नहीं खाती। ऐसे परिवारों में होती है शादियाँ और हम सारी ज़िंदगी निभाते है उन रिश्तों को, जो हमारे जैसे हैं ही नहीं। फिर भी समझौता करना और आपसी सामंजस्य बनाए रखते हुए चलने की दी हुई शिक्षा हमें चाहकर भी अपने बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ जाने की सलाह नहीं देती।

सच कितनी बदल जाती है ज़िंदगी। जहां मुझे एक और भाईयों का तो खूब प्यार मिला।  मगर कभी बहनों का प्यार नहीं मिला। क्यूंकि मेरी कोई बहन नहीं है। लेकिन आज देवरानियाँ भाभी-भाभी करके आगे पीछे घूमती है। जहां कभी यह नहीं जाना था कि प्याज काटकर भी रसे की सब्जी बनाई जा सकती है। वहाँ तरह-तरह का हर एक की पसंद का अलग-अलग तरह का खाना बनाना सीखा। वो भी बड़े प्यार और दुलार के साथ। पूछिये क्यूँ ? क्योंकि मेरी कोई ननंद नहीं है।  इसलिए मेरी शादी के बाद मेरी सासु माँ ने मुझे बेटी की तरह सब सिखाया। यह उनका शौक भी था और शायद जरूरत भी थी ...

यूं तो मुझे सब आता था। लेकिन खान पान में ज़मीन आसमान का अंतर होने के कारण उन्होने मुझे अपने घर के (जो अब मेरा हो चुका था) में ढलना सिखया। मत पूछिये कि क्या-क्या नहीं किया उन्होंने मेरे लिए। शायद मेरे से ज्यादा समझौता तो उन्होंने किया। अपनी सोच के साथ अपनी परम्पराओं के साथ। फिर भी कभी मुझ पर दबाव नहीं डाला गया। 'अब भई किसी को बुरा लगे तो लगे'। 'पर सच तो यही है कि जितना सास का प्यार और दुलार मुझे मिला। उतना शायद आने वाली बहुओं को भी नहीं मिला'। हाँ एक बात ज़रूर कॉमन रही। वो ये कि मुझे बच्चों से शुरू से ही लगाव था, आज भी है। नवरात्रि और गणेश चतुर्थी के समय मेरी डांस क्लास में भी मैं बच्चों से घिरी रहती थी और आज भी जब घर जाना होता है तो अपने भतीजे भतीजियों से घिरी रहती हूँ। रही बात देवरों की, तो वो देवर कम दोस्त ज्यादा है। इसलिए कभी बड़े छोटे वाली बात महसूस ही नहीं हुई।

DSC01590 हाँ छोटे मोटे मन मुटाव लड़ाई झगड़े तो हर घर में होते हैं। आखिर इनके बिना भी तो प्यार नहीं बढ़ता। लेकिन फिर भी इन रिश्तों को निभाने में सजाने में सँवारने में यदि मेरा साथ किसी ने दिया तो वो केवल पतिदेव ने दिया। यदि उनका सहयोग न होता तो शायद मेरे लिए इन रिश्तों को समझना थोड़ा कठिन हो जाता।  लेकिन उन्होंने हर कदम पर मेरा साथ दिया। कई बार अपने परिवार के खिलाफ जाकर भी सही को सही और गलत को गलत बताया। इतना ही नहीं उन्होंने तो मुझे कई गुरु मंत्र भी दिये। जिनसे मुझे बिना किसी तनाव के रिश्तों को संभालने की समझ मिली। लेकिन वो सीक्रेट है भाई हम बता नहीं सकते :) तो कोई पूछे न। यही सब सोचकर और उनका सहयोग पाकर ही कभी–कभी ऐसा लगता है कि यह तेरह साल जैसे तेरह दिन की तरह निकल गए और समय का पता ही नहीं चला। कितना कुछ हुआ इन तेरह सालों में, मैंने ना सिर्फ अपना घर छोड़ा बल्कि आज की तारीख में तो अपना देश तक छोड़े बैठी हूँ। कहाँ मैं अकेली घर की बहू थी और कहाँ आज एक माँ से लेकर भाभी ताई ,चाची, मामी सब बन गयी हूँ। न सिर्फ रिश्तों की बल्कि अब तो शारीरिक काया पलट तक हो गयी है। अब तो पुरानी तस्वीर को देखकर भी यही लगता है कि “ये कहाँ आ गए हम”.... :)

Wednesday, 5 February 2014

आने वाले वक्त का पूर्व संकेत देती है ज़िंदगी ...

आज सुबह कपडों की अलमारी जमाते वक्त अचानक ही एक पुराने कोट पर नज़र जा पड़ी। जैसे ही उसे उठाया तो उसकी जेब से चंद सिक्के लुढ़ककर ज़मीन पर जा गिरे। कहने को तो वो सिक्के ही थे मगर उनके बिखराव ने मेरे मानस पटल पर ना जाने कितनी बीती स्मृतियों के रंग बिखेर दिये। सिक्कों को तो मैंने अपने हाथों से उठा लिया। मगर उन यादों को मेरी पलकों ने चुना और मेरी नज़र जाकर उस लाल कालीन पर अटक गयी।
आगे पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें ... http://mhare-anubhav.in/?p=417 धन्यवाद  

आने वाले वक्त का पूर्व संकेत देती है ज़िंदगी ...

आज सुबह कपडों की अलमारी जमाते वक्त अचानक ही एक पुराने कोट पर नज़र जा पड़ी। जैसे ही उसे उठाया तो उसकी जेब से चंद सिक्के लुढ़ककर ज़मीन पर जा गिरे। कहने को तो वो सिक्के ही थे मगर उनके बिखराव ने मेरे मानस पटल पर ना जाने कितनी बीती स्मृतियों के रंग बिखेर दिये। सिक्कों को तो मैंने अपने हाथों से उठा लिया। मगर उन यादों को मेरी पलकों ने चुना और मेरी नज़र जाकर उस लाल कालीन पर अटक गयी। जिस पर वो सिक्के गिरे थे और तब  न जाने कब उस कोट और कालीन को देखते ही देखते मेरा मन बचपन की यादों में खो गया। तो सोचा क्यूँ ना यह अनुभव भी आप लोगों से बांटा जाये।

भोपाल में इन दिनों एक मेला लगता है जिसे स्तिमा कहते हैं। लेकिन अब यह मेला नवंबर दिसंबर में लगने लगा है। यह कहने को तो मेला होता है मगर उसमें बिकते केवल कपड़े हैं। वो कपड़े जो कपड़ा बनाने वाली कंपनियों ने उसमें आए फाल्ट के कारण उसे मुख्य बाज़ार में नहीं बेचा। जबकि उन कपड़ों की वो कमी इतनी बारीक होती है कि अत्याधिक ध्यान से देखने पर ही दिखाई देती है अन्यथा यदि किसी को बताया न जाये तो शायद ही कोई उन कपड़ों की उस कमी को देख पाये। मुझे याद हैं मैंने भी ज़िद करके बचपन में वहाँ से एक कोट खरीदा था। सफ़ेद रंग का काली धारियों वाला कोट। उन दिनों मेरी उम्र कोई 5-6 वर्ष की रही होगी। तब मुझे कोट पहनने का बड़ा शौक हुआ करता था। न जाने क्या बात थी उस कोट में कि उस पर मेरा दिल आ गया था। तब कहाँ किसे पता था कि एक दिन ज़िंदगी मुझे एक ऐसे देश ले जाएगी। जहां कोट जैकेट जैसी चीज़ें मेरी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाएँगी।

फिर धीरे-धीरे एक दिन वो भी आया। जब कॉलेज के दिनों में मैंने मेरी मम्मी का ओल्ड स्टाइल का कोट पहना, खूब पहना। हालांकी वो कोट देखने में ही बहुत ओल्ड फॅशन दिखता था। मगर जाने क्यूँ उसे पहनने में मुझे कभी कोई झिझक या किसी भी तरह की कोई शर्म महसूस नहीं हुई।

सच यूं तो ज़िंदगी एक पहेली से कम नहीं होती। अगले पल क्या होगा यह कोई नहीं जानता। लेकिन फिर भी मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि आने वाले पल का संकेत भी देती है ज़िंदगी, यह और बात है कि हम उस संकेत को उस वक्त समझ पाते है या नहीं या फिर शायद कच्ची उम्र के मासूम मन की कल्पना या सोच मात्र ही आगे चलकर सही साबित हो जाती है। यह ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। क्यूंकि उस उम्र में जो विचार आते है वो पूरी तरह शुद्ध होते हैं। किसी भी तरह का मोह, लोभ, लालच, कुछ भी तो नहीं होता मन के अंदर, बस एक हवा के झोंके की तरह एक ख्याल मन में आया और आकर चला गया। फिर कभी दुबारा उस ख्याल पर न कोई ध्यान दिया गया न कभी ध्यान देने की ज़रूरत ही समझी गयी। और कभी दूर कहीं भविष्य में जो अब वर्तमान बन चुका है, उसमें खुद को उस ख्याल से जोड़कर देखा तब कहीं जाकर इस बात का यकीन आया कि वाकई ज़िंदगी और वक्त दोनों ही आने वाले समय का संकेत देते हैं। बस हम ही नहीं समझ पाते।

यूं तो उन चंद सिक्को का मेरे कोट की जेब से निकल कर बिखर जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। मगर मेरी निगाह अटकी थी उस लाल कालीन पर। क्यूंकि ऐसे ही बचपन में टीवी देख-देखकर मन में एक और इच्छा जागी थी कभी, दो मंजिला घर में रहने की इच्छा। जहां सीढ़ियों पर लाल रंग का कालीन बिछा हो। जिस पर चढ़ते उतरते वक्त एक भव्य एहसास हो जैसे आप कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि कोई खास इंसान हो। यह फिल्मों का असर था शायद, पापा के ट्रांस्फर से यह इच्छा पूरी तो हुई मगर पूरी तरह नहीं। क्यूंकि दो मंज़िला मकान तो मिला। लेकिन उन सीढ़ियों पर बिछा लाल कालीन न मिला। फिर भी माँ को कई बार कहा करती थी मैं कि ज़रा स्टाइल से चढ़ा उतरा करो। लगना चाहिए फिल्मों जैसा घर है अपना, उस वक्त तो मेरी मम्मी यह सुनकर मुस्कुरा दिया करती थी। और मुझी से कहा करती थी कि ज़रा करके दिखना कैसे चढ़ना उतरना है। मैं दिखा भी देती थी। जैसे मेरी मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं। मैं ही एक ज्ञानी हूँ।  लेकिन तब यह बातें बाल मन की कोरी कल्पनाओं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं थी। इसलिए यह मुझे मिल ही जाये ऐसी कोई भावना नहीं थी मन में, अर्थात उसके लिए कोई ज़िद नहीं थी। बस एक इच्छा थी। जो यहाँ आकर पूरी हुई। मतलब (U.K) में जहाँ- जहाँ भी मैं रही हर शहर, हर घर में मुझे लाल कालीन बिछा हुआ मिला।   

ऐसा ही एक और अनुभव हुआ। बचपन से जब भी हंसी हंसी में किसी ने मेरा हाथ देखा सभी ने यह कहा कि यह लड़की विदेश जाएगी। पर मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। बस उस वक्त सदा मन से यही निकला जब जाएगी तब जाएगी, तब की तब देखी जाएगी। अभी तो "मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में" यहाँ तक कि शादी के पहले जब पासपोर्ट बनवाने के लिए कहा गया। तब भी मन में यही बात आई "तेल देखो तेल की धार देखो" तब भी मेरे मन ने कभी विदेश के सपने देखना प्रारंभ ही नहीं किया और शादी के 6 साल तक विदेश जाने का कोई नमोनिशान भी ना था और ना ही मेरे मन में ऐसी कोई इच्छा ही थी। मगर फिर भी आना हो ही गया। 

यह मेरी ज़िंदगी में आने वाले पूर्व समय के संकेंत नहीं थे और क्या थे। इसलिए कभी-कभी लगता है शायद ज़िंदगी उतनी भी जटिल नहीं है जितना हम सोचते हैं। हो सकता है यदि हम हमारी ज़िंदगी की हर छोटी बड़ी बात पर गंभीरता से विचार करें तो आगे के लिए खुद को तैयार कर पाने में आसानी हो जाये, नहीं ? यह सब सोचकर लगता है यह सारे अनुभव मेरी ज़िंदगी के पूर्वाभास ही तो थे। जिन्होंने जाने अंजाने मुझे मेरी भविष्य में आने वाली ज़िंदगी का संकेत पहले ही दे दिया था। जब मैं बच्ची थी। और कोमल मन की बाल हट के आगे तो ईश्वर भी हार जाता है। शायद इसलिए उस दौरान मन में उठने वाली सारी इच्छाओं और महत्वकांगक्षाओं को वह भी अपने तराजू में तौलकर झटपट पूरी कर दिया करता था। 

Sunday, 26 January 2014

केवल एक सोच

मृत्यु जीवन का एक शाश्वत सत्य, जिसे देख जिसके बारे में सुन आमतौर पर लोग भयभीत रहते हैं। लेकिन मेरे लिए यह हमेशा से चिंतन का विषय रहा। इससे मेरे मन में सदा हजारों सवाल जन्म लेते हैं। जब भी इस विषय से जुड़ा कुछ भी देखती या पढ़ती हूँ तो बहुत कुछ सोचने लगती हूं। या इस विषय को लेकर मेरे मन में सोचने-समझने की प्रक्रिया स्वतः ही शुरू हो जाती है।

कल अपनी एक सहेली से बात करते वक्त अचानक उसने बात काटते हुए कहा, ‘यार...! मैं बाद में बात करती हूं। कुछ गंभीर बात है। यहाँ अपना करीबी रिश्तेदार गुजर गया है।’ सुन कर मैंने कह तो दिया कि ठीक है बाद में बात करेंगे लेकिन दिमाग में जैसे बहुत कुछ घूमने लगा। बाल्यकाल में अपनी नानी, दादी और फिर उसके बाद अपने नाना की मृत्यु देखी। चारों ओर ग़मगीन माहौल में माँ का रो-रोकर बुरा हाल देखा लेकिन यह सब देखने के बाद भी मेरी आँखों में कभी आँसू की एक बूंद भी नहीं उभरी। ऐसा क्यूँ, इस बात का जवाब मेरे पास भी नहीं है। उस वक्त बड़ों को लगा होगा कि बच्ची है, इसे समझ नहीं है अभी कि अपनों को खो देने का दर्द क्या होता है। या शायद इतने सारे लोगों को रोता देख चकित हो कि ऐसा क्या हो गया जो सभी लोग रो रहे हैं।

लेकिन सच कहूँ तो 4-5 साल की छोटी उम्र में भी मेरे मन में यह विचार कभी नहीं आए। बल्कि यह सब देख मन में एक कौतूहल रहता कि बस एक बार किसी तरह मृत शरीर का मुख देखने का अवसर मिल जाये बस। बड़ों के लाख समझाने, यह बताने पर भी कि मृतक का मुख देख कर तुम्‍हें केवल यही लगेगा कि वह निद्रालीन है, उसे देख कर भला मुझे क्या मिलेगा जो मैं इतनी बेचैन हो रहती हूं किसी दिवंगत आत्मा के मृत मुखमंडल देखने के लिए। मुझे भी आज तक समझ नहीं आया कि मुझे ऐसा क्‍यों लगता था और आज भी लगता है। लेकिन ऐसा मुझे मेरे अपनों के लिए ही महसूस नहीं होता है। बल्कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु पर मेरे मन में उसका चेहरा देखने मात्र की उत्सुकता स्वतः ही उत्पन्न होने लगती है। उस वक्त जाने क्‍यों मेरे मन में अजीब-अजीब विचार आने लगते। सब कुछ रहस्यमय लगने लगता। ऐसा क्‍यों हुआ? और यदि हुआ तो अब इस अवस्था में क्या सोच रहा होगा उसका मृत शरीर। हालांकि मुझे  भलीभांति पता है कि मृत है तो सोच कैसे सकता है। फिर भी मन में रह-रह कर यही विचार आता है कि कैसा लग रहा होगा उस मरे हुए व्यक्ति को उस वक्त, जब वो अपने आस-पास प्रियजनों को इस तरह रोते-बिलखते बंद आँखों से भी देख रहा होगा। क्या उसका ध्यान सभी पर जा रहा होगा! या उनमें से कोई एक खास होगा, जिसे भरी भीड़ में भी ढूंढ लेंगी उसकी वो बंद आंखें और पढ़ लेंगी उसके मन का सच। क्या सच में 13 दिनों तक मृतक की आत्मा घर में रहती है। शायद सही ही है। यह मोह-माया का संसार यों एक ही पल में छोड़ कर चले जाना भी संभव नहीं इंसान के लिए। इसलिए शायद विधाता भी तेरह दिन की मोहलत और दे देता होगा इंसान को कि देख ले तेरे चले जाने से भी, न दुनिया रुकी और ना रुकेगी कभी। लेकिन फिर भी कुछ तो होता है उन दिनों। ऐसे ही एहसास नहीं होता उस व्यक्ति की मौजूदगी का हमें कि वो यही कहीं है हमारे आस-पास लेकिन हम उसे देख नहीं पाते। इसलिए शायद मेरे मन में यह कौतूहल रहा करता है। या शायद सभी को ऐसा लगता है। क्या सभी ऐसा सोचते हैं? यदि सोचते हैं तो फिर बच्चों को क्‍यों कहानियाँ बना कर सुनाते हैं। सच क्‍यों नहीं बताते उन्हें। मेरा तो मन श्मशान जाने को भी करता है।

मुझे लगता है कि एक बार देखूं तो जलती हुई चिता किसी की। कैसा लगता है उस वक्त। मन में तो खयाल आता है कि उस चिता की लपटों से भी कोई आवाज जरूर आती होगी। बातें करना चाहती होंगी वो आग की लपटें भी। मरने वाला व्यक्ति भी वो सब कहना चाहता होगा जो वह अपनी जिंदगी में कह नहीं पाया। कैसी अजीब छटपटाहट होती होगी ना वो। चिता के धुएँ में घुट कर रह जाती होगी उसकी आवाज क्योंकि शरीर जो साथ नहीं है उसके। लेकिन क्या कभी कोशिश की जाती है ऐसी किसी आवाज को सुनने की, उसे महसूस करने की। क्या चल रहा होता है उस वक्त उस व्यक्ति के मन में और वहाँ उपस्थित सभी लोगों के मन में जो श्मशान जाते हैं। क्या उन्हें सुनाई देती है कोई आवाज या महसूस भी होता है ऐसा कुछ कि उनके आस-पास की हवा में कुछ है। जो उनसे बहुत कुछ कहना चाहता है। शायद नहीं! अगले ही पल फिर ख्याल आता है कि जाने वाले के चले जाने का उसकी चिताग्नि के कम होने के साथ ही दुःख कम होने लगता होगा। कैसा होता होगा वो मंजर। कहाँ तो हमें आग की एक चिंगारी मात्र से जल जाने पर इतनी पीड़ा होती है। और कहाँ किसी अपने को आग के हवाले करने की पीड़ा और घर लौटते वक्त जैसे सब खत्म...और फिर सभी की जिंदगी आ जाती है पुराने ढर्रे पर...क्या कोई जवाब है मेरे इन प्रश्नों का? ऐसा सिर्फ मुझे ही लगता है या सभी ऐसा सोचते हैं? मेरे दोस्त कहते हैं इस मामले में मैं पागल हूँ। कुछ भी सोचती हूँ, कुछ भी कहती हूँ। आप सबको क्या लगता है।

Wednesday, 15 January 2014

एक शाम ऐसी भी..

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अभी कुछ दिन पहले की बात है शाम को पीने के पानी का जग (जिसमें फिल्टर लगा हुआ है) भरने के लिए जब मैंने अपनी रसोई का नल खोला तो उस समय नल में पानी ही नहीं आ रहा था। घर में पानी का ना होना मेरे मन को विचलित कर गया कि अब क्या होगा। लंदन(या तथाकथित विकसित देशों) में रहने का और कोई फायदा हो ना हो मगर बिजली पानी की समस्या से कभी जूझना नहीं पड़ता। कम से कम इसके पहले तो मुझे यहाँ कभी ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ।

खैर पानी न होने के कारण एकदम से ऐसा लगा कि अब क्या होगा। घर में तो ज़रा भी पानी नहीं है। पीने का पानी तो चलो बाज़ार में मिल जायेगा किन्तु अन्य कार्य कैसे होंगे। यह सोचते-सोचते जैसे मैं कहीं गुम हो गई थी। फिर जैसे अचानक मुझे मेरे ही दिमाग ने निद्रा से जगाते हुए कहा कि अरे इतना क्या सोचना, थोड़ी देर में सब ठीक हो जाएगा। यह लंदन है कोई हिंदुस्तान नहीं है कि जहां कई जगहों पर कई-कई दिनों तक पानी ही नहीं आता।

जबकि यह तो इंसान की सबसे बड़ी जरूरत है। राजा हो या रंक पानी तो सभी को चाहिए ही। फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि यहाँ पानी ही न आए। चिंता करने से अच्छा है, पहले अपने घर का पानी का मीटर अच्छे से देख-परख लो कई बार पानी के कम ज्यादा दबाव के कारण भी पानी होते हुए भी नल में पानी आ नहीं पता है।

दिमाग की बातों से दिल को ज़रा हौसला मिला और मैंने अच्छे से जाँच पड़ताल भी की, मगर यह क्या पानी तो सच में नदारद था। अब तो मुझे चिंता हो ही गयी, क्या करुँ क्या ना करुँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। जल्दबाज़ी में श्रीमान जी को फोन घुमा दिया और समस्या बतायी तो उन्हें भी सुनकर ज़रा अचंभा हुआ कि आज ऐसा कैसे हो गया। फिर उन्होंने कहा ज़रा देर ठहरो मैं मकान मालिक से बात करता हूँ। शायद उन्हें इस समस्या का कोई हल पता हो। उनकी बात सुनकर मैंने खुद को एक चपत लगायी कि अरे मेरे दिमाग यह बात पहले क्यूँ नहीं आयी।

लेकिन मैंने सहमति दर्शाते हुये हाँ कहकर फोन रख दिया। इधर अभी मैंने फोन रखा ही था कि घर के दरवाजे पर दस्तक हुई। देखा तो पड़ोस में रहना वाला गोरा (अँग्रेज़) पड़ोसी भी यही पूछने आया था कि आपके घर में पानी आ रहा है क्या ? मैंने कहा नहीं शायद आज यह समस्या अपने पूरे क्षेत्र की है। यह सुनकर वह धन्यवाद कहकर चला गया। किन्तु यह सुनकर मेरे मन को यह तसल्ली हुई कि यह अकेले मेरे घर की समस्या नहीं है। इतने में श्रीमान जी का फोन दुबारा आया और उन्होने बताया कि मकान मालिक से बात हो गयी है। उनका कहना है कि उनके यहाँ भी पानी नहीं आ रहा है। आमतौर पर जब कभी ऐसी कोई समस्या होती है तो पहले ही घर पर पत्र आ जाता है।

किन्तु आज अभी तक तो कोई पत्र आया नहीं, इसका मतलब है ज़रूर कोई अकस्मात आयी हुई समस्या होगी। चिंता न करें शायद थोड़ी देर में आ जाएगा।

मैंने कहा ठीक है देखते हैं कितना समय लगता है मगर मन ही मन दिमाग में यह विचार कौंध रहा था कि अरे लंदन में भी ऐसा होता हैं क्योंकि इसके पहले मैं जहां कहीं भी रही, वहाँ मैंने ऐसा कभी ना देखा न सुना। यहाँ (लंदन) यह मेरे लिए यह पहली बार था।

हालांकी कुछ महिनों पहले यहाँ बिजली भी गयी थी। तब तो मेरा दिमाग चल गया था अर्थात चिंता नहीं हुई थी। तब मुझे लगा था शायद एमसीबी गिर गया होगा वापस उठा देने से बिजली आ जाएगी। मगर तब ऐसा कुछ हुआ नहीं था। उस दिन वास्तव में अपने हिंदुस्तान की तरह यहाँ भी बिजली गयी थी। बाहर भी एकदम घुप्प अँधेरा था, क्यूँ ना होता ! यहाँ अपने यहाँ कि तरह तो होता नहीं कि बिजली गुल होते ही लोग बाहर। यहाँ तो उस वक्त चारों तरफ सन्नाटा था सिवाय आने जाने वाली गाड़ीयों के शोर के और कोई आवाज़ ही नहीं थी। लेकिन तब जल्द ही बिजली आ गयी थी। ज्यादा देर परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा था। यूं भी बिजली बिना तो फिर भी रात गुजारी जा सकती है। मगर पानी बिना तो बहुत ही मुश्किल है।

लेकिन सिवाय इंतज़ार के और क्या किया जा सकता था। मैंने श्रीमान जी को पहले ही पीने का पानी लाने को कह दिया था। मगर फिर भी मन ही मन रह –रहकर यह ख्याल मेरे दिमाग में खलबली मचा रहा था कि यदि पूरी रात पानी ना आया तो क्या होगा। यहाँ तो पानी जमा करके रखने का प्रचलन भी नहीं है। सो हम भी ऐसा नहीं करते और यहाँ की व्यवस्था की मेहरबानी से कभी ऐसा करने की जरूरत भी नहीं पड़ी। अशांत मन के कारण बार-बार अपने यहाँ की याद आ रही थी। सच कितनी समझदारी और सूझबूझ से चलते हैं वहाँ लोग, आज से नहीं बल्कि हमेशा से, जब अथाह पानी था तब भी पानी को बचाकर रखने की परंपरा थी और वर्तमान हालातों से तो आप सभी भली-भांति परिचित हैं ही। तब बस यूँ ही एक विचार आया कि भारत के लोग कितने भी आधुनिक क्यूँ ना हो जाये कुछ मामलों में तो ज़मीन से जुड़े रहेंगे ही।

हालांकी एक बात तो यहाँ की भी माननी ही पड़ेगी कि यहाँ की ज़िंदगी कितनी भी भौतिकतावादी क्यूँ न हो। मगर आम लोगों की सुविधा और रोज़ मररा ही की ज़िंदगी से जुड़ी जरूरतों का यहाँ भरपूर खयाल रखा जाता है। यदि उनसे पैसा लिया जाता है तो सुविधाएं भी वैसी ही दी जाती है। ताकि जनता को कम से कम परेशानी हो और इसी बात का नतीजा यह था कि हमारे क्षेत्र में जिस कंपनी के माध्यम से पानी आता है उन्होने अपनी वैबसाइट पर खेद व्यक्त करते हुये ना सिर्फ क्षमा याचना की थी बल्कि समस्या का कारण भी बताया था और समय भी कि कब तक पानी आ जाएगा और ठीक उसी वक्त पानी आ भी गया था। और क्या चाहिए...

तब जाकर मेरे मन को चैन मिला और दिल से एक बात निकली कि काश अपने यहाँ (हिंदुस्तान) में भी सरकार और प्रशासन के लिए जनता की जरूरत और उनकी सहूलियत सर्वोपरि हो जाए और वहाँ भी लोगों को रोज मररा की ज़िंदगी से जुड़ी अहम जरूरतें और ऐसी सुख सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो सकें। तो कितना अच्छा हो...

Saturday, 11 January 2014

स्मार्ट फोन का ज़माना क्या कभी होगा पुराना...?


यह एक ऐसा विषय है जिस पर यदि बात की जाये तो बात कभी खत्म ही ना होगी। एक ऐसा विषय जिस पर "जितने मुंह उतनी बातें" इसलिए इस विषय पर मतभेद होना स्वाभाविक सी बात है। यूं तो मुझे खुद स्मार्ट फोन के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं है। इसलिए मैं जो भी लिख रही हूँ केवल अपनी सोच और अनुभव के आधार पर ही लिख रही हूँ। एक दौर था जब बिना फोन के भी जीवन बहुत ही सुखमय तरीके से बीत रहा था। फिर धीरे-धीरे फोन आए तो पत्रों के माध्यम से मिलने वाले सुख का भी अंत हो गया, एक तरह से देखा जाये तो जहां एक और फोन ने दूरियाँ घटा दी वहीं दूसरी ओर आपसी मेल मिलाप को बहुत कम कर दिया। इसके बाद भी लोग कहीं न कहीं संतुष्ट थे। फिर आया मोबाइल फोन इसने जैसे हमें तनाव मुक्त ही कर दिया। ऐसा हमें लगा मगर ऐसा हुआ नहीं, और फिर आए यह स्मार्ट फोन जिन्होंने पूरी दुनिया ही हमारे हाथ में रख दी।       

इस बात को यदि फायदे और नुकसान सामने रखकर देखा जाये तो शायद हमें सही नतीजे पर पहुँचने में आसानी हो सकती है। तो पहले हम फोन से होने वाले फायदे की बात करेंगे। जब से फोन आए तब से सभी की ज़िंदगी ही बदल गयी। दूर बैठे अपने अपनों से जब मर्ज़ी बात करना आसान हो गया। यहाँ हम बात कर रहें है 'लैंड लाइन' वाले फोन की, फिर आया मोबाइल। जिससे हमें अपने बच्चों की पल पल की खबर रखना आसान हो गया। जिस के कारण बहुत हद तक हम चिंता मुक्त हो गए। मोबाइल आने से न सिर्फ बच्चों और परिवार वालों की बल्कि घर में काम करने आने वाली बाई से लेकर सब्जी बेचने वाला/वाली तक के आने या ना आने की जानकारी पहले ही मिल जाने की वजह से हम और भी कई तरह के कामों से चिंता मुक्त हो गए और सब से ज्यादा जो फायदा हुआ वो यह था कि किसी को भी फोन करने से पहले समय का ध्यान रखना या ट्रंकाल बुक करके घंटो इंतज़ार करने का रोना खत्म हो गया। मोबाइल फोन के आने से जब चाहे जहां चाहे किसी भी वक्त और कहीं भी अपनों से बात करना पलक झपकाने जितना आसान हो गया। फिर आया स्मार्ट फोन का ज़माना। इसके आने से न सिर्फ फोन पर जब तब बात करना बल्कि घर में कंप्यूटर ना होते हुए भी फोन पर ही मेल चैक करने और ऑनलाइन बात करने की सुविधा भी मिल गयी। जिसे साइबर कैफ़े जाने का झंझट भी खत्म हो गया। इसके आने से लोगों का अकेलापन भी कुछ हद तक दूर हो गया। सब को अपनी पसंद और मन मर्ज़ी के मुताबिक गाने सुनने, खेल, जानकारी, रास्ते का पता, बात करने की सुविधा और मेल चैक करने तक की सभी सुविधायें हाथ में ही मिल गयी। अब न किसी से बात करने के लिए किसी का मुंह देखने की जरूरत है और न मेल चैक करने के लिए किसी कंप्यूटर की अब सब कुछ आपके हाथ में...और क्या चाहिए? 

अब यदि हम बात करे फोन से होने वाले नुकसान की तो वो भी कम नहीं है। पहला नुकसान अपने आस पास की दुनिया से संपर्क खत्म हो जाना, दूजा संयम का खत्म हो जाना, नतीजा तनाव जैसे रोग से चौबीसौं घंटे घिरे रहना। क्यूंकि जब से यह स्मार्ट फोन आए लोगों का जैसे सारा संयम ही ख़त्म हो गया। जहां एक ओर पहले शांति पूर्ण संतुष्ट जीवन की पहली शिक्षा संयम और धैर्य रखना सिखाया जाता था, वहीं आज इन स्मार्ट फोन के उपयोग ने इस बात को हमारे अंदर से पूरी तरह ख़त्म कर दिया है। आलम यह है कि टीवी देखते वक्त या फोन पर कोई वीडियो देखते वक्त भी हम कुछ क्षणों का सब्र भी नहीं कर पाते और विलम्ब होने पर ज़रा में परेशान हो जाते हैं। तीजा पूरा समय उसी में लगे रहने के कारण आँखों और कानो पर बुरा प्रभाव पड़ना। क्यूंकि आमतौर पर लोग ज़्यादातर फोन पर गाने सुनते हुए गेम खेलते रहते है या किसी न किसी से ऑनलाइन बात करते रहते है। जिसके कारण उनकी आँखों पर ज्यादा ज़ोर पड़ता है और कानो में लंबे समय तक इयर फोन लगे रहने कि वजह से कानों को नुकसान पहुंचता है सो अलग। इतना ही नहीं मोबाइल फोन के आ जाने से लोगों की याददाश्त पर भी बुरा असर पड़ा है। पहले लोगों को अपने प्रिय जनो के नंबर मुंह जवानी याद रहते थे। समय देखने से लेकर समाचार पढ़ने तक, लोग समाचार पत्र और घड़ी का इस्तमाल करते थे। मगर अब सब कुछ हाथ में ही है। इसका मतलब आपकी दुनिया का सुकड़कर छोटा हो जाना नहीं है, तो और क्या है। आम मोबाइल की तुलना में स्मार्ट फोन बेट्री भी ज्यादा खाते है। तो जब तब बेट्री खत्म होने का डर अलग लगा रहता हैं। चौथा और सब से महत्वपूर्ण कारण या नुकसान, कुछ भी कह लीजिये। फोन पर इन्टरनेट का होना। मेरी नज़र में इंटरनेट एक ब्रह्मास्त्र की तरह है। यदि सही हाथों में है तो फायदा ही फायदा और यदि गलत हाथों में पड़ जाये तो सर्वनाश निश्चित है।

जैसा कि मैंने उपरोक्त कथन में भी कहा, जहां एक और हम अपने बच्चों की पल पल की खबर रख कर खुद को चिंता मुक्त समझते हैं वहीं दूसरी और बच्चे इंटरनेट का गलत फायदा उठाते हुए उस पर वो सब देखते, सुनते और करते हैं, जो उनके लिए सही नहीं है। उसी का परिणाम है MMS का दुरुपयोग जो आजकल आए दिन लड़के लड़कियां अपने स्कूल कॉलेज में एक दूसरे का वीडियो बना बनाकर एक दूसरे को भेजते रहते हैं। जब तक यह स्मार्ट फोन नहीं आए थे। तब तक मोबाइल में केवल बात करने, संदेश भेजने, रिंगटोन सेट करने और गेम खेलने, तक ही सब कुछ सीमित था। जो शायद ज्यादा अच्छा था। मगर अब ऐसा नहीं जो एक बेहद गंभीर और चिंता जनक बात है। ऐसा मुझे लगता है। हो सकता है आप सब इस बात से सहमति न भी रखते हो। 

अब सवाल यह उठता है कि इतनी समस्याओं के बावजूद भी ऐसी क्या वजह है जो हम अपनी इतनी मेहनत से कमाई हुई गढ़ी कमाई को पानी की तरह बहाने पर मजबूर हो जाते हैं और फिर भी खुश नहीं होते। जबकि पहले फोन के बिना ही क्या, मोबाइल फोने के बिना भी हम बहुत खुश रहा करते थे।

इसके पीछे भी दो वजह है पहली कि पुराने जमाने में केवल घर का मुखिया धन अर्जन के लिए और समाज में सर उठा के जीने के लिए नौकरी करता था ताकि वह अपना और अपने परिवार का सही और सीमित ढंग से पालन पोषण कर सके। देखा जाये तो एक तरह से यह सही भी था इसके कारण घर के अन्य सदस्यों को पैसे की सही अहमीयत पता होती थी। जिसके चलते उन्हें अपनी जरूरत का भी ख्याल रहता था। शायद इसी वजह से उस दौर में लोगों का आचरण भी आज की तुलना में ज्यादा अच्छा रहा करता था। क्यूंकि जब हाथ में सीमित पैसा होगा तो आप स्वतः ही गलत मार्ग पर चाहकर भी नहीं चल सकते। फिर चाहे वो शोक पूरे करने वाली बात ही क्यूँ ना हो। फिर भी लोग अपनी चादर देखकर ही पैर फैलाते थे। शायद इसी वजह से तब बड़े पैमाने में अपराध भी कम होते थे। ऐसा मेरा मानना है।  


मगर आज ऐसा नहीं है। आज हर कोई जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है। आत्मनिर्भर बनाना चाहता है, जो एक तरह से बहुत ही अच्छी बात है इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसका नुकसान यह है कि आज लगभग घर के सभी सदस्यों के हाथ में पैसा आगया है जिसके कारण उन्हें ऐसा लगता है कि उन्होंने दुनिया जीत ली है। अब वो अपनी मर्ज़ी के मालिक है और उनके द्वारा कमाया गया पैसा, पूरी तरह से उनका है। इसलिए उस पैसे को मन चाहे ढंग से खर्च करने का भी अधिकार केवल उनका ही है। उस पैसे पर और किसी का कोई अधिकार नहीं, इस सबके चलते लोग सबसे पहले अपने शोक पूरे करना चाहते है। महंगे-महंगे कपड़े, नयी गाड़ी और नया फोन आज के दौर की सब से ज्यादा चर्चित प्राथमिकतायें हैं। जिन्हें हर कोई जल्द से जल्द हर हालत में पूरा करना चाहता है। फिर चाहे उसके लिए लोगों को कर्जा ही क्यूँ न लेना पड़े। लेकिन फोन हाथ में आते ही फोन लेने की अहम वजह खत्म होती सी मालूम होने लगती है और लोगों का अपने आस-पास की दुनियाँ से संपर्क जुडने के बजाए पूरी तरह टूट जाता है। नतीजा के लोगों की सम्पूर्ण दुनिया केवल स्मार्ट फोन में सिमटकर ही रह जाती है। जैसा आजकल हो रहा है। जहां उस दौर में लोगों की सुबह ईश्वर के नाम के साथ या बड़ों के आशीर्वाद के साथ या फिर सुबह की सैर में प्राकृतिक सुंदरता के साथ दिन की शुरुआत किया करते थे। वही आजकल सुबह की शुरुआत फोन पर अपडेट देखकर होती है।

लेकिन मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि हर दिन आते नए फोन के पीछे लोग पागल ही क्यूँ है। जब से स्मार्ट फोन आए हैं तब से मैंने तो केवल एक ही चीज़ महसूस की वही तीन चार चीजों को हर बार नए ढंग से स्पीड बढ़ाकर आम जनता के सामने लाना और उन्हें लुभाना यही तो काम करती हैं यह फोन बनाने वाली कंपनियाँ और हम अक्ल के अंधे लोगों को यह बात नज़र ही नहीं आती। आप खुद ही सोचकर देखिये आज की तारीख़ में जब कभी आप फोन लेने जाते है तो सबसे पहले क्या देखते हैं। उसका वजन, आकार प्रकार, मोटा पतला, कैमरा, 3G/4G  नेटवर्क, संदेश भेजने की नयी नयी एपलिकेशन जैसे वाट एप ,वाइबर या टेंगो ज्यादा हुआ तो GPS और ज्यादा हुआ तो फोन में डाटा सेव करने की स्पेस कितनी है और इसके अतिरिक्त साधारण फोन करने और संदेश भेजने की सुविधा तो हर फोन में अहम होती ही है। इसमें से सबसे महत्वपूर्ण चीज़ तो आपकी फोन की सिम पर निर्भर करती है। जैसे आपके फोन का नेटवर्क,वो ही सही नहीं होगा तो बाकी सब बेकार ही हो जायेगा। बस केवल इन्हीं बातों के आधार पर हम फोन खरीदते है ना। फिर कुछ दिन बाद वही कंपनी या कोई नयी कंपनी इन्हीं चीजों को नए ढंग से आपके समक्ष पेश करती है। सिर्फ नए रंग रूप के साथ असलियत तो वही होती है जो आपके पास मौजूदा फोन में पहले से है। फिर भी ऐसी क्या बात होती है, जो हम नए फोन की तरफ इस कदर आकर्षित हो जाते हैं कि हमें अपना प्यारा फोन जो बिना किसी गड़बड़ी के हमारा साथ निभा रहा होता है जिसे हमने बड़े अरमानो से खरीदा था वो ही फोन बुरा और ओल्ड फैशन लगने लगता है और हम झट से जाकर खट से अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई को दिखावे की चकाचौंध में अंधे होकर फूँक आते हैं। 

यही एक अहम वजह है कि स्मार्ट फोन का ज़माना कभी होगा न पुराना ... ज़रा सोचिए क्या यह सही है ?

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http://zeenews.india.com/hindi/news/zee-special/what-would-be-the-oldest-set-of-smart-phone-ever/197941