मैंने इस blog के जरिये अपने जिन्दगी के कुछ अनुभवों को लिखने का प्रयत्न किया है
Wednesday, 25 March 2015
गो सोलो (GO SOLO)
आजकल मोबाइल की इस एप्प का विज्ञापन टीवी पर बहुत दिखया जा रहा है। आपने भी ज़रूर देखा होगा। जहां इस एप्प ने आपको अपनी मन मर्जी के मुताबिक जब जी चाहे, जहां जी चाहे अपनी पसंद के कार्यक्रम देखने की सहूलियत दी वहीं दूसरी ओर कहीं न कहीं आपको अकेला कर दिया। यूं तो सयुंक्त परिवारों के टूटने से लेकर इंटरनेट के अंधाधुन उपयोग में आने के बाद से इंसान पहले ही स्वयं को अकेला महसूस करने लगा था। जिसके चलते उसने इंटरनेट पर बनी ऑर्कुट एवं फेस्बूक जैसी आभासी दुनिया की शरण लेना प्रारम्भ कर दिया और इस एप्प ने भी कहीं न कहीं इंसान के उस अकेलेपन में वृद्धि ही की है।
मैं जब भी इस विज्ञापन को देखती हूँ तो मेरे दिमाग में सदैव एक ही विचार आता है कि नित नयी तकनीकों के आ जाने से इंसान पहले ही बहुत अकेला होगया है। विशेष रूप से यह मोबाइल आ जाने के बाद तो जैसे इंसान का वास्तविक दुनिया से नाता ही टूट गया है और उसने अपने चारों ओर किसी किले की भांति एक आभासी दुनिया का निर्माण कर लिया। जिसमें कुछ भी सच्चाई नहीं है। बल्कि हर चीज़ केवल एक आभास है। फिर चाहे वह दोस्ती का पवित्र रिश्ता हो, या त्योहारों का मनाया जाना। कहने का तात्पर्य यह है कि जो चीज़ वास्तविक रूप से पायी जा सकती है उससे भी हमने अपने आपको अलग कर लिया।
मेरे विचार से एक ओर जहां माता-पिता दोनों के रोजगार करने में तो बच्चों का बचपन पहले ही अकेला हो गया था। फिर जब बड़े हुए तो उच्च शिक्षा प्राप्त करने की चाह ने परिवार से दूर कर दिया। वह अकेलापन पहले ही कम नहीं था। उस पर “हॉट स्टार की नयी एप्प गो सोलो” जैसी और भी कई एप्प ने मन के उस सुनेपन को और भी बढ़ावा दिया है।
मानते हैं कि इस आभासी दुनिया ने जहां एक और बहुत से अकेले लोगों को सहारा दिया हालांकी यह भी महज़ एक आभास के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, तो वहीं दूसरी और इस आभासी दुनिया ने बहुत से लोगों को अपने-अपने जीवन में बहुत अकेला और असुरक्षित भी कर दिया। लोग अपनी वास्तविक दुनिया से ज्यादा समय अपनी इस आभासी दुनिया को देने लग गए। और दिनों दिन अकेले होते चले गए। मेरी समझ से तो यदि यह दुनिया केवल एक दूसरे के कुशल मंगल जाने के समाचार तक ही सीमित होती तो शायद फिर भी हम इस अवसाद के शिकार न हुए होते। मगर अफसोस की इस आभासी दुनिया का विस्तार इतनी तेज़ी से हमारे जीवन में फैला, जितनी तेज़ी से हमारे बदन में रक्त फैलता है। और हम कब इस आभासी दुनिए के अकेले पन का शिकार होते चले गए यह हमें स्वयं ही पता नहीं चला। एक समय में यह दुनिया जब तक कंमप्यूटर तक सीमित थी तब तक भी थोड़ा बहुत ठीक था। मगर अब जब यह दुनिया मोबाइल के माध्यम से हाथों में आगयी है। तब से तो बस ‘जल ही जीवन है’ का नारा ‘मोबाइल ही जीवन’ है में तब्दील होगया है।
मुझे तो यह ही समझ नहीं आता कि हम क्यूँ सभी प्राकर्तिक चीजों को छोड़कर नकली चीजों की ओर भागे जा रहे है। क्यूंकि आज वर्तमान में हमारे जीवन का शायद ही कोई भाग ऐसा हो जिसे हम आज भी पूर्ण रूप से जैसा है वैसा ही अपना कर उसे वैसा ही जी रहे हो जैसा हमें कुदरत ने या हमारी संस्कृति ने हमे दिया था। फिर चाहे वो हमारा पहनावा हो या खानपान, गीत संगीत सुनने की चाह हो, या पढ़ने लिखने का ढंग। सभी पर तो विदेशी चीजों का ही वर्चस्व छाया है। हर कोई विदेशी नकल करने में लगा है। इस सब में इंसान की अपनी पसंद और उसकी अपनी रुचि कहीं दब कर गुम हो गयी है।
मैं मानती हूँ परिवर्तन ही जीवन है। किन्तु ऐसा परिवर्तन भी भला किस काम का जो आपको आपकी ही वास्तविकता से दूर कर दे। एक वह समय था जब इंसान कभी अकेले रहने की कल्पना तक नहीं कर सकता था। और एक आज का समय है कि इंसान हर वक्त केवल अकेले रहने के बहाने ढूँढता रहता है। और यही काम कर रही है ‘मोबाइल कि यह एप्प गो सोलो’ मतलब टीवी देखने जैसे साधारण से काम के लिए भी आप अपने परिवार वालों के साथ समझौता मत करो बड़े –बड़े कामों के लिए समझौते करना तो दूर की बातें हैं।
जो करना है अकेले करो क्यूँ ? क्यूंकि किसी को भी अपनी ज़िंदगी में किसी और की दखलंदाजी बरदाश्त नहीं होती। इंसान की ज़िंदगी से गाँव क्या छूटे शहर भी हाथों से छूटता चला गया और अब तो शहर ही नहीं देश भी छूट गया। जिस से न सिर्फ वो दूर जाने वाला बल्कि उसके परिवार वाले भी अकेले रह गए। कभी कभी तो लगता है कि मोबाइल फोन का निर्माण करने वाला व्यक्ति ही अपनी निजी ज़िंदगी में शायद अकेलेपन जाइए अवसाद का शिकार रहा होगा जिसे दूर करने के लिए उसने यह खिलौना बनाया जो आज की तारीख में इंसान की ज़िंदगी से ज्यादा महंगा और अहम हो गया। एक ज़माना था जब हमें दोस्तों के साथ समय बिताने के लिए कुछ भी कर गुजरते थे और एक आज का समय है कि न सिर्फ हम बल्कि छोटे-छोटे बचे भी अपने ही दोस्तों से यह कहते हैं कि हमारी पसंद नहीं मिलती दोस्त, तू जा अपने रास्ते और मुझे अपने रास्ते जाने दे।
एक समय था जब हम टीवी देखने को तरसते थे फिर चाहे उस पर जो कुछ आ रहा हो हम सब झेल जाते थे। मगर आज हमें टीवी देखना तो दूर उस बहाने अपने परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर समय बिताना तक गवारा नहीं क्यूंकि हममें अब समझोता या शायद संयम की काबिलियत ही नहीं। अब फिल्मों को ही ले लीजिये। टीवी पर फिल्में पहले भी आती थी और आज भी आती है। मगर पहले उन्हें टीवी पर सबके साथ बैठकर देखने का एक अलग ही चाव हुआ करता था। जिसके चलते सभी अपना-अपना काम समय पर ही खत्म कर लिया करते थे। मगर आज मोबाइल की इस एप्प ने हमसे हमारा वो चाव भी छीन लिया और बदले में दे दी एक सुनसान वीरान आभासों से भरी अकेली खाली दुनिया। आज कितना बदला गया है ना सब कुछ ! अब घरों में खाने की टेबल पर रोज़ की चर्चा नहीं होती। अब न माता-पिता को अपनी ज़िंदगी में अपने बच्चों का दखल पसंद है और ना ही बच्चों को अपनी ज़िंदगी में बड़ों का, सभी बस एक ही बात सोचते हैं और एक ही बात कहते है ‘गो सोलो’ कभी गुरुदेव ने भी अपने एक गीत में लिखा था “एकला चोलो रे” मगर आज मोबाइल की इस एप्प ने उसे कोई और ही अर्थ देकर न जाने क्या से क्या बना दिय। दिशा चाहे सही हो या गलत सब उस राह पर अकेले ही चलना चाहते हैं। हम इस दुनिया में अकेले ही आए थे और हमें अकेले ही जाना है। फिर भी न जाने क्यूँ हर किसी को यह जीवन अकेले ही बिताना है।
दोस्तों दुनिया चाहे जितनी आगे बढ़ जाये मगर इंसान की जरूरते न कभी बदली थी, न कभी बदलेंगी। उसे कल भी अपने परिवार की, नाते रिश्तेदारों की और उसे भी ज्यादा सच्चे दोस्तों की जरूरत कल भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी लेकिन यदि वह इसी तरह नित नयी आती तकनीकों का गुलाम होकर इस सब से दूर हो भी गया ना तो कभी खुश नहीं रह पाएगा, ज़िंदा तो रहेगा मगर कभी जी नहीं पाएगा। इसलिए दुनिया कुछ भी कहे मगर मैं कहती हूँ ‘डोंट गो सोलो’ सदा सबके साथ चलो सबको साथ लेकर चलो ताकि इस दुनिया में कोई भी इंसान खुद को कभी अकेला न महसूस कर सके। जय हिन्द ...
एकदम सहमत हूँ आपकी बात से. देखिये न, मेरे घर में माँ शाम को सिरिअल देखती है, पापा भी साथ देख लेते हैं. मुझे ज़रा भी इंटरेस्ट नहीं सिरिअल में, लेकिन फिर भी बैठकर उन्हीं के साथ देखता हूँ. घर में दूसरा टीवी अलग कमरे में भी है. चाहूँ तो वहाँ अकेले बैठकर अपने मनपसंद कार्यक्रम या फ़िल्में देख सकता हूँ...लेकिन फिर भी वहीँ घरवालों के साथ बैठना प्रेफर करता हूँ. आपकी बाकी बातों से भी पूरी सहमती है!
ReplyDeleteआपके विश्लेषण से सहमत हूँ. यह भी देखिए कि यह Go Solo "एकला चलो रे" से किसी तरह से भिन्न भी है क्या? या उससे अधिक खतरनाक है.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख | ऐसे ही लिखते रहिये |
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