इन दिनों मुझे ऐसा महसूस हो रहा है मानो ज़िंदगी से सस्ती मौत हो गयी है। देखो ना लोग या तो इस कोरोना काल के चलते सावधानियाँ ना अपनाने के कारण
मौत का शिकार हो रहे है। या फिर जिसे देखो आत्मत्या का बुखार सा चढ़ा है। जिसे देखो
बस मौत को गले लगा रहा है। फिर चाहे वह कोई भी क्यों ना हो, खासकर सुशांत सिंह राजपूत
के निधन के बाद से तो जैसे यह कोई आम सी बात हो गयी है । कहीं उनके प्रशंसकों ने ऐसे कदम
उठाए हैं तो कहीं टिक टॉक स्टार ने और जो देखो वह बस लटक ही रहा है। मैं जानती हूँ मेरे शब्दों का चुनवा थोड़ा कड़वा या सख्त है। पर क्या करूँ जो महसूस कर रही हूँ इन दिनों वह भी कुछ ऐसा ही है। क्या हम वाकई में इतने
कमजोर हो चुके हैं, या फिर यह करोना से आय अवसाद का परिणाम है, या फिर आजकल किसी को अपने
परिवार से प्यार ही नहीं रहा है। क्या आज की पीढ़ी पर (मैं) इतना भारी है कि इस तरह
जान देने वाले युवक/युवतियाँ एक पल के लिए भी अपने माता-पिता के विषय में नहीं सोचते
और महज एक क्षण में सब कुछ खत्म हो जाता है।
हालांकि मैं जानती हूँ कि ऐसा देखने सुनने को पहली बार नहीं मिल
रहा है। अखबारों में लगभग रोज़ ही ऐसी खबरें छपा करती है। लेकिन फिर भी ना जाने क्यों
सुशांत के जाने के बाद से अचानक इस तरह कि घटनाओं में वृद्धि सी नज़र आती है, या फिर
मीडिया वालों ने इस तरह कि घटनाओं को अधिक तूल देना प्रारम्भ कर दिया है। एक तरफ यह
करोना काल, दूसरी तरफ देश पर मँडराता जंग का खतरा। यह सब कम है जो अब यह आत्महत्या मामलों
का नया ट्रेंड चल पड़ा है। जरा कुछ हुआ लटक जाओ। ज़िंदगी से बिना लड़े ही हार मान जाओ। अरे
क्या इसी दिन के लिए माता-पिता अपने बच्चों को लाड़ प्यार से पढ़ा लिखाकर बड़ा करते हैं
कि जब ज़िंदगी इम्तिहान ले तो थक कर हार मान जाओ खुद तो इस दुनिया से चले जाओ मगर अपने
अपनों को कभी ना भरने वाला घाव दे जाओ ताकि
वह तुम्हारी याद में अपना शेष जीवन तड़प-तड़पकर काटें क्यों कि मरने वाले के साथ मरा
नहीं जाता।
माना के ज़िंदगी बहुत कठिन है। लेकिन अपनी परेशानियों से लड़कर आगे
बढ़ना ही ज़िंदगी है ना कि ज़िंदगी से हार कर मौत को गले लगा लेना सही है । ऐसा नहीं है
कि मैं उस दबाव को समझ नहीं सकती जिसके चलते कोई भी व्यक्ति यह कदम उठाने पर मजबूर
हो जाता है। आखिर जीना कौन नहीं चाहता ...है ना ? लेकिन ज़िंदगी हमेशा अपनी शर्तों पर
चले, यह तो संभव नहीं है ना । तो जब ऐसा हो कि ज़िंदगी आपको अपनी शर्तों पर चलने के लिए
मजबूर करे तो चलो क्यूंकि जब आप ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर चलाते हो तो वह भी तो चलती
है। जब अपनी बारी आती है तब हार मान जाना कहाँ कि समझदारी है। अरे नौ जवानों तुम देश
का भविष्य हो उठो जागो और अपनी निजी ज़िंदगी से निकाल कर बाहर देखो, तुम्हारी निजी ज़िंदगी
ही एकमात्र तुम्हारा जीवन का सहारा नहीं हैं। बहुत कुछ है इस दुनिया में करने के लिए । किसी
एक क्षेत्र में सफलता नहीं भी मिली, तो क्या हुआ ? और बहुत सी राहें हैं जिन पर चलकर तुम
न सिर्फ अपने लिए बल्कि अपने अपनों के साथ इस देश और दुनिया के लिए भी बहुत कुछ कर
सकते हो । इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं
जिन्हें तुम्हारी जरूरत है। उनका सहारा बनो।
ईश्वर की दी हुई इस नेमत का यूं मज़ाक ना बनाओ।
अरे मैं तो कहती हूँ उतार फेंको इस अवसाद और उससे जुड़ी जीवन में
आयी असफलता के बुखार को और एक बार फिर पूरे जोश के साथ एक नयी ऊर्जा को अपने अंदर भरकर
खुद को एक आवाज तो दो। फिर देखना कैसे जीवन के अन्य मार्ग तुम्हारे लिए स्वतः ही खुलते
जाते हैं जैसे एक काली अंधेरी रात के बाद जब पुष्प सूरज की किरण पाकर खिल उठते हैं, जैसे रोता हुआ कोई बच्चा अपनी पसंद की चीज़ पाकर मुस्कुराने लगता है, ठीक उसी तरह तुम्हारी
हिम्मत के आगे भी तुम्हारा भावी जीवन बाहें फैलाये तुम्हारा स्वागत करने को आतुर होगा।
तुम कोशिश तो करो एक बार, जरा तो सोचो समझो मेरे यार और फिर फैसला करो।