Wednesday, 1 July 2020

~आत्महत्या का बुखार~





इन दिनों मुझे ऐसा महसूस हो रहा है मानो ज़िंदगी से सस्ती मौत हो गयी है। देखो ना लोग या तो इस कोरोना काल के चलते सावधानियाँ ना अपनाने के कारण मौत का शिकार हो रहे है। या फिर जिसे देखो आत्मत्या का बुखार सा चढ़ा है। जिसे देखो बस मौत को गले लगा रहा है। फिर चाहे वह कोई भी क्यों ना हो, खासकर सुशांत सिंह राजपूत के निधन के बाद से तो जैसे यह कोई आम सी बात हो गयी है । कहीं उनके प्रशंसकों ने ऐसे कदम उठाए हैं तो कहीं टिक टॉक स्टार ने और जो देखो वह बस लटक ही रहा है। मैं जानती हूँ मेरे शब्दों का चुनवा थोड़ा कड़वा या सख्त है। पर क्या करूँ जो महसूस कर रही हूँ इन दिनों वह भी कुछ ऐसा ही है। क्या हम वाकई में इतने कमजोर हो चुके हैं, या फिर यह करोना से आय अवसाद का परिणाम है, या फिर आजकल किसी को अपने परिवार से प्यार ही नहीं रहा है। क्या आज की पीढ़ी पर (मैं) इतना भारी है कि इस तरह जान देने वाले युवक/युवतियाँ एक पल के लिए भी अपने माता-पिता के विषय में नहीं सोचते और महज एक क्षण में सब कुछ खत्म हो जाता है।

हालांकि मैं जानती हूँ कि ऐसा देखने सुनने को पहली बार नहीं मिल रहा है। अखबारों में लगभग रोज़ ही ऐसी खबरें छपा करती है। लेकिन फिर भी ना जाने क्यों सुशांत के जाने के बाद से अचानक इस तरह कि घटनाओं में वृद्धि सी नज़र आती है, या फिर मीडिया वालों ने इस तरह कि घटनाओं को अधिक तूल देना प्रारम्भ कर दिया है। एक तरफ यह करोना काल, दूसरी तरफ देश पर मँडराता जंग का खतरा। यह सब कम है जो अब यह आत्महत्या मामलों का नया ट्रेंड चल पड़ा है। जरा कुछ हुआ लटक जाओ। ज़िंदगी से बिना लड़े ही हार मान जाओ। अरे क्या इसी दिन के लिए माता-पिता अपने बच्चों को लाड़ प्यार से पढ़ा लिखाकर बड़ा करते हैं कि जब ज़िंदगी इम्तिहान ले तो थक कर हार मान जाओ खुद तो इस दुनिया से चले जाओ मगर अपने अपनों को कभी ना भरने वाला घाव दे जाओ ताकि वह तुम्हारी याद में अपना शेष जीवन तड़प-तड़पकर काटें क्यों कि मरने वाले के साथ मरा नहीं जाता।

माना के ज़िंदगी बहुत कठिन है। लेकिन अपनी परेशानियों से लड़कर आगे बढ़ना ही ज़िंदगी है ना कि ज़िंदगी से हार कर मौत को गले लगा लेना सही है । ऐसा नहीं है कि मैं उस दबाव को समझ नहीं सकती जिसके चलते कोई भी व्यक्ति यह कदम उठाने पर मजबूर हो जाता है। आखिर जीना कौन नहीं चाहता ...है ना ? लेकिन ज़िंदगी हमेशा अपनी शर्तों पर चले, यह तो संभव नहीं है ना । तो जब ऐसा हो कि ज़िंदगी आपको अपनी शर्तों पर चलने के लिए मजबूर करे तो चलो क्यूंकि जब आप ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर चलाते हो तो वह भी तो चलती है। जब अपनी बारी आती है तब हार मान जाना कहाँ कि समझदारी है। अरे नौ जवानों तुम देश का भविष्य हो उठो जागो और अपनी निजी ज़िंदगी से निकाल कर बाहर देखो, तुम्हारी निजी ज़िंदगी ही एकमात्र तुम्हारा जीवन का सहारा नहीं हैं। बहुत कुछ है इस दुनिया में करने के लिए । किसी एक क्षेत्र में सफलता नहीं भी मिली, तो क्या हुआ ? और बहुत सी राहें हैं जिन पर चलकर तुम न सिर्फ अपने लिए बल्कि अपने अपनों के साथ इस देश और दुनिया के लिए भी बहुत कुछ कर सकते हो । इस  दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें  तुम्हारी जरूरत है। उनका सहारा बनो। ईश्वर की दी हुई इस नेमत का यूं मज़ाक ना बनाओ।

अरे मैं तो कहती हूँ उतार फेंको इस अवसाद और उससे जुड़ी जीवन में आयी असफलता के बुखार को और एक बार फिर पूरे जोश के साथ एक नयी ऊर्जा को अपने अंदर भरकर खुद को एक आवाज तो दो। फिर देखना कैसे जीवन के अन्य मार्ग तुम्हारे लिए स्वतः ही खुलते जाते हैं जैसे एक काली अंधेरी रात के बाद जब पुष्प सूरज की किरण पाकर खिल उठते हैं, जैसे रोता हुआ कोई बच्चा अपनी पसंद की चीज़ पाकर मुस्कुराने लगता है, ठीक उसी तरह तुम्हारी हिम्मत के आगे भी तुम्हारा भावी जीवन बाहें फैलाये तुम्हारा स्वागत करने को आतुर होगा। तुम कोशिश तो करो एक बार, जरा तो सोचो समझो मेरे यार और फिर फैसला करो।         

Monday, 22 June 2020

~और वो चला गया ~


फिर खो गया एक सितारा, अभी उम्र ही क्या थी उसकी, अभी तो जीवन चलना शुरू ही हुआ था। अभी इतनी जल्दी कैसे हार मान सकता था वो...? इतना भी आसान नही होता जीवन को छोड़कर मृत्यु का चुनाव करना। नाम, पैसा, दौलत, शोहरत सभी कुछ तो था उसके पास, दिलों पर राज था उसका। फिर ऐसी क्या बात हुई होगी कि उसने यह कदम उठाया। यदि खबरों की माने तो वजह थी अवसाद, अकेलापन और जब कोई व्यक्ति अकेला होता है या खुद को बहुत ही अकेला महसूस करता है। जब उसे अपने आस पास ऐसा कोई नही मिलता जिससे वह अपने मन की बात कह सके, जो उसे सुन सके, चुप चाप, जो उसे समझ सके तब ऐसे हालात में उस अवसाद के शिकार व्यक्ति को सारी झंझटों का हल केवल मृत्यु ही समझ में आती है। यह कोई नयी बात नहीं है। जब भी ऐसा कुछ होता है किसी के साथ तब यह दौलत शोहरत, नाम, कुछ मायने नही रखता। सब कुछ बेमाना सा हो जाता है। उसमें भी जब अपने किसी खास के द्वारा छले जाने का तड़का लग जाए तब तो इंसान अंदर से ही टूट जाता है और तब उससे आवश्यकता होती एक ऐसे कंधे की जो कोई सवाल न पूछे, बस उसके आँसुओं को पीता जाए, चुपचाप.....बस उससे सुनता जाए।

मृत्यु एक शास्वत सत्य है यह हम सभी जानते है। परन्तु जब हमारा कोई अपना इसका शिकार होता है या इसे गले लगता है तो हम यह सारा ज्ञान भूल कर केवल उस व्यक्ति के चले जाने का शोक मनाते है। और यदि किसी दूसरे के घर से कोई चला जाए तो उसे गीता का उपदेश याद दिलाने लगते है। खैर यह पोस्ट मैंने इसलिए लिखी क्योंकि में चंद लोगों से यह जानना चाहती हूँ कि जो आया है वो जाएगा ही रोज़ ही कोई न कोई जाता ही है फिर किसी एक के चले जाने पर इतना हंगामा क्यों है बरपा, ऐसा कोई पहली बार तो नहीं हुआ है मेरे नज़र से देखें तो रोज़ ही ऐसा कुछ होता है। फिर आज यह सन्नाटा यह खामोशी क्यूँ ...? सिर्फ इसलिए कि उस व्यक्ति को हम सिने जगत के जरिये देखते आरहे है बस...? वह व्यक्ति अपनी निजी ज़िन्दगी में कैसा है, किन हालातों और किन परेशानियों से गुज़र रहा है, उसकी आदतें क्या है, उसकी जीवन चर्या कैसी है,हम कुछ भी नहीं जानते। फिर भी आज पूरा देश उस एक व्यक्ति की मृत्यु की वजह से शोक में डूबा हुआ है। और वह व्यक्ति बिना कुछ सोचे समझे सब कुछ छोड़कर चला गया।

तो फिर हम जिन्हें नहीं जानते पर उनके विषय में लगभग रोज़ ही, कहीं न कहीं चाहे समाचार पत्र हो या सोशल मीडिया आत्महत्या की खबर देखते, सुनते, पढ़ते हैं। पर तब तो जैसे किसी को कोई फर्क ही नही पड़ता। किसी का बच्चा चला जाता है, तो कोई अपने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेता है। तब देश में शोक की लहर फैलना तो दूर की बात है, कई बार कोई खबर ही नही बनती और जब बन जाती है, तो भी लोग ऐसे शोक नही मानते जैसे इन दिनों सिने जगत के लोगों के चले जाने के बाद मना रहे हैं। क्यों ...?

हजारों में एक चला गया तो क्या हुआ। रोज़ जो जाते हैं उनकी जान भी तो उतना ही मायने रखती है, जितना इन लीगों की इस करोना काल में सारी दुनिया अवसाद का शिकार हो चली है, पर इसका मतलब यह तो नही की हर कोई हालातों से हार कर मौत को गले लगा ले। दिल्ली के हालात भी इन दिनों किसी से छिपे नही है। जरा उन लोगों के परिजनों के विषय में सोचिये जिन्हें अपने प्रिय जन के शव को देखने तक नही मिला छुना और अंतिम संस्कार तो बहुत दूर की बात है और जो पिछले दिनों शवों का हाल किया गया कभी उस विषय में भी तो सोचिये। वो ज्यादा दिल देहलादेंने वाला था या यह ज्यादा दिल देहलादेंने वाला है।

केवल हम उन लोगों को नही जानते, नही पहचानते इसलिए उनके प्रति संवेदना न व्यक्त करना भी तो एक तरह की अवमानवीय सोच को दर्शता है। हाँ मैं मानती हूँ सिने जगत के लोगों से अक्सर हमें प्यार हो जाता है। सुशांत सिंह राजपूत से भी हो गया था। मुझे तो अब तक सभी जाने वालों से था क्या इफरान खान और क्या ऋषि जी और अब यह सुशांत सिंह राजपूत और उसके यूँ अकस्मात हम सब को छोड़कर चले जाने का ग़म मुझे भी है। लेकिन इसका यह मतलब कतई नही है कि हम बाकी इंसानों के प्रति असंवेदन शील हो जाएं। इस दुनिया में आज शायद हर दूसरा व्यक्ति अवसाद से गुज़र रहा है। फिर क्या बच्चे और क्या बड़े। अभी जिस दौर से गुज़र रहे हैं हम तब सबसे ज्यादा जरूरी और महत्यवपूर्ण है इंसान बनाना, एक दूसरे के प्रति सकारात्मकता बनाये रखना और जैसे ही किसी के अकेलवपन के विषय में पता चले उनके साथ खड़े होना। उसे गले लगाकर यह कहना कि हमें तुम से प्यार है। तुम अकेले नही हो जीवन की इस जगदोजहद में हम सब तुम्हारे साथ है।

अवसाद से गुज़र रहे प्राणी को केवल एक श्रोता की जरूरत होती है। यदि हम किसी एक के लिए भी वो श्रोता बन जाएं तो यकीन माननिये हम ज्यादा नही तो कम से कम एक जीवन तो बचा ही सकते हैं। जाने वाला जा चुका है उसके प्रति हम केवल ॐ शांति ही बोल सकते है और चाह सकते हैं। लेकिन जो अब भी हमारे साथ उन्हें इस से बचाना ही हमारा धर्म है।

Thursday, 11 June 2020

नंजेली और चीरू की कहानी


कल रात एक छोटी फिल्म (शॉर्ट फिल्म) देखी, देखकर मन व्यथित हो गया। न जाने कितने सालों से हम स्त्रियाँ इस दोगले पुरुष प्रधान समाज में सर उठाकर सम्मान से जीने के लिए कितना कुछ करती आ रही है। कितना कुछ सहती आ रही हैं, तब कहीं जाकर आज हम इन पुरुषों के कंधे से कंधा मिलकर चलने के काबिल हुई है। कहा जाता है एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन होती है। अगर यह बात सच है तो फिर यह बात भी उतनी ही सच है की एक स्त्री के हृदय की पीड़ा भी केवल एक स्त्री ही समझ सकती है दूसरा और कोई नहीं, इस कहानी में भी यही दिखाया गया था कि किस तरह एक दलित स्त्री ने अपने वर्ग की अन्य स्त्रियों को न्याय दिलाने और उन्हें भी बाकी स्त्रियों कि तरह सम्मान से जीने का हक दिलाने के लिए एक कितना बड़ा त्याग किया।

मेरी नज़र में यहाँ बात दलित वर्ग या उच्च वर्ग की स्त्री से नहीं है यहाँ बात केवल एक स्त्री की है। एक स्त्री को इस (कर) के चलते जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा, उस अपमान से है। अब तक कि पढ़ी मेरी सभी कहानीयों में यह पहली ऐसी कहानी है जिसमें मैंने पहली बार एक पति को अपनी पत्नी की चिता में सती होते देखा सुना। मेरे विचार से इतिहास में यह पहली और आखिरी घटना रही होगी। यह कहानी केरल की एक दलित महिला की कहानी है जिसके गाँव में स्त्रियों के स्तन के आकार और वजन के हिसाब से उन्हें मूलाकारम नामक (कर) देना होता था। यह प्रथा केवल दलित महिलाओं के लिए थी उच्च वर्ग की अन्य महिलाओं की तरह इन दलित महिलाओं को अपने सीने को कपड़े से ढकने का अधिकार नहीं था। जिसने ऐसा किया उसे उसके स्तन के आकार प्रकार और वजन के हिसाब से दुगना मूलाकारम अर्थात कर (tax) देना पड़ता था।

सुनकर ही कितना अजीब लगता है ना...! किन्तु यह एक कड़वा और निर्वस्त्र सत्य है। सारी कहानी आपको दिये गए लिंक में मिल जाएगी। लेकिन अपनी जाती और समाज की अन्य स्त्रियों को इस घिनोने (कर) से मुक्त करने के लिए नंजेली नमक एक दलित स्त्री ने इस नियम के विरुद्ध जाकर अपने सीने को उच्च वर्ग की महिलाओं के अनुसार कपड़े से ढका जिसकी सजा के तौर पर उससे दुगना मूलाकारम मांगा गया और जब उसने सजा के तौर पर  कर लेने आए लोगों को कर के रूप में अपने स्तन काटकर उन्हें देते हुए कहा सारा रोना इन मांस के टुकड़ों का ही है ना तो ले जाइए इन्हें यही है आपका वास्तविक मूलाकारम कहते हुए उसने अत्यधिक रक्त बहाव के कारण प्राण त्याग दिये।

नंजेली के द्वारा उठाए गए ऐसे भयानक कदम को देखकर कर लेने वाले भाग खड़े हुए जिसके परिणाम अनुसार वहाँ के राजा को दलित स्त्रियों के ऊपर से यह मुलाकरम नामक (कर)हमेशा के लिए समाप्त करना पड़ा। नंजेली के पति ने उसका अंतिम संस्कार किया और अपनी पत्नी से किए गए वादे के अनुसार उसका साथ निभाने के लिए उसकी जलती हुई चिता में खुद जल गया। नंजेली तो मरते मर गयी किन्तु इस दोगले समाज के सीने में एक ऐसा खंजर घोंप गयी जिसकी चुभन सदियों तक चुभती रहेगी।    

Friday, 5 June 2020

~आखिर कब तक ~



साल 2020 अर्थात 21वी सदी का वो भयानक साल जिसमें करोना नामक महामारी के चलते आज सारी दुनिया खत्म होने की कगार पर खड़ी है। तीन पीढ़ियों ने यह महामारी देखी और झेली सभी को याद रहेगा यह साल। इतिहास के पन्नों में फिर एक बार दर्ज होगा, दुख दर्द एक असहनीय पीड़ा एक ऐसा जख्म जिसकी भरपाई शायद कभी न हो पाएगी। क्यूंकि यह सिर्फ अपनों के दूर चले जाने मात्र की बात नहीं है, बल्कि अपनों के अंतिम संस्कार या आखरी बार उन्हें ना देख पानेआखरी बार उन्हें ना छू पानेएक आखरी बार उन्हें अपने गले से लगाकर ना रो पाने का वो दर्द है जो दिल में घुटकर रह गया। इसलिए जब तक यह सांस है इस शरीर में प्राण है तब तक यह साल याद रहेगा।

कहने को तो हम ना जाने कितने वर्षों से बदलाव की बातें करते चले आ रहे हैं, इक्कीसवीं सदी की बातें करते चले आ रहे हैं पर सही मायनों में देखा जाये तो आज भी क्या बदला है ? कुछ भी तो नहीं, दुनिया जहां थी आज भी वही हैं। विदेशों में गोरे काले का भेद नहीं बदला, हमारे यहाँ हिन्दू मुसलमान का भेद नहीं बदला, अपने मनोरंजन के लिए बेज़ुबान जानवरों की बली चढ़ाने या उन्हें प्रताड़ित कर मरने के लिए छोड़ देने का चलन नहीं बदला।

केरल में उस मासूम गर्भवती हथनी को पटाखों भरा अन्नानास खिलाये जाने और फिर मरने के लिए छोड़ देने वाली शर्मनाक घटना के बाद मानव की मानव के प्रति ईर्ष्या नहीं बदली, लोगों के अंदर की दरिन्दगी नहीं बदली, जो पहले ही क्रूर था वह और ज्यादा क्रूर होता चला गया। इंसान रह गया इंसानियत मरती चली गयी। मेनका गांधी के विचार सुनने के बाद तो यही लगता है जिस प्रकार उन्होंने बताया कि केरल के उस इलाके में सरकार की भी नहीं चलती गुंडाराज है वहाँ तो इसका मतलब उन मासूम बेजुबानों की सुनने वाला वहाँ कोई नहीं है। सब कुछ वैसा का वैसा ही तो है, कुछ भी तो नहीं बदला सिवाय सरकार के...!

ऐसे हालातों में जब संवेदनशील होते हुए एक दूसरे के प्रति सद्भावना रखने का समय है तब भी अपराधियों के मन की मनःस्थिति नहीं बदली अपराधों में कोई गिरावट नहीं, यह सब पहले भी होता था, आज भी हो रहा है और यदि यह दुनिया बची तो आगे भी होता रहेगा। सच कहूँ तो अब ऐसी खबरों के बाद मुझे तो यही लगता है कि यह दुनिया अब रहने लायक नहीं बची। कोई खुश नहीं है इस धरा पर न इंसान, न जानवर, न प्रकृति, तो फिर किस के लिए जी रहे है हम...? जी भी रहे हैं या सिर्फ सांस ले रहे हम...? आखिर ऐसा कब तक चलेगा। कब तक ...?











  
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Wednesday, 1 April 2020

अपील...🙏🏼 एक छोटी सी कहानी



एक दिन केंसर एड्स और कोरोना वायरस मिल कर आपसे बात चीत कर रहे थे। तो केंसर बोला "भईया मैं तो इंसानों द्वारा स्वयं बुलाया गया रोग हूँ। जीवन शैली का परिवर्तन ही मेरे होने का मुख्य कारण है।"

तभी एड्स बोली और "मैं भी कौन सा आसमान से टपकी हूँ, मैं आधुनिकरण का परिणाम हूँ और क्या"...
पर भईया "केंसर तुम एक बार लग जाओ तो इंसान को ही नहीं बल्कि उसके पूरे परिवार को नंगा कर के भी नहीं छोड़ते और मरीज की हालात भी ऐसी कर देते हो कि बेचारा कहीं मुंह दिखाने लायक नही रहता।"

अच्छा....! और जैसे "तुम बड़ी दूध की धुली हो, तुम्हारे तो नाम से ही जाने क्या क्या मन में आता है राम राम राम.... हैं"
"तो यहां मेरा नही "शिक्षा और जानकारी" का अभाव है। अरे मैं कम से कम नया शिकार समझ कर एक इंसान से दूसरे इंसान को चिपकती तो नहीं हूँ यही क्या कम है"

"बताओ भला...! तो मैं कौन सा चिपक जाता हूँ, वह तो लोगों के मन का डर है, जो मेरे मरीज से दूरी बनाये रखते हैं।"
हाँ यार वही तो ...अब क्या कहें, पर कुछ भी कहो "केंसर भईया मैं तो फिर भी बुलावे पर आती हूँ, पर तुम तो अचानक ही मरीज के अंदर अपने पैर फैला देते हो और बेचारे को जब तक इस बात का पता चलता है तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है।"

"हाँ यह बात तो है, पर तुम्हारे साथ भी तो वैसा ही है, तुम कौन सा ढोल बजा बजाकर आती हो।"

इतने में कोरोना वायरस आकर बोलता है और भाई लोग कसा काय...सब ठीक ना..? मजा मा...!

तो केंसर और एड्स दोनो आपस में चिपक कर थर-थर कांपने लगते है और जल्दी से मास्क पहन लेते है। एक भाग के जाता है और हैंड वाश की बोतल दिखाने लगता है। उनकी यह हरकत देखकर, बेचारा कोरोना वायरस चुपचाप उदास होकर एक कोने में जाकर बैठ जाता है, केसर और एड्स दोनों पहले एक दूजे की तरफ देखते है फिर कोरोना की तरफ देखते है, फिर वह पास आकर उससे हमदर्दी जताना चाहते है, लेकिन कोरोना उनको हाथ के इशारे से वहीं रोक देता है और उसकी आंखों से दो बून्द आंसुओं की टपक जाती है टप-टप...

फिर वो कहता है में जानता हूँ कि मैं बहुत बुरा हूँ। छूने से फैलने वाली बीमारी हूँ। पर इसमें मेरा क्या दोष है....? मैं अपने आप तो नही आया ना तुम दोनो की तरह मैं भी इंसान की लापरवाही का ही नतीजा हूँ। फिर भी लोग हैं कि कुछ समझने को त्यार ही नहीं है। कितना कहा सब से मुझसे दूर रहना है तो पार्टियां मत करो, भीड़ इकट्ठी मत होने दो, अपने हाथों को बार बार धो ओ, मुंह और नाक पर मास्क लगाओ पर नही यहां कोई किसी को सुनने को तैयार ही नही है। पूरी दुनिया ने मुझे एक भीषण महामारी घोषित कर दिया है।

मुझे अफसोस है पर इन जाहिल इंसानों को नही, इन्हें इतना समझ क्यों नही आता की ज्यादा भीड़ देखकर मुझ पर एक अनजाना सा दबाव बढ़ जाता है और मैं किसी बिना आवाज़ वाले बम की तरह फटकर एक इंसान से सभी में पहुंच जाता हूँ। इसमें मेरी क्या गलती है दोस्तों...

आज मैं हर इंसान से हाथ जोड़कर यह बिंत्ति करना चाहता हूँ और यह कहना चाहता हूँ कि मुझे आप सबकी जान लेने का कोई शौक नही है। मैं भी किसी को मारना नही चाहता। यदि आप लोग मुझसे और मेरे दोस्तों से बचकर एक स्वस्थ जीवन बिताना चाहते है, तो बस सावधानी बरतिए, अपनी जीवन शैली में परिवर्तन लाइये, माँ प्रकृति से प्रेम कीजिये, और अपनी पुरानी संस्कृति को वापस अपनाइए। तभी आप सब हम सब का खात्मा करने में कामयाब हो सकते है अथवा हम आप का विनाश करनें को मजबूर है।

Friday, 20 March 2020

~कानून व्यवस्था का बड़ा दिन~



आज 20 मार्च 2020 कानून व्यवस्था का बड़ा दिन 7 साल बाद आज निर्भया केस के दोषियों को आखिर कार फांसी पर लटका दिया गया। इस फैसले से आज सभी बहुत खुश है। होना भी चाहिए। आज शायद निर्भया की आत्मा को शांति मिली होगी। आज शायद निर्भया की माँ और परिवार के अन्य सदस्यों ने मिलकर सच्चे दिल से निर्भया की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की होगी।

सभी कुछ सच है, लेकिन मेरी नज़र में सही नही। क्योंकि यह न्याय तो तभी हो जाना चाहिए था जब निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए सारा देश एक हो गया था। सारे सबूत और दोषियों के अपना जुल्म कुबूल कर लेने के बाद इतनी बार उनकी फांसी टलनी ही नही चाहिए थी। जो कदम न्याय व्यवस्था ने आज उठाया, यदि यही कदम उन्होंने आज से 7 सात साल पहले ही उठा लिया होता, तो शायद कुछ हादसे रुक जाते। हालांकि मैं जानती हूँ कि ऐसा नही है की निर्भया कांड के पहले ऐसा कुछ नही होता था।

होता था, बिल्कुल होता था। लेकिन ऐसी बर्बरता सिर्फ निर्भया के केस से ही आम जनता के सामने आयी इसलिए इस केस को इतनी तूल मिली। यदि उसे इंसाफ तभी मिल गया होता तो शायद ऐसा करने वाले अपराधियों के मन मे थोड़ा ही सही, पर कानून के प्रति डर तो उत्पन्न होता। तब शायद ऐसा हो सकता था कि प्रियंका रेड्डी और उसके जैसी अन्य लड़कियां भी इस तरह की बर्बरता का शिकार ना हुई होती।

अब चाहे आप सब मुझे पागल कहें, या ना समझ, लेकिन मैं प्रियंका रेड्डी के समय हुए न्याय से पूर्णतः सहमत थी, हूँ ,और हमेशा रहूंगी। दोषियों को सजा जितनी जल्दी और पीड़ितों को न्याय जितनी जल्दी मिलेगा, उतना ही अपराधियों के दिल में सज़ा का खोफ बढ़ेगा। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है।

ऐसा नही है कि मैं आज खुश नही हूँ। लेकिन अफसोस मुझे इस बात का है कि एक मरी हुई लड़की और उसकी जिंदा माँ को इंसाफ पाने के लिए ना जाने कितनी बार न्यायालयों में अपमान सहना पड़ा। ना जाने कितनी बार, उन दोनों को बलात्कार का दंश सहना पड़ा। ना जाने कितनी बार निर्भया की माँ को अपनी बेटी के उस दुख, उस दर्द, उस पीड़ा से गुजरना पड़ा। तब कहीं जाकर आज, उनकी बेटी को इंसाफ मिल सका। लेकिन हर कोई इतना ताकतवर नही होता, इतना निर्भीक नही होता, जितना निर्भया की माँ है। तो उन महिलाओं और उन बच्चियों का क्या...?

उनके लिए कौन लड़े और उन्हें इंसाफ दिलाये। ना जाने कितनी बहु बेटियां है जो इस दर्दनाक हादसे का शिकार हो चुकी है और आज भी हो रही हैं और उनके अपराधी खुले आम एक शरीफ और इज्जत दार इंसान के रूप में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसे एक दो नही बल्कि हज़ारों अपराधी है, जो हर रोज कभी बस में, कभी ट्रैन में, कभी आफिस में, कभी स्कूल में, यहां तक के घर में भी, हर रोज़ महिलाओं का शोषण कर रहे है। कुछ जिस्म से, तो कुछ तो आंखों से ही बलात्कार कर रहे हैं।

उन सभी अपराधियों का क्या...? रास्ते चलते ऐसे दरिंदों की आंखों में ही उनकी भूख साफ नजर आती है। उसका ही परिणाम है यह तेजाबी हमले, बलात्कार, छेड़छाड़ इत्यादि।

इन्हें कौन सजा देगा कि उनके दिल में भी कानून व्यवस्था के प्रति डर जागे और रहे। क्या आप सभी के पास है कोई जवाब इस सब का...?

Friday, 31 January 2020

बचपन की यादें




कल अपने भाई के मुख से कुछ पुरानी बातों कुछ पुरानी यादों को सुनकर मुझे बचपन की गालियाँ याद आ गयीं। जिनमें मेरे बचपन का लगभग हर इतवार बीता करता था। कितनी मासूम, कितनी भोली हुआ करती है वो यादें, जिनमें बचपन बीता होता है। सच कहते है लोग, लोग मर जाते है पर यादें कभी नही मरती। अंधे मोड़ की गलियों की उन दीवारों में से एक दीवार पर बने ताक पर हर राह चलते राहगीर का पूरी श्रद्धा से माथा टेकना, बिना यह जाने की उस ताक में विराजमान खुदा किस धर्म से संबंध रखता है। अपने आप में बहुत अपना पन लिए होता था। तब मैं बच्ची ही थी पर उन अंधे मोड़ों की गलियों से गुज़रने में भी मुझे किसी प्रकार का कोई डर नही लगा कभी, पर आज जब कभी किसी सड़क के एक (छोटे से ही सही), किंतु सूने रास्ते से गुज़रते वक्त कई तरह के भाव आते हैं मेरे मन में, खैर में बात कर रही थी बचपन की गलियों की, हम हर इतवार अपनी नानी के घर जाया करते थे और उनके घर का रास्ता इन अंधी गलियों से होकर ही गुज़रता था।

रास्ते में वो ताक जिसकी बात मैंने ऊपर बात की है, वह भी पड़ता था। सभी की देखा देखी मैं भी वहाँ अपना छोटा सा माथा टेक लिया करती थी। फिर वहां से सीधे हाथ पर मुड़ते हुए एक पुराने सेठ जी का बहुत बड़ा बंगला भी हुआ करता था। शायद आज भी है। लेकिन जबकि यह बात है, तब वहां कोई नही रहता था। उन दिनों पूरा बंगला किसी भूत बंगले से कम नही दिखता था। परन्तु मम्मी ने कभी भूत से डरना नही सिखाया। तो कभी उस बंगले के सामने से निकलते समय डर नही लगा। हाँ कुछ एक पागल भी वहां बैठे अपनी धुन में अजीब अजीब हरकतें करते रहते थे। वह एक अलग बात है। उसी रास्ते पर आगे चलकर एक दोराहा आता था, जिसकी एक सड़क नानी के उस पुराने महौले" (विकेश जी यह आपके लिए) की और जाती थी और एक चौक की ओर, भोपाल का वह इलाका आज भी पुराने भोपाल अर्थात (सिटी) के नाम से जाना जाता है।

हम बायीं ओर मुड़कर जल्द से जल्द नानी के घर पहुंच जाना चाहते थे। पर उससे पहले हमें सामना करना होता था बहुत सारी गायों का, जिन्हें लोग घर बुला बुलाकर अपने हाथों से रोटी खिलाया करते थे। तो कोई बचा हुआ भोजन डाल रहा होता था। तो कोई यूं ही उन गायों को सहला रहा होता था।  नानी के घर भी एक गाय बंधी थी, जो नियम से आकर खुद ही रोटी ख़िलाने की मांग करती थी। एक राम मंदिर भी है वहाँ, जिसमे और बहुत सारी बचपन की यादें छिपी है। मंदिर के अंदर प्रवेश करते ही बायीं ओर से कुछ सीढ़ियां ऊपर को जाती है। कहते हैं वहां उपर कोई कुआँ है, पर मैंने कभी ऊपर जाकर नही देखा। सामने से जो रास्ता अंदर मंदिर की ओर जाता है, वहां दायीं तरफ एक संगेमरमर का बड़ा सा चबूतरा बना है और उसके आस पास लोहे की सलाखें लगी है। शायद वो चबूतरा वहाँ ठहरने व्ले साधु संतों के सोने बैठने के लिए बनवाया गया होगा। उस चबूतरे पर एक पठार का तकिया जैसा भी कुछ बना हुआ है। उन दिनों बचपन में वह चबूतरा हम बच्चों को बहुत ऊँचा महसूस होता था। ऐसा लगता था कभी आसानी से उस पर चढ़ ही नही पाएंगे और आज इतना नीचा लगता है कि बचपन की बात सोच-सोचकर हंसी आती है।

कैसे गधे थे उस वक़्त हम सभी ....कि यह विचार ही नहीं आया कभी कि एक दिन बड़े भी तो होंगे सभी। मुझे आज भी याद है, मैं और मेरा छोटा भाई (मेरी मौसी का बेटा) हम दोनो उस चबूतरे पर बैठकर मिनी बस का खेल खेला करते थे और पूरे समय एक ही संवाद बार-बार दौहराते रहते थे "रंगमहल, न्यू मार्केट जवाहर चौक, मोती मस्जिद, चले चलो"फिर जब भूक लगती तब पंडित जी ढेर सारे मुरमुरे और मिश्री खाने को दे दिया करते थे। वह मंदिर आज भी जस का तस है। एक आत्मीय शांति है वहां, एक अद्भुद खिचाव है।

खिचाव और शांति से याद आया नानी के घर में भी उपर पूजा वाली अटारी में भी ठीक वैसी ही शांति महसूस होती थी जैसी उस मंदिर में हुआ करती थी। उस समय कहने को तो, हम बच्चे ही थे। लेकिन तब भी हम वो सुकून वो शक्ति, वो शांति महसूस करते थे। जो किसी पवित्र जगह पर की जक सकती है। तब ज्यादा कुछ समझ नही आता था। लेकिन ऐसा लगता था कि इससे अच्छी जगह और कोई हो नही सकती खेलने के लिए।
फिर भी बाल मन पर पड़ी छाप अमिट होती है। मुझे आज भी वो दिन भुलाय नही भूलता। जब एक दिन मैं, अपने छोटे भाइयों संग अपनी नानी के घर उस पूजा वाली अटारी में खेल रही थी। तब शायद मम्मी, मौसी और नानी भी वहां मौजूद थे। कौन-कौन था यह मुझे ठीक तरह से याद नही है। किन्तु दो बड़े लोग तो थे, यह पक्का है। क्योंकि पूजा वाली अटारी ऊपर थी, तो सभी को यह डर रहा होगा कि कोई बच्चा वहां की खिड़कियों से झांकने के चक्कर में नीचे ना गिर जाये। इसलिए हम जब वहां खेलते कोई ना कोई बड़ा वहां अवशय होता ही था।

हम वहां नानाजी के संग पूजा भी करते थे। कोई चंदन घिसता, तो कोई फूल बत्ती को घी लगाता। जिसे नाना जी जो काम करने के लिए कहते, वो बच्चा पूरी शिद्दत से वही काम करता। एक दिन जब हम वहां खेल रहे थे। तब नीचे से आवाजे आने लगी "राम नाम सत्य है" हमें कुछ समझ नही आया। जब खिड़की से झांककर देखा तो बहुत सारी भीड़ एक नोजवान लड़के का शव लिए वहां से जा रही थी। उस अर्थी पर लेटे हुए उस मृत लड़के की तस्वीर, आज भी मेरे दिमाग में है। मम्मी और मौसी आपस में बात करते हुए कह रहे थे। अरे इस लड़के ने ना मंदिर के कुँए में खुद कर आत्महत्या की है। तब से लेकर आज तक मैंने वो कुआ कभी नही देखा। परंतु आज भी, जब मैं उस मंदिर में जाती हूँ तो मुझे वो शव यात्रा वाला दृश्य याद आ जाता है।

नानी के घर के आगे एक और मंदिर है, जो बड़ वाले महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं वहाँ लगे बड़ के पेड़ की जड़ में से शिवलिंग अपने आप बाहर आया था। तब से, उस मंदिर का नाम, बड़ वाले महादेव के नाम से जाना जाने लगा था। मगर हम बच्चे उसे कछुए वाला मंदिर कहा करते थे। क्योंकि उस मंदिर के अंदर बने कुँए में बहुत से छोटे बड़े कछुए होते थे। शायद आज भी हों। जिन्हें देखने की उत्सुकता उन दिनों कभी खत्म ही नही हुआ करती थी। अब, यह आज तक ठीक से पता नही है कि उस युवा लड़के ने कौन से मंदिर के कुँए में कूद कर अपनी जान दी थी।

लेकिन हाँ बच्चों की उत्सुकता देखते हुए कछुए वाले मंदिर के कुँए के ऊपर लोहे का बना जाल जरूर लगा दिया गया था। ताकि कोई भी उसमें झांकने के चक्कर में अंदर ही न गिर पड़े। आज अपने भाई से उन गलियारों की बात सुनकर मन किया कि फिर एक बार उसका हाथ पकड़ कर ठीक बचपन की तरह उन गलियों से गुज़रते हुए नानी के घर जाय जाए। किन्तु अब वहां कोई नही रहता। वो मिट्टी का पावन घर जिसमे हमारी स्मृतियां थी अब तो कब का टूट कर एक पक्का मकान बन चुका है।

अब नही आती वहां कोई गाय, न वो पूजा वाली अटारी ही शेष रही, जिसे नानी अपने हाथों से लीपकर अपने मन के भावों से भर दिया करती थी। हां अब यदि वहां स्मृतियों के नाम पर कुछ बचा है, तो वह है, वहाँ जाने वाला रास्ता और वो दोनो मंदिर जिनमें आज तक कोई बदलाव नही आया है। शेष तो अब स्वयं ही एक याद बन गया है। एक सुनहरे बचपन की चंद मीठी सी यादें।