Wednesday 28 September 2011

त्यौहार के रंगों से रंगा, रंगों भरा महीना अक्टूबर 2011

 आप सभी को नवरात्र की हार्दिक शुभकामनायें 
भारत एक ऐसा देश है जहाँ अनेकता में एकता का होना ही उसकी पहचान रही है। यह कोई नई बात नहीं है। भारत में रहने वाले सभी भारतवासी या फिर जो लोग भारत को, यहाँ की संस्क्रती को सभ्यता को अच्छे से जानते है, मानते हैं, पहचानते हैं, उनको तो यह बात बताने की जरूरत ही नहीं है कि कितना सुंदर है हमारा भारत देश यहाँ मुझे एक हिन्दी फ़िल्म फ़ना का एक गीत याद आ रहा है जिसकी पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं।

यहाँ हर कदम-कदम पर धरती बदले रंग 
यहाँ की बोली में रंगोली सात रंग
धानी पगड़ी पहने मौसम है 
नीली चादर ताने अंबर है 
नदी सुनहरी, हरा समंदर,
है यह सजीला, देस रंगीला, रंगीला, देस मेरा रंगीला"    

यह बात अलग है कि पिछले कुछ वर्षों में आतंकी हमलों के कारण यहाँ की आन-बान और शानो शौकत पर थोड़ी सी शंका की धूल गिरि है मगर इसका गौरव आज भी वैसा ही है, जैसे पहले हुआ करता था। रही सुख और दुःख की बात तो वह तो जीवन चक्र की भांति सदा ही इंसान की ज़िंदगी में चलते ही रहते है। किसी के भी जीवन में चाहे कितना ही कुछ क्यूँ ना घट जाये यह जीवन चक्र न कभी रुका था और ना ही कभी रुकेगा। शायद इसी का नाम ज़िंदगी है। वो फ़िल्म दिलवाले दुलहनिया ले जायेगे का संवाद है ना, यकीनन आपने भी ज़रूर सुना होगा 

“बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं”

जिसे मैंने बदल कर दिया है कि “बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी–छोटी वारदातें होती रहती हैं” :) क्योंकि भई जितना बड़ा परिवार हो उतनी ही ज्यादा बातें भी तो होगी ना, जहां प्यार होगा वहाँ लड़ाई भी होगी ही, ऐसा ही  कुछ मस्त मिज़ाज का है अपना इंडिया भी, है ना!!! :) आपको क्या लगता है इसलिए शायद इतना कुछ घट जाने के बाद भी यहाँ हर एक त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाये जाते है। हर त्यौहार का अपना एक अलग ही रंग और अपना एक अलग ही मज़ा होता है। भई अब पिछली दो-तीन पोस्ट में भी बहुत हो गई गंभीर बातें अब तो त्यौहारों का मौसम है, हमारे दिलों में भी मस्ती का, हर्ष उल्लास का, माहौल होना चाहिए और हमारे ब्लॉग में भी और इस साल तो आने वाला पूरा महीना ही त्योहारों से भरा हुआ है। तो क्यूँ ना आप और हम भी सब कुछ भुलाकर, सारे गिले शिकवे मिटा कर बातों के माध्यम से ही सही त्योहारों का लुफ़्त उठायेँ । क्या कहते हैं आप हो जाये :)

जैसा की आप सब जानते ही हैं कि रक्षाबंधन के बाद से तो त्यौहारों का सिलसिला शुरू हो ही जाता है। बस अब तो बहुत जल्द एक और रंगों भरा त्यौहार आपका इंतज़ार कर रहा है। जिसका नाम है नवरात्री, क्या माहौल होता है इन नवरात्र के नौ (9)दिनों का सच, अभी लिखते वक्त जैसे आँखों के सामने एक चल चित्र सा चल रहा है। चारों और बस माँ के नाम का जयकारा पूरा माहौल भक्ति रस में डूबा हुआ जगह-जगह माँ की सुंदर मूर्तियों से सुशोभित मनमोहक झाँकियाँ, मेले, गाना-बजाना, खाना-पीना, जागरण सभी कुछ, जैसे मानो इन नौ दिनों मे दुनिया अपना सारा दुःख दर्द भूल कर सिर्फ माँ के भक्ति रस में भाव विभोर रहा करती हैं, मेलों में बच्चे भरपूर मज़ा उठाते हैं। बुज़ुर्गों को जागरण के माध्यम से भजनों का आनंद प्राप्त होता है।

जगह-जगह गरबा प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता जहाँ घर परिवार के सभी लोग गरबा खेलने जाते हैं। छोटे बच्चों के लिए माला बनाओ प्रतियोगिता, तो कहीं रंगोली प्रतियोगिता, तो कभी मेहँदी प्रतियोगिता, चारों तरफ बस मस्ती ही मस्ती, मज़ा ही मज़ा और भक्ति रस में डूबे गीत संगीत का जोश भरा माहौल, आह! कितने आनंददायक होते हैं यह नवरात्र के दिन, फिर आता है दशहरा यानी बुराई पर अच्छी की जीत का पर्व, इस दिन माँ दुर्गा का मूर्ति विसर्जन भी किया जाता है और ऐसी मान्यता है कि इस दिन माँ दुर्गा भगवान श्री राम को विजय होने का आशीर्वाद देती हुई पानी में विसर्जन के माध्यम से लुप्त हो जाती हैं और उसके बाद ही दशहरे का पर्व शुरू होता है। दशहरा इसलिए मनाया जाता है क्योंकि इस दिन भगवान श्री राम ने रावण को मारा था। जहाँ तक मेरी जानकारी है, यही एक मात्र ऐसा त्यौहार है जिसे हिन्दू संस्क्रती में लड़कों का त्यौहार माना जाता है। वैसे तो किसी भी त्यौहार के लिए यह कहना उचित नहीं कि यह लड़कीयों का है और यह लड़कों का, क्योंकि त्यौहार तो त्यौहार ही है और उसे सभी माना सकते हैं। मगर फिर भी हमारे देश की सभ्यता और संस्क्रती में अब भी कुछ त्यौहार ऐसे हैं जिन्हें ऐसा ही समझा जाता है। जैसे रक्षाबंधन लड़कीयों का त्यौहार माना जाता है। वैसे ही दशहरा लड़कों का त्यौहार माना हाता है।

यह बातें तो हो गई लड़के और लड़कीयों के त्यौहार की, अब बारी आती है औरतों की, तो उनका भी इस त्यौहार के मौसम में इस साल यह अक्टूबर का महीना त्यौहार का रंगों भरा महीना बन कर आया है। जिसमें आती है अपने आप में चाँद की महिमा लीये करवाचौथ भी, जिसे अखंड सुहाग का त्यौहार भी माना जाता है। इस दिन सभी सुहागिन औरतें अपने-अपने पति की दीर्घ आयु के लिए करवा चौथ का उपवास रखती हैं। जिसके अंतर्गत दिन भर बिना अन्न जल लिए रात को चाँद देखने के बाद पति का चेहरा देख कर ही व्रत खोला जाता है। पहले यह त्यौहार इतनी धूम-धाम से नहीं मनाया जाता था। मेरी मम्मी का कहना है, कि मेरी दादी ऐसा बताया करती थीं कि यह सब ग्रहस्थी की पूजा हैं। जो पहले के ज़माने में घर की औरतें आपस में मिल जुल कर ही कर लिया करती थी। मगर अब फ़िल्म वालों की मेहरबानी से सभी औरतों के पतियों को भी इस व्रत के महत्व की सम्पूर्ण जानकारी भी मिल गई है और महत्व भी पता चल गया है। अब तो पति भी अपनी पत्नी के लिए यह व्रत करते देखे जा सकते हैं। :)

अब बारी आती है साल के सबसे बड़े हिन्दू पर्व की यानी दीपावली, यह एक ऐसा त्यौहार है जिसके बारे में बच्चे-बच्चे तक को सम्पूर्ण जानकारी है। कि यह हिंदुओं का सब से बड़ा त्यौहार है जो की हिन्दी कलेंडर के अनुसार कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री राम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या वापस लौट कर आये थे और उन्हीं के वापस आने की ख़ुशी में लोगों ने दीप प्रज्ज्वलित कर उनका स्वागत किया था। तब से लेकर आज तक यह दीपावली का त्यौहार दीप प्रज्ज्वलित करके ही मनाया जाता है। भले ही इस दिन अमावस्या क्यूँ ना होती हो, मगर लोगों के घरों में और आस-पास के सम्पूर्ण वातावरण में इतना ज्योतिमय माहौल रहता है, कि चाँद की कमी महसूस ही नहीं होती है। लोग महीनों पहले से इस त्यौहार के लिए तैयारियाँ किया करते हैं। यह त्यौहार बरसात के बाद आने के कारण लोग घर की रँगाई करवाते हैं। जिससे सारे घर की साफ सफ़ाई अच्छी तरह हो जाती है। क्यूँकि ऐसी मान्यता है कि जिसका घर जितना साफ सुथरा होगा उसके घर माँ लक्ष्मी का आगमन उतनी जल्दी होगा, और लक्ष्मी के आने का इंतजार तो सभी को सदा ही रहता है। :)

खैर तरह-तरह के पकवान भी बनाये जाते हैं, भोपाल में इसे जुड़ा एक और रिवाज है यहाँ दीपावली वाले दिन शाम को लक्ष्मी पूजन के बाद लोग एक दूसरे के घर जलता हुआ दिया लेकर जाते है। ताकि किसी का भी घर दिये की रोशनी के बिना सूना-सूना और अंधकारमय ना दिखाई दे फिर चाहे उस घर में कोई रहता हो या ना रहता हो, है ना अच्छी प्रथा, उसके बाद लोग एक दूसरे से गले मिलते हैं, उपहार देते है, दीपावली की शुभकामनायें देते है, फटाके फोड़ते है। जिसमें सबसे ज्यादा मज़ा आता है। है ना ! :)  खैर हर नई चीज़ लेने के लिए भी दीपावली आने का इंतज़ार रहता है और दीपावली आते ही वो चीज़ ले ली जाती है। यह पाँच दिनों का उत्सव होता है पहले धन तेरस, फिर नरक चौदस और फिर दीपावली, गोवर्धन पूजा, अर्थात जिसे अन्नकूट के नाम से भी जाना जाता है फिर भाई दूज। धन तेरस वाले दिन वैसे तो सोना या चाँदी खरीदे जाने का रिवाज है, मगर आज कल के महँगाई के इस दौर में बेचारे गरीब के लिए यह सब संभव नहीं इसलिए हमारे समझदार बुज़ुर्गों ने सोने चाँदी के अलावा इस दिन कोई भी नया समान ख़रीद ने का चलन बना दिया था।  ताकि गरीब से गरीब इंसान भी इस दिन कुछ नया समान लेकर यह त्यौहार माना सके।

फिर आती है नरक चौदस यह दिन यमराज का दिन माना जाता है और उनसे तो सभी को डर लगता है। इसलिए इस दिन को मनाना कोई नहीं भूलता :) इस दिन आधी रात को मूँग की दाल से बने पापड़ पर काली उड़द की दाल रख कर उस पर यम के नाम का चार बत्ती वाला दिया जलाकर रास्ता शांत हो जाने के बाद बीच रास्ते में रखते हैं, और फिर जब तक दीपक या दिया शांत न हो जाए वहाँ खड़े रहकर प्रतीक्षा करते है। जैसे ही दिया शांत होता है, उस स्थान पर पानी डाल कर बिना पीछे देखे बिना घर में चले जाते है। इसके पीछे मान्यता यह है कि मरणोंपरांत जब यमदूत आपको लेकर जाते है तब उन चार बत्तियों वाले दिये की चारों बतियाँ चार दिशाओं का प्रतीक होती है।जिस के कारण जब यमदूत के साथ होते हुए भी आपको उस मार्ग की चारों दिशाओं  में उस दीपक की वहज से भरपूर रोशनी मिलती है न कि अंधेरा,  मगर सभी घरों में ऐसा नहीं होता है। हर घर की अलग मान्यता होती है, जो मैंने अभी बताया वो मेरे घर की प्रथा है।

फिर आती है दीपावली और अगली सुबह गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है । शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की ।

जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा और इस के बाद आती है भाई दूज, इस दिन सभी बहने अपने भाइयों को तिलक करती है। भाई उन्हें उपहार दिया करते है। यह साधारण तौर पर सभी हिन्दू जातियों में इस त्यौहार को मनाने का तरीका है। मगर  कायस्थ समाज में इस त्योहार के मनाए जाने का कुछ अलग तरीका है। इस दिन भगवान श्री चित्रगुप्त की पूजा की जाती है और दूध में उंगली से पत्र लिखा जाता है।  इसे जुड़ी मान्यता यह है कि आपकी मनोकामनाओं का पत्र देव लोक तक पहुँच जाता है। पहले लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया लिखाया नहीं जाता था।  इसलिए इस पूजा में लड़कियों को शामिल नहीं किया जाता है। किन्तु अब ऐसा नहीं है। बदलते वक्त ने लोगों कि मानसिकता तो भी थोड़ा बहुत बदला है। आजकल तो लड़कियां भी पढ़ी लिखी होती है इसलिए अब बहुत से घरों में लड़कियों को भी इस पूजा में शामिल होने दिया जाता है। मैंने भी अपने घर यह पूजा की है। :)
  
अब बारी आती है देव उठनी ग्यारस इसे बड़ी ग्यारस के नाम से भी जाना जाता है। इस वक्त गन्ने  की फ़सल आती है इस दिन रात को गन्ने से झोंपड़ी बना कर भगवान को उसके अंदर रखकर पूजा की जाती है इस दिन से ही शादी विवाह, मकान घर आदि बनाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य शुरू होते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस ग्यारस से भगवान विष्णु चार महीने बाद निंद्रा से जाग जाते है और उसके बाद ही शादी जैसे शुभ कार्य किए जाते हैं। वैसे देखा जाये तो बड़ी अजीब बात है ना! देव भी कभी सोते हैं। अगर देव सो गए तो न जाने इस संसार का क्या होगा मगर यदि मान्यताओं पर चल कर देखो तब भी बात बहुत अजीब बात लगती है नहीं ? देव सोते में हर बड़े-से बड़ा त्यौहार आकर चला जाता है और महज़ शादी भर करने के लिए लोग रुकते हैं इस ग्यारस के लिए क्यूँ ?  खैर यह अपनी-अपनी सोच और मान्यतया वाली बात है। इस बात को लेकर मेरा किसी कि भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कोई मक़सद नहीं है। जहाँ तक मुझे मेरे ससुर जी ने इस बात का लॉजिक दिया कि पुराने समय में गाँव में लोग रहते थे और मौसम खराब होने के कारण बहुत दिक्कते आती होगी तो इसलिए ही यह बोलकर कि देव सो गए हैं और बारिश के तीन-चार माह शादी कि रोक लगा दी और दीपावली के बाद मौसम ठंड का हो जाता है और बारिश के बहुत कम आसार होते हैं तो देवों को उठा दिया और शादियों कि अनुमति दे दी।

अन्तः बस इतना ही कहना चाहूँगी कि त्यौहार हर बार सभी के लिए खुशियाँ लेकर आये यह ज़रूरी नहीं, आज न जाने कितने ऐसे परिवार हैं जिनके लिए अब शायद इन त्योहारों का कोई मोल ना बचा हो मगर चलते रहना ही ज़िंदगी है जो रुक गया उसका सफर वहीं खत्म हो जाया करता है। इसलिए यदि हो सके तो पुरानी बातों को भूल कर आगे बढ़ने का प्रयास कीजिये अगर अपनो के जाने के ग़म ने आपसे त्यौहार की ख़ुशी छीनी है तब भी आपके आपने कई और भी है, जो आपको इस त्योहारों के ख़ुशनुमा माहौल में खुश देखना चाहते है और शायद वह लोग भी जिनका वजूद भले ही आपकी ज़िंदगी में ना रहा हो, मगर चाहत उनकी भी यही होगी की आप खुश रहें। कुछ और नहीं तो अपने अपनों की ख़ुशी के लिए ही सही ज़िंदगी में दर्द और ग़म को भूलाकर आगे बढ़िये क्यूंकि..... 

"जीने वालों जीवन छूक-छूक गाड़ी का है खेल,
 कोई कहीं पर बिछड़ गया किसी हो गया मेल" ....


इन्ही पंक्तियों के साथ जय हिन्द
                                  

Friday 23 September 2011

मरती हुई भावनायेँ ...जिम्मेदार आखिर कौन ?

मरती हुई भावनाओं का जिम्मेदार कौन हो सकता है शायद, जो मुझे लगता है वह है आत्मविश्वास की कमी। समझ नहीं आता है ज़िंदगी किस और ले जा रही है हम इन्सानों को, आज कल की भागती दौड़ती दुनिया में समय के अभाव का नतीजा है या बदलती मानसिकता का कहना बहुत मुश्किल है। आज एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति कोई मोल ही नहीं है। लोगों की जाने इतनी सस्ती हो गई हैं, कि एक इंसान बड़ी आसानी से दूसरे की जान लेने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाता। समझ नहीं आता कहाँ खो गई है इंसानियत, आज जहां देखो समाचार पत्रों से लेकर टीवी चेनल्स तक हर जगह वारदातों की खबरे देखने और सुनने को मिलती है। पहले तो केवल दिल्ली ,मुंबई जैसे महानगरों में ही यह वारदातें ज्यादातर सुनने को मिला करती थी। मगर अब यह आलम है कि महानगरों से लेकर सभी छोटे शहर, कस्बे और गावों में यह मार काट और लूट पाट की खबरें बेहद आम हो गई हैं।

टीवी चैनल वाले तो इन वारदातों के उपर आधारित ऐसे-ऐसे प्रोग्राम दिखते हैं कि मन में अपने आप ही एक अजीब असहाय होने की भावना महसूस होने लगती है। अपनों की सुरक्षा के प्रति डर लगने लगता है। तब लगता है कि जब हम लोग साधारण तौर पर घर में काम किया करते हैं, उस वक्त अकसर ऐसा होता है, कि हम खाना बनाते वक्त जल जाते हैं, या सब्ज़ी काटते वक्त अकसर उँगली कट जाया करती है। तब कितनी तकलीफ से गुज़रते है हम, भले ही वह तकलीफ क्षण भर की ही क्यूँ ना हो। मगर होती तो बहुत तीव्र है, फिर किसी की जान लेने वाले भी होते तो इंसान ही हैं। क्या उनको किसी को छुरा मरते वक्त या किसी को जलाते वक्त एक बार भी यह भावना नहीं आती कि सामने वाले को कितना दर्द होगा, कितनी तकलीफ होगी।

मुझे आज भी याद है, बचपन में जब कभी कोई बच्चा मुझे मार दिया करता था और मैं रोते हुए जब घर आकर सारी बातें बताया करती थी, तो मुझे सभी यही कहा करते थे कि क्या जरूरत थी पिट के आने की, तुझे भी सामने वाले को दो लगाने चाहिए थे। तब मेरा जवाब होता था कि यदि मैंने उसे मार दिया होता तो वो रोने लगता ना! इस पर हमेशा मुझे डाँट पड़ा करती थी, कि अब जब तू खुद रो रही है उसका क्या ? जब ऐसा कुछ सोचती हूँ तो लगता है बड़े होने से अच्छा तो बचपन ही था। कम से कम मन में दूसरों के प्रति कोई दौहरी भावनायें तो नहीं थी। आज कल तो इंसान में भावनायें नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान, इंसान के नाम से नहीं बल्कि रोबोट के नाम से जाना जाने लगेगा। आज की तारीख में इंसान ने रोबोट का निर्माण किया है और उसके अंदर डाटा भरा है। आने वाले समय में जब इंसान के अंतरमन से भावनायें मिट जायेगी तब न जाने कौन हमारे अंदर कौन क्या डाटा भरेगा।

पहले के ज़माने में दहेज़ प्रथा के नाम पर अकसर सुनने में आता था कि घर की बहू को जला कर मार डाला। आज भी इस अनुपात में कोई खास कमी नहीं आई है। मगर फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि या तो अब यह समाचार आम हो गया है, इसलिए इस पर नज़र नहीं जाती या फिर अब ऐसी ख़बरें कम पढ़ने में आती हैं। मगर हैरानी तो इस बात की होती है। कि ज़रा- ज़रा से बच्चे जिन्हें आज कल वक्त से पहले और आसानी से उन बातों का ज्ञान हो जाता है जो हमको शायद सही समय में मिला, या बहुत देर से मिला और इस वक्त से पहले ज्ञान प्राप्ती का नतीजा देखिय एक 17 साल के लड़के ने एक 14 साल की लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश की और जब वह इस पाप को करने में नाकामयाब रहा तो उसने उस मासूम 14 साल की लड़की को मिट्टी का तेल डालकर जला कर मार दिया। घटना कानपुर उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव मुजाहिद पुर की है।

ऐसी ही एक और घटना के बारे में आप सभी ने पढ़ा होगा फ़ेसबुक पर लगे अपडेट के कारण एक लड़की ने अपनी जान दी क्यूँ?  महज इसलिए कि उसके प्रेमी ने यह लिख दिया था कि I dumped my girl friend today,happy independence day अर्थात अब उसने पुरानी प्रेमिका को छोड़ दिया है। स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें यह भी कोई कारण हुआ भाला आत्महत्या करने का, सच कहूँ तो बज़ाय अफसोस के हँसी आती है मुझे ऐसे कमजोर लोगों पर और बहुत तरस आता है, बेचारे माँ-बाप पर। अब यह बात मेरे इस लेख के शीर्षक को सही साबित करती है। मरती हुई भावनायें आप सभी ने यह समाचार पढ़ ही लिया होगा इसलिए इसकी सम्पूर्ण जानकारी यहाँ नहीं दे रही हूँ। आप ही बताइये क्या किसी की भावनाओं का कोई मोल नहीं है? क्या हमारी जान इतनी सस्ती है कि यूँ ही किसी ने कुछ भी लिख कर चिपका दिया और आप बिना सोचे समझे आपने माँ-बाप के जज़्बातों से खिलवाड़ करने पर आमादा हो जाते हैं। क्यूँ ?

कक्षा में फ़ेल हो गये तो आत्महत्या कर ली, प्यार में नाकामयाब हो गये तो आत्महत्या कर ली, क्या सभी समस्यायों का एक ही हल है? जान दे देना। क्या दुःख से भागने का नाम ही ज़िंदगी है? नहीं न! तो फिर आज कल की नई पीढ़ी यह बात क्यूँ  नहीं समझ पा रही है। क्यूँ उसे हर समस्या का समाधान केवल मौत नज़र आता है। कहाँ मर गई है उनके अंदर की भावनायें, उनकी समझ, उनकी आत्मा, जो उन्हें बता सके सही और गलत में फर्क, जो उनको यह एहसास करा पाये कि उनके यूँ इस तरह आत्महत्या करने के बाद माँ-बाप का क्या होगा जिन माँ-बाप ने खुद दुःख तकलीफ़ें उठा कर अपने बच्चों को पढ़ाया, लिखाया, इस क़ाबिल बनाया कि वह अपने पैरों पर खड़े हो सकें। अपनी ज़िंदगी को अपना कह सके।

कभी सोचती हूँ तो लगता है कि हमने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाकर उनको आत्मनिर्भर होने के लायक तो बना दिया। मगर शायद कमी रह गई आत्मविश्वास की, शायद यह उसी का परिणाम है कि माँ-बाप सोचते हैं कि बच्चे बड़े हो कर उनका सहारा बन सकें और आज बदले मे वही बच्चे यूँ आत्महत्या करके अपने माँ बाप को समाज के सामने शर्मिंदा कर रहे हैं। उन्हें सिवाय बदनामी और ज़िंदगी भर का कभी खत्म ना होने वाला दुःख दे रहे हैं। बड़े शर्म की बात है ...

सच समझ नहीं आता आखिर कौन जिम्मेदार है इस सबका, इन सब बातों का, सवालों का, जवाव मेरे पास तो नहीं है, क्या आपके पास है? विद्यार्थियों के द्वारा की जाने वाली आत्मह्त्याओं का एक कारण आज की शिक्षा पद्धती और बढ़ती प्रतियोगिता को दिया जा सकता है,  मगर क्या पहले बच्चे फ़ेल नहीं होते थे या पहले कभी किसी को प्यार में नकामयाबी नहीं मिलती थी। तो जब इन विषयों में पहले जो बातें संभव हुआ करती थी तो फिर आज क्यूँ संभव नहीं?? माना की वक्त के साथ बदलाव ही प्रकर्ति का नियम है। जो वक्त के साथ नहीं बदलता वो कहीं का नहीं रहता। मगर इसके मायने यह तो नहीं है हर समस्या का समाधान और नाकामयाबी का नतीजा या हल केवल मौत नज़र आने लगे। 

इन सब बातों के चलते अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ आत्मविश्वा रखना भी जरूर सिखाएँ और यह समझाने का प्रयत्न करें कि यदि वह ज़िंदगी की राह में ज़िंदगी की ही किसी कसौटी पर खरे नहीं उतर पाये तो भी कोई बात नहीं... ज़िंदगी दुबारा मौका ज़रूर देती है। हार भी आगे बढ़ना सिखाती है। इस लेख को यहीं विराम देते हुए बस इतना की कहना चाहूंगी कि
"कौन कहता है कि आसमा में सुराख नहीं हो सकता 
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों :)" 


Wednesday 21 September 2011

कहाँ जा रहे हैं हम....."ज़रा सोचिये "


जाने क्यूँ कुछ भी लिखने जाती हूँ, तो मुझे अपनी ही पोस्ट का सही शीर्षक समझ नहीं आता कि आखिर मैं अपनी पोस्ट को क्या नाम दूँ, जो लिखना चाहती हूँ उस विषय में भी तरह-तरह के ख़्याल आते है और कभी-कभी उन ख़्यालों में, मैं खुद ही उलझ कर रह जाती हूँ। समझ ही नहीं आता है कहाँ से शुरू करूँ, आज का विषय भी कुछ ऐसा ही है। हालांकि आप को लग रहा होगा कि आज कल मेरी हर पोस्ट की शुरुआत ज्यादातर इन्हीं  लाइनों से हो रही है। मगर क्या करूँ खैर आखिर कहाँ जा रहे है हम.... क्या चाहते हैं प्रकर्ति से, जो हम अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए प्रकर्ति की अनमोल देन पेड़ों को खत्म करने में लगे हुये हैं। क्या मिल जायेगा हमको बड़ी-बड़ी इमारतें बनाकर जब उन इमारतों में रहने वाले इंसान साँस ही ना ले सकेंगे।

खैर आज कल जब भी मैं कभी कोई समाचार पत्र पढ़ने बैठती हूँ, तो रह-रह हर मन में यही ख़्याल आता है। कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो क्या मानव जीवन किसी भी सूरत में सुरक्षित रह पायेगा? हम अपना घर बनाने के लिए दूसरों का घर छीन रहे है। क्या यह सही है ? इतना मतलबी और ख़ुदग़र्ज हो गया है मानव, कहाँ चली गई है वो इंसानियत, जो फर्क दिखाया करती थी, एक इंसान में और एक जानवर में, कहते है इंसान जानवर से ज्यादा क़ाबिल है। क्यूँकि उसके पास दिमाग के साथ-साथ दिल भी है। जिसमें अन्य लोगों के प्रति प्रेम है। अच्छे बुरे और सही गलत के फेर को समझने की क्षमता है। तो कहाँ खो गई है, आज वो क्षमता। कहाँ खो गया है वो दिल जिसमें दूसरों के दर्द को समझने की ताकत और समझ हुआ करती थी।

आज जहां देखो एक ही तरह की खबर पढ़ने को मिल रही है , एक समाचार आम होता हुआ सा मालूम होता है। जंगली जानवरों का अपने घरों में से बाहर आना अर्थात जंगल से निकाल कर शहर में आना।
यह आज की तारीख में बहुत आम बात हो गई है क्यूँ ? ऐसी क्या मजबूरी है, उन मासूम जानवरों की, जिसके चलते उन्हें अपना इलाक़ा छोड़ कर शहर की और रुख करना पड़ रहा है। इस विषय में यदि गंभीरता से सोचो तो केवल एक ही बात दिमाग में आती है। वो यह कि उनका घर हम ही तो छीन रहे है। तो वो बेचारे और कहाँ जायेंगे। जिस तरह तेज़ी से पेड़ों के काटने का काम जारी है। उससे लगातार जंगलों का कम होना स्वाभाविक है, जिसके कारण भविष्य में बहुत जल्द आम आदमी को इस समस्या से गुज़रना होगा। प्रकर्ति हमेशा आने वाले हादसों के प्रति संकेत देती हैं मगर शायद हम ही उन संकेतों को समझ नहीं पाते या फिर समझना ही नहीं चाहते ऐसा करके प्रकर्ति भी शायद आने वाली आपदा का संकेत दे रही है जिसकी शुरुआत लगभग हो चुकी है। क्या इस तरह से जानवरों का जंगल छोड़ कर बाहर आना ही कोई संकेत दे रहा है आने वाले खतरे का ? बहुत दिनों पहले भी एक बार समाचार सुनने और पढ़ने में आया था,  आपने भी पढ़ा , सुना और देखा भी होगा टीवी पर  फ़िल्म अभिनेत्री हेमामलिनी जी के घर में तेंदुआ घुस गया था। जिसने किसी की जान माल को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया था और उस दौरान हेमा मालिनी जी भी अपने घर से बाहर किसी दूसरे देश में गई हुई थी।

खैर ऐसा ही एक क़िस्सा भोपाल में भी सुनने में आया है भोपाल शहर स्थित "केरवाँ डैम" के आस पास के इलाक़े में आज कल एक बाघ का खौफ़ मंडरा रहा है। जिससे वहाँ के आस पास के ग्रामीण निवासी बहुत चिंतित और परेशान हैं। आज की तारीख में वह बाघ कुल मिलाकर 15 से भी अधिक जानवरों का शिकार कर चुका है। लेकिन वन विभाग के कर्मचारी अब भी उस बाघ को पकड़ने में नाकामयाब हैं। सच समझ नहीं आता कहाँ जा रहे हैं हम....... आज जब एक जानवर में प्यार और वफ़ादारी की भावना अब भी बाक़ी है। वहाँ हम इंसान शायद अपने अस्तित्व को खुद ही मिटा देने पर आमादा है। क़िस्सा है एक बार का एक आदमी जो कि मालिक था एक गाय और कुछ बकरियों का अपनी साइकिल पर सवाल होकर वापस आपने घर को आ रहा था। जैसे ही वो अपने घर में आया और आकर आराम करने बैठा ही था कि अचानक एक तेंदुए ने उसकी एक बकरी पर हमला बोल दिया। बकरी की आवाज सुन जैसे ही मालिक बकरी की और बढ़ा तेंदुए ने मालिक को अपनी और आता देख मालिक पर हमला बोल दिया। फिर क्या था पास ही बंधी हुई गाय ने जब अपने मालिक के साथ यह सब होते देखा उसने अपनी पूरी ताकत लगा कर रस्सी तोड़ी और उस तेंदुए से जा भिड़ी और देखते ही देखते अपने सिघों के माध्यम से एक बार ऐसी जोरदार पटकनी दी उस तेंदुए को, की वो वहाँ से भाग खड़ा हुआ।  इस तरह उस सीधे-सादे माने जाने वाले जानवर ने अपनी जान पर खेल कर अपने मालिक से वफ़ादारी का सबूत दिया।

हम आज ना तो जंगल के प्राणियों को ही बख़्श रहे हैं और ना ही इस सीधे–सादे बहूपयोगी जानवर को ही आज कितने ख़ुदग़र्ज और मतलबी हो गए हैं हम, कि अपने मतलब के लिए ही जानवर को बड़े प्यार दुलार से पालते पोसते हैं और फिर उसी जानवर को बड़ी बेरहमी से मार कर या तो खा जाते है, या बेच देते है। इतना ही नहीं इस इंसान नामक हैवान की हैवानियत के बारे में जितना कहा जाये वो भी कम है। आज मनुष्य तरह-तरह की बीमारियों से घिरा रहता है! हर किसी को कोई न कोई बीमारी रहती है! हम लोग यह समझते हैं कि ये सब आज के भाग दौड़ से भरा जीवन, बढ़ता प्रदूषण, काम का टेंशन आदि के कारण होता है! लेकिन इसी वातावरण में बहुत से जानवर, पक्षी और कीट वग़ैरा रहते हैं! क्या आपने उन्हें कभी बीमार पड़ते देखा है नहीं देखा होगा! तो फिर मनुष्य क्यों बीमार पड़ जाता है! इसका कारण है कि कि हम वो आहार खाते हैं जो प्रकर्ति ने हमारे लिए बनाया ही नहीं है! मनुष्य को छोड़कर बाक़ी जीव इसलिए बीमार नहीं पड़ते क्योंकि वो वही आहार खाते हैं जो प्रकर्ति ने उनके लिए बनाया है और हम, अपने जीवन में वक्त के अभाव के कारण या फिर कुछ हद तक फ़ैशन के कारण और शायद कुछ हद तक आलस के कारण भी जो मिलता है, जैसा मिलता है खा लिया करते हैं। नतीजा तरह-तरह की नित नई बीमारियों से ग्रसित होना। जिनका पहले कभी दूर-दूर तक नाम भी नहीं सुना था। प्रकर्ति के नियमों से यदि यूंही हम खिलवाड़ करते रहेंगे तो नतीजा यही होगा ना।

क्या आप जानते है KFC का chicken जो आप खाते है उसके लिए उन बेचारे छोटे-छोटे चूज़ों को किन-किन दर्द भरी राहों पर से गुज़रना पड़ता है। उन छोटे-छोटे नन्हे चूज़ों की सामने से चोंच काट दी जाती है। कितना तकलीफ़ देय होता है यह, इसका आप और हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते। हफ्तों तक यह दर्द बरकरार रहता है। सोचिए ज़रा उन मासूमों की आत्मा कितना कोसती होगी और यह सब किया जाता है, इसलिए ताकि वो जल्दी और ज्यादा मात्रा में दाना खा सकें और उनको इतना खिलाया जाता है, कि वह अपना वज़न भी न उठा पायें। जिस दिन वो इस लायक हो जाते है। उन मासूमों को आपके लिए काट दिया जाता है और आप लोग बिना उन मासूमों के बारे में एक बार भी सोचें, बड़े चटखारे के साथ और बड़े गर्व से KFC का chicken खाने का दावा करते नज़र आते हैं। आपसे मतलब यहाँ उन लोगों से जो हर चीज़ में ब्रांड का नाम जपा करते है। यहाँ मैं  उस दरिंदगी के विडियो का लिंक दे रही हूँ।  जिनमें हिम्मत हो केवल वह पाठक ही इस लिंक को देखें
मुझ में न तो यह हिम्मत थी और ना है, कि मैं यह हेवानियत का खेल देख सकूँ।
 http://www.youtube.com/watch?v=6lPydQxTun0

उपरोक्त लिंक को देखने के बाद अब आप ही बताइये जानवर कहलाने लायक कौन है। सचमुच के जानवर या हम इंसान ? इस विषय पर पहले भी मैंने एक लेख लिखा था। गो माता की हत्या पर शीर्षक था  "गौ माता पर होता अत्याचार" तब मुझे एक सज्जन ने एक लिंक दिया था की मैं वो पढ़ूँ और फिर इस बात पर अफ़सोस ना करूँ, मगर उस लेख में, जिसका लिंक मुझे दिया गया था। यह बताया गया था कि जिन पशुओं को संक्रामक रोग हैं उनका काटा जाना ही उचित है जबकि मेरे लेख का मुख्य उदेश्य कुछ और ही था। खैर उस विषय पर फिर कभी बात होगी।

अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगी कि चाहे जानवर हों या पेड़ पौधे दोनों ही हमारे लिए प्रकर्ति की देन हैं।  जिनका हमको ख़्याल रखना चाहिए। क्योंकि प्रकर्ति का संतुलन बनाए रखने के लिये सभी का बराबर मात्रा में होना ज़रूरी है। यदि किसी एक का भी क्रम ज्यादा बढ़ा तो मुश्किलें होनी ही है और नतीजा यह हो सकता है कि  या तो जानवर नहीं बचेंगे या फिर इंसान।  इंसानियत का खात्मा तो लगभग होना शुरू हो ही चुका है। इसलिए प्रकर्ति का संतुलन बनाए रखने में ही समझदारी है। जिसका पहला कदम होगा व्रक्षारोपण अर्थात पेड़ लगाना जिससे ना सिर्फ जानवरों को उनका घर वापस मिलेगा।  बल्कि मौसम संबंधी आपदाओं से भी राहत मिल सकती है। ज़रा सोचिए .... जय हिन्द     

Monday 19 September 2011

बेटी का जीवन बचाओ (मानव दुनिया में कहलाओ )

क्या कहूँ और कहाँ से शुरुआत करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जब कभी इस विषय में कहीं कुछ पढ़ती हूँ या सुनती हूँ कि बेटी पैदा होने पर उसे गला घोंट के मार दिया गया, या किसी नदी, तालाब या कूएँ में फेंक दिया गया या फिर गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण करवाये जाने पर बेटी है का पता लगते ही उसे भूर्ण हत्या का रूप दे दिया जाता है। तो शर्म आती है मुझे कि मैं एक ऐसे समाज का हिस्सा हूँ जहां लोगों कि ऐसी संकीर्ण मानसिकता है। कैसे ना जाने कहाँ से लोगों के अंदर ऐसे घिनौने विचार जन्म लेते हैं। जिसके चलते उन मासूम फूलों से भी ज्यादा कोमल बच्चीयों के साथ लोग ऐसा अभद्र, गंदा, घिनौना, अपराध करते हैं। यहाँ अभी इस वक्त यह सब लिखते हुए इस प्रकार के जितने भी शब्द है वो भी मुझे बहुत कम लग रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए जिनकी मानसिकता है कि बेटी उनके सर पर बोझ है इसलिए उसे खत्म कर दो, सच बहुत अफ़सोस होता है। 21वी शताब्दी की बातें करते हैं हम और आज भी इस मानसिकता को ऐसी सोच को खत्म नहीं कर पाये हैं। आखिर कहाँ जा रहे हैं हम......

जाने क्या मिलता है लोगों को इस तरह का अभद्र पूर्ण व्यवहार करने से और कैसे पत्थर दिल इंसान होते हैं, वह लोग जो इस घिनौने काम को अंजाम देते है। बल्कि ऐसे लोगों को तो इंसान कहना या पत्थर दिल कहना भी इंसान और पत्थर दोनों का ही अपमान होगा। उससे भी ज्यादा बुरा लगता है जब पढ़े लिखे सभ्य परिवारों में भी यही सोच जानने और सुनने में आती है कि जब लोग कहते हैं हमारे लिए बेटा और बेटी दोनों ही बराबर हैं मगर फिर भी यदि पहली बार में बेटा हो जाये तो फिर चिंता नहीं रहती दूसरी बार में बेटी भी हो तो हमे स्वीकार है। क्यूँ ? क्यूंकि दुनिया चाहे चाँद पर ही क्यूँ ना पहुँच चुकी हो पर सोच तो वही है कि लड़के से ही वंश आगे चलता है लड़की से नहीं। चलिये एक बार को यह बात सच मान भी लेने तो, इससे लड़की का महत्व कम तो नहीं हो जाता , मैं यह नहीं कहती कि इस सब के चलते लड़के का महत्व कम होना चाहिए क्यूंकि मैं खुद एक बेटे की माँ हूँ लेकिन मैं यह कहना चाहती हूँ कि लड़के को भी वंश आगे बढ़ाने के लिए आगे लड़की की ही जरूरत पड़ेगी ना, तो जब दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरा अधूरा है तो फिर लड़की को लड़के की तुलना में महत्व कम क्यूँ दिया जाता है। एक तरफ तो हम उसी बेटी के माँ रूप अर्थात माँ दुर्गा की पूजा अर्चना करते है। घर की सुख और शांति के लिए कन्या भोज कराते हैं और दूसरी ओर अपने ही घर की कन्या के साथ ऐसा शर्मनाक और अभद्र व्यवहार करते है। आखिर क्यूँ ?

क्या बिगाड़ा है उस मासूम ने आपका.... क्या आने से पहले उसने कहा था आपसे कि मुझे इस दुनिया में लाओ, नहीं ना। आने वाला बच्चा बेटी है या बेटा जब आपको खुद ही यह बात पता नहीं और ना ही यह बात आपके हाथ में है। तो फिर उस मासूम और बेगुनाह बच्ची को भी सज़ा देने का आपको कोई अधिकार नहीं और सज़ा भी किस बात की, महज़ वो बेटा नहीं बेटी है। अरे लोग यह क्यूँ नहीं समझते कि अगर उनकी पत्नी नहीं होती तो बेटा या बेटी जिसकी भी उनको चाह है वो उनको मिलता कहाँ से, अरे अगर उनकी खुद की माँ नहीं होती तो उनका वजूद ही कहाँ होता। इस पर कुछ लोग कहते हैं वजूद ही नहीं होता तो इच्छा ही नहीं होती। मगर यह मानने को कोई तैयार नहीं कि आखिर बेटा हो या बेटी है तो उनका अपना ही नौ महीने तक जिसके आने का पल-पल बेसबरी से इंतज़ार किया जाता है। जिसके आने से आपके घर को रोशनी मिली आपको जीवन जीने का नया मोड़ मिला, चाहे बेटा हो या बेटी दोनों ने ही आपकी ज़िंदगी को रोशन किया। तो फिर बेटी के प्रति यह भेद-भाव क्यूँ ?

खैर इस विषय में जितना भी कहा जाये वो कम ही होगा और ऐसे लोगों को जितना भी समझा जाये वो रहेंगे “कुत्ते की दुम ही जो बारह साल नली में डाले रहने के बावजूद भी कभी सीधी नहीं होती” वैसे तो इस विषय में कोई गंभीर कदम उठाने की आवश्यकता है और इस विषय पर सामूहिक रूप से चर्चा होनी चाहिए और कोई ठोस निर्णय निकालना चाहिए। लेकिन फिर भी जब कभी इस विषय की ओर कोई अच्छा प्रयास किया जाता है तो जान कर ख़ुशी होती है और अच्छा भी लगता है, परिणाम भले ही देर से निकले मगर प्रयास करते रहना और प्रयासों का होते रहना भी जरूर है। शायद इन अक्ल के अंधों को थोड़ी सी अक्ल, ज्ञान और समझदारी की रोशनी मिल जाये और यह सही-गलत के भेद को पहचान सकें। ऐसा ही एक प्रयास भोपाल शहर के भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया। बेटी बचाओ आंदोलन के तहत, उनके द्वारा जो यह प्रयास किया गया, मुझे सचमुच में बहुत सराहनीय लगा। उन्होने एक अभियान शुरू किया है जिसके माध्यम से जनता तक यह संदेश पहुंचाने का प्रयास किया है कि यदि आपके घर आये स्नेह निमंत्रण में बेटी बचाने की अपील हो तो चौंकियेगा मत, ‘बेटी क्यों नहीं’ इस मुद्दे पर जनता की राय जानने के लिए शहरों के प्रमुख चौराहों पर ड्रॉप बाक्स लगाये जाने की भी बात की है। बेटी बचाओ अभियान की शुरुआत पाँच अक्टूबर से होगी। कार्यकर्ताओं से आग्रह किया गया है कि परिवार में विवाह आदि के मौक़े पर वे निमंत्रण पत्र में यह छपवायें की ‘यदि आप चाहते हैं कि आपके घर में भी ऐसा शुभ अवसर आये तो संकल्प लें कि गर्भस्थ शिशु के लिंग का परीक्षण नहीं करवायेंगे। शायद ऐसे प्रयास ही ज्यादा नहीं तो कम से कम कुछ लोगों की आँखें तो खोल ही सकते हैं। आज हमारे देश में बेटियों की जो हालत है जिसके चलते भूर्ण हत्या जैसे मामले आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलने लगे हैं शायद इन प्रयासों से हम उन दरों में कुछ हद तक कटौती कर सकें और इन प्रयासों के माध्यम से ही कुछ उन नन्ही बेजान कलियों की आत्मा को शांति और सुकून पहुंचा सकें जो खिलने से पहले ही अपनी ही ज़मीन से उखाड़ के फेंक दी गई।

अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगी जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा है कि ऐसे प्रयास होते रहना चाहिए और जो लोग इस विषय में नाममात्र की भी ऐसी या इस प्रकार की सोच रखते हैं कि बेटी बोझ है बेटा कुलदीपक उन सभी से मेरा अनुरोध है “जागो सोने वालों” बेटा हो या बेटी, है तो इंसान की ही संतान और भगवान की देन इसलिए दोनों को एक समान मानो और दोनों का ही तहे दिल, से खुले दिमाग और खुले मन से स्वागत करो और बस यही कामना करो की बेटी हो या बेटा दोनों ही स्वस्थ हों। जय हिन्द .....

Friday 16 September 2011

क्या औरत की जिंदगी में विवाह का होना ज़रूरी है?

पिछले कुछ दिनों में देखने में आया था एक लेख जो लिखा गया था, नारी के विवाह को लेकर कि क्या किसी भी स्त्री का विवाह करना ज़रूर है। क्या बिना विवाह किये जीवन जीने लायक नहीं रहता और एसे ही कई प्रश्नो को उठाता "नारी ब्लॉग" जिसे शायद आपने भी पढ़ा और देखा होगा। उसमें से कुछ पर्श्नो को में यहाँ ले रही हूँ। क्यूंकि मैं उस विषय पर बहुत कुछ कहना चाहती हूँ। इसलिए मेरा "नारी ब्लॉग" की लेखिका से अनुरोध है कि वह उसको किसी तरह कि कोई चोरी ना समझे मैंने उन्ही के द्वारा कही हुई बातों को बस अपने नज़रिये से लिखना और बताना चाहा है सब कुछ वहाँ उस ब्लॉग पर कहना संभव नहीं था। इसलिए मैंने सोचा कि क्यूँ न इन सवालों को मैं भी आपने ब्लॉग के जरिये आगे बढ़ाऊं और जानने का प्रयास करूँ कि इस विषय में और इन उठाये गए प्रश्नो को लेकर क्या सोचती है, आज की भारतीय नारी। यहाँ मैं यह भी कहना चाहूंगी कि इस ब्लॉग के जरिये मेरा उद्देश्य केवल उठाये गए प्रश्नो  के जवाब जाने से है।  मैं ना तो नारी के खिलाफ हूँ। न ही पुरुषों के पक्ष में हूँ। सामाजिक सोच जानने से ज्यादा मेरा और कोई उदेश्य नहीं है। मैंने वहाँ कुछ पंक्तियाँ पढ़ी थी। जो निम्नानुसार हैं।

"बसना है अगर किसी नारी को अकेले 
हम बस्ने नहीं देंगे 
अगर बसाएँगे तो हम बसाएँगे 
चूड़ी बिंदी सिंदूर और बिछिये से सजायेंगे 
जिस दिन हम जायेंगे, नारी से सब उतरवा ले जायेंगे 
हमने दिया है हमने ही लिया इसमें बुरा क्या किया। "
यहाँ मैं कहना और पूछना चाहती हूँ। खास कर उन स्त्रियों से जो पुरुषों के प्रति इस प्रकार का रवैया रखती है, जैसा की उपरोक्त पंक्तियों में लिखा गया है। कि क्या बस शादी के पवित्र बंधन के यही मायने है। क्या हम सभी स्त्रियाँ इस विषय में ऐसा ही सोचती है। अगर ऐसा है तो फिर किसी भी स्त्री को कभी शादी करनी ही नहीं चाहिए, "ना रहेगा बांस न बजेगी बसुरी"। मैं मानती हूँ कि हमारे समाज में औरतों को आज भी वह दर्जा नहीं मिल पाया है। जिसकी वह वास्तव में हक़दार हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं कि वह इस चिढ़ के चलते इस पवित्र बंधन पर तौहमत लगाना शुरू कर दें। आखिर कुछ भी हो जीवन में एक हमसफर, एक जीवन साथी, की जरूरत तो पड़ती ही है। जो जीवन भर आपके साथ रहे हर सुख दुख में आपका सहारा और होसला बन कर आप को आपके जीवन में आने वाली कठिनाइयों में आपका सच्चे मन से साथ निभाए, आपकी भावनाओं को समझे, जो बिना किसी शर्त के आपसे प्यार करे,  शुरू में हमको इस बात का एहसास नहीं होता, मगर जैसे-जैसे वक्त गुज़रता जाता है, इस रिश्ते की अहमियत समझ में आने लगती है। माता-पिता जिंदगी भर साथ नहीं रहते अगर कोई रहता है, तो वो है आपका हमसफर, आपका अपना जीवन साथी यह बात दोनों ही पक्षों पर लागू होती है। चाहे कोई स्त्री हो या पुरुष, वैसे भी कुछ भी कहो, भगवान ने भी कुछ सोच कर ही स्त्री और पुरुष दोनों का एक दुसरे का पूरक बनाया है। एक के बिना दूसरा पक्ष हमेशा अधूरा है और अधूरा ही रहेगा।

रही बात चूड़ी, बिंदी, सिंदूर और बिछिये से सजाने की, तो यह तो हर औरत के लिए गर्व और सम्मान का प्रतीक है। एक भी महिला ऐसी नहीं होगी जो इन सबके बिना खुद के श्रंगार को कभी पूर्ण समझती होगी। अगर कोई है तो अपने दिल पर हाथ रख कर कहे, ज़माना चाहे कितना भी मोर्डन क्यूँ ना हो जाए। इन चीज़ों के महत्व को कभी कम नहीं कर सकता। आखिर कुछ भी हो हैं तो हम सामाजिक प्राणी ही ना और समाज के नियमों का पालन करना हमारा प्रथम कर्तव्य बनता है। हाँ मैं यह जरूर मानती हूँ कि हमारा समाज अधिकतर पुरुष प्रधान समाज है। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि इसमें नारी के कुछ अधिकार ही नहीं है। 
यदि इस बंधन को एक बार मजबूरी मान भी लिया जाये तो ज़रा बताइये पौराणिक काल में भी तो यह समाज पुरुष प्रधान ही था। किन्तु तब भी सभी ने विवाह किया ही था। लोग कहते हैं कि माता सीता ने भी इस समाज के कारण ही दुख उठाये चलो एक बार को यह बात सच मान भी ली जाये, तो क्या श्री राम ने उनके वियोग में दुख नहीं उठाया। यदि एक और बड़ा उदहारण देखा जाए तो वह तो नारी शक्ति का ऐसा प्रतीक है कि उससे तो स्वयं परमात्मा भी इंकार नहीं कर सकते है। एक और उदाहरण है माँ दुर्गा का, जब शुंभ-निशुभ और मधु-केटव जैसे राक्षओं का संघार स्वयं ब्रहमा, विष्णु और महेश जैसी शक्तियों से मिलकर भी न हुआ तब निर्माण हुआ एक शक्ति का जिसने नारी रूप को पाया था।  फिर कहाँ कम रहा है नारी का महत्व।
अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि शायद अपना -अपना नज़रिया है क्यूंकि जिस बात को जितना ज्यादा नकारात्मक तरीके से देखा जाएगा, वह बात उतनी ही नकारात्मक लगेगी और किसी भी चीज़ के अच्छे परिणाम यदि देखने हों तो उसके लिए सकारात्म सोच रखना भी ज़रूरी है अर्थात कुछ मुट्ठी भर लोगों के खराब होने से पूरी दूनिया खराब है, कहना गलत होगा और रही बात उस शक्ति रूप की जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है माँ दुर्गा, उसी शक्ति के आगे आज हर नर-नारी शीश नवाते है। सभी सुहागने उनसे ही अपने अमर सुगाह की कामना करती है। क्यूँ ? यदि जो स्त्रियाँ ऐसी सोच रखती हैं कि विवाह का बंधन केवल पुरुषों ने अपने मतलब के लिए और अपनी अहमियत के लिए बनाया है। तो फिर क्या ज़रूरत है। ऐसे लोगों के लिए मन्नतें मांगने की, लम्बी आयु की कामना करने की और यदि आखिरी की पंक्तियों पर गौर किया जाये तो कोई मुझे यह बता दे ज़रा। कि जाने वाला कब यह कह कर जाता है किसी को कि मेरे जाने के बार मेरी पत्नी से वो सारे श्रिंगार छीन लेना जो मैंने कभी उसे दिये थे।

दरअसल बात यह है कि हमारा समाज कोई एक वक्ती विशेष नहीं है कि उसने कुछ कानून बनना दिये जिनका पालन करना हर सामाजिक प्राणी का प्रथम कर्तव्य है। हमारा समाज बनना है दो तरह के लोगों से एक वह जो सकारात्मक सोच रखते है और दूसरे वह कुछ लोग जो नकारात्मक सोच रखते है। इसके लिए हम पूरे समाज के सभी लोगों को दोषी तो नहीं ठहरा सकते ना, आप ही लोग बताइये कि यदि समाज में किसी तरह के कोई नियम कानून नहीं होते तो संस्कार कहाँ से आते किस की तुलना करके हम किसी को बता पाते कि क्या सही है और क्या गलत। इसलिए मुझे ऐसा लगता है और उसी के आधार पर मैं यह कहना चाहती हूँ कि ऐसा नहीं है कि समाज के सभी कानून औरत के खिलाफ बनाये गए हैं। माना कि आज भी घरों में बहू को जला कर मार दिया जाता है। विधावाओं के साथ जानवरों से भी ज्यादा बुरा सलूक किया जाता है।लेकिन उस के पीछे है ज्ञान का अभाव, संकीर्ण मानसिकता, मगर पूरे समाज मे सभी ऐसे हैं। यह भी सच नहीं। कम से कम मैं तो नहीं मानती। क्यूंकि ऐसे परिवारों को भी नकारा नहीं जा सकता जहां बहू को बेटी से ज्यादा प्यार मिला, सम्मान मिला, विधवा की दुबारा शादी कारवाई गई, दुनिया में सब अच्छे ही हैं ऐसा मैं नहीं कहती। मगर दुनिया उतनी बुरी भी नहीं है जितना कि लोगों ने उसे कह-कह कर बना रखा है। जहां अच्छाई है वहाँ बुराई भी होगी ही। क्यूंकि लोगों को अच्छाई के मायने ही बुराई के बाद ही समझ आते है और बात का इतिहास गवाह है। मगर इसे हमारे भाग्य की विवशता ही कहा जा सकता है कि अब भी हमारे समाज में बुराई का पलड़ा अच्छाई से ज्यादा भारी है।
यह तो थी इन पंक्तियों पर मेरी विचारधारा। एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया था उस ब्लॉग पर, उन प्रश्नो  को भी मैं यहाँ लेना चाहूंगी। 
क्या माँ बनना औरत की जिंदगी की सम्पूर्णता हैं ?
क्या शादी करना और फिर माँ बनना, औरत कि जिंदगी कि संपूर्णता है 
अगर माँ बनना संपूर्णता है, अविवाहित माँ क्यूँ अभिशाप होती है 
अगर शादी करके माँ बनना संपूर्णता है, तो शादी की अहमियत है, या माँ बनने की 
क्या बच्चे को जन्म देने मात्र से ही औरत माँ कहलाती है 
क्या बिना बच्चे को जन्म दिये औरत माँ नहीं बन सकती।
तो अब प्रश्न आता है कि क्या माँ बनना औरत की जिंदगी की संपूर्णता है। मेरा मत है कि हाँ है। क्यूंकि यह कुदरत का वो वरदान है जिसे श्रष्टि ने केवल औरत को दिया है। लेकिन एक माँ को भी शादी के बाद ही माँ बनने पर ही सम्मान मिलता है। क्यूंकि शादी एक पवित्र बंधन है। यह बंधन समाज ने नहीं श्रष्टि ने स्वयं बनाया है। कहते हैं "बिना आग के धुआं नहीं होता"। जैसे आग और धूएँ का संबंध है। जैसे दिया और बाती का सम्बंध है, जैसे सागर और नदी का सम्बंध है। वैसे ही नारी और पुरुष का संबंध है तभी तो कहा जाता है सबकी जोड़िया तो पहले से ही परमात्मा बना कर भेजता है। क्यूंकि दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे है और जब स्वयं भगवान भी इस बंधन से वंचित न रह सके तो हम तो तुच्छ इंसान मात्र हैं। इस पर कुछ लोग आदम और हऊवा का उदहारण देते है और कहते हैं उन्होने तो कभी विवाह नहीं किया था। हम सब उन्ही की संतान है। उनका तो पता नहीं लेकिन शास्त्रों के अनुसार विवाह के समय कुंडली मिलाना, गोत्र देखना, यह सब के पीछे केवल भ्रांतियाँ नहीं है कुछ वैज्ञानिक कारण भी है, अगर वह कारण ना होते यह नियम बनाने की जरूरत ही क्या थी। क्यूंकि जब सब उन्हीं की संतान है तो क्या फ़र्क पड़ता है। कोई भी किसी से भी विवाह करले। परंतु ऐसा होता नहीं है, और जहां होता है या कर लिया जाता है। वहाँ वैज्ञानिक तौर पर भी आने वाली नस्ल के परिणाम सामने आते हैं जिन्हे नकारा नहीं जा सकता है। वैसे भी यदि ऐसा होता तो दुनिया में रिश्ते और परिवार जैसी कोई चीज़ ही नहीं होती।

खैरअब बात करें यदि कि अविवाहित माँ अभिशाप क्यूँ है। तो मैं यहाँ कहना चाहूंगी कि माँ एक ऐसा शब्द है जो कभी अभिशाप कहला ही नहीं सकता। क्यूंकि आपने माँ दुर्गा की आरती में वह लाइन पढ़ी और सुनी जरूर होगी कि "पुत्र कुपुत्र सुने है पर ना माता सुनी कुमाता" लेकिन हाँ अविवाहित माँ को लोग अच्छी नज़रों से नहीं देखते क्यूँ, यह सवाल मेरे मन में भी कई बार उठा मगर कभी जवाब नहीं मिला। औरों का तो पता नहीं मगर मेरी सोच यह कहती है कि विवाह को कुछ ध्यान में रख कर ही अहम दर्जा दिया गया होगा ताकि समाज में रहने वाले लोग पथ भ्रष्ट ना हों, क्यूंकि यदि सभी मन मानी करने लगे तो वो भी पूरे समाज के लिए हित कर नहीं होगा। कुछ तो जरूर अहम कारण रहा होगा। जिसको ध्यान में रख कर ऐसा कुछ सोचा होगा ना हमारे बुजुर्गों ने पागल नहीं थे वह, "जो उन्होंने स्त्री और पुरुष के लिए कुछ सीमित दायरे तय किए थे",  यह बात अलग है कि आज कल इन दायरों का पालन बहुत कम ही लोग करते हैं। शायद यही कारण रहा होगा कि शादी के बाद ही माँ बनने को अहमीयत दी गई है। 
रही बात बच्चे को जन्म देने मात्र से ही माँ कहलाने की तो, ऐसा ज़रा भी नहीं है। बिना बच्चे को जन्म दिये भी औरत माँ बन सकती है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण है mother Teresa और उसके बाद 1994 में यह कानून भी लागू हो गया था कि बिना विवाह किए हुए भी कोई भी स्त्री बच्चा गोद ले सकती है। जिसकी शुरुवात कि सुश्री विश्व सुन्दरी सुष्मिता सेन के प्रयासों से हुई थी। उन्होने इसके लिये एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी और कानून को बदलवाया था। आज वो दो बेटियों की माँ हैं और अविवाहित हैं। लेकिन  इन सब बातों के चलते यह कहना कि विवाह की प्रधानता इसलिये हैं क्यूंकि उससे पुरुष की प्रधानता है। मैं सही नहीं समझती। क्यूंकि विवाह का बंधन दोनों के लिए महत्व रखता है चाहे स्त्री हो या पुरुष, फेरों के वक़्त भी दोनों के वचन एक से हुआ करते हैं। अब यह आप पर है कि आप उस रिश्ते को कितनी अहमियत दे पाते है और निभा पाते हैं। इस रिश्ते की जितनी ज़रूरत एक स्त्री को है उतनी ही एक पुरुष को भी है। क्यूंकि दोनों की ज़रूरतें भी एक जैसी ही होती है बस अपना -अपना देखने का नज़रिया है।
अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि यदि एक तलाकशुदा महिला को यह समाज अच्छी नज़रों से नहीं देखता तो एक तलाकशुदा पुरुष को भी अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता है। मगर हमारा नज़रिया ऐसा बन गया है कि वजह चाहे जो हो हम पुरुष को ही गलत समझते हैं। उदाहरण के लिए यदि भरी भीड़ में एक औरत किसी मर्द को चांटा मार दे तो उस औरत से कोई नहीं पूछेगा कि हुआ क्या था। सीधे लोग या सारी भीड़ बिना यह जाने कि क्या हुआ था टूट पड़ेगी मर्द पर क्यूंकि मानसिकता ही ऐसी है कि जरूर कुछ बदतमीजी की होगी उसने, तभी तो मारा वरना कोई पागल है क्या कि यूंही किसी को भरी भीड़ में चांटा मारेगी। जबकि कई बार खुद महिलायें भी जानबुझ कर ऐसी हरकतें करती हैं और फिर खुद के बचाव के लिए इल्ज़ाम सामने वाले पर लगा दिया करती हैं हालांकी ऐसा बहुत कम देखने और सुनने को मिलता है। ज्यादातर मामलों में मर्द ही जिम्मेदार होते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सभी एक जैसे होते हैं। अब मैं आप पर छोडती हूँ कि आप इस विषय में क्या सोचते हैं।   


         

Wednesday 14 September 2011

पत्रिका


हमारे समाज में ज्यादा तर मसले ऐसे होते हैं जिस में स्त्री और पुरुष कि सोच कम ही मिला करती है अभी कुछ दिन पहले कि ही बात है। पत्रिका को लेकर मेरी किसी सज्जन से चर्चा चल रही थी।यहाँ मैं उन सज्जन का नाम नहीं दे रही हूँ क्यूंकि वह मुझसे उम्र में बड़े भी हैं और ज्यादा तजुरबे कार भी। खैर  इस विषय को लेकर सामने वाले सज्जन का कहना था। कि केवल साहित्यिक पत्रिकाएँ ही पढ़ने लायक होती है। बाकी सब घरेलू पत्रिकाओं  में जो भी छापता है वह केवल मनोरंजन मात्र ही होता है। इससे ज्यादा और कुछ नहीं, और उससे समाज का कुछ भला नहीं हो सकता है। उनके अनुसार किसी साहित्यिक पत्रिका को पढ़ने से विचारणीय बाते सामने आती है। जिन पर सामुहिक रूप से विचार किया जाना चाहिए।जबकि मुझे ऐसा लगता है कि अधिकतर साहित्यिक पत्रिकाओं में एक ही विषय को लेकर अलग-अलग लेखक अपने अनुसार अपने विचार प्रस्तुत किया करते हैं। मगर इन घरेलू पत्रिकाओं में कई विभिन्न प्रकार के लेख ,कहानियाँ ,कवितायें एवं अन्य कई ऐसी सामग्री होती हैं कि आप एक ही पत्रिका के माध्यम से कई अलग-अलग पहलुओं पर एक साथ नज़र डाल सकते हैं। इन्ही सब बातों के चलते  मेरे मन में ख्याल आया कि क्यूँ ना इस विषय पर अपने मित्रों के साथ चर्चा कि जाये और जाना जाय कि इस विषय को लेकर आप सब की क्या राय है। इसलिए आज यह विषय लेकर आप सब के बीच आई हूँ आप को क्या लगता है।
यदि पढ़ने के लिए अच्छी सामग्री मिल रही हो।  जिससे आपका ज्ञान वर्धन हो रहा हो, तो क्या पत्रिका के नाम से इस बात पर फर्क पढ़ना चाहिए ? मुझे ऐसा लगता है पत्रिका कोई भी हो सामाजिक घरेलू पत्रिक या फिर साहित्यिक पत्रिका क्या फेर्क पड़ता है यदि पढ़ा जाने वाला विषय जानकारी देने वाला अथवा उपयोगी हो एवं जिससे आपको पढ़ने में मजा भी आरहा हो और आगे भी उस विषय में जानने कि इच्छा हो, अर्थात पढ़ने में रुचि कर लग रहा हो तो क्या फेर्क पड़ता है कि आपने कहाँ से पढ़ा। खैर इस विषय पर उन सज्जन का कहना था कि गृह शोभा ,मेरी सहेली एवं गृह लक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं में जो की महिलाओं की पत्रिकाएँ है। अर्थात महिला प्रधान पत्रिकाएँ है। तो यदि इन पत्रिकाओं में आपका कोई लेख, कहानी या आपकी कोई रचना छपती है तो उसमें कोई बड़ी बात नहीं है। उसके कोई मायने नहीं है । मायने हैं तो केवल साहित्यिक पत्रिकाओं के हैं। यदि उसमे आपके लेख या किसी रचना को स्थान दिया जाता है, तो वो बड़ी बात है। इस पत्रिकों में यदि आपको स्थान मिल भी गया तो आपने कोई बड़ा तीर नहीं मारा। जबकि देखा जाये तो आमतौर पर साहित्यिक पत्रिकाओं के मामले में यह पत्रिकाएँ ज्यादा मशहूर है। तो यदि आप अपना प्रचार प्रसार करने हेतु भी आफ्नै कोई रचना या आलेख इस पत्रिका के लिए देते है और उस में छपता है तो आप साहित्यिक पत्रिकाओं की तुलना में ज्यादा जल्दी मशहूर हो सकते हो अर्थात लोगों के बीच आपकी पहचान जल्द बन सकती है।  क्यूंकि साहित्य समझना हर किसी के बस कि बात नहीं।
हालाकी मैं यह बात मानती हूँ कि यह विषय सबसे पहले किसी भी पाठक की पसंद पर अधिक निर्भर करता है कि उसका रुझान किस तरफ है और वह क्या पढ़ने में रुचि रखता है। क्यूंकि हर एक की पसंद अलग-अलग होती है। किसी को काव्य पसंद होता है, तो किसी को कहानियाँ "वो कहते है ना पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना " बस यहाँ भी वही बात है वैसे साधारण तौर पर एक आम नज़रिये से देखा जाए तो इन घरेलू पत्रिकों में ऐसा कुछ खास नहीं होता ज्यादा तर घर संसार ,परिवार और खास कर खूबसूरती निखारने और बढ़ाने के वियषों पर ही अत्यधिक देखने और पढ़ने को मिलता है। मगर अपनी बात आम आदमी तक पहुंचाने का इससे अच्छा और कोई माध्यम मेरी समझ से तो हो, ही नहीं सकता। क्यूंकि यह ऐसी पत्रिकाएँ है जो लगभग इंडिया के हर घर में आसानी से उपलब्ध होती हैं। लेकिन इन सब बातों के बावजूद यह कहना कि यह सारी पत्रिकाएँ बेकार हैं। या इनके अस्तित्व का कोई मोल नहीं मेरे हिसाब से ऐसा कहा जाना गलत बात होगी। क्यूंकि यदि ऐसा होता तो शायद इन पत्रिकाओं की बिक्री इतनी नहीं होती जितनी की आज की तारीख में है।
और वैसे भी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और हम समाज में ही रहते हैं। तो घर परिवार संसार यह सारे विषय भी तो उतने ही महत्वपूर्ण हुए ना जीतने के साहित्यिक विषय।
ऐसा नहीं है की इन पत्रिकाओं में हमेशा बेकार की ही बातें छ्पा करती हैं। क्या आप इस बात से सहमत हैं ?  मैं तो नहीं हूँ। कई सारी ऐसी चीज़ें भी हैं हमारे जीवन में जो हम इन पत्रिकाओं के माध्यम से पढ़ कर सीख सकते है। जो शायद हम अपनी जिंदगी में समय के अभाव के कारण सीख नहीं पाये। लेकिन  चुकि सिर्फ यह एक महिला प्रधान पत्रिका है अर्थात महिलाओं की पत्रिका है। इसलिए इस पुरुष प्रधान समाज को इस पत्रिका से भी आपत्ति है। क्यूँ ?  क्यूंकि उनके लिए ऐसी कोई पत्रिका आती ही नहीं है। या आती भी हो तो मुझे इस विषय में कोई जानकारी नहीं है। मगर इसका मतलब यह तो नहीं हुआ ना कि इसके कारण यह पत्रिकाएँ बेकार हैं, निरर्थक है। जब इन्ही पत्रिकाओं को पढ़ने के बाद जब कोई महिला इन पत्रिकाओं से सीख कर कुछ अच्छा करती है । फिर चाहे वो घर परिवार से लेकर घर की साज सज्जा का मामला हो या फिर नित नये पकवान बनाना हो, तब तो लोग वाहवाई करते नहीं थकते। तो फिर पढ़ने की सामग्री को लेकर इतनी उतेजना क्यूँ जिसके चलते इन पत्रिकाओं को भला बुरा ठहराने का क्या मतलब निकलता है।
यहाँ मेरा मक़सद किसी की और इशारा करते हुए उस इंसान की अवहेलना करना नहीं है। की आखिर उसने यह बोला तो बोला कैसे। मैं तो बस इस विषय पर चर्चा करके यह जानना चाहती हूँ कि आम लोग की इस विषय में क्या राय है। बरहाल अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि पत्रिका चाहे साहित्यिक हो या घरेलू दोनों का ही अपना एक अलग स्थान है और अपना एक अलग महत्व है। कोई किसी से कम नहीं है। दोनों ही बराबर हैं । और यह बात पूर्णतः पाठक पर निर्भर करती है की उसकी पसंद और उसकी रुचि क्या पढ़ने में है। जय हिन्द .....                                   

Monday 12 September 2011

"MMS" का बढ़ता दुरुपयोग” ज़िम्मेदार कौन (हम या यह आधुनिक तकनीक)



MMS

घबरायें नहीं मैं आपको रागिनी MMS के विषय में कुछ कहने या बताने नहीं जा रही हूँ J यह विषय वैसे तो अब बहुत पुराना हो चुका है और आज इस विषय से कोई अंजान नहीं किन्तु फिर भी यदि मैं एक छोटा सा परिचय दूँ, तो यह कहा जा सकता है कि, यह एक ऐसी तकनीक है जो आज कल लगभग सभी MOBILE PHONES में पाई जाती है। जिसके माध्यम से किसी का भी विडियो बना कर संदेश की तरह किसी को भी भेजा जा सकता है। MOBILE आजकल हमारी ज़िंदगी का वो अहम हिस्सा बन गया है कि आदमी एक बार खाने के बिना ज़िंदा रह सकता है मगर MOBILE के बिना नहीं। क्यूँ भाई !! पहले भी तो लोग बिना MOBILE के हँसी ख़ुशी जिया करते थे। फिर आज ऐसा क्या और क्यूँ हो गया है, कि जिसके पास जीवन यापन के लिए अच्छे साधन भले ही, ना हों, मगर MOBILE जरूर होता है।
मुझे आज भी याद है जब हमारे घर में पहली बार LANDLINE फोन लगा था। इतनी ख़ुशी हुई थी हमको कि मैं उस ख़ुशी को शायद यहाँ शब्दों में ब्यान ही नहीं कर सकती। Mobile का उपयोग तो मैंने अपनी शादी के बाद करना शुरू किया था। इसके पहले MOBILE के बारे में जानकारी तो थी, मगर कभी इस्तेमाल नहीं किया था, ना मैंने और ना मेरे घर के किसी सदस्य ने। एक आज का ज़माना है, कि लोगों के पास नयी तकनीक से भरपूर MOBILE होने के बावजूद भी उनको हमेशा अब कौन सा नया मॉडल आया है जानने और लेने की उत्सुकता बनी रहती है।
खैर हम बात कर रहे थे MMS की, आज भी जब आप कोई समाचार पत्र उठा कर देखें, तो उसमें से दो चार समाचार तो आपको इस MMS से संबन्धित विषय पर जरूर मिलेंगे। जैसे फ़लाँ लड़की का MMS चलचित्र लेकर उसके और उसके परिवार वालों को पूरे समाज में बदनाम करने की धमकियाँ दी जा रही है, पुलिस ने केस दर्ज कर लिया है, तफतीश ज़ारी है वग़ैरा-वग़ैरा। इस विषय में सोचती हूँ तो बहुत दुविधा महसूस होती हैकि आखिर कहाँ कमी है। जिसके चलते यह विषय इतना आम हो गया है। इसका ज़िम्मेदार कौन है, हम या यह रोज़ नई तकनीक से भरपूर आने वाले MOBILE फोन। हम यहाँ मेरा तात्पर्य हम के रूप में समाज से है। ऐसा मैंने इसलिए कहा क्यूँकि कभी-कभी मुझे ऐसा महसूस होता है, कि इसके ज़िम्मेदार शायद कहीं कहीं हम भी हो सकते है। शायद हम ही अपने बच्चों को ऐसे संस्कार देने में नाकामयाब हों रहे हैं। जो हमको मिले थे कभी, जिसके चलते हमारी आज की पीढ़ी आधुनिक उपकरणों से इस क़दर प्रभावित हो रही है, कि सब कुछ भुला कर केवल अपना रुझान देखना ही उसे ठीक लगता है। 
अगर हम बात करें नित नई आने वाले आधुनिक तकनीक से भरपूर MOBILE कंपनियों की तो शायद यह कहना गलत नहीं होगा इसमें वह कंपनियाँ ज़िम्मेदार कम और दोषी हम ही लोग ज्यादा हैं। क्योंकि उनका तो काम ही है अपने व्यवसाय को सफलता के शिकार तक पहुंचाना फिर कोई देसी कंपनी हो या विदेशी। यहाँ कुछ लोगों का मानना इस विषय मे यह भी है कि विदेशी कंपनियों ने हमारे यहाँ आकर हमारी कंपनियों को दबा दिया। लेकिन इस मामले में भारतीय कंपनियाँ भी पीछे नहीं है।
कुछ एक कंपनियों से कुछ ऐसे उत्पाद को खुले आम बेशर्मी से बेचा की उसके सकारात्मक प्रभाव कम बल्कि नाकारात्मक प्रभाव ज्यादा सामने आये। जिन्होने जागरूकता फैलाने के नाम पर ऐसी कई चीज़ें है, जो खुले आम बेचा, ऐसी कई चीज़ें हैं जो जागरूकता के नाम पर बिकने लगी है। जिनका पहले परिवार के लोगों तक के सामने जिक्र करना बेशर्मी समझा जाता था। आज जागरूकता फैलाने के नाम पर उन चीज़ों को खुले आम विज्ञापनों के माध्यम से बेचा जा रहा है और ऐसी सभी चीज़ें हर दवाइयों की दुकानों पर आसानी से उपलभ्ध है। जिनका आसानी से गलत फायदा उठाया जा रहा है और जो लोग माँग करेंगे उन्हें वही चीज़ आसानी से उपलब्ध करवाना उनके व्यापार के सफलता का साधन बनता चला गया और आज भी बनता चला जा रहा है। जहां तक मुझे लगता है। व्यवसाय का मुख्य उदेश्य होता है, पहले उपभोगकर्ता का रुझान अपनी और खींचना, फिर उसे उस वस्तु की आदत डलवाना और एक बार जब उपभोगकर्ता उस वस्तु की आदत का शिकार हो जाये तो बस फिर उसे वही चीज़ मन चाहे दामों में हर हालत में उपलब्ध करवाना और शायद यही वजह है, कि नई पीढ़ी नित नये आधुनिक तकनीक से भरपूर व्यसनों की तरफ आसानी से मोहित हो जाती है।

इसी आदत का गलत फायदा उठाते हैं कुछ लोग। मगर यहाँ सवाल यह उठता है कि आखिर इस हद तक लड़कियाँ जाती ही क्यूँ है की कोई उनका MMS बनाकर उनको BLACK MALE कर सके। कोई बता सकता है? यहाँ गलती किस की है। क्यूँ लड़कियाँ इस हद तक जाने लगी है, कि नौबत यहाँ तक आ रही है। शायद इसका एक ही कारण हो सकता है। सही शिक्षा का अभाव जिसे हम संस्कार कह सकते हैं। हाँ मैं इतना जरूर मानती हूँ कि कुछ मासूम लड़कियाँ जरूर इसका शिकार बन जाती है। वो भी इसलिए कि वहाँ जागरूकता की कमी है। अर्थात जानकारी का अभाव है। जहां तक मेरी जानकारी है। किसी भी विषय में जागरूक होने का मतलब होता है। उस विषय की सम्पूर्ण जानकारी का होना और सही तरीके से उस जानकारी का उपयोग करना, ना की जानकारी होते हुए भी उसका दुरूपयोग करना। इसी अभाव के चलते कुछ मासूम लड़कियां इस MMS का शिकार बन जाती है अर्थात उनका MMS बना लिया जाता है। उदहारण के तौर पर (शॉपिंग माल) जैसी जगह में अकसर कपड़े बदलने वाले कमरों में लगे हुए आईने के माध्यम से या फिर छोटे-छोटे (माइक्रो केमरे) के माध्यम से उनका MMS ले लिया जाता है। मगर सभी मासूम नहीं होते। लगता है, "शायद प्यार के मायने बादल गए है" यह भी एक अहम कारण है इस समस्या का, जिसकी लड़कियाँ अकसर शिकार होती है। कुछ अंजाने में और कुछ जान बूझकर भी।  

जिस तरह हर बात के दो पहलू होते हैं। एक अच्छा, एक बुरा, ठीक उसी तरह इस बात के भी दो पहलू हैं। अच्छा यह कि यदि हम MOBILE में उपलब्ध इस सुविधा का सही प्रयोग करें तो बहुत हद तक समाज का भला किया जा सकता है और दुरूपयोग का नतीजा तो आपके सामने आये दिन समाचार पत्रों के माध्यम से आप तक पहुंचता ही रहता है। तो अब सवाल यह उठता है कि आखिर इस समस्या का समाधान हो तो किस प्रकार हो। जहां तक मेरी सोच कहती है। इस समस्या को दो ही तरह से सुलझाया जा सकता है। 
हला हम अपने बच्चों के दिलो दिमाग में यह बात बिठाने का प्रयत्न करें कि किसी भी नई तकनीक को जानना या उससे प्रभावित होना कोई गलत बात नहीं है। मगर जरूरत है उससे होने वाले परिणामों की सम्पूर्ण जानकारी रखना ताकि यदि कोई दूसरा व्यक्ति जब उस उपकरण का गलत उपयोग करे तब आप सावधान रह सको और औरों को भी सावधान कर सको।
दूसरा, जैसा कि मैंने पहले भी कहा था MOBILE फोन आज के युग की जरूरत बन गया है तो यदि आपको अपने बच्चे को MOBILE देना अति आवश्यक है, तो आप उसको ऐसा MOBILE दो जिसमें सिर्फ बात करने और संदेश भेजने की ही सुविधा हो, इससे ज्यादा और कुछ ना हो अर्थात् कम से कम तकनीक का प्रयोग हो लेकिन आज की आधुनिक और चकाचौंध भरी दुनिया में यह बात अब संभव नहीं और यदि किसी तरह संभव हो भी गया तो आपके बच्चे उस MOBILE को इस्तेमाल करने के लिए राज़ी होने से रहे। तो बेहतर यही होगा की आप पहला तरीक़ा अपनायें और अपने बच्चों को भटकने से बचायें। जय हिन्द ...                           

Thursday 8 September 2011

शिक्षक....


मैं जानती हूँ कि मैं वक्त से पीछे चल रही हूँ। जब सब लोग जिस विषय पर लिख चुके होते है। उसके बाद ही उस विषय पर मेरा दिमाग चलना शुरू होता है। मगर किसी को याद करने के लिए कोई दिन फिक्स हो यह ज़रूरी तो नहीं जब जिसको याद करने का दिल करे तब उसे याद किया जा सकता है। है ना J

 "शिक्षक"
शिक्षक हमारे ज़िंदगी से ताल्लुक रखने वाला वह इंसान होता है। जिसे हमें भगवान का दर्जा देना चाहिए। किन्तु शायद वास्तव में हम उन्हें वो दर्जा नहीं दे पाते, जिस तरह हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग सदैव आया करते हैं, उसी प्रकार हमारे जीवन में जिस दिन से हमारी शिक्षा प्रारम्भ होती है, से लेकर उस वक्त तक, जब तक हमारी शिक्षा पूर्ण नहीं हो जाती। न जाने कितने शिक्षक हमारी ज़िंदगी में आते है और आकार चले जाते है। जिनमें से हम कुछ को ही, याद रख पाते है और कुछ को नहीं। बाकी सबको या तो हम याद करते ही नहीं, या फिर याद करते भी हैं तो सिर्फ उस मज़ाकिया नाम से जो हमने ही कभी उन्हें दिया था। देखा जाये तो हमारे जीवन में आने वाला हर शख़्स हमको कुछ ना कुछ सिखाता ही है। माँ से शुरुआत होती है और उसके बाद तो जैसे हर कोई हमारा शिक्षक ही होता है जैसे हम हमारे परिवार के लोग से संस्कार सीखते है। वैसे ही हम अपने दोस्तों से भी बहुत कुछ सीखते है फिर वो अच्छा हो या बुरा, वो अलग बात है।

इंसान बना ही शायद सीखने के लिए है। इसलिए यह सीखने का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं होता। ज़िंदगी के हर मोड़ पर नित नए अनुभवों से भी तो हम लगभग रोज कुछ न कुछ सीखते ही है। फिर चाहे कोई सही निर्णय लेकर सीख़ें या फिर कोई गलत निर्णय लेने पर, सीख तो दोनों ही सूरतों में मिलती है। 

इस नाते एक तरह से हर इंसान हमारा शिक्षक ही हुआ। लेकिन हम सभी को वह दर्जा नहीं दे सकते जो वास्तव में हमें अपने स्कूल के या कॉलेज के शिक्षकों को देना चाहिए। क्योंकि ज़िंदगी के सही मायने तो वह ही हमको सिखाते हैं। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, सही गलत की सही पहचान तो वह ही हमें करवाते हैं। हमारी ज़िंदगी की नींव भी एक तरह से वही रखते हैं। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि बच्चे के शिक्षा की पहली नींव स्वयं उस बच्चे की माँ रखती है। उसकी पहली पाठशाला उसकी माँ ही होती हैं और अगर यह बात सोलह आने सच है, तो हमारे शिक्षक उस नींव के उपर मकान बनाने जैसा महत्वपूर्ण कार्य करते है। क्यूंकि बिना मकान के अकेली नींव के भी कोई मायने नहीं होते। है ना, और यदि ऐसा ना होता तो भगवान राम के ज़माने में और पांडवों के जमाने में स्वयं उनके माता पिता ने भी अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने हेतु गुरुकुल ना भेजा होता। तो हम तो सिर्फ इंसान हैं।   
इसलिए शायद कबीर दास जी ने बहुत ही सुंदर शब्दों में कहा था।  

गुरु गोविंद दोनों खड़े, का के लागू पाये, 
बली हारी गुरु आपकी गोविंद दियो दिखाये

अर्थात् हमें सदा भगवान से पहले अपने गुरु को पूजना चाहिए क्योंकि उन्होने ही तो हमें वह शिक्षा और ज्ञान दिया है। जिसके चलते हम गोविंद को पहचान सके। इसलिए "हे गुरुदेव आपको बहुत-बहुत नमन कि आपने हमको यह शिक्षा प्रदान की जिसके कारण हम गोविंद को पहचान सके"। अथवा यदि आपने हमें यह ज्ञान नहीं दिया होता तो हम कभी गोविंद को सामने पाकर भी पहचान ही नहीं पाते। सच ही तो है जितनी सुंदर बात है। उसे उतने ही सुंदर ढंग से कहा गया है। हमारे जीवन में कुछ गुरु ऐसे भी आये हैं जिन्हें हमने उन दिनों कभी पसंद नहीं किया। जिसके चलते उन दिनों हमारी हमेशा यही कोशिश रहा करती थी कि उनका सामना ना हो, तो ही अच्छा है। मगर आगे जाकर जब हमको यह एहसास होता है, कि उस वक्त वह जो भी कहा करते थे, उसमें हमारा ही हित छुपा होता था।

मगर जिस तरह हर बात के दो पहलू होते हैं, इस बात के भी हैं। आज कल के अध्यापकों में से कुछ एक अध्यापक ऐसे भी हैं जिन्हों ने शिक्षक के नाम को धूल में मिला दिया है और इस कदर बदनाम भी किया है कि जब उस विषय में सुनो या कहीं पढ़ो तो बहुत अफसोस होता है। क्यूंकि जो शिक्षक बच्चे के अंदर ज्ञान का बीज बोता चला आया है। आज वही शिक्षक उसी बच्चे की जान का दुश्मन बन गया है। मैं यह नहीं कहती कि गलती करने पर सजा नहीं मिलनी चाहिए, जरूर मिलनी चाहिए मगर सजा देने का अर्थ होता है, गलती करने वाले को उसकी गलती का एहसास करवाना। ना कि बच्चे को इस कदर मारना पीटना, वह भी इस तरह से कि उसकी जान पर बन आये। क्यूंकि एक बार यदि उसे अपनी गलती का एहसास हो गया तो फिर वह खुद ही कभी आगे वो गलती नहीं दोहरायेगा। लेकिन आज कल तो सजा ऐसी होने लगी है, कि गलती का एहसास हो न हो, मगर बच्चे कि जान जाने की संभावना जरूर बन जाती है, जो कि एक इंसान और एक शिक्षक दोनों होने के नाते बेहद शर्मनाक बात है। क्यूंकि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को मार पीट कर नहीं बल्कि स्नेह और समझदारी से समझाया जाना चाहिए। ना कि उनके अंदर अपना डर बैठा कर उन नन्हें फूलों को खिलने से पहले ही, उनकी जमीन से उखाड़ देना चाहिए।     
मगर जब हमें इस बात का एहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 


यहाँ मैं आपको अपने उन दिनों के एक छोटे से अनुभव को साझा करना चाहूँगी। हमारे कॉलेज में अँग्रेज़ी साहित्य में एक अध्यापिका हुआ करती थी। जिनकी उम्र उस वक्त कुछ नहीं तो 50-55 के आस पास रही होगी जिनका नाम तो मुझे याद नहीं मगर वह अपना उपनाम समददर लिखा करती थी। सही क्या था। यह ना हम जानना चाहते थे, और ना ही हम में से कभी, किसी ने यह जानने की कोशिश ही की, बस इतना पता है कि वह जाति से बंगाली थी। हालाँकि शिक्षक का जात से कोई नाता नहीं जो भी इंसान हमें ज्ञान दे, जीवन का सही मार्ग दिखाये वो ही महान होता है। यहाँ मुझे कबीर दास जी का ही एक और दोहा याद आ रहा है।

जाती न पूछो साधु कि पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान

अर्थात यदि हमको किसी वक्ती से ज्ञान प्राप्त हो सकता है तो हमें उसकी जाति पर ना जाकर यानि  उसकी जाति क्या है। यह ना जानने में दिलचस्पी   दिखाते हुए उसका हुनर क्या है और हम उस से वह  हुनर रूपी ज्ञान किस प्रकार सीख सकते हैं, पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। यहाँ तलवार और म्यान  को भी इस ही नज़रिये से समझाया गया है कि म्यान और तलवार में से तलवार का ज्यादा महत्व  है। खाली म्यान किसी काम की नहीं होती। खैर मैं बता रही थी, अपना अनुभव उन दिनों मेरा अँग्रेज़ी में हाथ बहुत तंग हुआ करता था। अर्थात् मेरी अँग्रेज़ी बहुत कमज़ोर हुआ करती थी। जिसके कारण हम यानी मैं और मेरे कुछ दोस्त हमेशा सबसे पीछे बैठा करते थे और किस्मत का खेल देखिये हमारे साथ रोज़ ही चोट हुआ करती थी। वह, ही हमारी एकमात्र ऐसी अध्यापिका थी। जो हमेशा ही जान बूझ कर पूछने की शुरुवात पीछे से ही किया करती थी। उस वक्त ऐसा लगता था मानो कहाँ फंस गए यार, डाँटते वक्त हमेशा उनका एक निश्चित संवाद हुआ करता था, जिसका उपयोग वो अनिवार्य रूप से किया करती थी। वह था "कुछ नहीं हो सकता तुम लोगों का, देखना बस घर-घर जाकर बर्तन साफ करने जैसा ही काम कर सकते हो तुम लोग, और कहीं किसी प्रकार का काम नहीं मिलेगा तुम को" वगैरा-वगैरा।

मगर हम लोग तो जैसे ढीठ हो गये थे। उनकी यह बातें रोज-रोज सुनकर हमको कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। नौबत यहाँ तक आ गई थी कि ऐसा लगता था कब वो आयें और कब हम लोगों से कहें कि तुम लोग यहाँ बैठने लायक ही नहीं हो। चले जाओ मेरी कक्षा से बाहर, यह जुमला सुनना हमारे लिए मजबूरी तो थी ही, साथ-साथ हमारी जरूरत भी थी। क्योंकि इस से पहले कम से कम और कुछ नहीं तो उपस्थिति तो लग जाए फिर कोई वांदा नहीं, जैसे जीने के लिए खाना-पीना, सोना-जागना, ज़रूरी होता है ठीक वैसे ही हमारे लिए उनकी डाँट ज़रूरी हुआ करती थी। जिस दिन वो नहीं आती थी, जैसे खाने में नमक ना हो तो लगता है ना, वैसे उनकी डाँट के बिना सब कुछ फीका बेस्वाद सा लगता था। उनकी डाँट हम लोगों कि रोज कि दिनचर्या में खाने में नमक का काम किया करती थी।      
उनका ऐसा कहना गलत नहीं था। वह तो हमेशा हमारा भला ही चाहती थी, मगर हम ही उन्हें नहीं समझते थे। फिर जब कॉलेज खत्म हुए तब कई बार जीवन में इस बात का एहसास हुआ कि काश उन दिनों उनकी बातें मान ली होती तो, आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। शिक्षक दिवस पर अकसर लोग सिर्फ अपने पसंदीदा अध्यापक को ही ज्यादा याद किया करते हैं। मगर मैंने इस बार याद किया अपने उन सभी ऐसे अध्यापकों को जिन से उन दिनों मैं बेहद नफ़रत किया करती थी, या उनके पीछे उनका मज़ाक बनाया करती थी। इन सब बातों से जुड़े, नाजाने कितने क़िस्से हैं, मेरे पास जिनको मैं आप सभी के साथ बाँटना चाहती हूँ। मगर यदि सभी का वर्णन करने बैठ गई, तो यह लेख ना रहकर कहानी में तबदील हो जायेगा इसलिए आज के लिए बस इतना ही J इसी के साथ आपने सारे शिक्षकों को याद करते हुए उन सभी को नमन करती हूँ जिनकी बदौलत आज में यहाँ तक पहुँची हूँ .....जय हिन्द                                   

Monday 5 September 2011

भ्रष्टाचार का ज़िम्मेदार आखिर कौन? (हमारे देश के नेता या हम खुद).....


वैसे मेरे पास इस विषय में लिखने को ज्यादा कुछ है नहीं क्यूँकि जो कुछ भी है वो सभी मीडिया ने पहले ही गा रखा है। वैसे भी देखा जाये तो जब कभी कोई मुद्दा अपने पूरे जोर पर हो तो उस पर लिखने का कोई मतलब नहीं निकलता मुझे तो ऐसा लगता है, जो सब कह रहे हैं, वो ही मैं भी बोल रही हूँ। उस में क्या नया है। बात तो तब बनती है, जब आप उस विषय पर कुछ लीग से हट कर कहो या लिखो। मगर आज कल लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के इतने सारे साधन हो गये हैं कि जब तक आप कुछ अलग सोचो तब तक तो वो बात किसी न किसी और माध्यम से लोगों तक पहुँच ही चुकी होती है और उसका सब से बड़ा और प्रभावशाली माध्यम है मीडिया और उस में भी खासकर सारे news chennel जो राई का पहाड़ बनाने में उस्ताद होते हैं।  

खैर अब तो यह एक ऐसा विषय बन गया है कि अब इस पर पढ़ना शायद आप लोगों भी अच्छा ना लगे, क्योंकि श्री अन्ना हज़ारे जी के अनशन के चलते इस विषय पर बहुत लोगों ने बहुत कुछ कहा और बहुत कुछ लिखा। यहाँ तक कि लोगों ने इस विषय पर हजारों की तादाद में देश भक्ति के गीत और कवितायें तक लिख डाली, कुछ दिनों पहले तक यह विषय बहुत ही गरमाया हुआ था। मीडिया ने भी इस विषय को खूब भुनाया और इस आंदोलन को हवा दी सच्चाई की एक ऐसी आँधी चली कि लोगों ने गाँधी जी को याद करने के साथ-साथ उनके दिखाये हुए मार्ग पर चलना भी पसंद किया। बहुत अच्छी बात है मुझे भी इस बात की बहुत ही ख़ुशी है, कि हमारे देश में इतने सालों बाद ही सही कुछ तो अच्छा हुआ, कुछ तो लोगों को समझ में आया कि किस तरह से लूटा जा रहा है अपने ही देश को देशवासीयों के द्वारा। मगर मेरा सवाल है, उन सभी देशवासियों से जो अपने आपको सच्चा हिंदुस्तानी मानते है और अन्ना जी के साथ रह कर देश के लिए कुछ करना चाहते है। मगर मैं उन सभी से एक सवाल करना चाहती हूँ कि किसी के ऊपर भी उँगली उठाने से पहले लोग यह क्यूँ भूल जाते हैं खुद उन की तरफ भी उन्ही की तीन उँगलियाँ उठती हैं। आज हर कोई कहता नज़र आता है कि भ्रष्टाचार हटाओ तो क्या उसने खुद कभी इस बात पर अमल किया है। वह स्वयं खुद कितना बड़ा भ्रष्ट है।

कोई बता दे जरा मुझे कि आखिर यह भ्रष्टाचार आया कहाँ से, जिसे देश के ठेकेदार बने यह नए लोग जड़ से मिटा देने का दावा कर रहे हैं, पहले बच्चे को झूठ बोलना खुद ही सिखाते हैं कि बेटा फलाने अंकल आये और यदि हमारा पूँछें तो कह देना की हम घर में नहीं है और फिर जब वही बच्चा आगे जाकर उन से खुद अपने मतलब के लिए झूठ बोलता है, तो उस पर ग़ुस्सा दिखाते हुए कहते हैं कि हम से झूठ बोलता है, यही सिखाया है हमने तुझे कि अपने ही लोगों से तू झूठ बोले.. वगैरा-वगैरा।
बच्चे के स्कूल में उसके दाख़िले का मसला हो, या मंदिर में लाइन में ना खड़ा होना पड़े इसलिए VIP द्वार से अंदर जाने का या फिर हेलमेट ना पहने का मामला हो, पहले नियम हम खुद जानबूझ कर भंग करते हैं और फिर जब उसका हरजाना देने की बात आती है सजा के रूप में या जो धन राशि तय होती है उस से बचने के लिए हम खुद ही यातायात पुलिस के कर्मचारी को घूस खिलाते हैं और उन लोगों को ज्यादा पैसे देकर हम खुद ही सब से पहले भ्रष्टाचार की शुरुवात करते हैं और दोष देते हैं देश के नेताओं को, जबकि उन से पहले तो हम खुद ही भ्रष्ट हैं। इस का मतलब यह नहीं है कि मैं देश के नेताओं को भ्रष्ट नहीं मानती, मानती हूँ। मगर उनसे कहीं ज्यादा मैं उन लोगों को भ्रष्ट मानती हूँ जो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए और अपना उल्लू सीधा करने के लिए खुद ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और सारा इल्ज़ाम बड़ी आसानी से मढ़ दिया जाता है, देश के नेताओं के ऊपर। यह कहाँ का इंसाफ़ है भाई, सिर्फ यही नहीं और भी ऐसे कई सारे मसले हैं जिसमें हो रहे भ्रष्टाचार के ज़िम्मेदार हम खुद ही हैं। मगर ज़िम्मेदार ठहराते हैं देश के नेताओं कोक्यूँ ?

खास कर कोई सरकारी मामला हो तब तो देखने लायक रहता है लोगों का रवैया, उस वक्त हर कोई यही कहता नज़र आता है कि ऊपर से नीचे तक सभी भ्रष्ट हैं पैसा फेकों तमाशा देखो, मगर उस वक्त कोई यह नहीं कहता उस कर्मचारी के ऐसे रवैये के पीछे भी हम ही हैं। आखिर एक ही दिन में तो वो ऐसा नहीं बन गया ना, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हम में से ही कुछ लोगों ने उसे घूस खिलाई और आज जब वो हर दूसरे आदमी से वही उम्मीद रखता है तो वो भ्रष्ट हो गया वाह यह भी कोई बात हुई।

मैं बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ आप सभी को यह आलेख पढ़ कर शायद यही लग रहा होगा कि मैं नेताओं की तरफ हूँ, एक आम आदमी की तरफ नहीं और देश से बाहर रह कर मेरे लिए भ्रष्टाचार पर लिखना या कुछ भी कहना बहुत आसान है। मगर मैं आप सभी को बता दूँ जो भी ऐसा सोच रहे हैं खास कर उनको कि ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं भी भारतीय जनता का एक हिस्सा हूँ और मैं भी अपने देश से इस भ्रष्टाचार रूपी दानव का नाम मिटा हुआ देखना चाहती हूँ, मगर खुद भ्रष्ट होकर नहीं।  

मैं जानती हूँ कि यहाँ जब कोई भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाता है तो पैसे वाले लोग हमेशा उसकी आवाज को दबा दिया करते हैं। यह बात हमेशा अलग-अलग ढंग से हमारी हिन्दी फिल्मों के माध्यम से कई बार दिखाई जा चुकी है। वास्तविकता भी यही है मगर यदि इस सब को हम यूँ हीं भाग्य का लिखा समझ कर या राजनेताओं के डर से अपनाते रहेंगे तो मिट चुका हमारे देश से भ्रष्टाचार, सिर्फ देश भक्ति की कवितायें लिखने से, या गीत लिखने से, या इस विषय पर लेख लिखने से, कुछ नहीं हो सकता। जरूरत है लोगों में जागरूकता जगाने की, लेकिन सब के लिए यह संभव नहीं जो भारतीय लोग बाहर रहकर श्री अन्ना जी का समर्थन करना चाहते हैं उन के लिए तो एक मात्र यही मार्ग बचता है कि वो अपने विचारों को लेखन के माध्यम से लोगों तक पहुंचायें क्यूंकि लेखन ही एक ऐसा माध्यम है जिसके ज़रिये लोगों में क्रांति लाई जा सकती है। मुझे गर्व है कि मैं ब्लॉग जगत की एक सदस्य हूँ। जहां लोग अपने विचारों को लेखन के माध्यम से जन-जन तक पहुँचा रहे हैं। जो कि लोगों में जागरूकता लाने का एक बहुत ही अच्छा प्रयास है। श्री अन्ना हज़ारे जी ने भी लोगों में जागरूकता लाने का जो महत्वपूर्ण प्रयास किया है वह वास्तव में सराहनीय सेवा है। इस नाते मैं उनके साथ हूँ। यहाँ मुझे एक और मशहूर लेखक दुषयंत कुमार जी की कुछ और पंक्तियाँ भी याद आ रही है। 


"सिर्फ हँगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं है,

सारी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो, तेरे सीने में सही
,

हो कहीं भी यह आग, मगर आग जलनी चाहिए"




जय हिन्द ....