Saturday 12 December 2015

अनुभवों की पोटली


भारत वापस आने के बाद यह मेरी दूसरी दीपावली थी। जिसने मुझे अनगिनत अनुभव की पोटली दे डाली। पिछले साल दिवाली यही मेरे घर पुणे में मनाई गयी थी और इस साल दिवाली मनाने हम जबलपुर गए, वह भी कार से, यह शुरुआत थी उन अनुभवों की जो आज तक के जीवन में मुझे पहले कभी न हुए थे। ऐसा इसलिए कहा क्यूंकि इस से पहले भोपाल इंदौर से अधिक लंबी यात्रा मैंने कार से पहले कभी न की थी। हालांकि अब तो भोपाल इंदौर यात्रा भी लंबी यात्रा के अंतर्गत नहीं आती। वह अलग बात है। इस मामले में मुझे ऐसा लगता है कि बी.जे.पी की सरकार के राज्य में और चाहे कुछ अच्छा हुआ हो या न हुआ हो। मगर (मध्य प्रदेश) की सड़कों और शहरों का पहले से अधिक विकास ज़रूर हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं है। एक समय था जब महाराष्ट्र की सड़कों के विषय में भी ऐसा ही कुछ कहा जाता था।
खैर मैं बात कर रही थी अपने अनुभवों की, तो पुणे से जबलपुर तक की लंबी यात्रा के अंतर्गत हमने विश्राम के लिए चुना (हरसूद) नामक एक स्थान जो खंडवा के पास बसा एक छोटा सा जिला है। जिसे सरकार ने इंदिरा सागर बांध परियोजना के दौरान 250 गाँवों के विस्थापितों के लिए दुबारा बसाया है। पुराना हरसूद तो लगभग जलमग्न होकर डूब ही चुका था। बल्कि आज भी डूबा हुआ है। खंडवा के पास तवा नदी के किनारे बसा यह छोटा सा जिला अपने आप में एक खास स्थान रखता है। क्यूंकि यह न केवल  प्राकृतिक रूप से सुंदर है बल्कि इसका अपने आप में एक छोटा सा इतिहास भी है। कई वर्षों पहले बांध बनाने के कारण यह जिला और यहाँ बसे छोटे मोटे सभी गाँव जलमग्न होकर डूब गए थे।

रेलवे स्टेशन 
इसलिए सरकार द्वारा यह दुबारा बसाया गया है। यहाँ के निवासियों का कहना है कि उस बांध के पानी के कारण उन ग्राम वासियों से, सिवाये उनकी जान के उनका सब कुछ छीन लिया। उनका घर, पशु पक्षी, जमीन खेत इत्यादि। यहाँ तक के रेलवे स्टेशन भी पानी में डूब गया। आज वहाँ रेल की पटरी तक नहीं है। वहाँ लगी अक्कुए के पेड़ और झाड झंखाड़  जैसे आज भी अपनी उदास नज़रों से किसी रेलगाड़ी के वहाँ आकर रुकने की प्रतीक्षा करते है। पुराने हरसूद की पानी में डूबी इमारतें और और खंडहर बन चुके घर आज भी अपनी दुख भरी दास्तां सुनाते से प्रतीत होते है। तवा नदी के तट पर बसा यह छोटा सा जिला कहने को जिला है। मगर लगता वास्तव में आज भी गाँव ही है। रोज मर्रा की जरूरतों के अतिरिक्त यदि कोई वस्तु की आवश्यकता हो तो उसे लेने या तो खंडवा जाना पड़ता है या फिर वहाँ के दूकानदारों से कहकर मंगवाना पड़ता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि गाँव की सी शुद्धता, दुग्ध दही, सब्जी भाजी, यहाँ तक के मछ्ली भी जैसी वहाँ शुद्ध मिलती है। वैसी शहरों में कहाँ मिल पाती है।
इस तस्वीर में दूर वही चिता जल रही है जिसका मैंने ज़िक्र किया 
इस यात्रा के दौरान मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार एक जलती हुई असली चिता देखी। जो आज से पहले हमेशा फिल्मों में ही देखी थी। लेकिन उस मृत आत्मा के आए हुए परिजनो में से एक भी इंसान मुझे दुखी दिखाई नहीं दिया। दुखी होना तो दूर वहाँ तो सभी जल्दी में नज़र आरहे थे। सभी को इतनी जल्दी थी कि चिता को भी शांति से जलने ना दिया जा रहा था। किसी पकती हुई सब्जी की भांति उसे एक बांस की सहायता से इधर-उधर चला चला कर जल्दी जल्दी जलने को विवश किया जा रहा था। क्यूंकि शाम ढलने वाली थी और सभी परिजन शायद जल्दी जल्दी अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर अपने-अपने घरों को लौट जाना चाहते थे। आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना तो दूर यहाँ तो पार्थिव शरीर को भी शांति से जलने नहीं दिया जा रहा था। यह सब देखकर तो यही लगा कि सच कितना स्वार्थी हो गया है इंसान। आज तक अपने अपनों को एक दूसरे के लिए समय नहीं है यह कहते तो सुना था। लेकिन अपने किसी परिजन की मृत्यु पर ऐसा नजारा न कभी देखा ना कभी सुना था।

यह एक दृश्य था। दूसरा नदी किनारे लगी नाव की सवारी आह ! प्रकृति की गोद का ऐसा सुखद अनुभव तो मुझे पहले कभी न हुआ था कि नाव में ही बस जाने को जी चाह रहा था। ऐसी सुंदरता का जिक्र ना कभी सुना ना देखा। जो बस आंखो से पीया जा सके और आत्मा से महसूस कीया जा सके। जिसको ना कोई पढ़कर समझ सके। जिसको न कोई लिखकर समझा सके। वह ही तो कहलाता है अदबुद्ध प्रकर्तिक सौंदर्य जिसके रूप के आगे कामदेव की बनायी संरचना भी फीकी सी लगने लगे। जिसकी ओर मन स्वतः ही मुड़ जाये। शायद यही वह आकर्षण होता होगा जो एक इंसान को साधू बनने पर विवश कर दिया करता होगा। लिकिन एक सच्चा साधू, एक योगी। कोई भोगी या पाखंडी नहीं। नदी के जल की कलकल ध्वनि घर लौट रहे परिंदों का करलव और लंबी खामोशी। नदी के बीच लगे दूर इक्का दुक्का ठूंठ से नंगे पेड़ जिन पर कुछ पक्षियों ने अपना घरौंदा बना लिया था। दूर बहुत दूर जहां तक नज़र जा सकती है उतनी दूर। नदी के किनारे कुछ और जलती हुई चिताएँ जिनकी सिर्फ अग्नि ही दिखी दे रही थी। पुल पर से गुजरती रेलगाड़ी और उसके पीछे से धीरे धीरे डूबता हुआ सूरज जो विवश कर गया उस गीत के बोल गुन गुनाने के लिए कि
कहीं दूर जब दिन ढाल जाए, साँझ की दुल्हन बदन चुराय, चुपके से आए
मेरे ख्यालों के आँगन में, कोई सपनों के दीप जालाए, चुपके से आए।


फिर अचानक ही ऐसा लगने लगा मानो यह सन्नाटा और यह अंधेरा धीरे-धीरे पग बढ़ता हुआ निगल लेना चाहता है यह सारे नज़ारे। अभी इस आभा से मन भर भी नहीं पाया था कि वह किनारा आ गया जहां हमें उतरना था। नाव से उतरकर भी वही कार की सवारी रास्ते में घर लौटते मवेशियों की बड़ी बड़ी चमकीली आंखे, बैलगाड़ी की गड़गड़ाहट और घर लौटे गड़रियों का अपनी गाये भैंसों और बकरियों को हकालने के स्वर मुझे जैसे सभी कुछ एक स्वप्न सा प्रतीत हो रहा था। इतनी दुनिया देखने के बाद और घूमने के पश्चात भी आज भी जैसे यह मिट्टी मुझे अपनी ओर खींचती है। यह नज़ारे देखकर आँखों को जितनी ठंडक और मन को जितनी शांति मिली। उतनी तो शायद पुजा पाठ में भी नहीं मिलती। लेकिन दूसरी तरफ मन में रह रह कर यह सवाल उठता रहा कि क्यूँ छोड़ दी हमने अपनी मिट्टी, अपना गाँव, अपना परिवेश, अपनी सभ्यता, अपना संस्कृति। काश ऐसा होता कि शहरों में काम करने की मजबूरी न होती तो आज शायद मेरी पहली पसंद किसी गाँव की नागरिकता ही होती।

आज भी गाँव में कुछ नहीं बदला है। आज भी वहाँ मैंने देखा घर आँगन को गोबर से लीपते हुए। चूने से मुंडेर को संवारते हुए। मिट्टी के आँगन में जमीन पर रंगोली डालते हुए। घर द्वार को फूलों और आम के पत्तों से बनी बंधवार से सजाते हुए। जिसे देखकर लगा यह है वास्तविक दीपावली जिसे मनाने के लिए कोई आडंबर नहीं है। जो है, जितना है। वही अपने आप में इतना भव्य है कि वहाँ किसी और औपचारिकता की कोई आवश्यकता ही नहीं है। सब कुछ एक साफ सुथरे निर्मल मन की कोमल भावनाओं जैसा ही तो है। हालांकि आज के माहौल में यह सब भी कोई पूर्णतः सच नहीं है। आपसी रंजिशों के चलते अब गाँव में भी मानवता का वैसा वास देखने को नहीं मिलता जैसा प्रेमचंद की कहानियों में पढ़ने को मिलता है।

मुझे तो ऐसा लगता है गाँव के विकास के नाम पर जो गांवों का शहरी कारण किया गया। जिसके चलते वह ना पूरी तरह शहर ही बन पाये और ना गाँव ही रह पाये। उन्हें जिला करार दे दिया गया होगा। लेकिन यहाँ आकर यहाँ घूमकर जो मुझे यह सुखद अनुभव हुए वह सदा मेरे साथ रहेंगे 'मेरे अनुभव' बनकर।                                                              

Tuesday 1 December 2015

जीवन


कंक्रीटों के जंगल के बीच एक छोटे से भू भाग में टीन के पतरों से बने कुछ मकान जो उनमें रहने वाले गरीब मजदूर परिवार के लिए घर कहलाते है। घर जिसका सीधा सा अर्थ होता है एक इंसान के लिए सर छिपाने की एक ऐसी जगह जहां आकर उस इंसान को सुकून मिलता है, शांति मिलती है। या फिर यह कहा जाए कि जिस चार दीवारी में आकार कोई भी अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है, सही मायने में वही घर कहलाता है। फिर चाहे उस घर की दीवारें मिट्टी, लकड़ी, पत्थर या फिर टीन के पतरों की ही क्यूँ न बनी हो। ऐसे ही चंद आशियाने मेरे घर के पीछे भी बने है। कितना अजीब होता है जीवन। विशेष रूप से हम इंसानों का जीवन। जो अपने आप को सहज ही परिस्थिति और वातावरण के अनुसार ढाल लेता है। फिर चाहे वह गाँव का माहौल हो या छोटे बड़े नगरों महानगरों का, जिसे जैसा जीवन मिलता है वह उसी जीवन में खुश रह लेता है।

अब मजदूरों के जीवन को ही ले लीजिये, दूर दराज से अपने-अपने गाँव को छोड़कर ज्यादा पैसा कमाने की लालसा में आए यह लोग, बेचारे न घर के रह जाते है और न घाट के, अर्थात वह ना यहाँ ही चैन से जी पाते हैं और न ही वापस अपने गाँव ही लौट पाते है। लेकिन इस वर्ग की महिलाएं को तो सच में उन्हें दिल से सलाम करती हूँ। जो ज़मीन के उस छोटे से भू-भाग में अपना आशियाँ कुछ यूं बनाती है, मानो यह ही उनका अपना घर हो। एक ऐसा घर जिसे छोड़कर अब वह कहीं नहीं जाएंगी और सदा-सदा के लिए यही रह जायेंगी। लेकिन टीन के पतरों से बने हुए यह नाजुक से घर और आस पास कंक्रीटों का कचरा सारा-सारा दिन उड़ती धूल, मिट्टी, सीमेंट, ढेरों मच्छर मक्खी और भी न जाने कितने प्रकार की गंदगी क्यूंकि एक और जहां उनके पास सर छिपाने के लिए एक पुख्ता या मजबूत छत तक नहीं है। वहाँ ठीक ठाक शौचालय जैसी सुविधा के बारे में सोचना भी शायद व्यर्थ सी बात है। फिर भी बिना किसी विशेष चाह के दिन रात घर और मजदूरी के कामों के बीच भी यह महिलायें घर के सारे कामों के बावजूद अपने लिए इतने कम समय में भी समय से थोड़ा सा समय चुरा ही लेती हैं। 

तब किसी एक के घर के पास समूहिक रूप से एकत्रित होकर एक दूसरे से बोलती बतियाती है। किसने क्या बनाया, क्या खाया। अपने -अपने सुख दुख की बातें, संध्या के भोजन की तैयारी के लिए भाजी तरकारी साफ करना। एक दूसरे की कंघी करना, बीच -बीच में पास खेलते अपने बच्चों के साथ खेलने लगना तो कभी उन्हें डांट फटकार देना। उनके मुख पर कभी कोई शोक दिखाई नहीं देता। भविष्य को लेकर या अपने बच्चों को लेकर कोई चिंता या फिर्क भी दिखाई नहीं देती। हालांकि होती तो होगी ही क्यूंकि वह भी तो हमारी तरह इंसान ही है और हर इंसान को अपने लिए न सही लेकिन अपने बच्चों के लिए तो भविष्य की चिंता होती ही है। मगर फिर भी मुझे आश्चर्य होता है उनके व्यक्तित्व को देखकर। 

एक ओर हम है, जो लगभग हर पल किसी न किसी छोटी बड़ी चिंता से ग्रस्त रहते है। उन चिंताओं से जो व्यर्थ है। जिनके दूर होने या ना होने से शायद हमें फर्क भी नहीं पड़ता। मगर फिर भी हम हर पल तनाव ग्रस्त रहते है। जिसके चलते मुझे तो यही अहसास होता है कि संतोष और धैर्य जैसे शब्द अब हमारे जीवन से हमेशा के लिए मिट चुके हैं। पूरे जीवन की बात तो दूर, पूरे दिन में शायद ही कुछ पल ऐसे होते होंगे जिसमें हमें किसी प्रकार की कोई चिंता परेशानी या तनाव न रहता हो।
दूसरी ओर हैं वह जिनके पास कुछ भी नहीं है। अगले दिन उन्हें खाना भी मिलेगा या नहीं इस बात तक का पता नहीं है। फिर भी वह निश्चित होकर सोते है।  खुश और बेफिक्र मस्त मौला सा जीवन बिताते है/ बिता रहे हैं और एक हम है। जिनके पास सब कुछ है मगर फिर भी ऐसा लगता है कि कुछ नहीं है। पुरुषों को नौकरी व्यापार आदि की चिंता और महिलाओं को चाय की दावत हो या किट्टी पार्टी में क्या पहनना है जैसी बेतुकी चिंताएँ साधारण महिलाएं अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर परेशान रहती हैं कि बच्चे ठीक से पढ़ते नहीं है। क्या होगा इनका आगे चलकर। या फिर शाम के खाने में क्या बनेगा। कल क्या करना है। रोज़ के वही काम होते है लेकिन शुरुआत रोज़ ही एक नयी प्लानिंग के अनुसार करनी पड़ती है। बच्चों ने ठीक से खाया या नहीं खाया। आज क्या पढ़ा क्या नहीं पढ़ा। स्कूल में क्या-क्या हुआ। जैसे कई बातें होती है जो जाने अंजाने परेशानी में डाल ही देती है।

इतने पर भी यह चिताएँ समाप्त नहीं होती। जिनके सयुंक्त परिवार है उनमें रोज़ की अपनी अलग परेशानियां  है। जहां हम जैसे एकल परिवार है उनकी अलग समस्याएँ है। उफ़्फ़! ऐसा लगता है जैसे सारी दुनिया का भार हमारे ही कंधों पर है। दिन भर कुछ विशेष न करके भी हम सारा दिन परेशान रहते है। ऐसे में तो यही लगता है कि उन मजदूर महिलाओं का जीवन हम सामान्य वर्ग की महिलाओं के जीवन से कहीं ज्यादा अच्छा है। हालांकि हमेशा से ऐसा ही होता है कि ''हमें पड़ोसी के घर के आंगन में लगी घास हमारे अपने घर के आँगन में लगी घास से ज्यादा हरी दिखाई देती है''। क्यूंकि यह मानव स्वभाव है। जो नहीं है वही चाहिए होता है। फिर दूजे ही पल यह जुमला भी याद आता है कि 
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम 
दास मलुका कह गए, सबके दाता राम।
लेकिन सोचो तो एक जीवन सारा-सारा दिन संघर्ष करके भी खुश है और एक जीवन बिना कोई संघर्ष किए मोटी रकम पाकर भी तनाव ग्रस्त है। सच कितना अजीब होता है यह जीवन ...हम इंसानों का जीवन।

Thursday 19 November 2015

मृत्यु क्या है ?


साधारण लोग सोचते है मृत्यु एक विराम है जिसके आगे सब समाप्त हो जाता है। शेष कुछ भी नहीं रहता सिवाए मिट्टी के पर क्या यही सच है। मेरे अंदर कई प्रश्न उठते है मगर जवाब आजतक नहीं मिला। मृत्यु क्या है एक जीवन का अंत या फिर एक नयी शुरुआत। मृत्यु को लेकर हम यह मानते है कि मरणोपरांत उस जाने वाले व्यक्ति की आत्मा तेराह दिन तक उसी घर में वास करती है। इसलिए ही तो किसी कि मृत्यु के उपरांत तेरहा दिनों का शोक मनाया जाता है। इसी सिलसिले में दूसरी और जानेवाले व्यक्ति की अंतिम इच्छा का भी बड़ा महत्व होता है। इतना कि कानून व्यवस्था भी किसी अपराधी को प्राण दंड देने से पूर्व उसकी अंतिम इच्छा के विषय में पूछती है और उसे पूर्ण करने का हर संभव प्रयास किया जाता है।

तो फिर दूसरी और ऐसा क्यूँ लगता है कि मौत तो अन्त है। अर्थात जब अन्त  ही हो गया जीवन का, तो फिर कैसी आशा या अभिलाषा। जानेवाला चला गया। कहते है जब कोई जाता है तो उसके साथ उसका सर्वस्व चला जाता है। क्यूंकि जाते वक्त इंसान इस संसार रूपी मोहमाया से ऊपर उठ जाता है। उसका दुख-दर्द, भावनाएं सब समाप्त हो जाता है। तो अब प्रश्न यह उठता है कि जब जीवन ही खत्म हो गया तो उसके उपरांत उसकी इच्छा का क्या महत्व रह जाता है, जिसे उसके परिवार जन या संबंधी पूरा किया करते है। क्या उस व्यक्ति के अपूर्ण कार्यों का पूर्ण किया जाना या उसकी इच्छा पूर्ति की जाना क्या उस व्यक्ति तक पहुँचता है ? क्या मरणोपरांत भी एक इंसान इस मोहमाया से मुक्त नहीं हो पाता या यह सिर्फ हम ज़िंदा इंसानों के मन का भ्रम मात्र है।

या फिर कोई अंजाना अनकहा दबा छिपा सा डर जिसके दो प्रकार है। एक कहीं ऐसा न हो की यदि जानेवाले की अंतिम इच्छा पूरी नहीं की गयी तो वह भूत प्रेत बनकर हमें डराएगा। दूजा या फिर हम वास्तव में जानेवाले की अंतिम इच्छा को पूरा करना चाहते है ताकि कहीं इस मोह माया के चक्कर में उसकी आत्मा मोक्ष को प्राप्त करने से वंचित न रह जाये।

लेकिन यदि जानेवाला  व्यक्ति परिवार के समस्त सदस्यों को अतिप्रिय है। तो फिर एक जीवित इंसान होने के नाते तो हम अपने उस प्रिय व्यक्ति को सदा अपने पास अपने निकट रखना चाहेंगे ना। फिर चाहे वह किसी भी रूप में हमारे निकट क्यूँ न रहे। कम से कम इस बात की तसल्ली तो रहेगी कि हमारा प्रिय व्यक्ति हमेशा हमारे साथ है। फिर ऐसे में हम उसकी मोक्ष की कामना कैसे कर सकते है। क्यूंकि मोक्ष का अर्थ तो दुबारा फिर कभी जन्म न लेना होता है ना ? सदा सदा के लिए ईश्वर में लीन हो जाना ही तो मोक्ष कहलाता है। है न ?

क्या उस वक्त, वास्तव में हम ऐसा सोचते है। ऐसा ही चाहते है। या फिर खुद को भ्रम में रखकर यह महसूस करने का निरर्थक प्रयास करते है। कि ऐसा करने से वह सदा-सदा के लिए हमारे पास रह जाएगा। क्यूंकि उस समय शायद हम यह स्वीकार ही नहीं कर पाते कि हमारा प्रिय वह व्यक्ति अब हमसे बहुत दूर जा चुका है। इतना दूर कि अब हम सिर्फ उसके दिखाये मार्ग पर चल सकते है।  उसकी बातों का अनुगमन कर सकते है किन्तु उसे देख नहीं सकते, उसे छु नहीं सकते। न जाने क्यूँ मेरा मन कहता है! यदि हम वास्तव में उस दिवंगत आत्मा के प्रति ऐसी सोच रखते है। तब भी हम स्वार्थी ही बने रहते है। क्यूंकि हम इंसान है। जीवित इंसान और स्वार्थ हमारी प्रवृति है। हम भले ही यह सोचे कि हम अपने उस प्रिय व्यक्ति के प्रति लगाव और मोह को त्यागकर ही उसके मोक्ष कि कामना करते हैं। तो क्या आपको नहीं लगता कि ऐसा करने के पीछे भी कहीं न कहीं हमारे मन का डर ही हमें ऐसी कमाना करने के लिए विवश कर रहा होता है। इसलिए तो हम जानेवाले की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते है। क्यूंकि एक तरफ तो हमारे मन में यह डर व्याप्त रहता है कि जाने वाला इंसान हमें अब भी देख रहा है। इसलिए यदि हमने उसकी अंतिम इच्छा पूरी न कि तो वह न जाने हमारे बारे में क्या सोचे और फल स्वरूप हमें क्या दंड दे।

कहीं ऐसा न हो कि किसी अपूर्ण इच्छा के चक्कर में उसे मुक्ति ही ना मिले और वह भटकती हुई आत्मा बनकर हमें डराय। शायद इसलिए हम पूरे विधि विधान सहित उसकी समस्त मनोकामनाओं (जो हमें ज्ञात होती है) को पूर्ण करने का प्रयास करते है। कितने स्वार्थी हो जाते है हम। एक तरफ उन्हें मोक्ष दिलाना चाहते है और दूसरी और यह भी मानते है कि वह हमें देख रहे है। इसलिए ऐसा कोई कार्य न हो जिस से उनकी आत्मा को दुख पहुंचे। यानि बात  घूम फिरकर वापस वही आ जाती है कि जब जीवन ही समाप्त हो गया तो फिर कैसा दु;ख-सुख कैसी अभिलाषा तेरहा दिन पश्चात तो स्वयं आत्मा का मोह भी हमसे छूट जाता है और वह भी नया जन्म ले लेती है। या नया शरीर धारण कर लेती है। फिर कैसी मोक्ष।

यूं भी मोक्ष का मिलना न मिलना तो दिवंगत आत्मा के कर्मफल पर ईश्वर को निर्धारित करना होता है। फिर हम कौन होते है अपने कर्मो से किसी को मोक्ष दिलाने वाले। क्या वास्तव में यह संभव है वह भी इस घोर कलयुग में, मुझे तो नहीं लगता। पर मेरे मन को तो यहाँ भी चैन नहीं। गीता में लिखा है आत्मा तो कभी मरती नहीं, मारता तो केवल शरीर है। और यदि देखा जाये तो हमें हर एक इंसान के शरीर से ही तो प्यार होता है। आत्म तक तो हम पहुँच ही नहीं पाते। क्यूंकि हमारे अंदर उतना सामर्थ है ही नहीं कि हम किसी व्यक्ति को उसकी आत्मा के आधार पर प्रेम कर सके। फिर चाहे रिश्ता कोई भी हो। शरीर ही तो माध्यम है आत्मा तक पहुँचने का ? नहीं !
जैसे व्यक्तिव से पहले चेहरा ही पहचान होता है। ठीक उसी तरह आत्मा से पहले तो शरीर ही दिखाई देता है न । तो फिर इस नाते हमे शरीर के जाने का दुख ज्यादा होना चाहिए न ? होता भी वही है। तभी तो हम गीता पढ़कर अपना मन बहलाने की कोशिश करते है। फिर भी हम आत्मा की शांति के विषय में अधिक सोचते है। जबकि हम यह भली भांति जानते है कि आत्मा तो स्वयं ही परमात्मा का स्वरूप है।  तभी तो वह हमारा पथ प्रदर्शक होने का कार्य कर पाती है। हाँ यह बात अलग है कि हम ही अपने अहम और स्वार्थ में इतने अंधे हो जाते हैं कि चाहकर भी अपनी आत्मा की आवाज को अनुसूना करके सहज ही पापा के भागीदार बन जाते है। इस सबके बावजूद भी पार्थिव शरीर से ज्यादा उस आत्मा रूपी परमात्मा की इतनी चिंता क्यूँ करते है ? आखिर क्यूँ ?          

Thursday 29 October 2015

बचाव आखिर कैसे हो ?


अपराधी आखिर कौन ? बलात्कार या बलात्कारी जैसा शब्द सुनकर अब अजीब नहीं लगता। क्यूंकि अब तो यह बहुत ही आम बात हो गयी है। कई बार तो एक स्त्री होने के बावजूद भी अब ऐसे विषयों को पढ़ने का या इस विषय पर सोचने का भी मन नहीं करता। कुछ हद तक तो अब अफसोस भी नहीं होता। हालांकी मैं यह बहुत अच्छे से जानती हूँ कि जिस तन लागे वो मन जाने लेकिन अब यह सब कुछ इतना आम और सजह हो गया है कि इन मामलों से जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। फिर भी यदि सोचने का प्रयास किया जाये तो एक सवाल उठा करता है मन में बलात्कार या बलात्कारी क्या है? मेरे विचार से तो यह एक मानसिक विकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह सब दिमाग की ही तो उपज है।

आप स्वयं ही देख लीजिये बलात्कार होना क्या होता है, से लेकर बलात्कार हो जाने तक सामाजिक डर में जीती एक स्त्री की यह दशा कि अब इसके आगे उसकी ज़िंदगी खत्म, न सिर्फ उसकी, जिसका बलात्कार हुआ है। बल्कि उसके पूरे परिवार की भी ज़िंदगी खत्म क्यूँ ? क्यूंकि इस पुरुष प्रधान समाज ने सारी बंदिशे केवल एक स्त्री के लिए ही बनाई हैं। यदि कुछ देर के लिए इस बात को एक अलग ढंग से सोचने का प्रयास किया जाये तो कैसा रहेगा? अगर हम समाज का डर भूल जाएँ तो क्या ज़िंदगी आसान न हो जाएगी? मैं मानती हूँ बलात्कार होना अपने आप में एक इंसान के लिए (विशेष रूप से एक स्त्री के लिए) एक भारी हानी है। जिसमें उसका न सिर्फ शारीरिक अपितु मानसिक संतुलन भी बिगड़ जाता है। लेकिन फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम इस खोखले समाज की सड़ी गली मानसिकता और डर को दूर रखकर इस विषय पर बात करेंगे तो शायद एक पीड़िता के लिए अपनी इस पीड़ा से उबरना थोड़ा आसान हो जाएगा।

वैसे देखा जाये तो मेरा मानना तो यह है कि बलात्कार करने की भावना इंसान के जिस्मानी जरूरत से ज्यादा उसके दिमाग में व्याप्त होती है। तभी तो ऐसे किसी व्यक्ति को अर्जुन की मछ्ली की आँख की तरह सामने वाली नारी या स्त्री का केवल शरीर ही दिखाई देता है। अन्य और कुछ नहीं दिखाई देता। ना लड़की की उम्र, न जात, न पहनावा, न ही कुछ और अगर कुछ दिखता है, तो वह है केवल उसका शरीर।  तभी तो महीने भर की बच्चियों से लेकर वृद्ध औरतों तक के साथ हुये इस तरह के मामले सामने आते है। क्यूंकि यदि यह केवल शारीरिक जरूरत होती तो सामने वाले में भी तो अपने शरीर के अनुसार जरूरतें दिखती। लेकिन ऐसा होता नहीं है।  
खैर अब हम पूरे समाज को सुधार कर सज्जन तो बना नहीं सकते। इसलिए यदि वर्तमान हालातों को मद्देनजर रखते हुए बात की जाये तो अभिभावक होने के नाते अब यह जघन्य अपराध हमारी चिंता का अभिन्न अंग बन गया है। जिसके चलते अब इस अपराध को रोकने के उपाए सोचने के बजाए अब हमें यह सोचना पड़ता है कि हम अपने बच्चों को इस अपराध से कैसे बचा सकते है। तो उसका भी उपाय है लेकिन इसमें बहुत से मतभेद भी है। मेरे विचार से सारे फसाद की जड़ है यह आपसी संवाद हीनता। जो बच्चों को दिन प्रतिदिन अकेला बनाती जा रही है। स्मार्ट फोन और नई नई एप्स आ जाने से बच्चों और अभिभावकों के बीच का संवाद लगभग खत्म हो चला है। क्यूंकि नौकरी पेशा होने के कारण पहले ही माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए समय का अभाव है। दूजा रहे सहे समय में भी बच्चे और माँ-बाप दोनों ही अपने-अपने सेल फोन में व्यस्त रहते है। जिसके चलते बच्चे अपने मन की बात अपने माता-पिता के साथ सांझा करने से ज्यादा अच्छा अपने दोस्तों के साथ सांझा करना ज्यादा उचित समझते है। मसलन सड़क पर चलते समय होती छेड़ छाड़  को लड़कियाँ अक्सर अपने मात-पिता से सांझा नहीं कर पाती क्यूँ ?  क्यूंकि उन्हें अपने माँ-बाप के उत्तर पहले से ही ज्ञात होते हैं। इसलिए वह ऐसा सोचने लगते है कि माँ-बाप की बन्दिशों और ज्ञान बाँटू प्रवचनों को सुनने से अच्छा है, उस बात को अपने मित्रों से सांझा कर मन हल्का कर लेना।

यह बात कहने सुनने अथवा पढ़ने में जितनी सहज महसूस होती है वास्तव में यह उतनी ही गहरी और चिंतनीय बात है। पहले जब सयुंक्त परिवार हुआ करते थे तब पूरे परिवार में कोई न कोई एक ऐसा शख़्स या सदस्य ज़रूर होता था जिनसे बच्चों को अपनी बात कहने में हिचकिचाहट महसूस नहीं होती थी। क्यूंकि तब बच्चों को घर में ही ऐसा माहौल मिल जाता था कि उन्हें बाहरी दुनिया में अपने लिए किसी और को खोजने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। किन्तु आज ऐसा नहीं है। भौतिक  जरूरतों की पूर्ति के अतिरिक्त भी आज ऐसा बहुत कुछ है जिसे पाने की चाह में इंसान अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से दूर हो चला है। केवल अपनी निजी जरूरत के लिए पैसा कमाना अब जीवन का मुल्य उदेश्य नहीं बचा है। और अब ना ही कोई कबीर दास जी कि इस बात में विश्वास ही रखता है कि
“साईं इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाये”।

अब तो पैसा कमाने की लालसा ने मनुष्य को इतना अंधा बना दिया है कि अब उसे वह सब भी चाहिए जिसकी उसे जरूरत ही नहीं जैसे घड़ी चाहे 200 रु की हो या हजारों लाखों की पर समय तो वही बताती है। लेकिन फिर भी रोलेक्स की घड़ी पहने का चस्का ऐसा है मानो वो समय नहीं आपका भविषय बताएगी। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण है। किन्तु यही वह छोटी-छोटी बातें है जिनको पाने की चाह में आप अपने बच्चो से और बच्चे आपसे दूर बहुत दूर होते चले जाते है और आपको पता भी नहीं चलता। जब बच्चे आपसे अपने मन की बात सांझा नहीं कर पाते तो वह बाहर अपने प्रश्नों का उत्तर खोजते है और तब सही जानकारी न मिलने के कारण रास्ता भटक जाते है और उसी भटके हुए रास्ते से जन्म लेती है यह आपराधिक प्रवर्ती जो एक समान्य से बच्चे को कब अपराधी बना देती है उसे स्वयं उसे भी पता नहीं चलता। कोई भी व्यक्ति जन्म से बुरा नहीं होता। शायद इस लिए गांधी जी ने कहा था कि “पाप से घृणा करो पापी से नहीं”। लेकिन इन भौतिक संसाधनों की पूर्ति करने हेतु इंसान पैसा कमाने की एक मशीन बन गया है।


लेकिन बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के पीछे केवल वह एक अकेला इंसान ही दोषी नहीं होता बल्कि पूरा समाज दोषी होता है। हम सभी जानते है कि एक उम्र के बाद बच्चों में शारीरिक परिवर्तन के चलते भोग और संभोग के विषय से संबन्धित कई तरह के प्रश्न दिमाग में घूमते है। जिसके चलते वह अपने मन के कुतूहल को शांत करने हेतु बहुत से प्रश्न करते है। कई बार तो उनके प्रश्नों का जवाब स्वयं हमारे पास भी नहीं होता और हम अपनी कमी को छिपाने के लिए उन्हें डांट कर भागा देते है। या फिर उस विषय पर बात करने से कतराते है। जिस से उनके मन की जिज्ञासा शांत होने के बजाय और भी ज़्यादा भड़क जाती है। और फिर वो इंटरनेट या सड़क छाप किताबों के माध्यम से अपनी जिज्ञासा को दूर करने का प्रयास करते है। नतीजा सही जानकारी का अभाव उन्हें अपराधी बना देता है। बलात्कार जैसा जघन्य अपराध करने वाला अपराधी। लेकिन बलात्कार करने के पीछे और भी बहुत से कारण है जैसे पैसों का अभाव।

अब आप सोच रहे होंगे कि बलात्कार का भला पैसे से क्या संबंध तो इसका जवाब यह कि गाँव  के विकास के नाम पर जो भवन निर्माता उन्हें सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हुए उनसे उनका सब कुछ छीन लेता है और महज़ थोड़े से पैसों के लालच में आकर जब वह भी अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। तब एक दम से मिले हुए पैसो से उन्हें ऐयाशी की लत लग जाती है और वह सारा पैसा पीने, खाने और दिखावे में उड़ा देते हैं। तत पश्चात एक समय के बाद जब पैसा खत्म हो जाता है। तब जन्म लेती है यह अपराधिक प्रवत्ती जरूरतें पूरी करने के चक्कर में लोग इंसान से कब हैवान बन जाते है और तब सिलसिला शुरू होता है अपहरण से लेकर बलात्कार तक का सफर। फिर भी हम हर एक की काया पलट कर उसे एक नेक इंसान तो बना नहीं सकते। इसलिए बेहतर है अपने बच्चों को इस तरह के अपराधियों से बचा कर चलें। तो अब सवाल यह उठा है कि ऐसा कैसे हो। तो उसका जवाब भी वही है अपने बच्चे की बातों पर ध्यान दीजिये। उसका दिन कैसा गया और पूरे दिन में उसने क्या क्या किया उसका पूरा विवरण उसके मुख से सुनिए। खाना खाते वक्त या रात को सोने से पहले थोड़ा सा समय अपने बच्चे के लिए निकाल कर उसे बात करना बेहद ज़रूरी है। ताकि वह अपनी ज़िंदगी में घट रही हर छोटी बड़ी घटना को आपके साथ सहजता से सांझा कर सके। क्यूंकि अधिकतर मामलों में यौन शोषण से पीड़ित बच्चे अपने मन की बात कह नहीं पाते। लेकिन यदि ध्यान दिया जाये तो उनकी चुप्पी  और सहमा-सहमा से व्यक्तित्व सब बयान कर देता है।  


इसलिए बच्चे की उम्र को ध्यान में रखते हुए उसे उसकी उम्र के हिसाब से सभी तरह का ज्ञान आप खुद दीजिये जैसे अच्छे-बुरे स्पर्श की जानकारी से लेकर एड्स जैसी खतरनाक बीमारी के विषय में भी उससे बिना हिचक बात कीजिये। माना कि आज कल बच्चे आपसे ज्यादा समझदार होते है और आपके बताने से पूर्व ही इंटरनेट के माध्यम से वह सहज ही सारी जानकारी स्वयं ही प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन वह विश्वास जो आपकी बातें और आपका साथ उन्हें देता है। वो वह प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए आपका स्वयं उन से बात करना ज्यादा प्रभावी है। इसलिए समय रहते उसे इन सब के बारे में बताइये और उसकी भी सुनिए। समय की पाबंदी और मोबाइल का सदुपयोग भी उसे बताइये कि आपातकालीन स्थिति होने पर वह क्या-क्या कर सकता है/सकती है। उसे यह एहसास भी दिलायें कि मोबाइल फोन सिर्फ बात करने ,गेम खेलने या इंटरनेट का इस्तेमाल करने या तस्वीरें लेकर सोशल साइट पर डालने के लिए ही नहीं होता। बल्कि कभी कभी इसमें दी हुई सुविधाओं का सही इस्तेमाल करके भी किसी बड़ी दुर्घटना को होने से टाला जा सकता है।

जैसे किसी भी अंजान बस या टेक्सी में बैठने पूर्व उसके नंबर प्लेट का फोटो खींच कर अपने माता-पिता को भेज दें। साथ ही वह किस जगह से कितने बजे चला/चली है और अंदाजन कितने बजे तक पहुँच जाएँगे इस बात का भी विवरण दें। फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की यह नियम दोनों के लिए अनिवार्य होना चाहिए। उसके दोस्त कौन-कौन है कहाँ रहते है। उनके माता पिता क्या करते इत्यादि की सम्पूर्ण जानकारी भी माता-पिता के पास होनी चाहिए। एवं उन सभी का पता और फोन नंबर भी सभी अभिभावकों को ध्यान से अपने मोबाइल में सुरक्षित रखना चाहिए। ऐसा नहीं है कि बलात्कार की यह घटना केवल लड़कियों के साथ ही होती है। लड़कों के साथ भी ऐसे हादसे होते हैं। इसलिए जितना गंभीर और सजग हम लड़कियों के प्रति रहते है, उतना ही गंभीर और सजग हमें लड़कों के प्रति भी रहना पड़ेगा। क्यूंकि लड़का हो या लड़की, बच्चे तो हमारे ही हैं। इस नाते उनकी पूरी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। और सबसे अहम बात अपने बच्चों को एक दूसरे का सम्मान करना अवश्य सिखाएँ खासकर लड़कों को तभी आगे चलकर वह एक सभ्य नागरिक बन पाएंगे।  

Friday 23 October 2015

गुनाहों का देवता


"गुनाहों का देवता" यह नाम तो आप सभी ने देखा सुना और पढ़ा ही होगा। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे हिन्दी साहित्य में रुचि हो और उसने यह उपन्यास न पढ़ा हो। क्या कहूँ क्या लिखूँ निःशब्द हूँ मैं इस रचना को पढ़कर। जी हाँ धर्मवीर भारती जी की अपने आप में एक अदबुद्ध अद्वितीय रचना है यह "गुनाहों का देवता" वाकई लोग चाहे जो कहें या जो भी समझें मगर इस उपन्यास की भवानाएं ही इस उपन्यास की जान है। प्रेम की जिन ऊँचाइयों और गहराइयों को लोग महसूस तो करते किन्तु कहने से डरते है या यूं कहिए कि समझ ही नहीं पाते उन आंतरिक भावनाओं को, यूं इनती सादगी और खूबसूरती के साथ पन्नों पर उतार देना कि पढ़ने वाले को यह कहानी अपनी सी लगने लगे यह आसान नहीं होता। और ना ही यह हुनर हर किसी लेखक में होता है।

मैंने यह उपन्यास पहले भी पढ़ा था। मगर छोटे पर्दे पर जब इस कहानी को एक धारावाहिक के रूप में देखा तो मन किया कि एक बार फिर पढ़ा जाये। पढ़ा भी सही। किन्तु ऐसी प्रेम कहानी तो सिर्फ फिल्मों में ही देखने को मिलती है। सच में ऐसा सच्चा प्रेम कोई किसी को कर सकता है ? पढ़कर यकीन नहीं होता। मगर इतिहास गवाह है ऐसी कई अदबुद्ध प्रेम कहानियों का पता नहीं वह सब भी सच्ची है या ऐसे ही किसी लेखक की कोई कल्पना। यह कहना मुश्किल है। मगर जो भी है भावनाओं का ऐसा उछाल है कि आप स्वयं को उसमें गुम किए बिना रह ही नहीं सकते। यह एक ऐसा उपन्यास जो पीढ़ियों से पढ़ा जा रहा है। मैंने इस उपन्यास के विषय में अपनी माँ से सुना था। उनका कहना है जब वह कॉलेज में हुआ करती थी, तब उनके मित्रों एवं उनके सहपाठियों को यह उपन्यास पृष्ट अंक के साथ कंठस्थ हुआ करता था।  

कल्पना है या सच यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर यदि सच है तो इतनी ईमानदारी और बेबाकी से सच लिखने के लिए भी हिम्मत चाहिए। नहीं ? ऐसा लगता है मानो लेखक ने अपना दिल निकाल कर रख दिया हो जैसे कि शब्दों के एक-एक अक्षर से मानो जीवन के सभी रस टपकते है। विशेष रूप से प्रेम त्याग और समर्पण का भाव सच प्रेम त्याग मांगता है। मगर क्यूँ ? इस रचना में जीवन के हर एक रंग को हर एक रस को बखूबी सँवारा गया है। जिसके चलते यह उपन्यास पाठक को अपनी और आकर्षित करने में पूर्णतः सक्षम है।      

सच कहूँ तो फिल्मों के माध्यम से आज तक बहुत सी प्रेम कहानियाँ देखी है। कुछ पढ़ी भी है, जैसे हीर राँझा, लैला मजनू, सोनी महिवाल,रोमियो जूलियट इत्यादि। पर 'सुधा और चंदर' की इस प्रेम कहानी जैसा कोई नहीं मिला न पढ़ने को, ना देखने को, फिर भी आज तक किसी उपन्यास ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया। जितना इसने किया है। इसके विषय में जितना भी कहा जाये वह कम ही होगा। कितने सच्चे है इसके सभी पात्र सुधा,चंदर, बिनती, गेसू पम्मी बल्कि सभी, ऐसा लगता है मानो कल ही बात हो। यूं कहने को तो ६० के दशक की है यह कहानी, मगर पढ़ो तो ऐसा लगता है जैसे इस कहानी का कोई न कोई चरित्र अपने आस पास ही हो। जैसे यह कोई कहानी नहीं बल्कि सब साक्षात हो। जैसे आप इन सबको बहुत पहले से जानते हो। मानो समय की आपाधापी में यह दोस्त कहीं खो गए थे। मगर पढ़ते पढ़ते न जाने कहाँ से आपके करीब आगये आपके साथ -साथ हँसे खेल ,रोये भी ऐसा अध्बुध लेखन तो अब शायद हिन्दी साहित्य में भी दुबारा देखने को ना मिले। संभवतः ऐसा नहीं होगा। हाँ यह ज़रूर हो सकता है कि मुझे ही इस विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं है।

लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसी सुंदर प्रेम कहानी कोई मात्र बीस (२०) अंकों की कड़ी में कैसे दिखा सकता है। यूं भी यह कहानी देखने वाली नहीं बल्कि पढ़कर महसूस की जाने वाली कहानी है जिसकी हर एक भावना आपके दिल को छूकर गुजरती है। तभी तो पात्रों के साथ-साथ आप हंस खेल पाते है रो पाते है। क्यूंकि भावनाओं को दिखाया नहीं जा सकता। उन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है। फिर भी मैं यह ज़रूर कहूँगी की पढ़ने और देखने में और लिखने में भी बहुत बड़ा अंतर होता है। क्यूंकि जहां तक फिल्मों की बात है उसमें किरदारों के चयन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। यदि वो चयन सही न बैठा तो समझो पूरी कहानी बर्बाद हो जाती है। यूं भी हर एक व्यक्ति का नज़रिया अलग होता है। इसलिए मेरे विचार से इस तरह की कहानियाँ देखने से ज्यादा पढ़ने में रुचिकर लगती है और ज्यादा आनंद देती है। 

इसलिए जो भी इस धारावाहिक के माध्यम से इस बेहतरीन उपन्यास को जानने और समझने की भूल कर रहे हों उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वह श्री धर्मवीर भारती जी कि इस खूबसूरत कृति को पहले पढ़ें फिर देखें तो उन्हें स्वतः ही इस उपन्यास की गहराई का भान हो जाएगा और उन्हें कुछ कहने कि जरूरत ही नहीं पड़ेगी। क्यूंकि इस खूबसूरत कृति को यूं समय की बन्दिशों में बांध कर दिखाया जाना संभव ही नहीं है। जो दिखा रहे है। वह कहीं न कहीं जाने अंजाने इस उपन्यास के साथ नाइंसाफी कर रहे है। इसलिए एक बार फिर कहूँगी कि यदि आप वास्तव में इस खूबसूरत रचना का लुफ्त उठाना चाहते है तो इसे पढ़िये और फिर फैसला कीजिये। इसे ज्यादा और क्या कहूँ  इस रचना की तारीफ के लिए तो मेरे पास शब्द ही नहीं है।क्या लिखूँ क्या न लिखूँ। कुछ कहते नहीं बनता।                    

Thursday 15 October 2015

आखिर ऐसा क्यूँ होता है?

आखिर ऐसा क्यूँ होता है। आज हर कोई केवल अपनी बात कहना चाहता है किन्तु किसी दूसरे की कोई बात सुनना कोई नहीं चाहता। हर कोई ऐसा एक व्यक्ति चाहता है जो पूरे संयम और धेर्य के साथ आपकी पूरी बात सुने वह भी बिना कोई प्रतिक्रिया दिये। न सिर्फ सुने, बल्कि आपको समझने का भी प्रयास करे। मगर ऐसा कहाँ कोई मिलता है। लोग तो बात पूरी होने से पहले ही उस बात पर टीका टिप्पणी शुरू कर देते है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बात को ही सही साबित करने में लग जाते है। सुनना समझना और कहना तो दूर की बात है। ऐसे लोग अकसर कुतर्क ज्यादा करते है और तर्क कम। नहीं? फिर चाहे इस बहस में अहम मुद्दा ही कहीं लुप्त क्यूँ न हो जाये। इसे उन्हें कोई मतलब ही नहीं होता। 

ऐसा विचार मुझे इसलिए आया क्यूंकि न जाने क्यूँ पिछले कुछ दिनों से मुझे ऐसा लग रहा है कि कितना कुछ घट रहा है। कितना कुछ हो रहा है हमारे आस पास, हमारे देश में, हमारे शहर में, हमारे गाँव में, कितना कुछ ऐसा है जो कहीं न कहीं घुट रहा है हमारे अंदर। जिसे हम कहना चाहते है। क्यूंकि हम इस बात को स्वीकार करें या न करे कि भले ही आज इंसान बहुत स्वार्थी होगया है। देश के बारे में सोचना तो दूर अब कोई अपने अलावा और किसी के बारे में सोचना भी पसंद नहीं करता। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि हम चाहे कितनी भी कोशिश कर लें स्वयं को इन आस पास चल रही गतिविधियों से हटाने की किन्तु चाहे न चाहे इनका असर हम पर पड़ ही जाता है। फिर चाहे वह हमारे देश से जुड़ा कोई राजनैतिक मामला हो या आस पास घटित हुई कोई गंभीर घटना। बल्कि मैं तो यह कहूँगी की गंभीर ही क्यूँ कभी कभी तो कोई साधारण सी घटना भी हमें हिला जाती है। और कभी कभी कोई बड़ी घटना का भी हम पर कोई असर ही नहीं होता। कितना अजीब है न यह सब ! लेकिन सच है। 


अब देखिये न आजकल गौ माँस पर पूरे देश में बबाल मचा हुआ है। वहाँ बहुत से ऐसे लोग है जो न हिन्दू है ना मुसलमान मगर उन्हें भी इन मामलों पर बोलना और अपनी प्रतिक्रिया देना सांस लेने जितना आवश्यक है। और जो लोग मेरी तरह हिन्दू है मगर उन्हें इन मामलों से कोई खासा फर्क ही नहीं पड़ता। या यूं कहिए फर्क तो पड़ता है। मगर किस से जाकर कहें अपने मन की बात। कोई सुनने समझने वाला भी तो होना चाहिए। लेकिन जब कोई है ही नहीं तो क्या करना है किसी से कुछ कहकर। जो हो रहा है, जो चल रहा है सो चलने दो। जबकि सभी यह जानते हैं कि गाय को पूजे जाने के बावजूद भी गाय के माँस का सबसे ज्यादा निर्यात भी हमारा देश ही करता है। फिर चाहे वह गौ माँस खाने के लिए करता हो, या फिर चमड़े से बने जूते हो सब भारत से ही बनकर जाते है और यह कोई आज की बात नहीं है। यह बरसों से होता अरहा है। गाय की पूजा करने वाले ही ना जाने ऐसे कितने व्यापारी होंगे जो धंधे के नाम पर स्वयं अपनी गायों को कसाइयों के हवाले करते है। आप खुद ही सोचिए कसाइयों के पास और बूचड़ खाने में गाय आती कहाँ से है कटने के लिए। स्वयं चलकर तो वह आएगी नहीं की लो मैं आ गई काट डालो मुझे और भर लो अपनी जेबें कोई न कोई तो उसे बेचता ही है। है ना ! तो क्या हर वो व्यक्ति मुसलमान ही होता है ? यदि आप ऐसा सोचते है तो बहुत गलत सोचते है। ऐसा नहीं है। 

हालांकी इन मामलों में कुछ किया नहीं जा सकता है। सिवाए इसके की हम काटे जाने वाले जानवरो को दी जा रही प्रताडना में कुछ हद तक कमी ला सकें तो शायद यह भी एक प्रकार का पुण्य ही हो जाये। क्यूंकि अब इंसान इतना गिर चुका है कि पैसा कमाने के लिए वह जो करे वह कम है मैंने कहीं पढ़ा था या शायद किसी से सुना था कि गायों को काटने से पहले उन्हें कई दिनों तक भूखा रखा जाता है। क्यूंकि भूखा रहने के कारण उनका हेमोग्लोबिन बढ़ जाता है, जो माँस खाने वाले के लिए बहुत फायदेमंद होता है। कितनी घटिया सोच है यह! मगर कुछ किया नहीं जा सकता। क्यूंकि जब तक मांग है तब तक सप्लाई भी होगी ही। यह संसार में चल रहे हर व्यापार का एक सबसे अहम नियम है जिस से हम इंकार नहीं कर सकते।        
इसी तरह पुणे में पिछले दिनों यहाँ एक और घटना घटित हुई, जब एक ६८ साल पुरुष ने अपनी पत्नी का गला काट कर उसकी हत्या कर दी और उसका सिर लेकर सड़कों पर निकल पड़ा। क्यूंकि उसे अपनी पत्नी पर संदेह था कि उसकी पत्नी के उसके दामाद के साथ नाजायज़ संबंध है। यह समाचार भी जंगल में आग की तरह फैला। और लगभग सभी समाचार पत्रों ने इसे छापा। लेकिन इस से हुआ क्या ? लोगों ने दो दिन बात की और फिर वही हुआ जो हमेशा से होता आया है। अर्थात सभी की ज़िंदगी अपने-अपने रास्ते। 





अभी आज ही १२ अक्टूबर २०१५ के समाचार पत्र में ही ऐसी ही एक और घटना ज़िक्र है जिसमें एक माँ ने अपने पाँच साल के बेटे की हाथों की नस काट कर उसकी हत्या कर दी और स्वयं भी चौथी या शायद पाँचवी मंज़िल से कूद कर आत्महत्या कर ली। समाचार पत्रों में छापे तथ्य के अनुसार दो दिन बाद महिला का जन्मदिन था जिसे मनाए जाने को लेकर पति और पत्नी में कुछ विवाद हो गया और महिला ने अपने बेटे सहित ऐसा दर्दनाक और दुखद कदम उठा लिया। मगर सोचने वाली बात है न इतनी मामूली सी बात पर भी भला कोई इंसान ऐसा भयानक कदम उठा सकता है क्या ? खुद के लिए कोई ऐसा कुछ कर भी ले तो एक पल को फिर भी बात समझ आती है लेकिन अपने साथ साथ अपने छोटे से बच्चे की यूं बेरहमी से जान ले लेना कोई मज़ाक नहीं है। फिर इतनी बड़ी घटना पर यह पेपर वाले इतना साधारण सा तर्क कैसे दे सकते है। यह बात मेरी समझ से तो बाहर है। इस पर क्या कहेंगे आप। कहना तो सभी बहुत कुछ चाहते है। मगर पचड़ों में कौन पड़े सोचकर कह कुछ नहीं पाते। और कई मामले तो ऐसे होते है जिसमें स्त्री पुरुष की सोच आड़े आ जाती है। मेरी तो यह समझ में नहीं आता की जब एक स्त्री और एक पुरुष एक इंसान है तो फिर दोनों की सोच इतनी अलग क्यूँ हो जाती है। उपरोक्त लिखे दोनों ही मामलों में हत्या का शिकार एक महिला ही हुई है। इसलिए महिलाओं की सोच इस विषय पर अलग है और पुरुषों की अलग। आखिर ऐसा क्यूँ ?

Thursday 8 October 2015

प्लैटिनम और आभूषण

"रिश्तों की डोरी में एक धागा मेरा एक तुम्हारा "

यह पंक्ति पढ़कर क्या आपको कुछ याद आया। संभवतः नहीं! क्यूंकि टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के बीच घड़ी घड़ी होते मध्यांतर पर ध्यान ही कौन देता है। है ना! लेकिन मैं शायद उनमें से हूँ जो कार्यक्रमों पर कम और विज्ञापनों पर अधिक ध्यान देती हूँ। या यूं कहिए कि मेरा ध्यान स्वतः ही विज्ञापनों पर चला जाता है। यह पंक्ति भी आभूषणों के विज्ञापन की ही एक पंक्ति है। जिसमें विज्ञापन के माध्यम से अब सोना चाँदी छोड़कर प्लैटिनम से बने आभूषणों का प्रचार प्रसार किया जा रहा है। एक तरह से सही है, समय के साथ जब सभी कुछ बदल रहा है तो आभूषण भी बदलने ही चाहिए। रही बात पैसों की तो आमतौर पर आज के जमाने में आभूषणों के नाम पर किसी के पास पैसे की कोई कमी नहीं होती है। सोने चाँदी, हीरे मोती से बने एक एक आभूषण तो आज की तारिख़ में लगभग सभी के पास होते है। फिर भले ही एक-एक नग ही क्यूँ ना हो। है न ? 

लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इस तरह के विज्ञापन समाज में चल रही दहेजप्रथा जैसी कुप्रथाओं को और बढ़ावा दे रहे है। मेरे विचार से तो ऐसे विज्ञापनों पर बंदिश होनी ही चाहिए। क्यूंकि जहां एक गरीब आदमी अपनी रोज की रोटी रोजी में पिस रहा है। कर्जे के बोझ तले दबकर आत्महत्या कर रहा है। जिसके लिए अपनी बेटी का विवाह एक सपना मात्र है। एक ऐसा सपना जो उसके जीवन के संघर्ष के चलते शायद कभी पूरा हो ही नहीं सकता है। वहाँ दूसरी और एक आदमी अपनी दौलत शौहरत दिखा दिखाकर अपनी बेटी के लिए बहुमूल्य आभूषण बनवाये तो यह एक गरीब इंसान का परिहास उड़ाने जैसा ही जान पड़ता है। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है भई। हालांकी कोई किसी को दिखा-दिखाकर ऐसे काम नहीं करता है। मगर तब भी अपने बच्चों की शादी विवाह जैसे मौकों पर धनाड्य लोग पैसा पानी की तरह बहाते है। जिसमें ना सिर्फ पीने खाने बल्कि साज-सज्जा पर ही अधिक से अधिक धन खर्चा जाता है। 

मैं यह नहीं कहती कि आपके पास पैसा है तो आप उसको खर्चो मत। खर्चो बिलकुल खर्चो, आपका पैसा है। भला मैं कौन होती हूँ किसी को उसके अपने पैसे को खर्चने से रोकने वाली। मेरी तो बस इतनी ही गुजारिश है कि दिखावा मत करो। मैं जानती हूँ दहेज प्रथा जैसी बीमारी हमारे समाज से कभी खत्म नहीं हो सकती है। हालांकी समय बदल रहा है। अब आज की पीढ़ी के लड़के और लड़कियों ने इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाना प्रारम्भ कर दिया है। मगर आज भी इस जहरीले सर्प की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरी है। इतना आसान नहीं है इस कुप्रथा को मिटाना। इसलिए जो भी माता-पिता अपनी बेटी को उपहार में जो कुछ भी देना चाहते है वह दें। इसका उन्हें सम्पूर्ण अधिकार है। किन्तु यदि वह कोई ऐसी वस्तु देना चाहते है जो बहुमूल्य है तो वह बिना किसी शोर शराबे और दिखावे के भी दे सकते है। उसके लिए चार लोगों को दिखाना ज़रूरी नहीं है कि देखो मैंने अपनी बेटी को हीरे का सेट दिया है या प्लैटिनम के आभूषण दिये है। यदि आप सम्पन्न है, तो आप दे सकते है। किन्तु एक बार औरों की बेटियों के विषय में भी सोच लें तो आप छोटे नहीं जो जाएँगे। क्यूंकि आपका यूं अपने पैसे का दिखावा करना एक आम आदमी या मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए परेशानी का सबब कब बन जाता है। यह किसी को पता ही नहीं चलता। 

इतना ही नहीं प्रतियोगिता में फँसे और दिखावे के चक्कर में पड़े लालची इंसान और लोभी समाज फिर दहेज की ऐसी ही मांग करते हैं। जो एक आम इंसान के लिए दे पाना संभव ही नहीं होता। विशेष रूप से उस वक्त तो बिलकुल नहीं जिस वक्त विवाह की बेदी पर दुल्हन बैठी अपने पाणिग्रहण संस्कार का इंतज़ार कर रही हो। उस समय इस दहेज की बेतुकी मांग का खामियाज़ा हमारी मासूम बेटियों को भुगतना पड़ता है। कहीं लड़की के सर्वगुण सम्पन्न होते हुये भी उसका विवाह केवल दहेज न दे पाने के कारण नहीं हो पाता। तो कहीं समाज में बदनामी के डर से उसके अभिभावक आत्महत्या कर लेते है। और यदि किसी तरह विवाह सम्पन्न हो भी जाये तब भी बात इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि हालात बेकाबू हो जाते हैं, तो लड़की को जलाकर या जहर देकर मारने की कोशिश की जाती है। विवाह जैसा पवित्र बंधन एक बाज़ार बन जाता है। जहां लड़के लड़कियों की बोली सी लगाई जाने लगती है। 

इतना ही नहीं अब तो लोग न सिर्फ विवाह बल्कि जन्मदिन की दावत भी ऐसी देते है कि कई बार उस दावत में शामिल हुए माता-पिता को अपने आप में शर्मिंदगी सी महसूस होने लगती है। क्यूंकि हर कोई तो इतना अमीर नहीं होता कि अपने बच्चों के जन्मदिन की हर दावत हर बार किसी बड़े आलीशान होटल में दे पाये। नतीजा बच्चों में एक दूसरे की देखा देखी प्रतियोगिता कि भावना पैदा हो जाती है। जिसके चलते ना चाहते हुए भी माँ-बाप के सिर पर एक अनचाहे बोझ आ पड़ता है। ऐसे में अपने बच्चे की खुशी कौन से माँ-बाप नहीं चाहते। साल भर तक एक-एक पैसा जोड़-जोड़कर वह केवल अपने बच्चे का जन्मदिन ऐसे मानना चाहते है जैसे किसी ने ना मनाया हो। मगर अफसोस कि यह दिखावे का नाटक है कि बंद होने का नाम ही नहीं लेता। उल्टा दिन दूनी रात चौगना बढ़ता ही जाता है। इसे तो अच्छा है कि पैसे वाले लोग इस दिखावे के बजाए अपने बच्चों कोई किसी अनाथालय में ले जाकर वास्तविक दुनिया से उनका परिचय कराएं ताकि उसे अपने आस-पास के लोगों में समान भाव बनाए रखने की शिक्षा मिल सके तथा शादी ब्याह के मौके पर अमीर से अमीर अभिभावक भी अपनी लड़की को ऐसे विदा करें जैसे एक आम इंसान करता है। मानती हूँ यह इस समस्या का हल नहीं है। किन्तु फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है। हो सकता है इस सब से कुछ भी न हो। लेकिन यह भी हो सकता है कि शायद इससे दिखावा कम हो जाये और एक दूसरे से बढ़कर बेमतलब की बातों में पैसा खर्च करने से अच्छा लोग वही पैसा किसी अच्छे कामों में लगाएँ। 
जय हिन्द।      
                                      

Sunday 4 October 2015

ममता के बदलते अर्थ

आज के वातावरण में जहां एक ओर प्रतियोगिता का माहौल है। वहाँ क्या रिश्ते और क्या व्यापार अर्थात रिश्तों में भी इतनी औपचारिकता आ गयी है कि कई बार यकीन ही नहीं होता। इस का कारण जागरूकता है या विकास, यह कहना मुश्किल है। क्यूंकि यदि जागरूकता की बात की जाये तो आज की नारी जागरूक है। जो घर में रहकर केवल गृहकार्य में उलझकर अपनी ज़िंदगी बिताना नहीं चाहती और यदि विकास की बात की जाए तो गाँव के विकास के नाम पर शहरों में बढ़ रही आबादी है। जिसने जहां एक ओर संयुक्त परिवारों को नष्ट किया तो वहीं दूसरी और आपसी प्रतियोगिता ने न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक स्तर पर भी लोगों को बिगाड़ दिया।

खैर संयुक्त परिवारों के नष्ट हो जाने से यदि किसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, तो वह इन बच्चों का हुआ है। छोटे-छोटेनन्हें –नन्हें बच्चे। जो संयुक्त परिवारों में कब पलकर बढ़े हो जाते थे, इसका पता ना उन्हें स्वयं लगता था न उनके माता-पिता को ही पता चलता था। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अपनो के बीच माँ से दूर रहकर भी बच्चा माँ की ममता पा लिया करता था। सयुंक्त परिवारों में अक्सर परिवार की कुछ बन्दिशों के चलते पैसों का अभाव हो ही जाता था। मगर तब भी अपने बच्चों के प्रति माँ की ममता कभी कम ना होती थी। किन्तु आज ऐसा नहीं है। आज न पैसों का अभाव है न सयुंक्त परिवारों की ही कोई बंदिश है। मगर तब भी बच्चा अपनी माँ की ममता पाने के लिए लालायित रहता है। क्यूंकि कामकाजी महिला चाहकर भी अपने परिवार को उतना समय नहीं दे पाती, जितना वो देना चाहती है।

सच कभी-कभी उन नन्हें-नन्हें बच्चों को देखकर बहुत दया आती है। वो छोटे-छोटे से बच्चे जो अभी बोलना भी नहीं जानते, वह बेचारे सुबह से शाम तक अपनी माँ की गोद या उसकी एक जादू की झप्पी पाने के लिए तरस जाते है। हालांकी यूं देखा जाये तो माँ की ममता का कोई निश्चित रूप नहीं होता। कोई भी अन्य स्त्री या महिला, चाहे तो किसी भी बच्चे को ममता दे सकती है। फिर चाहे वो मासी के रूप में हो या ताई चाची या फिर किसी आया का ही रूप क्यूँ न हो। मगर वो कहते है न माँ, `माँ ही होती है`। उसकी जगह इस दुनिया में कोई दूजा कभी ले ही नहीं सकता। बस वही बात यहाँ भी लागू होती है।

लेकिन फिर आजकल के जमाने में एक की आमदनी से भी तो काम नहीं चलता। दूजा यदि चल भी जाता है, तब भी कोई स्त्री घर में रहकर बच्चे पालना या घर संभालने जैसा उबाऊ काम करना नहीं चाहती। क्यूंकि घर का काम तो केवल वह महिलाएं करती है, जिन्हें या तो काम नहीं मिलता या फिर उनमें बाहर काम करने की काबलियत नहीं होती। वही तो ग्रहणी कहलाती है। क्यूंकि आजकल की पढ़ी लिखी जागरूक महिलाओं के माता-पिता ने भला उन्हें इन सब कामों के लिए थोड़े ही पढ़ाया लिखाया था। यह सब काम करने से तो उनकी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी। इसलिए यदि उच्च शिक्षा प्राप्त की है, तो नौकरी तो करना ही करना है। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा। बच्चे के लिए एक आया ही तो रखनी पड़ेगी न। या फिर उसे (डे केयर) में डालना होगा। तो डाल देंगे व्हाट्स ए बिग डील अर्थात उसमें कौन सी बड़ी बात है। आखिर कमा किस के लिए रहे है। उस बच्चे के लिए ही ना ! ताकि भविष्य में उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवा सकें। उसके सभी अरमान पूरे कर सकें। नहीं ?

आज की नारी आत्मनिर्भर है। उसे किसी के सहारे की कोई जरूरत नहीं है। वह घर और नौकरी दोनों एक साथ बखूबी संभाल सकती है। सच है। ऐसे ही थोड़ी 'सुपर वुमन' या 'सुपर मोम' होने का खिताब मिल जाता है भई!!! मगर अफसोस इस सब में यदि कोई पिस जाता है, तो वह है वो नन्ही सी जान। क्यूंकि उस मासूम को तो शायद यह समझ ही नहीं आता कि उसकी असली माँ कौन सी है। जो सारा दिन में कुछ घंटों के लिए उसके साथ समय बिता पाती है वो। या फिर जो सारा दिन आया के रूप में उसके साथ रहकर उसका लालन पालन करती है वो। लेकिन मुझे तो यह समझ नहीं आता कि जब एक माँ खुद के सपनों को पूरा करने की खातिर या खुद को साबित करने की खातिर नौकरी करती है। ठीक उसी तरह यह आया का काम करने वाली औरतें भी तो केवल पैसा कमाने के लिए ही यह काम करती है। भावनाओं के लिए नहीं। फिर कैसे कोई माँ अपने दिल के टुकड़े को किसी अंजान औरत के पास छोड़कर बे फिक्र हो जाती है।

ऐसी महिलाएं का एकमात्र उदेश्य सिर्फ पैसा कमाना ही होता है। बच्चे की जरूरत या आवश्यकता से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। कई मामलों में तो ऐसी औरतें बच्चे को प्यार करना तो दूर, उल्टा प्रताड़ित तक करने लग जाती है। बात-बात पर उसे डाँटती है। उसके हिस्से के दूध की चाय बनाकर पी जाती है। उसके लिए दिये गए बिस्कुट फल आदि उसे कम देती है और खुद ज्यादा खाती है। इतना ही नहीं बल्कि सारा दिन बैठकर या तो टीवी देखती है या फिर मोबाइल पर लगी रहती है। ऐसे मामले कम नहीं है। मगर जिस प्रकार हाथ की पांचों उंगलियां एक सी नहीं होती। उसी प्रकार हर इंसान एक सा नहीं होता। कभी-कभी कोई कोई आया या दायी, माँ से बढ़कर भी होती है। इतिहास गवाह है। पन्ना दायी का नाम यूं ही स्वर्ण अक्षरों में नहीं लिखा गया है। मगर वह वक्त और था। क्यूंकि यह कलियुग है। यहाँ जन्म देने वाली माँ को ही स्वयं अपने बच्चे के लिए समय नहीं है। तो किसी और से हम उम्मीद ही कैसे रख सकते है।

इतनी सब बातें मेरे दिमाग में इसलिए आयी क्यूंकि मैं रोज ही अपनी सोसाइटी में कई सारे ऐसे परिवार देख रही हूँ जिनमें बच्चे बाइयों के सहारे पाले जा रहे हैं और बाइयाँ तो फिर बाइयाँ ही होती है। जो बच्चों को पार्क में छोड़कर खुद मोबाइल पर बतियाती रहती है या फिर दूसरी बाई से गप्पे लड़ाती रहती है। बच्चा पार्क में क्या कर रहा है, कहाँ जा रहा है, क्या खा रहा है, जैसी बातों का ध्यान रखना तो दूर। कई बार उन्हें होश ही नहीं रहता कि एक बच्चे की ज़िम्मेदारी भी है उन पर, मगर उन्हें इस सब से क्या मतलब। उन्हें तो बस एक निश्चित तारीख़ पर मिलने वाले अपने पैसों से मतलब होता है। बच्चा यदि बीमार पड़ा, तो माँ-बाप कराएंगे इलाज।

मै यह नहीं कहती कि एक स्त्री केवल पैसा कमाने के लिए ही नौकरी करती है। ना ऐसा नहीं है। नौकरी करने का अर्थ किसी भी इंसान के लिए सिर्फ पैसा कमाना ही नहीं होता है। और बहुत से कारण होते है। मगर उस सब की चर्चा फिर कभी। अभी तो बात परवरिश की हो रही है। तो मुझे ऐसा लगता है कि एक अबोध बच्चे को यूं किसी नौकर के भरोसे छोड़कर जाने से तो अच्छा है। माँ या पिता में से कोई एक कुछ दिनों के लिए नौकरी छोड़ दे। मगर आज कल नौकरी भी आसानी से कहाँ मिलती है। इसलिए छोड़ने का दिल नहीं करता। सही है। मगर इस समस्या का हल यह नहीं कि आप पैसा कमायें और और आपके बच्चों की देखभाल आपके माता-पिता या सास ससुर करें। 

आपको पाल पोस कर बड़ा कर उन्होंने अपना फर्ज़ निभा दिया। अब आपका बच्चा आपकी ज़िम्मेदारी है, उनकी नहीं। अब उनके भी आराम के दिन है। तो अब ऐसे में क्या सही विकल्प बचता है? मेरे विचार से तो माँ या पिता में से किसी एक का नौकरी छोड़ देना ही बेहतर है। लेकिन पुरुष प्रधान समाज होने के कारण पिता जी तो नौकरी छोड़ने से रहे कम से कम अपने हिन्दुस्तानी परिवारों में तो कतई ऐसा हो ही नहीं सकता है। लेकिन एक बच्चे की सही और अच्छी परवरिश केवल उसके अपने माँ-बाप के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता। यह एक कड़वा सच है। फिर चाहे कोई माने या ना माने। आप पैसा देकर सब कुछ खरीद सकते है मगर माँ की ममता या पिता का प्यार नहीं खरीद सकते। 

Friday 25 September 2015

गणपती बप्पा मोरिया


अब इसे अच्छा तो कोई दूजा नाम हो नहीं सकती था इस पोस्ट का! नहीं? पाँच महीने बाद जब ब्लॉग पर वापसी हो तब शुरुआत तो शुभ होनी ही चाहिए। यूं भी इन दिनों यहाँ गणपती का ज़ोर है। लेकिन पांचवे दिन के बाद अब कई जगहों से विसर्जन हो चला है। जहां तक माहौल की बात है। कई दिन पहले से माहौल खुश नुमा हो जाता है। जगह जगह लोग आगमन और विसर्जन पर बजने वाले ढ़ोल के लिए प्रयास करते नज़र आते है। अच्छे अच्छे परिवारों से लड़के एवं लड़कियां उसमें भाग लेते है। बहुत ही हर्षोल्लास का मौसम रहता है। बप्पा के आगमन से ही वातावरण में एक सकरात्मक ऊर्जा सी महसूस होने लगती है। वैसे तो उन्हें अतीत के रूप में पूजा जाता है मगर इन दस दिनों में वह कब हमारे घर के सदस्य बन जाते है हमें ही पता नहीं चल पाता उनकी आरती से ही सुबह और उनकी आरती से ही शाम ढला करती है। सच में उनके जाने के बाद सब कुछ बड़ा सूना सूना सा लगने लगता है। हमारी सोसाइटी में भी पाँच दिन के लिए गणपती की स्थापना की गयी थी और पाँच दिनों के बाद विसर्जन भी हो गया। तब से बड़ा सूना सूना लग रहा है।

लेकिन क्या कर सकते है सिवाए इस प्रार्थना के कि 'गणपती बप्पा मौरिया अगले बरस तू जल्दी आ'। धार्मिक माहौल और हर्षोल्लास की बात तक तो ठीक है। लेकिन विसर्जन के नाम पर जो गंदगी समुद्र, नदियों और तालाबों में जो देखने को मिलती है। उसे मन दुखी हो जाता है। वह सब देखकर तो मन में यही विचार आता है कि विसर्जन करना क्या इतना ज़रूरी है? और यदि है भी तो तो फिर बड़ी बड़ी प्रतिमाओं पर प्रतिबंध क्यूँ नहीं लगाया जाता। इस बार भी तो फिर भी यह सुनने और पढ़ने में आया कि इस साल प्लास्टरऑफपेरिस की जगह मिट्टी की प्रतिमाओं का निर्माण किया गया है। अब इसमें कितना सच कितना झूठ यह तो ईश्वर ही जाने। लेकिन इस विषय में हर इंसान मानवता और प्रकृति का ध्यान रखते हुए अपनी-अपनी धार्मिक भावनाओं पर थोड़ा सा संतुलन बरत ले तो कितना अच्छा हो। जैसे हर सोसाइटी में जो गणपती जी की झांकी लगाई जाती है। वहाँ के सभी सदस्य अपने अपने घरों में अलग से गणपती न लाकर वहीं समग्र रूप से पूजा अर्चना किया करें। तो हो सकता है कुछ हद तक मूतियों की भरमार से होने वाले प्रदूषण में शायद कुछ प्रतिशत तक कमी आ जाए।



मेरे विचार से तो हर दुकान में इस बात का सही तरीके से निरक्षण परीक्षण होना चाहिए कि बनाई गयी सभी छोटी बड़ी प्रतिमायें मिट्टी की ही हो। ताकि विसर्जन के बाद पानी में पूर्ण रूप से घुल जाए। और उस ईश्वर का निरादर न हो। जिसे हमने दिन रात अपने घर के सदस्य की तरह पूजा और फिर किसी खिलौने के भांति विसर्जन के नाम पर बस पानी में छोड़ आए। फिर वहाँ चाहे उनकी कैसी भी दुर्गति हो रही हो उसे हमें कोई मतलब ही नहीं होता। मगर अफसोस कि ऐसा एक बार नहीं बल्कि बार-बार होता है। अभी गणपती अपने गाँव चले। तो उनकी मैया आने वाली है। हम मूर्ति पूजक तो उस जगत जननी की प्रतिमाओं के साथ भी वही व्यवहार करते है, जो हमने उनके लाल की प्रतिमाओं के साथ किया।

यह सही नहीं है। या तो हमें मूर्ति पूजा ही बंद कर देनी चाहिए। या फिर सरकार को इस प्रथा के लिए कोई कडा कदम उठाना चाहिए। धार्मिक भावनाए अलग बात है। लेकिन अपने आस पास के माहौल के बारे में सोचना भी हमारा ही तो धर्म है। उस वक्त यह सोचना कि और धर्मों के लोग जब अपने अपने त्यौहारों पर समाज के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं दिखाते, तो हम क्यूँ करें। यह गलत है। अगर सभी ऐसा सोचने लगे तो फिर सबमें और हममें अंतर ही क्या रह जाएगा। ऐसा नहीं है कि स्वयं हिन्दू धर्म के होने बावजूद मुझे हिंदुओं की इस तरह की प्रथाओं से समस्या है। मैं भी आप सभी में से एक हूँ और मैंने भी अपने घर में अलग से बप्पा की स्थापना की है लेकिन बाद में जब विचार किया तो यह सब समझ में आया। मुझे तो ईद के नाम पर जानवरों को काटे जाने या बली देने पर भी ऐतराज है। मासूम और बेगुनाह जानवरों की बली देकर स्वयं उन्हें बनाने वाला इस सब से कैसे प्रसन्न हो सकता है यह बात मेरी समझ के बाहर है। मगर दक़ियानूसी परम्पराओं में लिपटा हमारा समाज और हम इतनी आसानी से इन कुप्रथाओं से मुक्ति नहीं पा सकते।

हमें इससे छुटकारा दिलाने के लिए या तो स्वयं ईश्वर को इस धरती पर आना होगा। या फिर कोई ऐसे बंदे का निर्माण करना होगा जो लोगों में इस विषय के प्रति जागृति ला सके। लोगों की आँखें खोल सके। तभी कुछ हो सकता है। वैसे नयी पीढ़ी बदल रही है। परिवर्तन की हल्की सी एक उम्मीद तो है। मगर दुजी ओर हमारी परम्पराओं और संस्कृति के खो जाने का भय भी है। क्यूंकि समय के अभाव के चलते कई घरों में अब दोनों समय की पूजा अर्चना ही बंद हो गयी है। फिर इस तरह के त्यौहार और महौत्सव की कामना या शायद कल्पना करना भी व्यर्थ ही है। अब लोग प्रकटिकल हो गए है। जिसे देखो बे प्रेक्टिकल कहता हुआ ही दिखाई पड़ता है। भावनात्मक कहलाने में लोगों को शर्म महसूस होती है। अब इसे हालातों में भला कहाँ और कब तक चलेगी यह प्रथाएँ यह परम्पराएँ। बाकी तो भविष्य किसने देखा है। मेरी तो सभी लोगों से हाथ जोड़कर यही विनती है कि त्यौहार कोई भी हो प्रकृति को न भूलें,  शांति और सद्भावना से मनायें ना आपको कोई कष्ट हो न दूजे कोई हानि हो।

जय गणेश॥

Saturday 25 April 2015

एक सपना

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प्राय: लोग कहते हैं कि पत्थरों को दर्द नहीं होता, उनमें कोई भावना ही नहीं होती। किन्तु न जाने क्‍यों मुझे उन्हें देखकर भी ऐसा महसूस होता है कि पत्थर सिर्फ नाम से बदनाम है। दुख-दर्द जैसी भावनाएं उनमें भी व्याप्त होती हैं। तभी तो पत्थरों में भी फूल खिल जाते हैं।

पानी भी पत्थर को काट देता है। वैसे ही जैसे कोई भारी दुख या असहनीय पीड़ा मानव मन को काट देती है। क्या कभी हम ऐसा कुछ सोच पाते हैं! तेज धूप और चिलचिलाती गर्मी में तप रहे पत्थरों के दर्द का एहसास हमें तब होता है, जब हमारे घरों की बत्ती गुल हो जाती है। वरना उसके पहले तो हम सभी अपने-अपने घरों में बंद होकर एसी और कूलर के सामने डटे रहते हैं। हम लोग तो कल्पना तक नहीं करते कि हमारे ही घर के बाहर लगे पत्थर प्रतिदिन कितनी ग्रीष्‍म-पीड़ा सहते हैं। जब शाम ढलते ही दिनभर की तपिश कम होने लगती है तब हमें शायद थोड़ा-सा एहसास होता है दूसरों की पीड़ा, उनके दुख-दर्द का। रात के अंधेरे में जब अचानक बिजली चली जाती है और पास- पड़ोस में चलते पंखों व कूलरों का शोर जब एकदम-से बंद हो जाता है, जब मच्छरों के काटने व भिनभिनाने से हमारी नींद टूट जाती है, जब पसीने में लथपथ-अधूरी नींद से जागे-उनींदी आंखों को मसलते हुए हम खीझ रहे होते हैं, तब हमें प्रकृति याद आती है। उस समय लगता है कि चाँदनी रात की ठंडक क्या होती है। चंद्रमा की मनमोहक आभा क्या होती है। उस हाहाकारी क्षण में हम किसी मृग की भांति शीतलता की तृष्‍णा में बंद कमरों से निकल बाहर छत या बालकनी में आते हैं और ढूँढने लगते हैं उस चाँद को, जिसे हम सामान्‍यत: देखते तक नहीं या उसकी उपस्थिति से अनजान ही रहते हैं।

तब ऐसा लगता है जैसे पत्थर भी हम से क्रोधित होकर यह कहना चाहते हैं कि लोग तो हमें व्‍यर्थ ही हमारे नाम से बदनाम करते हैं, हमने तो तुम से ज्यादा स्वार्थी कोई देखा नहीं, हम पत्थरों ने कभी किसी की तरफ की इच्‍छा या कामना से कभी नहीं देखा, जैसे भी हरे अपने हाल पर रहे और तुम मनुष्‍य तो इतने स्वार्थी हो कि जब तक तुम्हें किसी चीज या व्यक्ति की जरूरत नहीं होती तब तक तुम उसे पूछना तो दूर उसे देखते तक नहीं हो और जब जरूरत होती है तो उसे ही ढ़ूढने व पाने के प्रयत्‍न करने लगते हो।

लेकिन बस, अब बहुत हुआ। अब हम तुम्हें दिखाते हैं कि गर्मी की तड़प क्या होती है। गरम होकर पसीना बहाना किसे कहते हैं और फिर जब पत्थर अपनी गर्मी बरसाने पर आते हैं तो अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है और बड़े-बड़ों की नींद उड़ जाती है।

ऐसे में जब गर्मी से राहत पाने इच्‍छा से बिजली के इंतज़ार में दूर हाइवे पर रेंगती हुई गाड़ियों की लाल बत्तियों पर जब नज़र पड़ती है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो यह लाल बत्तियाँ गाड़ियों की लाल बत्तियाँ नहीं बल्कि हमारे दिमाग में घूम रहे वह विचार हैं, जो व्‍यर्थ ही सोते-जागते हमारे दिमाग में घूमते रहते हैं। लेकिन बहुत चाहकर भी हम इनमें से किसी एक विचार पर अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते।

यह सब देखते ही जैसे हमारी नींद पूरी तरह उड़ जाती है और हमें याद आने लगते हैं वह सारे विचार, बातें, दिनभर हमारे साथ हुई छोटी-बड़ी घटनाएं। सब कुछ एक–एक कर हमारे मस्तिष्क में किसी चलचित्र की भांति घूमने लगता है।

मुझे तो अकसर सोने से पहले यही सब कुछ याद आता है। सबके साथ ऐसा होता है या नहीं, कहना मुश्किल है। शुरुआत होती है समाचार पत्रों में छपे समाचारों को पढ़ने से। समाचार भी किसी मौसम की तरह लगते हैं। आजकल बेमौसम बारिश से नष्‍ट हुई और सूखे से बर्बाद होनेवाली फसलों से परेशान हो आत्महत्या करने को विवश किसानों की खबरों का मौसम गरमाया हुआ है। इसे मौसम कहते दुख तो बहुत होता है लेकिन सच तो यही है।

हर साल यही होता है। सरकारें बदलती हैं, नेता बदलते हैं, परंतु जो कुछ नहीं बदलता, वह है गरीब किसान की किस्मत! जिसे हर साल प्रकृतिक आपदा का सामान करते हुए भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में बजाए उनकी सहायता करने के, उनकी जीवन-‍परिस्थितियों को सुधारने के नेतागण केवल अपनी राजनीतिक चालों को भुना रहे होते हैं। सभी समाचारपत्र और पत्रिकाएँ भी उन गरीब बेबस किसानों की लाचारी और उनकी मजबूरी को मसाला बनाकर बेच रहे होते हैं। यह बेहद शर्म की बात है।

हमारे देश के सभी नेता सत्ता पाते ही इतने स्वार्थी क्‍यों हो जाते हैं कि उन्हें सिवाय अपनी स्वार्थपूर्ति के और कुछ दिखाई ही नहीं देता। हर वर्ष ब्रह्मपुत्र नदी में बाढ़ आने से न जाने कितने लोग डूबकर मर जाते हैं और कितने ही गाँव बह जाते हैं, हजारों लोग बेघर हो जाते हैं, परंतु फिर भी कोई नेता इस समस्या पर ध्यान नहीं देता और घटना हो जाने पर सहायता रा‍शि देने की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लिया करता है। मामला प्रकृतिक आपदा का हो या देश के लिए शहीद हुए सैनिकों का, सहायता राशि की घोषणा तो ऐसे की जाती है जैसे यह दे देने से जानेवाला लौटकर चला आएगा या जान की क्षति की भरपाई हो जाएगी।

यही सब सोचते हुए कल रात मुझे एक सपना आया। सपना कुछ ऐसा था कि डर है कहीं किसी दिन यह सच ही न हो जाए। मैंने देखा मैं एक अनजानी सी जगह पर खड़ी हूँ, जहां मेरे चारों ओर सिर्फ कंक्रीट का जंगल है। बिलकुल वैसा ही जंगल जैसा असली जंगल होता है। थोड़ी देर खड़ा रहकर मैंने देखा वहाँ उपस्थित सभी लोगों के हाथों में भरपूर पैसा है। इतना कि उनसे संभाले नहीं संभल रहा है। उस जगह कोई भी गरीब नहीं है। कोई भिखारी नहीं है। कोई भी भूखा-नंगा नहीं है। सभी के हाथों में सोने के सिक्के हैं और घरों में नोटों की बारिश हो रही है। लेकिन प्रत्‍येक व्‍यक्ति पैसों और सोने-चांदी के सिक्के से सम्‍पन्‍न होते हुए भी भूख से तड़प रहा है। कई तो मेरे सामने ही तड़प-तड़प कर मर गए। इंसान, हैवान बन गया है। सब एक-दूसरे को खाने पर आमादा हैं।

अचानक से मैंने कभी आज को देखा, तो कभी गुजरे हुए कल को। आज में देखा कि लोग कंक्रीट के जंगल बनाने के लिए अपनी उपजाऊ धरती व्यापारियों को बेच रहे हैं, ताकि वह उस पर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल खड़े कर सकें या फिर गगनचुम्बी इमारतें बना सकें। बीते हुए कल में देखा कि लोग उसी धरती को माँ मानकर पूज रहे हैं। भविष्य में देखा कि लोग भूख-प्यास से तड़पते हुए इन्हीं इमारतों को गिराकर वापस खेती-किसानी करने को लालायित हैं। क्यूंकि  पैसा चाहे कितना भी ताकतवर क्यूँ न हो किन्तु पेट भरने के लिए इंसान को अन्न ही चाहिए।

एक सपना


प्राय: लोग कहते हैं कि पत्थरों को दर्द नहीं होता, उनमें कोई भावना ही नहीं होती। किन्तु न जाने क्‍यों मुझे उन्हें देखकर भी ऐसा महसूस होता है कि पत्थर सिर्फ नाम से बदनाम है। दुख-दर्द जैसी भावनाएं उनमें भी व्याप्त होती हैं। तभी तो पत्थरों में भी फूल खिल जाते हैं।
पानी भी पत्थर को काट देता है। वैसे ही जैसे कोई भारी दुख या असहनीय पीड़ा मानव मन को काट देती है। क्या कभी हम ऐसा कुछ सोच पाते हैं! 
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Thursday 16 April 2015

कंजका भोज बना - खुशी का बड़ा कारण

भारत वापसी के बाद इस बार रामनवमी के शुभ अवसर पर जब मुझे कन्या भोज कराने का सुअवसर प्राप्त हुआ तब सर्वप्रथम मन में यही विचार आया कि कन्याएँ मिलेंगी कहाँ? वैसे तो मेरे पास-पड़ोस में कन्याओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन उस दिन सभी के घर भोज के निमंत्रण के चलते पहले ही कन्याओं का पेट इतना भर चुका होता है कि फिर किसी दूसरे घर में उन्हें मुँह जूठा करने में भी उबकाई आती है। इसलिए बुलाने पर वह घर तो आ जाती हैं, किन्तु बिना कुछ खाए केवल कंजका-उपहार लेना ही उनका एक मात्र उदेश्य रह जाता है, जिसे लेकर वह जल्द से जल्द अपने घर लौट जाना चाहती हैं।

ऐसे में कन्या-भोज सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। इससे न तो कन्या-भोज करानेवाले व्यक्ति को ही संतोष मिलता है और ना ही स्वयं कन्याएँ ही भोजन का आनंद ले पाती हैं। इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है। वह बेचारी भी क्या करें। नन्ही-सी जान भला कितना खाएँगी।

लेकिन चूंकि इस बार कन्या-भोज कराने का मन बना ही लिया था, तो किसी भी स्थिति में यह भोज तो मुझे कराना ही था। बस यही सोचकर मैंने भोग बनाया और मंदिर में जाकर जरूरतमंद कन्‍याओं को भोज कराने का मन बना लिया। मैं किसी भी कन्या को जोर-जबर्दस्ती से भोजन नहीं करवाना चाहती थी। उस दिन काम की अधिकता और लंबी पूजा हो जाने के कारण सुबह से दोपहर हो गई। दोपहर तक दिन व्‍यतीत हो जाने की चिंता से मुझे लगा कि अब बहुत देर हो गई है। मुझे पास-पड़ोस की कन्‍याओं की अपने घर आने की प्रतीक्षा व्‍यर्थ लगने लगी। सोचा, पता नहीं अब मंदिर में भी कोई कन्या मिलेगी भी या नहीं या फिर कहीं मंदिर के द्वार ही बंद न हों, और यदि ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा! इन्‍हीं चिंताओं से घिरी हुई मैं दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में मंदिर जा पहुंची।

वहाँ न सिर्फ माता के दर्शन हुए बल्कि चार-पाँच नन्ही-नन्ही कन्याओं को भोज कराने का अवसर भी मिला। शायद माता रानी की भी यही इच्‍छाथी। उस दिन मुझे एक पल के लिए लगा जैसे माँ मेरा मन टटोलना चाह रही थी। तभी मेरी नजर मंदिर में बैठी एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी, जो लगभग अस्सी साल की होंगी। पहले मन में आया कि कन्याओं को भोजन खिला दूँ, और फिर यदि भोजन बचेगा तो महिला को भी दे दूँगी। लेकिन मन न माना, तो मैंने उन्हें भी प्रसाद स्‍वरूप वही भोजन दे दिया, जो कन्याओं के लिए बनाया था। वृद्ध स्‍त्री ने जब काँपते हाथों से प्रसाद ग्रहण किया, तो यह देख व महसूस कर मन को असीम शांति मिली। हालांकि उस समय तक मैंने नौ कन्याओं को भोजन नहीं कराया था, लेकिन न जाने क्‍यों वृद्धा के उन काँपते हाथों ने मुझे उस पल इतना भाव-विभोर कर दिया कि मैं सम्‍पूर्ण कंजका-संस्‍कार भूलकर उसे भोजन कराने को आतुर हो गई।

इस सब के बाद भी नौ कन्याओं को भोजन कराने की इच्‍छा मन के किसी कोने में एक चुनौती की भांति चुभ रही थी। शायद मेरे मन की यह बात अब भी किसी न किसी माध्‍यम से माता रानी तक पहुँच रही थी। इसीलिए मन में अपने घर के पीछे बन रहे भवन में काम करनेवाले मजदूरों का विचार आया। मैं कंजका भोज लेकर तुरन्‍त वहां पहुंच गई। वहाँ मुझे तीन कन्याएँ दिखीं, जिन्हें मैंने अपने हाथों से भोजन कराया।

जिस समय मैं निर्माणाधीन भवन में पहुंची, वहाँ के मजदूर संयुक्‍त रूप से दोपहर का खाना खाने के लिए अपने-अपने खाने के डिब्‍बे खोलकर बैठ हुएथे। उनके साथ वहां उपस्थित तीन कन्याओं के पास भोजन का अपना-अपना डिब्बा जरूर था, लेकिन उनमें रखा भोजन देख मेरी आँखों में पानी आ गया। खाना क्‍या था, खाने के नाम पर रूखा-सूखा अन्‍न था। उस दिन यह सब देखकर आँखों से ज्यादा दिल रोया था।

उस दिन के अनुभव से मुझे सही मायने में खाने के वास्‍तविक मूल्‍य के बारे में पता चला कि खाना क्या होता है, भूख क्या होती है और हमें भोजनका सम्‍मान करना चाहिए। मेरे द्वारा दिये गए भोजन के प्रति उन कन्‍याओं की आँखों की चमक, खिले हुए मासूम चेहरे मेरी आँखों के सामने आज भी जीवंत हैं।

लेकिन वह नन्ही मासूम कलियाँ यह समझ ही नहीं पाई होंगी कि मैंने उन्हें वह खाना क्‍यों खिलाया था। भोजन कराने और उपहार भेंट करने के पश्चात जब मैंने उन नन्ही कलियों के चरण स्पर्श किए तो मुझे बिलकुल वैसे ही महसूस हुआ, जैसे मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चरण स्पर्श के बाद महसूस होता है।

यकीन मानिए उन तीन कन्याओं को भोजन कराने के बाद मेरे मन को जैसा सुकून, शांति मिली वह आज से पहले शायद ही कभी मुझे मिली हो।मन में तो यह आया कि उन्हें गले लगा लूँ, इतना प्यार करूँ कि थोड़ी देर के लिए ही सही, वह अपने सारे दुख-दर्द भूल जाएँ। लेकिन यह थोड़ी देर की बात नहीं थी। मेरे उन्‍हें कुछ क्षण गले लगाने से, उनके जीवन भर की खाने-रहने की जरूरतें पूरी नहीं होनवाली थीं। इसलिए मैं उन्हें भोजन कराकर तुरंत वापस आ गई और एक प्रण किया कि आज से जब भी कभी दान-दक्षिणा जैसी कोई भावना उत्पन्न हुई, तो किसी मंदिर जाने के बदले मैं किसी जरूरतमंद की सहायता करूंगी।

यह सच है दोस्तों कि दूसरों को सुख देकर, थोड़ी-सी हंसी या मुस्कुराहट देकर, मन में जो अपार सुख व शांति संचारित होती है, वह दुनिया के दूसरे काम और उसके पुरस्‍कार से संचारित नहीं हो सकती। दूसरों के दुख, तकलीफ़ें, परेशानियाँ देखने के बाद वाकई अपना हर गम, परेशानी बहुत छोटी लगने लगती है। इसलिए हमें उस ईश्वर का बहुत शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने हमें आज वह सब कुछ दिया है, जो दूसरों को नहीं मिला और जिस कारण आज हमें अपने जीवनयापन की कोई चिंता नहीं है।

उस दिन के बाद से मुझे यह एहसास हुआ कि वाकई भूखों, गरीबों की सेवा से बड़ी और कोई पूजा नहीं है और ना ही इससे बड़ा कोई धर्म ही है। क्‍योंकि जब किसी के कांपते हाथ आपके सिर पर आशीष के लिए उठते हैं, तो वह किसी धर्म विशेष की धार्मिक भावना से नहीं उठते। ऐसे हाथ केवल आशीर्वाद ही देते हैं। ठीक इसी तरह जब गरीब, गन्‍दे बच्‍चों के नन्हे हाथ हमसे कुछ पाकर खुशी से झूम उठते हैं, तो खुशी में फैला उनकी बाहों का हार हमारे जिस्म को गंदा नहीं करता, बल्कि हमारे मन में इकट्ठा जाति, धर्म, ऊंच-नीच की गंदगी को गंगाजल की भांति धो डालता है। इसके बाद हमारा मन साफ-सुथरा हो जाता है। मैं जानती हूँ कि यह बातें उपदेश जैसी ज़रूर हैं, लेकिन इन बातों के पीछे की भावनाएं वास्‍तव में सत्‍य हैं।

Wednesday 15 April 2015

कंजका भोज बना – खुशी का बड़ा कारण

भारत वापसी के बाद इस बार रामनवमी के शुभ अवसर पर जब मुझे कन्या भोज कराने का सुअवसर प्राप्त हुआ तब सर्वप्रथम मन में यही विचार आया कि कन्याएँ मिलेंगी कहाँ? वैसे तो मेरे पास-पड़ोस में कन्याओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन उस दिन सभी के घर भोज के निमंत्रण के चलते पहले ही कन्याओं का पेट इतना भर चुका होता है कि फिर किसी दूसरे घर में उन्हें मुँह जूठा करने में भी उबकाई आती है। इसलिए बुलाने पर वह घर तो आ जाती हैं, किन्तु बिना कुछ खाए केवल कंजका-उपहार लेना ही उनका एक मात्र उदेश्य रह जाता है, जिसे लेकर वह जल्द से जल्द अपने घर लौट जाना चाहती हैं।

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Wednesday 8 April 2015

विज्ञापन और हम

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जाने क्यूँ कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि शायद मुझे इस युग में पैदा होना ही नहीं चाहिए था। क्यूंकि इस युग के हिसाब से मेरी सोच मेल नहीं खाती। मुझे हमेशा पुरानी चीज़ें आकर्षित करती है। न जाने क्यूँ मुझे पुराना ज़माना ही आज की तुलना में अधिक प्रभावित करता है। अब मुझे यह पता नहीं कि ऐसा सिर्फ मुझे ही महसूस होता है या सभी ऐसा ही महसूस करते है।

खैर अब टीवी पर प्रसारित किए जाने वाले विज्ञापनो को ही ले लो। लोगों के मन में बसे डर कमजोरियों या फिर उनकी कमियों को निशाना बनाकर धनार्जन करने की कला तो कोई इन विज्ञापन निर्माताओं से सीखे। मुझे तो कई बार ऐसा भी लगता है कि एक सामाजिक राजनैतिक या फिर कोई धार्मिक अथवा पारिवारिक धारावाहिक बनाने या लिखने से कहीं अधिक कठिन होता होगा यह विज्ञापन बनाना, नहीं! इंसान के सर से लेकर पाँव तक उपयोग में लायी जाने वाली हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीजों को लोग के समक्ष इस तरह से प्रसारित करना कि न सिर्फ देखने वाला अपितु उस विज्ञापन को सुनने वाला प्रत्येक व्यक्ति भी उस वस्तु को लेने के लिए लालायित हो जाये। अर्थात साम दाम, दंड भेद सब करके मुर्गा फंसना चाहिए बस, फिर हलाल तो वो खुद ब खुद हो ही जाएगा।

कहीं न कहीं यह विज्ञापन हमारी ज़िंदगी से जुड़ा एक अहम पहलू है। जिसे आज हर एक व्यक्ति का जन जीवन प्रभावित है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।  क्यूंकि कहीं न कहीं चाहे अनचाहे हर व्यक्ति अपनी किसी न किसी चीज़ का विज्ञापन कर रहा है। हाँ यह बात अलग है कि इंसान की ज़िंदगी से जुड़ा हर विज्ञापन आपको टीवी या रुपहले पर्दे पर नज़र नहीं आता। पर फिर भी कुछ विज्ञापन सड़कों पर देखे जा सकते हैं, तो कुछ अखबारों मे रखकर किसी बिन बुलाये महमान की भांति रोज़ ही घर आ जाते है। रही सही कसर रेडियो टीवी और समाचार पत्र पूरी कर देते हैं। फिर इस विषय में यह क्या सोचना कि ‘क्या तेरा क्या मेरा’ यह तो आज के आधुनिक युग की अहम अवश्यकता है। क्यूंकि विज्ञापन हमारी रोज़ मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पहलू है। आज सभी को इसकी जरूरत है। फिर चाहे वह कोई व्यापारी हो या फिर कोई आम इंसान। विज्ञापन की जरूरत तो होती ही है।

अब हम ब्लॉगर्स को ही ले लीजिए अपने ब्लॉग के प्रचार प्रसार के लिए हम भी तो सोशल साइट का सहारा लेते ही है। खैर यह महज़ एक उदाहरण के तौर पर कही गयी बात है, कोई इसे दिल पर न लगाएँ। लेकिन यूं देखा जाए तो हम सभी व्यापरी है। कोई पैसा लेकर चीज़ें बेचता है ,तो कोई ईमान, रही सही कसर तो लोग रिश्ते बेचकर पूरी कर देते है। तभी तो आज इस मुल्क में सभी कुछ बिकता है, क्या शरीर क्या आत्मा। खैर विषय से न भटकते हुए हम वापस आते हैं विज्ञापन पर, कुछ विज्ञापन ऐसे होते है जो हमारे दिलो दिमाग पर छा जाते है। जिन्हे हम कभी नहीं भूल पाते। जैसे ''वॉशिंग पाउडर निरमा'' का विज्ञापन, इत्यादि और फिर ऐसा हो भी क्यूँ न आखिर विज्ञापन निर्माता विज्ञापन बनाते ही इसलिए हैं ताकि उनके बनाए विज्ञापन का जादू लोगों के सर चढ़कर बोले और उनका उत्पाद या वस्तू धड़ा-धड़ बिके।

लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है। आज के युग में हर चीज़ को विज्ञापन बनाकर बेचा जाता है। खासकर लोगों की भावनाओं को, सही मायने में देखा जाये तो लोग की भावनाओं से खेलना ही विज्ञापन निर्माताओं का असल पैंतरा है, नहीं ! आज की तारीख में लोगों की भावनाओं से खेलकर डर बेचने का दूसरा नाम ही तो विज्ञापन है। जैसे हाथ धोने या नहाने के साबुन के विज्ञान को ही ले  लीजिये।  जिसमें यह कहा जाता है कि ‘साबुन शेयर करना मतलब किटाडूँ शेयर करना’ अब बताइए भला यह कोई भी कोई बात हुई। साबुन भी भला कभी गंदा होता है क्या ? हाँ बर्तन साफ करने के मामले में मान सकती हूँ। लेकिन यदि आपके घर में कोई अस्वस्थ नहीं तो मेरी समझ से एक ही साबुन का इस्तेमाल कोई बुरी बात नहीं है। या फिर वॉटर फ़िल्टर के विज्ञापनों को ले लों उनमें भी तो बीमारियों का डर दिखाया जाता है। कि यदि किसी आम फिल्टर का पानी पियो तो आप बीमार पड़ सकते हो इसलिए केवल हमारी कंपनी के फ़िल्टर से पियो वो ज्यादा स्वच्छ पानी देगा। वगैरा-वगैरा।

विज्ञापन की दुनिया में मुझे कमाल की बात तो यह लगती है कि एक व्यक्ति के जीवन से जुड़ी हर एक वस्तु फिर चाहे वो भोग विलास की सामग्री हो या जीवन की एक अहम जरूरत ऐसा कुछ भी नहीं जिसका विज्ञापन न बना हो। मगर मुझे अफसोस तो तब होता है। जब जागुरुकता के नाम पर एक व्यक्ति के गोपनीय विषयों तक का विज्ञापन बना दिया गया है। गोपनिए विषय जैसे ‘’सैनिट्री नैपकिन, गर्भनिरोधक गोलियाँ’’, ‘’शक्तिवर्धक दवाएं’’ हों या कोंडम इत्यादि। लेकिन आमतौर पर लोगों का ऐसा मानना है कि जिन लोगों को ऐसे विषयों में अपने चिकित्सक से भी बात करने में असहजता या शर्म महसूस होती है वह इन विज्ञापनो के माध्यम से ही उस विषय में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते है।

ताकि उन्हे उनकी समस्या से जुड़ा हल किसी भी औषधि की दुकान पर आसानी से उपलब्ध हो जाएगा। वह भी बिना किसी हिचकिचाहट और परेशानी के और उन्हें किसी शर्मिंदगी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। कुछ हद तक यह बात सही है। लेकिन यह समस्या की गंभीरता पर अधिक निर्भर करता है। फिर चाहे व साधारण बुखार खांसी जैसी आम समस्या हो या एड्स (AIDS), ब्रेस्ट कैंसर (breast cancer) जैसी अन्य अहम शारीरिक समस्याएँ। मगर एक सीमित समय के विज्ञापन के दौरान आपको उस विषय की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती और ना ही सही परामर्श ही मिल सकता है। ऐसे में आप विज्ञापन से प्रभावित होकर सामान या दवा तो खरीद सकते हैं किन्तु कब कहाँ और कब तक उसका सेवन आपके लिए उपयुक्त है यह केवल आपका चिकित्सक ही आपको बता सकता है। और एक सही परामर्श दे सकता है। याद रहे यहाँ में उन लोगों के विषय में बात कर रही हूँ जिन्हें आज भी आपने बात खुल कर कहने में शर्म आती है। खासकर अपने शरीर से जुड़ी बातें।

विदेशों में तो ऐसा कोई भी समान खरीदने से पहले आपको अपने वयस्क होने का प्रमाण पत्र दिखाना अनिवार्य होता है। किन्तु शायद हमारे यहाँ ऐसा कोई नियम नहीं है या फिर हो भी तो उसका कोई पालन नहीं करता फिर चाहे वह ग्राहक हो या दुकानदार। पर यह सही नहीं है।

इसलिए कई बार यह विज्ञापन जितने उपयोगी सिद्ध होते हैं उतने ही हानिकारक भी सिद्ध होते हो सकते है। मेरी समझ से केवल विज्ञापन से प्रभावित होकर उल्टी सीधी चीज़ें खरीदने से अच्छा है। उस वस्तु से जुड़े विशेषज्ञ का परामर्श अवश्य ले ले। अब जब बात ऐसी हो तो बच्चों का ज़िक्र आना तो स्वाभाविक ही है। वैसे यूं देखा जाये तो आजकल इंटरनेट का ज़माना है। और आजके बच्चे हम से कहीं ज्यादा जागरूक और समझदार भी है। अब किसी को किसी की विशेष टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। लेकिन फिर भी जब यौवन आता है तो नए जोश और नयी उमग के साथ हजारों सवाल भी लाता है। जिसका यदि सही समय पर सही उत्तर न मिले तो मामला बिगड़ भी सकता है इसलिए अभिभावक होने के नाते हमारी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उन्हें सही समय पर सही जानकारी से अवगत कराएं। क्यूंकि आज भले ही उनके सारे सवालो के जवाब इंटरनेट पर मौजूद क्यूँ ना हो। मगर अभिभावकों के अनुभव से भरा एक प्रेम और सहोदर्य बच्चों में आत्मविश्वास जगाता है ताकि वह जोश और भावनाओं में बह कर कोई ऐसा कदम न उठा लें। जिससे आगे जीवन में उन्हें पछताना पड़े।

विज्ञापन और हम...


लोगों के मन में बसे डर कमजोरियों या फिर उनकी कमियों को निशाना बनाकर धनार्जन करने की कला तो कोई इन विज्ञापन निर्माताओं से सीखे। मुझे तो कई बार ऐसा भी लगता है कि एक सामाजिक राजनैतिक या फिर कोई धार्मिक अथवा पारिवारिक धारावाहिक बनाने या लिखने से कहीं अधिक कठिन होता होगा यह विज्ञापन बनाना, नहीं! 
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Wednesday 1 April 2015

समाचार पत्र और मेरे विचार

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पिछले कुछ महीनों मैं मुझे ऐसा लगने लगा था कि समाचार पत्रों में केवल राजनीतिक अथवा अपराधिक समाचारों के अतिरिक्त और कोई समाचार आना ही बंद ही हो गए हैं या यह भी हो सकता है कि शायद मैंने ही समाचार पत्र पढ़ने में आज से पहले कभी इतनी रुचि ही न ली हो। इसलिए मुझे पहले कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि आज की तारीख में समाचर से अधिक उसके शीर्षक का महत्व है। फिर चाहे उस शीर्षक के अंतर्गत आने वाले समाचार में दम हो न हो पर शीर्षक में दम अवश्य होनी चाहिए। ताकि वह पाठकों को उस विषय में सोचने के लिए विवश कर दे।

आज ऐसा ही कुछ मुझे भी महसूस हुआ जब मैंने एक और ग्रामीण बच्चों की शिक्षा के विषय में उन्हें ग्लोबल शिक्षा देने की बात पढ़ी। ग्लोबल शिक्षा बोले तो उन्हें (कमप्यूटर और नेट से संबंधित जानकारी देना) या उन्हें यह बताना कि इंटरनेट के माध्यम से भी शिक्षा कैसे ग्रहण की जा सकती, और अपने यहाँ (भारत) में तो शिक्षा प्राणाली का पहले ही बंटाधार है। ऊपर से यह नई पहल खैर   वही दूसरी और महिलाओं से संबन्धित एक अन्य आलेख के अंतर्गत मैंने यह पढ़ा कि समाज में महिलाओं के प्रति लोगों के नज़रिये को बदलने के लिए महिलाओं को अपनी पारंपरिक सोच बदलने की आवश्यकता है। इन दोनों ही विषयों ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया कि जहां आज भी एक ओर ग्रामीण बच्चों की प्राथमिक शिक्षा तक का ठिकाना नहीं है, वहाँ उन बच्चों को ग्लोबल शिक्षा से अवगत कराना क्या सही होगा ?

लेकिन आगे कुछ भी कहने से पहले मैं यहाँ यह बताती चलूँ कि मैं बच्चों के विकास के विरुद्ध नहीं हूँ। किन्तु सोचने वाली बात है यह है कि जहां एक और गाँव में आज भी बहुत से लोग अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते वहाँ ग्लोबल शिक्षा की जानकारी देना। बात कुछ हजम नहीं होती।

ऐसा नहीं कि गाँव के बच्चों को नयी तकनीकों के माध्यम से आगे बढ़ने या पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं है। है, बिलकुल है ! लेकिन जहां गाँव के शिक्षक ही पूर्णरूप से शिक्षित न हों, जो अपने गाँव के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा ही सही तरीके से दे पाने में असमर्थ हों। जहां गरीबी के चलते आज भी शिक्षा के प्रति उदासीनता का भाव हो। वहाँ ग्लोबल शिक्षा की बातें करना मेरी समझ से तो कोई समझदारी वाली बात नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं ग्रामीण बच्चों कि ग्लोबल शिक्षा के खिलाफ हूँ। लेकिन मेरा मानना यह है कि कोई भी नयी इमारत के निर्माण से पहले उसकी नीव का  मजबूत होना अधिक आवश्यक है। तभी आप उस पर एक मजबूत इमारत बनाने में सफल हो सकते हैं। पर कई इलाकों में तो जीवन जीने का ही आभाव है क्यूंकि किसानों की हालत और बढ़ती मंहगाई कि मार से जब कोई भी इंसान अछूता नहीं है तो फिर हमारे उन अन्न दाताओं की तो बात ही क्या।

ऐसे में जीवन यापन से जुड़ी जरूरतों के अभाव में जब प्राथमिक शिक्षा का ही अभाव होगा, जो स्वाभाविक भी है। वहाँ ग्लोबल शिक्षा की बातों को भला कौन समझेगा।

रही महिलाओं के विकास की बात जिसमें एक महिला के द्वारा यह कहा गया कि यदि हमें समाज में अपने प्रति लोगों का नज़रिया बदलना है तो उसके लिए सर्वप्रथम हम स्त्रियॉं को ही अपनी पारंपरिक सोच को बदलना होगा। कुछ हद तक यह बात सही है। लेकिन यदि हम हर वर्ग की महिलाओं की बात करें तो शायद यह एक नामुमकिन सी बात है। क्यूँ ? क्यूंकि हम उस देश में रहते हैं जहां बड़े से बड़े शहर में रहने वाला उच्च शिक्षा प्राप्त इंसान आज भी बेटे और बेटी की परवरिश में फर्क करता है। जहां या तो बेटी पैदा ही नहीं होने दी जाती या फिर उसके पैदा होते ही उसे पारंपरिक रूप से चली आरही दक़ियानूसी बातों को उसके मन में बैठाना शुरू कर दिया जाता है।

खैर यह एक अंत हीन विषय है और अभी यहाँ इस विषय को मद्दे नज़र रखते हुये मैं यहाँ इस बारे में ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं समझती। लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है। ऐसे में भला कोई भी लड़की जिसके दिमाग में बचपन से ही गलत बातें भर दी गयी हों वो आगे जाकर अपनी पारंपरिक सोच को कैसे बदल सकती है। या फिर एक ऐसी लड़की जिसने सदा अपनी माँ पर अत्याचार होते देखा हो। उसके साथ दुर्व्यवहार होते देखा हो। वो लड़की विरासत में क्या पाएगी। फिर ऐसे में हम समग्र रूप से यह कैसे कह सकते हैं कि हमें अपनी पारंपरिक सोच को छोड़कर एक नए सिरे से नए समाज के निर्माण हेतु कुछ नया सोचना चाहिए।

चलिये एक बार को हम यह मान भी लें कि कुछ मुट्ठी भर लोग ऐसा करने मैं सफल हो भी गए, तो क्या होगा। मैं कहती हूँ कुछ नहीं होगा ! क्यूंकि हमारी जनसंख्या का एक बड़ा तबका या एक बड़ा भाग ऐसा है जो इन बातों को या तो समझना ही नहीं चाहता या फिर समझ ही नहीं सकता है। ऐसे हालातों में यह बात समाज का वो बड़ा हिस्सा कैसे समझेगा। यह बात मेरी समझ से तो बाहर है।

अरे जिसे जीने के लिए रोटी कपड़ा और मकान जैसी अहम जरूरत की पूर्ति नहीं हो पा रही है। उसके लिए तो यह बातें किसी प्रवचन से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। जो महिला रोज़ काम से थक्कर चूर होने पर भी रोज़ अपने ही घर में, अपनों के द्वारा घरेलू हिंसा का शिकार होती है। वह महिला कैसे बदलेगी अपनी सोच और क्या सिखाएगी अपनी बेटी को, जहां आज भी अपने घर की बहू बेटियों को घर के अहम सदस्य की भांति बराबर का सम्मान नहीं मिलता। जहां एक औरत को आज भी केवल बेटा पैदा करने के लिए किसी बच्चे पैदा करने वाली मशीन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। और बेटी पैदा करने पर प्रताड़ित किया जाता है। वह महिला भला अपनी सोच तो क्या अपना कुछ भी बदल सके तो बहुत है। सोच बदलना तो दूर की बात है।

मुझे तो ऐसा लगता है कि जब तक हमारा समाज एक पुरुष प्रधान समाज रहेगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। क्यूंकि सोच बदलने की जरूरत महिलाओं से अधिक पुरुषों को है। जो सदैव अपने अहम में अहंकारी बनकर अपने ही घर की स्त्रियॉं पर जुल्म करते है। अगर कोई सोच बदलनी है तो सिर्फ इतनी कि एक बेटे की परवरिश करते वक्त हमें उसे यह सिखाना है कि बेटा एक लड़की भी एक इंसान है और तुम भी एक इंसान ही हो। यदि वह रो सकती है तो तुम भी रो सकते हो। रोने से कोई लड़का कभी लड़की नहीं बन जाता या कमजोर नहीं हो जाता। अपनी भावनाओं को छिपाने का नाम पुरषार्थ नहीं कहलाता। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भावनाओं को दिखा देने से या जाता देने से कोई स्त्री कमजोर नहीं हो जाती। ठीक उसी प्रकार भावनाओं को छिपा लेने से कोई लड़का या कोई पुरुष मजबूत नहीं हो जाता। बल्कि कहीं न कहीं पुरुषों की यही बात उन्हें अंदर ही अंदर खोखला एवं कमजोर बना देती है। क्यूंकि यदि ऐसा न होता तो सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति को मिलाकर एक स्त्री (जो नारी शक्ति का प्रतीक है) माँ दुर्गा का निर्माण नहीं किया होता। यदि वह चाहते तो अपनी शक्तियों को कोई और भी रूप दे सकते थे। किन्तु उन्होने ऐसा नहीं किया क्यूंकि वह जानते थे कि नारी में ही वह शक्ति है जो पुरुषों को संभाल सकती है।

बस केवल यही एक बात को समझाते हुए हमे अपने व्यवहार के माध्यम से अपने बच्चों के सामने कुछ ऐसे उदाहरण रखने की जरूरत है जिसे देखकर वह स्वयं ही इंसानियत का पाठ पढ़ जाये   क्यूंकि अच्छा या बुरा/सही या गलत बच्चे जो भी सीखते हैं, सर्वप्रथम अपने घर से ही सीखते है और वहीं से उनकी सोच का निर्माण शुरू होता है। इसलिए यदि पारंपरिक सोच बदलने की जरूरत किसी को है तो वो पुरुषों को अधिक है और स्त्रियॉं को कम। जिस दिन सामाज की यह सोच बदल गयी उसी दिन से स्त्रियों के प्रति समाज का नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा। जय हिन्द....