Monday 31 October 2011

"प्रवासी भारतीय "

क्या होते हैं प्रवासी भारतीय, तो आपकी जानकारी के लिए बताना चाहूँगी कि भारतीय प्रवासी वह लोग हैं जो भारत छोड़ कर विश्व के दूसरे देशों में जा बसे हैं। प्रवासी भारतीय दिवस प्रति वर्ष भारत सरकार द्वारा ९ जनवरी को मनाया जाता है क्योंकि इस दिन महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश वापस आये थे। इस दिवस को मनाने की शुरुवात २००३ से हुई थी। प्रवासी भारतीय दिवस मनाने की संकल्पना स्वर्गीय लक्ष्मीमल सिंघवी के दिमाग की उपज थी। इस अवसर पर प्रायः तीन दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। इसमें अपने क्षेत्र में विशेष उपलब्धि प्राप्त करने वाले भारतवंशियों को सम्मानित किया जाता है तथा उन्हें प्रवासी भारतीय सम्मान प्रदान किया जाता है। यह आयोजन भारतवंशियों से संबन्धित विषयों और उनकी समस्यायों की चर्चा का मंच भी है।

जहां-जहां भारतीय बसे हैं वहाँ उन्होने आर्थिक तंत्र को मज़बूती प्रदान की है और बहुत कम समय में अपना स्थान बना लिया है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है “लक्ष्मी मित्तल” यह भारतीय प्रवासीयों में जाना माना नाम है। जिन्होंने आज भी बाहर रहकर भी भारतीय नागरिकता नहीं छोड़ी है। यह लंदन में बसे भारतीय मूल के उद्योगपति है। उनका जन्म राजस्थान के चुरु ज़िले के शादुलपुर नामक स्थान मे हुआ है। वे दुनिया के सबसे धनी भारतीय हैं एवं ब्रिटेन के सबसे धनी एशियाई और विश्व के ५वें सबसे धनी व्यक्ति है। मित्तल एल एन एम नामक उद्योग समूह के मालिक हैं। इस समूह का सबसे बड़ा व्यवसाय इस्पात क्षेत्र में है। अन्य वह मज़दूर, व्यापारी, शिक्षक, अनुसंधानकर्ता, खोज करता, डॉक्टर, वकील इंजीनियर, प्रबन्धक प्रकाशक के रूप में दुनिया भर में स्वीकार किए गए प्रवासीयों की सफलता का श्रेय उनकी परंपरागत सोच, सांस्कृतिक मूल्यों और उनकी शैक्षणिक योग्यता को दिया जा सकता है। जिसके कारण भारत की छवि विदेशों में निखरी है। प्रवासी भारतीयों के कारण भी आज भारत विश्व में आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है।

अब जरा भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, किसी भी राष्ट्र की उन्नति का सीधा संबंध उसकी संस्कृति से होता है। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि संस्क्रती ही एक मात्र ऐसा तत्व है जो एक देश को दूसरे देश से अलग पहचान देती है और भारत प्राचीन काल से ही सांस्क्रतिक गतिविधियों और परमपराओं में पूरे विश्व में सबसे आगे रहने वाला देश रहा है। यही कारण है कि समय-समय पर तमाम आक्रमणकारियों ने भारतीय संस्कृति पर हमला करना चाहा मगर भारतीय संस्क्रती ने कभी अपना अस्तित्व नहीं खोया। विश्व प्रसिद्ध तमाम विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की गहराई को परखने के लिए यहाँ आकर अध्ययन किया और इसकी महिमा अपने देशों तक फैलायी। इक़बाल ने यूँ ही नहीं कहा कि- “सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा……… सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, ।”

यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिस भारतीय संस्कृति ने विश्व को राह दिखाई एवं दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थ, वेदों की एक लाख श्रुतियों, महाभारत के राजनीतिक दर्शन, गीता की समग्रता, रामायण के रामराज्य, पौराणिक जीवन दर्शन एवं भागवत दर्शन से लेकर संस्कृति के तमाम अध्याय रचे, आज उस संस्कृति को पाश्चात्य संस्कृति से ख़तरा उत्पन्न होने लगा है।

खैर मुझे लगता है, शायद मैं विषय से भटक गई हूँ क्योंकि हम तो बात कर रहे थे भारतीय प्रवासीयों की, जैसे कुछ प्रख्यात नामों के बारे तो आपको जानकारी होगी ही मगर मैं बात कर रही हूँ उन साधारण लोगों की जिनका नाम मशहूर नहीं है किन्तु फिर भी यह लोग यहाँ रह कर भी भारतीय लोग की सेवा करने से नहीं चूकते। जैसे यहाँ के कुछ एक डॉक्टर को ही ले लीजिये जो की भारतीय है। यहाँ रहने वाले अन्य भारतवासी जब कभी किसी रोग की चिकित्सा हेतु अस्पताल जाते हैं या यहाँ के किसी clinic में जाते है जिसे आम तौर पर यहाँ surgery कहा जाता है। तब कोई अपने मुँह से कहें ना कहें मगर उसकी पहली पसंद एवं मंशा यही होती है कि यदि कोई भारतीय डॉक्टर मिल जाये तो अच्छा होगा। क्योंकि ज्यादा तर हिंदुस्तानियों की सोच यही है कि भारतीय डॉक्टर होगा तो उस से वह अपनी बात ज्यादा स्पष्ट रूप से समझा सकेंगे और वो भी उनकी बात को और डॉक्टरों के मुकाबले ज्यादा अच्छे से समझने में सक्षम होगा।

दूसरा आप ले सकते हैं यहाँ रहने वाले व्यापारियों को जिन्होंने यहाँ रह कर भी भारतीय संस्कृति को अपने व्यापार के माध्यम से ज़िंदा रखा हुआ है और साथ ही यहाँ रह रहे प्रवासीयों को भी अपने वतन के क़रीब रखने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। जैसे यहाँ के लंदन क्षेत्र में साउथ हाल यह एक ऐसा क्षेत्र है कि यदि आप वहाँ जाकर खड़े हो जाये तो आपको इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं होगा कि आप भारत से बाहर हो। इस क्षेत्र में ज्यादा तर आपको गुजराती और पंजाबी समाज की सभ्यता देखने को मिलेगी। कपड़ों से लेकर खाने-पीने की हर तरह की सामग्री आपको यहाँ वही मिलेगी जैसी भारतवर्ष में मिला करती है, यहाँ तक की चाट भी मौजूद है यहाँ। J यह भी तो एक तरह का बहुत बड़ा योगदान या फिर यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि यह भी तो एक प्रकार की भारतीय प्रवासीयों की उन्नति ही है जो बाहर रह कर भी उन लोगों ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता को बख़ूबी ज़िंदा रखा हुआ है और उतना ही उन्नत भी।

यहाँ एक Leicester शहर है, जहां की दीपावली बहुत मशहूर है यहाँ भी भारतवंशियों का एक बड़ा समूह रहता है और खास कर दीपावली का 3-4 दिन का कार्यक्रम यहाँ आयोजित किया जाता है बिलकुल इंडिया में जैसे मनाया जाता है ताकि UK में बसे अन्य प्रवासी भारतीयों को किसी तरह की कोई कमी न खले। इसके अलावा और भी कई शहर हैं जहां बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं। जैसे लंदन का Wembley क्षेत्र यहाँ आपको गुजराती समाज की सभ्यता देखने को मिलेगी, लंदन के पास ही एक Neasdon नामक स्थान है जहां गुजराती समाज का ही एक भव्य मंदिर भी है, यहाँ आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इस मंदिर में हर साल दीपावली के समय Prince Charles को आमंत्रित किया जाता है । जिस संस्था ने यह मंदिर बनाया था उन्ही की शाखा का एक मंदिर दिल्ली में अक्षरधाम मंदिर के नाम से जाना जाता है। ऐसे कई और भी जगह हैं जैसे Birmingham, Southall अब आप इसे योगदान का नाम देना चाहेंगे या उन्नति का यह आप की आपकी सोच पर और आपके नज़रिये पर निर्भर करता है। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है और जहां तक मेरी जानकारी है योगदान से ही उन्नति का मार्ग भी खुलता है। अभी कुछ दिनों पहले सारे समाचार पत्रों में यहाँ हो रहे दंगे और फ़साद सुर्खियों में थे। हो सकता है शायद उस का एक अहम कारण आपसी जलन भी रही हो और जलन हमेशा उन्नति से पैदा होती है। साधारण शब्दों में यदि कहा जाये तो हमको या किसी एक जन साधारण को किसी दूसरे व्यक्ति से जलन कब होती है जब उसे आप से ज्यादा सफलता प्राप्त होगी हो ऐसा ही कुछ-कुछ यहाँ रह रहे लोगों के मन में भी जिसने उस दिन एक वारदात को अंजाम दिया और फिर वही वारदात दंगों में तबदील हो गई।

आप सोच रहे होंगे वहाँ के लोगों को किस बात की जलन या ईर्षा हो सकती है उनका देश तो पहले ही हमारे देश के मुकाबले में काफी हद तक उन्नत है। मगर ऐसा नहीं है उनकी मानसिकता आज के हालात में यह हो गई है कि बाहर से अर्थात् दूसरे देशों से लोग आकर उनकी नौकरीयाँ छीन रहे हैं जिस नौकरी पर यहाँ का नागरिक होने के नाते उनका प्रथम अधिकार होना चाहिए, वह नौकरीयाँ भी आज की तारीख़ में उनको न मिल कर दूसरे देश के नागरिकों को आसानी से मिल रही है। उसमें भी सबसे ज्यादा भारतीय ही हैं और उसमें भी सर्वाधिक IT कंपनियाँ जैसे TCS, Infosys या Cognizant जैसी कई और साफ्टवेयर कंपनियाँ हैं जिसमें अधिकतर भारतीय लोग आप को आसानी से मिल जायेगे। जिसके चलते यहाँ के लोगों में इन्ही बातों को लेकर ख़ासा ग़ुस्सा देखने को मिलता है। यह उन्नति नहीं तो और क्या है। यह बात अलग है कि यह उन्नति किसी यहाँ रहने वाले भारतीय प्रवासी की कम और देश की ज्यादा है।

यही नहीं अमेरिकी गिरजाघरों में भी ऋग्वेद के मंत्र और भगवद्गीता के श्लोक गूंजने लगे हैं। वर्ष २००७ में ही Thanks giving day पर गिरजाघरों में वैदिक मंत्रोच्चार के साथ लोगों ने मानव जीवन धन्य बनाने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया। इन सबसे प्रभावित होकर अमरीका के रूट्जर्स विश्वविद्यालय ने हिन्दू धर्म से सम्बन्धित छ: पाठ्यक्रम आरम्भ करने का फ़ैसला लिया है, वाचन परम्परा, हिन्दू संस्कार महोत्सव, हिन्दू प्रतीक, हिन्दू दर्शन एवं हिन्दुत्व तथा आधुनिकता जैसे पाठ्यक्रम शामिल होंगे तथा नान क्रेडिट कोर्स में योग और ध्यान तथा हिन्दू शास्त्रियों और लोक नृत्य शामिल किये जायेगे।

अंत में मैं बस इतना ही कहना चाहूँगी कि यह सब यदि आज की तारीक में संभव हो पाया है तो केवल उन्ही भारतवंशियों के योगदान के माध्यम से जिन्होंने अपने देश से बाहर रह कर भी अपने देश को उसकी संस्कृति को सभ्यता को पूरे मान सम्मान के साथ गर्व से जीवित रखा हुआ है। जो की प्रतीक है प्रवासीयों की उन्नति का और इस कार्य के लिए निश्चित ही हमें उनको सम्मानित करना ही चाहिए। जय हिन्द....

Friday 28 October 2011

आने वाला पल जाने वाला है .....



"आने वाला पल जाने वाला है 
हो सके तो इसमें ज़िंदगी बिता दो
पल जो यह जाने वाला है"
 
टिक-टिक करती वक्त की सुईयाँ यदि आप वास्तव में व्यस्त हैं तब भी यह आपको अपनी ओर ध्यान देने के लिए मजबूर ज़रूर करती हैं, मगर परेशान नहीं करती। लेकिन यदि आप खाली हैं और आपके पास कोई खास काम नहीं तब तो यह गुज़रता हुआ एक एक लम्हा बहुत भारी लगता है और दिमाग बस यही सोचता है कि क्या किया जाये। कभी कोई वक्त ऐसा भी होता है, जब आपको लगता है कि यह वक्त बीत क्यूँ नहीं रहा है, रुका हुआ क्यूँ है और कभी किसी पल में ऐसा भी मन करता है कि बस यह लम्हा, यह पल, यह वक्त, हमेशा के लिए यहीं रुक जाय मुझे अकसर ऐसा दिवाली के समय लगता है J मगर अब क्या अब तो दिवाली भी खत्म हो गई....

लो जी सारा साल जिस त्यौहार का इंतज़ार किया वो एक ही दिन में आया और आकर चला भी गया, किसी को पता भी नहीं चला।J साल के शुरू होते ही कुछ खास व्रत, त्यौहार ऐसे होते हैं, जिन्हें नव वर्ष का कलेंडर आते ही सबसे पहले देखने कि उत्सुकता रहा करती है। जिनमें से दीपावली एक मुख्य त्यौहार हैं। हम लोग साल भर से सोच कर रखते हैं कि इस साल दीवाली पर यह करना है, वो करना है वगैरा-वगैरा... और दीवाली है कि एक ही रात में आकर चली भी जाती है और मन भी नहीं भरता। कम से कम मेरा तो नहीं भरता। जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि दीवाली पाँच दिनों का त्यौहार है और पाँचों दिनों का अपना एक अलग महत्व भी होता है। मगर सबसे ज्यादा पाँचों में से किसी दिन का इंतज़ार होता है, तो वो है बड़ी दीवाली, मगर वो इतनी जल्दी आकर चली जाती है कि मुझे तो पता भी नहीं चलता। ऐसा क्यूँ होता है ?

जिस चीज़ का हमें बेसब्री से इंतज़ार रहता है। वो चीज़ हम को मिलकर भी नहीं मिली ऐसा महसूस होती है और ऐसा लगता है जैसे वक्त भाग रहा है और जो चीज़ हमको पसंद नहीं हो, या उसके मिल जाने से हम को कोई फर्क न पड़ता हो या यूं कहना ज्यादा सही होगा शायद उस वक्त हमको उस चीज़ की जरूरत नहीं होती, इसलिए शायद उस वक्त हमें उसकी अहमियत का एहसास भी नहीं होता। जिसके चलते  हमें ऐसा लगता है कि जैसे वक्त बहुत ही धीरे-धीरे चल रहा हो, क्यूँ तब करने को हमारे पास कुछ नहीं होता या फिर किसी भी कारण से हमारा मन किसी भी काम में नहीं लगता। जीवन और समय दोनों पहाड़ की तरह लगते हैं जो काटे नहीं कटता जैसे वो कहते हैं ना

 "सुबह से यूँ हीं शाम होती है,
 उम्र यूँ हीं तमाम होती है"  

उस वक्त हमको भी वक्त के धीरे-धीरे गुज़रने से ऐसा ही कुछ महसूस होता है और ज़िंदगी बहुत ही सुस्त, रस हीन रूखी-सूखी सी लगने लगती है। हमारे जीवन में आने वाले सुख दुःख भी ऐसे ही तो प्रतीत होते हैं, खुशियाँ आकर कब चली जाती है, इंसान को पता भी नहीं लगता और इसके पहले कि कोई इंसान उन खुशियों को पूरी तरह महसूस करके जी पाये, ज़िंदगी किसी ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है, कि जीवन में यह भी समझ में नहीं आता कि अब क्या करें और कहाँ जाये हम, क्यूँ दुःख भी उन खुशियों की तरह फटाक से आकार फटाक से चला नहीं जाता, क्यूँ वो बुरा वक्त भी जल्दी से बीत नहीं पता ? क्यूँ हम उन पलों को जी भरकर जी ही नहीं पाते जिन्हें हम जी भरकर जीना चाहते है और क्यूँ ज्यादा तर ज़िंदगी में हमे उन हालातों से समझोता करके जीना पड़ता हैं जिन्हें हम जीना ही नहीं चाहते। काश हमारे पास हमारी ज़िंदगी का कोई ऐसा रबर या computer होता जिसके जरिये हम अपनी ज़िंदगी से उन पलों को मिटा पाते या delete कर पाते जिन्हें हम जीना ही नहीं चाहते, तो कितना अच्छा होता न,J मगर फिर दूजे ही पल लगता है कि यह जीना भी कोई जीना होगा ज़िंदगी का असली मज़ा तो उसके हर उतार चढ़ाव को महसूस करते हुए जीने में ही है। वो कहते है ना

"गब्बर सिंह क्या कहकर गया 
जो डर गया वो मर गया" J     

खैर आपने अक्सर यह भी देखा होगा कि ऐसा ही उत्साह कभी-कभी किसी खास इंसान या रिश्तेदार की शादी को लेकर भी रहा करता है और उस से जुड़ी तैयारियाँ करते-करते कब शादी वाला दिन आ जाता है और कब शादी हो जाती है, यह भी पता नहीं चलता और रह जाती है बस यादें... जब कभी यह सब सोचती हूँ या ऐसे कोई विचार मेरे मन में आते हैं। तो लगता है कितनी अजीब होती है न हम इन्सानों की ज़िंदगी पूरी तरह मन के हव-भाव पर आधारित यदि मन खुश है तो सब अच्छा है, आसपास का हर्ष उल्लास से सज़ा माहौल भी कितना ख़ुशनुमा लगता है मन कहता है यही तो है ज़िंदगी, जीना इसी का नाम है और जब यदि मन उदास है तो वही माहौल इतना बुरा लगता है कि अंदर से एक खीज सी उठने लगती है। यह सब सोच कर लगता है इंसान की ज़िंदगी शायद कभी इंसान की रही हो। कभी वक्त, तो कभी हालातों के हाथों हमेशा इंसान बंधा ही रहा है। फिर चाहे वो खुशियों के पल हों या दुखों के हाँ मगर वो कहते है न कि

“अच्छे वक्त की एक बुरी आदत यह होती है, 
कि वो बहुत जल्दी बीत जाता है 
मगर बुरे वक्त भी एक अच्छी आदत यह होती है, 
कि वो भी बीत ही जाता है” 

तो आइये उस अच्छे और बुरे वक्त की अच्छी आदतों को मद्देनज़र रखते हुए हम सभी अपने-अपने जीवन में गए वक्त को भूल कर आगे बढ़ते है और आने वाले वक्त में कुछ ऐसा ढूँढने का और उसे पाने का प्रयास करते है कि जिसे पा लेने के बाद यह बुरा वक्त कम से कम हमारे जीवन में आये और ज्यादा-से ज्यादा अच्छा वक्त हमारे जीवन में आकर ठहर सके .... जय हिन्द .....J

Thursday 20 October 2011

क्या नाम दूँ........


अपनी इस पोस्ट को क्या नाम दूँ समझ में नहीं आ रहा है। सभी के जीवन में एक शब्द होता है उम्मीद, वो उम्मीद जो अकसर हम चाहे अनचाहे दूसरों से लगा बैठते हैं। कई बार यूँ भी होता है कि हम जानबूझ कर किसी से कोई उम्मीद लगाते है और उस उम्मीद के पूरा होने की आशा भी करते हैं। जैसे अगर मैं एक उदाहरण के तौर पर कहूँ कि पढ़ाई को लेकर माता-पिता की उम्मीद बच्चों से होती है। सभी यही चाहते हैं कि उनका बच्चा अपनी कक्षा में अव्वल दर्जे पर आये। पूरी कक्षा में उनके ही बच्चे के सबसे अच्छे अंक हो वगैरा-वगैरा। आखिर कौन नहीं चाहता कि उनका बच्चा तरक़्क़ी करे फिर भले ही उसका क्षेत्र कोई भी क्यूँ न हो, कोई भी क्षेत्र से यहाँ मेरा तात्पर्य है, जीवन में आगे बढ़ने का कोई भी सही रास्ता, ना कि कोई गलत तरीके से किसी गलत रास्ते को अपना लेना। इस प्रकार सभी के जीवन में अलग-अलग मुक़ाम पर अलग-अलग उम्मीदें जुड़ती चली जाती है।

जैसे बचपन में पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र में सफलता पाने से लेकर अपने-अपने पसंदीदा क्षेत्र में आगे बढ़ने और कामयाबी हासिल करने की उम्मीदें, जवानी में जीवनसाथी से जुड़ी उम्मीदें या नौकरी आदि को लेकर अपने कॅरियर से जुड़ी उम्मीदें और अभिभावक बनने के बाद आपने बच्चों को हर क्षेत्र में उन्नति करता देखने की उम्मीदें इत्यादि। मगर क्या आपको लगता है, कि सभी की उम्मीदें जो किसी अन्य व्यक्ति से चाहे अनचाहे जुड़ जाती है, वह हमेशा या ज्यादातर सही ही होती है। मेरे हिसाब से तो यह उम्मीद शब्द ही हर रिश्ते के बीच सबसे बड़ी मुसीबत की जड़ है। क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है कि अगर किसी के जीवन में यह उम्मीद नाम का शब्द ही नहीं होगा तो न तो, वो व्यक्ति किसी से कोई उम्मीद रखेगा और न किसी को उससे किसी प्रकार की कोई उम्मीद होगी और जब ऐसा होगा तो शायद ही कभी किसी रिश्ते में कोई दरार आये।

वो कहावत है न " ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी"  क्यूंकि मेरा ऐसा मानना है कि इंसान को सबसे ज्यादा दर्द उसकी उम्मीदें टूटने पर ही होता है और यही एक कारण रिश्तों में दूरियाँ आने वजह बन जाता है। इस उम्मीद शब्द से याद आया, कि हमारे समाज में आज भी ज्यादातर किसी लड़की या औरत की उम्मीदों पर बड़ी आसानी से पानी फेर दिया जाता है। फिर चाहे उसकी इच्छा हो, या ना हो। वैसे देखा जाये तो एक औरत की ज़िंदगी में आमतौर पर यह सिलसिला उसके बचपन से लेकर उसका जीवन खत्म होने तक किसी न किसी रूप में चलता ही रहता है। मगर इसका मतलब यह ज़रा भी मत सोचियेगा कि बेचारे पुरुषों या लड़कों के जीवन में उनकी उम्मीदें नहीं टूटा करती। बिल्कुल उनकी भी उम्मीदें जीवन में बहुत बार टूटती हैं, जैसे पढ़ाई को लेकर चुना गया विषय या फिर बेमन की नौकरी या फिर मन चाहा जीवनसाथी का साथ न मिल पाना वगैरा-वगैरा...

ज़ाहीर सी बात है जब भी कभी किसी की भी उम्मीद पर पानी फिरता है, या किसी की कोई उम्मीद टूटती है तो दर्द तो होता ही है, फिर चाहे वो मर्द हो या औरत, कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर क्या कभी किसी ने सोचा है। बचपन से लेकर अपने जीवन के लिए साथी चुने जाने तक एक आम लड़की की कितनी उम्मीदें टूट चुकी होती है। क्यूंकि उन उम्मीदों पर कभी पढ़ाई को लेकर, तो कभी समाज के बनाये नियम क़ानूनों को लेकर, न जाने कितनी बार पानी फेरा जा चुका होता है। इस सबके बावजूद भी उसे अपने जीवनसाथी से एक आस एक उम्मीद अपने आप ही बंध जाती है और वो सोच लेती है कि चलो अब तक जो हुआ सो हुआ, मगर अब मेरा जीवनसाथी कम से कम मुझे समझेगा, मेरी भावनाओं की पहले न सही मगर अब तो क़दर होगी। क्योंकि अब तो मेरा अपना घर होगा कम से कम वहाँ तो मेरी अपनी मर्ज़ी होगी। मगर ऐसा कितनों के साथ होता है ? शायद बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें ऐसा जीवनसाथी मिला होगा जो उनकी उम्मीद पर खरा उतरा हो।

काश इस पुरुष प्रधान देश और समाज का कोई व्यक्ति यह समझ पाता कि शादी के बाद एक लड़की की अपने जीवनसाथी से क्या उम्मीदें होती है, तो शायद आज हमारे समाज का चेहरा कुछ और ही होता। यहाँ मेरा मक़सद औरत और मर्द के बीच किसी प्रकार का झगड़ा खड़ा करना नहीं है। बस यहाँ मैंने औरतों की बात केवल इसलिए की क्योंकि मैंने पहले भी कहा है, बचपन से लेकर अपना जीवनसाथी चुने जाने तक और शादी के बाद भी सभी की ज्यादातर उम्मीदें केवल औरत से ही जुड़ी होती हैं। बहुतों को तो अपना जीवनसाथी खुद चुने जाने का अवसर भी नहीं मिलता। शादी के पहले माता-पिता को एक आदर्श बेटी की चाह होती है, तो शादी के बाद पति से लेकर परिवार के अन्य सदस्यों की अन्य उम्मीदें जैसे एक आदर्श बहू की उम्मीद, जो चुपचाप बिना कुछ बोले अपने कर्तव्यों का पालन करती रहे। पति के लिए आदर्श पत्नी की उम्मीद, जो दिखने में सुंदर हो, परिवार का ख्याल रखती हो, स्वभाव से मीठी हो, जिसमें धरती की भांति सहनशक्ति हो, जिसमें अहम या आत्मसम्मान नाम की कोई चीज़ न हो, यानी घर में बहू बनकर आने के बाद शायद एक औरत का सम्पूर्ण जीवन परिवार वालों की उम्मीदों को पूरा करने में ही गुज़र जाता है। मगर कभी कोई यह जानने की चेष्टा नहीं करता कि उसकी खुद की क्या उम्मीदें है क्या इच्छा। क्यूँ ?

ऐसा भी नहीं है कि यह चाहतें या यह उम्मीदें केवल कम पढ़ी लिखी या गाँव, देहात की महिलाओं से ही की जाती है। बल्कि आज भी जबकि औरत पढ़ी लिखी हो, अच्छी से अच्छी पोस्ट पर कार्यरत ही क्यूँ ना हो, इन चाहतों और उम्मीदों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बल्कि नौकरी वाली महिलाओं के साथ तो यह उम्मीदें दुगनी हो जाती है, कि वो एक आदर्श भारतीय नारी की तरह घर और बाहर दोनों की ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी संभालते हुए आपने कर्तव्य का निर्वाहन करती रहे। मैं यह नहीं कहती कि किसी से कोई उम्मीद रखना कोई बहुत ही गलत बात है या बुरी बात है। हर रिश्ते की अपनी एक माँग होती है, जिसके आधार पर लोगों की उम्मीदें भी बन जाती है और यह स्वाभाविक है। मगर मैं बस इतना कहना और पूछना चाहती हूँ, कि जो लोग किसी से कोई उम्मीद रखते हैं, वही लोग खुद भी कभी औरों की उम्मीदों पर खरे उतरने का प्रयास क्यूँ नहीं करते ? क्यूँ लोग आगे बढ़कर अपनी पत्नी से यह पूछने में हिचकिचाते हैं कि तुम्हारी क्या इच्छा है।

कभी आप लोग जानकर तो देखिये आपकी अपनी बहू-बेटी की इच्छा क्या है वो क्या चाहती हैं। तो शायद आपको पता चल सके कि इतने सारे रिश्तों की मान मर्यादा को ध्यान में रखते हुए सभी की उम्मीदों और इच्छाओं को पूरा करने की जी तोड़ कोशिश करती हुई एक औरत मात्र केवल इतनी सी इच्छा और उम्मीद रखती है, कि उसका जीवनसाथी उसकी भावनाओं को समझे, उसे समझे, उससे प्यार करे उस पर विश्वास करे, जीवन में हर कदम पर उसका साथ निभाये, उसके आत्मसम्मान को अपना आत्मसम्मान समझ कर चले, उसके परिवार वालों को भी उसके ससुराल में उतना ही मान सम्मान मिले जितना वो आपने सास-ससुर को देती है। उसका पति भी उसके परिवार में दामाद की हैसियत से नहीं, बल्कि बेटे की हैसियत से उसके परिवार अर्थात उसके मायके के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर सके। बस.....तो क्या एक औरत को इस समाज से, अपने परिवार से इतनी भी उम्मीद रखने का कोई हक़ नहीं है ?

ऐसा नहीं है कि यह सारी उम्मीदें एक पति को अपनी पत्नी से नहीं होनी चाहिए। लेकिन मेरे कहने का मतलब बस इतना है, कि यदि इन उम्मीदों के पूरा होने से आपके जीवन में खुशहाली आती है। तो इन्ही उम्मीदों को पूरा करने से भी आपके और आपकी पत्नी के बीच आपके रिश्ते को मज़बूती, प्यार और विश्वास जैसी अमूल्य भावनायें मिलेंगी जिससे आपका रिश्ता जीवन की खुशियों से भर जाएगा। ज़रा एक बार प्यार और विश्वास से अपने जीवनसंगिनी की तरफ हाथ बढ़ा कर तो देखिये.... जय हिन्द....      

Tuesday 18 October 2011

प्यार इश्क़ मोहब्बत और दोस्ती एक प्यारा सा बंधन ....



आज बस लिखने का मन कर रहा है. मगर क्या लिखूँ और कहाँ से शुरुवात करूँ मेरी समझ में नहीं आ रहा है।  एक बार को ख़याल आया कि क्यूँ ना आप सब लोगों से ही पूछ लिया जाये कि आज कोई विषय बताओ जिस पर मैं कुछ लिख सकूँ। फिर सोचा आप लोग भी क्या सोचेंगे कैसी लड़की है, अपनी पोस्ट के लिए भी दूसरों से विषय चुनने को कहती है। तो फिर यह सब सोच कर मेरा इरादा बदल गया। मगर अब भी सवाल वही है कि लिखूँ तो आखिर क्या लिखूँ। किस विषय में लिखूँ। यूँ तो हमारे समाज में समस्याओं की कोई कमी नहीं है, एक ढूंढो हजार मिल जायेंगी। मगर वैसा कुछ लिखने का मूड नहीं है।

तो फिर वही सवाल कि आखिर क्या लिखा जाये, जिसे लिखने में भी मजा आये और पढ़ने वालों को भी मजा आये। हालाँकि यह कोई ज़रूरी नहीं है कि मुझे जिस विषय पर लिखने में मजा आये या आ रहा हो, आप सभी को भी वह विषय उतना ही पसंद आये। यही सब सोचते-सोचते आज एक बहुत पुरानी सहेली से फोन पर बात हुई। हमेशा की तरह कॉलेज के दिनों की यादें ताज़ा हुई बहुत मज़ा आया और तब याद आया की प्यार और दोस्ती से अच्छा और कौन सा विषय हो सकता है लिखने के लिए J

आज उन दिनों को याद करके लगता है, कि वो भी क्या दिन थे जब किसी बात की कोई चिंता ही नहीं थी जीवन में बस खाना पीना मौज मस्ती हँसी मज़ाक यही ज़िंदगी हुआ करती थी। हम उस वक्त कैसी-कैसी शरारतें और बेवकूफ़ियाँ किया करते थे। जिन्हें याद करके आज हँसी भी आती और कभी-कभी शर्म भी,J हमें उस वक्त ज़रा भी यह एहसास नहीं होता था, कि आगे जाकर जीवन में इन बातों को याद करके कभी हँसी भी आयेगी, क्योंकि उन दिनों तो ऐसी बातों में बहुत संजीदगी से हुआ करती थी। फिर यूँ ही बातों ही बातों में बात निकली "टीन एज"  की, "टीन एज" भी क्या उम्र होती है जब अपनी गिनती उन दिनों न बच्चों में होती और ना ही बड़ों में, उस वक्त ऐसा लगता है कि अब हम बड़े हो गये है, हम अपने फ़ैसले खुद कर सकते हैं,  हमको भी अच्छे बुरे का फर्क समझ आता है। मगर हमारे माता-पिता हमें कभी बड़ा समझते ही नहीं, खास कर उन दिनों में तो ज़रा भी नहीं। क्योंकि वैसे देखा जाये तो माता-पिता के लिए उनकी संतान खुद कितनी भी बड़ी क्यूँ न हो जाये, मगर उनके लिए उनके बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं। 

खैर हम बात कर रहे थे "टीन एज" की मुझे ऐसा लगता है कि उन दिनों सभी के अनुभव लगभग एक से ही होते होंगे। जैसे यदि आज के दौर के हिसाब से कहा जाये तो, लड़के सब अपने आप को "सलमान खान" समझते हैं और लड़कियाँ खुद को एश्वर्या राय J या यूँ कहिए कि अपने-अपने दौर के हिसाब से जो भी जिसका पसंदीदा सितारा हो, वो खुद को उन दिनों उनसे कम नहीं समझते पहली बार जब प्यार का एहसास होता है, जो कहने भर के लिए महज़ प्यार हो, मगर वास्तविकता में केवल एक दूसरे के प्रति आकर्षण मात्र ही होता है। क्योंकि उन दिनों किसी में प्यार को समझ पाने की समझ ही कहाँ होती है। पता ही नहीं होता कि प्यार किस चिड़िया का नाम है। फिल्मों में दिखाया गया प्यार ही उस वक्त सबके दिमाग में घुसा होता है और उस ही को सभी लोग सच समझते है। मगर आज कल तो इस पहले-पहले मीठे से प्यार की परिभाषा और एहसास भी शायद बदल गये हैं। खैर मगर प्यार तो प्यार ही है, फिर चाहे वो दौर “एक मुसाफ़िर एक हसीना” से लेकर “हम दिल दे चुके सनम” या “कुछ-कुछ होता है” तक का सफर ही क्यूँ ना हो या आप अभी आज कल की कोई प्रेम कहानी पर आधारित फिल्म का नाम भी सोच सकते हैं।मुझे कोई आपत्ति नहीं है J मगर भावनायें सभी की एक सी ही होती है।  

पहली-पहली बार जब कोई किसी के सामने अपने प्यार का प्रस्ताव रखता है, जो भले ही क्षण मात्र का क्यूँ ना हो, मगर उस एक पल में लड़की खुद को दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की और लड़का खुद को दुनिया का सबसे दिलेर और दबंग लड़का महसूस करता है।जिसके चलते दोस्तों में शान बढ़ जाती है। लड़कीयों में कुछ इस प्रकार की बातें होती हैं, कि आज किस को कितने लोगों ने प्रपोज़ किया। तो वहीं दूसरी और लड़कों में  भी कुछ इस ही प्रकार की बातें होती हैं, आज किसने कितनी लड़कीयों को प्रपोज़ किया। J फिर कहीं, कभी भूले-भटके, कभी किसी प्यार के प्रस्ताव को सुनकर ऐसा लगता है कि अब बस यही है वो और कोई दूसरा हो ही नहीं सकता, जो हम से इतना प्यार कर सके। उस प्यार के आगे सारी दुनिया झूठी और सिर्फ एक वो इंसान ही सच्चा लगने लगता है। यहाँ तक कि खुद के परिवार वाले भी सब दुश्मन नज़र आने लगते है। J 

दिन रात उठते- बैठते बस उसी का ख़्याल, आज उसने क्या किया, क्या बोला, क्या कहा, चारों और बस वही एक इंसान नज़र आता है। उसके द्वारा की हुई तारीफ़ ही कानों में गूँजती रहती है। अपने आप पर ही लोग फ़िदा रहते हैं।J उस वक्त ऐसा लगता है जैसे हमसे ज्यादा और कोई खूबसूरत इस दुनिया में है ही नहीं, वो कागज़ पर और हथेलियों पर अपने उस प्रेमी या प्रेमिका का नाम लिख-लिख कर निहारना, तो कभी यूँ ही सब के साथ होते हुये भी दूसरी दुनिया में खोए रहना, दुनिया नई-नई सी लगने लगती है। पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते, पढ़ाई में मन नहीं लगता। भूख प्यास जैसे खत्म ही हो जाती है। 

मगर तब भी कभी यह एहसास नहीं होता कि यह प्यार नहीं केवल एक आकर्षण है। हाँ माना कि प्यार की पहली सीढ़ी भी आकर्षण ही होती है। मगर बहुत कम लोग होते हैं, जिन्हें उन दिनों सच्चा प्यार मिल पाता है। अधिकांश लोगों के लिए तो बस मौज मस्ती के दिन ही होते हैं। मगर तब उनको खुद भी इस बात का एहसास नहीं होता कि यह सब मौज मस्ती है, और सब कुछ ऐसा लगता है कि बस यही जिंदगी है यदि अपना -अपना जीवन साथी वही नहीं मिला जिसे पसंद किया है तो बस दुनिया खत्म, उस समय जाने क्यूँ यह बात दिमाग में आती ही नहीं कि "और भी ग़म है ज़माने में मोहब्बत के सिवा"J वो चुपके-चुपके घर वालों से झूठ बोलकर मिलने जाना, कॉलेज से छुट्टी मारना, डरते-डरते बाज़ार में साथ-साथ घूमना कि कहीं कोई देख ना ले, गाड़ी चलाते वक्त पूरा चेहरा दुपट्टे से ढाँक कर चश्मा लगा कर जानबूझ कर घूमना ताकि गलती से भी यदि कोई देख भी ले तो पहचान न पाये और यदि पकड़े गए तो फिर अच्छी तरह "धूल झड़ती है" अर्थात जम के डांट पड़ती है और कभी-कभी नौबत मार तक भी आ जाती है। J खुद की सफ़ाई देते-देते या तो सामने वाले पर सारा दारोमदार डाल दिया जाता है या फिर बेचारे दोस्तों की भी शामत आती है। क्योंकि ऐसी मुसीबत की घड़ी में यदि कोई ख़ुदा से भी पहले याद आता है तो वो होते हैं दोस्त। 

एक वही होते हैं जो इन मुसीबत के क्षणों में अपनी जान पर खेल कर हमारी जान बचा पाते हैं। फिर चाहे उसके बदले में उनको भी हमारे घर वालों से अच्छी ख़ासी डाँट क्यूँ ना खानी पड़े। कितनी भी धमकियाँ क्यूँ ना सहनी पड़े। कि दुबारा ऐसा कुछ हुआ तो तुम लोगों कि दोस्ती खत्म वगैरा-वगैरा.....मगर वो उस क्षण हमें उस घड़ी से निकाल ही लाते हैं। "तभी तो दोस्ती को यूँ हीं थोड़ी उम्र भर का रिश्ता कहा जाता है"। सच्चे दोस्तों की दोस्ती हमारे जीवन का वह अनमोल खजाना है जो कभी खत्म नहीं होता और उनकी महक सदा हमारे जीवन को यूँ ही महकाती रहती है। उस आकर्षण वाले पहले-पहले प्यार में मिलने-जुलने में भी आगे आकर सहायता करने वाला भी यदि कोई होता है, तो वह हैं दोस्त। उस प्यार में दिल टूट जाने के बाद जब हम बहुत दुखी होकर खुद को बहुत अकेला तन्हा महसूस करने लगते हैं तभी भी हमारा दिल बहलाने वाला हमको हौंसला देने वाला भी अगर कोई होता है तो वो है आपका दोस्त। सच्चे प्यार को कामयाब बनाने में यदि कोई सबसे पहले आपका साथ निभाता है, तो वह भी होते हैं आपके दोस्त और वो ज़माना गुज़र जाने के बाद यदि उस वक्त की उन एहसासों की महक को ज़िंदा रखने वाला भी यदि कोई होता है, तो वो भी केवल आपके दोस्त ही तो होते है। सच कितना गहरा और प्यारा सा संबंध होता है, दोस्ती इन तीनों में जिन्हें हम इन नामों से जानते है प्यार, इश्क़, मोहब्बत और दोस्ती। J      

Thursday 13 October 2011

एक बार फिर हैवानों की हैवानियत ने किया इंसानियत को शर्मसार ....


आप सभी को याद हो अगर तो मैंने बहुत दिनों पहले एक पोस्ट लिखी थी। जिसका शीर्षक था मरती हुई भावनायें। आज यह तस्वीर जो आप ऊपर देख रहे है उस को देखकर तो मुझे लगा कि मरती हुई भावनायेँ कहना गलत होगा। बल्कि मर गई भावनायें ज्यादा ठीक लगता है। क्योंकि यदि कहीं किसी कोने मे थोड़ी बहुत भी ज़िंदा होती किसी के अंदर कोई भावना तो आज इस मासूम की यह हालत न होती, जो है। जब से यह तस्वीर देखी है और इस के बारे में पढ़ा है। "तब से अंदर से एक आह!!! एक चीख़ सी निकलती है" कि कोई कैसे कर सकता है फूल से भी ज्यादा कोमल इस बच्ची के साथ यह दुर्व्यवहार, ऐसा घ्रणित कार्य करते वक्त करने वाले के हाथों ने कैसे किया यह गंदा काम? क्या एक बार भी उसकी अंतर आत्मा ने उसे नहीं रोका या उसे सोचने पर मजबूर नहीं किया कि वो जो करने जा रहा है वो कितना बड़ा पाप  है ? कितना बड़ा अधर्म है ? 

छि छि छि.... मुझे तो शर्म आती है, कि मैं एक ऐसे समाज का हिस्सा हूँ, जहाँ इतनी आधुनिकता आने के बाद भी लड़कीयों की यह दुर्दशा की जा रही है। कितना और गिरेगा अब इंसान कितनी बार इन हैवानों की वजह से शर्मसार होती रहेगी इंसानियत। यूँ ही चलता रहा अगर, तो वो दिन दूर नहीं जब बिना किसी ऐसे पाप को अंजाम दिये भी हर इंसान या तो दुबारा इंसान ना बनने की इच्छा रखने लगेगा या फिर शायद सभी के अंदर से यह इंसानियत नाम का शब्द हमेशा के लिये मिट जायेगा। क्या आप जानते है, क्या किया गया है इस मासूम के साथ, जानेगे तो यक़ीनन आपको भी इस बात पर शर्म ज़रूर आयेगी कि आप भी उसी गंदी, बदबूदार, निहायत ही छोटी और संकीर्ण मानसिकता रखने वाले समाज का एक हिस्सा हैं। यह बच्ची कूड़ेदान से बरामद हुई है और इसके शरीर पर आपको जो यह छोटे-छोटे लाल निशान दिखाई दे रहे है वह चींटियों के खाये जाने के निशान है। ज़रा सोचिए कितना दर्द हुआ होगा उस मासूम को उस वक्त, कितना रोई होगी वो मासूम मगर उसकी दर्द भरी चीखें किसी ने न सुनी, अरे जब हम बड़े एक छोटी सी लाल चींटी के काटने कि वजह से तिलमिला जाते है। तो इस मासूम का क्या हाल हुआ होगा।

दिल रो रहा है मेरा...
L इस फूल की यह हालत देखकर इससे ज्यादा मैं और कुछ नहीं कह सकती। मेरी हाथ जोड़ कर उन सभी अभिभावकों से बिनती है। कि यदि आपको लड़की नहीं चाहिए, तो पैदा भी मत कीजिये please. क्यूँकि यूँ पैदा करके उसे निर्दयता से जानवरों और कीड़े-मकोड़ों के हवाले करने से तो अच्छा है कि आप उसका जीवन यूँ ही खत्म कर दें। "जी हाँ मैं जानती हूँ कि मैं जो कुछ भी कह रही हूँ वह सरासर गलत है। मैं खुद उसके खिलाफ हूँ। मगर इस मासूम की यह ह्रदय विदारक घटना और तस्वीर को देखने के बाद, उसके बारे में जानने के बाद मैं यही कहूँगी कि पैदा होने के बाद किसी मासूम के साथ ऐसा हैवानियत का खेल खेलने से तो अच्छी है भूर्ण हत्या। मैं बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ कि जो कुछ भी मैंने कहा या लिखा है वो सब गलत है। ऐसी समस्या का यह कोई हल नहीं हुआ। मगर जो इस मासूम के साथ लोगों ने किया। उसको मद्देनज़र रखते हुए जो मुझे ठीक लगा मैंने कह दिया।

और क्या कहूँ आगे आप खुद ही समझदार हैं। ज़रा सोचिए वो मासूम भी आपकी तरह एक इंसान है जिसके सीने में भी दिल है, जज़्बात है। उसे भी दर्द और तकलीफ़ होती है। जागो और अपनी अंतर आत्मा को सुनो, क्या कहती है वो, यूं न उसे मारकर, अनसुना करके अपने घर कि लक्ष्मी को ठुकराओ क्या पता जो आज है, कल हो न हो और तुम यूँ ही बेटे की लालसा में दोनों से हाथ धो बैठो फिर न तुम्हें लक्ष्मी मिले न विष्णु ....जय हिन्द ....  
                           

Tuesday 11 October 2011

विनम्र श्रद्धांजलि



क्या कहुँ, कहाँ से शुरुवात करुँ कुछ समझ नहीं आ रहा है ,कि कैसे ब्यान करूँ इस झटके को जो न सिर्फ मेरे लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए किसी सितम से कम नहीं, मुझे तो अब भी यक़ीन नहीं हो रहा है। जब से खबर मिली थी, कि ब्रेन हेमरेज जैसी बीमारी के चलते उनकी हालत गंभीर है। तो कहीं मन में एक आस थी कि चाहे कुछ भी हो ठीक हो जायेगे वो, मगर मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, कि यूँ अपने सबसे पसंदीदा गज़ल  गायक के नाम एक पोस्ट लिखूँगी वो भी उस महान हस्ती को श्रद्धांजलि अर्पण करने हेतु 10 अक्तूबर 2011 वो दुःखद दिन था। जिस दिन एक महान और बेहद उत्तम गजल गायक जिनको किसी तरह के परिचय की जरूरत ही नहीं, हमारे बीच नहीं रहे  “चिट्ठी न कोई संदेश जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गये” उस गुणी शख़्स का नाम था "जगजीत सिंह जी" हाँ दोस्तों मैं उस ही महान गायक जगजीत सिंह की बात कर रही हूँ। जिन्होंने हर दिल पर राज किया और हमेशा करते रहेंगे। आज उनकी याद में उनको एक गीत भेंट करने का दिल कर रहा है मेरा, किनारा फ़िल्म का वो गीत जिसे लिखा “गुलज़ार साहब” ने था और गाया “लता मंगेश्कर” जी और “भूपेन्द्र जी” ने था। 

नाम गुम जाएगा 
चेहरा ये, बदल जायेगा 
मेरी आवाज़ ही, पहचान है 
गर याद रहे 
वक्त के सितम, कम होते नहीं 
आज है यहाँ 
कल कहीं नहीं, 
वक्त से परे अगर मिल गये कहीं 
मेरी आवाज ही पहचान है 
गर याद रहे
http://www.youtube.com/watch?v=SacjWdFLdJM&feature=related
कृपया इस लिंक को क्लिक कर के यह गीत ज़रूर सुनें मुझे खुशी होगी
धन्यवाद 

हांलांकी  यह संगीत की दुनिया का वह नाम है, जो कभी गुम ही नहीं सकता। मगर फिर भी इस वक़्त जो भी मैंने महसूस किया लिखा दिया। काश मुझे भी एक मौका मिला होता उनके सामने बैठ कर सुनने का, मगर अफसोस कि मेरे नसीब में वो एक भी खुशगवार शाम ना थी, और न अब कभी होगी। जिसके बारे में हिंदुस्तान का बच्चा–बच्चा जानता है, पहचानता है, उसके बारे में और क्या कहूँ?

"जगजीत सिंह" गजल गायकी और संगीत की दुनिया का वो नाम है। जिसने गजल गायकी को एक नई दिशा प्रदान की थी और जैसा सभी जानते हैं कि उन्होने गज़लों को खास महफ़िलों में से निकाल कर एक आम आदमी के मध्य रखा और जैसा कि "शिखा जी" ने आपने ब्लॉग में बहुत  सार्थक शब्दों में  कहा है की दुनिया का कोई भी संगीत प्रेमी उनके इस ऋण से उऋण नहीं हो पाएगा यह शब्द भले ही शिखा जी के हैं मगर मैं उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ।  क्यूंकि हर दिल जो उन्हे पसंद करता आया है वह यह बात अच्छी तरह से जानता भी है और मानता भी है। मेरा ऐसा मानना है कि अपने-अपने कॉलेज के दिन में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसने "जगजीत सिंह जी" कि गज़लों और गीतों को, न गुनगुनाया हो या न सुना हो, कॉलेज के दिनों की बात, मैंने इसलिए कही क्यूँकि वही वक्त ऐसा होता है जब ऐसी बातें समझ में आना शुरू होती है।

उसके पहले तो गजल शेर और शायरी जैसी बातें समझ पाने की किसी में समझ ही कहाँ होती है। यह तो आप और हम सभी जानते है कि जगजीत सिंह जी ने गजल गायकी को जो मक़ाम दिया वो शायद ही उनके पहले किसी ने दिया हो। ज़ाति तौर पर दुःखी रहने वाला वह महान इंसान और गायक, जो अंदर से दुखी होते हुये भी अपने आवाज के दम पर औरों को खुश कर दिया करता था। जो यूँ ही किसी भी आम इंसान के बस की बात नहीं, बहुत हिम्मत चाहिए। मगर दुनिया और वक्त किसी के लिए कब रुका है। वक्त का पहिया हमेशा चलता रहा है और चलता रहेगा।

show must go on  

ऐसे महान इंसान और एक बेहतरीन गायक को मेरे जैसे हजारों गजल और संगीत प्रेमियों की और से अश्रुपूर्ण  विनम्र श्रद्धांजलि ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे। 

Sunday 9 October 2011

मेंचेस्टर दीवाली दशहरा महोत्सव 2011

कल यानी 8 अक्तूबर को यहाँ मेंचेस्टर में विजयदशमी और दीवाली महोत्सव मनाया गया जिसका नाम दशहरा दीवाली महोत्सव मेला 2011 था, यहाँ पहली बार हम लोगों ने विजयदशमी पर्व का इतना हँगामा देखा। इसे पहले दीवाली महोत्सव के बारे में तो बहुत सुना, पढ़ा और देखा था और इस पूरे महोत्सव में मुझे जो सबसे अच्छी बात लगी वो यह थी कि इस पूरे महोत्सव का पूरा ख़र्चा वहाँ की काउंसिल ने उठाया था।
विदेश में भारतीय पर्व पर यहाँ की कोई काउंसिल हर साल पूरा ख़र्चा उठाती है, सुनकर ही मुझे तो बहुत हैरानी हुई थी और न सिर्फ खर्च बल्कि अँग्रेज़ बच्चों के द्वारा बनाये हुए कागज़ के केंडल की परेड के द्वारा प्रदर्शनी भी थी। अँग्रेज़ों ने हमारे पर्व के लिए इतना कुछ किया, सोचो तो यक़ीन नहीं होता। आप भी यक़ीन न करें शायद मगर यह सच है उस पूरी परेड में पूरे अँग्रेज़ बच्चे ही थे। एक भी हिंदुस्तानी नहीं था। कम से कम मुझे तो कोई नहीं दिखा।
पहले तो जब हम यह मेला देखने उस मैदान में पहुँचे तो लग रहा था कि मौसम खराब होने के कारण शायद पूरे मेले का मज़ा किरकिरा हो जाएगा। मगर वहाँ मौजूद आर्केस्टा वालों ने और खाने पीने के स्टाल वाले लोगों ने ऐसा समा बाँधना शुरू किया कि लोग बारिश बिजली पानी सब भूल गए और देखते-ही देखते इतनी भीड़ जमा हो गयी कि पूछो मत और इतनी तेज़ बारिश के बावजूद भी लोगों ने खुल कर पूरे उत्साह के साथ एक मेले और इस पर्व का भरपूर आनंद उठाया, जिसमें से हम भी एक थे।

जैसा कि मैंने आपको बताया कि जब हम मैदान (Platt Fields Park) में पहुँचे तो सबसे पहले हम सबकी निगाहें रावण को देखने के लिए उत्सुक हो रही थी कि इतनी बारिश में कैसा बना है यहाँ का रावण और इतनी बारिश के चलते जल भी पायेगा या नहीं, रह-रह कर बस हम सब के दिमाग में यही प्रश्न घूम रहा था। मगर जिस दूरी पर हम थे वहाँ से हम में से किसी को भी रावण नज़र ही नहीं आया, एक ने किसी और चीज़ को ही रावण समझ कर सब को बताया कि वो देखो गुलाबी और नीले रंग का जो दिख रहा है वही रावण है। मगर जब हम वहाँ उस नीली गुलाबी से दिखने वाली छवि के पास पहुँचे तो देखा कि वो रावण नहीं बच्चों के झूलों का विभाग था। ऐसे ही घूमते-घूमते एक जगह नज़र पड़ी तब समझ आया कि इस साल recession के चलते और हमारे यहाँ जो सरकार ने गरीबी रेखा अंकित की है 32 रुपये उसको मद्दे नज़र रखते हुए तो बेचारा यहाँ का रावण भी उस ग़रीबी रेखा के नीचे आ गया और इसलिए यहाँ वालों उस बेचारे का पूरा शरीर न बनाते हुए केवल उसके दस सर ही बनाए।

खैर उसके बाद सब की नज़र गई एक सफेद लगे हुए बड़े परदे पर जिसे देख कर सको लग रहा था की हो न हो यह इसलिए लगाया गया है ताकि जो लोग दूर खड़े हैं उनको इस परदे के माध्यम से रावण दहन दूर खड़े रहकर भी दिख सके, अब खाना पीना हो जाने के बाद बारिश का पानी और तेज़ हो चुका था और हम लोग अपनी-अपनी छतरियाँ बाहर गाड़ी में ही भूल आये थे और यदि लेने जाते तो शायद तब तक रावण दहन का कार्यक्रम ही खत्म हो जाता। अब सिवाय भीग जाने के हमारे पास और कोई दूसरा चारा भी नहीं था। भीड़ भी बहुत थी यह भी एक तनाव था साथ में जो बच्चे हैं वो कहीं इधर उधर न जो जायें। मगर यह ग़नीमत थी कि सभी बच्चे वॉटर प्रूफ जेकिट्स पहने हुए थे तो कम से कम उनके भीग जाने का डर नहीं था क्यूँकि यहाँ के मौसम के हिसाब से बारिश हो जाने के वजह से कल रात को 8 बजे बहुत ज्यादा ठंड बढ़ गई थी।

खैर अब कार्यक्रम शुरू हुआ जिसमें एक महिला साड़ी पहन कर सजधज कर एक स्टेज पर आई और उसने अपना परिचय देते हुए अँग्रेज़ी में बताया कि वह कौशल्या है। राजा दशरथ की पत्नी और भगवान राम की माँ और फिर शुरू हुई, बहुत ही प्यारी और अदबुध न्रत्य-नाटिका जो की उस बड़े सफेद परदे पर न्रत्य के माध्यम से दिखाई गई। जिसके अंतर्गत दो लोगों ने भगवान राम और माता सीता के पात्र का अभिनय किया और रानी ने उस दौरान पूरी रामायण की मुख्य कथा को बहुत संक्षिप्त शब्दों में और बहुत ही कम समय में अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से लोगों के समक्ष बहुत ही खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया।

इतना ही नहीं इस सब में जो सब से ज्यादा खूबसूरत बात मुझे जो लगी वह थी कि जब–जब रामायण की उस कथा में कुछ ऐसा क़िस्सा आता था, जिसमें जोश की भावना जागृत होती हो तब-तब आस-पास बॅक ग्राउंड संगीत के साथ आतिशबाज़ी भी चला करती थी। जैसे लंका दहन के वक्त एक छोटी सी लंका भी बनाई गई थी, जिसे बाक़ायदा जलाया गया। कहानी के खत्म होने बाद हुआ रावण का दहन, जो छोटा होते हुए भी इतनी तेज़ वर्षा के बाद भी, अपनी पूरी आन–बान और शान के साथ बड़ी खूबसूरती से जला और उसके बाद जो आतिशबाज़ी हुई है उसका तो कहना ही क्या पूरा कार्यक्रम समाप्त होने के बाद लगा कि यूँ इतनी देर पानी में भीगना भी बुरा नहीं लगा जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता। यह सारा, सब कुछ मैं कभी शब्दों में ब्यान कर ही नहीं सकती जितनी खूबसूरती से मैंने कल देखा था।

और इस तरह दशहरा और दीवाली की शुभकामनायें देने के साथ ही इस मेले का और इस महोत्सव का समापन हुआ।

Friday 7 October 2011

बस यूँ हीं, कुछ कही अनकही भावनायें.....


कल मैंने “कौन बनेगा करोड़ पति” का दूसरा मौक़ा के एक अंक का एक एपिसोड देखा। जिसमें एक ऐसी महिला को खेलने का मौक़ा दिया गया था। जिसके पति पुलिस विभाग में काम करते हुए शहीद हो गए थे। इस खेल के दौरान उस महिला ने जिस तरह से अपने मन की बातें और अपने पति से जुड़ी यादों के बारे में बताया वो सब कुछ मुझे बहुत ही मार्मिक लगा। एक औरत का अपने पति के लिए इतना प्यार और सम्मान देखकर बहुत अच्छा लगा। ख़ास कर जब उसने यह बताया था, कि वह रात को अपनी बेटी और अन्य घर के सभी सदस्यों के सो जाने के बाद डायरी लिखती है। जिसमें वह दिन भर की सारी बातें लिखा करती है, कि दिन भर में आज क्या-क्या हुआ। उसकी ढाई साल की बेटी की सारी गतिविधियाँ कि आज उसने क्या क्या-क्या किया वगैरा-वगैरा। उसकी इस बात को सुनकर इस कार्यक्रम के होस्ट, माननीय श्री अमिताभ बच्चन जी ने उस महिला को आग्रह किया कि आगे जाकर आप अपनी इस डायरी को पब्लिश ज़रूर कर वाइयेगा क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है, कि आपकी इस डाइरी में कोई न कोई ऐसी संवेदनशील, या भावनात्मक बात ज़रूर होगी जिसे हमारे देश की जनता ज़रूर पढ़ना चाहेगी, खास कर मैं तो ज़रूर पढ़ना चाहूँगा। :)  

इस कार्यक्रम के चलते उस महिला ने यह भी बताया कि वो इसलिए यह डायरी लिखती है क्यूँकि डायरी लिखते वक्त उसे यह महसूस होता है कि वह अपने पति से बातें कर रही है और जैसा आम परिवारों में होता है, हमारे और आपके साथ भी कि सुबह से शाम तक अपने-अपने कामों की व्यस्तता के चलते जब हम शाम को या रात को कुछ पल अपने जीवनसाथी के साथ बैठ कर बातें करते है। जिसे हमको अपने जीवनसाथी के साथ बैठकर बातें करने का मौक़ा तो मिलता ही है, साथ-साथ उस एकांत और शांति पूर्ण माहौल में बातें करने से मन को भी सारे दिन की भाग दौड़ और थकान के बाद बहुत सुकून और शांति मिलती है, एक दूसरे की परेशानी समझने का मौक़ा मिलता है। जिसके माध्यम से आपसी रिश्ते को बहुत गहरी मज़बूती मिलती है, हौसला मिलता है।

खैर मुझे लगता है मैं विषय से भटक गई हूँ। :) मैं उस महिला की बात कर रही थी जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है। मुझे उस महिला का नाम ठीक से याद नहीं है उसके लिए माफ़ी चाहती हूँ। यह सब बताने का मेरा मुख्य उदेश्य यह था कि हमारे देश में न जाने कितने ही ऐसे परिवार हैं जिनके सपूतों ने अपने देश की आन–बान और शान को बनाये रखने के लिए कुर्बानियाँ दी हैं। उन सभी के परिवार में सभी सदस्यों की कुछ ऐसी ही कहानी होगी शायद, मगर हर किसी के जीवन में परिवार के साथ-साथ एक खास इंसान की एक खास जगह होती है  और वह जगह या तो पत्नी की होती है, या फिर महबूबा की होती है। :)  है ना!!! जैसा कि उस महिला ने बताया था। इस खेल के माध्यम से जीती हुई राशि से वह अपने शहीद पति की याद में उसकी यादों को ज़िंदगी भर सहज कर रखने के लिए एक कमरा बनवाना चाहती है। जिसमें वह अपने पति की सारी चीजों को बड़े प्यार और सम्मान के साथ संभाल कर, सँजो कर रखेगी। ताकि उसकी बेटी के मन में अपने पिता के लिए प्यार और सम्मान की भावनाओं के साथ-साथ उनकी यादें भी रहे।

ताकि जब उसकी बेटी बड़ी हो, तो अपने पापा को उनकी चीजों के माध्यम से जान सके पहचान सके। बाकी बची हुई राशि भी और अपना सर्वस्व भी वो केवल अपनी बेटी को देना चाहती है। वह अपनी बेटी के अंदर वो सारे गुण और आदर्श देखना चाहती है जो वह अपने पति में देखा करती थी। यहाँ तक की वह अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर IPS आफिसर बनाना चाहती है। आमतौर पर इस विषय को लेकर मेरा जो अनुभव रहा है। उसके तहत  मैंने यह देखा है, कि सामान्यतः पुरुष केवल अपने प्यार का इज़हार सिर्फ और सिर्फ जीवन में एक ही बार करते हैं। जब वो किसी लड़की के समक्ष प्यार का प्रस्ताव रखते है। फिर चाहे वह लड़की उनकी ज़िंदगी में उनकी पत्नी बन जाये तब भी या सिर्फ महज़ गए वक्त की प्रेमिका बनकर रह जाये तब भी, मुझे ऐसा लगता है कि बहुत कम ही लोग ऐसे होते है खास कर पुरुष जो प्रम के अलावा अपनी कोई और भावनाओं को ज़ाहिर करते हैं।

फिर चाहे वह भावनायें प्यार की हों या कोई दर्द ओ ग़म, पुरुष वर्ग ज्यादातर अपनी भावनाओं को छुपाया करता है। वह आसानी से किसी पर अपनी भावनाओं को ज़ाहिर नहीं होने देता। जिसके चलते एक आम राय यह बनी हुई है कि वह लोग बहुत कठोर होते हैं। उन्हें किसी बात का इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना की एक औरत को पड़ता है। उदहारण के तौर पर लड़की की विदाई के समय पिता और बड़े भाइयों को आपने बहुत ही कम रोते देखा होगा। ज्यादातर औरते ही रोती हुई दिखती हैं। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि उन पिता और भाइयों को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। फर्क तो उनको भी पड़ता है, आखिर वो भी तो एक इंसान हैं उन्होने भी तो अपनी बेटी या बहन के साथ बचपन से लेकर विदाई तक का हर लम्हा जिया होता है। मैं तो ऐसा ही मानती हूँ। मेरे हिसाब से किसी भी बात का जितना प्रभाव एक औरत पर पड़ता है, उतना ही एक पुरुष पर भी पड़ता है। बस फर्क सिर्फ इतना ही है, कि औरतें ज़ाहिर कर देती हैं और पुरुष उसे अंदर ही जज़्ब कर लेते हैं। 

बाहर से खुद को कठोर दिखाने में न जाने पुरुषों को कौन सा सुकून मिलता है। मगर होते ज्यादातर लोग नारियल के समान ही हैं बाहर से सख़्त और अंदर से नरम, जाने क्यूँ उनको ऐसा लगता है, कि यदि हमने अपनी भावनायें ज़हीर करदीं तो हम भी कमज़ोरों की श्रेणी में आ जायेगे, पता नहीं लोगों की यह मानसिकता क्यूँ है कि औरत कमज़ोर होती है। उसमें मानसिक दर्द सहन करने शक्ति नहीं होती है इसलिए रोती है। न जाने कब यह सोच बदलेगी ,कभी बदल भी पायेगी या नहीं ? राम ही जाने। लेकिन मैं यह ज़रूर कहना चाहूँगी कि पुरुषों में वो मानसिक पीड़ा या आघात सहन करने कि शक्ति औरतों से कम ही होती है। भले ही वह खुद को कितना भी बहादुर और कठोर दिखाने का प्रयत्न क्यूँ ना करें। इसलिए दिल के दौरे से मरने वाले लोगों में अधिकतर पुरुष ही होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों ही इंसानों को भगवान ने बनाया है और एक सी ही शक्तियाँ प्रदान की है कोई किसी से किसी भी मामले में न कम है और ना ही ज्यादा तभी तो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक बिना दूजा सदैव अधूरा।

खैर यहाँ मेरा मक़सद इस विषय को लेकर स्त्री और पुरुष के मध्य किसी प्रकार का कोई झगड़ा खड़ा करना नहीं है। वो तो बस मेरे मन में बात आई तो मैंने लिख दिया। अंत में तो बस हिन्दी फिल्म के एक गीत कि इन पंक्तियों के साथ बस इतना ही कहना चाहूँगी, कि

“हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िंदगी, 
छाँव है कभी, कभी है धूप ज़िंदगी, 
हर पल यहाँ हंस के जियो, 
जो है यहाँ कल हो ना हो” 

जय हिन्द....



Wednesday 5 October 2011

प्रायश्चित


किसी से कभी, किसी की एक कहानी सुनी थी। आज सुबह जब एक हिन्दी समाचार पत्र देखा तो याद आई वो कहानी इसलिए सोचा की क्यूँ ना आप सबके साथ बाँटू उस क़िस्से को जिसका अंत न तो कहानी सुनाने वाले की समझ में आया की उसे क्या करना चाहिए, और ना ही मुझे की मैं उसे क्या सलाह दूँ। 
वसुधा के परिवार में पिता की बीमारी के चलते उसकी शादी 20-22 साल की उम्र में ही कर दी गई। लड़का और उसका घर परिवार बहुत ही अच्छे लोग थे। शादी के बाद उसकी ज़िंदगी के दिन बहुत हँसी ख़ुशी के साथ गुज़र रहे थे और बेटी की शादी के बाद उसके पिता का स्वास्थ भी ठीक होने लगा था। शादी के 3 साल बाद वसुधा ने एक बेटे को जन्म दिया। बड़ा ही प्यार बेटा है उसका, दिन, महीना, साल, यूही बीत रहे थे। अचानक शादी के सात-आठ साल बाद वसुधा के ही एक परिवार का सदस्य उसकी ज़िंदगी में आया उस सदस्य का क्या रिश्ता था वसुधा से यह मैं यहाँ बता कर उस रिश्ते को कलंकित नहीं करना चाहती। वसुधा उसकी और खिचती चली गई।  जैसे आँधी अपने साथ किसी पत्ते को उड़ा ले जाती है। ठीक वैसे ही वसुधा उसके प्यार में ना चाहते हुए भी उड़ती चली जा रही थी। उसका मन उसकी आत्मा उसे अंदर से कह भी रहे थे, कि नहीं जो तुम कर रही हो वो ठीक नहीं है, मगर प्यार के आगे दिमाग की चलती ही कहाँ है। प्यार के अंधे पन में लोग अकसर जो भूल कर बैठते हैं वही भूल वसुधा से भी हुई, इस सब के चलते वो उस सदस्य के प्यार में वो सब कुछ कर गई जो उसे नहीं करना चाहिए था। वो भी एक नहीं कई बार समय अपनी गति से बीत रहा था। एक दिन आया जब उस सदस्य की शादी किसी और लड़की से हो जाती है। तब वसुधा मन ही मन यह निश्चय करती है कि अब उसकी इस प्रेम कहानी का यही अंत है।  
उसके बाद वसुधा को होश आया की उसने जो किया वो बहुत बुरा किया, गलत किया। अपने देवता समान पति को धोखा दिया है उसने, अपने उस पति के साथ विश्वासघात किया उसने, जो उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता था। आँखें बंद करके उस पर विश्वास किया करता था। ऐसे साफ दिल इंसान के साथ इतना बड़ा धोखा, इतना बड़ा विश्वासघात करके वो भी अब खुश नहीं थी। उसके भी समझ में नहीं आ रहा था कि अब वो क्या करे उसकी आत्मा ने उसे अंदर-अंदर कोसना शुरू कर दिया था। कभी उसका मन करता था, कि सब कुछ जाकर अपने पति को बता दे, तो कभी दूजे ही पल ख़्याल आता था, कि अपने किए की सज़ा वो आपने परिवार को कैसे दे सकती है। उसे समझ ही नहीं आ रहा था ,कि उसके द्वारा इस किए हुए पापा का प्रायश्चित क्या हो सकता है। उसके मन पर अब इस पापा का बोझ बढ़ने लगा था। एक दिन उसके मन मे आया कि आज तो वह सब कुछ अपने पति को सच-सच बता देगी, आगे वो जो भी उसे सज़ा देगा वही उसका प्राश्चित होगा। 
मगर प्रायश्चित करना इतना आसान नहीं होता जितना कि लगता है। बताने के बाद उसकी सज़ा क्या हो सकती है, इन सब बातों का अनुमान उसे बहुत अच्छी तरह था। तभी उसके दिल ने उससे कहा कि तुम्हें कोई हक़ नहीं बनता कि तुम अपने किए कुकर्मों कि सज़ा उन मासूम और बेगुनाह लोगों को दो, जिन्होंने तुम पर हमेशा सिर्फ प्यार और विश्वास दिखाया है। क्यूँकि उसके इस एक फ़ैसले से न केवल उसकी बल्कि उसे जुड़े हर सदस्य कि ज़िंदगी बगड़ सकती थी। यदि वह अपने आप को उस पाप के बोझ से मुक्त कर के अपने मन को हल्का करने के लिए, अपने पति को सब कुछ सच-सच बता कर प्रायश्चित करने जाती है, तो जाहिर सी बात है, कि उसका पति उसे तलाक देगा। क्यूंकि आखिर है तो वो भी एक इंसान ही, और जब कभी किसी इंसान के साथ इतना बड़ा विश्वासघात होता है। तो ज़हीर सी बात है उस वक्त वो देवता बन विश्वासघाती को माफ तो किसी सूरत में नहीं कर सकता है। 
खैर इस सब के कारण उसके माता-पिता का सर ही नहीं बल्कि उसके ससुराल पक्ष के सभी लोगों का सर भी पूरी दुनिया के सामने शर्म से झुक जायेगा। जिसके चलते यह भी  हो सकता है, कि सदमे के कारण उसके पिता की तबीयत दुबारा खराब हो जाये। या फिर उसका पति भावनाओं में बहकर कोई ऐसा कदम उठा ले जो किसी के लिए हितकर ना हो। आखिर उसका बेटा भी है, इस सबके बाद उसका क्या होगा। इस सब में उस मासूम कि तो कोई गलती नहीं फिर वह क्यूँ इस सब कि सज़ा भूकते। यह सब सोच कर हर बार उसका मन उसके पाँव में बेड़ियाँ डाल देता है और वो चुप रह जाती है। 
अब आपको बताना है कि उसे क्या करना चाहिए। आप सभी को क्या लगता है ? क्या उसे सब कुछ अपने पति को बता देना चाहिए ? या फिर ज़िंदगी भर आपने द्वारा कि हुई इस भूल कि आग में जलते रहकर यह समझ कर कि यही उसका प्रायश्चित है इस आग में ज़िंदगी भर जलते रहना चाहिए ? क्यूंकि मेरा मानना तो यह है कि जिस झूठ से कई लोगों कि ज़िंदगी बर्बाद होने से बच जाये वह झूठ उस एक कड़वे सच से कहीं बेहतर है, जो अपनी कड़वाहट के कारण काइयों कि ज़िंदगी बिगाड़ सकता है।     

Monday 3 October 2011

जलाकर मार देने की घटनाओं में वृद्धि....



कहीं दीप जले कहीं दिल.... आपको लग रहा होगा कि इतने गंभीर मसले पर बात करते हुये भी मुझे फिल्मी गाने याद आ रहें हैं। मगर मैं भी क्या करूँ बात ही कुछ ऐसी है। आपने यह विषय बहुत बार पहले भी पढ़ा, देखा, और सुना होगा। यह कोई नई बात नहीं है। आज हमारे चारों तरफ कोई न कोई जल ही रहा है। किसी का किसी  की सफलता को देख कर जलना, किसी का प्यार में जलना, तो कोई आत्मदाह करके मर जाता है, तो कहीं किसी को जला कर मार दिया जाता है। सिवाय जलन के और कुछ नहीं बचा है, हमारे आस-पास न जाने यह आग कितनों को और जलायेगी। दहेज़ प्रथा के चलते न जाने कितनी मासूम बेटियों और बहुओं को अब तक जला कर मारा जा चुका है और अब भी यह मौत की आग का भयानक तांडव जारी है। ना जाने कब इस दहेज़ के घिनौने रिवाज से हमारे समाज को मुक्ति मिलेगी। 
आज जो हालात हैं, उनको देखते हुए तो ज़रा भी नहीं लगता कि हमको कभी इस घिनौने रिवाज से मुक्ति मिलेगी। कहने को आज हमारे समाज ने, हमारी दुनिया ने इतनी तरक़्क़ी करली है, लोग अब चाँद पर ही नहीं बल्कि अन्य कई ग्रहों पर जाने का मंसूबा रखते हैं। मगर हमारी भारतीय नारी आज भी वहीं हैं जहां कल थी। कहने को आज औरत अपने आप में सक्षम है और किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं है। यह बात कुछ महिलाओं ने साबित भी कर दिखाई है, इसमें भी कोई दो राय नहीं है। मगर एक गाँव में रहने वाली साधारण सी महिला का क्या वो तो आज भी समाज की बनाई उस दहलीज़ पर ही खड़ी है जहां कल खड़ी थी। उससे तो आज भी दहेज़ ना मिलने के कारण या फिर माँग के अनुसार कम मिलने के कारण ज़िंदा जला दिया जाता है और आज भी जलाया जा रहा है। यही सब रोज़-रोज़ पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में भी यह ख़्याल आया कि मुझे भी इस विषय पर कुछ लिखना चाहिए।  
आज भी जब कभी आप कोई हिन्दी समाचार पत्र उठा कर देखो, तो ज्यादा नहीं तो कम से कम एक खबर तो आपको रोज़ ही पढ़ने को मिलेगी की आज फ़लाँ गाँव में फलाना औरत को मिट्टी का तेल डालकर ज़िंदा जला दिया गया। बहुत से ऐसे लोग हैं जो महिलाओं के हक़ के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि उनको इंसाफ़ मिल सके मगर कुछ लोग शायद यह भूल जाते हैं कि हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है और जैसा कि "श्री अन्ना हज़ारे" जी की सोच है, कि वह ग्राम स्वराज्य को भारत के गाँवों की समृद्दि का माध्यम मानते हैं। उनका मानना है कि ' बलशाली भारत के लिए गाँवों को अपने पैरों पर खड़ा करना होगा।' उनके अनुसार विकास का लाभ समान रूप से वितरित न हो पाने का कारण रहा, गाँवों को केन्द्र में न रखना।

व्यक्ति निर्माण से ग्राम निर्माण और तब स्वाभाविक ही देश निर्माण के गाँधी जी के मन्त्र को उन्होंने हक़ीक़त में उतार कर दिखाया और एक गाँव से आरम्भ उनका यह अभियान आज 85 गाँवों तक सफलता पूर्वक जारी है। व्यक्ति निर्माण के लिए मूल मन्त्र देते हुए उन्होंने युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार-विचार, निष्कलंक जीवन व त्याग की भावना विकसित करने व निर्भयता को आत्म सात कर आम आदमी की सेवा को आदर्श के रूप में स्वीकार करने का आह्वान किया है। जो कि अपने आप में एक बहुत ही अहम और महान कार्य की श्रेणी में आता है। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इस सब चीजों के साथ-साथ न केवल गाँव विकास बल्कि लोगों में भी औरतों के प्रति सम्मान और एक इंसान होने के नाते इंसानियत का भाव रखने की जागरूकता को जगाना भी एक बड़ा अजेंडा होना चाहिए।

आज कल इस सब बातों पर आधारित कई कार्यक्रम में भी इस बात पर आधिक ज़ोर डाला जा रहा है कि अब बस बहुत हो चुका नारी पर यह अत्याचार अब और नहीं होना चाहिए। सोनी टीवी पर भी कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम के माध्यम से श्री “अमिताभ बच्चन जी”  भी नारी को प्रोत्साहन देने की बातें किया करते है और एक कार्यक्रम जिसका नाम है "प्रायश्चित्त" उसमें भी आने वाले अंक में एक ऐसे ही शख़्स के बारे में बताया जाने वाला है। जिसने अपनी बीवी को ज़िंदा जला दिया था। एक तरफ एक पढ़ा लिखा सभ्य समाज और दूसरी तरफ  संकीर्ण मानसिकता लिए यह लोग आखिर इस सब का ज़िम्मेदार कोन है? क्या इस समस्या का कभी कोई हल नहीं निकाल सकता है ? क्या हमेशा हमारे देश की मासूम बहू बेटियों के साथ यह अन्याय होता रहेगा। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो हम कभी नारी मुक्ति से जुड़े किसी भी मुद्दे को कभी खत्त्म नहीं कर पायेंगे। फिर चाहे वो दहेज़ प्रथा हो या कन्या भूर्ण हत्या।

क्यूँकि मुझे ऐसा लगता है बल्कि शायद यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि मेरा ऐसा मानना है। जब तक यह दहेज़ की प्रथा खत्म नहीं हो जाती। यह कन्या भूर्ण हत्या जैसा पाप भी हमारे देश से कभी खत्म नहीं हो सकता। क्यूँकि जब तक यह दहेज़ प्रथा चलेगी तब तक लड़कीयों के माँ-बाप अपनी कन्याओं को दहेज़ देना पड़ेगा के डर से यूँही खत्म करते रहेंगे जैसे आज कर रहे हैं। जो माता-पिता ऐसा नहीं करते उनकी बेटियों को दहेज ना दे पाने के कारण या दहेज ना मिलने के कारण आग के हवाले कर दिया जाता है। इस समस्या का सही हल क्या है यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि इन सब मामलों के चलते लोगों में इन बातों के प्रति जागरूकता लाना बेहद ज़रूरी है और वह तभी संभव है जब लोग इन बातों को जाने-समझे। उसके लिए सब से ज्यादा ज़रूरी है लोगों का नज़रिया बदलना, और वो तभी बदल सकेगा जब लोग शिक्षित होंगे।
अंत में चलते-चलते बस इतना ही कहना चाहूँगी कि ऐसा नहीं है, कि केवल अशिक्षित परिवारों मे ही ऐसी घटनायें देखने और सुनने को मिलती है। अपितु पढ़े लिखे वर्ग में भी ऐसी शर्मनाक घटनायें आपको बड़ी आसानी से पढ़ने को मिल सकती हैं। लेकिन इन समस्याओं का मुख्य दायरा आज की तारीख में निम्नवर्ग में ज्यादा सुनने को मिलता है। इसलिए मेरा ऐसा मत है कि शिक्षा ही एक मात्र वो हथियार है जो लोगों की सोच में परिवर्तन ला सकता है। क्योंकि 
"किताबें ज्ञान का वो खज़ाना होती हैं जो दिमाग की बहुत सी बुझी हुई बत्ततियों को खोल देती हैं और इंसान के सोचने का नज़रिया बदल जाता है।" 
 इसलिए जहां तक सम्भव को लोगों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करें जय हिन्द.....                                              

Saturday 1 October 2011

केवल ज़िंदा इन्सानों को ही नहीं मुरदों को भी सुरक्षा की जरूरत होती है!!!


आप सभी को क्या लगता है इस बात में कितनी सच्चाई है। कहने को हम 21 वी सदी में कब का कदम रख चुके हैं। आज विज्ञान ने भी बहुत तरक़्क़ी कर ली है। इस सब के बावजूद भी आज भी हमारे देश का हाल वैसा ही है। अंधविश्वास की सोच को लेकर हमारे देश के लोगों में कोई ख़ासा परिवर्तन नहीं आया है और ना ही सुरक्षा व्यवस्था में, सुरक्षा न तो यहाँ ज़िंदा इन्सानों को नसीब है, ना बेचारे मरे हुए लोगों को खास कर हमारे देश के बच्चे ना तो जीवित रहते हुए सुरक्षित हैं। सच जब भी कभी ऐसे घटनाएँ पढ़ने या सुने मिलती हैं तो इतना गुस्सा आता है कि समझ ही नहीं आता क्या करो क्या न करो। जब भगवान इंसान बना रहा था, तब शायद कुछ इन्सानो के अंदर वह प्रेम ,दया, माफी ,और इंसानियत जैसे जज़्बातों को भावनाओं को डालना ही भूल गया इसलिए शायद इस धरती पर आज भी कुछ ऐसे इंसान है जो दिखते तो हैं इन्सानो जैसे मगर इंसान होने का उनमें कोई गुण शेष नहीं है। पता नहीं यह तांत्रिक लोग किस मिट्टी के बनने होते हैं जिन्हे छोटे-छोटे मासूम म्रत बच्चों पर भी दया नहीं आती। जिसके चलते देश में फैले अंधविश्वास के कारण मरणोपरांत भी उनकी क़ब्रें असुरक्षित हैं। आज कल के आतंकी दौर के चलते बच्चे की सुरक्षा पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह अब भी लगा हुआ है। आये दिन बच्चों के अगवा किए जाने की खबर या मासूम लड़कीयों के साथ दुर्व्यवहार किए जाने की ख़बरें आम हो गई हैं, वही अब मरे हुए बच्चों को भी लोग शांति से सोने नहीं देते। समझ नहीं आता क्या होगा हमारे देश का कब यहाँ इतनी जागरूकता आ पायेगी कि लोग अंधविश्वास से ऊपर उठ कर सोचना शुरू करेंगे। सच ही कहा था किसी ने कि
 "देख तेरे संसार कि हालत क्या हो गई भगवान,
 कितना बदल गया इंसान
आया समय बड़ा बेढंगा 
नाच रहा नर होकर बेढंगा"  

हालांकी हमारे देश में यह अंधविश्वास कि प्रथा कोई नई नहीं है। यह तो सदियों से चली आरही परंपरा के  जैसा रूप लेचुका है, मगर फिर भी,अब यह लगता है कि अब बस बहुत हो गया अब तो जागरूकता आनी ही चाहिए।     घटना राजस्थान स्थित कोटा ज़िले की है। यहाँ एक नवजात शिशु को मरणोपरांत बच्चों के कब्रिस्तान में दफ़नाया गया। दो दिन बाद जब उस मासूम बच्चे के माता पिता बच्चे के प्यार में व्याकुल आपने बच्चे की क़ब्र को देखने वहाँ पहुँचे तो वहाँ उन्होने देखा की उनके बच्चे की क़ब्र ख़ुदी हुई है और उसमें से शव गायब है। किसी जानवर ने शायद ऐसा किया हो सोचा कर उन्होने आस-पास की झाड़ियों में काफी तलाश की मगर उन्हें उनके बच्चे का शव नहीं मिला काफी देर खोज-बीन के बाद भी केवल निराशा ही हाथ लगी, शमशान के आसपास रहने वालों से भी जानकारी लेने के लिए पूछताछ की, लेकिन कोई कुछ नहीं बता पाया। वे मायूस होकर लौट गए। अकसर ऐसी घटनायें ज्यादा तर इन नवरात्रों के दिनों में ही सामने आती है। क्यूँकि बहुत से लोग जादू-टोना, मंत्र-तंत्र जैसी चीजों में मरे हुए बच्चों के शव का इस्तेमाल करते है और काम हो जाने के बाद उन शवों को जानवरों के हवाले कर दिया जाता है। सचमुच में भावनायें मर गई हैं।

इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या बात हो सकती है एक पढे लिखे और सभ्य समाज में रहने वालों के लिए कि आज श्मशानों की यह स्थिति है कि उनमें सुरक्षा के कोई इंतज़ाम नहीं हैं। इन्ही सब कारणों से कई बार शहरवासीयों की भावनायें आहत हो चुकी हैं, बावजूद प्रशासन इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं ले रहा। शहरवासीयों का आरोप है कि तांत्रिक उपयोग के लिए लोग बच्चों के शव निकाल ले जाते हैं अथवा फिर जानवर उन्हें बाहर निकाल कर क्षत विक्षत कर देते हैं।

इन सब घटनाओं के चलते लोगों का कहना है कि ये व्यवस्थायें होनी चाहिए
  • चारदीवारी बनाई जाए और दरवाजे लगाकर सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाई जाएं। 
  • सुरक्षाकर्मी तैनात किए जाएं।
  • बच्चों के श्मशान पर जालियां लगाई जानी चाहिए। 
  • बच्चों के श्मशान पर मिट्टी की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे क़ब्र को ठीक प्रकार से भरा जा सके।