न ना!!! चित्र देखकर कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे हैं ना, कि आज मैं फिर किसी सीरियल की बात कर रही हूँ। यदि ऐसा कुछ है, तो मैं पहले ही बताए देती हूँ, घबराइए नहीं आज मैं किसी सीरियल की बात नहीं करूंगी। आज मैं बात करूंगी हर घर की उस नींव की, जो बेहद मजबूत होते भी बहुत कमजोर मानी जाती है।
क्यूंकि.....उसकी ज़िंदगी में ज्यादा तर सुख बाइ चान्स ही लिखा होता है। किसी भी घर की महिला के लिए, खास कर एक माँ के लिए कभी कोई, संडे नहीं होता। कभी कोई ऐसा दिन नहीं होता, जब वो यह कह सके कि आज मेरी छुट्टी है। आज मैं कोई काम नहीं करूंगी, आज का दिन केवल मेरा अपना दिन है। केवल मेरे लिए है, आज एक दिन मैं केवल वो करूंगी, जो मेरा दिल कहेगा। अब इसके पीछे क्या कारण हो सकता है। मुझे ऐसा लगता है, कि इसके पीछे केवल दो कारण हो सकते हैं। पहला यह कि घर में रहने वाली महिला, चाहे वो कामकाजी महिला हो, या कोई ग्रहणी, उसे सदैव अपने परिवार की फिक्र रहा करती है। इसलिए जब भी कभी छुट्टी का दिन आता है, तो उसे लगता है, कि जीवन की भाग दौड़ के कारण रोज़ तो ऐसा समय मिल नहीं पाता, कि वो अपने परिवार वालों को खुश कर सके। इसलिए संडे के दिन भी एक माँ, एक पत्नी, रोज़ की तरह सुबह जल्दी उठकर अपने परिवार के सदस्यों के लिए उनकी पसंद का नाश्ता बनाती है। नाश्ता ख़त्म होते-होते तक, दोपहर के भोजन का समय हो जाता है। क्यूंकि घर के अन्य सदस्य संडे माना रहे होते हैं इसलिए सुबह देर से उठते हैं, जिसके कारण सारे काम आराम-आराम से किए जाते है और नतीजा सुबह से जल्दी उठकर भी काम में लगी हुई उस घर की गृह लक्ष्मी, की सारी मेहनत पर पानी फिरता रहता है।मगर वो तब भी कुछ नहीं कहती।
हमेशा उसकी बस यही कोशिश रहती है, कि आज छुट्टी का दिन है, तो घर का माहौल भी अच्छा रहे सब खुश-खुश रहें। किसी भी बात से किसी का भी मूड खराब न हो, लेकिन इस सबके बावजूद भी उस स्त्री के बारे में कोई कुछ नहीं सोचता जो संडे के दिन भी अपने सुख की, अपने आराम की परवाह किए बिना दूसरों को खुश करने के प्रयास में लगी रहती है। दूसरा एक कारण यह भी हो सकता है, कि लोग क्या कहेंगे। यह कारण सयुंक्त परिवार की महिलाओं को ज्यादा महसूस होता है। क्यूंकि संयुक्त परिवार में रहने के कारण उस स्त्री से घर के बाकी सदस्यों की उम्मीदें स्वतः ही जुड़ जाती है। जैसे एक सास की उम्मीद होती है खास कर छुट्टी वाले दिन, कि घर की बहूयें रोज़ की तरह सुबह जल्दी उठाकर घर के लोगों के लिए उनकी पसंद के अनुसार, नाश्ता और खाना बनायें सभी लोग एक साथ बैठकर उस खाने का आनंद उठाएँ क्यूंकि रोज़ की भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में ऐसा मौका नहीं मिल पाता, उस पर यदि घर की बहू कामकाजी हो तो, उनसे यह उम्मीदें कुछ ज्यादा ही होती हैं।
शायद इसलिए घर की किसी भी महिला के लिए कभी कोई संडे नहीं होता। हाँ आज कल जो यह एकल परिवार का चलन है, उसमें ज़रूर वीकेंड बाहर खाना खाकर या फिर पीज़ा या बर्गर जैसी चीज़ें खाकर मना लिया जाता है और घर की महिला को कम से कम एक दिन अपने लिए मिल जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि इस बात से सयुंक परिवार का महत्व कम हो जाता है। उसका आपना एक अलग ही महत्व है और अपना एक अलग ही मज़ा भी, क्यूँकि वहाँ कभी कोई कम किसी एक के सर नहीं आता। सभी काम आपस में बटे हुए होते हैं। तो काम कम होने के साथ-साथ पूरे भी हो जाते हैं और पता भी नहीं चलता जो कि एकल परिवार में कभी संभव ही नहीं... खास कर बाहर आए हुए हम जैसे प्रवासियों के लिए तो ज़रा भी संभव नहीं, क्यूंकि यहाँ तो किसी भी प्रकार के नौकर-चाकर या बाइयों जैसे किसी भी प्राणी की दूर-दूर तक कोई उम्मीद ही नहीं, यहाँ तो जो कुछ करना है खुद ही करना है।
फिर चाहे वो बर्तन साफ करना हो या फिर घर की साफ सफाई, बस यह कहा जा सकता है कि सहूलियत के लिए नौकर की जगह मशिने हैं। मगर मशीनों में न तो इंसानियत होती है, और न ही ऐसा होता है कि बिना आपके हाथ लगाये कोई काम हो जाता हो, मशीन से भी काम करवाने के लिए आपको हाथ तो लगाना ही पड़ेगा। उसके इस्तेमाल के लिए उसके साथ आपको लगना ही पड़ेगा। जबकि यदि आपके घर में बाई हो तो कुछ काम ऐसे भी होते हैं, जो वो आपके लिए इंसानियत की खातिर भी कर दिया करती है। बिना कोई पैसे मांगे, खैर शायद यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है, टूटते संयुक्त परिवाओं का, पता नहीं मैं सशक्त रूप से तो नहीं कह सकती, क्यूंकि इस मामले में सभी का अपना-अपना नज़रिया है। हो सकता है, कुछ लोग मेरी बात से सहमत हो, कुछ ना भी हों। इस बात से जुड़ा एक किस्सा भी हैं।
मेरी एक दोस्त की भाभी हैं, वो शादी होकर मेरी उस दोस्त के सयुक्त परिवार में आयीं, मुझ से उनकी मुलाकात मेरी शादी के बाद हुई। जब वो मुझसे मिली, तब भी हम लोग अपने परिवार से दूर दिल्ली में रहा करते थे। क्यूंकि मेरे पतिदेव की नौकरी वहीं थी खैर जब वो मुझसे मिली और बातों ही बातों में जब उन्होने मुझसे मेरी दिनचर्या पूछी और सब कुछ सुनकर उन्होने ऐसा ज़हीर किया, कि वो अपनी ज़िंदगी में मेरी तुलना में बहुत दुखी है और मैं बहुत खुश हूँ, उदहारण के लिए उन्होने मुझसे कहा कितनी अच्छी ज़िंदगी है न तुम्हारी, कि यदि भगवान न करे तुम्हारी कभी तबीयत खराब है, या काम करने का मन नहीं है, तो बाहर खाना खाने चले गए या फिर घर में ही कुछ भी सदा सा बना लिया कोई कुछ कहने वाला नहीं है। कोई टोकने वाला नहीं, ना ही, कोई कुछ पूछने वाला है। जो मर्ज़ी हो करो, कम से कम कुछ तो समय तुम्हारा अपना है, जिसमें तुम बिना किसी और के बारे में सोचे कोई निर्णय ले सकती हो। फिर चाहे वो खाने -पीने की छोटी सी बात का ही निर्णय क्यूँ न हो।
मगर संयुक्त परिवार में ऐसा नहीं होता क्यूँकि हर परिवार के कुछ नियम, कायदे, कानून होते हैं। जिनका पालन करना घर के सभी सदस्यों के लिए आनिवार्य होता है और कुछ बड़ों का लिहाज भी, जिसके चलते उस घर की स्त्रियॉं को अपनी इच्छाओं को कई बार उनकी खातिर मारना ही पड़ता है। मुझे भी यह कारण बहुत हद तक ठीक लगा। खैर दोनों ही बातों के अपने-अपने फायदे और नुकसान है। जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। जो जिस माहौल में रहता है, उसको वैसे ही माहौल कि आदत पड़ जाती है। शुरू-शुरू में थोड़ी दिक्कत सभी को होती है। एक नए परिवार में खुद को ढालने के लिए...लेकिन इस सब के पीछे यदि कुछ नज़र आया तो, वो केवल यह, कि पिसती केवल औरत ही है क्यूँ ? क्यूँ सभी को ज्यादातर केवल उसी से उम्मीदें होती हैं, कि वो ऐसा करे, वैसा करे ? क्या औरतों की अपनी कोई इच्छा नहीं होती ? क्या उसका अपना मन नहीं होता, कि वो ऐसी छोटी-छोटो बातों में भी अपना कोई निर्णय ले सके ? या फिर उसे छुट्टी का दिन मानने का कोई अधिकार ही नहीं ? यही सब सोचकर लगता है, कि शायद खुद विधाता ने ही औरत के जीवन में और औरत के जीवन के लिए कोई संडे बनाया ही नहीं... आपको क्या लगता है ?
हम्म बात तो सोचने की है
ReplyDeleteइस पर हम क्या कहें, हमारे लिए ये पोस्ट थोड़े ही है :)
ReplyDeleteदादी, नानी, बहनों, बेटियों और पत्नी के जीवन में कभी कोई रविवार नहीं देखा :((
ReplyDeleteहर व्यवस्था के अपने प्लस माइनस होते हैं..हो सकता है एकल परिवार में आपको संडे मानाने को मिल जाये. ( वैसे पूरा संडे तो नहीं ही मिलता :) एक वक्त खाने की छुट्टी शायद मिल जाये ).परन्तु जब आप किसी तकलीफ में होते हैं तो परिवार वालों की कमी बेहद खलती है.तब आप सोचते हैं कि काश संयुक्त परिवार होता ..तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता.
ReplyDeleteसही बात है ...औरतों की जिन्दी में कभी कोई सन्डे नहीं होता है
ReplyDeleteबस एक ही खुशी होती है कि संडे को उसके सब अपने घर में होते है|
ReplyDeleteGyan Darpan
Matrimonial Site
कहीं बाहर जाकर ही सन्डे मनाया जा सकता है।
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 05-12-2011 को सोमवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteक्या बात है । आपेक पोस्ट ने बहुत ही भाव विभोर कर दिया । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है ।
ReplyDeleteअरे मेरा कमेन्ट कहाँ गया ???
ReplyDeleteअरे शिखा जी आपका कमेंट स्पैम में चला गया था।
ReplyDeleteसही है....
ReplyDeleteमहिलाओं के लिए संडे जैसी चीज नहीं होती.....
सच कहा ..महिलाओं के लिए कोई संडे नहीं ... कभी कभी तो लगता है कि अगर मौत भी आएगी तो कहेंगे कि ये काम और कर जाओ तब मरना :):)
ReplyDeleteएकल परिवार और संयुक्त परिवार के अपने अपने फायदे और नुक्सान हैं ..और जो संयुक्त में रहते हैं वो एकल परिवार के लिए छटपटाते हैं और एकल वाले संयुक्त के लिए ...
हा हा :-)!!! एक दम सही कहा संगीता जी....
ReplyDeleteis baare me meri kavita -" ek poora din " zaroor padhen--mere notes me. Link hai--
ReplyDeletehttp://www.facebook.com/note.php?note_id=2634017697781
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 04 -12 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज .जोर का झटका धीरे से लगा
सच है!
ReplyDeleteसन्डे, तुम कहाँ हो भई:(
सार्थक प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeleteबहुत सही.....अर्थपूर्ण व सुंदर प्रस्तुति , साभार।
ReplyDeleteसच कहा आपने
ReplyDeletebahut umda aur saargarbhit aalekh..
ReplyDeleteaapne is vishya ke saath nyay kiya
dhnyavad ek nice post ke liye
सही कहा जैसे हमारी घरवाली कहती है कि ये वीकेंड आता ही क्यों है, परंतु कुछ जिम्मेदारी हम लेते हैं और अपना खाना बनाने का शौक पूरा कर लेते हैं, तो दोनों का अच्छा सन्डे मन जाता है।
ReplyDeleteसही कहा , हमने भी अपनी दादी और मां को हमेशा काम करते देखा । लेकिन परिवार के लिए काम करके उनके चेहरे पर जो संतोष के भाव होते थे वो आत्मीयता के दर्शन कराते थे ।
ReplyDeleteहमारा भी फ़र्ज़ बनता है कि गृह स्वामिनी की ज़रूरतों का पूरा ख्याल रखें ।
सुन्दर आलेख ।
वो विज्ञापन है न 'सन्डे हो या मंडे , रोज़ खाओ अंडे ', उसी तरह सन्डे हो या मंडे स्त्रियों का कर्तव्य क्रमशः ही होता है ...
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने। शिखा जी,संगीता आंटी और रश्मि आंटी के विचार जानने के बाद और कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है।
ReplyDeleteसादर
मै एक नहीं अनेक नॉन वोर्किंग हाउस वाइफ को जानती हूँ जो सन्डे के दिन क़ोई काम नहीं करती हैं सन्डे के दिन उनके पति सारा काम करते हैं . वो पति जो ६ दिन बाहर काम करते हैं उनको ७ वे दिन घर का काम करते देखा हैं मैने . इस में अच्छाई या बुराई हैं में इस पर टिपण्णी नहीं कर रही हूँ मै केवल इस बात की विवेचना चाहती हूँ की नॉन वोर्किंग हाउस वाइफ के लिये सन्डे को काम करना अगर इस लिये गलत हैं क्युकी उस दिन बाकी की छुट्टी होती हैं तो बाकी ६ दिन वो नॉन वोर्किंग हाउस वाइफ क्यूँ नहीं घर के अलावा बाहर जा कर नौकरी करती हैं और ७ वे दिन वो भी छुट्टी की बात कर सकती हैं
ReplyDeleteजहां पति पत्नी कमा कर लाते हैं वहाँ परिवार संयुक्त हो या एकल वो छुट्टी साथ मानते हैं चाहे उस दिन दोनों घर का काम करे या ना करे
रह गयी बात कर्तव्यो की यानी खाना पकाना इत्यादि तो महज कर्त्तव्य हैं और इनको औरत पर थोपा इस लिये गया हैं क्युकी नारी अपने को आज भी यही करने में सबसे समर्थ और खुश पाती हैं . आज भी नारी को लगता हैं की नारी का काम घर का हैं और पुरुष का बाहर का तो घर का काम एक नॉन प्रोडक्टिव काम माना जाता हैं क्युकी उसका क़ोई महत्व आर्थिक रूप से हैं ही नहीं समाज की नज़र में
अति संवेदनशीलता से जन्मी एक कल्प-कथा सुनें....
ReplyDeleteएक बार सन्डे महोदय ने सोचा, "क्यों सब के सब मुझे देखकर खुश होते हैं... घर पर दिन बिताते हैं..घूमने-फिरने जाते हैं... मुझे भी तो हक़ है कि ऑफिस का मुँह देखूँ, श्रम से दो-दो हाथ करूँ. ऑफिस बिल्डिगों में टहलूँ ... मीटिंग्स में टाइम दूँ... किसी और day पर रौब मारूँ.. पर नहीं सप्ताह के क़ानून ने सन्डे को फालतू काम करने के लिये चुना.. सप्ताहभर के कपड़े धोये... घर की सफाई करे... रिश्तेदारों की खातिरदारी करे.. बच्चों के लिये खरीददारी करे... आखिर कब मुझे इन सबसे निजात मिलेगी."
[प्रेरणा : पल्लवी]
अति संवेदनशीलता से जन्मी एक कल्प-कथा सुनें....
ReplyDeleteएक बार सन्डे महोदय ने सोचा, "क्यों सब के सब मुझे देखकर खुश होते हैं... घर पर दिन बिताते हैं..घूमने-फिरने जाते हैं... मुझे भी तो हक़ है कि ऑफिस का मुँह देखूँ, श्रम से दो-दो हाथ करूँ. ऑफिस बिल्डिगों में टहलूँ ... मीटिंग्स में टाइम दूँ... किसी और day पर रौब मारूँ.. पर नहीं,... सप्ताह के क़ानून ने सन्डे को फालतू काम करने के लिये चुनना था सो चुना.. सप्ताहभर के कपड़े धोये... घर की सफाई करे... रिश्तेदारों की खातिरदारी करे.. बच्चों के लिये खरीददारी करे... आखिर कब मुझे इन सबसे निजात मिलेगी."
[प्रेरणा : पल्लवी]
अति संवेदनशीलता से जन्मी एक कल्प-कथा सुनें....
ReplyDeleteएक बार सन्डे महोदय ने सोचा, "क्यों सब के सब मुझे देखकर खुश होते हैं... घर पर दिन बिताते हैं..घूमने-फिरने जाते हैं... मुझे भी तो हक़ है कि ऑफिस का मुँह देखूँ, श्रम से दो-दो हाथ करूँ. ऑफिस बिल्डिगों में टहलूँ ... मीटिंग्स में टाइम दूँ... किसी और day पर रौब मारूँ.. पर नहीं,... सप्ताह के क़ानून ने सन्डे को फालतू काम करने के लिये चुनना था सो चुना.. सप्ताहभर के कपड़े धोये... घर की सफाई करे... रिश्तेदारों की खातिरदारी करे.. बच्चों के लिये खरीददारी करे... आखिर कब मुझे इन सबसे निजात मिलेगी."
[प्रेरणा : पल्लवी]
bilkul theek baat ..
ReplyDeletesunder aalekh.
बात तो सही है, गृहणियों के लिए भी सप्ताह में एक दिन छुट्टी होनी चाहिए।
ReplyDeleteआप सभी पाठकों और मित्रों के साथ-साथ मैं,विवेक रस्तोगी जी की भी बहुत-बहुत आभारी हूँ :-)कि आप मेरी सभी पोस्ट पर आए और आपने अपने बहुमूल्य विचारों से मुझे अनुग्रहित किया धन्यवाद कृपया यूँ हीं संपर्क बनाये रखें....:-)
ReplyDeleteस्त्री और फिर बह भी भारतीय स्त्री ---वो अपने लिए नहीं अपनों के लिए जीती है ---उसे सन्डे को व्यस्त रहना ही अच्छा लगता है ---मुझसे पूछिये-
ReplyDeleteअब बच्चे बड़े हो गए बहार चले गए तो सब व्यर्थ लगता है ---हमें तो कोई किचन से जुदा करदेगा तब शायद ज्यादा बुरा लगे ---अपनों कि आँखों झलकती तारीफ सरे थकन मिटा देती है ---मैं तो कहूँगी कि भाग्यवान है वो जो कम कर रहीं हैं वैसे बात तो आपकी सही है
@रचना जी मैंने यहाँ सही गलत की तो कोई बात ही नहीं की न ही यह बोला है कि संडे को एक ग्रहणी का अपने परिवार के लिए काम करना गलत है। काम तो अपनी-अपनी जगह दोनों ही करते हैं चाहे वो पुरुष हो या स्त्री, अगर एक ग्रहणी बाहर जाकर काम नहीं करती तो हमारे समाज के 90% पुरुष भी संडे को अपनी पत्नी के साथ घर का काम नहीं करते, फिर चाहे बात एकल परिवार हो या सयुंक्त परिवार की। मैंने यह पोस्ट उन्हीं आम लोगों को ध्यान में रखकर लिखी है और बाकी रही उन लोगों की बात जो 6 दिन बाहर रहकर काम करते हैं और 7वे दिन अपनी बीवी के साथ काम करते हैं तो उसमें बुराई क्या है यह तो बहुत अच्छी बात है न 6 दिन बाहर काम करने के बाद घर के काम के बहाने ही सही, उनको एक साथ समय गुज़ारने का मौका तो मिल जाता है, लेकिन ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है।
ReplyDeleteसंयुक्त परिवार में तो स्त्री फिर भी अवकाश ले सकती है, एकल परिवार में नहीं। पहले तो मासिक धर्म के चार दिन संयुक्त परिवार में कोई काम कर ही नहीं सकती थी।
ReplyDeleteएकल परिवार में अवकाश के दिन पुरुष कोई काम न करते हों ऐसा नहीं है। स्त्रियाँ सप्ताह भर के सारे काम एकत्र रखती हैं। जिन्हें पुरुष से अवकाश के दिन कराया जाना है।
वस्तुतः सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि परिवार में स्त्रीपुरुष समानता कितनी है?
अपनी अपनी सोच होती है सबकी और नज़रिया भी …………दोनो तरह के परिवारो का अपना महत्त्व है।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति |मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । कृपया निमंत्रण स्वीकार करें । धन्यवाद ।
ReplyDeleteमैने पत्नी का हाथ बताने की बात नहीं की थी , मैने केवल ये कहा था की मैने ऐसे परिवार देखे हैं जहां इतिवार के दिन पति ही सब काम करते हैं क्युकी पत्नी को सन्डे चाहिये .
ReplyDeleteअगर समानता और हाथ बताने की बात होती हैं और सन्डे चाहिये तो बाकी दिन समानता की बात क्यूँ नहीं होती , बाकी दिन काम करके धन कमाने की बात पर भी बात हो
बाकी आराम के लिये सन्डे की क्या जरुरत हैं , दोपहर होती हैं जब सब कमर सीधी कर ही लेते हैं !!!!
और मै आम मध्य वर्गिये परिवारों की ही बात कर रही हूँ
आप की पोस्ट सही और गलत के आकलन के लिये मेरा कमेन्ट नहीं था मैने तो कहा वो सिक्के का दूसरा पहलु हैं
वाह! बहुत ही सुन्दर सार्थक और विचारणीय प्रस्तुति है आपकी.
ReplyDeleteसंगीता जी की हलचल में आपकी प्रस्तुति देख बहुत खुशी मिली.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार,पल्लवी जी.
बिल्कुल सही कहा है आपने ... सार्थक व सटीक अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteसही लिखा है आपने ... घर की महिला के लिए कोई छुट्टी नहीं देखी मैंने आज तक ... चाहे वो माँ हो या पत्नी ... उसका रोतीन चल्या ही रहता है ....
ReplyDeleteभेदभाव कहाँ?
ReplyDeleteएक उम्र के बाद हर दिन सन्डे ही सन्डे हैं ...........जीवन में खालीपन कभी ना आये .......हम बस ये ही दुआ करते है
ReplyDeleteaccha likha hai aapne . vah
ReplyDeletebahota acha sayad mai bhi yehi sochati hu jesa aap sochati hai.aap ka lekha bahota hi sunadar hai..............
ReplyDeleteआज कल संयुक्त परिवार कितने हैं? एकल परिवार में अक्सर संडे का दिन छुट्टी का ही होता है...लेकिन आपने जो औरतों की व्यथा व्यक्त की है वह वास्तव में सही है और मैं आप से पूर्णतः सहमत हूँ...बहुत सुंदर आलेख
ReplyDeletePallavi ji,
ReplyDeleteapne bahut sahi mudda uthaya hai..aur yah sachchai hai...aur mujhe lagata hai ki yahan bhi purushon ka aham hi kam karta hai..vahi prush pradhan samanti soch...
jabki kuchh parivaron me sthitiyan badali hain...
Mai khud ..apani patni Poonam ka hath batata hun ghar ke kamo me...ek bat aur shayad padh kar logon ko taaajjub hoga ki maine shadi ke turant bad Poonam se subah ki chay ko lekar ek samjhauta kiya tha ki jo subah pahle uthega vo chay banayega...aur aj bhi vo mere ghar me lagu hai...
Any way mai is mamle me Unicef ke sath mahilaon,ladkiyon ki kafi advocacy karta rahta hun...aur achchha laga apka yah lekh...jisme mahilaon ke jivan ka ek aham mudda uthaya gaya hai.
shubhkamnayen.
Hemant
पल्लवी, जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि !
ReplyDeleteगायत्री प्रतिष्ठान के अक्सर स्टिकर्स पर पढने को मिलता है ' प्यार और सहकार से भरा पूरा परिवार ही धरती का स्वर्ग होता है" । अगर छुट्टी के दिन घर, प्यार सहकार के आमोद से विभोर है तो सण्डे को अधिक काम करके भी स्त्री प्रसन्न रहती है .. पति की फ़ितरत उसके लिये अहम है । पति यदि महज़ दोष अंवेषण के लिये काम में हाथ बटाए तो फिज़ूल है । प्रेम भाव हो तो श्रम का अहसास कहाँ ?
Prasansniy Prastuti .....!
ReplyDeleteआपकी पोस्ट को कई दिन बाद पढ़ रही हूँ। सारे कमेण्ट भी पढ़ डाले। मुझे तो हर समय स्त्रियों की बेचारगी पर लिखना रास नहीं आता। इससे स्त्री केवल बेचारी ही दिखती है। उसकी सामर्थ्य तो छिप जाती है। अब कार्य करना तो प्रकृति का नियम है। कोई भी व्यक्ति बिना कार्य के रह नहीं सकता। उस कार्य को किसी भी रूप में व्याख्या की जा सकती है। अब जब परिवार संस्था टूटने के कगार पर है तब तो इन समस्याओं का कोई स्थान ही नहीं रह गया है। लेकिन अकेले रहने में अब सारा कार्य स्वयं को ही करना पड़ता है, यह समस्या भी एक दिन उभर कर आएगी।
ReplyDeleteसन्डे हो या सटरडे,
ReplyDeleteभई हम तो घर के हर काम में ( समय मिलने के आधार पर) हाथ बटाँते ही है। खाना बनाने का शौक है ( ब्लॉग जगत मेरे कुशल पाक ज्ञान से परिचित है)इसलिए कई बार श्रीमती जी दूसरे कां में होती है तो सब्जी बना देता हूँ, या और किसी छोटे - मोटे काम में मदद कर देता हूँ।
इस बात से तो सहमत हूँ कि महिलाओं के लिए कोई छुट्टी का दिन नहीं होता।