Wednesday 11 June 2014

ज़िंदगी और मौत, दोनों एक साथ...


ज़िंदगी को क्या नाम दें यह समझ नहीं आता। लेकिन मौत भी तो किसी पहेली से कम नहीं होती। कभी-कभी कुछ ऐसे मंजर सामने आ जाते है, जो दिल और दिमाग पर अपनी एक छाप सी छोड़ जाते है। ऐसा ही एक मंजर मैंने भी देखा। यूं तो हर खत्म होने वाली ज़िंदगी  किसी नए जीवन की शुरुआत ही होती है। फिर चाहे वो पेड़ पौधे हों या इंसानों का जीवन। लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ जब किसी इंसान की मौत होती है तब हमें आने वाली ज़िंदगी या हाल ही में जन्म ले चुकी नयी ज़िंदगी का खयाल ही नहीं आता। ऐसा शायद इसलिए होता होगा, क्योंकि जाने वाले इंसान से फिर कभी न मिल पाने का दुःख हम पर इतना हावी हो रहता है कि हम नयी ज़िंदगी के बारे में चाहकर भी उतनी गंभीरता से नहीं सोच पाते। दिवंगत आत्मा के परिवारजनों के लिए तो यह उस वक्त संभव ही नहीं होता। लेकिन यदि मैं अन्य परिजनों की बात करुँ तो शायद हर संवेदनशील इंसान के दिमाग में उस नयी ज़िंदगी का ख़्याल आता ही है। नहीं ? मैं जानती हूँ आज के असंवेदनशील समाज में यह बात बेमानी लगेगी। मगर इस बार मेरा अनुभव कुछ ऐसा ही रहा। 
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