Saturday 12 December 2015

अनुभवों की पोटली


भारत वापस आने के बाद यह मेरी दूसरी दीपावली थी। जिसने मुझे अनगिनत अनुभव की पोटली दे डाली। पिछले साल दिवाली यही मेरे घर पुणे में मनाई गयी थी और इस साल दिवाली मनाने हम जबलपुर गए, वह भी कार से, यह शुरुआत थी उन अनुभवों की जो आज तक के जीवन में मुझे पहले कभी न हुए थे। ऐसा इसलिए कहा क्यूंकि इस से पहले भोपाल इंदौर से अधिक लंबी यात्रा मैंने कार से पहले कभी न की थी। हालांकि अब तो भोपाल इंदौर यात्रा भी लंबी यात्रा के अंतर्गत नहीं आती। वह अलग बात है। इस मामले में मुझे ऐसा लगता है कि बी.जे.पी की सरकार के राज्य में और चाहे कुछ अच्छा हुआ हो या न हुआ हो। मगर (मध्य प्रदेश) की सड़कों और शहरों का पहले से अधिक विकास ज़रूर हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं है। एक समय था जब महाराष्ट्र की सड़कों के विषय में भी ऐसा ही कुछ कहा जाता था।
खैर मैं बात कर रही थी अपने अनुभवों की, तो पुणे से जबलपुर तक की लंबी यात्रा के अंतर्गत हमने विश्राम के लिए चुना (हरसूद) नामक एक स्थान जो खंडवा के पास बसा एक छोटा सा जिला है। जिसे सरकार ने इंदिरा सागर बांध परियोजना के दौरान 250 गाँवों के विस्थापितों के लिए दुबारा बसाया है। पुराना हरसूद तो लगभग जलमग्न होकर डूब ही चुका था। बल्कि आज भी डूबा हुआ है। खंडवा के पास तवा नदी के किनारे बसा यह छोटा सा जिला अपने आप में एक खास स्थान रखता है। क्यूंकि यह न केवल  प्राकृतिक रूप से सुंदर है बल्कि इसका अपने आप में एक छोटा सा इतिहास भी है। कई वर्षों पहले बांध बनाने के कारण यह जिला और यहाँ बसे छोटे मोटे सभी गाँव जलमग्न होकर डूब गए थे।

रेलवे स्टेशन 
इसलिए सरकार द्वारा यह दुबारा बसाया गया है। यहाँ के निवासियों का कहना है कि उस बांध के पानी के कारण उन ग्राम वासियों से, सिवाये उनकी जान के उनका सब कुछ छीन लिया। उनका घर, पशु पक्षी, जमीन खेत इत्यादि। यहाँ तक के रेलवे स्टेशन भी पानी में डूब गया। आज वहाँ रेल की पटरी तक नहीं है। वहाँ लगी अक्कुए के पेड़ और झाड झंखाड़  जैसे आज भी अपनी उदास नज़रों से किसी रेलगाड़ी के वहाँ आकर रुकने की प्रतीक्षा करते है। पुराने हरसूद की पानी में डूबी इमारतें और और खंडहर बन चुके घर आज भी अपनी दुख भरी दास्तां सुनाते से प्रतीत होते है। तवा नदी के तट पर बसा यह छोटा सा जिला कहने को जिला है। मगर लगता वास्तव में आज भी गाँव ही है। रोज मर्रा की जरूरतों के अतिरिक्त यदि कोई वस्तु की आवश्यकता हो तो उसे लेने या तो खंडवा जाना पड़ता है या फिर वहाँ के दूकानदारों से कहकर मंगवाना पड़ता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि गाँव की सी शुद्धता, दुग्ध दही, सब्जी भाजी, यहाँ तक के मछ्ली भी जैसी वहाँ शुद्ध मिलती है। वैसी शहरों में कहाँ मिल पाती है।
इस तस्वीर में दूर वही चिता जल रही है जिसका मैंने ज़िक्र किया 
इस यात्रा के दौरान मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार एक जलती हुई असली चिता देखी। जो आज से पहले हमेशा फिल्मों में ही देखी थी। लेकिन उस मृत आत्मा के आए हुए परिजनो में से एक भी इंसान मुझे दुखी दिखाई नहीं दिया। दुखी होना तो दूर वहाँ तो सभी जल्दी में नज़र आरहे थे। सभी को इतनी जल्दी थी कि चिता को भी शांति से जलने ना दिया जा रहा था। किसी पकती हुई सब्जी की भांति उसे एक बांस की सहायता से इधर-उधर चला चला कर जल्दी जल्दी जलने को विवश किया जा रहा था। क्यूंकि शाम ढलने वाली थी और सभी परिजन शायद जल्दी जल्दी अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर अपने-अपने घरों को लौट जाना चाहते थे। आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना तो दूर यहाँ तो पार्थिव शरीर को भी शांति से जलने नहीं दिया जा रहा था। यह सब देखकर तो यही लगा कि सच कितना स्वार्थी हो गया है इंसान। आज तक अपने अपनों को एक दूसरे के लिए समय नहीं है यह कहते तो सुना था। लेकिन अपने किसी परिजन की मृत्यु पर ऐसा नजारा न कभी देखा ना कभी सुना था।

यह एक दृश्य था। दूसरा नदी किनारे लगी नाव की सवारी आह ! प्रकृति की गोद का ऐसा सुखद अनुभव तो मुझे पहले कभी न हुआ था कि नाव में ही बस जाने को जी चाह रहा था। ऐसी सुंदरता का जिक्र ना कभी सुना ना देखा। जो बस आंखो से पीया जा सके और आत्मा से महसूस कीया जा सके। जिसको ना कोई पढ़कर समझ सके। जिसको न कोई लिखकर समझा सके। वह ही तो कहलाता है अदबुद्ध प्रकर्तिक सौंदर्य जिसके रूप के आगे कामदेव की बनायी संरचना भी फीकी सी लगने लगे। जिसकी ओर मन स्वतः ही मुड़ जाये। शायद यही वह आकर्षण होता होगा जो एक इंसान को साधू बनने पर विवश कर दिया करता होगा। लिकिन एक सच्चा साधू, एक योगी। कोई भोगी या पाखंडी नहीं। नदी के जल की कलकल ध्वनि घर लौट रहे परिंदों का करलव और लंबी खामोशी। नदी के बीच लगे दूर इक्का दुक्का ठूंठ से नंगे पेड़ जिन पर कुछ पक्षियों ने अपना घरौंदा बना लिया था। दूर बहुत दूर जहां तक नज़र जा सकती है उतनी दूर। नदी के किनारे कुछ और जलती हुई चिताएँ जिनकी सिर्फ अग्नि ही दिखी दे रही थी। पुल पर से गुजरती रेलगाड़ी और उसके पीछे से धीरे धीरे डूबता हुआ सूरज जो विवश कर गया उस गीत के बोल गुन गुनाने के लिए कि
कहीं दूर जब दिन ढाल जाए, साँझ की दुल्हन बदन चुराय, चुपके से आए
मेरे ख्यालों के आँगन में, कोई सपनों के दीप जालाए, चुपके से आए।


फिर अचानक ही ऐसा लगने लगा मानो यह सन्नाटा और यह अंधेरा धीरे-धीरे पग बढ़ता हुआ निगल लेना चाहता है यह सारे नज़ारे। अभी इस आभा से मन भर भी नहीं पाया था कि वह किनारा आ गया जहां हमें उतरना था। नाव से उतरकर भी वही कार की सवारी रास्ते में घर लौटते मवेशियों की बड़ी बड़ी चमकीली आंखे, बैलगाड़ी की गड़गड़ाहट और घर लौटे गड़रियों का अपनी गाये भैंसों और बकरियों को हकालने के स्वर मुझे जैसे सभी कुछ एक स्वप्न सा प्रतीत हो रहा था। इतनी दुनिया देखने के बाद और घूमने के पश्चात भी आज भी जैसे यह मिट्टी मुझे अपनी ओर खींचती है। यह नज़ारे देखकर आँखों को जितनी ठंडक और मन को जितनी शांति मिली। उतनी तो शायद पुजा पाठ में भी नहीं मिलती। लेकिन दूसरी तरफ मन में रह रह कर यह सवाल उठता रहा कि क्यूँ छोड़ दी हमने अपनी मिट्टी, अपना गाँव, अपना परिवेश, अपनी सभ्यता, अपना संस्कृति। काश ऐसा होता कि शहरों में काम करने की मजबूरी न होती तो आज शायद मेरी पहली पसंद किसी गाँव की नागरिकता ही होती।

आज भी गाँव में कुछ नहीं बदला है। आज भी वहाँ मैंने देखा घर आँगन को गोबर से लीपते हुए। चूने से मुंडेर को संवारते हुए। मिट्टी के आँगन में जमीन पर रंगोली डालते हुए। घर द्वार को फूलों और आम के पत्तों से बनी बंधवार से सजाते हुए। जिसे देखकर लगा यह है वास्तविक दीपावली जिसे मनाने के लिए कोई आडंबर नहीं है। जो है, जितना है। वही अपने आप में इतना भव्य है कि वहाँ किसी और औपचारिकता की कोई आवश्यकता ही नहीं है। सब कुछ एक साफ सुथरे निर्मल मन की कोमल भावनाओं जैसा ही तो है। हालांकि आज के माहौल में यह सब भी कोई पूर्णतः सच नहीं है। आपसी रंजिशों के चलते अब गाँव में भी मानवता का वैसा वास देखने को नहीं मिलता जैसा प्रेमचंद की कहानियों में पढ़ने को मिलता है।

मुझे तो ऐसा लगता है गाँव के विकास के नाम पर जो गांवों का शहरी कारण किया गया। जिसके चलते वह ना पूरी तरह शहर ही बन पाये और ना गाँव ही रह पाये। उन्हें जिला करार दे दिया गया होगा। लेकिन यहाँ आकर यहाँ घूमकर जो मुझे यह सुखद अनुभव हुए वह सदा मेरे साथ रहेंगे 'मेरे अनुभव' बनकर।                                                              

16 comments:

  1. मैंने लिखा भी है कि मृत्यु सबके लिए एक सी मायने नहीं रखती ... अपनी यात्रा को इतनी बारीकी से तुमने जीया है कि दूसरा भी साथ हो ले

    ReplyDelete
  2. बुद्ध ने पहली बार लास देखी थी ।
    आपने पहली बार जलती चिता देखी है ।
    दोनों के चिंतन में समानता भी ।

    गहन चिंतन के साथ सार्थक आलेख ।
    दुनिया में आप अकेले ही हैं । बाकी सब नाटक
    ही है

    ReplyDelete
  3. मैंने पढ़ा ,और खूब आनद से पढ़ा...अपने घर लौटना .अपनी जड़ो को सींचना ..पुराणी यादों का आनंद ..बदलती सूरत की वेदना सब कुछ दिल को छूता है इसको शब्दों में बयाँ नही किया जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है ..पर इसके लिए दिल का अपने प्रति ,अपने अतीत के प्रति लगाव होना बेहद ज़रूरी है ....बस वो ही इसका सुख दुःख दर्द ख़ुशी महसूस कर सकता है ...वर्ना आज किसे फुर्सत है ऐसा अनुभव करने की ...अपने दिल को ऐसे ही संवेदनशील बनाये रखे और जिन्दगी में हर पल का एक नये अनुभव और ख़ुशी का आनद लें .शुभकामनायें |

    ReplyDelete
  4. अरे आप इंडिया आ गईं
    बहुत खूब

    ReplyDelete
  5. अरे आप इंडिया आ गईं
    बहुत खूब

    ReplyDelete
  6. इस अनुभव से कई बार गुजरा...फिर फिर मजबूरियों ने जंग जीती..फिर फिर विचारों को कलम से ढाला कि दर्ज रहे और गुजरता रहूँ उन्हीं राहों से शब्दों के सहारे.
    बहुत उम्दा संस्मरण एवं वृतांत!! खासकर जब जबलपुर का जिक्र देखा तो तुरंत ही एक सांस में पढ़कर उस मिट्टी की खुशबू को तलाशते!!

    ReplyDelete
  7. Are waaah aap waaps bhart aa gain behad sukhad baat.....aapka lekhan hamesha padhne k liye prerit krta hai.....is baar ka ye yatra sansmaran puri yatra kra gaya......hme b

    ReplyDelete
    Replies
    1. लो जी आपको अभी तक पता नहीं था। आश्चर्य है।:) खैर चलो कोई नहीं देर आये दुरुस्त आये।

      Delete
  8. बहुत सुन्दर संस्मरण। गांव में जाकर ऐसा ही अनुभव होता है जैसे कुछ भी नहीं बदला। फिर भी बहुत कुछ बदला है। कुछ अच्छे के लिए , कुछ बुरे के लिए।

    ReplyDelete
  9. गांव जाकर हमेशा ही मुझ भी बहुत अच्छा लगता है लेकिन सबकुछ पहले जैसे न पाकर दुःख भी होता है .... गांव में मुर्दे को नदी पर जल्दी कई बार देखा लेकिन एक बात जो वहां अच्छी है वे मुर्दे को पूरा जलाकर लौटे हैं घर जबकि शहर में आधा जलता छोड़ आते हैं लोग ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. ओह! ऐसा भी होता है। यह तो मुझे पता ही नहीं था।

      Delete
  10. बहुत सुन्‍दर संस्‍मरण। प्रकृति को ऐसे ही महसूस करते रहिए और जीवन को संवारते रहिए। लिखने की जल्‍दी में व्‍याकरण की गलतियां हुईं हैं, कुछ वाक्‍य निरर्थ अलंकार से रचे गए हैं। यदि इनसे बचा जाए और इस संस्‍मरण को संपादित करके दोबारा पोस्‍ट किया जाए तो यह संग्रहणीय है।

    ReplyDelete
  11. शमशान घाट पर रिश्तों की हकीकत पता चलती है ..... मंगलकामनाएं आपको !

    ReplyDelete
  12. बहुत अच्छा लिखा है पल्लवी जी! शमशान घाट पर बहुत बार ऐसा देखने को मिलता है. गाँव की आपने याद दिला दी. बड़े अरसे से गाँव नहीं गया. जाने का मन हो रहा अब...
    अच्छी लगी ये पोस्ट आपकी!

    ReplyDelete
  13. आत्मीय अनुभव ..

    ReplyDelete
  14. This is such a great resource that you are providing shop Order Cake Online near me for all readers.

    ReplyDelete

अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए यहाँ लिखें