यूँ तो यह विषय भी अब बहुत पुराना हो चुका है और बहुत से लेखक इस विषय पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं लेकिन फिर भी में एक बार फिर इस विषय पर अपने विचारों से थोड़ी सी रौशनी और डालना चाहूंगी. आज कल कि भाग दौड़ वाली ज़िन्दगी में सचमुच ऐसा ही लगता है कि शायद ज़िन्दगी बदल रही है अगर इस बात पर गहनता से सोचो तो लगता है कि सच में हम कल क्या थे और आज क्या हो गये हैं यह वक़्त का तकाजा है या हमारी अपनी करनी, यह कहना तो कठिन है. मगर जरा आप अपनी ज़िन्दगी में पीछे मुड़ कर देखिये तो शायद आप को एहसास होगा कि कल से लेकर आज तक हमारी ज़िन्दगी कितनी बदल गयी है. इस बात को यदि आप लोगों के समक्ष रख कर बात करेंगे तो हर कोई यही कहेगा कि यह वक़्त का तकाजा है वक़्त बदलता है तो हमें भी उसके साथ बदलना ही पड़ता है. वरना वक़्त हमें कहीं का नहीं छोड़ता इस बात पर मुझे एक हिन्दी फिल्म का संवाद याद आ रहा है कि ''वक़्त कभी नहीं बदलता सिर्फ गुज़रता है अगर कुछ बदलता है तो वह है इन्सान'' और यदि इस बात पर गहनता से विचार किया जाये तो यह बात अपने आप में एक बहुत गहरे अर्थ को छुपाये हुये है में इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ सच में वक़्त नहीं बदलता, अगर कुछ बदलता है तो वो है इन्सान. आप खुद ही देखलो कि जब हम स्कूल जाया करते थे तब दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी. मुझे आज भी याद है वो मेरे घर से मेरे स्कूल का रास्ता, वहाँ क्या-क्या नहीं था, चाट की दुकाने, बर्फ के गोले, क्या नहीं था वहाँ. मगर आज देखो तो क्या है वहाँ मोबाइल शॉप, वीडियो पार्लर, साइबर कैफे. फिर भी सब सूना है. शायद दुनिया सिमट रही है. इसी तरह जब हम छोटे थे तो शाम बहुत लम्बी हुआ करती थी हम घंटो स्कूल से आने के बाद भी अपने उन्ही दोस्तों के साथ समय बिताया करते थे, वो बचपन के खेल, वो खेलने जाने का उतवाला पन, वो शाम होते ही दोस्तों का इंतज़ार, कि कब कोई आकर पुकारे और हम खेलने के लिये दौड़ जाएँ. वो शाम को खेल कर थक कर चूर हो जाना. मगर अब शायद शाम ही नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाया करती है'' शायद वक़्त सिमट रहा है'' .....
जब हम छोटे थे तब शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी, दिन भर दोस्तों के साथ खेलना वो दोस्तों के घर का खाना और घर वापस आकार मम्मी कि डांट खाना. वो लड़कों कि बातें, वो साथ हँसना हँसाना और कभी-कभी साथ में रोना भी, वैसे तो अब भी मेरे कई दोस्त है मगर दोस्ती का तरीका ही बदल गया है. कभी रास्ते में मिल जाते है तो बस hello hi हो जाती है और सब अपने-अपने रास्ते निकल जाते है. होली दीवाली, जन्मदिन या नए साल पर SMS आजाते है शायद रिश्ते बदल रहे है..... यह सारी बातें अपने आप में कितनी सच मालूम होती है आज यही तो है हमारी ज़िन्दगी, जिसमें न हमारे पास अपने खुद के लिये समय है और न ही हमारे अपनों के लिये कोई वक़्त, मगर फिर भी हम यही कहते हैं कि वक़्त बदल गया है. माना कि बचपन गुजर गया है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपने उन दोस्तों को ही भूल जाएँ जिनके साथ हमने कभी दोस्ती की कभी न टूटने वाली कसमे खाई थी. अपना उस वक़्त का हर सुख दुःख बांटा था, उसे ही भूल जाये. आज कहाँ गया वो सब जिसे बस अब हम केवल याद किया करते हैं.
जब हम छोटे थे तब शायद खेल भी अजीब हुआ करते थे जो हकीकत से बहुत अनजान और मासूम हुआ करते थे वो घर-घर खेलना, वो मम्मी पापा बनना, लंगडी खेलना, वो पोशम्पा भाई पोशम्पा खेलना, वो लुका छुपी. मगर अब तो इन खेलों का स्थान भी बदल गया है अब इन खेलों कि जगह इन्टरनेट और विडियो गेम्स ने लेली है. बच्चों की ज़िन्दगी में अब इन खेलों ने जहाँ अपना स्थान बना लिया है, वहीँ हम बड़ों को अपने ऑफिस से फुर्सत ही नहीं मिलती, कि हम अपने ज़माने के इन खेलों के बारे में उनसे बात भी कर सके, खेलना तो दूर की बात है. जब में इन बातों को गहराई से सोचती हूँ तो ना जाने कितने अनगिनत सवाल मेरे मन में उठते है, जिनका जवाब मुझे कभी मिला ही नहीं या यूँ कहना ज्यादा ठीक होगा शायद जवाब मिला तो मगर वो सही है या नहीं. उस का फैसला में आज तक नहीं कर सकी क्यूँ हम लोग आज अपनी ज़िन्दगी में इतना सिकुड़ कर रहे गये हैं ? क्यूँ हर वक़्त हम अपनी personal Life का राग अलापा करते है, कहाँ गयी वो सारी बातें जो हम अपने दोस्तों से घंटों किया करते थे, कहाँ गया वो जज्बा जब कोई अच्छे बुरे, ऊंच नीच, झूठे मीठे का कोई भेद नहीं होता था हमारे मन में होती थी तो बस दोस्ती कि भावना. तब तो हम सब दोस्तों के हाथों छुड़ा-छुड़ा कर खा लिया करते थे और अब hygiene - hygiene गाया करते है. पहले तो हारे थके खेलने के बाद कहीं भी रोड पर पानी मिल जाये तो पी लिया करते थे और अब mineral water का गाना गाते है. हर कोई अपनी निजी ज़िन्दगी का गाना गाते हैं, अब हमारी अपनी ज़िन्दगी इतनी सिकुड़ गयी है कि अब उसमें हमारे दोस्तों के लिये जगह नहीं बची है. अब एक छोटे से खेल लूडो को ही ले लीजिये, हमारे ज़माने के खेल अष्ट चंगा पै...कि जगह लूडो ने लेली है सारे वही नियम, बस स्वरुप बदल गया है. ज़रा सोचिये क्या हमने खुद कभी अपने बच्चो को बताया है कि इस खेल का स्वरुप पहले क्या हुआ करता था और आज क्या है. खेल वही है लेकिन स्वरुप और खेलने वाले दोनों ही बदल गये. क्या इसे भी आप वक़्त का तकाजा कहेगे शायद ज़िन्दगी बदल रही है..... आज की ज़िन्दगी में ज़िन्दगी का लम्हा बहुत छोटा सा है, आने वाले कल की कोई बुनियाद नहीं है आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है और हम ...अपनी इन तमन्नाओं से भरी इस ज़िन्दगी में बस भागे चले जा रहे हैं. जबकि आज हमें खुद क्या चाहिये शायद हम खुद भी नहीं जानते कहते है. एक सफल ज़िन्दगी का अर्थ होता है घर, गाड़ी, नौकर-चाकर और इसे हम खुशहाल ज़िन्दगी का नाम देते है. क्या बस यही है एक सफल ज़िन्दगी की परिभाषा है. क्या हमको इस से ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए और अगर यही सच है तो फिर हम किस दौड़ में शामिल है और कहाँ भाग रहे है और क्या है हमारी मंजिल.
क्यूँकि आज के इस आधुनिक युग में घर, गाड़ी और एक सामान्य ज़िन्दगी गुजारने के लायक पैसा तो हर कोई कमा ही लेता है, किन्तु तब भी आज किसी की ज़िन्दगी में न वक़्त है, न सुख है, न चैन है और ना ही कोई अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट है. आखिर क्यूँ हम ज़िन्दगी जी रहे हैं क्या सच में हम ज़िन्दगी जी रहे हैं ? या काट रहे हैं? यहाँ मुझे वो बात याद आती है जो कि शायद ज़िन्दगी का सब से बड़ा सच है जो कि अकसर कब्रिस्तान के बाहर लिखा होता है ''कि मंजिल तो यही थी मगर ज़िन्दगी गुज़र गयी मेरे यहाँ आते-आते''.
अंत में बस इस विषय में आप सभी से केवल इतना ही कहना चाहूगी की दोस्तों ज़िन्दगी शायद नहीं, यक़ीनन बदल गयी है इस लिये मेरा आप सब भी से अनुरोध है कि जिंदगी को जियो, काटो नहीं....और अपने आने वाली नई पीढ़ी को भी जीवन जीना सीखाईये, काटना नहीं. क्यूंकि जीना इसका नाम है यहाँ मुझे एक पुरानी हिन्दी फिल्म के एक गीत कि कुछ पंक्तियाँ याद आरही है कि ''किसी कि मुस्कुराहटों पे हो फ़िदा, किसी का दर्द मिल सके तो ले उठा ,किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है '' जय हिंद ....
युवावस्था के ताज़ा अनुभव, चुलबुलाती भीतरी एनर्जी और अतीतराग का मिश्रण बहुत सुंदर बन पड़ा है. शुभकामनाएँ.....
ReplyDeleteआदरणीय पल्लवी जी
ReplyDeleteआपने मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी देने का समय निकाला जिसके लिये आपका हृदय से आभार।
आत्मीय संवदेनाओं से ओतप्रोत आपकी टिप्पणी पढकर ऐसा लगा मानों कोई गहरे से जु‹डे आत्मीय शुभचिन्तक की टिप्पणी है। आपने जो कुछ कहा है, उसे मैं समझ सकता हूँ। मेरा इरादा धन के लिये अपनी वेदनाओं को बेचने का तनिक भी नहीं है, लेकिन मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि क‹डवा सच जनता के सामने आये बेशक उसके कारण मेरे घाव फिर से बार-बार जिन्दा होते रहें, वैसे भी मेरे घाव भरे कहाँ हैं। मेरे घावों को तो प्रतिपल कोई न कोई खरोंचता ही रहता है। क्योंकि कैदियों या निर्दोंषों को सजा से जु‹डी ढेरों कहानियाँ लिखी जाती हैं। फिल्में भी बनती हैं, लेकिन इनमें आंशिक या केवल सांकेतिक सच्चाई होती है। समाज कितना निर्मम है, पुलिस और अदालतें क्या-क्या कर करती हैं? इससे अभी भी हमारा समाज और समाज का बुद्धिजीवी वर्ग पूरी तरह से वाकिफ नहीं है। ऐसा मेरा मानना है। हो सकता है कि मैं इस बारे में गलत भी होऊँ, लेकिन फिर भी जन-जन तक अपनी बीति के बहाने इन पहलुओं को बतलाने में क्या नुकसान है? धन मिले न मिले, इसकी परवाह नहीं। मिलेगा तो समाज में बहुत सारे ऐसे जरूरतमन्द लोग हैं, जिनके काम आयेगा।
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आपकी प्रस्तुत रचना पढकर आपके व्यक्तित्व की सहज ही कल्पना की जा सकती है। मेरी शुभकामनाएँ हैं कि आप हमेशा सहज, सकारात्मक, सक्रिय, ऊर्जावान और स्वस्थ बनी रहें।
उम्र कैदी
madam ji ,
ReplyDeletewah ! wah !! wah !!!
" har waaque par wah nikley <
kya khoob likha hai ki...
jitni bhi wah nikley kam nikley "
yu ki jo bhi isko parhta hoga wo iss baat se sehmat toh avashya hoga he , kintu mere mann mai ye vichaar hai ki kya hum is makadjaal ko todney ki koi pryaas kar saktey hai ? yadi han toh kya raasta hai ???
इस विषय पे सही में बहुत लोगों ने बहुत कुछ लिखा है, लेकिन फिर भी आप लिखिए, ये मत सोचिये की ये सब बातें पहले कही जा चुकी है...
ReplyDeleteहम तो लूडो की तस्वीर देख कर ही नॉस्टैलिजिया गए है...:)
पहले के दिन जो थे, वो बहुत सुहाने दिन थे...अब वो वापस नहीं आयेंगे...लेकिन क्या दिन थे वो भी...
अगर फुर्सत मिले तो ये पोस्ट पढियेगा....कुछ थोड़ा बहुत मैंने भी कहने की कोशिश की है - एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना
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ReplyDeleteसचमुच काफी कुछ बदल गया है। लेकिन परिवर्तन ही तो सृष्टि का नियम है। हम तो कभी पुराना सोचकर खुश हो लेते हैं। और कभी वर्तमान में थोडा सा जी लेते हैं।
शुभकामनाएं !
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बहुत खूब पल्लवी जी - हकीकत से आँखें मिलाती आपका सारगर्भित चिन्तन पसन्द आया।
ReplyDeleteयह सच है कि आज वैज्ञानिक खोज और विकास के कारण पूरी दुनिया जितनी नजदीक हुई है - दिलों की दूरी उतनी बढ़ती जा रही है।
आग्रह है कि इस लिन्क को देखें http://manoramsuman.blogspot.com/2009/12/blog-post_13.html -शायद यह आपके सोच की काव्यात्मक प्रति लगे।
सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
''कि मंजिल तो यही थी मगर ज़िन्दगी गुज़र गयी मेरे यहाँ आते-आते''.
ReplyDeletehmm
haai Pallvi ji...is baat ne dil jeet liya..aapka abhi pehla anibhav hi praa...sur usii me doob gyi...sach..hmaari zindgii ke chote chote anubhavi kitni bdi bdi zindgi chipi hoti hain..bahut achaa lgaa prnaa...
..mujhe protsaahan dene aur likha psnd lkrne ke liye tah e dil se shukriyaa..thanx
take care
Childhood is best cherish those moments for your kids too. Lovely.
ReplyDeleteमेरा मानना तो यह है कि "इंसान बदलता नहीं है ....बल्कि बदलने का नाटक करता है "
ReplyDelete..........और तो और जिन्दगी भी नहीं बदलती ...........केवल समय बदलता है !!!
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ति वो बारिश का पानी...
ReplyDeleteकल 12/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
aur insaan hi bahut kuch badal deta hai...
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा आपने..
ReplyDeleteकिसी की लिखी एक पंक्ति याद आ गयी..
"जिंदगी बड़ी होनी चाहिए..लंबी नहीं "
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