सब से पहले तो आप सभी को मेरा नमस्कार, आज बहुत दिनों बाद आप सब के बीच फिर से आना हो पाया है। अभी तक मैं इंडिया गई हुई थी और अभी 18 तारीख को ही लौटी हूँ। यह बात अलग है कि जब तक यह लेख आप तक पहुंचेगा तब तक और भी ज्यादा दिन गुजर चुके होंगे मुझे वापस आए हुए। आज तक मैंने आप सभी के साथ अपने विदेश यात्रा के अनुभवों को बांटा है। मगर आज मैं आप सभी के साथ अपने भारत अपने देश की यात्रा के अनुभवों को भी बांटना चाहती हूँ कि कैसे सब कुछ कितनी जल्दी और कितनी आसानी से यादों में बदल जाता है। आज सोचो तो लगता है कल का वह लम्हा, आज याद बन गया। मुझे वहाँ ही लगने लगा था कि अभी तो यह मौज मस्ती में बहुत मजा रहा है और कल का दिन आते ही यह सारे पल यादों में बदल जाएंगे सही ही कहा है कि "आने वाला पल जाने वाला है हो सके तो इस में जिंदगी बिता दो पल जो ये जाने वाला है" अपनी इन्ही यादों का कारवां लिए मैं आप सभी से उम्मीद करती हूँ कि बाकी सारे अनुभव की तरह आप सभी को मेरा यह अनुभव भी पसंद आयेगा।
साल में एक बार अपने देश जाना, अपनी मिट्टी से मिलना, अपने परिवार से मिलना, ऐसा लगता है मानो सदियाँ बीत गई हों, एक महीना भी मानो एक पल जैसे गुजर जाता है, कभी भारत में रहकर ऐसा एहसास न हुआ था जैसा अब यहाँ रहने के बाद वहाँ जाने पर और सब से मिलने पर होता है। घर के सभी लोगों को हमारा इतना इंतजार रहता है जिसे शब्दों में कह पाना नामुमकिन सी बात है। वह लोग जो वहाँ रहकर भी हमारे शहर से बाहर हैं वो भी मुझसे मिलने के लिए अपनी छुट्टियाँ बचा-बचा कर रख रहे थे, ताकि जब मैं इंडिया आऊँ तो वह सभी मुझ से मिलने आसानी से आ सकें। करीब दो साल बाद मुझे त्यौहार का सही मजा मिल सका जिसकी मुझे बेहद खुशी है। राखी जैसे त्यौहार का मजा भी जब ही आता है, जब सारे भाई बहन साथ रहकर मस्ती कर सकें घर भरा-भरा सा महसूस हो, अन्यथा बाकी के सारे त्यौहार तो ऐसे पड़ जाते हैं जिसमें साधारणतौर पर लोग अपने-अपने घर में रह कर ही मनाना पसंद करते है। जैसे होली,दिवाली इस के अलावा पूरे साल में और कोई ऐसे त्योहार भी नहीं आते है, जिस में हम लोग इंडिया आने के विषय में सोच सकें, खैर यह तो थी ऊपरी शुरुवात मेरे भारत भ्रमण के अनुभव की, सही शुरुवात तो अब करती हूँ ।:)
जाने से पहले के एक दो दिन उत्साह इतना कि कुछ समझ नहीं आता है कि क्या सही क्या ग़लत, समय ऐसा लगता है मानो रुक गया हो, जाने के दिन बहुत धीरे-धीरे पास आते है। मन के अंदर इंडिया जाने की खुशी का ठिकाना नहीं होता है और उल्टी गिनती शुरू हो चुकी होती है। आखिरी समय तक सब के लिए खरीददारी चलती रहती है। ऐसा लगता रहता है, कहीं कोई छूट ना जाये इस बार तो मैंने हवाई जहाज में बैठ कर भी ब्लॉग लिखा मगर क्या लिखा क्या नहीं वो बाद की बात है उस विषय पर फिर कभी रोशनी डालूँगी मगर प्लेन में बैठ कर लिखने का वो मेरा पहला अनुभव था। सच कहूँ तो मुझे मजा भी बहुत आया । पता नहीं क्यूँ पहले कभी मेरे दिमाग में ऐसा कोई विचार क्यूँ नहीं आया। खैर कोई बात नहीं कभी न कभी सभी की जिंदगी में कोई न कोई कार्य पहली बार होता ही है। सो मेरी जिंदगी में भी हो ही गया, यह मेरा बड़ा सुखद सा अनुभव था, मेरी कल्पनाओं और विचारों को मन की तरंगों के साथ बाहरी मौसम का भी सहयोग प्राप्त हो रहा था। एक तरफ मेरी कल्पनाएं और दूसरी ओर मेरा प्लेन बादलों को चीरता हुआ बादलों के बीच से गुज़र रहा था। खिड़की से देखने पर ऐसा नज़ारा था मानो बादलों की ही ज़मीन हो, बादलों का ही आसमान। जिसके कारण मेरी कल्पनाओं और विचारों को स्वप्न लोक की दुनिया का रास्ता मिल रहा हो। यूं तो मैंने हवाई यात्रा बहुत की हैं, लेकिन इस बार का अनुभव पता नहीं क्यूँ लेखन से जुड़ जाने के कारण बहुत ही अद्भुत हो गया था।
मगर कहीं एक तरफ मन के किसी कोने में एक एहसास अपनों से मिलने कि खुशी का था, तो कहीं एक एहसास उन से बिछड़ कर वापस आने का भी था। जिसे मेरा मन चाह कर भी अनदेखा नहीं कर पा रहा था। खुशी के साथ कहीं थोड़ी उदासी भी थी। आखिरकार यात्रा समाप्त हुई और हम पहुंचे हमारे शहर यानि मेरे ससुराल जबलपुर वैसे कहने वाली बात तो नहीं है, लेकिन फिर भी, शादी के बाद हर लड़की का घर उसका ससुराल ही बन जाता है। किन्तु फिर भी (अपना मायका और अपना शहर अपना ही होता है भई चाहे फिर कोई कुछ भी कहे ) है ना :)
खैर वहाँ पहुँच कर सबका खूब प्यार मिला, मान मिला, बड़ी बहू होने के नाते सम्मान भी बहुत मिला। बच्चे भी आपस में ऐसे घुल मिल गए मानो हमेशा से एक साथ ही रहे हों, खूब घूमें फिरे, मौज मस्ती की, चाट पकोड़ियाँ का भरपूर मजा लिया, खूब इंडियन परिधान पहने खासकर साड़ियाँ जो साधारण तौर पर यहाँ पहन पाना संभव नहीं हो पता है । खेलते कूदते मौज मस्ती में वहाँ के दिन कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला बातें भी करने के लिए इतनी सारी हुआ करती थी कि इस बार तो जेट लेग का भी एहसास नहीं हुआ। (जेट लेग) बोले तो समय का अंतर होने के कारण जो आप कि शारीरिक स्थिति में जो बदलाव आता है, उसे (जेट लेग) कहते हैं। बातें करने और गप्पे मारने के लिए इतना कुछ था कि समय का पता ही नहीं चलता था कि कब दोपहर हुई और कब रात के 12 बज गए और वैसे भी इंडिया जाने के बाद तो मेरा मन बस एक ही गीत गुनगुनाता रहता है कि "आज मदहोश हुआ जाये रे मेरा मन मेरा मन "ऐसे ही हस्ते खेलते दिन निकल गए जबलपुर के भी और दिन आया वहाँ से भी विदा लेने का, सभी की आँखें नम थी। जाते वक़्त तो मेरे भी आँखों में आँसू थे। तभी एक पड़ोस कि आंटी आयीं और उन्होने कहा अरे तू तो रो रही है पागल है क्या, तू ससुराल से जा रही है या मायके से और ससुराल से जाते वक़्त भी कोई रोता है क्या। तब मैंने उन से कहा था आंटी मेरा ससुराल भी मेरे लिए मायके से कम नहीं है। वैसे भी जब कम दिनों के लिए मिलाप हो तो बुरा तो लगता ही है, और यह कह कर हम स्टेशन के लिए निकल गए, और फिर आखिरकार वो दिन आ ही गया जिसका मेरे मन को बहुत बेसब्री से इंतज़ार था ।
अब हम आ पहुंचे भोपाल मेरा अपना भोपाल जहां कि सुबह मुझे अपनेपन का एक अलग सा एहसास दिलाती है अपनी मिट्टी और अपने लोगों का एक बिकुल अलग एहसास वैसे देखा जाये तो भारत आने के बाद जो भाव मेरे अंदर उत्पन्न होते हैं ठीक वैसे ही भाव मेरे अंदर भोपाल पहुँचने पर होते हैं क्यूंकि देखा जाए तो यहाँ से जाने के बाद हर हिंदुस्तानी, अपना सा लगता है। ठीक वैसे ही भोपाल पहुँचने के बाद वहाँ मिलने वाला हर शक्स चाहे वो जाना पहचाना हो या अंजान अपना सा लगता है। खैर घर पहुँच कर पापा मम्मी का मुझे गले से लगा लेना थोड़ी देर के लिए जैसे सारी दुनिया उनकी बाहों में ही सिमट जाती है और ऐसा लगता है जैसे शायद इस एक एहसास के लिए मन तरस रहा था जाने कब से और सब का वो उत्साह मुझसे मिलने का मम्मी का उस दिन से ही शुरू हो जाना कि बता क्या खाना है तेरे पसंद की हर चीज बनाई है और बता तो वो भी बन जाएगी हमेशा कि तरह सभी मम्मियों का प्यार अपने बच्चे की पसंद का खाना खिलाने से ही शुरू होता है और मेरी मम्मी का भी ठीक वैसे ही शुरू हुआ। मगर मुझे सब से अच्छा कुछ लगता था तो वो यह कि सुबह जब मेरे मम्मी मुझे बहुत प्यार से बेटा, मेरा कूचुया कह कर उठाया करती थी। मेरे गालों पर प्यार से अपने ठंडे -ठंडे हाथ फिराया करती थी और जब में उठ कर उन के गले लग जाया करती थी। तो धीरे से मेरे गाल पर प्यारा सा ममता भरा चुभन लिया करती थी । मुझे बहुत याद आ रही है सब कि खास कर इन छोटे-छोटे पलों की जिनके लिए मेरा मन तरस जाता है। मगर मैं जानती हूँ कि उनकी और मेरी भी कुछ मजबूरीयाँ हैं, जिनके चलते यह दिन, यह एहसास मेरे करीब ज्यादा दिन तक कभी नहीं रह सकते। जब कभी मुझे यह सब जरूरत से ज्यादा याद आता है तो लगता है कौन है वो जिसने यह रिवाज बनाया कि लड़की को ही अपना घर छोड़ कर दूसरे घर जाना होगा, मिल जाए तो उसकी खबर ले लूँ, मगर यह तो सिर्फ बातें हैं, सोच है। अंत में करना तो वही है जो इस so called समाज का नियम है ।
खैर जो भी है आगे की कहानी यह है कि दो चार दिन बाद मेरे और भी भाई लोग भोपाल आ गए मुझसे मिलने और फिर उसके बाद जो मस्ती का रंग चढ़ना शुरू हुआ तो बस गहराता ही चला गया। खूब चाय और ताश के पतों के दौर चले, रात-रात भर खूब खाने खिलाने का सिलसिला चला। आज इस के घर दावत है, तो कल उसके घर, फिर आया राखी का पावन त्यौहार जिसकी मैंने भारी भरकम ख़रीददारी की, मैंने खूब खर्चा किया दिल खोल कर और भाइयों की भी खूब जेबें ढीली करवाईं। मेंहदी का रंग, उसकी खुशबू चारों और बिखरती रही सब के हाथों में। मैंने खुद अपने हाथों से मेंहदी लगाई और जो मेरी मेंहदी का रंग आया तो खूब छेड़ा सबको यह कह-कह कर कि देखो इतना गहरा रंग तभी चढ़ता है जब कोई प्यार न करता हो देखो-देखो मुझे कोई प्यार नहीं करता क्यूंकि वो कहते है न कि "कु प्यारे को मेंहदी और सावले को पान खूब रचता है" इस लिए मैंने भी छेड़ छाड़ करने के लिए सबको यही संवाद जम कर चिपकाया, फिर हम लोग सब पिकनिक के लिए सांची गए सुबह से घर से निकले बस से रास्ते में पुराने भोपाल में रुक कर पोहा जलेबी खाई, पास के मंदिर में मैंने जाकर दर्शन भी किए जो करफुई वाली देवी के मंदिर के नाम से जाना जाता है।
फिर आगे चले तो एक गाँव के पास जहां से कर्क रेखा(Tropic of Cancer) गुजरती है वहाँ हमारी बस खराब हो गई, रास्ते में ही एक पेड़ के नीचे दरियाँ बिछा ली गई और वहाँ भी ताश के पतों का दौर चलने लगा। बच्चे क्रिकेट खेलने में मसरूफ़ हो गए और हम लोग ताश और गप्पों में बड़ी देर बाद जाकर खबर मिली कि अब बस ठीक हो गई है चलो फिर आगे चले तो सभी का भूख से बुरा हाल था। तब मेरे कहने पर एक ढाबे पर खाना खाने का प्रोग्राम बना और वहाँ हम लोगों ने बिलकुल फिल्मी स्टाइल में बकायदा खाट पर बैठ कर सेव टमाटर की सब्जी और तड़के वाली दाल के साथ दही और तंदूरी रोटियों का मज़ा लिया। उसके बाद हम लोग आगे सांची के स्तूप देखने के लिए आगे बढ़े उस खाने का स्वाद तो आज भी मुझे याद आ रहा है और मेरे मुंह में तो लिखते हुए भी पानी आरहा है । आपकी जानकारी के लिए बता दूँ सांची स्तूप सम्राट अशोक ने बुद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए बनवाया था। :)
अंतत वहाँ के दिन भी यूं ही बीत गए और आखिरकार वहाँ भी विदाई का दिन आ ही गया। पहली बार मैंने अपने पापा कि आँखों में नमी और गले में भारीपन को महसूस किया, इतना तो मुझे याद नहीं कि मेरी पहली बार विदाई होने पर भी पापा को लगा होगा। हांलांकी लगा तो तब भी बहुत होगा यह मैं बहुत अच्छे से जानती हूँ। मगर तब उन्होने मुझे महसूस नहीं होने दिया मगर इस बार वो भी अपने आप को रोक नहीं पाये और आखिरकार वहाँ से भी भारी मन से न चाहते हुए भी मुझे प्रस्थान करना ही पड़ा। आज का दिन है कि मैं यहाँ अपने घर वापस आ गयी हूँ और आज आप सभी के साथ अपने अनुभव को बाँट रही हूँ मैं जानती हूँ कि यह मेरे अनुभव है, इसलिए शायद आप को इस में उतना मजा न भी आया होगा जितना की आना चाहिए क्यूंकि आप ने यह सब मेरी लेखनी कि नज़र से देखा है और शायद कुछ जगहों पर महसूस भी किया हो क्यूंकि कहीं न कहीं तो अनुभव भी एक दूसरे के एक दूसरे से मिल ही जाया करते हैं इस उम्मीद के साथ कि शायद आप सभी लोग मेरे इस लेख के जरिये से खुद के अनुभवों को मेरे इन अनुभवों से जोड़ कर देख पाएंगे इसी आशा और उम्मीद के साथ जय हिन्द .....
खैर वहाँ पहुँच कर सबका खूब प्यार मिला, मान मिला, बड़ी बहू होने के नाते सम्मान भी बहुत मिला। बच्चे भी आपस में ऐसे घुल मिल गए मानो हमेशा से एक साथ ही रहे हों, खूब घूमें फिरे, मौज मस्ती की, चाट पकोड़ियाँ का भरपूर मजा लिया, खूब इंडियन परिधान पहने खासकर साड़ियाँ जो साधारण तौर पर यहाँ पहन पाना संभव नहीं हो पता है । खेलते कूदते मौज मस्ती में वहाँ के दिन कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला बातें भी करने के लिए इतनी सारी हुआ करती थी कि इस बार तो जेट लेग का भी एहसास नहीं हुआ। (जेट लेग) बोले तो समय का अंतर होने के कारण जो आप कि शारीरिक स्थिति में जो बदलाव आता है, उसे (जेट लेग) कहते हैं। बातें करने और गप्पे मारने के लिए इतना कुछ था कि समय का पता ही नहीं चलता था कि कब दोपहर हुई और कब रात के 12 बज गए और वैसे भी इंडिया जाने के बाद तो मेरा मन बस एक ही गीत गुनगुनाता रहता है कि "आज मदहोश हुआ जाये रे मेरा मन मेरा मन "ऐसे ही हस्ते खेलते दिन निकल गए जबलपुर के भी और दिन आया वहाँ से भी विदा लेने का, सभी की आँखें नम थी। जाते वक़्त तो मेरे भी आँखों में आँसू थे। तभी एक पड़ोस कि आंटी आयीं और उन्होने कहा अरे तू तो रो रही है पागल है क्या, तू ससुराल से जा रही है या मायके से और ससुराल से जाते वक़्त भी कोई रोता है क्या। तब मैंने उन से कहा था आंटी मेरा ससुराल भी मेरे लिए मायके से कम नहीं है। वैसे भी जब कम दिनों के लिए मिलाप हो तो बुरा तो लगता ही है, और यह कह कर हम स्टेशन के लिए निकल गए, और फिर आखिरकार वो दिन आ ही गया जिसका मेरे मन को बहुत बेसब्री से इंतज़ार था ।
अब हम आ पहुंचे भोपाल मेरा अपना भोपाल जहां कि सुबह मुझे अपनेपन का एक अलग सा एहसास दिलाती है अपनी मिट्टी और अपने लोगों का एक बिकुल अलग एहसास वैसे देखा जाये तो भारत आने के बाद जो भाव मेरे अंदर उत्पन्न होते हैं ठीक वैसे ही भाव मेरे अंदर भोपाल पहुँचने पर होते हैं क्यूंकि देखा जाए तो यहाँ से जाने के बाद हर हिंदुस्तानी, अपना सा लगता है। ठीक वैसे ही भोपाल पहुँचने के बाद वहाँ मिलने वाला हर शक्स चाहे वो जाना पहचाना हो या अंजान अपना सा लगता है। खैर घर पहुँच कर पापा मम्मी का मुझे गले से लगा लेना थोड़ी देर के लिए जैसे सारी दुनिया उनकी बाहों में ही सिमट जाती है और ऐसा लगता है जैसे शायद इस एक एहसास के लिए मन तरस रहा था जाने कब से और सब का वो उत्साह मुझसे मिलने का मम्मी का उस दिन से ही शुरू हो जाना कि बता क्या खाना है तेरे पसंद की हर चीज बनाई है और बता तो वो भी बन जाएगी हमेशा कि तरह सभी मम्मियों का प्यार अपने बच्चे की पसंद का खाना खिलाने से ही शुरू होता है और मेरी मम्मी का भी ठीक वैसे ही शुरू हुआ। मगर मुझे सब से अच्छा कुछ लगता था तो वो यह कि सुबह जब मेरे मम्मी मुझे बहुत प्यार से बेटा, मेरा कूचुया कह कर उठाया करती थी। मेरे गालों पर प्यार से अपने ठंडे -ठंडे हाथ फिराया करती थी और जब में उठ कर उन के गले लग जाया करती थी। तो धीरे से मेरे गाल पर प्यारा सा ममता भरा चुभन लिया करती थी । मुझे बहुत याद आ रही है सब कि खास कर इन छोटे-छोटे पलों की जिनके लिए मेरा मन तरस जाता है। मगर मैं जानती हूँ कि उनकी और मेरी भी कुछ मजबूरीयाँ हैं, जिनके चलते यह दिन, यह एहसास मेरे करीब ज्यादा दिन तक कभी नहीं रह सकते। जब कभी मुझे यह सब जरूरत से ज्यादा याद आता है तो लगता है कौन है वो जिसने यह रिवाज बनाया कि लड़की को ही अपना घर छोड़ कर दूसरे घर जाना होगा, मिल जाए तो उसकी खबर ले लूँ, मगर यह तो सिर्फ बातें हैं, सोच है। अंत में करना तो वही है जो इस so called समाज का नियम है ।
खैर जो भी है आगे की कहानी यह है कि दो चार दिन बाद मेरे और भी भाई लोग भोपाल आ गए मुझसे मिलने और फिर उसके बाद जो मस्ती का रंग चढ़ना शुरू हुआ तो बस गहराता ही चला गया। खूब चाय और ताश के पतों के दौर चले, रात-रात भर खूब खाने खिलाने का सिलसिला चला। आज इस के घर दावत है, तो कल उसके घर, फिर आया राखी का पावन त्यौहार जिसकी मैंने भारी भरकम ख़रीददारी की, मैंने खूब खर्चा किया दिल खोल कर और भाइयों की भी खूब जेबें ढीली करवाईं। मेंहदी का रंग, उसकी खुशबू चारों और बिखरती रही सब के हाथों में। मैंने खुद अपने हाथों से मेंहदी लगाई और जो मेरी मेंहदी का रंग आया तो खूब छेड़ा सबको यह कह-कह कर कि देखो इतना गहरा रंग तभी चढ़ता है जब कोई प्यार न करता हो देखो-देखो मुझे कोई प्यार नहीं करता क्यूंकि वो कहते है न कि "कु प्यारे को मेंहदी और सावले को पान खूब रचता है" इस लिए मैंने भी छेड़ छाड़ करने के लिए सबको यही संवाद जम कर चिपकाया, फिर हम लोग सब पिकनिक के लिए सांची गए सुबह से घर से निकले बस से रास्ते में पुराने भोपाल में रुक कर पोहा जलेबी खाई, पास के मंदिर में मैंने जाकर दर्शन भी किए जो करफुई वाली देवी के मंदिर के नाम से जाना जाता है।
फिर आगे चले तो एक गाँव के पास जहां से कर्क रेखा(Tropic of Cancer) गुजरती है वहाँ हमारी बस खराब हो गई, रास्ते में ही एक पेड़ के नीचे दरियाँ बिछा ली गई और वहाँ भी ताश के पतों का दौर चलने लगा। बच्चे क्रिकेट खेलने में मसरूफ़ हो गए और हम लोग ताश और गप्पों में बड़ी देर बाद जाकर खबर मिली कि अब बस ठीक हो गई है चलो फिर आगे चले तो सभी का भूख से बुरा हाल था। तब मेरे कहने पर एक ढाबे पर खाना खाने का प्रोग्राम बना और वहाँ हम लोगों ने बिलकुल फिल्मी स्टाइल में बकायदा खाट पर बैठ कर सेव टमाटर की सब्जी और तड़के वाली दाल के साथ दही और तंदूरी रोटियों का मज़ा लिया। उसके बाद हम लोग आगे सांची के स्तूप देखने के लिए आगे बढ़े उस खाने का स्वाद तो आज भी मुझे याद आ रहा है और मेरे मुंह में तो लिखते हुए भी पानी आरहा है । आपकी जानकारी के लिए बता दूँ सांची स्तूप सम्राट अशोक ने बुद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए बनवाया था। :)
अंतत वहाँ के दिन भी यूं ही बीत गए और आखिरकार वहाँ भी विदाई का दिन आ ही गया। पहली बार मैंने अपने पापा कि आँखों में नमी और गले में भारीपन को महसूस किया, इतना तो मुझे याद नहीं कि मेरी पहली बार विदाई होने पर भी पापा को लगा होगा। हांलांकी लगा तो तब भी बहुत होगा यह मैं बहुत अच्छे से जानती हूँ। मगर तब उन्होने मुझे महसूस नहीं होने दिया मगर इस बार वो भी अपने आप को रोक नहीं पाये और आखिरकार वहाँ से भी भारी मन से न चाहते हुए भी मुझे प्रस्थान करना ही पड़ा। आज का दिन है कि मैं यहाँ अपने घर वापस आ गयी हूँ और आज आप सभी के साथ अपने अनुभव को बाँट रही हूँ मैं जानती हूँ कि यह मेरे अनुभव है, इसलिए शायद आप को इस में उतना मजा न भी आया होगा जितना की आना चाहिए क्यूंकि आप ने यह सब मेरी लेखनी कि नज़र से देखा है और शायद कुछ जगहों पर महसूस भी किया हो क्यूंकि कहीं न कहीं तो अनुभव भी एक दूसरे के एक दूसरे से मिल ही जाया करते हैं इस उम्मीद के साथ कि शायद आप सभी लोग मेरे इस लेख के जरिये से खुद के अनुभवों को मेरे इन अनुभवों से जोड़ कर देख पाएंगे इसी आशा और उम्मीद के साथ जय हिन्द .....
सबसे पहले तो उस समाज की खबर लेते हैं जिसने लड़की को विदा करने का रिवाज़ बनाया है. दूसरे, आपको इंडिया आने और फिर अपने घर लौटने की बधाई. तीसरे, कर्क रेखा पर छोटे नवाब को देख कर खुशी हुई. इस प्रकार हम ने भी कर्क रेखा देख ली जो पहले नहीं देखी थी. चौथे, आपके ब्लॉगधारा में लौटने पर शुभकामनाएँ.
ReplyDelete"यूं तो मैंने हवाई यात्रा बहुत की हैं, लेकिन इस बार का अनुभव पता नहीं क्यूँ लेखन से जुड़ जाने के कारण बहुत ही अद्भुत हो गया था।" यह अनुभव महत्वपूर्ण है जो आगे चल कर रंग लाएगा.
aap ka anubha bahota acha tha or yatra bhi.bharat jane ke naam se hi yek acha sa yesasa hota hai .vidai ke naam se hi aakha mai aasu aa jate hai.bahota sunadar lekha hai aap ka.
ReplyDeletesach mein pata hi nahi chala din kab aaye aur kab gaye...
ReplyDeleteYaadein chahe kaisi bhi ho chehre pe muskaan la deti hain, aisa hi kuch abhi ho raha hain.
Hi Pallavi, apka sansmaran padhke apna Bharat yatraon ki yaad aa gayi. Padhkar laga ki bhale hum sab alag alag hai, lekin hamari bhavnayein hamara jeevan sab kuch kitna samaan hota hai. Laga jaise main apni he aapbeeti padh rahi hoon.
ReplyDeleteGreat write up, write more about your India trip. cheers !
Rina
पल्लवी जी! आप बहुत सुन्दर यात्रा-वर्णन लिखती हैं। हिन्दी के यात्रा-वृत्तान्त पर मेरा एक रिसर्च प्रोजक्ट है जिस पर जोरों से काम चल रहा है। इस सम्बन्ध में मैं आपसे अलग से बात करना चाहता हूँ और आपके लेखों का सन्दर्भ भी उस प्रोजक्ट में देना चाहता हूँ। आपके सहयोग की अपेक्षा करता हूँ। -ग़ाफ़िल, फोन- 09532871044
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया (गाफ़िल जी) मैं भी आप के इस प्रोजेक्ट का हिसा बनाना चाहती हूँ और उसके लिए किस प्रकार मैं आपके इस project में आपकी सहायक बन सकती हूँ.... विस्तार पूर्वक बताइये... धन्यवाद
ReplyDeleteaap k katahnak k toh kya kehney, kintu us mai goorh hindi k shabdo k prayog se jo ek alag aayam paida hota hai wo kabil-e-tareef hai .jabalpur mai maneesh ji ghar toh mai kai baar gaya tha , lagey haatho is baar aap k bhopal k ghar ki zhaki bhi mil gai .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अनुभव शेयर किया है । अच्छा लगा।
ReplyDeleteवाह! आपके अनुभव रोचक ही नहीं भावुक करने वाले हैं.
ReplyDeleteनीचे वाले चित्र में लगता है आपके साहबजादे हाथ बाँधे
खड़े हैं.
आपकी सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
भक्ति व शिवलिंग पर अपने सुविचार
प्रस्तुत करके अनुग्रहित कीजियेगा.
Aapki yeh baat to bilkul sahi ha ki apne desh ki "mitti" bilkul apne khun ki tarah lagti ha...... Par aap jaasa likha ha use dekh kar to lagta ha ki aapne bhi shaayad ye nahi socha hoga ki aapko india ma itna maza aaiga..........
ReplyDeleteरोचक शैली.
ReplyDeleteयदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक आलेख हेतु पढ़ें
अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html
यह पोस्ट तो बनता ही था...लाजमी था.भारत भ्रमण को बहुत अच्छे अंदाज़ में लिखा है...
ReplyDeleteलेकिन एक ही पोस्ट में सब खत्म कर दिया आपने????अरे जी कम से कम कुछ और पोस्ट तो होने चाहिए न...चलिए जल्दी से फिर कलम पकड़िये..ओह सॉरी कलम नहीं, कीबोर्ड :P
pallvi ji , aap bahut achchha likhti hai...ye sach hai ki aap beetee hi real aur sahaj lekhan ho sakta hai ...badhaaee ..aap london me rah kar bhi hindi ko promote kar rahi hai ...jaan kar achchha lagaa ...
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