Friday, 26 August 2011

कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व "हकीकत या भ्रम"


इस विषय पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। मगर उस सब के सही होने का प्रमाण सभी का अपना-अपना नज़रिया होगा कोई किसी को गलत नहीं ठहरा सकता। इसलिए मेरी समझ से इस विषय पर दो विचारधाराएँ बनती है। एक वह जो यह सोचते हैं कि कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व किसी तरह का कोई भ्रम नहीं है बल्कि एक जीती जागती हक़ीक़त है, और दूसरी वो जो इसे एक हक़ीक़त न मानते हुये महज़ एक भ्रम मानते है। यह एक महत्वपूर्ण विषय होने के साथ–साथ एक चर्चा का विषय भी बन सकता है। जो लोग इसे हक़ीक़त मानते है तो क्यूँ? और जो लोग इसे भ्रम मानते हैं तो क्यूँ? जहां एक और इस विषय का ताल्लुक़ पढ़ाई लिखाई से संबंध रखता है तो दूसरी और ग्रहणी और एक नौकरी पेशा कामकाजी महिला से भी, और कामकाजी महिला कोई भी हो सकती है चाहे वो लोगों के घर–घर जा कर काम करने वाली बाई हो, या किसी अच्छे पद पर कार्यरत कोई महिला काम तो दोनों ही करती हैं। ठीक इसी प्रकार घर में रहने वाली कोई ग्रहणी हो या बाहर जा कर कम करने वाली कोई महिला। बात है उन दोनों के अस्तित्व की, किसका अस्तित्व भ्रम है और किसका हक़ीक़त। अब हम दोनों ही विचार धाराओं पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करते हैं।
यदि बात की जाये पहली विचारधारा की तो आज हम आधुनिक युग के प्राणी है। आज हमारे समाज ने इस विषय में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा तरक़्क़ी कर ली है। पहले हमारे समाज में महिलाओं को पुरूषों से कम समझा जाता था। पहले कभी उन्हें समान अधिकार नहीं मिले, न पढ़ाई के क्षेत्र में और ना ही कभी किसी और क्षेत्र में ही उन्हें आगे बढ़ने का मौक़ा दिया जाता था। उनकी पूरी ज़िंदगी घर की चार दीवारों तक ही सीमित हुआ करती थी। घर संभालना और बच्चे पैदा करने से लेकर उनका लालन पोषण करने तक की पूरी जिम्मेदारी केवल घर की औरतों की ही हुआ करती थी। इस के अलावा बाहर भी कोई दुनिया है, जिसमें इंसान बसते हैं यह घर में रहने वाली उन महिलों ने कभी जाना ही नहीं था। मगर आज लगभग हर घर में पढ़ी लिखी कम से कम एक महिला तो आपको देखने को मिल ही जाएगी, हाँ यह बात अलग है कि वह बहुत ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं होगी, मगर अक्षर ज्ञान की जानकारी तो कम से कम उसे होगी ही, ऐसा मैं अपने हाल ही के अनुभव के आधार पर कह रही हूँ। अभी कुछ साल पहले तक मेरे अपने घर में काम करने आने वाली बाई बिलकुल ही निरक्षर ही हुआ करती थी और आज की तारीख में मेरे घर काम करने वाली बाई ग्रेजुएट है।
अब यहाँ सवाल यह आता है कि इतनी पढ़ी लिखी होने के बावजूद भी यदि उसे बर्तन साफ करने का काम करना पड़ रहा है तो ऐसी पढ़ाई से क्या लाभ इससे तो (बे) पढ़ी-लिखी औरतें ही अच्छी जिनके नाम के आगे कम से कम निरक्षर होने का तमग़ा तो चिपका है। जिसे देख कर लोगों के मन में सहानुभूति के साथ यह विचार स्वतः ही आ जाता है कि अरे बेचारी बेपढ़ी लिखी है अगर यह काम कर रही है तो कोई बात नहीं कम से कम आत्मनिर्भर तो है। एक बार को तो हम सभी के मन में यह ख्याल भी आता है कि एक तरफ तो हम अपने देशवासीयों को पढ़ने लिखने का संदेश देते है।  उनको पढ़ाई से होने वाले लाभों के बारे में जानकारी देते है, पूरे देश को साक्षबना देखने के सपने सजाते है और दूसरी और जब पढ़े लिखे होने के बाद भी पढ़े लिखे लोगों की ऐसी दशा देखने को मिलती है, तो एक बार तो हमारे मन में भी आता ही है कि क्या फायदा ऐसी पढ़ाई का, है ना! अब इतना पढ़ा लिखा होने के बावजूद भी पता नहीं उसकी ऐसी कौन सी मजबूरी है, जिसके कारण उसको घर-घर जा कर बरतन साफ करने का काम करना पड़ रहा है। यह तो वही जाने, हालाँकि यह बात अलग है कि काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता। ईमानदारी से मेहनत से, जो भी काम किया जाये वह पूजनीय होता है। मगर फिर भी मैंने कभी इसलिए नहीं पूछा क्योंकि मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए किसी गरीब की दुखती रग पर हाथ रखना नहीं चाहती थी। उसकी भले ही कोई भी मजबूरी हो जिसके चलते उसे यह काम करना पड़ रहा हो, किन्तु फिर भी मुझे इस बात की तसल्ली थी कि कम से कम वो पढ़ी लिखी तो है। इस नाते अपना और अपने बच्चों का भला बुरा तो समझ सकती है सोच सकती है और उनको कम से कम सही रहा दिखा सकती है।
स्वयं एक स्त्री होने के नाते मुझे इस बात पर बहुत गर्व है कि आज हमारे देश की महिलाओं ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि आज वो पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं और चलने में पूर्णरूप से सक्षम भी है। यहाँ पर सक्षम होने वाली बात मैंने इसलिए बोली है क्योंकि आज भी कई लोग यह मानते हैं कि जो महिलायें पढ़ी लिखी होकर भी घर बैठी हैं उनमें बाहर निकाल कर नौकरी करने की क्षमता नहीं है अर्थात् उनकी पढ़ाई लिखाई सब बेकार है व्यर्थ है। यहाँ मैं यह भी बताना जरूर चाहूँगी कि यह सोच केवल हमारे पुरुष प्रधान समाज के पुरुषों की नहीं बल्कि स्वयं महिलाओं की भी है। खास कर उन महिलाओं कि जो स्वयं नौकरी पेशा है। किन्तु जो महिलायें नौकरी नहीं कर रही है, उनके प्रति कामकाजी महिलाओं की यही सोच है जो बहुत गलत है। क्योंकि घर से बाहर जाकर काम करना ही आधुनिकता का प्रमाण नहीं होता और ना ही इसका मतलब यह है जो नौकरी नहीं करता उसका पढ़ना लिखना व्यर्थ है या पढ़ाई लिखाई केवल उसे ही करना चाहिए जो आगे जाकर अपने जीवन में नौकरी करे, वरना जिसका ऐसा कोई इरादा ना हो वह पढे ही नहीं, जबकि पढ़ाई का असली महत्व तो जीवन के मूल्यों को समझना होता है।

खैर यह तो था विषय का एक पहलू अब हम बात करते हैं विषय के दूसरे पहलू की, जो लोग यह मानते हैं कि कामकाजी महिलों का अस्तित्व केवल एक भ्रम मात्र है। हक़ीक़त नहीं, अब यहाँ सवाल यह उठता है कि अब जबकि आज के युग में हर औरत मर्द के कंधे से कंधा मिलकर चल रही है और लग-भग हर एक क्षेत्र में महिलाओं को आसानी से काम करते देखा जा सकता है। तो फिर आज भी कहीं समाज के कुछ लोगों कि ऐसी मानसिकता क्यूँ है। यदि इस विषय पर चर्चा की जाये तो इस बात को लेकर भी कई सारे मत सामने आते हैं। जैसे जब मैंने इस विषय को लेकर अपने ही घर की और आस पास की कुछ एक  महिलाओं से इस विषय पर चर्चा की तो पाया कि जो महिलायें ग्रहणियाँ थी उन सभी का मत था कि यह सिर्फ एक भ्रम है क्यूँकि औरत की सही वैल्यू उसका घर और परिवार ही होता है। जिसकी देख रेख करना और साज संभाल करना ही एक औरत का पहला कर्तव्य है। बाकी सारी चीज़ तो बात की बात होती है घर ग्रहस्थी की जिम्मेदारी पूर्णरूप से निभा लेने के बाद यदि समय बचता है तो औरत को बाहर निकाल कर काम करने के विषय मे सोचना चाहिए अन्यथा नहीं या फिर जीवन यापन से संबंधित कोई मजबूरी हो तो बात अलग है।

पूरी बात का निष्कर्ष कुल मिलाकर यह निकल रहा था कि यदि आपका परिवार सम्पन्न है, अर्थात् सभी का जीवन सुखमय तरीक़े से चल रहा है किसी तरह कि कोई परेशानी नहीं है तो औरत को बाहर जाकर नौकरी करने या काम करने की भी कोई जरूरत नहीं है और जो औरतें ऐसा कर रही हैं वह केवल उनका मनोरंजन मात्र है। या अपने मन को तसल्ली देने का एक मात्र तरीका कि वो आत्मनिर्भर है किसी पर निर्भर नहीं है और अपना अच्छा बुरा स्वयं सोचने में सक्षम है। अपने पैरों पर खड़ी होने की वजह से उनका अपना एक अलग अस्तित्व है। समाज में और अपने परिवार में भी, किन्तु जो महिलायें कामकाजी नहीं हैं उनका ऐसा मानना है कि यह केवल कामकाजी महिलों का भ्रम मात्र है। उनके अस्तित्व की पहचान नहीं, खास कर उन महिलाओं को लेकर उनकी ऐसी सोच थी जो किसी डॉक्टर, या इंजीनीयर या फिर किसी अध्यापक जैसे जाने माने पद पर न होकर साधारण से किसी दफ़्तर में काम कर रही हों, क्यूँकि उनका मानना था कि यदि यही उनका अस्तित्व होता तो महिलाओं के आरक्षण को लेकर जो आये दिन बवाल होता रहता है और माँगें होती रहती है वह नहीं होती। इसलिए उनके हिसाब से कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व उनके लिए भ्रम के जैसा ही है, हक़ीक़त नहीं वैसे देखा जाये तो उनका ऐसा मानना यदि पूरी तरह सही नहीं है, तो पूरी तरह गलत भी नहीं है।
परंतु शायद इस विषय पर चर्चा करते वक्त वह सभी लोग यह भूल गए थे, कि हर किसी के कुछ अपने सपने भी होते कुछ ऐसे सपने जो उनके अपने होते है अर्थात् जो समाज की बन्दिशों से परे होते है और समाज के नियम क़ानूनों से अंजान होते है। जो इस सीख से अलग होते हैं कि शादी के बाद तुम्हारा घर ही तुम्हारा संसार है। उसके सिवा तुम्हारे जीवन में और किसी बात का महत्व उस से ज्यादा नहीं होना चाहिए। किन्तु जब इन सब बातों को परे रखकर एक मासूम लड़की जब कोई सपना देखती है तो उस सपने को शायद हक़ीक़त के पंख तभी मिल पाते है। जब वह लड़की आगे चल कर अपने जीवन में आत्मनिर्भर हो जाती है और आत्मनिर्भरता तभी आती है जब आप घर की चार दीवारों से निकल कर दुनिया का सामना करते हो।  
फिर चाहे नौकरी करके करो या देश विदेश घूम-घूम कर करो या समाज सेवा जैसे कार्य करके करो मगर कई बार यूं भी होता है कि आत्मनिर्भर होने के बावजूद भी आप अपने सपनों को वो पंख नहीं दे पाते जो आप देना चाहते हो, फिर उसके पीछे कारण चाहे जो हो, फिर वो जीवन की मजबूरी हो, या कोई और वजह क्योंकि अपने घरों में काम करने आने वाली बाई भी तो कहने को आत्मनिर्भर ही है। खुद कमाती है और अपना परिवार चलाती है। मगर कभी अपने बचपन में उसने जो सपने देखे होंगे उन्हें पूरा नहीं कर पाती क्योंकि उसके लिए उसका नौकरी करना घर-घर जाकर काम करना उसकी मजबूरी है उसका सपना नहीं। लेकिन यह विषय ऐसा है जो ज्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि इस बारे में कौन क्या सोचता है अपनी-अपनी सोच पर जैसी जिसकी सोच वैसा उसका मत।  
यदि यहाँ भी दो वर्ग बना दिये जायें, एक तरफ कामकाजी महिलों को कर दिया जाए और एक तरफ घर की ग्रहणियों को तो दोनों के बीच कभी इस बात को लेकर किसी भी तरह का तारतम्य कभी नहीं बैठ सकता। हमेशा दोनों के बीच इस बात को लेकर झगड़ा लगा ही रहेगा, कभी भी दोनों वर्ग एक दूसरे से सहमत नहीं हो सकते। क्योंकि इस विषय पर सदैव ही दोनों के अहम को चोट पहुंचेगी ही। कोई किसी से कम होना नहीं चाहता और हो भी क्यूँ, दोनों का ही अपनी-अपनी जगह अपना एक अलग ही महत्व है।

शाद यही वजह है कि मेरे लिए भी इस बात का निष्कर्ष निकाल पाना बहुत कठिन है कि कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व हमारे समाज के लिए भ्रम है या हक़ीक़त। कम से कम स्वयं एक स्त्री होने के नाते किसी भी एक पक्ष में अपना मत देना मेरी समझ से नादानी नहीं नाइंसाफी होगी। मेरे विचार से यह एक कभी न खत्म होनी वाली चर्चा का विषय है जिसका कोई अंत नहीं अब आप ही फ़ैसला करें कि यह भ्रम है या हकीकत जय हिन्द .......                                                      

23 comments:

  1. सारगर्भित आलेख्।

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  2. यही हमारी तथाकथित विकसित सभ्य की समाज मज़बूरी है की हम उसे वह स्थान नहीं दे पाते जो एक पुरुष को देते हैं सार्थक पोस्ट आभार

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  3. सादी भाषा में कठिन प्रश्न आपने उठाया है. इससे हम सभी जूझ तो सकते हैं लेकिन पार नहीं पा सकते हैं. बहुत बढ़िया पोस्ट. MEGHnet

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  4. आपने बहुत सारी बातें अपने लेख में समेटी हैं ... पढ़ा लिखा होना एक बात है और कामकाजी होना अलग बात है ... बहुत सी स्त्रियां बिना पढ़ी लिखी हो कर भी पैसा कमाने के लिए कई प्रकार के काम करती हैं ..और बहुत सी पढ़ लिख कर भी धनोर्पार्जन नहीं करतीं ... सबके परिवार की अलग अलग स्थिति होती है ..पर सच तो यह है कि हर महिला के मन में आत्मनिर्भर होने की अभिलाषा तो ज़रूर होती होगी ...हांलांकि यह भी ज़रुरी नहीं कि जो लोग पैसा कमाती हैं वो अपनी मन मर्ज़ी खर्च भी कर सकती हों ..
    विचारणीय मुद्दा उठाया है इस लेख के माध्यम से ..

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  5. तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों और समाज में फ़ैली भ्रान्तियों को बहुत सटीक रूप में समेटा है आपने. बधाई.

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  6. पल्लवी जी पूरी हकीकत बयान हो रही है आपके आलेख में। कुछ ने सम्मान अर्जित कर लिया है तो कुछ प्रयासरत हैं। कुछ पढ़-लिखकर भी वो नहीं हासिल कर पा रही , जिसकी वे हक़दार हैं। कामकाजी और गृहणी में भेदभाव बरकरार है।

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  7. नारी इस विषय पर कुछ बात करनी हो , कुछ पूछना हो , कुछ लिखना हो तो समाज की सोच को ध्यान में रखने को कहा जाता हैं यानी वही लिखना चाहिये जो समाज पढना चाहता हैं । आप का अपना नज़रिया , आप की अपनी सोच आप की अपनी जरुरत का क़ोई महत्व हैं ही नहीं क्युकी आप नारी हैं और आप को ये अधिकार हैं ही नहीं की आप सोच सके और आप ना केवल सोच रही हैं अपितु बोल भी रही हैं , तर्क भी कर रही हैं ।

    यहाँ से विभाजन / वर्गीकरण/Segmentation शुरू होता हैं "नारी" का ।

    नारी
    भारतीये नारी / पश्चिमी नारी
    मिडल क्लास / हाई सोसाइटी
    शादीशुदा नारी / कुंवारी नारी
    कुंवारी नारी / परित्यक्ता नारी
    शादीशुदा नारी / तलाकशुदा नारी
    बीवी / दूसरी औरत
    माँ / बिना बच्चो वाली
    माँ / बाँझ
    स्तन पान करने वाली / नहीं कराने वाली
    साडी पहने वाली / नहीं पहनने वाली
    गृहणी / नौकरी करती गृहणी
    सास / बहू
    नन्द / भाभी
    माँ / बेटी

    यानी किसी भी समस्या पर बात करनी हो पहले आप को तैयार रहना होता हैं इस विभाजन में बंटने के लिये । इस लिस्ट को समाज अपने अनुसार घटा बढ़ा लेता हैं और

    हर बार मुद्दा जो " नर - नारी " समानता और स्वतंत्रता का हैं वो ख़तम हो जाता हैं । वो स्वतंत्रता वो समानता जो कानून और हमारा संविधान हमे देता हैं । और जिसका हनन हर वर्ग में होता हैं ।

    ये सब लोग रियल दुनिया से लेकर आभासी दुनिया तक में करते हैं । मुद्दे को भटका कर बात ही नहीं होने देते ।

    हर मुद्दे को घुमा कर "नारी " को किसी ना किसी तरह "नर " की और ही मोड़ दिया जाता हैं और उसको अहसास दिलाया जाता हैं की वो स्वतंत्र तो हैं पर सुरक्षित तभी हैं जब वो किसी की माँ , बहिन या पत्नी हैं । इसके इतर ना तो नारी का क़ोई भूत हैं ना वर्तमान और ना भविष्य । अगर उसको समाज में रहना हैं तो नर की कुछ ना कुछ बन कर ही रहना होगा तभी समाज की स्वीकृति की वो हकदार होगी ।

    पुरुष को अपनी सुरक्षा का जिम्मा जो नारी दे देती हैं वही समाज में सुरक्षित हैं । समाज उसको , उसके काम को स्वीकार तो करता हैं पर "बराबरी का दर्जा " कभी उसको भी नहीं देता । हाँ समाज उनके जरिये उन सब नारियों को भी सबक सिखाता हैं जो बराबरी के दर्जे की बात करती हैं । हथियार की तरह इस्तमाल करता है समाज एक नारी को दूसरी के खिलाफ , विभाजन करता हैं समाज नारी - नारी में { ऊपर लिस्ट हैं } । लेकिन हर विभाजन के बाद वही समाज कहता हैं नारी ही नारी की दुश्मन हैं ।

    नारी के विभाजन की प्रक्रिया से जो स्थिति उत्पन्न होती हैं महिला के लिये वही कंडिशनिंग का कारण हैं ।

    आप जब भी कहीं दो स्त्रियों में दुराव देखे तो विभाजन वाली लिस्ट पर ध्यान दे आप को खुद समझ आ जाएगा इस के लिये कंडिशनिंग कितनी जिम्मेदार हैं ।

    नारी को कंडीशन करके ,
    उसको सामाजिक सुरक्षा का भय दिखा कर उसको ही हथियार बना दिया जाता हैं
    और
    समानता और स्वतंत्रता की बात यानी नर नारी दोनों को बराबर अधिकार हैं का मुद्दा हमेशा रास्ता भटका दिया जाता हैं ।

    नारी जब तक इस कंडिशनिंग को नहीं तोड़ेगी
    तब तक वो हमेशा इस भ्रम में जियेगी की उसकी सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी पुरुष की हैं कानून और संविधान की नहीं । तब तक वो मानसिक रूप से कभी स्वतंत्र होगी ही नहीं ।


    नारी के सम्बन्ध में स्वतंत्र शब्द आते हैं पर्याय वाची शब्दों की भरमार हो जाती हैं जैसे स्वच्छंद, निरंकुश, प्रगतिशील , नारीवादी ,फेमिनिस्ट और भी ना जाने क्या क्या ।
    ब्लॉग जगत में में वेश्या तक कह दिया गया इस मुद्दे पर बात करने वालो को ।

    इन शब्दों से बचने का आसान तरीका हैं पुरुष की सुरक्षा {क्युकी नारी का उद्धार करना पुरुष कर्तव्यों में गिना जाता हैं } और अपनी कंडिशनिंग के तहत बहुत सी नारियां इसके लिये सहर्ष तैयार होती हैं .

    कंडिशनिंग नारी को " एक सामाजिक छवि" में कैद कर देती हैं और इस वजह से नारी केवल वही कहती और करती हैं जो उसको "स्वीकार्य " की परिधि में लाता हो "बराबरी " पर नहीं ।

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  8. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा

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  9. सूचना देने एवं सूचित करने के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद मयंक जी :)

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  10. सुन्दर प्रस्तुति

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  11. apke blogg ka anusharan kar rahe hain....

    apka v shwagat hai.

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  12. जन लोकपाल के पहले चरण की सफलता पर बधाई.

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  13. pallavi ji , aap k tark bahut he sateek aur mannya hai . ab is ko hum bhrm maaney ya haquikat iss se koi khass fark nahi parta kyo ki naari ki jo kaarak chamta hai wo apney sthaan par yathawat hai, kisi k prayojan ki mohtaaz nahi hai .

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  14. नौकरी करने का या धन कमाने का साक्षरता से कोई मतलब नहीं.कहा जाता है कि एक सभ्य समाज का भविष्य एक पढ़ी लिखी माँ पर निर्भर करता है.
    काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता ..छोटी बड़ी होती है मानसिकता.और साक्षरता वही मानसिकता का विकास करती है.
    बहुत सुन्दर आलेख.

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  15. घर से बाहर जाकर काम करना ही आधुनिकता का प्रमाण नहीं होता और ना ही इसका मतलब यह है जो नौकरी नहीं करता उसका पढ़ना लिखना व्यर्थ है

    hum aapke is kathan se poorntaya sahmat hai .
    ye soch or ye chintan aapki kabliyat ka praman patr hai yakinan aapko kabhi apne aapko prove karne ki jarurat nahi padegii ,bahut khushi hui aapke vichar jaankar ..ek sarthak blog or sarthak lekh ke liye bandhai swikaren .

    meri hausla_afzaaii ka bahut bahut aabhar

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  16. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 03 -05-2012 को यहाँ भी है

    .... आज की नयी पुरानी हलचल में ....कल्पशून्य से अर्थवान हों शब्द हमारे .

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  17. साक्षरता तो हमेशा काम आती है / स्त्री का अस्तित्व कभी भ्रम नहीं हो सकता , आपने ज्वलंत विषय को उठाया है ,

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  18. गृहिणी हों या कामकाजी
    काश रहें सर्वदा तरोताजी

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  19. कामकाजी महिलाओं का अस्तित्व एक वास्तविकता है,गृहस्थी तो फिर भी उनका दायित्व रहेगी -काम में सहायता चाहे किसी से ले लें .शिक्षित होना अलग बात है पर बने हये साँचों से बाहर निकल बृहत्तर समाज में,सक्रिय होकर,अपनी जगह बना कर जो व्यापक दृष्टि और व्यक्तित्व-संपन्नता आती है उसका होना बहुत मायने रखता है .आत्म-निर्भरता अकुंठित बनाती है -समाज और परिवार के लिये भी यह जागरूकता बहुत महत्वपूर्ण है .

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  20. कामकाजी महिलाओं के अस्तित्व को नकारने वाले तो वैसे ही हैं जो जाग कर भी सोने का ठोंग रचा रहे हैं । महिलायें अधिकतर कामकाजी हैं चाहे उनका काम काज आंकडों में गिना जा रहा हो या ना गिना जा रहा हो ।

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