पर्यावरण दिवस के अवसर पर बहुत सारी पोस्ट पढ़ने को मिली जिसमें हर कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित दिखाई दिया किसी ने भाषण दिया तो किसी ने छोटी-छोटी टिप्स,कि किस-किस तरह से हम अपने पर्यावरण को बचा सकते है। मगर अफसोस इस बात का होता है कि जब ऐसा कोई दिन आता है तभी हमें यह सब बातें क्यूँ सूझती है क्या इस दिन के अलावा हमें अपने पर्यावरण को बचाने की जरूरत नहीं है ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कभी "बेमौसम बरसात" क्यूँ नहीं होती। मैंने अक्सर यही देखा है जब भी कोई विशेष दिवस आता है या आने वाले होता है, तो हमारे सभी गणमान्य लेखक जैसे रास्ता ही देख रहे होते है कि कब वह विशेष दिन आए और कब हम सब उस विषय विशेष पर अपनी अपनी कलम घिस डालें। लिखते सभी अच्छा और सही हैं, मगर अवसर आने का इंतज़ार ही क्यूँ करते हैं, पता नहीं। फिर चाहे वो पर्यावरण दिवस हो, या मदर डे, हिन्दी दिवस हो, या शिक्षक दिवस, बाल दिवस हो, या वेलेंटाइन डे इत्यादि।
पर्यावरण दिवस पर इतना कुछ पढ़ा कि आज मेरा भी मन हो गया कि मैं भी कुछ लिखूँ हालांकी अब तो पर्यावरण दिवस जा चुका है। मगर मेरा मानना यह है कि मुझे इस विषय पर लिखने के लिए अगले साल तक पर्यावरण दिवस आने का इंतज़ार करने की जरूरत नहीं है। अभी कुछ दिन पहले डॉ टी एस दराल जी का फेसबुक पर एक अपडेट भी देखा था जिसमें उन्होंने होटल के कमरे के बाहर खाने की बरबादी का ज़िक्र किया था। वाकई जिस देश में गरीबों को खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं है, कमाने के लिए रोज़गार नहीं है, वहाँ खाने की ऐसी बरबादी देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान को बुरा लगना स्वाभाविक ही है। उन्हें देखकर बुरा लगा और मुझे पढ़कर बुरा लगा। फिर आज खाना बानते वक्त दिमाग में एक बात आयी कि हम अपने यहाँ बचे हुए खाने का क्या करते हैं।
देश की बात मैं नहीं करती। मगर अपने-अपने घरों की बात ज़रूर करना चाहूंगी। जहां तक मैं अपनी बात करूँ, तो पहले जब तक मैं हिंदुस्तान में रहती थी, तब बचा हुआ खाना अक्सर जो ख़राब न हुआ हो, बाई को दे दिया जाता था। मेरी मम्मी और मेरी सासु माँ दोनों को मैंने यही करते देखा है वह भी उन से पूछकर यदि वह ले जाने को तैयार है तभी, जबरन नहीं या फिर जानवरों को डाल दिया जाता था। कई बार तो जानवर भी वो खाना नहीं खाते और खाना सड़ता रहता है और नतीजा मच्छर मक्खीयों के साथ बीमारियाँ फैलती है। मगर तब हमें और कोई विकल्प ही नज़र नहीं आता कि इस बचे हुए खाने से और भी कुछ किया जा सकता है तब ज्यादा से ज्यादा हमें केवल भिखारियों का ख्याल आता है उनके विषय में सोचो तो पहली बात वह खाना लेते ही नहीं है, उन्हें भी पैसा चाहिए। दूसरा यदि ले भी लें तो यह डर रहता है कि खाने के बदले बीमार होने का नाटक करके वह वह आप से दुगने पैसे न वसूल लें। भई आखिरकार भलाई का ज़माना जो नहीं है। वह कहते है न आज की तारीख में
"ईमानदार वही है,
जिसे बेईमानी करने का मौका ना मिला हो"।
खैर अब सवाल यह उठता है कि हम में से कितने लोग ऐसा ही करते हैं। क्या करते हैं आप, जब वही बचा हुआ खाना और आलू प्याज़ या फिर सब्जी के छिलकों का ?? ईमानदारी से कहिए यूं ही फेंक देते हैं न कूड़ेदान में,कई तो ऐसे भी है जो कूड़ेदान में एक पेपर या पन्नी लगाना तक ज़रूरी नहीं समझते और कई ऐसे भी है जो कूड़ेदान ही ज़रूरी नहीं समझते। उस वक्त किसी के दिमाग में एक बार भी पर्यावरण का ख्याल तक नहीं आता। क्यूंकि आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में इंसान के पास खुद अपने लिए अच्छा बुरा सोचने का समय नहीं है तो भला वह सब्जी के छिलकों और सूखी हुई ब्रेड के बारे में कोई क्या सोचेगा। सच कहूँ तो पहले मैं खुद भी नहीं सोचती थी। बस रसोई के कूड़े दान में पन्नी लगाई सब तरह का कचरा उसमें भरा और सुबह दे दिया कचरे वाले को अपना काम खत्म। मगर यहाँ आने के बाद जब से मैंने वह कंपोस्ट बैग इस्तेमाल करना शुरू किया है। तब से दिल के किसी कोने में एक तसल्ली सी तो है कि हाँ बहुत कुछ नहीं तो कम से कम मन समझाने के लिए ही सही, मैं पर्यावरण और पक्षियों के विषय में कुछ तो सही और अच्छा कर रही हूँ। जिसे में भविष्य में भी जारी रखना चाहूंगी। वरना रास्ते में कोई भी कचरा फेंक देने से जब पक्षी उसी के कारण मरते है तो मन यह सोचकर बहुत दुखी हो जाता है की
"करे कोई भरे कोई"
यह कंपोस्ट बैग बचा हुआ खाना जैसे सुखी ब्रैड रोटियाँ या फिर सब्जी के छिलके फेंकने के काम में आता है इस बेग की विशेषता यह है कि यह एक खास प्रकार के प्लास्टिक से बना है जो ज़मीन के अंदर आसानी से गल जाता है जिस से इसमें भरे हुए बचे हुए खाने आदि से आसानी से खाद बन जाती है। इसलिए यहाँ लंदन की काउंसिल ने हर चीज़ के लिए एक अलग कूड़ेदान दिया हुआ है। जैसे पेड़ पौधों एवं रसोई का बच्चा हुआ खाना जो हम इस कंपोस्ट बैग में डालते है और गार्डन से निकलने वाले कचरे के लिए भी ब्राउन अर्थात भूरे रंग का कूड़ेदान,समाचार पत्र या अन्य कागज़ आदि या रीसाइकल के लिए नीले रंग का कूड़ेदान और अन्य रसोई आदि और घर की साफ सफाई के लिए काले रंग का कूड़ेदान, ताकि साफ सफ़ाई भी हो जाये और पर्यावरण को भी ज्यादा हानि ना हो।
यहाँ आने से पहले इस तरह के कोई बैग आते है मुझे जानकारी नहीं थी तो पहले कभी इस्तेमाल करने का सवाल ही नहीं उठता। मगर हाँ यहाँ आने के बाद यानि पिछले 6 सालों से इस्तेमाल करते रहने के कारण अब ज़रा भी मन नहीं होता कि बचे हुए खाने और सब्जी भाजी के छिलकों को यूं आम कूड़ेदान में फेंक कर अपना घर साफ कर लूँ। अब हो सकता है इस तरह के यह बैग इंडिया में भी आने लगे हों यह तो आप लोग ही बता सकते हैं छोटे शहरों में तो नहीं सुना मैंने बाकी यदि मेट्रो में आ गए हों तो पता नहीं लेकिन हाँ यदि आ गए हैं तो आप भी इन का इस्तेमाल ज़रूर करें माना कि महज़ कचरा फेंकने के लिए पैसा खर्च करना अपने यहाँ बेवकूफी समझी जाती है। मगर यदि उस एक बेवकूफी से हम अपने पर्यावरण को बचाने में अपना ज़रा सा पैसा समय और योगदान दे सकें तो उसमें बुराई ही क्या है यूं भी हम अपनी बहुत सी बे-मतलब के शौक को पूरा करने के लिए पैसा खर्च करते ही है तो क्यूँ न एक अच्छे काम के लिए भी करें।
india mein abhi aisa concept nahi aaya aur kuch jagah aaya ho to pata nahi han sun rakha hai is baare mein
ReplyDeleteबहुत सार्थक चिंतन..आवश्यकता है पर्यावरण संरक्षण के लिए निरंतर प्रयास की....
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है। कम से कम समझदार लोगों को तो सोचना ही चाहिए।
ReplyDeleteयहाँ अभी तक ऐसा लागु नहीं कर पाए हैं। सिर्फ अस्पतालों का बायो मेडिकल वेस्ट ही विभिन्न बैग्स में डाला और डिस्पोज किया जाता है। घरों में अभी भी व्ही पुराना सिस्टम है।
खाने के पदार्थों को खराब होने से पहले ही इस्तेमाल कर लेना चाहिए जैसे बची हुई दाल से अगले दिन परांठे बनाये जा सकते हैं। आजकल तो फ्रिज होने से कोई चीज़ खराब होनी ही नहीं चाहिए।
सहमत आपकी बात से ...
ReplyDeleteसमय के साथ साथ ऐसी चीज़ें अपनानी चाहियें जो समाज, पृथ्वी और पर्यवरण के फायदे में हों ...
pallvi bahut achchha likha ham din ka intjaar kyon karte hain ? usase pahale ya baad men aisa kyon nahin sochate hain . paryavaran ke lie log kitna sochate hain . aam aadami bilkul bhi nahin . agar kisi ko disha do bhi to kahenge aap karti hain karti rahen , hamen shiksha na den . aap badal sakate hain aise logon ko .
ReplyDeleteDr. Daral ne likha ki hospital men bio medical waist ko sahi bags men dala jata hai nahin doctor sahab kanpur ka haal likhane ka poora irada hai aur govt. hospital ka haal bhi likhoongi kuchh nahin hota hai . han private nursing homes men jaroor isaka khyaal rakha jata hai .
पल्लवी....सटीक और बेहद महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए आभार
ReplyDeleteयूँ ही लिखती रहो बस ये ही कामना है
आपने बहुत अच्छी और उपयोगी जानकारी दी-अपने यहाँ भी लोग सचेत हो जाएँ तो कितना अच्छा रहे!
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी के साथ पर्यावरण के संरक्षण के लिये सचेत करती ज्ञानवर्धक पोस्ट ! इस दिशा में सार्थक पहल करने की सख्त ज़रूरत है !
ReplyDeleteसच कहा, जो करना हो वह हर दिन करें।
ReplyDeleteसुधार तभी सम्भव है जब हर नागरिक जिम्मेदारी ले. समस्या यह है कि हम सिर्फ एक दूसरे के तरफ उंगली करना जानते हैं.
ReplyDeleteऐसी वैचारिक भागीदारी बड़ा बदलाव ला सकती है..... सुंदर पोस्ट पल्लवी
ReplyDelete"ईमानदार वही है, जिसे बेईमानी करने का मौका ना मिला हो"।-- So true..Great insight.Thanks a lot for writing such fabulous articles and thanks a lot for providing your comments on Hindi Sahitya Margdarshan..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट है पल्लवी ..
ReplyDeleteयह सच है, प्रकृति के साथ हमारे रिश्तों की बात छोडिये अब तो खून के रिश्तों में भी औपचारिकता मात्र रह गयी है !
अभी तक इस तरह के बैग्स का चलन यहाँ नहीं है शायद समय के साथ शुरू हो , वैसे भी हम वक्त के साथ बदलते कहाँ हैं !
शुभकामनायें आपको !
अच्छी जानकारी दी है ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteसामयिक और सटीक प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete@मेरी बेटी शाम्भवी का कविता-पाठ