सबसे पहले तो अपने सभी मित्रों एवं पाठकों को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें
दोस्तों आज दशहरा है यानि विजय पर्व असत्य पर सत्य की विजय, पाप पर पुण्य की विजय, बुराई पर अच्छाई की विजय एवं अंहकार का नाश शायद इसलिए यह कहावत बनी होगी कि
"घमंड तो स्वयं लंकापति रावण का भी नहीं रहा
तो भला हम तुम क्या चीज़ हैं"
खैर हम सब हर साल यह त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाते है, मस्ती करते हैं, आतिशबाज़ी का मज़ा उठाते है और रावण के मारे जाने का जश्न मनाते है। हम सब कुछ देखते हैं लेकिन कभी अपने अंदर ही झांक कर नहीं देख पाते कि हमारे अंदर जो अहंकार और क्रोध नामक रावण छिपा बैठा है उसका क्या ? उसका नाश कौन करेगा ? सतयुग में उस लंकापति रावण को मारने के लिए तो स्वयं प्रभु श्री राम ने जन्म लिया था। मगर इस कलयुग में कहाँ है और कितने हैं ऐसे राम जो अपने अंदर छिपे इस रावण को मार सके। देखा जाये तो सिर्फ युग बदला है, मगर हालात आज भी वही है। पहले केवल एक रावण था इसलिए उसे मारने के लिए एक ही राम काफी थे। मगर आज हजारों लाखों नहीं बल्कि शायद इसे भी कहीं ज्यादा रावण फैले हुये हैं हमारे समाज में, मगर राम का कहीं आता पता नहीं, पग-पग पर सीता का हरण हो रहा है, कहीं हरण तो कहीं बलात्कार तो कहीं एसिड हमले, तो कहीं भूर्ण हत्याएँ, तो कहीं दहेज के नाम पर आहुति या तंदूर, चारों ओर से सीता आहत है और सहायता के लिए चीख चीख कर गुहार कर रही है कि "हे राम एक बार फिर जन्म लो इस धरती पर, और यदि नहीं आ सकते तुम तो अपने किसी दूत को ही भेज दो और बचा लो इस लोक की हर सीता की लाज ....
मगर जाने क्यूँ खामोश है राम शायद मौन रहकर भी यह कहना चाहते है वह कि
हे मनुष्य राम और रावण दोनों तेरे अंदर ही है,
खोल अपने मन की आँखें और देख, कर खुद से इंसाफ
और
हे सीता तेरे अंदर भी है वास स्वयं माँ दुर्गा का, अरी तू तो खुद वह शक्ति है
जिसका आशीर्वाद पाकर ही मैं लंकेश पर विजय पा सका था।
तुझे तो किसी राम की जरूरत ही नहीं है
अगर तुझे जरूरत है,
तो केवल खुद को पहचानने की जरूरत है,
मगर आज का मानव जैसे बहरा हो गया है। उसे अब न कुछ दिखाई देता है और ना ही कुछ सुनाई देता है।चंद सिक्कों की खनक में सब कुछ कहीं खो सा गया है, तो कहीं आत्म केन्द्रित हो गया है मन, जहां सिर्फ अपने घर की सीता की फिक्र तो सभी को है। पर राह चलती स्त्री तो जनता का माल है। ठीक बहती हुई उस नदी की तरह जिसमें सब हाथ धो लेना चाहते है। मगर उस आम सी नदी को कोई गंगा बनाना नहीं चाहता। अरे बनाना तो दूर की बात है उसे तो कोई आगे बढ़कर मैली होने से बचाना भी नहीं चाहता। कहने में बहुत कड़वा है मगर सच यही है। एक कड़वा और खौफ़नाक सच जिसे अनदेखा, अनसुना कर हम मनाते हैं हर रोज़ जश्न विजयपर्व का, मगर अब इस पर्व के मायने पूर्णतः बदल गए हैं। अब पाप पर पुण्य की विजय नहीं होती, बल्कि अब पुण्य पर पाप की विजय होती है।
अरे माना कि वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता, वक्त का पहिया सदा ही चलता रहता है। फिर चाहे कोई भी आए इस दुनिया में या कोई भी चला जाये, वक्त को कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर हमें तो इंसान होने के नाते फर्क पड़ना चाहिए न? किन्तु क्यूँ हमें फर्क क्यूँ पड़े... जाने वाला यदि हमारे परिवार का सदस्य होता तो शायद हमें एक बार को थोड़ा बहुत फर्क पड़ भी जाता। मगर ऐसा तो है नहीं, तो फिर हम भला क्यूँ अपनी खुशियाँ मनाने से रुकें। खुद ही देख लो पिछले कुछ सालों में क्या-क्या नहीं हो गया कहीं 26/11, कसाब कांड, 16 दिसंबर 2012 दामिनी कांड, 2013 में केदारनाथ कांड और आए दिन होते सहसत्रों अपराध और पाप जिसके कारण हर दूसरे से तीसरे परिवार में कोई न कोई प्राणी दुखी है। खासकर एसिड हमले से पीड़ित सभी लड़कियों से मेरी दिली हमदर्दी है। किसी की पूरी ज़िंदगी उजड़ गयी और हम खुशियाँ माना रहे है। सच किस मिट्टी के बने हैं हम, कि अब हमें कोई फर्क ही नहीं पड़ता है। कितने कठोर, कितने असंवेदनशील कब से और कैसे हो गए हैं हम...
अरे मैं यह नहीं कहती कि त्यौहार मत मनाओ, मनाओ, खूब मनाओ, मगर क्या सादगी और शांति से कोई त्यौहार नहीं मनाया जा सकता। हर बार, हर साल, हर त्यौहार पर क्या शोर शराबे के साथ दिखावा करना ज़रूरी है। क्या सादगी और शांति के साथ कोई त्यौहार नहीं मनाया जा सकता। मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना है दोस्तों कि जब देश और उसके देशवासी हर रोज़ किसी न किसी भयंकर घटना या दुर्घटना से जूझ रहे हों, तब क्या हम सभी देशवासियों का यह फर्ज़ नहीं बनता कि हम अपने उन देशवासियों के दुख में शरीक होकर उन्हें सांत्वना एवं सहानुभूति के रूप में कुछ खुशी दे। ताकि वह भी अपने दुख से बाहर आकर जीवन में आगे बढ़ सकें जिन्होंने उस आपदा को झेला है। ज्यादा कुछ ना सही मगर इतना तो कर ही सकते हैं आज हम सब एक प्रण लें कि जिस दिन, एक भी साल ऐसा आयेगा जब देश किसी विकट समस्या या त्रासदी से नहीं गुजरेगा, जब कहीं किसी भी स्त्री के मन में असुरक्षा का भाव नहीं होगा। जब न मारी जाएंगी बेटियाँ खोख में,जब न जलेंगी लड़कियां दहेज की आग में, जब न होगा फिर कभी किसी सीता का हरण,जब न कहलायेंगी एक बोझ बेटियाँ... तब उस साल मनायेंगे, हम सभी "त्यौहार ज़िंदगी का" तभी होगी सही मायने में बुराई पर अच्छाई की विजय और तभी मनेगा, सही मायनों में दशहरा ....क्या कभी कोई दशहरा ऐसा भी होगा ?? जय हिन्द..
त्योहारों के अमृत को आत्मसात कर लें, संभवतः समाज सुधर जाये।
ReplyDeleteआज खुद को पहचानने की जरूरत है, !
ReplyDeleteRECENT POST : - एक जबाब माँगा था.
कि हमें सबके दुख-सुख में साथ रहना है, इस बात को बड़े ही अपनेपन से अपने में समेटे हुए है यह आलेख।
ReplyDeleteबहुत सही कहा..
ReplyDeleteइन्द्रियों के निग्रह एवं सात्विक गुण वरण कर आप स्वयं राम बन सकते हैं.....
ReplyDeletechintaneey hai pata nahi ham kab asali vijayadashmi mana payenge ..
ReplyDeleteमैं नहीं समझता कि दिल्ली में हुए भयंकर बलात्कार कांड में फाँसी की सज़ा पाए अपराधियों को फाँसी लगने पर लड़की के परिवार वाले पटाखे आदि चला कर जश्न मनाएँगे. जहाँ तक रावण का प्रश्न है पूरे दक्षिण भारत में कहीं भी उसका पुतला नहीं जलाया जाता. श्रीलंका में तो रावण को सम्राट माना जाता है जो बौद्ध था. आपका आलेख आपकी नई सोच की ओर संकेत करता है. बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteत्योहार शांति से ही मनाना चाहिए, लेकिन लोगों की अशांति त्यौहार के दिन ही बाहर आती है। कल ही हमारे आस पास के 3 गावों में बलवा हुआ है।
ReplyDeleteभारत की सीताओं के दुखड़े होंगे जब तक दूर नहीं ,
ReplyDeleteहे राम तुम्हारी रामायण होगी तब तक संपूर्ण नहीं।
भारत की संसद से होंगे जब तक रावण दूर नहीं ,
राधा का दुखड़ा तब तक होगा दूर नहीं।
प्रासंगिक सवाल उठाए हैं इस पोस्ट ने भारत एक गलीज़ सामाज बना हुआ है यहाँ का नागर बोध ,Civility महिलाओं को कोई सम्मान नहीं देती। भले अष्टमी पर उन्हें जिमाती हैं कन्या पूजती है भारतमाता लेकिन। .... सच वाही है जो आपने कहा है।
MOTHER'S WOMB CHILD'S TOMB .
इंसान नहीं सुधरा करते....
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने..एक सटीक सार्थक आलेख...
ReplyDeleteसार्थक आलेख...त्योहारों का सही अर्थ समझें हम ....
ReplyDeleteबुराई पे विजय खुद ही पा सकता है इन्सान ... अपने अंतस को मजबूत करके ..
ReplyDeleteसही मायने में तो विजय दशनी तभी है जब अपने रावण को मार सकें ... त्योहारों का सही अर्थ जाने का समय अ गया है ...
आपको भी विजय दशमी के पावन पर्व की शुभकामनायें ...
जब तक हम अपने अन्दर के रावण को नहीं मारते, उसके पुतले जलाने से कुछ नहीं होगा...त्योहारों का अन्तर्निहित सार हम भूलते जा रहे हैं...बहुत विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है...बधाई...|
ReplyDeleteप्रियंका
ऐसा दशहरा भी कभी होगा इसका तो पता नहीं..लेकिन ये ज़रूर कह सकता हूँ कि जिस दिन सभी के विचार इस तरह हो गये जैसे कि आपने व्यक्त किये हैं तो निश्चित ही ऐसा दशहरे का दिन भी आ सकता है...सुंदर प्रस्तुति।।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सभी का स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/