सच न जाने कब बदलेगी हमारी मानसिकता, कभी बदलेगी भी या नहीं ?? वर्तमान हालातों को देखते हुए तो यही लगता है कि हमारी स्थिति धोबी के कुत्ते की तरह हो गयी है "ना घर की न घाट की" यह लिखते हुए भी अच्छा नहीं लग रहा है। मगर क्या करूँ जब कभी कहीं ऐसा कुछ पढ़ने या सुनने को मिल जाता है तो दिमाग खराब हो जाता है मेरा और ऐसी स्थिति में लिखे बिना भी दिल नहीं मानता। अभी निर्भाया कांड का मामला पूरी तरह शांत भी नहीं हुआ और टीवी वाले लगे हैं अपनी TRP बढ़ाने। यह सब देखकर लगता है कितने असंवेदन शील हो गए हैं हम और हमारा समाज आपस का जुड़ाव तो जैसे अब बिलकुल ही खतम हो गया है। सही कहा था निर्भया के दोस्त ने कि सिर्फ कानून को बदलने से कुछ नहीं होने वाला है, जरूरत है हमें अपनी मानसिकता बदलने कि क्यूंकि वर्तमान हालातों में हम ही एक दूसरे से जुड़े हुए ही नहीं है। तो भला ऐसे में हम किसी और से बदलाव की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं।
रोज़ महिला उत्पीड़न से जुड़ी कोई न कोई ख़बर पढ़ने को मिलती है। कहीं किसी को जला दिया कहीं किसी को मारा पिटा गया, कहीं बलात्कार, तो कहीं एसिड हमले यह सिलसिला कहीं थमने का नाम ही नहीं लेता उलटा रोज़ कोई नया ही किस्सा सामने लाता है। कब तक चलेगा ऐसा, कहने को हम सो कॉल्ड आधुनिक समाज में जी रहे हैं। पर वास्तविकता यह है कि आज हम ना तो पूरी तरह हिन्दुस्तानी ही बचे है और ना ही पूरी तरह विदेशी ही हो पाये हैं।
खासकर जब बात बच्चों की परवरिश पर आती है, तब सभी खुद को बहुत मोर्डन और खुली मानसिकता वाला दिखाना चाहते हैं। हर कोई यही कहता नज़र आता है कि देखो हमने आज तक कोई फर्क नहीं किया अपने बच्चों में हमारे लिए तो बेटा-बेटी एक समान है। मगर वास्तविकता कुछ और ही होती है। लड़कों के मामले में हम बहुत खुले होते हैं। मगर लड़की की बात आते ही कहीं न कहीं थोड़ी सिकुड़ जाती है, हमारी यह सो कॉल्ड खुली मानसिकता। कुछ लोग लड़कियों को लड़कों की तरह पालते है। यह सच है और कुछ हद तक सही भी, लेकिन कोई भी लड़कों को लड़कियों की तरह क्यूँ नहीं पलता ??? कहने का तात्पर्य यह है कि लड़कियों को संवेदनशील बनाने के चक्कर में हम उनकी परवरिश में ना चाहते हुए हुए भी वो सब बातें भरते चलते जाते हैं, जिनकी शायद अब जरूरत भी नहीं रही है। मगर लड़कों के साथ हम ऐसा नहीं कर पाते...क्यूँ ?? मुझे ऐसा लगता है कि शायद यह भी कारण हो सकता है आज के असंवेदन शील समाज का जिसके चलते लड़कों के अंदर इतनी क्रूरता भर गयी है कि वह लड़की को इंसान तक नहीं समझते, इसलिए ज़रा-ज़रा सी बातों पर इतना चिड़ जाते हैं कि बात उनके अहम पर आ जाती है। जिसके चलते उनमें इतना आक्रोश भर जाता है कि उन्हें सही गलत अच्छे बुरे परिणाम तक की परवाह नहीं रहती और नतीजा या तो एसिड अटैक या फिर बलात्कार...
आखिर ऐसा क्यूँ ? और कब तक ? कब तक किसी दूसरे की गलतियों की सज़ा भुगतेंगी लड़कियां लेकिन विडम्बना देखिये की आए दिन ऐसे घिनौने अपराधों के बाद भी लोग बातें करते हैं कि बलात्कार जैसी समस्या से निपटने का सही तरीका है बाल विवाह कर दो...अब यह कौन सी बात हुई भला ?? पहली बात तो यह कि यह बात ही सरासर गलत है। लेकिन फिर भी यदि एक बार को सोचना भी चाहो तो ऐसा लगता है कि मसले के हल में भी केवल लड़कों के विषय में सोचा गया लड़कियों के विषय में नहीं...फिर चाहे वो हल गलत है यहा सही यह तो दूर की बात है और हम बड़े गर्व से कहते हैं कि हम प्रगतिशील देश के नागरिका है। मैं जानती हूँ कोई भी परिवर्तन एक दिन में नहीं लाया जा सकता। किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए सामाजिक एकता का होना सब से ज्यादा अनिवार्य बात होती है। मगर इन मामलों में मुझे नहीं लगता कि कुछ भी परिवर्तन कभी आयेगा या आ सकता है कभी, क्यूंकि जब तक यह पुरुष प्रधान मानसिकता नहीं बदल जाती, तब तक हम चाहे कुछ भी करलें, लड़के लड़कियों का भेद कभी नहीं मिट सकता।
चारों और बस मतभेद ही मतभेद हैं, कहीं लड़के लड़कियों के बीच के मतभेद कहीं पारिवारिक मतभेद कहीं राजनैतिक मत भेद...ऐसा लगता है पूरे देश में केवल समस्याएँ ही समस्याएँ फैली हुई हैं। मगर उनका समाधान कोई नहीं है। जबकि शायद आधी से ज्यादा ऐसी समस्याएँ हैं जिनका समाधान सिर्फ और सिर्फ हमारे पास हैं। मगर हम हमेशा की तरह अपनी जिम्मेदारियों से मुँह फेर कर, अपने किए का घड़ा सरकार और प्रशासन पर फोड़कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। क्यूँ ?? कब वो दिन आयेगा जब हम अपने बेटों को भी बेटियों कि तरह व्यवहार करना सिखाना शुरू करेंगे। कब हम हमेशा यह कहने के बाजये कि यह हमारी बेटी नहीं यह तो हमारा बेटा है कि जगह यह कहेंगे कि यह हमारा बेटा हमारे लिए दोनों हैं। क्या कभी मिट पाएगा हमारे देश और हमारे समाज से, यह बेटे बेटी का फर्क ?
अरे इस सब से तो यहाँ के लोग अच्छे हैं कम से कम यहाँ किसी भी बात को लेकर लोगों के मन में किसी भी तरह का दुराव छुपाव तो नहीं है। जो है सो है, फिर चाहे वो लिविंग रिलेशन शिप हो, या इंटर कास्ट मैरेज, या फिर समलैंगिक विवाह, जो भी होता है खुले आम होता है। यह सोचकर और देखकर कम से कम एक बात की संतुष्टि तो मिलती है मुझे कि चाहे जो भी है, मगर कम से कम अधर में तो नहीं लटके हैं न यह विदेशी, हमारी तरह...काश इनकी नकल करने के बजाये हम इनसे यह समानता का भाव सीख पाते तो शायद आज हमारे देश की बेटियाँ भी कुछ हद तक खुद को सुरक्षित समझ पाती और अपनी ज़िंदगी खुद अपने ढंग और मन मर्ज़ी से जी पाती।
माना के यहाँ भी सब कुछ इतना अच्छा भी नहीं है, बहुत सी बुराइयाँ भी है यहाँ, समानता के चक्कर में लोग आन्धे यहाँ भी हैं। बलात्कार जैसे घिनौने अपराध यहाँ भी होते हैं। मगर बुराइयाँ कहाँ नहीं होती। यह तो हमारी समझ पर निर्भर करता है कि हम क्या चुनते हैं और हमने जो चुना वह थी केवल नकल, मात्र दिखवा। उसके पीछे जुड़े लॉजिक को तो हमने कभी देखने समझने की कोशिश ही नहीं कि केवल लड़कियों को पढ़ा देने से या जीन्स पहना देने से आप खुली मानसिकता के दायरे में नहीं आ जाते। क्यूंकि खुली मानसिकता का अधार आधुनिक चाल चलन को अपना लेना मात्र नहीं है, बल्कि अपने दिमाग को खोलना है। उसका कपड़ों या पढ़ाई लिखाई से कोई संबंध नहीं है। बड़े बड़े विद्वान और ज्ञानियों की कमी नहीं है हमारे यहाँ, मगर यदि खुली मानसिकता कि बात करें, तो शायद वह आज भी नाम मात्र की ही मिलेगी वह भी वक्त और जरूरत के मुताबिक बदलती हुई। मैंने पहले भी कई बार लिखा है और आज एक बार फिर मैं यह कहना चाहूंगी कि इसे तो अच्छे और कहीं ज्यादा मोर्डन हम पहले थे। कम से कम एक तरफ तो थे। आज तो हम कहीं के नहीं है ना पिछड़े ना आधुनिक और यही हाल रहा, तो अब वो दिन दूर नहीं जब इसी तरह एक दिन हमारी संस्कृति और सभ्यता जिस पर हम नाज़ करते हैं वह हमेशा-हमेशा के लिए कहीं गुम हो कर रह जाएगी। जय हिन्द
बहुत कठिन है डगर पनघट की ...। मैं ने अपने बेटे और बेटी को एक समान समझा। मेरे लिए दोनों ही बेटे हैं, दोनों ही बेटियाँ भी। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। मेरी उत्तमार्ध भी दोनों में फर्क नहीं करती। लेकिन उस के लिए बेटी बेटी है और बेटा बेटा। सारे समाज का व्यवहार भी ऐसा ही है। फिर बेटी की समस्याएँ बेटी की हैं और बेटे की समस्याएँ बेटे की। वास्तव में हम खुद को बदल सकते हैं लेकिन समाज को नहीं। हम सोच सकते हैं कि बहुत बड़ी संख्या में जब लोग खुद को बदल लेंगे तो समाज भी बदल जाएगा। लेकिन समाज ऐसे तो नहीं ही बदलता है। वह बदलता है ठोस भौतिक परिस्थितियों से। पश्चिमी समाजों में जहाँ पूंजीवाद क्लासिकल रूप में विकसित हुआ वहाँ शायद यह भेद एक हद तक कम हुआ है। लेकिन भारत जैसे देशों में पूंजीवाद सामन्तवाद से समझौता कर खुद को जीवित रख पा रहा है। वहाँ यह भेद गहराई तक बना हुआ है। मैं समझता हूँ जैसे जैसे भौतिक परिस्थितियाँ बदलेंगी यह भेद और कम होगा। जो लड़कियाँ विवाह के पहले स्वावलंबी हो गई हैं। उन में यह एक हद तक बदला है। जिन परिवारों में माँ स्वावलंबी थी और बेटियाँ भी खुद अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं वहाँ बेटियों की स्थिति बहुत बेहतर है. क्यों कि वहाँ दूसरी पीढ़ी है। समाज में यह बदलाव बहुत ही जटिल है। लेकिन समाज धीरे धीरे ही सही मात्रात्मक रूप से बदल रहा है जैसे गर्म होते पानी के तापमान का बढना जो दिखाई नहीं देता। जब यह तापमान क्वथनांक बिन्दु पर पहुँचता है तो पानी उबलने लगता है और तेजी से भाप में बदलना आरंभ कर देता है। हमारा समाज भी इसी तरह धीरे धीरे गर्म हो रहा है उस का तापमान भी बढ़ रहा है। हमें आशा करनी चाहिए कि एक दिन क्वथनांक बिन्दु पर भी पहुँचेगा।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,आज की सच्चाई से भरा सुंदर आलेख !
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीया-
समाज की सोच बदल तो रही है , मगर धीरे धीरे !
ReplyDeleteलेकिन हमारा समाज ही इतना फैलता जा रहा है कि बदली सोच वाले अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-10-2013 के चर्चा मंच पर है।
ReplyDeleteकृपया पधारें।
धन्यवाद ।
सामाजिक , पारिवारिक और प्रशासनिक स्तर पर प्रभावी बदलाव हों ....तो ही संभव है इन हालातों में सुधार
ReplyDeletesarthak v sateek aalekh .aabhar
ReplyDeleteएक एक घटना पर उद्वेलित हुये बिना मानसिकता जमी रहेगी।
ReplyDeleteसोच तो बदल रही है समाज की .. ओर ये बात घर के बच्चों के व्यवहार में बदलाव से ही समझ आ जाती है ... पर ये भी लगता है कभी कभी की हमारा समय ज्यादा खुला था ... शायद इसलिए लगता हो क्योंकि उस समय दायरा इतना बड़ा नहीं था ... मोहल्लेदारी, कसबे में करीब करीब सब जानते थे एक दूसरे को जो आज नहीं है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - शुक्रवार - 04/10/2013 को
ReplyDeleteकण कण में बसी है माँ
- हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः29 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
आभार ...
ReplyDeleteआभार ...
ReplyDeleteजी सही कहा आपने मगर यह बदलवा इतना धीमा है कि अपराध या आपराधिक गति विधियाँ ज्यादा तेज़ी से पनपती हुई प्रतीत होती है और जैसा कि तारीफ दरलाल जी ने कहा समाज की सोच बदल तो रही है , मगर धीरे धीरे !
ReplyDeleteलेकिन हमारा समाज ही इतना फैलता जा रहा है कि बदली सोच वाले अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं ! यह भी अपने आप में एक सत्य ही है।
यह बात भी सही है, बिलकुल ठीक कहा आपने सहमत हूँ आपकी बात से ...
ReplyDeleteयकीन नहीं होता है कि ये 21 वीं सदी !! बढ़िया और सार्थक लेखन आपका । आभार
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : ब्लॉग से कमाने में सहायक हो सकती है ये वेबसाइट !!
ज्ञान - तथ्य ( भाग - 1 )
positive sochna hi sabse behtar........
ReplyDeleteghatnayen to ghat ti rahegi ...
uski bhartsana hi ki ja sakti hai.......
sarthak lekh!!
पल्लवी यहाँ पर लोगों के दो चेहरे होते हैं और समाज भी इंसान की औकात देख कर ही व्यवहार करता है। लड़कियों और लड़कों का फर्क हम नहीं करते लेकिन लोग इस बात को याद दिलाने में पीछे नहीं छोड़ते हैं। सबसे पहले अगर हम सिर्फ अपनी सोच बदल लें तो समाज तो धीरे धीरे बदल ही जाएगा। अभी इसी जद्दोजहद की शिकार मैं भी हूँ और लड़ रही हूँ तथाकथित समाज , परिवार और सोच से। विश्वास है कि जीत जाऊँगी और न भी जीती तब भी उस कहानी को ब्लॉग पर लिखूंगी और पूछूंगी कि मैं कहाँ और कैसे गलत थी ? जो मुझे हरा दिया गया।
ReplyDeleteसही कहा आपने ... किन्तु चिंता न करें, आप जिस जद्दोजहद से गुज़र रही हैं उसमें आपकी जीत अवश्य होगी। क्यूंकि यदि सच्ची नियत और साफ मन हो तो हर काम का अंजाम सफलता ही होती है और आपको भी आपकी कोशिशों में जीत ज़रूर मिलेगी, आप देखलेना और बस इतना हमेशा याद रखिये कि "रोशनी अगर खुदा को हो मंजूर, आधियों में चिराग जला करते हैं" "खुदा गवाह है" :-)
ReplyDeleteकुछ लोग लड़कियों को लड़कों की तरह पालते है। यह सच है और कुछ हद तक सही भी, लेकिन कोई भी लड़कों को लड़कियों की तरह क्यूँ नहीं पलता ??? कहने का तात्पर्य यह है कि लड़कियों को संवेदनशील बनाने के चक्कर में हम उनकी परवरिश में ना चाहते हुए हुए भी वो सब बातें भरते चलते जाते हैं, जिनकी शायद अब जरूरत भी नहीं रही है.
ReplyDelete.....सोच तो बदल रही है समाज की मगर धीरे धीरे !
पहली बात, संस्कृति सभ्यता केवल लिखने, भाषण देने तक ही है। दूसरी, तथाकथित आधुनिकता अनेक विसंगतियों से भरी पड़ी है। ऐसे में सामूहिक युग चेतना के आने तक कुछ भी अच्छे बललाव नहीं हो सकते। आपने सामाजिक विसंगतियों पर अच्छा प्रकाश डाला है।
ReplyDeleteवर्तमान विसंगतियों पर अच्छा प्रकाश डाला है आपने।
ReplyDeleteI do not exist to empress the world. I exist to live my life in a way that will make me happy.
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ReplyDeleteaapne do deshon ki sanskrition ko dekha phir jo likha h. to sach ko ,mahsoos karte hue use jeete hue . really too good, but hum kitne bhee jagruk kyon na ho jaayen phir bhee logon ki mansikta me badlav karne me sakchhm nhi ho paate to pahle khud ko badlen shayad esse kuchh had tak sudhhar ho sake.
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