Saturday, 1 March 2014

विज्ञापन का असर

champion

कल टीवी पर एक विज्ञापन देखा विज्ञापन एक आटा बनाने वाली कंपनी का था। नाम था चैंपियन आटा। शुरू-शुरू में जब यहां पर ऐसे आटा दाल चावल मसाले के विज्ञापन देखा करते थे तो बहुत हंसी आती थी। जाने क्यूँ तब इस तरह के विज्ञापन देखना बड़ा अजीब लगता था। हालांकी तब अपने यहाँ भी एम.डी.एच के मसालों के विज्ञापन और शायद पिल्सबरी आटे का विज्ञापन आया करता था। अब भी आता है या नहीं पता नहीं। तब यह उतना अजीब नहीं लगता था जितना यहाँ आने के बाद लगा। खैर उस विज्ञापन के माध्यम से यह संदेश दिया जा रहा था कि यदि आप इस आटे से बनी रोटियाँ बनाकर खाओगे तो अपने पिंड की याद में खो जाओगे और यहाँ ना सिर्फ अपने देश बल्कि अपने अपनों से हुई दूरी को भी कम महसूस करोगे।

यह सब देखकर कई बार सोचो तो आज भी यहाँ रहना ऐसा ही लगता है, जैसे किसी गाँव के व्यक्ति को अपना गाँव छोड़कर शहर में रहने में लगता होगा। हाँ यह बात अलग है कि हिंदुस्तान में भी अब वो पुराना भारत नहीं बसता। जिसकी मिट्टी से अपने देश की सभ्यता और संस्कृति की भीनी –भीनी महक आया करती थी। ठीक उसी तरह विदेश का यह शहर लंदन भी अब विदेश नहीं लगता। इसलिए नहीं कि अब मुझे यहाँ रहने की आदत हो गयी है। बल्कि इसलिए क्योंकि अब यहाँ विदेशी कहे जाने वाले (गोरे) खुद अपने ही देश में विदेशियों की भांति ही इक्का दुक्का नज़र आते है और जो वास्तव में यहाँ के लिए विदेशी है। जैसे हम हिन्दुस्तानी उनकी तो यहाँ जैसे भरमार है। लेकिन आज जब दोनों ही देशों में खान पान से लेकर रहन सहन तक सब एक सा हो चला है। उसके बावजूद भी भारतीय लोगों में विदेश आने का आकर्षण कम होता नज़र नहीं आता। देश प्रेम या अपनी मिट्टी से जुड़ी भावनाएं तो अब केवल किताबी बातें बनकर रह गयी है। वास्तविक ज़िंदगी से तो अब इनका दूर-दूर तक कोई नाता नज़र नहीं आता। आ भी कैसे सकता है क्योंकि अब तो किताबों का भी वास्तविक ज़िंदगी से कोई वास्ता ही नहीं रहा। तो फिर किताबी बातों का कहाँ से रहेगा।

लेकिन दुःख केवल इस बात का होता है कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हर इंसान का ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही एक मात्र उदेश्य बनकर रह गया है। इसके अतिरिक्त किसी की भी ज़िंदगी में और कुछ बचा ही नहीं है। अब केवल पैसा ही ज़िंदगी है। पहले लोग जरूरत के लिए पैसा कमाते थे। अब पैसा ही जरूरत बन गया है। अब यह सरकार और प्रशासन की अनदेखी का नतीजा है। या विदेशों का आकर्षण ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। इस सब में बहुत से लोग (समूह या विभाग) जिम्मेदार है। इसलिए यहाँ किसी एक का नाम लेकर दोषारोपण करना उचित नहीं लगता। जाने क्यूँ आज भी आम लोगों को ऐसा लगता है कि विदेशों में तो जैसे पैसा बरसता है। मगर वास्तव में ऐसा है नहीं।  हाँ इतना ज़रूर है कि यहाँ और वहाँ की विनिमय दर में अंतर होने के कारण शायद आप यहाँ, वहाँ के मुकाबले थोड़ा ज्यादा पैसा बचा सकते हो। लेकिन फिर यहाँ के खर्चे भी तो वैसे ही होते है, जैसी आपकी आय। फिर क्यूँ हम भारतीय अपना देश छोड़कर बाहर विदेश जाने को व्याकुल हैं। भारतीय इसलिए कहा क्योंकि भारत के लोग ही ऐसे है जो दुनिया के लगभग हर देश में बसते हैं।

लेकिन यहाँ सोचने वाली बात यह है कि गाँव छोड़कर शहर आकर हमने या हमारे बुज़ुर्गों ने जो कुछ भी अनुभव किया वो क्या कम था जो अब हम देश छोड़कर विदेश जाकर करना चाहते है। जिस तरह एक गाँव से जुड़े व्यक्ति को शहर की आबो हवा रास नहीं आती और उसे हर पल अपने गाँव की याद सताती है। ठीक उसी तरह एक सच्चे हिन्दुस्तानी को यहाँ (लंदन) अपने देश की याद बहुत सताती है। जबकि अब यहाँ हर वो सुविधा है जो अपने यहाँ है (कुछ एक चीजों को छोड़कर) फिर भी अपना देश अपना ही होता है। लेकिन उसके बावजूद भी जब याद आती है अपने अपनों की, अपने समाज, अपने तीज त्यौहारों की, तब ऐसे ही अपने देश की बनी चीजों से काम चलाकर ही भारी मन से एक औपचारिक भाव लिए अपने मन के साथ-साथ घरवालों का दिल भी बहलाना पड़ता है।

default3तब बहुत याद आता है वो गुज़रा ज़माना। वो होली के रंग, वो दीवाली के दिये। वो संक्रांति की पतंग, वो गणेश उत्सव की धूम, वो नवरात्रि में गरबे के रंग, वो पकवानों की महक, वो गली की चाट, वो मटके की कुल्फी और भी न जाने क्या-क्या....ज़िंदगी तो जैसे आज भी वहीं बस्ती है। मगर यहाँ यह सब पूरा होता है ‘हल्दी राम के संग’ यानी ‘होली के रंग हल्दी राम के बने पकवानों के संग’ मिठाई हो या भरवा पराँठे हल्दी राम ही है यहाँ जो सब कुछ है बनाते, या फिर भारतीय पकवान बनाने वाली अन्य कंपनीयां। फिर क्या होली की गुजिया और क्या माँ के हाथों से बने आलू गोभी के भरवां पराँठे। ‘दूध दही और मक्खन घी की जगह तो अब (लो फेट) ने ले ली’। ‘चाय भी हो गयी अब केटली की सहेली’।

समझ नहीं आता जब इतना याद आता है अपना देश और मन को भाता नहीं परदेस तो फिर क्यूँ हमने मन मारकर जीना सीख लिया। क्यूँ ज़िंदगी को जीने के बजाय एक बोझ समझकर ढ़ोना सीख लिया। कहने वाले तो अब यही कहते है कि अब भारत में भी वो भारत नहीं बसता जिसकी बातें हम तुम करते है। यहाँ भी अब वही हाल है विदेशों की नकल करने में हो रही हड़ताल है। पर जाने क्यूँ अब भी मेरा मन कहता है। भारत , भारत ही रहता है। भारत में अब भारत ना भी रहता हो शायद, पर हर भारतीय के दिल में भारत अब भी रहता है। भारत का भारत में ही अब शायद कुछ ना रहा हो बाकी। जैसे किसी नेता या अभिनेता की खादी या कानून के रखवालों की ख़ाकी। किन्तु विदेश में रहना वाला कोई भी इंसान चाहे हिन्दुस्तानी हो या पाकिस्तानी, देसी हो या विदेशी, जिस तरह कभी अपना नाम पता, जाती धर्म नहीं भूलता। ठीक उसी तरह वह चाहे नागरिकता कहीं की  भी ले ले मगर अपने वतन को नहीं भूलता।

तभी तो लोग विदेशों में रहकर भी अपने बच्चों के दिलों में अपने देश धर्म की शमा जलाए रखना चाहते हैं। उन्हें अपने देश की सभ्यता और संस्कृति से वाकिफ़ कर के रखना चाहते है। फिर आगे भले ही उनकी वो संतान अपनी आने वाली पीढ़ी को वो धरोहर दे न दे। लेकिन मैं एक बात दावे के साथ कह सकती हूँ कि विदेशों में बसने वाले मुझ जैसे प्रवासी भारतीयों की चाहे जो भी मजबूरियाँ हों, जिनके चलते वह अपना देश छोड़कर विदेशों में रहने को मजबूर हैं मगर उनमें से जितने भी मेरी बात से सहमत है और मुझ जैसी सोच रखते है वह सभी आज न सही किन्तु अपने जीवन के अंतिम पड़ाव (बुढ़ापे) के क्षण अपने ही देश में बिताना पसंद करेंगे। नहीं ? जय हिन्द....

15 comments:

  1. विदेशों में जाकर हम उनके परिवेश और रहन सहन में ढल तो जाते हैं, पर अपना देश और संस्कृति कहाँ भुलाये भूलती है।

    ReplyDelete
  2. अपनी जड़ों से जुड़ाव हर हाल में ज़रूरी है ..... विचारणीय पोस्ट

    ReplyDelete
  3. जड़ें तो जड़ें हैं.. खींचती भी है और जोड़े भी रखती हैं!

    ReplyDelete
  4. कुछ तो है उस मिटटी में हो खुशबू छूटती नहीं उसकी ... पर ये भी एक कडुआ सच है ... कुछ दिन रह कर देश में फिर से ये खुशबू भूलने लगती है ... मन छटपटाता है बाहर आने को ...

    ReplyDelete
  5. मेरा रंग दे वसंती चोला मां ए रंग दे....मेरा रंग दे वसंती चोला मां ए रंग दे..............

    ReplyDelete
  6. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन - आधा फागुन आधा मार्च मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  7. अपनी मिट्टी की सुगंध कब भूल पाते हैं और वह सदा आकर्षित करती है...पर अब भारत भी वह भारत कहाँ रहा?

    ReplyDelete
  8. बात विज्ञापन से शुरू कर के अपने देश से जुड़ने की भावना पर लेख ख़त्म किया .... गली की चाट और माँ के हाथ की गुंझिया और आलू के परांठे भी याद कर लिए ... मजबूरी भले ही हो पर अपना देश अपना ही होता है ...

    ReplyDelete
  9. हमारा शरीर और मन अपने देश की मिट्टी से बना है इसलिए हमेशा अभावों में ही यही अच्‍छा लगता है। लेकिन सुख-सुविधा के चक्‍कर में अक्‍सर लोग अपनापन भूल जाते हैं। मनुष्‍य के साथ यह आवागमन लगा ही रहेगा।

    ReplyDelete
  10. जिस देश के साथ 'अपना' जुड़ा है उसका खिंचाव कभी कम नहीं होता, कहीं भी जा बसें कोई न कोई रूप धर उस नयेपन में अपनी संगति ढूँढने लगता है.और अंतिम पड़ाव कहाँ ?..ये भी कोई पूछने की बात है!

    ReplyDelete
  11. शहर मे गांव नहीं मिल सकता, गांव मे शहर !
    इसी समझौते के साथ गुजर जाती है जिंदगी !

    ReplyDelete
  12. निहार4 March 2014 at 07:59

    आपके पोस्ट के हर शब्द को महसूस किया मैंने. प्रवासी जीवन से जुड़े अनुभव को बखूबी अभिव्यक्ति दी है.

    ReplyDelete
  13. हम आखिन भी जाए .कहीं भी रहे .अपने देश की मिटटी की खुशबू हमारे साँसों से होकर गुजरती है.............सुन्दर लेख..........के लिए बधाई.........

    ReplyDelete
  14. प्रभावकारी प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  15. प्रवासी भारतीयों के ह्रदय की भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया है ! मेरा बेटा भी पिछले बीस साल से अमेरिका में रह रहा है इसलिये इस तरह के विमर्श से मैं अक्सर दो चार होती रहती हूँ जब सब एक साथ होते हैं ! अपने देश के प्रति प्यार और आकर्षण कभी कम नहीं होता ! और मैंने तो वहाँ रहने वाले सभी भारतीयों में यह भावना अधिक सुदृढ़ ही पाई है ! बहुत ही अच्छा व सारगर्भित आलेख !

    ReplyDelete

अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए यहाँ लिखें