हम अपने आसपास के लोगों के जीवन-स्तर को देखकर ही सम्पूर्ण समाज को उस स्तर पर ला खड़े करते हैं। और उसी स्तर पर हो रहे विकास को देखते हैं। जबकि उस निर्धारित स्तर से ऊपर या नीचे भी जीवन चलायमान होता है। उधर हमारी नज़र जाती ही नहीं। जाती भी है तो उस जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के कोई प्रयास नहीं होते। आज कितने लोग होंगे, जो घर की बहू-बेटियों की तरह ही घर की कामवाली बाई की इज्जत करते होंगे। शायद उंगलियों में गिनने लायक। घरेलू हिंसा से पीड़ित बाई अपने नीले-पीले शरीर को दिखाकर जब हमारे सामने रोती-बिलखती है, तो भी सालों हमारी सेवा करनेवाली बाई के लिए हम कुछ नहीं कर पाते। क्योंकि हम कानूनी पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहते।
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