Monday, 7 July 2014

जाने कब समझेंगे हम...!

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बात उस समय कि है जब इंसान अपनी निजी एवं अहम जरूरतों के लिए सरकार और प्रशासन पर निर्भर नहीं था। खासकर पानी जैसी अहम जरूरत के लिए तो ज़रा भी नहीं। उस वक्त शायद ही किसी ने यह सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब पानी भी बेचा और खरीदा जायेगा। हाँ यह बात अलग है कि तब जमींदारों की हुकूमत हुआ करती थी। निम्नवर्ग का जीना तब भी मुहाल था और आज भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि तब जमींदार गरीबों को लूटा करते थे। आज यह काम सरकार और प्रशासन कर रहे हैं। रही सही कसर बैंक वाले पूरी कर रहे हैं। तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तब से आज तक गरीब किसान की किस्मत में सदा पिसना ही लिखा है।

मगर सोचने वाली बात यह है कि इतनी परेशानियाँ, दुःख तकलीफ सहन करने के बाद भी कभी इंसान ने जंगल काटने के विषय में नहीं सोचा। क्यूँ ! क्योंकि पहले हर कोई यह भली भांति जानता था कि यह जंगल ही हमारे जीने का सहारा है जो हमें न सिर्फ रोटी देते है बल्कि हमारी सभी अहम जरूरतों की पूर्ति भी करते है। यह पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं, यादों का घरौंदा हुआ करते थे। क्या आपको याद नहीं, वो बचपन के खेल जिनमें इन पर वो पल-पल चढ़ना उतरना, तो कभी इनसे घंटों बतियाना वो सुख दुःख में इन्हें गले लगा वो हँसना वो रोना, वो नीम की निबोली, वो आम के पत्ते, वो बरगद की बाहें, वो अमरूद थे कच्चे।

मगर अब सब कुछ बस क़िस्से और कहानियों में क़ैद होकर रह गया। क्यूँ क्योंकि आज ऐसा नहीं है। आज तो नज़र उठाकर देखने पर जहां तक नज़र जाती है वहाँ तक केवल कंक्रीट के जंगल ही दिखाई देते है। फिर चाहे उसके लिए तापमान का बढ़ता प्रकोप ही क्यूँ ना झेलना पड़े या पानी का अभाव। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए आज हर इमारत हर सोसाइटी में जल का अभाव है ऊपर से ठेकेदार रोबदार आवाज में कहता है अपनी सोसाइटी में तो पाँच से छः बोरवेल है और यदि फिर भी कभी जरूरत पड़ जाये तो टैंकर मँगवा लेते है कुल मिलाकर आपको कभी पानी का अभाव नहीं झेलना पड़ेगा। इस पर भी जब उनसे कहो यदि सभी इसी तरह लगातार बोरवेल लगवाते रहे तो एक दिन धरती के अंदर का सारा जल सूख जाएगा फिर क्या करेंगे तो कहता है सच कल किसने देखा अभी अपनी सोसाइटी में तो पानी है फिर बाकी जगह क्या है क्या नहीं उस से अपने को क्या। सच कितना स्वार्थी हो गया है आज का इंसान जिसे केवल अपनी स्वार्थपूर्ति से मतलब है। फिर चाहे वो इमारतें बनाने वाले ठेकेदार हों या आज कल की सरकार फिर भले ही उसका खामियाजा पूरी मानव जाति को ही क्यूँ ना भोगना पड़े। सब का बस एक ही राग है ‘पैसा फेंक तमाशा देख’ ऐसे हालातों में आज जिसके पास पैसा है उसके पास निजी जरूरतों जैसे रोटी कपड़ा और मकान के साथ-साथ बिजली पानी जैसी अहम जरूरतों की पूर्ति भी है। इसका अर्थ यह निकलता है कि पानी की कमी नहीं है। मगर मिलता उन्हें ही है जिनके पास पैसा है और जिनके पास पैसा नहीं हैं उन बेचारों की ज़िंदगी तो खाने कमाने के चक्करों में ही निकल जाती हैं। उनके घरों में तो रोज़ चूल्हा जलना ही उनकी अहम जरूरतों की पूर्ति के बराबर है।

क्या यही है एक विकासशील देश की पहचान ? आज भी मैं देख रही हूँ एक ओर खड़ी तीस-तीस माले की बड़ी-बड़ी इमारतें जिनमें सभी सुख सुविधाओं के साथ बिजली चले जाने पर पावर बैकप की सुविधा भी उपलब्ध है। मगर उन विशाल एवं भव्य इमारतों के ठीक सामने है निम्नवर्ग की अँधेरी कोठरी। जहां एक और साँझ ढलते ही पूरी इमारत रोशनी से नहा जाती है। वहीं दूसरी और उस सामने वाली कोठरी में एक दिया तक नहीं होता जलाने के लिए। क्यूँ ? क्यूंकि बिजली का बिल भरने लायक उनकी कमाई नहीं होती। नतीजा वह बिजली की चोरी करते हैं और टेक्स के नाम पर खामियाजा आम आदमी (मध्यम वर्ग) भरता है। तो ज़रा सोचिए उन गाँवों का क्या हाल होता होगा जो आज भी बिजली से वंचित हैं।

अब बात आती है पानी की ‘जल ही जीवन है’ यह सभी जानते है और मानते भी है। मगर फिर भी जल को बचाने का प्रयास कोई नहीं करता। न बड़ी-बड़ी इमारतों के छोटे-छोटे मकानों में रह रहे लोग और ना ही निम्नवर्ग के लोग। पानी की पूर्ति की चिंता जब सरकार को नहीं तो फिर भला और कोई कैसे करेगा। क्योंकि उन्हें तो पानी की कमी है नहीं और जिन्हें है उन्हें भी पानी की बचत से कोई मतलब नहीं है। उन्हें बस पानी मिलना चाहिए। बचत हो, न हो, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता। उदाहरण के तौर पर मेरे घर की काम वाली बाई को ही ले लीजिये। उसे बर्तन साफ करने और झाडू पोंछे के लिए नल से बहता तेज़ धार वाला पानी ही चाहिए। रखे हुए पानी से काम करने में उसे एतराज़ है। क्यूँ ! क्योंकि उसमें बहुत कष्ट होता है और समय भी ज्यादा लगता है। उसका कहना है कि नल खुला रहे तो बर्तन जल्दी साफ होते हैं। फिर उसके लिए चाहे जितने लीटर पानी बहे तो बह जाये उसे उससे कोई मतलब नहीं।

इतना ही नहीं घर में रखे भरे हुए पानी पर भी उसे लालच आता रहता है। वैसे चाहे वो दिन में शायद एक बार नहाने के बाद मुँह भी न धोती हो। मगर खुद को जरूरत से ज्यादा साफ सुथरा दिखाने के लिए उसे पच्चीस बार हाथ पैर धोने होते है। कुल मिलाकर जब तक सामने दिख रहा भरा हुआ पानी खत्म नहीं हो जाता, उनका भी काम खत्म नहीं होता। यह सिर्फ मेरी नहीं बल्कि हर घर की समस्या है। और जब समझाने की कोशिश करो तो उनका मुँह फूल जाता है। फिर जब खुद के घर के लिए कार्पोरेशन के पानी हेतु लंबी लाइन में लगनी होती है   तब पानी की अहमियत समझ आती है। मगर सिर्फ कुछ घंटों के लिए अगले ही पल से फिर वही ‘ढाक के तीन पात’ हो जाते है। इसी तरह हर रोज़ आम लोग पानी का अभाव झेलते रह जाते है।                    

7 comments:

  1. सही कहा। प्रमुख समस्‍याओं के अन्‍दर भी अनेक छिटपुट समस्‍याएं मानवीय प्रवृत्ति की कमजोरी के कारण दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। इससे जीवन की सबसे महत्‍वपूर्ण आवश्‍यकता पानी के संकट का सामना सबको करना पड़ रहा है। ज्‍वलंत विषय उठाया है। इस पर प्रशासन को ध्‍यान अवश्‍य देना चाहिए।

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  2. इंसानों में यह पैदायिशी नुक्स (manufacturing defect) है कि वे उपभोग की वस्तुओं को बर्बाद बहुत करते हैं. देखते हैं आपकी बात को यदि एक व्यक्ति भी समझ कर मान ले और अमल करे तो कम से कम दो अन्य व्यक्तियों का भला हो सकता है. सामयिक आलेख.

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  3. मजे की बात तो ये है की सरकार जमींदार बनी हुयी है वो भी हमारे ही लिए ... हमारे ही नाम पर ... ये दुर्भाग्य है मानव जाती का उसने प्राकृति के साथ नहीं चलता बल्कि उससे प्रतिस्पर्धा रक्खी हुयी है ... आने वाला विषयव-युद्ध भी शायद पानी के नाम पर ही होने वाला है ...

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  4. जब कोई वस्तु आसानी से मिल जाती है और उसे प्राप्त करने के लिए पैसा भी होता है, तब व्यक्ति उस वस्तु का महत्त्व नहीं समझता. जब एक दिन भी पानी किसी वज़ह से बंद हो जाता है तब पानी की कीमत समझ आती है. राजस्थान के गांवों में पानी की कमी के कारण एक बूँद पानी भी किसी को बरबाद करते नहीं देखा. वहाँ किसी को भी पानी गिलास से पीते हुए नहीं देखा, सब ऊपर से सीधे गले में डालते हैं, जिससे बार बार गिलास को धोना नहीं पड़ता और पानी की बचत हो जाती है.

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  5. विचारणीय बात तो है | ये हालत तकरीबन हर बड़े शहर में हैं जहाँ एक ओर रौशनी है तो दूसरी ओर अँधेरा .... हम अब तो चेतें

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  6. girijakulshreshth9 July 2014 at 21:32

    पल्लवी जी आपने बहुत ही ज्वलन्त विषय लिया है । पेड़ों की कटाई व पानी की समस्या ये दो बातें अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष रूप से जीवन को कठिन से कठिन बनाती जा रही हैं । जल का विकरण बहुत ही आसमान है । पाइपलाइन फूटी पड़ी हैं तो कहीं नल में टोंटियाँ नही हैं और कहीं पानी पर्याप्त है तो फिर बाहर सड़क तक उसी पीने के पानी से धोने की सनक भी देखी जाती है । जब तक दायित््वबोध नही होगा तब तक स्थिति नियन्त्रण में आना कठिन है ।

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  7. anju choudhary (anu)12 July 2014 at 21:52

    एक दम सही बात

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