कभी सुना है किसी व्यक्ति को दीवारों से बातियाते हुए ? सुना क्या शायद देखा भी होगा। लेकिन ऐसा कुछ सुनकर मन में सबसे पहले उस व्यक्ति के पागल होने के संकेत ही उभरते है। भला दीवारों से भी कोई बातें करता है! लेकिन यह सच है। यह ज़रूरी नहीं कि दीवारों से बात करने वाला या अपने आप से बात करने वाला हर इंसान पागल ही हो या फिर किसी मनोरोग का शिकार ही हो। मेरी दृष्टि में तो हर वक्ता को एक श्रोता की आवश्यकता होती है। एक ऐसा श्रोता जो बिना किसी विद्रोह के उनकी बात सुने। फिर भले ही वह आपकी भावनाओं को समझे न समझे मगर आपके मन के गुबार को खामोशी से सुने। शायद इसलिए लोग डायरी लिखा करते हैं।
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