मैंने इस blog के जरिये अपने जिन्दगी के कुछ अनुभवों को लिखने का प्रयत्न किया है
Wednesday, 20 August 2014
बातें अपने मन की ...
कभी सुना है किसी व्यक्ति को दीवारों से बातियाते हुए ? सुना क्या शायद देखा भी होगा। लेकिन ऐसा कुछ सुनकर मन में सबसे पहले उस व्यक्ति के पागल होने के संकेत ही उभरते है। भला दीवारों से भी कोई बातें करता है! लेकिन यह सच है। यह ज़रूरी नहीं कि दीवारों से बात करने वाला या अपने आप से बात करने वाला हर इंसान पागल ही हो या फिर किसी मनोरोग का शिकार ही हो। मेरी दृष्टि में तो हर वक्ता को एक श्रोता की आवश्यकता होती है। एक ऐसा श्रोता जो बिना किसी विद्रोह के उनकी बात सुने। फिर भले ही वह आपकी भावनाओं को समझे न समझे मगर आपके मन के गुबार को खामोशी से सुने। शायद इसलिए लोग डायरी लिखा करते हैं। ताकि अपने मन को पन्नों पर उतारकर खुद को हल्का महसूस कर सकें। जिस प्रकार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना जीवित नहीं रह सकता। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के लिए एकांत भी उतना ही प्रिय है जितना उसके लिए समाज में रहना। क्यूंकि एकांत में ही व्यक्ति अपने आप से बात कर पाता है। 'कोई माने या ना माने' अपने आप से बातें सभी करते हैं। मगर स्वीकार कोई-कोई ही कर पाता है। न जाने क्यूँ अक्सर लोग इस बात को स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं। शायद उन्हें ऐसा लगता हो कि यदि वह यह बात स्वीकारेंगे तो कहीं लोग उन्हें पागल न समझलें... नहीं ? है ना यही वजह है न!
लेकिन होता यही है। एकांत पाते ही हम अपने आप से बातें करते हैं। अपने जीवन से जुड़े भूत वर्तमान और भविष्य के विषय में सोचते हुए मन ही मन बहुत गहरा चिंतन मनन चलता है हमारे अंदर जिसे हम किसी अन्य व्यक्ति से सांझा नहीं कर पाते। इस दौरान कभी हम चुप की मुद्रा में अपने मन के अंतर द्वंद पर सोच विचार करते रहते है, तो कभी बाकायदा अपने आप से बात भी करते हैं जैसे हमारे सामने कोई व्यक्ति खड़ा हो और हम उसे अपने मन की बातें बता रहे हो। ठीक वैसे ही जैसा सिनेमा में दिखाया जाता है। बस फर्क सिर्फ इतना होता है कि सिनेमा में हमें अपना मन साक्षात अपने रूप में दिखाया जाता है। किन्तु वासत्व में ऐसा नहीं होता। यूं भी वास्तविकता हमेशा ही कल्पना से विपरीत होती है। इसलिए वास्तव में तो हम अपने सामने रखी हुई वस्तु को ही अपना अन्तर्मन मन समझ कर बातें करने लगते है। फिर चाहे वह वस्तु कोई दर्पण हो या फिर दरो दीवार उस वक्त उस सब से हमें कोई अंतर नहीं पड़ता ! क्यूंकि तब हमें अचानक ही ऐसा महसूस होने लगता है कि वह हमारे ऐसे खास मित्र हैं जो हमारे मन की पीड़ा हमारे अंदर चल रहे अंतर द्वंद को भली भांति समझ सकते हैं जिनके समक्ष हम अपने मन की हर एक कोने में दबी ढकी छिपी बात रख सकते है। ऐसे में हम अपने मन के अंदर छिपी हर गहरी से गहरी बात भी उनके समक्ष रख देते हैं। "ऐसा पता है क्यूँ होता है" ? क्यूंकि इंसान सारी दुनिया से झूठ बोल सकता है मगर खुद से कभी झूठ नहीं बोल सकता।
लेकिन जब कोई व्यक्ति भावनात्म रूप से किसी किसी बेजान चीज़ के प्रति अपना संबंध स्थापित करले तब क्या हो ? जैसे अक्सर एक ही शहर में रहते हुए जब हमें उस शहर से एक गहरा लगाव हो जाता है या फिर एक ही घर में वर्षों से रहते हुए जब हमारा उस घर से एक रिश्ता बन जाता है तब अचानक ही किसी कारणवश हमें उन्हें छोड़ना पड़े उस वक्त जो दुख जो पीड़ा होती है उसके चलते यदि हम उस शहर या उस घर को उपहार स्वरूप कुछ देना चाहें जैसे जाते वक्त उस घर को उपहार स्वरूप हम उसे सजाकर छोड़े यह उसके दरो दीवार पर कोई ऐसी निशानी छोड़ें जिसे सदा-सदा के लिए वह घर हमारी स्मृतियों में जीवित रहे और हम उस घर की स्मृतियों में जीवित रहे तो उसे क्या कहेंगे आप क्या उसे पागलपन की श्रेणी में रखा जान चाहिए या फिर उस भावना की कदर करते हुए उसका सम्मान किया जाना चाहिए? इस विषय में आप क्या सोचते हैं ज़रा खुलकर बताइये।
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मोह
ReplyDeleteबहुत गहन विश्लेषण किया है जीवन से जुड़े हुए महत्वपूर्ण अनुभव का। यह पढ़कर अच्छा लगा। अन्तिम पैरे में एक जगह लगाव शब्द लगवा हो गया है। ठीक कर लें।
ReplyDeleteभावनात्मक लगाव ही कहा जा सकता है | कभी कभी इसमें स्वार्थपरकता भी हो सकती है ....
ReplyDeleteआपका विश्लेषण सही है. दर्पण में अपना बिंब देख पर मुस्कराना या एक एक्टिंग करते हुए उस बिंब पर गोली चलाने का एक्शन करना ऐसा व्यवहार है जो दर्पण के सामने हम स्वाभाविक रूप से कर लेते हैं लेकिन उन भावनाओं की अभिव्यक्ति इतनी सरल नहीं होती. कई बार सड़क पर चलते हुए कोई बात याद आने पर व्यक्ति हँस लेता है जिसे देख कर दूसरे हँस लेेते हैं और व्यक्ति को अजीब नज़रों से देखते हैं. ऐसा व्यवहार सामाजिक रूप से स्वीकार्य माना जाता है क्योंकि यह अचनचेत हो जाता है. लेकिन यदि अकेले में खुद से बातें करना (जैसे बुढ़ापे में होता है) अधिक हो जाए तो समस्या गहराने लगती है. यह अंतर्मन की सफाई और पागलपन के प्रारंभ की अवस्था हो सकती है. बुढ़ापे में ऐसा अकेलेपन के कारण हो सकता है जो मानसिक तनाव की निशानी है और मस्तिष्क की धीमी मृत्यु (senile dementia) का लक्षण भी हो सकता है. आपका आलेख सकारात्मक सोच की ओर ले जाता है. बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteब्लाग लेखन शुरु ही दीवारों से बातें करते करते ही हुआ :) जब सबकुछ ऐसे ही होता हुआ दिखा कहने का किसी पर कोई असर नहीं हुआ एक दीवार से समझौता कर लिया ।
ReplyDeleteगहरा विश्लेषण ...
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
ReplyDeleteभावनात्मक लगाव जिसमें कोईबुराई नहीं है ... दरअसल सभी को होता हिया ये रोग ... ये जुड़ाव इंसान की सम्वेदन्शीएल्त दिखाता है न की पागलपन ...
ReplyDeleteHa ye sahi h .. ki jb hm akele hote h to khud se batai to krte hi h ....ha pr hm ese mante ni h....
ReplyDeleteMan ke guhar hamari bhawanaon ke saath!!!
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