Friday, 14 November 2014

यह कैसा बाल दिवस !

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कितना कुछ है मन के अंदर इस विषय पर कहने को, किसी से अपनी मन की बात कहने को किन्तु हर किसी को नहीं बल्कि किसी ऐसे इंसान को जो वास्तव में इंसान कहलाने लायक हो। जिसके अन्तर्मन में अंश मात्र ही सही मगर इंसानियत अब भी कायम हो। वर्तमान हालातों को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है कि बहुत मुश्किल है ऐसे किसी इंसान का मिलना। लेकिन ऐसा नहीं है कि दुनिया में सभी बुरे हैं। अच्छे इंसानों से भी दुनिया भरी पड़ी है। लेकिन समाचार पत्रों में जो देखा पढ़ा और जो रोज़ ही सुनते है उससे तो ऐसा ही लगता है कि शायद इस दुनिया में अच्छे लोग दिन प्रतिदिन घटते ही जा रहे हैं। क्यूंकि आज की तारीख में अच्छा बनने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते है। यूं ही किसी को (नोबल प्राइज़) नहीं मिल जाता। वरना आज हर कोई (कैलाश सत्यार्थी) ही होता। बाल मजदूरों के लिए उन्होंने जो किया वो वाक़ई कबीले तारीफ़ है। वरना गलियों में पलने-बढ़ने वाला बचपन क्या जाने बाल दिवस किस चिड़िया का नाम है।


मुझे तो कई बार लगता है कि कहीं न कहीं इस सब के जिम्मेदार हम ही हैं। हमने ही मक्कारी और भ्रष्टाचार कर-करके अपने चारों तरफ एक ऐसा दूषित माहौल बना दिया है जिसमें न हम खुद खुल कर सांस ले पा रहें हैं और ना ही अपने बच्चों को खुला छोड़ पा रहे हैं ताकि वह स्वयं उड़कर अपने हिस्से के आसमाँ से अपनी साँसे मांग सकें। विशेष रूप से लड़कियाँ, यूं तो कहने को हर साल बाल दिवस बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। मगर बाल शब्द से बना बालक/बालिका जैसे शब्दों के मायनों से क्या हम वाकई परिचित हैं ? शायद नहीं ! क्यूंकि हम कुछ भी कहें और कर लें मगर आस-पास घट रही घटनाओं का असर जितना हम पर होता है उसे कहीं ज्यादा बाल मन पर होता है। महिला उत्पीड़न का शिकार महिलाएं/घरेलू हिंसा /मारपीट / तो कहीं देह व्यापार कहीं बलात्कार तो कहीं तेजाबी हमला/और जब कुछ न बचा तो नन्ही सी जान का यौन उत्पीड़न फिर चाहे वो बालक हो या बालिका इन सब में से बाल शब्द तो लुप्त हो ही गया। फिर कैसा बाल दिवस? खुद ही सोचकर देखिये डरे सहमें से बच्चे क्या एक दिन का बाल दिवस मनाने से निडर हो जाएंगे ?


इसी तरह चाणक्य की तरह ज्ञान देने वाले लोग परवरिश पर ज्ञान देते हुए कहते हैं कि बच्चों को आठ वर्ष की आयु तक उनका बचपन जीने देना चाहिए और नवें वर्ष से अनुशासन सीखना प्रारम्भ कर देना चाहिए। जैसे अनुशासन कोई घुट्टी है कि पानी में घोल कर पिला दो और बस समझो काम हो गया। मगर मुझे परेशानी इस बात से भी नहीं है। मुझे परेशानी इस बात से है कि यह अनुशासन केवल बालिकाओं के लिए ही क्यूँ ? बालकों के लिए क्यूँ नहीं ? कच्ची उम्र में शादी कर बच्चे पैदा करना /अपने से पहले अपने भाई के लिए सोचना /खुद भूखी रहकर भी उसके लिए भीख मांगकर रोटी का इंतजाम करना/ परिवार चलाने के लिए बाल मजदूरी करता अबोध बचपन। जिन कंधों पर स्कूल का बस्ता शोभा देना चाहिए वहाँ उन नन्हें से कंधों पर सम्पूर्ण परिवार की ज़िम्मेदारी उठाता बचपन। भूख-प्यास गरीबी जैसे बड़े दानवों से रोज़ लड़ता हुआ बचपन। दिन रात गालियां और फटकार को सुन-सुनकर बड़ा होता बच्चा, भला क्या जाने बाल दिवस किस चिड़िया का नाम है। इतना ही नहीं जिसे न अपने माता-पिता का पता हो न खुद अपने जन्म की तारीख। वो क्या जाने कौन थे चाचा नेहरू और क्यूँ मनाया जाता है बाल दिवस। अरे जिसने कभी प्यार के दो मीठे बोल तक न सुने हो जिसे बालमन, बचपन, बच्चा जैसे शब्दों का बोध तक न हो वो क्या जाने बाल दिवस क्या होता है।


 ऐसे में हम उम्मीद भी कैसे कर सकते है अपने बच्चे के साथ यह दिवस मनाने की, इतना सब काफी नहीं है क्या सीखने के लिए ? मगर फिर भी हम आप जैसे सभ्य कहे जाने वाले (सो कॉल्ड मिडिल क्लास लोग) क्या करते हैं अपने बच्चों के लिए ? क्या कभी गौर किया है आपने ? नहीं ! तो ज़रा करके देखिये। मेटेरनिटी लीव से पक चुकी माँ बच्चे के पैदा होने के बाद बड़ी मुश्किल से घर में रहकर अपने दिन काटती है। क्यूंकि नौकरी भी ज़रूरी है। भई इतनी पढ़ाई लिखाई इसलिए थोड़ी न की थी कि घर में बैठकर बच्चे पाले। पैसा है ही तो आया रख लेंगे या फिर बच्चे के नाना नानी /दादा दादी तो हैं ही बच्चा पालने के लिए। आखिर उनकी भी कुछ जिम्मेदारी तो बनती ही है। और यदि यह भी न हुआ तो क्रच और प्ले स्कूल ज़िन्दाबाद! इसलिए तो आजकल बच्चा एक साल का हुआ नहीं की लोग उसे प्ले स्कूल में डालने के विषय में सोचने लगते हैं। क्यूँ? क्यूंकि वहाँ जाएगा तो जल्दी जल्दी खाना-पीना/पढ़ना लिखना /हँसना बोलना सब सीख जाएगा। अरे कोई यह बता दे मुझे, इतनी भी क्या जल्दी है भाई। बच्चा है...समय आने पर सब अपने आप ही सीख जाएगा। मगर उफ़्फ़ आज कल इन फिजूल बातों के लिए समय किसके पास है।


 अब बताइये भला यह भी कोई बात हुई। नन्ही सी जान जो अभी तक ठीक तरह से अपना नाम भी नहीं जानती/जानता उसे स्कूल के बोझ तले डालने के विषय में सोचने लगते है लोग। क्या यह सही है? माता-पिता का अहम एक मासूम बच्चे को झेलना पड़ता है और कहा यह जाता है कि हम जो कुछ कर रहे हैं उसी के लिए तो कर रहे हैं। वही तो है हमारा सब कुछ। जबकि वास्तविकता तो यह है कि अपने-अपने अहम के चलते न माँ झुकने को तैयार है न पिता। और इस सब के बीच पिस रहा है मासूम बचपन और हम मना रहे हैं बाल दिवस। वाह !!! क्या खूब बाल दिवस है यह...कोई बताएगा क्या कि यह कैसा बाल दिवस है।

4 comments:

  1. सार्थक सामयिक चिंतन के साथ विचारणीय प्रस्तुति

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  2. केवल सरकारी दिवस मनाने से परिवर्तन नहीं होगा, जन-जन की मानसिकता में परिवर्तन आवश्‍यक है। आज घर-घर में छोटे बच्‍चे नौकर है, हम सब दोषी हैं। लेकिन यदि ये नौकरी नहीं करेंगे तो भूखे मर जाएंगे, दूसरा सत्‍य यह भी है।

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  3. जब सब कुछ औपचारिकता और दिखावे पर टिका हुआ हो, तो केवल बाल दिवस के लिए ही निर्मल भावनाएं कहां से ला सकते हैं इसके आयोजनकर्ता। कुल मिलाकर एेसे दिवसों के बहाने समाज के कहीं किसी खोह में चुप के से पैसे की दलाली चल रही होती है। नेहरू ने यही विरासत तो सौंपी है, जिसमें पैसे के इर्द-गिर्द आदमी का सारा जीवन सिमटकर रह गया है।

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  4. दिखावे मात्र से कुछ होने वाला नहीं है ... सतत प्रयास ... और फिर सबसे पहले खुद में बदलाव लाना होगा ... बाल दिवस या किसी दिवस की महत्ता तभी है बस ...

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