दो साल हो गये मुझे पुणे आये मगर अभी तक यहाँ कि (नाईट लाइफ) के विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। विदेशों में तो नाईट लाइफ का चलन बहुत सुना और देखा था। हालांकि मुंबई के विषय में आम लोगों की यही राय है कि यह शहर दिन में सोता और रात में जागता है। खैर मैं बात कर रही हूँ पुणे की, हांलांकि बात नवरात्र के दिनों में अष्टमी पूजन की है। यूँ तो उन दिनों (मध्य प्रदेश) के सभी शहरों में खासी रोनक हुआ करती है। फिर चाहे वह इंदौर,भोपाल या जबलपुर ही क्यूँ न हो। हालाँकि महाराष्ट्र में गणपति उत्सव का चलन ज्यादा है। इसलिए मुझे उम्मीद नहीं थी कि नवरात्र में यहाँ भी ऐसा ही माहौल देखने को मिल सकता है।
जैसा मुझे मिला जो आज भी एक सपना सा लगता है। आप खुद ही सोचिए अचानक डेढ़ बजे रात को जब कोई आप से यह कहे कि चलो आंटी की चाय पीकर आते है तो सुनने में थोड़ा अजीब लगता है न...! कि रात के डेढ़ बजे कोई आपको आपके घर से 11 किलोमीटर दूर चलकर केवल चाय पीने के लिए कहे। मगर वो कहते है न "शौक बड़ी चीज़ है" वाली बात है। तो बस एक दिन हमारे भाई साहब को भी याद आयी आंटी की चाय की, मैंने उस दिन से पहले कभी आंटी की चाय का नाम तक नहीं सुना था कि ऐसी भी कोई आंटी हो सकती है जिनकी चाय के लिए लोग घड़ी या समय का मुंह नहीं देखते मन में उत्सुकता भी हुई कि आखिर ऐसा क्या है उन आंटी की चाय में जो भाई इस वक़्त मुझे अपने साथ ले जाकर वो चाय पिलाना चाहता है। जबकि उसे मुझे साथ ले जाने के पीछे का कारण कुछ और ही था जिसे आप आगे पढ़ेंगे।
खैर हम चल दिये आधी रात को घर के सादे कपड़ों में अपने घर से 11 किलोमीटर दूर आंटी की चाय पीने। जब बहुत घूमने के बाद और आंटी के अड्डों या ठिकानो पर देखने के बाद भी जब वह वहाँ नहीं मिली तब हमने वहाँ अधेरे में भटक रहे बहुत से लड़कों से पूछा तो उनका जवाब भी यही आया कि हम भी उन्हें ही ढूंढ रहे हैं। तो चेहरे के भाव थोड़े बदले, मन विस्मय से भर गया कि ऐसा क्या हो सक्ता है महज़ एक चाय में कि लोग आधी रात को भटक-भटक कर भी केवल आंटी को ढूंढ रहे हैं। फिर आखिर तलाश खत्म हुई और भीड़ में छिपी आंटी को हमने ढूंढ ही लिया। लेकिन जब पास पहुँच पर गाड़ी से उतर कर देखा तो लगा यह क्या है। यह तो "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" के समान हो गया। ऐसे ही रोड पर बैठी स्टोव पर चाय बनाती एक महिला जिसके पास ना चाय बनाने का सामान ही ढंग का है, ना उसके कपड़े ही ढंग के हैं ना उसके पास अपना खुद का ही कोई ठिकाना है। देखकर दया भी आयी। किन्तु दूजे ही पल यह विचार भी आया कि उसकी चाय में ऐसा क्या है जो लोगों ने उसे इस कदर घेर रखा है मानो वो आंटी नहीं अमिताभ बच्चन हो।
फिर मैंने भी बड़ी मुश्किल से एक चाय ली, उसे पीकर भी देखा आप यकीन नहीं मानेगे चाय में कोई स्वाद ही नहीं था। दो पल के लिए समझ ही नहीं आया मुझे की जब यहाँ कुछ है ही नहीं तो लोग इतने पगला क्यूँ रहे हैं इस चाय के लिये ....! उस वक़्त तो मैं अपने विचार अपने अंदर ही लेकर लौट आयी पर मन बहुत दिनों तक सोचता ही रहा। फिर मैंने अपना यह अनुभव अपने एक और भाई के साथ साँझा किया तो पाया कि मुंबई में भी अम्मी की भुर्जी नामक एक ऐसी ही जगह है, जहाँ लोग अम्मी को ढूंढते हुए जाते है। ठीक वैसे ही जैसे यहाँ लोग आंटी को ढूंढते है।
वह स्टोव और चाय का सामान साथ लेकर घूमती है और किसी भी कोने में चाय बनाने के लिए बैठ जाती है। कई बार उन्हें पुलिस वाले भी बहुत परेशान करते है, यहाँ वहां भगाते हैं किन्तु उनकी चाय का जादू जनता के सर चढ़कर बोलता है जनता भी कौन ? बताइए बताइए कौन...अपने-अपने घरों से दूर आकर कॉलेज में पढ़ रहे विद्यार्थी या नयी-नयी नौकरी में आये २०-२२ साल के युवा जिन्हें चाय के साथ ही आंटी के पास धुम्रपान की सुविधा भी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। यह अलग बात है कि हर बन्दा एक सा नहीं होता, कुछ लोगों के अतिरिक्त बाकि सभी लोग तो केवल चाय के लिए ही आते हैं। परंतु ऐसे व्यापार को आप क्या नाम देंगे। इस व्यापार में तो कोई मुनाफा भी नहीं,ना ही कोई ठिकाना है। उनकी चाय के स्वाद में भी कोई दमदारी नहीं है। फिर भी सारे युवा आधी रात को भी सूनी अँधेरी गलियों में आंटी को ढूंढते हुए मिल जाते हैं।
जहाँ तक मैंने देखा, सोचा समझा या जाना। मुझे तो एक ही बात समझ में आयी कि आंटी की चाय से ज्यादा उनके व्यवहार में दम है। जो युवाओं को या उन विद्यार्थियों को होंसला दिलाता है कि वह अपने घर से दूर भले ही हैं लेकिन आंटी के रूप में उनका कोई अपना उनके पास है जो माँ की तरह डाँटा भी करता है और दुलार भी करता है। उन्हें एक अपनापन देता है,शायद यही एक वजह है कि आंटी की चाय के लिए सारा युवा समूह एक पैर पर तैयार रहता है और देर रात तक भी आंटी की चाय को ढूंढा करता है। उनकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहता है। जैसे कभी दूध खत्म हो गया या कभी चाय पत्ती या शक्कर कम पढ़ गयी या ऐसा कुछ भी जो यह युवा उनके लिए कर सकते हैं कर देते हैं। इससे पता चलता है कि आज भी घर के बच्चों के लिए घर की अहमियत क्या होती है। ज़माना चाहे कितना भी क्यूँ न बदल जाए किन्तु घर परिवार की अहमियत को नहीं बदल सकता और उसी कमी को पूरा करती है यह "आंटी की चाय".
खैर हम चल दिये आधी रात को घर के सादे कपड़ों में अपने घर से 11 किलोमीटर दूर आंटी की चाय पीने। जब बहुत घूमने के बाद और आंटी के अड्डों या ठिकानो पर देखने के बाद भी जब वह वहाँ नहीं मिली तब हमने वहाँ अधेरे में भटक रहे बहुत से लड़कों से पूछा तो उनका जवाब भी यही आया कि हम भी उन्हें ही ढूंढ रहे हैं। तो चेहरे के भाव थोड़े बदले, मन विस्मय से भर गया कि ऐसा क्या हो सक्ता है महज़ एक चाय में कि लोग आधी रात को भटक-भटक कर भी केवल आंटी को ढूंढ रहे हैं। फिर आखिर तलाश खत्म हुई और भीड़ में छिपी आंटी को हमने ढूंढ ही लिया। लेकिन जब पास पहुँच पर गाड़ी से उतर कर देखा तो लगा यह क्या है। यह तो "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" के समान हो गया। ऐसे ही रोड पर बैठी स्टोव पर चाय बनाती एक महिला जिसके पास ना चाय बनाने का सामान ही ढंग का है, ना उसके कपड़े ही ढंग के हैं ना उसके पास अपना खुद का ही कोई ठिकाना है। देखकर दया भी आयी। किन्तु दूजे ही पल यह विचार भी आया कि उसकी चाय में ऐसा क्या है जो लोगों ने उसे इस कदर घेर रखा है मानो वो आंटी नहीं अमिताभ बच्चन हो।
फिर मैंने भी बड़ी मुश्किल से एक चाय ली, उसे पीकर भी देखा आप यकीन नहीं मानेगे चाय में कोई स्वाद ही नहीं था। दो पल के लिए समझ ही नहीं आया मुझे की जब यहाँ कुछ है ही नहीं तो लोग इतने पगला क्यूँ रहे हैं इस चाय के लिये ....! उस वक़्त तो मैं अपने विचार अपने अंदर ही लेकर लौट आयी पर मन बहुत दिनों तक सोचता ही रहा। फिर मैंने अपना यह अनुभव अपने एक और भाई के साथ साँझा किया तो पाया कि मुंबई में भी अम्मी की भुर्जी नामक एक ऐसी ही जगह है, जहाँ लोग अम्मी को ढूंढते हुए जाते है। ठीक वैसे ही जैसे यहाँ लोग आंटी को ढूंढते है।
वह स्टोव और चाय का सामान साथ लेकर घूमती है और किसी भी कोने में चाय बनाने के लिए बैठ जाती है। कई बार उन्हें पुलिस वाले भी बहुत परेशान करते है, यहाँ वहां भगाते हैं किन्तु उनकी चाय का जादू जनता के सर चढ़कर बोलता है जनता भी कौन ? बताइए बताइए कौन...अपने-अपने घरों से दूर आकर कॉलेज में पढ़ रहे विद्यार्थी या नयी-नयी नौकरी में आये २०-२२ साल के युवा जिन्हें चाय के साथ ही आंटी के पास धुम्रपान की सुविधा भी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। यह अलग बात है कि हर बन्दा एक सा नहीं होता, कुछ लोगों के अतिरिक्त बाकि सभी लोग तो केवल चाय के लिए ही आते हैं। परंतु ऐसे व्यापार को आप क्या नाम देंगे। इस व्यापार में तो कोई मुनाफा भी नहीं,ना ही कोई ठिकाना है। उनकी चाय के स्वाद में भी कोई दमदारी नहीं है। फिर भी सारे युवा आधी रात को भी सूनी अँधेरी गलियों में आंटी को ढूंढते हुए मिल जाते हैं।
जहाँ तक मैंने देखा, सोचा समझा या जाना। मुझे तो एक ही बात समझ में आयी कि आंटी की चाय से ज्यादा उनके व्यवहार में दम है। जो युवाओं को या उन विद्यार्थियों को होंसला दिलाता है कि वह अपने घर से दूर भले ही हैं लेकिन आंटी के रूप में उनका कोई अपना उनके पास है जो माँ की तरह डाँटा भी करता है और दुलार भी करता है। उन्हें एक अपनापन देता है,शायद यही एक वजह है कि आंटी की चाय के लिए सारा युवा समूह एक पैर पर तैयार रहता है और देर रात तक भी आंटी की चाय को ढूंढा करता है। उनकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहता है। जैसे कभी दूध खत्म हो गया या कभी चाय पत्ती या शक्कर कम पढ़ गयी या ऐसा कुछ भी जो यह युवा उनके लिए कर सकते हैं कर देते हैं। इससे पता चलता है कि आज भी घर के बच्चों के लिए घर की अहमियत क्या होती है। ज़माना चाहे कितना भी क्यूँ न बदल जाए किन्तु घर परिवार की अहमियत को नहीं बदल सकता और उसी कमी को पूरा करती है यह "आंटी की चाय".
हमारे कॉलेज में मौसी की चाय फेमस थी ...... :)
ReplyDeleteघर में रहते हुए अपने लोगों की अहमियत क्या होती है, ये दूर रहने पर अहसास होता है. हर इंसान को आत्मीय सुकून चाहिए. मुझे याद है कि जब मैं दार्जीलिंग में रहता था तो कई बार घर से दूरी अखर जाती थी. चाय वाली बात हमारे साथ भी हुई है. अक्सर मैं अपने फोटोग्राफर के साथ एक ऐसी जगह पर जाता था, जहाँ एक प्यारी सी बच्ची चाय बनाकर हमलोगों को पिलाती थी. उस बच्ची में मुझे अपनी बेटी का चेहरा दिखता था.
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जमशेद जी टाटा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबढ़िया।
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteSunder lekh...
ReplyDeleteMere blog ki new post par aapka swagat hai.
Nice post keep posting......................and keep visting on.......https://kahanikikitab.blogspot.in
ReplyDeleteघर परिवार की कीमत घर से बाहर रह कर ही होती है...बहुत सुन्दर आलेख
ReplyDeleteHeart touch
ReplyDeletebhut Sundar dil ko chu GUI
ReplyDeleteOsm post
ReplyDeleteकाफी रोचक दिलचस्प लेखन है पल्लवी जी ...मुझे भी मार्गदर्शित करें ! पेशे से एक banker हूँ ! नाम प्रकाश पासवान हैं ! एक छोटा सा ब्लॉग लिख रहा हूँ ! Google पर आप यदि hindisanchi.blogspot.in या फिर prakashp6692.Blogspot.in टाइप करें तो मेरी कुछ ग़ज़ल ..कविता..और एक आधे लेख से रूबरू हो सकेंगे ! यदि मेरे लेखन में कुछ सुधार हो सकता है तो कृपया ...मार्गदर्शन करें ...आपका सुभेछु ...प्रकाश.
ReplyDeletePrakashp6692@gmail.com.