Wednesday 29 March 2017

दिवेआगर (एक छोटी सी यात्रा) यात्रा वृतांत


जीवन में न जाने कितने अनुभव होते हैं ना, छोटे बड़े, अच्छे बुरे यहाँ तक कि हर पल एक अनुभव देकर जाता है भले ही वह क्षणिक ही क्यूँ न हो। ऐसे ही कुछ अनुभव मुझे भी हुए जब मैंने पुणे से दिवेआगर तक का सफर कार से तय किया। कार का नाम इसलिए लिया क्यूंकि जब आप अपनी कार से किसी यात्रा पर निकलते हो तो आपके पास जब मन चाहे जहाँ जी चाहे वहाँ रुकने की सुविधा बहुत होती है जो बसों और ट्रेन में संभव नहीं हो पाता।
खैर में बात कर रही थी यात्रा के दौरान होने वाले अपने अनुभवों की जिसने मुझे फिर एक बार यह एहसास दिला दिया कि लाख बुराइयों के बाद भी जीवन सुंदर है। हमने तय किया था कि जानलेवा गर्मी के चलते हम यह यात्रा सुबह सवेरे शुरू करेंगे। लेकिन फिर भी हम ऐसा कर न सके और हमें निकलते-निकलते सुबह का 9 बज ही गया। ज़ाहिर सी बात है कि गर्मी ने अपना रंग दिखाना शुरू कर ही दिया था। तो मैं जो सोच रही थी कि जल्दी निकलेंगे तो गाड़ी के काँच खोलकर सुबह की ठंडी ताजी हवा लेने का आनंद ही कुछ और होगा, वैसा कुछ तो हो ना सका। गनीमत है गाड़ी में (ए सी) होता है वरना धूल और गर्मी की गरम हवा ने जाने हमारा क्या हाल किया होता।
कुछ दूर चलने के बाद जब दोपहर की तपती धूप और गरम हवाएँ अपनी चरम सीमा पर आकर अपना कहर बरसा रही थी। तब मुझे दिख रहा था वह रास्ता जो किसी असहाय प्राणी की तरह हर आते जाते यात्री का मुंह ताक रहा हो, कि कोई तो रुककर उसके मन की व्यथा सुन ले। वहाँ के कण-कण में न जाने क्यूँ मुझे एक अजीब सा दर्द महसूस हो रहा था। ऐसा लग रहा था मानो कोई भयंकर रूप से घायल है और सहायता के लिए आते जाते लोगों से विनती कर रहा है कि उसे बहुत तकलीफ है कोई तो उसकी मदद कर दे तो उसे भी थोड़ा चैन मिल जाये। किन्तु कोई भी यात्री उस समय रुककर उसकी व्यथा सुनने समझने को तैयार नहीं था।
मैंने देखा तपती दुपहरी में सूनी लंबी घुमादार सड़कों पर जब जर्द पीले सूखे पत्तों वाले पेड़ों के जंगल नुमा रास्तों पर जब भूले बिसरे गीतों की तरह कहीं-कहीं जरा मरा सी हरियाली की झलक दिखाई दे जाती तो ऐसा लगता किसी ने दर्द में भी हल्का सा मुस्कुरा दिया हो जैसे फिर आगे दूर..... कहीं किसी पगडंडी नुमा छोटे से रास्ते पर गुलाबी नारंगी और सफ़ेद रंग के बोगन बेलिया के पौधे गहन दुख और पीड़ा में भी सुख के होने का आभास देते से प्रतीत हो रहे थे। ज़िंदगी कठिनाई भरा सफर है तो क्या हुआ खुशिया कम ही सही किन्तु अब भी हैं ऐसी उम्मीद बंधा रहे थे। उस पर इक्का दुक्का टेसू के फूलों का सुर्ख लाल रंग रास्ते को जैसे एक ऊर्जा सी प्रदान कर रहा था। मुझे तो ऐसे रास्तों पर ही ज़िंदगी के होने का आभास होता है, सच प्रकृति के बीच से गुजरना या उसके मौन को समझने से बड़ा और कोई सुख नहीं क्यूंकी यदि आप सुनना चाहो समझना चाहो तो प्रकृति का कण कण बोलता है, मचलता है महकता भी है।
लेकिन फिर जैसे अचानक दृश्य बदल जाता है। प्रकृति की यही सुंदरता भयवाह दिखाई देने लगती है जब हरियाली से वंचित ऊंचे-ऊंचे पहाड़ अपनी जड़ों से फूटी हुई बड़ी-बड़ी चट्टानों को दिखाते हैं तो ऐसा लगता है मानो किसी इंसान का चेहरा वीभत्स हो-होकर रातों को ही नहीं बल्कि दिन के उजाले में भी लोगों को डराना चाहता है। मुझसे तो यह दृश्य कुछ ऐसा लगा मानो इसके जारिए पहाड़ भी अपनी पीड़ा हम तक पहुंचाना चाहते हैं कि हे मानव अब तो हम पर दया करो जंगल काटना और इन बेजान कंक्रीटों के जंगल को बनाने के लिए धरती का पानी चूसना बंद करो क्यूंकि हमें भी तुम्हारी ही तरह गर्मी लगती है। तुम्हारी ही तरह हमें भी तेज गर्मी से उतनी ही पीड़ा होती है जितनी तुम्हें होती है सोचो तो ज़रा यदि तुम्हारे बाल काट कर तुम्हें ऐसी ही तेज़ धूप में बांध दिया जाये तो तुम्हारा क्या हाल होगा, वैसा ही आज हमारा है। जबकि हमने सिर्फ दिया ही दिया है लिया तो कुछ भी नहीं फिर किस अधिकार से और किस बात की सजा दे रहे हो तुम हमें, ऐसा सब सोचकर ही मेरी तो हिम्मत ही नहीं उन भयावाह दिखने वाले पहाड़ों से नज़रें मिलाने की, यही सब देखते समझते हुए शाम तक हम पहुँच गए अपनी मंजिल पर अर्थात दिवेआगर और फिर शाम की चाय पीकर चले समुद्र के किनारे उस मनमोहक सुंदरता का आनंद लेने के लिए और तभी यह एहसास हुआ कि चाहे कुछ भी हो माँ तो माँ ही होती है।
इतनी पीड़ा सहकर भी प्रकृति अपना ममतत्व नहीं खोती, शाम होते ही सूरज जैसे एक स्कूल के हैडमास्टर की तरह स्कूल की छुट्टी कर देते हैं। घर लौट रहे परिंदे उन्ही स्कूल के बच्चों की तरह शोर मचाते अपने अपने घरोंदों में लौटने लगते हैं, और हैडमास्टर जी सभी बच्चों के घर लौट जाने तक धीरे-धीरे अपने घर को चलने लगते है। मौसम की रंगत कुछ यूं बदलती है कि पहले साँझ पीली फिर किसी गोरी के शर्म से लाल हुए गालों की तरह लाल फिर गुलाबी होती चली जाती है कि समुद्र के पानी का नीला और सफ़ेद रंग भी उस लालिमा को अपने अंदर घोल लेना चाहता है। उस समय सूर्य के ठीक नीचे से पानी की ऊँची–ऊँची उठती लहरें भी ऐसी प्रतीत होती हैं मानो जैसे कोई प्रियतम अपनी प्रियतमा के सुर्ख गुलाबी होटों और गालों को चूम लेना चाहता हो कि जैसे आज के बाद फिर कभी नहीं मिलेगी उसे वो मन मोहिनी कि उसके इस सौंदर्य को वह अपनी रूह में बसा लेना चाहता है।

लेकिन ज़िंदगी इतनी सुंदर भी कहाँ रहती है हर वक़्त समय का पहिया घूमता है और काली रात किसी काल की तरह आकर सारे मनोरम दृश्य को कुछ इस तरह आकर धर दबोचती है जैसे कोई शेरनी अपने शिकार को दबोच लेती है। और फिर रात भर लहरों के रूप में दहाड़ती रहती है। जैसे अपने शिकार के बाद जैसे रात भर जागकर अपने स्थान की सुरक्षा करती है कि रात के अंधेरे में मानव नामक जानवर उसके आस पास भी ना फटक सके और यकीन मानिए कि उस रात के अंधेरे में वहाँ इंसान तो छोड़िए झींगुरों तक का स्वर सुनाई नहीं देता लेकिन गुजरते वक़्त के साथ–साथ जैसे जैसे सुबह होती है सब शांत हो जाता है और हैड मास्टर जी के आते ही लहरें स्कूल के कर्मचारियों की भांति अपने –अपने काम में लग जाती हैं। स्कूल के बच्चे शाम की तरह ही सुबह भी शोर मचाते नाचते गाते अपनी अपनी मंजिल की ओर चले जाते हैं। सचमुच यह सारे दृश्य ही जीवन के होने बल्कि सुंदर होने का आभास कराते हैं।

12 comments:

  1. प्रकृति से एकात्मकता का अनुभव कराने वाली भावपूर्ण रचना..बहुत बहुत बधाई इस यात्रा पर हमें भी साथ ले जाने के लिए..

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  2. @ आप अपनी कार से किसी यात्रा पर निकलते हो तो आपके पास जब मन चाहे जहाँ जी चाहे वहाँ रुकने की सुविधा बहुत होती है जो बसों और ट्रेन में संभव नहीं हो पाता। बिलकुल सही कहा , कभी कभी तो दूसरे रास्तो पर भी निकल जाते है , यदि किसी ने कह दिया कि पास में कोई ख़ास चीज है । बहुत सालो बाद ब्लॉग पर आई :) आप फेसबुक पर भी है ।

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  3. सुन्दर वृतांत

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  4. सुन्दर वृतांत

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  5. सुंदर भावपूर्ण यात्रा अनुभव साँझा किया है पल्लवी जी।
    मेरे ब्लॉग का लिंक है : http://rakeshkirachanay.blogspot.in/

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  6. पहले कभी आंटी की चाय ... आज लौटा तो दिवेआगर ... आपके शब्दों में जादू है. दो तीन बार पढ़ा. ऐसा, प्रकृति को समझने के लिए एक अन्तरदृष्टि की आवश्यकता है, सभी नहीं लिख पाते है, भले ही उस सड़क से अनेक गुजरे, अनुभव भी नहीं कर पाते होंगे. साधुवाद.

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    सादर

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  10. प्रकृति का सान्निध्य ही जिंदगी है .

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