जिस अखंड भारत का सपना कभी हमारे पूर्वजों ने देखा था आज वही भारत अपनी अपनी निजी समस्याओं को लेकर खंड-खंड में विभाजित होता दिखाई देता है। कहते है भारत एक प्रगतिशील देश है जिसे विकसित बनाने की निरंतर प्रक्रिया में हर क्षेत्र में विकास होना अनिवार्य है। लेकिन क्या वास्तव में विकास हो रहा है। कदाचित नहीं परंतु हाँ कागज पर तो हर क्षेत्र में विकास अवश्य हुआ है। फिर चाहे मामला रोटी कपड़ा और मकान का ही क्यूँ न हो। सरकारी दस्तावेज़ों की माने तो विकास अवश्य हुआ है। लेकिन यदि प्रामाणिक तौर पर देखा जाये तो यह विकास कहीं कहीं किसी-किसी क्षेत्र में ही देखने को मिलता है। किन्तु हाँ उस विकास का मापदण्ड हर एक व्यक्ति के दृष्टिकोण से अलग अलग प्रतिशत में कितना होगा यह कहना मुश्किल है। कहते हैं इंसान को अपने जीवनयापन हेतु तीन महत्वपूर्ण चीजों की जरूरतें होती हैं जैसे रोटी कपड़ा और मकान किन्तु मेरा मानना है कि तीन चीजों के बावजूद इंसान को इंसान बने रहने के लिए दो और महत्वपूर्ण चीजों कि आवशयकता है जिस से वह इंसान कहला सकता है और वह दो चीजें हैं चिकित्सा और शिक्षा सही समय पर चिकत्सा प्राप्त होना एक जीव के जीवित रहने के लिए जितना आवश्यक होता है उतना ही मानव जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए शिक्षा भी जरूरी है।
किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि वर्तमान में शिक्षा प्रणाली द्वारा दी जाने वाली शिक्षा अपने आप में पूर्णतः सही नहीं है। क्यूंकि आज कि शिक्षा बच्चों को एक अच्छा इंसान बनाने के बजाए पैसा कमाने कि मशीन कैसे बना जाये यह ज्यादा सिखा रही है। माना कि पैसा भी जीने के लिए अत्यंत जरूरी है। लेकिन पैसे के इतर भी कई ऐसी चीजें हैं जिनके बिना मानव जीवन अधूरा ही कहलाएगा। एक सफल जीवन तभी संभव है जब एक इंसान पैसा कमाने के साथ-साथ बेहतर इंसान कहलाने लायक भी बने। जिसमें मानवता जिंदा हो, एक दूसरे के प्रति लगाव हो, प्रेम हो सहानभूति जैसे शब्द भी उसके शब्दकोश में आते हों। पर अफसोस कि आज ऐसा नहीं है। आज की पीढ़ी से आप पैसा कैसे कमाया जाये, व्यापार कैसे आगे बढ़ाया जाये जैसे सवाल पूछकर देख लीजिये आपको ऐसे ऐसे समाधान मिलेंगे कि आपको अपने बच्चे पर गर्व महसूस होगा। लेकिन यदि आप बात आदर, सम्मान, संस्कार, शिष्टाचार कि करने लगे तो आज कि पीढ़ी बगुले झाँकती नज़र आएगी और आपको एक पुराने ख़यालों वाला दक़ियानूसी रूढ़िवादी परंपरा को मनाने वाला व्यक्ति घोषित कर दिया जाएगा। इतना ही नहीं धीर-धीरे आपसे दूरी बना ली जाएगी। परंतु इस सबका जिम्मेदार हम केवल उन्हीं को नहीं ठहरा सकते क्यूंकि इस सब में कहीं ना कहीं दोषी अभिभावक ही होते है। जो संतान मोह में सही समय पर अपनी संतान को समय रहते सही दिशा नही दिखा पाते।
खैर सब समय का फेर है, बदलाव ही जीवन है। इंसान को हमेशा समय के साथ चलना चाहिए। ऊसी में समझदारी है। वरना समय किसी के लिए नहीं रुकता। शिक्षा कैसी भी हो जरूरी होती ही है। जब समाज शिक्षित होगा तभी बदलाव आएगा । लेकिन आज जैसा बदलाव देखने को मिल रहा है अर्थात जिस तरह से अपराधों और उनसे जुड़े अपराधियों कि दरों में जिस तीव्र गति से हिजफा हो रहा है उसे देखकर तो यूं लगता है अपराध करने वालों ने कभी विद्यालयों का मुख देखा ही नहीं होगा। तभी तो आज इंसान हैवान बन गया है। यह कैसी प्रगति है और कैसा विकास है ? न किसी को किसी कि हत्या करते डर लगता है। न किसी को किसी मासूम पर बालात्कार को अंजाम देते किसी का कलेजा काँपता है। न किसी कि आँखों में शर्म ही दिखाई देती है। सब के सब बस बेशर्मी से कुकृत्यों को अंजाम देते ही दिखाई देते हैं। क्या विद्यालयों में आज अच्छे बुरे कामों कि पहचान नहीं सिखायी जाती। या फिर आज पेट कि भूख से ज्यादा शरीर कि भूख बढ़ गयी है। बच्चों को हम विद्यालय क्यूँ भेजते हैं इसलिए न ताकि वह वहाँ से अच्छी शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छे इंसान बन सकें। तो क्या सभी अपराधी कभी स्कूल गए ही नहीं या फिर उन्होने वहाँ से कुछ सीखा ही नहीं आखिर आभाव किस चीज़ का है मेरी तो समझ में ही नहीं आता जो आमतौर पर अपराध दर इस कदर बढ़ गयी है और हम बात करते हैं विकास की प्रगति की माना के हम चाँद को छोड़कर अब मंगल तक जा पहुंचे हैं। कैसे ? शिक्षा कि ही बदौलत इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन उनका क्या जो आज भी चाँद में रोटी को देखते हैं।
विकास के नाम पर तो हम आज भी पुराने ढर्रे पर चलते हुए ऊँच नीच छोटे बड़े के भेद भाव से उबर नहीं पाये हैं और बात करते हैं बदलाव की, कि "सबका साथ सबका विकास", पर क्या वास्तव में सब साथ है शायद नहीं अभी कुछ ही दिनों पहले की ही घटना है मध्यप्रदेश के किसी एक गाँव में एक दलित परिवार ने अपनी बेटी की शादी धूमधाम से कर दी। तो ऊंचे लोगों को उसमें ही समस्या हो गई किउस वर्ग ने उन लोगों कि बराबरी करने कि हिम्मत कैसे की तो उन्होने उन गरीबों के कुए में मिट्टी का तेल मिला दिया। बिना कुछ सोचे,समझे,जाने कि इसके बाद उन गरीबों का क्या होगा, उन्हें पीने का पानी कहाँ से प्राप्त होगा। भीषण गर्मी के चलते,उनके मासूम बच्चों का क्या होगा,उनके घरों कि महिलाओं को पीने का पानी लाने के लिए कितनी दूर तक पैदल चलकर जाना होगा। इस सब से किसी को कोई सरोकार नहीं है। बस बदला लेना था सो ले लिया गया। उधर चेन्नई में भी जल संकट लोगों का जीना हराम किए हुए है। मानव से लेकर जानवर तक हर कोई आज इस धरती पर जल संकट का सामना कर रहा है। लेकिन इंसान एक ऐसा जानवर है जिसे यह समझ ही नही आता है कि जहां एक और लोग पानी के संकट से जूझ रहे हैं। पानी ना मिलने के कारण मर रहे हैं। वहाँ ऐसे में कुए में तेल मिला देने से बड़ा पाप और क्या होगा। पर नही पाप पुण्य का अब मोल कहाँ !
न जाने अभी और कितना समय लगेगा एक इंसान को मात्र यह समझने में कि एक दूजे के साथ के बिना सब कुछ अधूरा है। आज जब आप किसी कि सहायता करोगे तब कल कोई आपकी सहायता के लिए आगे आयेगा। मेरा सवाल है उन वर्ग भेद वालों से कि कल को जब घर के निजी कामों को पूर्ण करने के लिए आपको किसी कि जरूरत पड़ती है, तभी आप सबको इस वर्ग कि याद क्यूँ आती है। यह आप भी जानते हैं कि उन लोगों कि सहायता के बिना आपका काम नहीं चल सकता। तो क्यूँ आप इन लोगों को सताते हो। आपको भी इनकी उतनी ही जरूरत है जितनी उन्हें आपकी जरूरत है। क्यूंकि जाब आप उन्हें काम देते हो तभी उनका परिवार पलता है। अब गुजरात कि घटना ही लेलों किसी होटल का सीवर साफ करने वाले चार लोगों की दम घुटने से मौत हो गयी थी। तब कहाँ थे यह उच्च वर्ग वाले यह वर्ग भेद रखने वाले, इतनी ही छूत पाक और ऊँचे नीच का ख्याल हैं उन्हें तो स्वयं ही क्यूँ ना साफ कर ली उन्होंने अपनी गंदगी।यह सब कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आपको उनकी और उन्हें आपकी जरूरत है। तभी काम बनेगा और तभी सही मायने में सार्थक होगा यह जुमला कि सबका साथ सबका विकास और तभी पूर्ण होगी यह प्रगति यह विकास
अन्यथा सब व्यर्थ ही है। अब यदि बात की जाए चिकित्सा के क्षेत्र की तो आज भले ही हम ने पोलियो पर विजय प्राप्त कर भारत को पोलियो मुक्त देश घोषित कर दिया हो। लेकिन आज जब की बिहार में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों की मौत की संख्या 100 अधिक हो चुकी है और प्रशासन है कि चुप्पी साधे बैठा है और कठग्रह में खड़ाकर दिया है बेचारी लीची को तब से ना सिर्फ बिहार में बल्कि हर राज्य और हर शहर में लीची को संदिग्ध नज़र से देखा जा रहा है। जब कि सही मायनों में अभाव है सही चिकित्सा पद्धति का जिसके चलते आपातकालीन परिस्तिथि से निपटने के लिए अस्पतालों में पर्याप्त व्यवस्था ही नही है। उसी का परिणाम है जो आज इतने बच्चे महज एक बुखार से पीड़ित हो मौत की नींद सो गए। भले ही स्वस्थ संस्थाओं ने इस बीमारी को ला इलाज घोषित कर दिया हो, क्योंकि इसका अब तक कोई टीका नही बन पाया है। लेकिन यदि चिकित्सालयों में व्यवस्था पर्याप्त हो तो मुझे लगता है ऐसे संकट के समय समस्या का सामना करने में आसानी हो जाती है। अब यह चिकित्सा के क्षेत्र में कैसी प्रगति है कैसा विकास है। हद तो तब हो गयी जब कोलकाता में चिकत्सकों को मारा पीट दिया गया। वह भी एक प्रकार का बदला ही था। सोचिए ज़रा यदि चिकत्सक ही ना हो तब क्या होगा। दूसरे पर दोषारोपण करना बहुत आसान होता है। लेकिन ऐसा ना हो और सभी संस्थाए ठीक से अपना अपना काम करें कि जिम्मेदार किस कि होती है। सरकार एवं प्रशासन कि ना ? लेकिन यदि वही इन चीजों को बढ़ावा देंगे, तो गरीब जनता का क्या होगा। यह सोचने वाली बात है।
यह सब मेरी समझ से तो परे है। जानती हूँ कुछ भी कार्य यूँ हीं नही हो जाता समय लगता है कोई जादू की छड़ी घुमाने जितना आसान नही है सब कुछ लेकिन फिर विचार तो आता है।आज हम सभी को हर एक क्षेत्र में एक दूसरे के सहयोग कि बेहद जरूरत है और जब हम मेरा तेरा भूल कर बदला लेने कि नियति भूलकर एक दूसरे के लिए कार्य करेंगे। तभी होगी सही मायनों में देश कि प्रगति और तभी होगा सही मायनों में देश का विकास।
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २४५० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...
ReplyDeleteरहा गर्दिशों में हरदम: २४५० वीं ब्लॉग बुलेटिन " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
हमेशा की तरह विषयों की विविधता को समेटे हुए उत्कृष्ट सोच वाला आलेख.
ReplyDeleteगहन चिंतन
ReplyDeleteबहुत बढ़ियाँ
अच्छी सोच के साथ,उम्दा लेख👌👌बधाई💐💐
ReplyDeleteHappy Valentines Day Gift
ReplyDeleteHappy Valentines Gift Ideas Online
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