Tuesday, 26 November 2019

लव यू ज़िन्दगी~


ज़िन्दगी से प्यार किसे नही होता,लेकिन हमने ही नजाने क्यों ज़िन्दगी से यह कहना छोड़ दिया कि लव यू ज़िन्दगी। कहना इसलिये हमारी आपकी हम सभी की जिंदगी हम से रूठती चली गयी और हमें पता भी ना चला। तभी तो हम उसकी बोरियत से बचने के लिये मोबाइल नामक खिलौने से खेलना सीख गए। वरना मोबाइल नही थे, ज़िन्दगी तो तब भी थी हैना ? और तब शायद ज्यादा अच्छी थी। क्यूंकि तब शायद हमारा व्यवहार, हमारा आचरण, ही यह बता दिया करता था कि हमें अपनी ज़िंदगी से कितना प्यार है।

किन्तु अब ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह वाक्य "लव यू ज़िन्दगी" न सिर्फ हमारे जीवन से बल्कि आज की युवा पीढ़ी के शब्द कोष से ही समाप्त होगया है। अब लोगों को जिंदगी से प्यार तभी महसूस होता है, जब वो बीमार होते हैं। अन्यथा जरा-जरा सी बात पर आत्महत्या कर लेना तो जैसे आम बात हो चुकी है। अभी कुछ दिनों पहले कि ही घटना है। एक आठवी कक्षा के छात्र ने सिर्फ मोनिटर न बन पाने के कारण आत्महत्या करली। अब बताइये यह भी कोई बात हुई भला। आज की तारीख में अपने बच्चों को जीवन से प्यार करना सिखाना उतना ही आवश्यक है जितना कि सांस लेना। कहने को यह बात बहुत ही साधारण प्रतीत होती है। लेकिन वास्तव में यह अति संवेदनशील विषय है। जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। इसे हम हल्के में नही ले सकते।

अब मोबाइल पर बच्चों द्वारा खेले जाने वाले खेलों को ही लेलो। अधिक तर ऐसे खेल मिलेंगे जिसमें हार जाने पर बदला लेने की प्रेरणा मिलती हो। इतना ही नही खेल के मध्य आने वाले विज्ञापनों में भी ऐसे ही खेलों का प्रचार प्रसार मिलता है।इसलिए कई खेलों पर पाबंदी भी लगायी जा चुकी है। मुझे नही पता दिखाए जाने वाले वीडियो में कितनी सच्चाई होती है। किंतु यदि उस विषय को एक पल के लिए भी सच मान लिया जाए तो परिणाम बहुत भयावा हो सकते हैं। अब वीडियो की बात निकली है तो, मैंने एक वीडियो देखा था जिसमें एक बच्चा अपने हाथ में टेब लिए लड़खड़ा कर चल रहा है क्योंकि उसके दिमाग पर खेलों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह आभासी और सच्ची दुनिया में फर्क करना ही भूल गया। असल में यह खेल होते ही ऐसे हैं, जिन्हें खेलते खेलते बच्चा खुद अपने आप को उस खेल की दुनिया से इस कदर जोड़ लेता है कि उसका दिमाग उसके वश में नही रह जाता और तब उसके माता-पिता उस दिन, उस घड़ी को कोसने लगते हैं जब उन्होंने खुद, अपने बच्चे के हाथ में मोबाइल दिया था। पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

ऐसा नही है कि हमने वीडियो गेम नही खेला, खेला है खूब खेल है। अपने जमाने में भी तो बहुत से सुपर हीरो हुआ करते है जैसे बेटमैन,सुपरमैन,ही मैन, शक्तिमान, इत्यादि। तब भी तो शक्तिमान की नकल करने के चक्कर में बहुत से बच्चों ने अपनी जान गवाई थी। क्योंकि हर बच्चे को यही लगता है कि उसका हीरो दुनिया बचाने के लिए जो कुछ कर रहा है वही सही है और यह सब इसलिए क्योंकि बाल मन तो आज भी वैसा ही है जैसा तब था। परन्तु तब शायद इस तरह की चीजें देखने का समय कम था या यूं कहिये निश्चित था इसलिए नुकसान ज्यादा नही हुआ जितना आज के समय में हो रहा है।कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है।

हो सकता है मैं गलत हूँ। फिर भी चिंता तो होती ही है। यह तो बस सोच है अपनी-अपनी फिर भी मैं यह कहना चाहूंगी कि अपना बच्चा क्या देख रहा है, या क्या खेल रहा है, उसकी पूरी जानकारी रखें साथ ही मोबाइल पर उसकी उपस्तिथि नियंत्रित रखें। एक समय सीमा तय करें और उतनी ही देर के लिए उसे मोबाइल दें। इस सब के साथ-साथ हो सके तो उसे बाहर खेलने के लिए उत्साहित करें। उससे अहसास कराएं की जीवन से प्यार करना कितना जरूरी है। क्योंकि यहां बात केवल किसी एक बच्चे की नही बल्कि सभी बच्चों की हो रही है। बच्चे ,बच्चे होते हैं आपके मेरे, या इसके उसके नही होते। मगर अफसोस कि आज की पीढ़ी इस मोबाइल नामक खतरनाक बीमारी से बुरी तरह ग्रसित है। इस का एक मात्र यही उपचार है कि हम उन्हें जितना हो सके बाहर खेलने जाने के लिए प्रोत्साहित करें फिर चाहे हमे स्वयं ही उनके साथ क्यों ना जाना पड़े। मन भरकर उसके साथ खेलें और खुशी से कहें लव यू ज़िन्दगी।

डरा देने वाली घटनाएँ तो और भी है। जैसे आज की युवा पीढ़ी दिन प्रति दिन व्यवहारिक ना होकर अंतर्मुखी होती जा रही है क्यों? क्योंकि वह अपनी दुनिया में अकेले रहना चाहती है और उनकी दुनिया कोई और नही। बल्कि यही मुआ मोबाइल ही है, जिसमें वह दिन रात व्यस्त रहा करते हैं और यदि उन्हें कोई रोके या टोके तो वह व्यक्ति उन्हें ज़रा भी पसंद नही आता, उल्टा वह व्यक्ति ही उनका सब से बड़ा दुश्मन बन जाता है। यह तो युवकों की बात थी। वरना आज कल तो नंन्हे नंन्हे बच्चे भी किसी के घर जाकर शांत अर्थात तमीज से बैठने के लिए भी मोबाइल देने की शर्त रखते है कि जब उन्हें मोबाइल मिलेगा तभी वह शांति से बैठेंगे वरना सबकी नाक में दम कर देगे।

इस जहर से अब कोई अछूता नही क्या गांव और क्या शहर ।अभी कुछ दिनों पहले करीब महीना भर पहले की घटना होगी तीन दोस्त खेलने गाँव के एक आम के बाग में गए। एक ने आम तोड़े, दूजे ने बटोरे। अब बटोरने वाला बच्चा केवल 5 साल का था, उसने बटोरते बटोरते कुछ एक आम खा लिए। सोचने वाली बात यह है कि आम तोड़ने वाला बच्चा कितना बड़ा होगा और बटोरने वाला तो पहले ही बहुत छोटा था। कितने आम खा पाया होगा कि तोड़ने वाले बच्चे को उस पर इतना गुस्सा आया कि उस बच्चे ने आम खाने वाले बच्चे की पेंचकस से आंखे फोड़ दी। सर पर वार किए और जब खून बहता देखकर हाथ पाओं फूल गए तब उसे उठा कर पास वाले तालाब में फेंक दिया। घर आने पर जब उस बच्चे के दादा जी ने उसके विषय में पूछा तो कह दिया कि उसे बच्चा चुराने वाले लोग उठाकर ले गए। फिर जब बच्चे की खोज शुरू हुई तब उस बच्चे की लाश पास वाले तलाब में तैरती मिली।

अब इस घटना के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराएंगे आप ? बच्चों ने ऐसा क्या और कहां देखा होगा कि इस कदर आपराधिक दिमाग चला उनका। मेरे लिए तो हैरान कर देने वाली बात यह थी कि जरा-जरा से बच्चों के मन में अपने ही दोस्त के प्रति ऐसी भावना जाग्रत हो गयी तो युवकों के मन में जाने क्या आता होगा।

मेरी मानिये तो अब भी देर नही हुई है दोस्तों अपने बच्चों का बचपन बचा लीजिये। उन्हें इस खतरनाक गेजीट से जितना संभव हो दूर रखें और मंत्र दें 'लव यू ज़िन्दगी' जीवन से प्यार करो खुल कर जियो घर में बैठकर समय बरबाद करने से अच्छा बाहर निकलकर खेलो कूदो मस्ती करो।

6 comments:

  1. आपकी स्वभाविक और प्रवाहमयी शैली में लिखा गया यह ब्लॉग समाज की वर्तमान कहानी के ऐसे सिरे को उँगली पर याद की तरह लपेटे है जो उंगली को काटता है. समाज की ऐसी समस्याओं का समाधान सामूहिक जागृति के रूप में हो सकता है लेकिन सबसे पहले व्यक्तियों को ही जागरूक हो कर अपने-अपने समाधानों के साथ प्रयोग करने पड़ते हैं. उसके बाद ही वो सामूहिक चेतना के रूप में दिखते हैं. ऐसी समस्या पर लिखने का आपका प्रयास स्तुत्य है.

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  2. आपने मेरी बात को समझा आपका सादर धन्यवाद अंकल।

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