Saturday, 11 December 2010

Surat Visit (its happens only in India)...

यूँ तो यह बात बहुत पुरानी है जब हम मनीष की नौकरी के सिलसिले में सूरत गये थे, तब हालात कुछ ऐसे थे कि मनीष ने अर्थात मेरे पतिदेव ने साइबर-कैफे के प्रोजेक्ट के लिए काम करने को राज़ी थे. वहां हम करीब पंद्रह दिन के लिए रुके थे कम्पनी वालों ने रहने के लिए होटल दिया था. मुझे इस ट्रिप में काफी हद तक गुजराती संस्क्रती को करीब से जानने का मौका मिला था, इसके पहले मैं गुजरात में कहीं और नहीं गयी थी और जितना जो कुछ जाना था वो टीवी के माध्यम से ही जाना था. मुझे तो वह शहर इतना पसंद आ गया था कि मैंने तो वहीँ रहने का मन भी बना लिया था, मगर मन का सोचा हमेशा सच ही हो जाये ऐसा बहुत कम ही होता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था और क्या हुआ था यह मैं अभी आप को आगे बताती हूँ.

जिस दिन यह समाचार मिला कि उस प्रोजेक्ट के लिए सूरत जाना है और पंद्रह दिन वहीँ रहना होगा उस दिन पहले तो सब यही सोचते रहे कि मनीष अकेले जायेंगे या मैं भी साथ जाऊगी. फिर मनीष खुद ही बोले, कि जब मौका मिला है तो घूम ही लो. यह सोच कर हमने जाने का निर्णय लिया. ट्रेन में यात्रा के दोरान हमारी दोस्ती एक सज्जन से हुई जो कि किसी बैंक में कार्यरत  थे, बैंक का नाम अभी मुझे याद नहीं मगर उस यात्रा के दौरान ही उनसे हमारी काफी गहरी मित्रता हो गयी थी उन्होंने हमें अपने घर भी बुलाया था क्यूंकि जिस जगह हम रुके थे वहां से उनका घर नजदीक ही था. उस दिन मैंने रास्ते में खाने लिए अपने साथ पूड़ी और आलू की सब्जी बनाकर रखी थी, अब हुआ यह कि गर्मियौं के दिन होने कि वजह से रात के खाने के बाद बची हुए सब्जी ख़राब हो गयी मगर पूड़ियाँ  बहुत सारी बच गयी थी खैर ...

बड़े ही मज़े के दिन थे वो भी जब हर छोटी-छोटी बात के अनुभव पहली बार हो रहे थे, मुझे शुरू के दिनों में कंपनी ने रुकने के लिए होटल दिया था हम लोग वहां पहुंचे तब शाम के चार बजे थे और बहुत ज़ोरों की भूख लग रही थी, तब मनीष ने होटल के लड़के से बोला कि जब तक हम लोग नहा धोकर फ्रेश होते हैं. तुम कुछ खाने के लिए ले आओ, तो वह बोला इस वक़्त खाना नहीं मिलेगा. तब मनीष बोले अच्छा आस-पास से ही कुछ ले आओ, तब उसने बोला टाइम ऐसा है साहब कि सिर्फ आमलेट के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा. उस वक़्त भूख इतनी ज़ोरों की लगी हुई थी कि मनीष बोले अच्छा जा यार तू वही ले आ, पूड़ी हमारे पास हैं. वो गया और आमलेट लेकर आया, वो मेरे लिए पहला मौका था जब मैने पूड़ी के साथ आमलेट खाया था, वह इतना अच्छा और स्वादिष्ट लगा था मुझे कि आज भी मुझे वो स्वाद याद है मगर फिर उस के बाद न जाने कितनी बार कोशिश कि मैंने पूड़ी के साथ आमलेट खाने की मगर वो स्वाद नहीं मिला जो उस दिन मिला था क्यूंकि उसके पीछे कारण था उस वक़्त बहुत ज़ोरों की भूख लगी हुई थी. उस वक्त तो ऐसा लगा था कि दो आमलेट भी कम हैं, खाने के बाद हम लोग शाम को मनीष के ऑफिस गये देखने के लिए कि कहाँ है और कैसा है यह सोच कर कि एक पंथ दो काज हो जाएंगे और हुए भी. इस बहाने थोडा बहुत सूरत घूमने का अर्थात आस-पास की जगह देखने का मौका भी मिल गया था. उसके बाद हमने रात का खाना भी बाहर ही खाया जो कि बड़ा अजीब लग रहा था, सब चीज़ें मीठी-मीठी, दाल में भी मिठास और कढ़ी भी मीठी और मैं ज़रा कुछ ज्यादा ही तीखा पसंद करने वालों में से हूँ इसलिए इस बात का सामना करना कि सब कुछ मीठा-मीठा ही मिलेगा मेरे लिए बहुत कठिन हो रहा था उस रात मुझसे मिठास के कारण ढंग से खाना खाया ही नहीं गया.
फिर अगली सुबह मनीष को ऑफिस जाना था वो तो रोज़ के नियम की तरह उठे, तैयार हुए और चले गए, मगर मैं क्या करती तब तो मन्नू भी  नहीं था. सिवाये बोर होने के और इस दौरान मेरे पास कुछ करने के लिये नहीं था इसलिये मैंने स्टेशन से जितनी magzines खरीदी थी सब पढ़ डाली, मैंने एक-एक पन्ना ऐसे पढ़ लिया था  कि कुछ भी  न था उन किताबों में जो मैंने ना पढ़ा हो. सिवाय किताबें पढने और टीवी देखने के आलावा मेरे पास और कुछ करने के लिए होता ही नहीं था, फिर धीरे-धीरे थोडा routine बना. मनीष के ऑफिस जाने के बाद में थोड़ी देर टीवी देखती फिर किताब पड़ती और फिर नहाकर तैयार हो जाती,  फिर जब दोपहर के खाने का वक़्त होता तो मनीष बाहर से ही खाना पैक करवा कर लाया करते थे और हम साथ बैठ कर कमरे मे ही खाना खाया करते थे फिर मनीष ऑफिस चले जाते और मेरा बोरे होने का सिलसिला फिर शुरू हो जाया करता था. मनीष के लौटने तक सो-सो कर टाइम पास करना पड़ता था. शाम को फिर जब वो होटल आते तो हर शाम हम रात का खाना खाने के लिए  बाहर जाया करते थे. खाने का खाना और घूमने का घूमना, यूँ ही दिन बीत रहे थे मुझे वहां कि रास्ते में बिकने वाली चाय बहुत पसंद आई थी वैसे में चाय के शौक़ीन लोगों में से नहीं हूँ किन्तु मुझे वहां कि चाय इतनी पसंद आई थी कि में एक ही बार में दो-दो कप पी जाया करती थी. उस वक़्त उस एक चाय के दाम ५ रूपए  हुआ करते थे. फिर एक दिन वह सज्जन जो कि हमको ट्रेन में मिले थे वह अपने पूरे परिवार के साथ हमसे मिलने हमारे होटल में आये थे, यह देखकर मुझे अच्छा तो बहुत लगा था मगर आश्चर्य  भी बहुत हुआ था. मुझे यह लग रहा था कि कैसे ट्रेन की ज़रा देर कि पहचान में उनको हम पर इतना यकीन होगया और उनको कैसे याद रह गया कि वो हमसे मिले थे. इतनी आसानी से उन्होंने कैसे हम पर यकीन कर लिया और हम उन पर कैसे यकीन कर लें, क्यूंकि आज कल की दुनिया में लोग अपनों पर भी पूरी तरह विश्वास नहीं करते, यह तो हमारे लिये फिर भी पूर्ण रूप से अनजान थे  और हम उनके लिये. किन्तु फिर भी दुनिया में सब बुरे नहीं होते उनकी तरह कुछ लोग अच्छे भी होते है  कि वह हम से मिलने हमारे होटल तक आगये और हमको घर पर खाने के लिए न्योता भी दिया.

खैर फिर हमने भी उनके घर जाने का सोचा कि वो इस अनजान शहर में हमसे मिलने आये हमारा इतना ख्याल रखा तो हमको भी जाना चाहिये, मगर खाली हाथ जाना ठीक नहीं लग रहा था इसलिए फिर हमने  pastries लीं और हम उनके घर गये तब मैंने पहली बार open kitchen plan का system देखा था कि क्या और कैसी होता है. उस के बाद फिर एक दिन हमने सूरत का लोकल बाज़ार घूमने का सोचा, उस दिन बहुत अच्छा लगा था. तब उस शहर को और भी करीब से जाना था मैंने वहां से  बहुत सारी चीज़े भी खरीदी थी जैसे फरसान, ढोकला, थेपले इत्यादि लीया और ऐसे ही एक दिन हमने होटल के कमरे पर गुजराती थाली मंगवाई थी और जब वो लेकर आया तो हमने उसे देखते हुए कहा बस एक ही बहुत है. उसके बाद तो हमने तौबा कर ली थी कि थाली तो कभी भूल कर भी नहीं मंगवाना है क्यूंकि उस एक थाली में इतने सारे पकवान थे  कि सात जन्मो के भूखे इन्सान के लिए भी वो एक थाली खा पाना मुश्किल होता. मैं जानती हूँ आप यहाँ सोच रहे होगे कि सब कि diet एक सी नही होती है कि हम लोगों का एक थाली में हो गया था तो सब का हो ही जाये.  मगर सच मानीये उस एक थाली में भोजन की मात्रा एक साधारण मात्रा में खाने वाले इन्सान के हिसाब से बहुत ज्यादा थी हम लोगों ने तो एक ही में खाया था फिर भी बच गया था एक थाली भी हम दो लोग मिलकर पूरी ख़त्म नहीं कर पाये थे .....

इसी तरह दिन गुज़र रहे थे कि मनीष के बॉस ने बोला अब होटल से किराये के घर में शिफ्ट होना पड़ेगा हालांकि हम को उस घर के लिए उन दिनों पैसा नहीं देना पड़ा था क्यूंकि मनीष ने सूरत आने से पहले ही बोल दिया था कि वो वहां पंद्रह दिन काम करके देखेगे  यदि अच्छा लगा तो ही join  करेंगे वरना नहीं और जब हम उस घर में पहुंचे  तब वहां किसी भी तरह कि कोई सुविधा नहीं थी. सिर्फ लोहे के दो पलंग पड़े हुए थे वो भी बिना बिस्तरों के, फिर उनके ऑफिस का एक आदमी किराये का बिस्तर लेकर आया और हम सो पाये. सुबह उठे तो देखा बाथरूम में बाल्टी तक नहीं थी. हाथ मुंह धोने के लिए तब किसी तरह पड़ोसियों से एक बाल्टी और एक मग माँगा था, वह एक पारसी परिवार था और उन्हें यह लगा था उस वक़्त कि हम लोग अभी-अभी नए-नए रहने के लिए आये हैं इसलिए उन्होंने हमारी इतनी मदद करदी थी वरना शायद यदि उन्हें यह पता होता कि हम लोग उस घर में दो ही दिन के मेहमान है तो नहीं करते. जरुरी नहीं है किन्तु ऐसा हो भी सकता था  मगर उन्होंने हमारी सहायता की यही बहुत था, इस बात पर मुझे वो हिन्दी फिल्म के एक गीत कि कुछ पंक्तियाँ याद आरही हैं ''Its happens only in India ....''

हमारे घर के सामने एक छोटा सा मंदिर भी था जहाँ से रोज़ सुबह शाम आरती की आवाज़ आया करती थी, सुबह-सुबह मंदिर जाने की चहल पहल से ही हमारी  नींद खुला करती थी. हालांकि हम वहां बस दो या तीन दिन ही रुके थे, मगर मेरे मन में वो शहर बस गया था. मगर जैसा कि मैंने आप को शुरू में ही बताया था अपने मन का सोचा हमेशा कहाँ पूरा होता है. मनीष को वो Job नहीं जमी और पंद्रह दिन बाद हमने वापस  जाने का फैसला लिया. जाते वक़्त हम रास्ते के लिए खाना पैक करवा ही रहे थे कि हमारी ट्रेन छूट गयी और जाती हुई ट्रेन उस वक़्त ऐसी लगती है मानो सब कुछ छूट गया हो और दो पल के लिए कुछ समझ में नहीं आता है क्या करें क्या ना करें और वैसा ही  कुछ मनीष को भी लगा था. उस वक़्त यह देख कर मुझे तो कुछ ज्यादा बुरा नहीं लगा मगर मनीष बहुत ज्यादा परेशान  हो गये  थे तब मैंने उनको समझाया था कि चिंता मत करो, ठन्डे दिमाग से सोचो कि अब क्या करना है अब गयी हुए ट्रेन तो वापस आ नहीं सकती ना  इसलिए चिंता छोड़ो और टीटी से बात करो. उनको कुछ समझ नहीं आरहा था कि क्या करें क्या ना करें क्यूँ कि उस वक़्त resevation मिलना बहुत मुश्किल था, मनीष ने टीटी से बात कि मगर तब भी जगह नहीं मिली, तब पहला टिकट कैंसल कराया फिर दूसरी ट्रेन में वेटिंग टिकट मिला. बदकिस्मती देखिये कि वोह भी confirm नहीं हुआ और हमको नीचे कम्बल बिछा कर सोते हुए आना पड़ा था. उस वक़्त मनीष को बहुत बुरा लग रहा था कि उनके होते हुए मुझे इस तरह यात्रा करनी पड़ रही है क्यूंकि इस के पहले मैंने कभी ऐसी यात्रा नहीं की थी, मेरे लिए यह  मेरी ज़िन्दगी का एक और ऐसा अनुभव था जो मुझे पहले कभी नहीं हुआ था. मैं तो नीचे बैठने तक के बारे में नहीं सोच सकती थी और सोना तो मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी, मगर वो कहते  है ना कि "जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये'' बस इसी कहावत को सच मानते हुए उस वक़्त हमने वो यात्रा की और उस नए अनुभव का मजा उठाया और इस तरह हमारा सूरत का सफ़र पूरा हुआ.

अंततः इतना ही कि आप की ज़िन्दगी में भी जब कभी किसी यात्रा के दौरान ऐसे छोटे-मोटे पल आयें  तो परेशान न हों बल्कि उनको एक नया अनुभव मानते हुए उसका मज़ा लें, तो आप को भी अपनी यात्रा सुखद तो महसूस होगी ही  साथ ही हमेशा के लिए यादगार भी बन जायेगी जैसे मेरे लिये मेरे यह यात्रा बन गयी थी.

11 comments:

  1. Hi Gudiya,
    Its a pleasure to see that you are writing ur blog regularly. Keep writing.
    I think now its time for you to edit your article couple of times before posting it. Or I rather sleep over it for few days before posting it.
    I am sure that it will make your blogs crisp and more readable.
    BRW, Parsis are not Jews. Jews are Yahudis.
    Bye.
    NIMISH

    ReplyDelete
  2. आपकी पोस्ट पढ़ कर अच्छा लगा क्योंकि मन पर पड़े संस्कारों की बात साथ-साथ चली.

    ReplyDelete
  3. सूरत मैं भी दो बार गया हूँ लेकिन जल्दबाजी में ही ट्रिप रहा...
    वैसे ट्रेन में नीचे कम्बल या चादर बिछा के हमने कई बार सफर किया है...

    अच्छा लगा आपका ये अनुभव..

    ReplyDelete
  4. its a beautiful post coz it padkar bahut achha laga. Surat ki yaad taaza ho aayi

    ReplyDelete
  5. आप का BLOG पड़ कर यह गाना याद आ गया
    "गाडी से कहदो चले तेज़ मजिल हैं दूर,
    थोडा सफ़र का मज़ा लीजिये इ हुजुर..."

    ReplyDelete
  6. ji Surat se sirf 70kms door reh raha hoo abhi, aur 2 saal gujar gaye pata nahi chala .......,
    meri wife toh Surat se shopping bhi kar laai kintu mujhey abhi tak waha jaaney sa saubhagya nahi prapt hua .. , albatta itna jaroor anumaan hai ki
    Bharuch aur Surat mai fark nahi hoga .mithaas k liye aap ki baat se poori tarah sehmat hoo , us khaney ka ek alag he aayaam hai ,

    aur mera kal ka nashta " poori aur omelette "

    ReplyDelete
  7. पहली बार आपके ब्लॉग में आना हुआ आपने यात्रा के संस्मरण को इतने अच्छे रूप में प्रस्तुत किया पढ़कर बहुत अच्छा लगा ..........

    ReplyDelete
  8. नववर्ष की ढेरों हार्दिक शुभभावनाएँ.

    ReplyDelete
  9. अच्छा लगा आपका ये अनुभव..

    ReplyDelete
  10. aapki yaadgaar yaatraa men aaj ham bhi shareek ho liye....thodaa door saath chal aaye....

    ReplyDelete

अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए यहाँ लिखें