फिर बात निकली वृत उपवास से जुड़ी कथा और कहानियों की सामने वाले व्यक्ति अर्थात उन सज्जन का कहना था कि मुझे इसमें ज़रा भी विश्वास नहीं इन सब वृत कथाओं में डर दिखाया गया है कि देखो यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो भगवान रुष्ट होकर तुम्हें यह दंड देंगे या वो दंड देंगे। जबकि भगवान भला अपने भक्तों का बुरा क्यूँ चाहेंगे भगवान ने कभी नहीं कहा कि मेरा पूजन करो, ऐसे करो या वैसे करो, लेकिन हर वृत कथा में कहा गया है कि फलाना वृत करने से भगवान प्रसन्न हो जाएँगे और बदले में यह फल देंगे और यदि वृत करने वाले ने अंजाने में यदि कोई भूल कर दी कुछ तो भगवान रुष्ट होकर दंड देंगे ,यह कौन सी बात हुई। इस बात पर मेरा कहना था कि मैं यहाँ आपकी बात से सहमत नहीं हूँ। मेरे विचार से अधिकतर वृत कथाओं में किसी भी वृत या उपवास को करने की सलाह किसी न किसी ऋषि मुनि ने दी है स्वयं भगवान ने नहीं और दंड का डर इसलिए दिखाया है ताकि लोग उसका अनुसरण करें और धर्म आगे बढ़ सके। उदाहरण के तौर पर यदि सत्यनारायण भगवान की वृत कथा की बात की जाये तो, जहां तक मेरी समझ कहती है सत्यनारायण भगवान की कथा के माध्यम से लोगों को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि लोग अपने जीवन में निर्धारित किए गए लक्ष्य को पूरा करें अर्थात जो भी काम करने का निर्णय उन्होने अपने जीवन में लिया है उस लक्ष्य की प्राप्ति करें कोई भी कार्य बीच में ही अधूरा न छोड़ें। इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी हो सकता है कि हमारे ऋषि मुनियों ने यह सोचा हो कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में से लोग थोड़ा समय प्रभु भक्ति के लिए भी निकाल कर कुछ समय सादा जीवन जीने का भी प्रयास करें।
अब पता नहीं किसकी बात सही किसकी गलत हाँ मगर मैं यह नहीं कहती कि अंधी भक्ति करो ज़रा सा कुछ नियम इधर का उधर हो जाये तो "हाय अब क्या होगा" कहकर बैठ जाओ मैं सिर्फ इतना कहती हूँ और मानती हूँ कि अपने सामर्थ के अनुसार जितना हो सके पूर्ण श्रद्धा के साथ उतना ही करो और उस ऊपर वाले को कभी अपना दोस्त भी समझो, क्यूंकि चाहे ज़िंदगी में सुख आए या दुख शरण में तो उसी की जाना है। क्यूंकि जब कभी हम ज़िंदगी से हताश हो जाते है या निराश हो जाते हैं तब तब हमें केवल भगवान ही याद आते है फिर किसी भी रूप में क्यूँ ना आए जैसे माता-पिता उन्हें भी तो भगवान का ही दर्जा दिया जाता है। यहाँ तक के किस्से कहानियों में भी बच्चों को यही शिक्षा दी जाती है। तो फिर जब हर परिस्थिति में भगवान को पूजना ही है तो क्यू ना एक दोस्त बनाकर पूजा जाये बजाय डर के मारे पूजने के, अरे भई जब आप स्वयं इंसान होकर एक दूसरे को अंजाने में की गयी गलतियों के लिए माफ कर सकते हो। तो वह तो स्वयं भगवान है वो तो कर ही देंगे। फिर भला उनसे डर कैसा, मगर नहीं हमेशा मन के अंदर एक डर रहा करता है पूजन के वक्त कि कहीं कोई गलती न हो जाये। यह भी सही नहीं क्यूंकि भगवान तो वो शक्ति है जिसके लिए यह कहा गया है कि
जाकि रही भावना जैसी, तिन देखी प्रभू मूरत वैसी..
तो क्यूँ न उन्हें बिना किसी डर और आशंका के हमेशा प्यारे से दोस्त के नाते ही देखा जाये इस विषय में आप सब की क्या राय है दोस्तों ?
मन का विश्वास दिखता है ईश्वर के रूप में..
ReplyDeleteअपनी अपनी श्रद्धा है,मानो तो भगवान् नही तो पत्थर,,,
ReplyDeleterecent post : प्यार न भूले,,,
MOHOTARMAN AAP NEY JO LIKHA BOHOTHI ACHHA LIKHA HAI AAP NE DHARM AUR ISHWAR KO JO SAMAJH NE KI KOSHISH KI HAI WO SARAHANE KE KABIL HAI
ReplyDeletePAR EK BAAT JO MAINE SAMJHI HAI WO YE HAI KI KISI BHI INSAN KI KAHI HUI BAAT TO GALAT HOSAKTI HAI PAR ISHWAR KI KAHI BAAT HAR ZAMANE MAIN HIN SAHI SABIT HOTI HAI CHA HE WO NAYA ZAMANA HO YA PURANE ZAMANE KA DOOR HO ISHWAR KI KAHI BAAT TO HAR JAGANH AUR HAR DOOR MAIN SAHI SABIT HOTI HAI AUR MAIN USI BAAT KO AUR DHARM KO MANTA HUN
MOHOTRMAN AAP JESE MOTBAR AUR PUR KHULUS AUR BEHTRIN LOGON SEY MILNA AUR BAAT KARNA AUR AAP LONON KEY SAWALON KEY JAWAB DEYNA INSAB KAMUN SEY HAUM ARELIYE BADI KHUSHI MEHESUS HOTI HAI
BABA MOHAMMAD SALIM SHAH
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बहुत सुन्दर और सहज ढंग से आपने अपने मन की बात पाठकों से कह दिया |अच्छी पोस्ट |
ReplyDeleteएकदम सही कह रही हैं पल्लवी आप .वैसे भी अगर हम इनमे उलझते हैं तो उलझकर ही रह जाते हैं .फिर जब ये कहा जाता है किप्रभु श्रृद्धा के भूखे हैं तो और कुछ करने का सवाल ही कहाँ रह जाता है .नारी के अकेलेपन से पुरुष का अकेलापन ज्यादा घातक
ReplyDeleteसही कहा है . फिल्म ओम एम् जी का एक डायलोग याद आ रहा है - गौड फियरिंग नहीं , गौड लविंग होना चाहिए. डरता वही है जो गलत काम करता है.
ReplyDeleteविवेकानन्द ने अपने जीवन में केवल यही सिद्ध करने का प्रयास किया था कि भगवान से डरना नहीं चाहिए अपितु प्रेम करना चाहिए। भारतीय दर्शन में भी डर का भाव बहुत बाद में आया है, पहले तो केवल वही था जो सृष्टि का सत्य है।
ReplyDeleteतर्क और आस्था, दो धुरविरोधी अवधारणाएं हैं
ReplyDeleteभगवान भाव का भूखा है ना कि पूजा सामग्री का।
ReplyDeleteप्रैक्टिकल बात।
ReplyDeleteमानव जाति की वास्तविक विडम्बना
ReplyDeleteयह बात बिल्कुल सही है कि बहुत सी बातें मौलवी साहिबान और पंडित जी अपने विवेक से बताते हैं और कर्ह बार ऐसा भी होता है कि धर्म की गददी पर ऐसे स्वार्थी तत्व बैठ जाते हैं जिनका मक़सद परोकपकार और ज्ञान का प्रचार नहीं होता बल्कि शोषण होता है। आज ऐसे तत्व ज़्यादा हैं लेकिन धार्मिक जन भी हैं।
धर्म जीवन की गुणवत्ता बढ़ाता है, जीने की राह दिखाता है। सबको बराबरी और प्रेम की शिक्षा देता है। ईश्वर सबको आनंदित देखना चाहता है। इसीलिए वह मनुष्य का मार्गदर्शन करता है।
उसके मार्गदर्शन का नाम ही ‘धर्म‘ है,
अपनी तरफ़ से मनुष्य जो कुछ चलाता है, वह दर्शन है।
दुनिया में दर्शन बहुत से हैं जबकि धर्म केवल एक है और सदा से बस एक ही है।
यही एक धर्म कल्याणकारी है।
लोग अपने स्वार्थ में पड़कर एक धर्म के अनुसार व्यवहार न करके अपने बनाए हुए दर्शनों में चकराते रहते हैं।
मानव जाति की वास्तविक विडम्बना यही है।
Link-
http://commentsgarden.blogspot.in/2012/11/manav-jati.html
अंतिम पंक्ति से सहमत हूँ जाकी रही भावना....... :-)
ReplyDeleteहाँ धर्म की दुहाई देकर पुरुष प्रधान समाज धर्मपत्नी का शोषण करता है (धर्म पति सुना है कभी आपने ),उद्धरण देते हैं लोग मानस में यह लिखा है ने ये किया सावित्री ने वह किया ...तूने क्या किया ?बढ़िया पोस्ट बढ़िया मुद्दा उठाया है आपने .
ReplyDeleteवैसे ये पोस्ट O.M.G देखने के बाद लिखी गयी थी क्या :D
ReplyDeleteएनीवे, बात आपने बिलकुल सही कही है....हम लोग तो वैसे भी god fearing लोग हैं, god loving नहीं...(OMG का एक डायलोग )