इत्ती सी हंसी, इत्ती सी खुशी, इत्ता सा टुकड़ा चाँद का....काश हर एक की बस यही जरूरत होती इस दुनिया में तो कितना अच्छा होता। यूं तो यह ख़बर अब पुरानी है मगर फिर भी, कुछ दिन पहले मैंने बर्फ़ी देखी जो मैं उस समय नहीं देख पायी थी जब यह फिल्म रिलीज़ हुई थी इस फिल्म को थिएटर में देखना का बड़ा मन था मेरा, लेकिन उन दिनों ऐसा हो न सका। खैर आजकल इस बात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है क्यूंकि अब सभी नयी फिल्में बहुत ही जल्दी छोटे परदे पर आजाती है तो बस रिकॉर्ड करो और बिना ब्रेक के मज़े से देख लो हम तो ऐसा ही करते हैं और ऐसा ही इस बार भी किया जब यह फिल्म पहली बार छोटे पर्दे पर आई तब हमने इसे रिकॉर्ड कर लिया था और फिर आराम से सबकी सहूलियत के अनुसार एक दिन तय कर के देख लिया ऐसा इसलिए किया क्यूंकि मुझे अकेले फिल्म देखना बहुत ही बोरिंग काम लगता है मैं चुप चाप बैठकर फिल्म देखने वालों में से नहीं हूँ। फिल्म देखने के दौरान मुझे अपनी विशेष टिप्पणी देते रहने की आदत सी है :) इसलिए मैं अकेले कभी कोई फिल्म नहीं देखती हूँ।
खैर गरमा-गरम समोसों के साथ हमने घर पर ही फिल्म का भरपूर आनंद लिया, फिल्म थी भी अच्छी खासकर उसका वो गीत इत्ती सी खुशी, इत्ती सी हंसी, इत्ता सा टुकड़ा चाँद का ....लेकिन यह फिल्म देखते देखते मन में न जाने कितनी बार यह प्रश्न उठा कि क्या वाकई इस दुनिया में बर्फी और झिलमिल जैसे लोगों को दुनिया इतने चैन और सुकून से रहने देती है या फिर ऐसे लोग अपनी कमी को जानते हुए भी इतना खुश रह सकते है। फिल्म के अनुसार तो बर्फी जैसे लोगों को सभी बेहद पसंद करते हैं मगर वास्तव में ऐसा है नहीं मेरी एक सहेली की छोटी बहन भी बिलकुल झिलमिल की ही तरह थी लेकिन उसमें और झिलमिल में केवल इतना फर्क था कि वह घर आए मेहमान को देखकर खुशी के मारे इतनी उत्तेजित हो जाती थी जिसके चलते उसके व्यवाहर को आम इंसान समझ नहीं पता था और लोग डर जाते थे। मगर जब समझ में आता कि वह क्या चाहती है तो बस प्यार आता था उस पर उसकी मासूमियत पर और ना चाहते हुए भी कभी कभी दया भी, जो कि नहीं आनी चाहिए। कभी कभी तो उसकी मासूमियत को देखकर उसे मिलकर ऐसा लगता था कि बच्चे सभी मासूम होते हैं यह बेरहम दुनिया ही सबको क्रूर बना देती है। काश यह भोलापन यह मासूमियत सभी में सारी ज़िंदगी बरकरार रह पाती तो आज दुनिया की सूरत ही कुछ और होती।
लेकिन जैसा कि मैंने उपरोक्त कथन में भी कहा है कि ऐसा लगता है कि वास्तविकता इससे बिलकुल विपरीत है क्यूंकि वास्तविक ज़िंदगी में तो बर्फ़ी और झिलमिल जैसे लोग दुनिया को बोझ लगते हैं और हर कोई उन से कटना चाहता है। यहाँ तक के लोग ऐसे इन्सानों या बच्चों के माता-पिता तक को ऐसी दयनीय नज़रों से देखते हैं कि उन्हें अपने ऐसे बच्चों को जिनमें किसी तरह की कोई कमी हो जैसे (शारीरिक या मानसिक विकलांगता हो) समाज में लाने-ले जाने में शर्म महसूस होने लगती हैं। हालांकी इस फिल्म में बर्फ़ी केवल सुनने और बोलने से वंचित था। लेकिन दिमाग एकदम ठीक था उसका, मगर झिलमिल दिमागी रूप से पूरी तरह से ठीक नहीं थी। अब चूंकि यह फिल्म पुरानी हो चुकी है तो यहाँ यह बताना ज़रूरी तो नहीं लगता। मगर फिर भी बर्फी का किरदार निभाया है (रणबीर कपूर) ने और झिलमिल का (प्रियंका चोपड़ा) ने इसके अलावा एक और हीरोइन हैं इसमें (इलयाना) जिसने श्रुति नाम की लड़की का चरित्र निभाया है लेकिन मैं उसकी बात नहीं करूंगी। क्यूंकि मैं यहाँ केवल बर्फी और झिलमिल जैसे लोगों की बात करना चाहती हूँ।
मगर फिर भी इस फिल्म में बफ़ी और झिलमिल दोनों की जुगलबंदी कमाल की दिखाई है अनुराग बासु ने आपको इस फिल्म में नि:स्वार्थ प्यार और छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ ढूंढने की कहानी ‘बर्फी’ में देखने को मिलेगी। जो यह बताती है कि जिंदगी में कितनी ही मुश्किलें आएं, आप कहें ‘डोंट वरी, बी बर्फी’ और चैन से जिंदगी का मजा लें। हालांकी ज़िंदगी यदि फिल्मों की तरह इतनी ही आसान होती तो फिर बात ही क्या थी। तब शायद इस पूरी दुनिया में कोई दुखी ही ना होता। इस फिल्म को देखकर जाने क्यूँ बरसों बाद मुझे ऋषिकेश
मुखर्जी का ज़माना याद आगया उनकी बनाई हुई लगभग सभी फिल्में मेरे दिल के करीब हैं और मुझे बेहद पसंद भी है। शायद इसलिए क्यूंकि उनकी फिल्म के लगभग सभी किरदार ज़मीन से जुड़े हुए हुआ करते थे। उनकी किसी भी फिल्म में किसी भी तरह का दिखावा नहीं होता था।
हालांकी यदि इस फिल्म की पुरानी फिल्मों से तुलना की जाये तो मैं जया बच्चन और संजीव कुमार की फिल्म कोशिश को ज्यादा पसंद करूंगी। जिसमें वह दोनों ही बोलने और सुनने में असमर्थ थे। लेकिन अपने बेहतरीन अभिनय के दम अपर उन्होंने जैसे इस फिल्म में जान फूँक दी थी। लेकिन फिर भी आजकल बन रही अन्य फिल्मों की तुलना में वाकई बर्फ़ी अपने आप में एक बहुत ही बढ़िया फिल्म हैं जिसमें हास्य में करुणा और करुणा में हास्य दिखने का बहुत ही बढ़िया और सफल प्रयास किया गया है जो दिल को छू लेता है और एक दर्शक को एक फिल्म से चाहिए भी क्या...सिर्फ यही कि फिल्म में दिखाई जाने वाली बाते सीधे दिल तक पहुंचे। जो इस फिल्म में हुआ। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए मुझे यह फिल्म पसंद आई आप सबकी क्या राय है।
अच्छा हो सब कुछ चाहे रील में या रियल में।
ReplyDeleteचाहते तो सभी यही हैं, मगर अच्छा करने वाले कम ही हैं और बिना अच्छा करे, अच्छा चाहने वालों की कोई कमी नहीं है न रील में और न ही रियल में :)
ReplyDeleteमुझे तो फिल्म बहुत पसंद आई,,,
ReplyDeleteRECENT POST : फूल बिछा न सको
इसमें कोई शक नहीं कि हाल-फिलहाल बनी फिल्मों में बर्फी का नाम कुछ अलग तरह से शामिल है. चाहे बात अनुराग बासु की फिल्म मेकिंग के तौर-तरीकों, स्टार कास्ट और थीम की हो, बर्फी का कुल जमा सन्देश यही है कि हर रिश्ते में प्यार से बढ़कर कुछ भी नहीं है...ज़रा फिर से याद कीजिये श्रुति (इलियाना डी क्रुज ) और उसकी माँ रूपा गांगुली के बीच हुए मनमोहक संवाद को, जिसमें प्यार के फलसफे को अपने-अपने तरीके से रखा गया है...
ReplyDeleteमैंने ये फिल्म पहली बार दार्जीलिंग में देखी थी.. जहाँ इसकी अधिकाँश शूटिंग हुई है... मैंने अपनी दार्जीलिंग डायरी- 5 में बर्फी के बारे में लिखा है, लेकिन इस ब्लॉग पर नहीं, मेरे पुराने ब्लॉग पर.....rahul-dilse-2.blogspot.in
आप चाहें तो देख सकती हैं ...आपने बर्फी के बारे में लिखा, इसीलिए मैंने इतनी बात कही... दरअसल ये फिल्म ही कुछ ऐसी है .....
मैंने अभी तक यह फिल्म नहीं देखी है ! नयी फिल्मों के जब तक बहुत अच्छे रिव्यूज नहीं आ जाते मैं नहीं देखती लेकिन आपकी पोस्ट ने इस फिल्म के प्रति जिज्ञासा बढ़ा दी है ! यह विडम्बना ही है कि विकलांग व्यक्ति या उनके परिवार वाले चाहे स्वयं कितने ही आत्मविश्वास से भरे हों समाज के अन्य लोग उन्हें दयनीय दृष्टि से देख कर उन्हें हीन भावना से ग्रस्त कर देने का कोई अवसर नहीं गँवाते ! बहुत अच्छा आलेख !
ReplyDeleteइस फिल्म की विशेषता यह है कि घटनाओं को तोड़ कर आगे-पीछे करके बुना गया है. यह एक अच्छे मनोरंजक उपन्यास का मज़ा देती है. वास्तविकता और रचनात्मक अनुभव में अंतर तो रहेगा ही. आपकी लेखनी ने इस फिल्म पर लिखा है, यह इस फिल्म की सफलता है.
ReplyDeleteसबसे पहले तो मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका हार्दिक आभार, बिलकुल ठीक कहा आपने और मुझे उस दृश्य की भी बातें याद हैं जिसका आपने जिक्र किया और यदि भावनाओं से परे होकर सोचा जाये तो एकदम सही बात कही थी रूपा गंगोली ने इलयाना से उस वक्त मगर मैंने उस संवाद को यहाँ लिखा नहीं क्यूंकि मेरा मकसद कुछ और था खैर आप यहाँ आए और अपने बहुमूल्य विचारों को सांझा किया और क्या चाहिए। इस तरह के कॉमेंट से लगता है कि लेखन सार्थक हुआ व्यर्थ नहीं गया। इसलिए एक बार फिर आपका शुक्रिया
ReplyDeleteये फिल्म देखी है ....बहुत पसंद आई ...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति है आदरणीया-
ReplyDeleteआभार आपका -
वरफ़ी फिल्म वाकई बहुत अच्छी है .... वैसे ये बात भी सच है कि इस तरह के किरदार असल ज़िंदगी में शायद इतने खुश नहीं रह पाते ।
ReplyDeleteबर्फ़ी अच्छी फिल्म है...मगर बेहद फ़िल्मी है...जया जी और संजीव कुमार साहब की "कोशिश" वास्तविकता के बिलकुल करीब थी.
ReplyDeleteमगर जहाँ तक मनोरंजन का सवाल है बर्फ़ी उदास,बोझिल और सुस्त नहीं लगती इसलिए अच्छी है.....
याने तुम्हारे नज़रिए से तकरीबन सहमत हूँ :-)
अनु
आजकल की फिल्मों को बच्चों के साथ देखने में बड़ा रिस्क रहता है। इसलिए मैंने पहले इसे पत्नी के साथ देखा। पसन्द आयी तो बच्चों को लेकर दुबारा थियेटर में गया। मेरा एक ही फिल्म दो बार सिनेमा हाल में जाकर देखना ही बताता है कि मुझे इसकी खुबसूरती भा गयी। वाकई मन को छूने वाली फिल्म है यह।
ReplyDeleteपिक्चर बहुत सुन्दर और दिल को छू जाती है...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ....!!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (03-09-2013) को "उपासना में वासना" (चर्चा मंचःअंक-1358) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मैंने फर्स्ट डे..फर्स्ट शो देखा था.. :)
ReplyDeleteनो डाऊट फिल्म बहुत पसंद आई थी, लेकिन दुसरे या तीसरे दिन जब जाना की कई कई फिल्मों के सीन इसमें इस्तेमाल किये गए हैं(एक चार्ली-चैपलिन से कॉपी किया हुआ सीन तो देखते ही पहचान गया था मैं, बाकी के बारे में जानकारी नहीं थी), तो मन थोड़ा खट्टा हो गया...फिर भी अच्छी फिल्म बनाई है, भले सारे के सारे अच्छे मोमेंट्स सेम टू सेम कॉपी पेस्ट किये हों डाईरेक्टर ने दुसरे फिल्मो से!!इसे दोबारा भी देखा है, और अब भी मेरे हार्ड-डिस्क में पड़ी है फिल्म!!
जितनी अच्छी फिल्म है, उतना ही सुन्दर गीत है यह।
ReplyDeleteये फिल्म देखी है ...वाकई बहुत अच्छी है ....
ReplyDeleteकोशिश ओर बरफी ... दोनों का अलग मज़ा है ... अलग फ्लेवर है ... अलग माहोल ओर परिवेश है ...
ReplyDeleteदोनों ही सफल हैं अपने मकसद में ... दोनों बहुत बहुत पसंदीदा फिल्में हैं ...
परदे पर ज़िन्दगी 3 घंटे की होती है,उसी 3 घंटे में एक मध्यांतर - ताकि आप फ्रेश हो लें,कुछ खाने का लुत्फ़ उठा लें …फिर समापन - 3 घंटे मनोरंजन के होते हैं,सीखने के होते हैं,कैसे कोई निर्दोष कटघरे में होता है - ये बताते हैं आदि आदि …. यथार्थ क्षणिक,उबाऊ,खौफनाक,समझौते आदि आदि की होती है
ReplyDeleteबहुत मासूमियत है फिल्म में. किरदार भी बहुत कमाल के हैं. दोनों की एक्टिंग माशाल्लाह !
ReplyDeletereally बर्फी- मूवी बहुत ही अच्छी story के साथ बनी है और इसके किरदारों ने इसमें जान डाली है..
ReplyDeletebest story -
तुम्हारी पोस्ट की तरह ...फिल्म अच्छी और प्रभावी थी
ReplyDeleteमासूम झलक दिखी इस फिल्म में ..
ReplyDeleteएक मासूम सी कहानी बेहतरीन अदाकारी के साथ |
ReplyDeleteफ़िल्मी यादें...
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