आज जब यह फ़िल्म देखी तो बहुत अच्छा लगा कि बहुत दिनों बाद कोई अच्छी हिन्दी फ़िल्म देखने को मिली। पहले तो सोचा नहीं था कि इस विषय में कुछ लिखूँ मगर यह फ़िल्म देखने के बाद कई सवालों ने मेरे दिलो दिमाग पर दस्तक दी और कहा कि यूं तो समीक्षा किसी भी चीज़ की जा सकती है। मगर यदि किसी अच्छी फ़िल्म की समीक्षा न की जाये तो वह शायद बेइंसाफ़ी होगी। यह फ़िल्म मुझे बहुत पसंद आई मगर पता नहीं मैं इस फ़िल्म की ठीक से समीक्षा कर भी पाऊँगी या नहीं, इसलिए अब फैसला आपको करना है कि मैं इस प्रयास मे कहाँ तक सफल हो पायी, नतीजा चाहे जो हो मगर मैं कोशिश ज़रूर करना चाहती हूँ। क्यूंकि यह एक ऐसी फ़िल्म है जो यथार्थ के बहुत करीब है। जो अपने आप में एक आम कलात्मक फिल्मी होते हुए भी बिना किसी भी तरह के बनावटी रोमांस और आइटम नंबर के लोगों में अपनी पहचान बना रही है। हाँ यह ज़रूर हो सकता है,कि इस फ़िल्म को पसंद करने वाले बहुत कम लोग हो, जो मेरी तरह की सोच रखते हो, क्यूंकि जैसा मैंने पहले भी कहा कि इस फ़िल्म में आम हिन्दी फिल्मों की तरह कोई आइटम नंबर का मसाला नहीं है बल्कि सिर्फ एक सच है। जिसे पर्दे पर देखकर एक बार आपकी अंतर आत्मा आपको दिखाये गए विषय पर सोचने के लिए मजबूर ज़रूर करती है।
यह एक ऐसे युवक की कहानी है, जिसके अंदर देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा है। कुछ से मतलब कुछ भी गाँव का एक युवक जिसका नाम है "पान सिंह तोमर" जिसका किरदार निभाया है "इफ़रान खान" ने उन्हें इस फ़िल्म में देखकर जाने क्यूँ ऐसा लगता है, कि शायद यदि उनकी जगह यह रोल किसी और ने किया होता तो बात नहीं बनती जो उनके अभिनय से बनी, ज़मीन से जुड़े हुए एक आम इंसान का ऐसा प्रदर्शन यूं इतनी सादगी और पूरी निष्ठा से निभा पाना बहुत मुश्किल बात थी। वैसे यह मेरी सोच है, हो सकता है आप सबको ऐसा न भी लगे मगर उन्होनें यह पात्र कमाल का निभाया इसमें कोई दो राय नहीं है। :)
खैर हम बात फ़िल्म की कर रहे थे फ़िल्म की नींव है किस तरह एक मेहनती और ईमानदार जोशीला इंसान जिसके अंदर देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना है वह किस तरह पहले मिलिट्री में भरती होकर देश के लिए खेलता है और स्वर्ण पदक जीतते हुए अंत में किस तरह बागी बन जाता है। फ़िल्म शुरू होती है उसे बागी बने एक आम इंसान के साक्षाकार से, इस फ़िल्म में एक संवाद है "बागी बीहड़ में और लुटेरे पार्लियामेंट में पाये जाते है"। यूं तो यह कहानी चंबल के एक बागी पर आधारित है।
मगर यह कहानी कुछ अलग है इस कहानी में एक मासूम मगर जोशीला गाँव का एक युवक पहले देश सेवा और अपने परिवार के जीवन यापन की खातिर मिलिट्री में भर्ती होता है। देखने में दुबला पतला मगर दौड़ने में बहुत तेज़, जिसकी खुराक स्वाभाविक है ओरों से ज्यादा ही होगी। जब वही व्यक्ति अपनी छुटटियाँ ख़त्म होने के बाद भी दो दिन देर से वापस नौकरी पर आता है। तो उसे सजा के तौर पर अपना सारा समान अपने कंधों पर उठाकर तेज़ दौड़ने कि सजा दी जाती है। जो उसे सजा कम मज़ा ज्यादा देती है, क्यूंकि उसे दौड़ने का शौक होता है और फिर जब वो खाना खाने के लिए बैठता है, तो उसे एक सीमा के बाद यह कहकर रोक दिया जाता है, कि तुम फौज में भर्ती हुए हो बारात में नहीं आए हो हर सैनिक की खुराक फ़िक्स है। तू ही सबके हिस्से का खा लेगा तो बाकी क्या भूखे मरेंगे और जब जवाब में वो यह कहता है, कि मेरी खुराक इससे ज्यादा है तो मैं क्या करूँ, तब उसे खेलों में भर्ती होने की सलाह एवं हिदायत दी जाती है।
खुराक के पीछे बंदा खेल में भी भर्ती होने को राज़ी हो जाता है। जहां उसका इम्तहान लेने के लिए उसे एक आइसक्रीम का डिब्बा दिया जाता है अपने सिनयर अफसर के घर पहुंचाने के लिए वो भी पिघलने से पहले और वो दौड़कर जाता है और 4 मिनट में वो आइसक्रीम अपने अफसर के घर पहुंचा कर आता है उसे दौड़ के खेल में स्थान दे दिया जाता है। हालांकी सभी अफसर यह जानते हैं कि वीएच खेलों में सिर्फ खुराक के लिए आया है मगर उसे खेल में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है। मगर वहाँ भी उसे खुराक पूरी नहीं मिल पाती फिर भी वो अपने शौक की खातिर खेलता जाता है। एक दिन नेशनल लेवल की दौड़ में जीतकर देश के लिए स्वर्ण पदक हासिल करता है। तभी उसे मौका मिलता है जंग पर जाने का, जिसका हर सिपाही को इंतज़ार होता है। मगर उसे जाने नहीं दिया जाता। क्यूंकि मिलिट्री का नियम है, कि खिलाड़ी देश की अमानत है। उसे जंग पर नहीं भेजा जा सकता है। वीएच कहता भी है कि भले ही मुझसे मेरे सारे पदक मेडिल ले लो मगर मुझे जंग पर जाने दो मगर उसे जाने नहीं दिया जाता 1962-1965 दो बार उसके हाथ से यह मौका निकल जाता है। उधर उसके गाँव में उसके ही रिश्तेदार ज़मीन को लेकर झगड़ा करते है।
इसी तरह ज़िंदगी गुज़र रही होती है कि रिटायरमेंट आ जाता है और उसकी जगह उसके बेटे को नौकरी दे दी जाती है। साथ में यह भी कहा जाता है कि तुम एक बहुत अच्छे खिलाड़ी हो जब चाहे यहाँ ट्रेनर के रूप में दुबारा नौकरी पर आ सकते हो। मगर वह उस वक्त मना कर देता है क्यूंकि उसे अपने घर के किस्से सुलझाने होते है। वर्दी का सम्मान करते हुए वह अपने ज़मीन के किस्से को कानूनी तरीके से संभालना चाहता है यह सोचकर कि उसने देश के लिए बहुत कुछ किया है। कम से कम कानून उसकी सहायता करेगा मगर उसके हाथ सिवाए निराशा के और कुछ नहीं आता बात इतनी बढ़ जाती है कि एक दिन रिश्तेदारों के आपसी मतभेद के चलते उसकी माँ और और अन्य लोगों को गोली मार दी जाती है और यही हालत उसे बागी बना देते हैं।
यह सब पढ़कर शायद आप सभी को यह फिल्म बहुत आम लग रही होगी साथ ही यह भी महसूस ज़रूर हो रहा होगा की ऐसे हालात तो कई बार कई हिन्दी फिल्मों में दिखाये जा चुके हैं इसमें क्या ख़ास है ? है ना !!! यही लग रहा है न आप सबको तो मैं यहाँ आपके इस प्रश्न के उतार में कहना चाहूंगी की हाँ फिल्म की कहानी भले ही कितनी भी आमहो मगर इसमें किया गया हर के पात्र का अभिनय और प्रदर्श इतना प्रभावशाली है की देखकर मज़ा आजाता है। मुझे तो बहुत मज़ा आया बाकी तो पसंद-अपनी-अपनी ख्याल-अपना-अपना वाली बात सभी के साथ है ही, :) अब अगर इस से ज्यादा मैंने और कुछ कहा तो आपका फ़िल्म देखने का मज़ा ही खराब हो जायेगा मगर अंत में इतना ज़रूर कहना चाहूंगी कि इस फ़िल्म की जान है इस फ़िल्म की सादगी और भाषा। यूं तो ऐसी कई फिल्में आपने देखी ही होंगी, मगर फिर भी यह फ़िल्म अपने आप में एक आम फिल्म होते भी खास है।
मगर इस फ़िल्म को देखने के बाद सबसे पहला प्रश्न दिमाग में यह आता है कि आखिर क्यूँ हमारे यहाँ एक बेहतरीन खिलाड़ी का नाम नहीं हो पाता और जब वही आम इंसान बागी बन जाये तो अचानक से सुर्खियों में आ जाता है। मैं यह नहीं कहती कि सबके साथ ऐसा ही होता है। कई बड़े खिलाड़ी इसका उदाहरण है। मगर आज भी हमारे गाँव में, या यूं कहा जाये कि ग्रामीण इलाकों में न जाने ऐसे कितने पान सिंह है जो अपनी प्रतिभा के दम पर देश को बहुत आगे ले जा सकते है, मगर भूख, गरीबी और लाचारी के आगे इंसान विवश हो ही जाता है और रही सही कसर पैसे वाले लोग पूरी कर दिया करते हैं, जबकि सच तो यह है कि कोई भी इंसान जन्म से बुरा नहीं होता। मगर वक्त और हालात कभी-कभी ना चाहते हुए भी उसे बागी बना देते हैं।
यकीन न हो तो एक बार समीक्षा के आधार पर आज़मा कर देख लीजिये मुझे पूरी उम्मीद है यदि हमारी पसंद मिलती है तो यह फ़िल्म आपके लिए घाटे का सौदा साबित नहीं होगी। :)
फिर भी यदि ऐसा हो तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। :)
बहुत बढ़िया समीक्षा,..अब तो फिल्म देखनी ही पडेगी,..
ReplyDeleteRESENT POST...काव्यान्जलि ...: बसंती रंग छा गया,...
फिल्म देखने का मन तो है, अब नसीब में हैं या नहीं यह पता नहीं।
ReplyDeleteएक बात आपकी विवेचना मे छूट गयी। बिना गाली गलौच भरे वास्तविकता को फ़िल्मो मे कैसे उतारा जा सकता है यह फ़िल उसका शानदार उदाहरण है।
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा , देखते है इसी सप्ताहांत में .
ReplyDelete"बागी बीहड़ में और लुटेरे पार्लियामेंट में पाये जाते है"।
ReplyDeleteये एक लाइन अपने में सब कुछ समेटे है ! मैं ऐसी ही
फिल्मों का दीवाना रहा हूँ |आप की समीक्षा ने फिल्म का
बहुत-कुछ आनद दिया है ...बाकी उम्र के हिसाब से कुछ
मजबूरियां हैं ...पर देखूंगा जरूर भले ही डी.वी.डी पर ही सही |
आभार!
देख ली है और प्रभावित भी हुआ हूँ।
ReplyDeleteसही कहा की बहुत से लोग उचित अवसर न मिलने की वज़ह से बहुत सी उपलब्धियों से वंचित रह जाते हैं .
ReplyDeleteअन्याय के विरुद्ध अक्सर रोष उत्पन्न होता है . हालाँकि सब बागी नहीं बनते .
अच्छी समीक्षा . फिल्म देखने का मन बन रहा है .
जी हाँ अरुणेश जी, बिलकुल ठीक कहा आपने वाकई मुझसे यह बात छूट गयी। यहाँ इस बात को बताने के लिए आपका आभार :)
ReplyDeleteदेखनी है यह फिल्म ..बस जरा समय मिले.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है आपने ..
ReplyDeleteकल 14/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सार्थक ब्लॉगिंग की ओर ...
अच्छी समीक्षा है!
ReplyDeleteआप बहुत अच्छी समिक्षक हैं, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। जो समीक्षा दिल से की जाए, (दिमाग से नहीं) वह पाठकों से जुड़ जाती है। इसकी सबसे बड़ी सफ़लता यही है। दूसरी सफलता यह है कि यह पाठक को फ़िल्म देखने की रुचि जगा देती है। हम तो बस इसे देखने का मन बना चुके हैं।
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा,..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर समीक्षा |
ReplyDeleteपल्लवी जी
ReplyDeleteनमस्कार !
....बढ़िया समीक्षा देखनी है फिल्म अभी पर समीक्षा पढ़ ली अब देखने में मजा भी आयेगा
जरूरी कार्यो के ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ
पल्लवी जी
ReplyDeleteइस बार ब्लॉग पर
...कुछ हट के .....मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
kash iss post ko padhne ke baad gift me iss movie ki CD mil jati:))
ReplyDeletewaise dekhna padega... ek shandaar movie ki shandaar sameekshha ko padhne ke baad, hamne to yahi man banaya hai:)
ReplyDeletebahut hi sundar sameeksha hai pallavi ji.... film to dumdaar hai hi.... :)
ReplyDeleteपल्लवी जी, बहुत ही अच्छी समीक्षा की है आपने...परफेक्ट!!
ReplyDeleteऐसी फ़िल्में कभी कभी बनती है..
तिगमांशु मेरे पसंदीदा डाइरेक्टर हैं...और ये हासिल के बाद उनकी सबसे अच्छी फिल्म है...
इरफ़ान ने किरदार ने तो अंदर तक हिला दिया...
Hats off to irfaan and tigmanshu dholakia!!
सब जगह प्रशंसात्मक समीक्षा की गई है। ज़रूर कुछ बात है।
ReplyDeleteबहुत सही समीक्षा की है...फिल्म बहुत रोचक और लीक से हटकर है...लाज़वाब निर्देशन और उत्कृष्ट अभिनय...
ReplyDeleteप्रशंसात्मक समीक्षा .कोई इंसान कभी बुरा नहीं होता , बस हालात उसे बुरा बन्ने पर मजबूर कर देते हैं . बहुत से पान सिंह आज
ReplyDeleteइस सिस्टम के शिकार हो रहे हैं .
अभी फिल्म देखी नहीं है , मगर आपकी समीक्षा पढ़कर अब आने वाले इस रविवार को जाना ही पड़ेगा
lgta hai film dekhni pdegi,bahut umda smiksha likhi aap ne
ReplyDeleteआपने अपना नजरिया पेश किया है तब तो जरुर ही कोई खास बात होगी.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete1982 के बाद मैंने थिएटर में कोई फिल्म नहीं देखी. लेकिन आपकी अनुशंसा पर मौका मिलते ही देखूँगा.
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