आज बरसों बाद दोनों उम्र के उस पड़ाव पर आकर एक दूसरे से मिल रहे हैं। जहां मोहिनी का मोह लगभग खत्म होने को है, बालों में सफेदी आ चुकी है आँखों से भी अब ज़रा कम ही दिखाई देता है। मगर आज इतने सालों बाद मिलने पर भी दोनों के दिल ऐसे धड़क रहे हैं जैसे कोई पहली बार प्यार के इज़हार में मिला करता है, दोनों अपनी अपनी यादों को ताज़ा करते हुए एक दूसरे की पसंद को याद करते हुए मिलने से पहले तैयार होते हैं मोहिनी अपनी यादों को ताज़ा करते हुए मोहित की पसंद को याद करती है और अपने लिए गुलाबी साड़ी का चयन करती है। मगर आईने में खुद को देख ज़रा ठिठकती है, कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर शायद यह रंग उस पर अच्छा ना लगे और कहीं लोग यह न कहें कि "बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम", असमंजस में पड़ी मोहिनी कुछ देर उस गुलाबी साड़ी को अपने हाथों में लपेटे सोच में पड़ जाती है। उधर मोहित भी मोहिनी के ख़्याल में गुम उसकी पसंद के बारे में सोचकर मंद-मंद मुसकुराता है और गहरे नीले रंग की शर्ट का चयन करता है तब उसे बहुत याद आता है वो पल जब मोहिनी ने खुद उसके लिए यह गहरे नीले रंग की शर्ट पसंद की थी और कहा था तुम्हारे गोरे रंग पर यह रंग बहुत खिलता है मोहित, रात में मुझे यही रंग नज़र आता है यदि तुम यह रंग पहनोगे तो मुझे ऐसा महसूस होगा कि रात में भी तुम मेरे नजदीक ही हो।
अभी दोनों एक दूजे के ख्यालों में खोये हुए हैं ,कि सहसा दोनों की नज़र घड़ी की ओर जाती है और दोनों ही दुनिया की परवाह किये बगैर एक दूजे की पसंद को ध्यान में रखकर तैयार होते हैं और तय की हुई जगह पर मिलने के लिए पहुंचते है, एक दूजे को देखते हुए जैसे दोनों के मन से एक ही बात आहिस्ता से निकलती है "कुछ याद आया" ओर एक खूबसूरत सी मुस्कान के साथ सारा माहौल खुशगवार सा हो गया। मोहित ने मोहिनी से कहा आज भी तुम पर यह गुलाबी रंग उतना ही खिलता है मोहिनी जितना कि तब खिला करता था। मोहिनी ने उस वक्त भी अपनी मोहक सी मुस्कान के साथ मुसकुराते हुए कहा अच्छा मगर इस गुलाबी साड़ी के साथ यह सफ़ेद शाल और इन सफ़ेद बालों के कोंबिनेशन के बारे में तो तुमने कुछ कहा ही नहीं, और दोनों खिलखिलाकर हंस दिये। बातों ही बातों में कब समंदर के किनारे बैठे-बैठे सुबह से शाम हो चली थी पता ही नहीं चला, समय अपनी गति से बीत रहा था। शाम से रात भी हो गई तभी मोहित ने कहा चलो उठो आज फिर हम उन्हीं दिनों की तरह समंदर के किनारे चाँदनी रात में हाथों में हाथ लिए चलते हैं कहीं दूर,....और गुनगुनाते हुए यह गीत "न उम्र की सीमा हो, न जन्मों का हो बंधन ,जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन" दोनों समंदर के किनारे हाथों में हाथ लिए नर्म गीली रेत पर चलने लगे।
मोहित ने चाँद की तरफ इशारा करते हुए कहा, वो वहाँ देखो हमारी "अजब प्रेम की गज़ब कहानी" के कुछ मुट्ठी भर लम्हे, मोहल्ले की वो छत वो तुम्हारा बार-बार किसी न किसी बहाने से बाहर आना और मेरा तुम्हें बिना पलकें झपकाये निहारते रहना तुम्हें भी पता होता था, कि मैं तुम्हें ऐसी ही देखा करता हूँ हमेशा फिर भी तुम जान बुझकर मेरे सामने बार-बार आया करती थी। कई बार आँखों ही आँखों में तुमने पूछा था मुझसे ऐसे क्यूँ देखते हो कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा। मगर ना मेरा ही मन मानता था तुम्हें यूं देखे बिना और न तुम्हारा ही मन मानता था, एक अजीब सा चुम्बकीय आकर्षण हुआ करता था न उन दिनों हमारे बीच मैं बाहर आया नहीं कि मेरी आँखें तुम्हारी एक झलक पाने के लिए बेताब हो जाया करती थी और जैसे मेरी आँखों की बात तुम्हारे दिल को सुनाई दे जाती थी और नजाने कैसे तब तुम कहीं न कहीं से कैसे न कैसे मेरी नज़रों के सामने आही जाया करती थी। जबकि तुमको भी खुद पता नहीं होता था, कि मैं वहाँ हूँ भी या नहीं, कभी सहलियों के बीच कनकयों से मुझे देखती तुम, और कुछ भी नया किया होता तुमने तो इशारे से मेरी और देखते हुए आँखों ही आँखों में पूछ भी लिया करती थी तुम, फिर वो चाहे तुम्हारी नई नेल पोलिश का कोई नया शेड ही क्यूँ न हो। लगा लेने के बाद जब मुझसे सामना होता तुम्हारा तो सहसा अपने आप ही तुम अपने हाथों और उँगलियों का कुछ इस तरह प्रयोग किया करती थी कि ना चाहते हुए भी किसी की भी नज़र एक बार तुम्हारे हाथों पर चली ही जाये।
तुम्हारे हाव भाव से ही मैं समझ जाता था कि आज कुछ नया किया है तुमने, जिसे लेकर तुम मेरी पसंद और राय जानना चाहती हो, जाने क्यूँ सब कुछ जानते हुए भी यूं अंजान बने रहने में ही हमको मज़ा आता था। मेरी पसंद ही धीरे-धीरे तुम्हारी पसंद हो चली थी। खाने, पीने, पहने, ओढ़ने से लेकर सब कुछ तुम्हें वो ही पसंद आने लगा था जिसमें मेरी मंजूरी हो अगर मैं मज़ाक में भी किसी चीज़ को ना पसंद कर दूँ न तो तुम्हें दुबारा उस ओर देखना भी गवारा न हुआ करता था और एक बार क्या हुआ था याद है तुम्हें, तुम्हारी ही मासी की बेटी यानि तुम्हारी ही बहन से बात क्या कर ली थी मैंने, तुम्हारा मुंह बन गया था तुम्हें छोड़कर मैंने बात कैसे की किसी और लड़की से जबकि तुमसे तो आज तक मेरी बात भी नहीं हुई थी कभी, हमारे बीच जो कुछ भी होता था वो तो महज़ आँखों की जुबानी थी खुद मुंह से तो हम ने कभी बात की ही कहाँ थी। फिर भी तुम्हें इतना बुरा लगा था मानो मैंने बात करके कोई गुनाह कर दिया हो, तभी मोहिनी ने कहा हाँ तुम्हें भी तो ज़रा भी गवारा नहीं था कि मैं तुम्हारी पसंद के अलावा और कुछ पहनूँ या करूँ।
तुम्हें याद है वो उस साल होली पर एक पड़ोस की महिला ने ज़रा मेरे दुपट्टे को एक अलग ही ढंग से हटाते हुए मुझे रंग लगा दिया था। कितना नाराज़ हुए थे तुम, जाकर लड़ने तक को उतारू हो रहे थे हिम्मत कैसे हुई उनकी कि पहले तो उन्होने मुझे छुआ और फिर इस तरह से रंग लगाना कहाँ की शराफ़त है। अपना अधिकार जो समझते थे तुम मुझ पर, मजाल है तुम्हारे रहते कोई और मुझे निगाह उठा कर तो देख ले। तुम तो जान ही ले लो उसकी और गुस्से में तुम ऐसे गए वहाँ से कि जैसे अब कभी लौटकर वापस ही नहीं आओगे तभी चाँदनी रात की मंद रोशनी में मोहित ने मोहिनी का हाथ थोड़ा कस कर पकड़ते हुए उसे अपनी और खींच लिया और उसकी आँखों मे आँखें डालते हुए उसके बहुत करीब आकर उसके कानों के पास जाकर कहा, वो तो मैं आज भी बरदाश्त नहीं कर सकता कि मेरे अलावा तुम्हें और कोई देखे या छूये भी मोहिनी,... तुम मेरी हो, सिर्फ मेरी और सदा मेरी ही रहोगी, यह सुनकर मोहिनी की आँखें हीरे सी चमक रही थी। सागर की लहरों का शोर और रात की खामोशी जैसे दो दिलों की ज़ुबान बन चुकी थी। दोनों चुप थे मगर आँखें बोल रही थी। दोनों के दिलों की धड़कन ज़ुबान बनी हुई थी उस वक्त, सालों बाद एक दूसरे को इतना करीब महसूस किया था दोनों ने कि खुद पर काबू कमज़ोर हो चला था।
मगर इसे पहले की कुछ जज़्बात निकल पाते के तभी अचानक मोहिनी को अपने पैरों पर कुछ रेंगता हुआ सा महसूस हुआ और जो उसने देखा तो चीख निकल गई उसकी और वो ज़ोर से मोहित को पीछे की ओर धकेलती हुई खुद भी पीछे को हटी तो उसका मंगल सूत्र मोहित के कोट मे यूं अटका कि टूट कर बिखर गया। मगर उस वक्त उसका ध्यान अपने मंगलसूत्र पर ना जाते हुए नीचे ज़मीन पर उस रेंगती हुई चीज़ को देखने में ज्यादा था जिसके कारण उसकी तंद्र टूटी तभी उसने देखा एक केंकड़ा उसके पैर पर से रेंगता हुआ निकल गया। मगर तब तक उस केंकड़े कि वजह से दोनों के सपनों की तंद्रा टूट चुकी थी और अब दोनों भूत से निकल वर्तमान में आ चुके थे। मोहिनी ने अपने आपको और अपनी सफ़ेद शाल को संभालते हुए अपने मंगलसूत्र को देखा और मोहित से कहा, ज़िंदगी जितनी आसान दिखती है न मोहित उतनी आसान होती नहीं, यहाँ जो मिलता है उसकी चाहत नहीं होती ,जिसकी चाहत होती है वो यहाँ कभी मिलता ही नहीं, कहते है यहाँ जो होता है अच्छे के लिए ही होता है और हमारी ज़िंदगी का जो आधा सच आज तुम्हारे हाथ में है और जो आधा ज़मीन पर बिखरा पड़ा है ,पता नहीं उसमें क्या अच्छा था। मगर जो भी हो ज़िंदगी के यही अनुभव हमे ज़िंदगी को समझना सिखाते है, हाँ वो बात अलग है कि ज़िंदगी वो पहेली है जिसे जितना सुलझाने की कोशिश करो वह उतनी ही उलझती जाती है। इसलिए शायद अब हमारी राहें अलग हो चुकी हैं। अब हम एक नदी नहीं बल्कि उसी नदी के दो किनारे हैं। जो साथ तो चलते हैं मगर कभी मिलते नहीं....
sunder prem kahani ka dukhad ant........
ReplyDeleteप्रेम कहानी में अक्सर ऐसे द्ख्द मोड आते है,कहानी अच्छी लगी,..पल्लवी जी बधाई
ReplyDeleteNEW POST...फिर से आई होली...
यादों के सहारे नहीं ही चलतीं ज़िंदगियां
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteरंगों के त्यौहार होलिकोत्सव की अग्रिम शुभकामनाएँ!
उलझन को सुलझाकर ही प्रेम बढ़ाया जा सकता है..
ReplyDeleteप्रवीण जी ने ठीक कहा.
ReplyDeleteभावपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार.
होली की आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.
प्रेम उलझन न हो तो प्रेम का मज़ा ही क्या है?
ReplyDeleteप्रेम तो प्रेम होता है.....
ReplyDeleteमिलना और बिछडना इसके दो पहलू होते हैं
बढिया मार्मिक कहानी।
होली की शुभकामनाये .... कुछ रंगों-मालपुआ-गुझिया-अबीर की भी बात होनी चाहिए .... दुखद अंत फिर कभी कर लेंगे .... जिन्दगी बहुत लम्बी है ..... ??
ReplyDeleteEK haqiqat...aur kai sari kahaniyon ka anjaam...sundar prastuti pallavi ji.
ReplyDelete@ज़िंदगी वो पहेली है जिसे जितना सुलझाने की कोशिश करो वह उतनी ही उलझती जाती है। इसलिए शायद अब हमारी राहें अलग हो चुकी हैं। अब हम एक नदी नहीं बल्कि उसी नदी के दो किनारे हैं। जो साथ तो चलते हैं मगर कभी मिलते नहीं....
ReplyDeleteअजब खेल दिखाती है जि़ंदगी भी।
ये दुखद अंत या सुखद एहसास प्रेम का जो दिल में हमेशा रहता है ...
ReplyDeleteप्रेम कहानी में झंझावत , दुखांत एवं पठनीयता बेहतरीन . सुन्दर कथा .
ReplyDeleteप्रेम कहानियों के अंत ऐसे ही होते हैं तभी तो वो प्रेम कहानियाँ बनती हैं।
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteआपके इस प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 05-03-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
बड़े खूबसूरत खूबसूरत से मोमेंट्स हैं कहानी में :) :)
ReplyDeleteकुछ भी निश्चित नहीं जीवन में ..... सुंदर कहानी ....
ReplyDeleteज़िंदगी कैसी है पहेली भाई .... अच्छी कहानी ...
ReplyDeleteaksar aisa hi hota hai
ReplyDeleteवाह ...कहानी पढ़ने के बाद इसे जीवन का सच ही कहूँगी ........जो हैं वो सच नहीं .......और जो साथ नहीं वो ही हमने सच मान लिए हैं .....
ReplyDeleteहोली की दिल से शुभकामनएं
जो साथ तो चलते हैं मगर कभी मिलते नहीं....
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है आपने ...
jindagi kab kya dikha de...:)
ReplyDeleteशब्द -चित्र //
ReplyDeleteहोली के अवसर पर ... मैं शपथ पूर्वक घोषणा करता हूँ की मई ... प्यार की पिचकारी में कभी छेद नहीं करूंगा
होली रंगों से भरा हो
मेरे भी ब्लॉग पर होली खेलने आयें /
ज़िंदगी जितनी आसान दिखती है न मोहित उतनी आसान होती नहीं, यहाँ जो मिलता है उसकी चाहत नहीं होती ,जिसकी चाहत होती है वो यहाँ कभी मिलता ही नहीं.... अच्छी कहानी..मार्मिक कहानी।
ReplyDeleteइस तरह की कहानियों कि किताब होती तो ज्यादा मजा होता..लेटकर कहीं ख्यालों मे खोकर.....इबारत के साथ जी कर.....पढ़ने का मजा ही कुछ और होता....एक बेहतरीन सरल सीधी कहानी....या एक सच...
ReplyDeleteये जीवन है..इस जीवन का यही है रंग रूप..पठनीय कहानी.
ReplyDeleteमुझे याद कि आपने एक बार कहानी लिखने का उल्लेख किया था. यह कहानी एक मोड़ दे कर अपनी बात कह जाती है. मेरा विचार है कि कहानी का मुहावरा आपके हाथ में आ गया है. अच्छी कहानी के लिए बधाई.
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