भारत वापसी के बाद इस बार रामनवमी के शुभ अवसर पर जब मुझे कन्या भोज कराने का सुअवसर प्राप्त हुआ तब सर्वप्रथम मन में यही विचार आया कि कन्याएँ मिलेंगी कहाँ? वैसे तो मेरे पास-पड़ोस में कन्याओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन उस दिन सभी के घर भोज के निमंत्रण के चलते पहले ही कन्याओं का पेट इतना भर चुका होता है कि फिर किसी दूसरे घर में उन्हें मुँह जूठा करने में भी उबकाई आती है। इसलिए बुलाने पर वह घर तो आ जाती हैं, किन्तु बिना कुछ खाए केवल कंजका-उपहार लेना ही उनका एक मात्र उदेश्य रह जाता है, जिसे लेकर वह जल्द से जल्द अपने घर लौट जाना चाहती हैं।
ऐसे में कन्या-भोज सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। इससे न तो कन्या-भोज करानेवाले व्यक्ति को ही संतोष मिलता है और ना ही स्वयं कन्याएँ ही भोजन का आनंद ले पाती हैं। इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है। वह बेचारी भी क्या करें। नन्ही-सी जान भला कितना खाएँगी।
लेकिन चूंकि इस बार कन्या-भोज कराने का मन बना ही लिया था, तो किसी भी स्थिति में यह भोज तो मुझे कराना ही था। बस यही सोचकर मैंने भोग बनाया और मंदिर में जाकर जरूरतमंद कन्याओं को भोज कराने का मन बना लिया। मैं किसी भी कन्या को जोर-जबर्दस्ती से भोजन नहीं करवाना चाहती थी। उस दिन काम की अधिकता और लंबी पूजा हो जाने के कारण सुबह से दोपहर हो गई। दोपहर तक दिन व्यतीत हो जाने की चिंता से मुझे लगा कि अब बहुत देर हो गई है। मुझे पास-पड़ोस की कन्याओं की अपने घर आने की प्रतीक्षा व्यर्थ लगने लगी। सोचा, पता नहीं अब मंदिर में भी कोई कन्या मिलेगी भी या नहीं या फिर कहीं मंदिर के द्वार ही बंद न हों, और यदि ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा! इन्हीं चिंताओं से घिरी हुई मैं दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में मंदिर जा पहुंची।
वहाँ न सिर्फ माता के दर्शन हुए बल्कि चार-पाँच नन्ही-नन्ही कन्याओं को भोज कराने का अवसर भी मिला। शायद माता रानी की भी यही इच्छाथी। उस दिन मुझे एक पल के लिए लगा जैसे माँ मेरा मन टटोलना चाह रही थी। तभी मेरी नजर मंदिर में बैठी एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी, जो लगभग अस्सी साल की होंगी। पहले मन में आया कि कन्याओं को भोजन खिला दूँ, और फिर यदि भोजन बचेगा तो महिला को भी दे दूँगी। लेकिन मन न माना, तो मैंने उन्हें भी प्रसाद स्वरूप वही भोजन दे दिया, जो कन्याओं के लिए बनाया था। वृद्ध स्त्री ने जब काँपते हाथों से प्रसाद ग्रहण किया, तो यह देख व महसूस कर मन को असीम शांति मिली। हालांकि उस समय तक मैंने नौ कन्याओं को भोजन नहीं कराया था, लेकिन न जाने क्यों वृद्धा के उन काँपते हाथों ने मुझे उस पल इतना भाव-विभोर कर दिया कि मैं सम्पूर्ण कंजका-संस्कार भूलकर उसे भोजन कराने को आतुर हो गई।
इस सब के बाद भी नौ कन्याओं को भोजन कराने की इच्छा मन के किसी कोने में एक चुनौती की भांति चुभ रही थी। शायद मेरे मन की यह बात अब भी किसी न किसी माध्यम से माता रानी तक पहुँच रही थी। इसीलिए मन में अपने घर के पीछे बन रहे भवन में काम करनेवाले मजदूरों का विचार आया। मैं कंजका भोज लेकर तुरन्त वहां पहुंच गई। वहाँ मुझे तीन कन्याएँ दिखीं, जिन्हें मैंने अपने हाथों से भोजन कराया।
जिस समय मैं निर्माणाधीन भवन में पहुंची, वहाँ के मजदूर संयुक्त रूप से दोपहर का खाना खाने के लिए अपने-अपने खाने के डिब्बे खोलकर बैठ हुएथे। उनके साथ वहां उपस्थित तीन कन्याओं के पास भोजन का अपना-अपना डिब्बा जरूर था, लेकिन उनमें रखा भोजन देख मेरी आँखों में पानी आ गया। खाना क्या था, खाने के नाम पर रूखा-सूखा अन्न था। उस दिन यह सब देखकर आँखों से ज्यादा दिल रोया था।
उस दिन के अनुभव से मुझे सही मायने में खाने के वास्तविक मूल्य के बारे में पता चला कि खाना क्या होता है, भूख क्या होती है और हमें भोजनका सम्मान करना चाहिए। मेरे द्वारा दिये गए भोजन के प्रति उन कन्याओं की आँखों की चमक, खिले हुए मासूम चेहरे मेरी आँखों के सामने आज भी जीवंत हैं।
लेकिन वह नन्ही मासूम कलियाँ यह समझ ही नहीं पाई होंगी कि मैंने उन्हें वह खाना क्यों खिलाया था। भोजन कराने और उपहार भेंट करने के पश्चात जब मैंने उन नन्ही कलियों के चरण स्पर्श किए तो मुझे बिलकुल वैसे ही महसूस हुआ, जैसे मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चरण स्पर्श के बाद महसूस होता है।
यकीन मानिए उन तीन कन्याओं को भोजन कराने के बाद मेरे मन को जैसा सुकून, शांति मिली वह आज से पहले शायद ही कभी मुझे मिली हो।मन में तो यह आया कि उन्हें गले लगा लूँ, इतना प्यार करूँ कि थोड़ी देर के लिए ही सही, वह अपने सारे दुख-दर्द भूल जाएँ। लेकिन यह थोड़ी देर की बात नहीं थी। मेरे उन्हें कुछ क्षण गले लगाने से, उनके जीवन भर की खाने-रहने की जरूरतें पूरी नहीं होनवाली थीं। इसलिए मैं उन्हें भोजन कराकर तुरंत वापस आ गई और एक प्रण किया कि आज से जब भी कभी दान-दक्षिणा जैसी कोई भावना उत्पन्न हुई, तो किसी मंदिर जाने के बदले मैं किसी जरूरतमंद की सहायता करूंगी।
यह सच है दोस्तों कि दूसरों को सुख देकर, थोड़ी-सी हंसी या मुस्कुराहट देकर, मन में जो अपार सुख व शांति संचारित होती है, वह दुनिया के दूसरे काम और उसके पुरस्कार से संचारित नहीं हो सकती। दूसरों के दुख, तकलीफ़ें, परेशानियाँ देखने के बाद वाकई अपना हर गम, परेशानी बहुत छोटी लगने लगती है। इसलिए हमें उस ईश्वर का बहुत शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उसने हमें आज वह सब कुछ दिया है, जो दूसरों को नहीं मिला और जिस कारण आज हमें अपने जीवनयापन की कोई चिंता नहीं है।
उस दिन के बाद से मुझे यह एहसास हुआ कि वाकई भूखों, गरीबों की सेवा से बड़ी और कोई पूजा नहीं है और ना ही इससे बड़ा कोई धर्म ही है। क्योंकि जब किसी के कांपते हाथ आपके सिर पर आशीष के लिए उठते हैं, तो वह किसी धर्म विशेष की धार्मिक भावना से नहीं उठते। ऐसे हाथ केवल आशीर्वाद ही देते हैं। ठीक इसी तरह जब गरीब, गन्दे बच्चों के नन्हे हाथ हमसे कुछ पाकर खुशी से झूम उठते हैं, तो खुशी में फैला उनकी बाहों का हार हमारे जिस्म को गंदा नहीं करता, बल्कि हमारे मन में इकट्ठा जाति, धर्म, ऊंच-नीच की गंदगी को गंगाजल की भांति धो डालता है। इसके बाद हमारा मन साफ-सुथरा हो जाता है। मैं जानती हूँ कि यह बातें उपदेश जैसी ज़रूर हैं, लेकिन इन बातों के पीछे की भावनाएं वास्तव में सत्य हैं।
समझते हैं पल्लवी जी कितना अच्छा लगा होगा आपको. ये पढ़कर हमें भी उतना ही अच्छा महसूस हो रहा है :)
ReplyDeleteएक भावपूर्ण संस्मरण । भूखे को भोजन कराने के पश्चात् मिलने वाला सुख अवर्णनीय होता है।
ReplyDelete