हादसा जैसे किसी एक दुःख़ या तकलीफ़ का दूसरा नाम है शायद आपको याद हो बहुत पहले भी मैंने इसी विषय पर एक पोस्ट लिखी थी जिसमें मैंने भोपाल गैस कांड और बावरी मस्जिद का ज़िक्र किया था। मगर आज इस विषय पर लिखने का कारण कुछ और ही है और वह कारण है ग्लानि।आज भी जगह-जगह होते हादसे और दुर्घटनाएँ आतंकवादी गतिविधियाँ जिसमें हजारों क्या बल्कि लाखों बेगुनाह और मासूम लोगों की जाने चली चली जाती है। कई सारे परिवार अपने प्रियजनो को खो बैठते है। सिर्फ कुछ लोगों की लापरवाही के कारण आतंकवादी हमलों में तो फिर भी कुछ न कुछ मकसद छिपा होता है। भले ही वो कितना भी बुरा मकसद ही क्यूँ न हो, लेकिन दुर्घटनाओं में ऐसा कुछ नहीं होता खासकर आजकल रोज समाचार पत्रों में छपने वाली कोई न कोई बड़ी घटना जैसे कहीं रेल का पटरी पर से उतर जाना, तो कहीं डब्बों में आग लग जाना, या फिर सड़क चलते वाहनों के द्वारा फुटपाथ पर सोते हुए गरीब और बेसहारा लोगों को कुचला जाना, या बड़े स्तर पर विमान दुर्घटनाएँ होना। यह सभी ऐसी ही स्वाभाविक या यूं ही अचानक घट जाने वाली घटनाओं सी नहीं जान पड़ती इनका विवरण पढ़ने के बाद दिमाग में यही एक पहला ख़्याल आता है कि किसी न किसी की ज़रा सी लापरवाही ही एक बड़ी दुर्घटना का कारण बन जाती है। जैसे एक चिंगारी किसी बड़े अग्निकांड का रूप ले लेने में सक्षम होती है जो सोचने पर विवश कर ही देती हैं। किन्तु फिर भी हम उसके प्रति सचेत नहीं होते क्यूँ ?
जैसे आज ही की बात ले लीजिए तमिलनाडु में पटाखों के कारखाने में आग लग गयी जिसमें 30 लोगों की जान चली गयी ऐसा अपने आप तो नहीं हो सकता किसी न किसी की गलती ज़रूर रही होगी। जिसका खामियाज़ा उन 30 बेगुनाह लोगों को अपनी जान देकर भुगतना पड़ा। इसी तरह हर साल दिवाली पर लोग पटाखों की वजह से गंभीर रूप से घायल हो जाते है कभी खुद की लापरवाही के कारण तो कभी दूसरों के मज़ाक के कारण मगर इन सब हादसों या दुघटनाओं को यहाँ आप सब के बीच ज़िक्र करने का मेरा मकसद इन हादसों पर प्रकाश डालना नहीं है। बल्कि मेरा प्रश्न तो यह है कि क्या ऐसे किसी हादसे के बाद लोगों को अपने किए पर सारी ज़िंदगी कोई ग्लानि रहती है या नहीं ? या सिर्फ मुझे ही ऐसा लगता है। क्यूंकि आपके कारण जाने-अंजाने कोई मासूम या बेगुनाह अपनी जान से हाथ धो बैठे इससे बड़ा ग्लानि का कारण और क्या हो सकता है एक आम इंसान के लिए।
मैं तो यह सोचती हूँ जब नए-नए डॉक्टर के हाथों किसी मरीज की मौत हो जाती है तब उन्हें कैसा लगता होगा। क्या वह डॉक्टर उसे होनी या अनुभव का नाम देकर आसानी से जी लिया करते है। हालांकी कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज की जान जानबूझकर नहीं लेता। मगर हर डॉक्टर की ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसा मौका ज़रूर आता है खासकर सर्जन की ज़िंदगी में, जब जाने अंजाने या परिस्थितियों के कारण उनके किसी मरीज की मौत हो जाती है। तब उन्हें कैसा लगता है और वो क्या सोचते हैं। वैसे तो आज डॉक्टरी पेशे में भी लोग बहुत ही ज्यादा संवेदनहीन हो गए हैं जिन्हें सिर्फ पैसों से मतलब है मरीज की जान से नहीं, खैर वो एक अलग मसला है और उस पर बात फिर कभी होगी या फिर यदि उन लोगों की बात की जाये जो बदले की आग में किसी पर तेज़ाब फेंक दिया करते है। क्या ऐसा घिनौना काम करने के बाद भी वो उस व्यक्ति के प्रति ग्लानि महसूस करते होंगे ? शायद नहीं क्यूंकि यदि ऐसा होता तो शायद वो इतना घिनौना काम करते ही नहीं मगर क्या ऐसे लोग उस हादसे को महज़ एक होनी समझ कर भूल जाते है ? या ज़िंदगी भर कहीं न कहीं दिल के किसी कौने में उन्हें इस बात की ग्लानि रहा करती है कि उनकी वजह से किसी की ज़िंदगी बरबाद हो गयी या जान चली गयी क्या इस बात का अफसोस उन्हें रहा करता है ? क्या ऐसे पेशे में यह बात इतनी साधारण और आम होती है जिस पर बात करते वक्त उस हादसे से जुड़े लोगों के चहरे पर किसी तरह का कोई अफसोस या एक शिकन तक नज़र नहीं आती।
कितनी आसानी से लोग उस हादसे के बारे में अपने साक्षात्कार के दौरान उस हादसे से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी देते नज़र आते हैं कि किन कारणों कि वजह से यह हादसा हुआ। एक दिन ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे उन लोगों को देखकर ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यह लोग खुद की सफाई दे रहे हो, कि इन हादसों के पीछे जिम्मेदार हम नहीं तकनीक थी जिसके चलते आप इन हादसों का जिम्मेदार केवल हमें नहीं ठहरा सकते। मुझे तो वह कार्यक्रम देखकर ऐसा भी लगा जैसे वह लोग अपने ज़मीर को समझाने के लिए खुद को बेकसूर थे हम, यह समझाने का एक असफल प्रयास कर रहे हों। मगर फिर दूसरे ही पल मुझे यह ख़्याल भी आया कि आखिर कुछ भी हो, हैं तो वो भी इंसान ही। हो न हो उनको भी अंदर ही अंदर अपने दिल के किसी कोने में इन हादसों का अफसोस ज़रूर रहता होगा कि उनकी ज़रा सी लापरवाई का खामियाज़ा इतने सारे बेकसूर लोगों को अपनी जान देकर भुगतना पड़ा।
मगर सोचने वाली बात है लापरवाही एक बार हो तो फिर भी समझ आता है। लेकिन वही गलती दूसरे रूप में फिर दुबारा हो तो उसे क्या कहेंगे आप ??जैसा की अपने इंडिया में आए दिन होता रहता है एक दिन भी ऐसा नहीं गुज़रता यहाँ जब समाचार पत्रों या टीवी न्यूज़ चैनलों पर ऐसी कोई बड़ी दुर्घटना की कोई ख़बर न हो और जब आप अपने आसपास के लोग पर इन विषयों पर बात करो तो एक अलग ही नज़रिया सामने आता है लोग कहते है अरे इतना बड़ा देश है अपना, यह सब तो चलता ही रहता है और वैसे भी बढ़ती जनसंख्या का बोझ पहले ही कम नहीं देश के नाजुक कंधों पर, ऐसे हालातों में यदि 100 ,50 लोग मर भी गए तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता। क्या पता प्रकृति इसी तरह संतुलन बनाए रखने की कोशिश करती हो।यह सब सुनकर दो मिनट के लिए तो मेरे जैसों का चेहरा आवाक सा रह जाता है। जिस देश के लोग ही अपने आप में ऐसा महसूस करते हों वहाँ भला किसी को क्या फर्क पड़ेगा और क्या ग्लानि होगी। यह तो कुछ वैसी ही बात हुई जैसे वो कहावत है न
"जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई"
वैसे देखा जाये तो जाने वाला चला जाता है, लेकिन उसके जाने से ज़िंदगी नहीं रुकती न ठहरती है कहीं, मगर मुझे ऐसा लगता है कि किसी अपने के जाने से जैसे दिल के अंदर की कोई एक धड़कन मन में अटक कर रह जाती है। जिसे यादों का सैलाब बार-बार आकर झँझोड़ता है, निकाल बाहर करने के लिए। मगर उस शक्स से जुड़ी यादों का आवेग उस धड़कन को बाहर आने ही नहीं देता कभी और सारी ज़िंदगी हमें उस इंसान की याद दिलाता रहता है उन जख्मों को तो वक्त का मरहम भी सुखा नहीं पाता कभी, कहने को हम बाहर से एक सूखे हुए ज़ख्म पर पड़ी बेजान खाल की पपड़ी की तरह नज़र आते है। मगर अंदर से वो ज़ख्म वास्तव में कभी सूखता ही नहीं....तब हम कैसे कह सकते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये ज़िंदगी किसी के लिए नहीं रुकती वो तो निरंतर चलती ही रहती है एक बहती हवा की तरह, एक बहती नदी की तरह, जो आगे बढ़ने के साथ अपने साथ लिए चलती इंसान के अच्छे बुरे पल।
मगर क्या वाकई ऐसे हादसों के बाद ज़िंदगी चलायमान रहती है?? या यह भ्रम मात्र होता है हमारे मन का कि जी रहे है हम उनकी यादों के सहारे, मेरा ऐसा मानना है कि कोई किसी कि यादों के सहारे नहीं जी सकता। यह सिर्फ कहने की बातें हैं जो किताबों में अच्छी लगती हैं वास्तव में ऐसा नहीं होता। क्यूंकि यादें यदि अच्छी होती है, तो बुरी भी होती है। इंसान को अपने दुखों के साथ यदि जीना पड़े तो उसके पीछे भी ज़िंदगी का कोई मक़सद होना ज़रूर होता है। बिना किसी मक़सद या ज़िम्मेदारी के जीवन जिया नहीं जा सकता। खासकर किसी ऐसे हादसे से जुड़ी कोई ग्लानि के साथ कम से कम मेरे जैसे लोग तो नहीं जी सकते। यह मेरी सोच है आपको क्या लगता है।
अलग अलग हालातों में हादसों के कारण भी अलग होते हैं तो जाहिर है उसपर प्रतिक्रिया भी अलग ही होती है.
ReplyDeleteजैसे किसी डॉक्टर के हाथों किसी मरीज की मौत की तुलना आप किसी के मर्डर से नहीं कर सकते.जानबूझ कर किसी की जान लेने में और हादसा वश किसी की जान जाने में फर्क होता है.
जहाँ तक बात अपराधिक हादसों की है तो उनमें अपराधिक प्रवर्ती के लोग लिप्त होते हैं बल्कि मैं तो उन्हें मानसिक रोगी की श्रेणी में रखती हूँ.अत: उन्हें तो क्या ही ग्लानी होती होगी.
ग्लानि तो होती ही है....मगर दूसरे लोगों के लिए यह मात्र समाचार होता है और जिसके साथ ये गुजरा हो...भंयकर हादसा..
ReplyDeleteजिसके साथ होता है, उसे ही पता चलता है..जीवन फिर भी आगे बढ़ता है।
ReplyDelete"जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई"
ReplyDeleteसारे प्रश्नों का उत्तर इसी मे छिपा हुआ है.
शिखा की बात से सहमत. डॉक्टर जानबूझ कर ऐसा नहीं करते और अगर कभी ऐसा होता है तो फिर अपने प्रयास को विफल मान कर एक सबक लेते हें. लेकिन जब वही डॉक्टर अपने को व्यवसायी बना लेते हें तो फिर उनके लिए पैसा सर्वोपरि होता है. वे लाशों से भी पैसा निकलवा लेते हें . परिजनों को तब तक शव नहीं देते जब तक कि पूरा भुगतान नहीं ले लेते हें. मृत्यु के बाद भी दो चार घंटे ICU में रखे रहते हें.
ReplyDeleteग्लानी उन्हें होती है जहाँ हादसा भूलवश या फिर लापरवाही से हो जाए और वह इंसान वाकई इंसान हो. अन्यथा दुर्घटना करके भागने वालों की कमी नहीं है. वैसे अब इंसानियत का जज्बा ख़त्म होता जा रहा है. हत्या कर देना तो गुल्ली डंडा जैसा खेल हो चुका है.
बढिया
ReplyDeleteआज की बात
इंसान से ग़लतियां होती ही हैं। इंसान ग़लतियों से सीखता है। मानव जाति के पास आज जो भी ज्ञान है। वह इसी तरह अर्जित हुआ है। ग़लतियों से मन में ग्लानि और पश्चात्ताप भी पैदा है और मन ग्लानि के बोझ से मुक्त हो जाए इसके लिए ही प्रायश्चित का विधान रखा गया है। किसी भी चीज़ में मन ऐसा उलझकर न रह जाए कि इंसान की तरक्क़ी रूक जाए। इसका ध्यान सदा रखना चाहिए।
ReplyDeleteमाल के लालच ने इंसान की सही ग़लत की तमीज़ विकृत कर दी है और वह पश्चात्ताप और आत्मसुधार को भी भुला बैठा है। इंसान अपनी मौत को याद रखे तो वह अपने जीवन की क़ीमत को समझ सकता है वर्ना उसकी मौत तो क्या उसका जीना भी एक हादसा बनकर रह गया है। जो लोग हादसों में मर गए, वे मर तो गए। अब तो जीना भी दुश्वार हो रहा है। सड़कों पर चलना तो क्या घरों में रहना भी सुरक्षा की गारंटी नहीं बचा। घरों तक में ऐसे हादसे वुजूद में आ रहे हैं कि उन्हें न तो भुलाए बनता है और न ही कोई प्रायश्चित उन बुरी यादों को मन से निकाल पाता है।
हम तो अपने बच्चों का जब घर से बाहर स्कूल वग़ैरह भेजते हैं तो पहले अल्लाह के दो नाम ‘या हफ़ीज़ू या सलाम‘ चंद बार पढ़कर उनकी हिफ़ाज़त और सलामती की दुआ करते हैं फिर उन पर दम करते हैं। जहां इंसान की तदबीर काम नहीं देती दुआ वहां भी काम आती है।
पोस्ट अच्छी लगी।
इसे यहां सहेज दिया गया है-
http://commentsgarden.blogspot.in/2012/09/dua-for-safety.html
किसी की गलती से अगर कोई अपना जीवन खो दे तो ज़रूर आत्म ग्लानी तो होती ही होगी...... और वो जीवन भर महसूस भी करता ही होगा ....
ReplyDeleteनहीं लगता कि संवेदनशील व्यक्ति आपकी सोच से हट कर कुछ और सोच सकता है. बहुत बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteजब कोई अपना खोता है तब ग्लानी का मतलब पता चलता है,औरों के लिए तो बस एक समाचार ही होता है |
ReplyDeleteआज के परिप्रेक्ष्य में एक सार्थक लेख |
आभार |
मेरा मानना है डाक्टरों को इस बात से अलग सोच के चलना ठीक रहेगा .. क्योंकि ग्लानी भाव से कई बार कई लोग अनेक काम नहीं करते और अगर डाक्टर ने ऐसा किया तो ठीक नहीं रहेगा .. .
ReplyDeleteये भी काश है की आजकी तेज जिंदगी में बातें आसानी से भूल जाती हैं और ग्लानी के साथ भी ऐसा रहता है ... हां कभी कभी ये भाव ज्यादा हो जाता है जब कोई हादसा सामने से गुज़र जाए ... या याद आ जाये ...
जीवन में कब कहाँ क्या हो जाये कुछ नहीं पता.....बहुत सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteजिसके सामने ज़िन्दगी जिस रूप में आती है उसके पास उसे स्वीकार करने के अलावा चारा ही क्या है ...?अपनी करनी से उसे निरंतर सुधारा जा सकता है ...किन्तु जो सहता है वही जानता है ...अच्छी लगी आपकी पोस्ट ...
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ReplyDeleteवैसे देखा जाये तो जाने वाला चला जाता है, लेकिन उसके जाने से ज़िंदगी नहीं रुकती न ठहरती है कहीं, मगर मुझे ऐसा लगता है कि किसी अपने के जाने से जैसे दिल के अंदर की कोई एक धड़कन मन में अटक कर रह जाती है। जिसे यादों का सैलाब बार-बार आकर झँझोड़ता है, निकाल बाहर करने के लिए। मगर उस शक्स से जुड़ी यादों का आवेग उस धड़कन को बाहर आने ही नहीं देता कभी और सारी ज़िंदगी हमें उस इंसान की याद दिलाता रहता है उन जख्मों को तो वक्त का मरहम भी सुखा नहीं पाता कभी, कहने को हम बाहर से एक सूखे हुए ज़ख्म पर पड़ी बेजान खाल की पपड़ी की तरह नज़र आते है। मगर अंदर से वो ज़ख्म वास्तव में कभी सूखता ही नहीं....तब हम कैसे कह सकते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये ज़िंदगी किसी के लिए नहीं रुकती वो तो निरंतर चलती ही रहती है एक बहती हवा की तरह, एक बहती नदी की तरह, जो आगे बढ़ने के साथ अपने साथ लिए चलती इंसान के अच्छे बुरे पल
कबीर दास जी कह गए हैं -
मन फूला फूला फिरे जगत में झूठा नाता रे ,
जब तक जीवे ,माता रोवे ,बहन रोये दस मासा रे ,
तेरह दिन तक तिरिया रोवे ,
फेर करे घर वासा रे .
ये संसार यूं ही चलता रहता है लेकिन यह बात उन्होंने मानवीय संबंधों और मृत्यु पर्व की शाशवत -ता पर कही है .
दुर्घटनाएं अलग किस्सा हैं .मानव जनित भी हैं ,सुविधाओं के अभाव में भी हैं ,इस देश में स्टेशन पर लोग सीढ़ी रखतें हैं ,ट्रेन की छत पे चढ़ने के लिए ,पुलिसवाला सीढ़ी पकडे रहता है नीचे से कोई गिर न जाए .इलेक्त्रोक्युसन होता है कितनों का ही ,लोग चलती रेल बसों में दौड़ के चढ़तें हैं पायेदानों पे चालीस आदमी लटके होतें हैं ,
खटारा हो चुकी पटरियों पर तेज़ रफ़्तार रेलगाड़ी दौड़ती है ,मानव -रहित रेल के फाटक है ,नकली दवाएं हैं ,पूरा इंतजाम है मरने का-
हो गई हर घाट पे पूरी व्यवस्था ,शौक से डूबे जिसे भी डूबना है|
और इस देश में नव -रईसों की रोड रेज को आप कैसे भूल गईं जहां बड़ी गाड़ियां (स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल ) पेट्रोल से नहीं शराब से चलती हैं ,फुटपाथ पे चढके चिल्लातीं हैं ,करामाती गाड़ियां हैं हम कहीं भी चढ़ सकतीं हैं ,भिखमंगे हैं स्साले फुटपाथ पे सोने चले आतें हैं .
संवेदना का टोटा इस देश में खैरात बटती है दुर्घटनाओं के बाद .इक है खान परिवार मुंबई में इनकी गाड़ियां हमेशा नशे में रहतीं हैं .
भटके हुए इस्लाम के पैरोकार -विचार बेचतें हैं जो काफिरों का खात्मा करता है उसे जन्नत मिलती है जन्नत में हूरें मिलतीं हैं .
बहुत वृहद् विषय उठाया लिया है आपने .
यहाँ स्कूल का रिक्शा साठ साठ बच्चों से लदा भी आपको मिल जाएगा ,टेम्पो में और भी लोग समायोजित कर दिए जाते हैं .दुर्घटना यहाँ अब इक कर्म काण्ड है खैरात बांटने का मौक़ा देतीं हैं राजनेताओं को .जी करता है दुर्घटना होवे .वोट बेंक बढे .
बाढ़ और सूखे के पुनरा वर्तन भी यहाँ मानव जनित है जंगलों के सफाए का प्रतिफल हैं .शहर में लकड़बघ्घा ,चीता चला आता है बंदरों का तो मेला लगा रहता है गली चौराहों पर गाय माएं जुगाली करतीं हैं आराम से .
यहाँ तो सुनामी भी मानव जनित हैं झगड़ा करवा दो कहीं भी .पुलिस के हाथ बाँध दो ,वोटिस्तान है यह ,दुर्घटनाओं की पनाहगाह .ram ram bhai
शनिवार, 15 सितम्बर 2012
सज़ा इन रहजनों को मिलनी चाहिए
जी सही कह रहे हैं आप अब जो हालात हैं उन्हें देखकर तो ऐसा लागता है कि इंसान के अंदर की सारी समवेदनायें ख़त्म सी होती जा रही है इसलिए यह दुर्घटनाएँ और हादसों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा आज हर कोई सिर्फ अपने अपने बारे में सोच रहा है और उसके लिए जो भी संभव वो करने के लिए तैयार है फिर भले ही उसमें किसी का जीवन नष्ट होता हो तो हुआ करे।
ReplyDeleteइस जिंदगी में कब क्या हो जाएगा कहा नही जा सकता। पोस्ट अच्छा लगा। मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है। धन्यवाद।
ReplyDeleteबढ़िया लेख
ReplyDeleteGyan Darpan
जीवन बहुमूल्य है इसमे गलतियों का स्थान नहीं है ......अगर हो जाती हैं तो उम्र भर पछताना ही पड़ता है | अच्छी पोस्ट के लिए बधाई पल्लवी जी |
ReplyDeleteहादसे किसी भी परिवार को तहस नहस कर जाते है , विशेषतः भारत में सड़क हादसे दुनिया में सबसे ज्यादा होते है . अभी पीछ्ले महीने ही ऐसे ही एक वाकये से मै दो चार हुआ. मेरे एक रिश्तेदार की पत्नी को प्रसव के बाद डॉक्टर ने बिना जाँच किये ऐसे दवाइयां दी की उनकी दोनों किडनी ने उसके दुष्प्रभाव से कम करना बंद कर दिया..इसे क्या नाम देंगे लापरवाही या निकृष्ट व्यापारिक मानसिकता . आपने बहुत अच्छा लिखा है . आत्ममंथन करवाता आलेख .
ReplyDeleteसार्थकता लिए सटीक प्रस्तुति।
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