Monday, 24 September 2012

निर्णय


आज एक किस्सा आप सबके समक्ष रखना चाहती हूँ कहने को तो बात कम से कम शब्दों में भी कही जा सकती है। मगर यदि कम शब्दों में कहने के चक्कर में, मैं बात को ठीक तरह से कह नहीं पायी तो हो सकता है, विषय के प्रति इंसाफ न हो पाये। यूं तो बात सिर्फ निर्णय की है सिर्फ निर्णय इसलिए कहा क्यूंकि मेरी नज़र में सही या गलत कुछ नहीं होता। वह तो हर व्यक्ति के अपने नज़रीये पर निर्भर करता है कि किसको कौन सी चीज़ सही और कौन सी चीज गलत लगती है। ऐसे ही आज एक किस्से को लेकर मुझे आप सब के विचार जानने है आपका नज़रिया क्या है उस एक निर्णय के प्रति जो मैं अब आपको बताने जा रही हूँ। बात कुछ यूं है कि हम बचपन से यही देखते और सुनते आ रहे हैं कि सभी बच्चों को अपने बड़ों की बात माननी चाहिए। खासकर अपने माता-पिता की, क्यूंकि वह अपने बच्चों के विषय में जो भी सोचेंगे उसमें निश्चित तौर पर कोई न कोई अच्छाई ही छिपी होगी। जो अधिकतर मामलों में छिपी भी होती है क्यूंकि कोई भी अभिभावक अपने बच्चों का बुरा कभी नहीं सोचते इसलिए हम भी अपने बच्चों को भी वही शिक्षा देते है। मगर क्या हमेशा हमारा अपने बच्चों के प्रति लिया गया निर्णय सही ही होता है ? इसी बात से जुड़ा है यह किस्सा या एक छोटी सी कहानी....निर्णय

यह एक लड़की की छोटी सी कहानी है वह लड़की कोई भी हो सकती है इसलिए उसका कोई नाम नहीं दिया मैंने वह लड़की जिसने हमारी और आपकी तरह अपने परिवार से यही सीखा कि "जो न माने बड़ों की सीख लिए कटोरा मांगे भीख" अर्थात जो अपने माता-पिता की बात नहीं मानता उसे सदैव जीवन में पछताना ही पड़ता है और इसलिए उसने हमेशा अपनी माँ की हर बात मानी उसकी ज़िंदगी के लगभग सारे फैसले उसकी माँ ने ही किए जैसे कैसे कपड़े पहनना है, कौन सा रंग पहना है, कौन सा विषय लेना है यहाँ तक कि शादी भी, जाने क्यूँ लड़की को कभी एतराज़ नहीं हुआ अपनी माँ के द्वारा लिए हुए अपनी ज़िंदगी के फैसलों को लेकर और यदि शायद कभी हुआ भी होगा तो उसकी माँ के अनुशासन तले उसका विरोध कहीं दबकर रह गया। ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि उसके मन पर उस उपरोक्त लिखी कहावत ने बचपन से इतना गहरा प्रभाव छोड़ा था कि हर छोटी-छोटी बात में जब ऐसा कुछ होता कि उसने अपनी माँ की कही बात ना सुनी होती तो नतीजा भी विपरीत ही आता और उसकी माँ उसे यही समझती देख मैंने कहा था न ऐसा मत करना वरना यह हो जाएगा, मगर तू नहीं मानी, अब हुआ न वही जो मैंने कहा था।

ऐसे में लड़की को धीरे-धीरे यह बात सच लगने लगी मगर अब लड़की का जीवन अलग है। अब उसकी शादी हो चुकी है उसका एक बेटा भी है खुश किस्मत है वह कि सब कुछ अच्छा मिला है उसे, भरा पूरा घर परिवार और एक बहुत प्यार करने वाला पति, लेकिन एक संतान के बाद उसकी ज़िंदगी में दो और संतानों का मौका आया मगर वह दोनों ही संताने उसके जीवन में आ ना सकी। क्यूंकि दोनों ही बिना सोचे समझे हो जाने वाली भूल का नतीजा थी। इसलिए इस संबंध में भी लड़की की माँ ने लड़की की आयु या यूं कहें कि परिस्थित को देखते हुए उसे गर्भपाथ का ही सुझाव दिया। लड़की ने इस विषय में कोई भी कदम उठाने से पहले अपने पति से भी पूछा और पति ने भी यह कहा तुम देख लो जो भी तुम्हारा निर्णय होगा मैं उसमें राजी हूँ। उसके पति का ऐसा कहने के पीछे शायद उसके मन में दबी यह भावना थी कि कहीं ऐसा न हो कि आगे जाकर कोई बात हो और ज़िंदगी भर मुझे यह सुनना पड़े कि तुम्हारे कारण ही ऐसा हुआ। मगर आज दोनों ज़िंदगी के जिस मोड़ पर खड़े हैं, वहाँ आज उनकी इकलौती संतान बड़ी हो रही है और लड़की को उसकी आँखों में आज अपनी गलती की झलक दिखाई देती है। उसका बेटा उसे कभी क़हता तो कुछ नहीं है, मगर कहीं उसके दिल में यह सवाल आता है कि माँ आप लोगों ने मुझे अकेला क्यूँ रखा औरों कि तरह मेरा भी कोई भाई या बहन क्यूँ नहीं है लड़की को समझ नहीं आता कि वो अपने बेटे के उस सवाल का क्या जवाब दे। यह सब सोचते हुए लड़की को कई बार यह ख़याल आता है कि क्या उसने अपनी माँ की बात मानकर सही किया या फिर माँ बाप के द्वारा अपने बच्चों के लिए गए निर्णय हमेशा सही नहीं होते, कभी-कभी माँ-बाप का एक गलत फैसला बच्चों को ज़िंदगी भर पश्चाताप करने के लिए मजबूर भी कर सकता है।

वैसे मेरा मानना तो यह है कि संतान से संबन्धित कोई भी फैसला लेने का अधिकार केवल माता-पिता को है इसलिए उन्हें यह निर्णय एक दूसरे से सहमत होने के बाद ही लेना चाहिए। यदि दोनों में से कोई एक भी दूसरे से सहमत न हो तो इस बारे में नहीं सोचना चाहिए क्यूंकि महज़ अपने किए की सज़ा किसी मासूम को देने का अधिकार आपको नहीं वो भी उसे जो अभी ठीक तरह से इस दुनिया में आया भी नहीं, यह कोई महज़ ज़िंदगी के उतार चढ़ाव का दूसरा नाम नहीं है बल्कि यह किसी की ज़िंदगी से जुड़ा अहम सवाल है जिसका असर परिवार के हर एक सदस्य पर पड़ता है चाहे वो छोटा बच्चा ही क्यूँ ना हो पुराने जमाने की बात अलग थी जब अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से ऐसी बातें बड़ी आसानी से छिपा लिया करते थे। क्यूँकि उस जमाने में एक नहीं दो नहीं बल्कि 4-5 बच्चों का ज़माना हुआ करता था। साथ ही संयुक्त परिवार भी जिसके कारण लाख आपसी मत भेद होने के बावजूद भी किसी को अकेला पन महसूस नहीं होता था।   

लेकिन यह आज की कहानी है, आज की बात है क्यूंकि आज तो एक ही संतान को अच्छे से पढ़ा लिखाकर एक सभ्य इंसान बनाना ही किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है ...ऐसे में क्या उस लड़की का अपनी माँ की बात मानने का निर्णय सही था या गलत। यदि गलत था तो फिर अब हमें अपने बच्चों को यह सीख देना बंद कर देनी चाहिए कि बड़ों का अपने बच्चों के प्रति लिया गया निर्णय हमेशा सही होता है या फिर बचपन से ही उन्हें अपना हर छोटा बड़ा निर्णय स्वयं लेने की आज़ादी दे देनी चाहिए, वह भी बिना किसी दखल अंदाजी के, क्यूंकि इस पूरी कहानी में केवल वो लड़की ही गलत थी, ऐसा मुझे कहीं नहीं लगा जो भी हुआ उसकी जिम्मेदार अकेली वह नहीं बल्कि उसे जुड़े सभी लोग हैं। फिर चाहे वो उसकी माँ हो या पति या फिर वो खुद क्या अब यह सब जानकार आप बता सकते हैं कि अपनी उन दोनों अनचाही संतानों के प्रति लिया गया उसका निर्णय सही था या गलत क्या उसे अपनी उन दोनों संतानों को दुनिया में आने देना चाहिए था ?? आप को क्या लगता है ??                      

26 comments:

  1. बहुत ही उम्दा पोस्ट पल्लवी जी आभार |
    www.sunaharikalamse.blogspot.com

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  2. लेकिन यह आज की कहानी है, आज की बात है क्यूंकि आज तो एक ही संतान को अच्छे से पढ़ा लिखाकर एक सभ्य इंसान बनाना ही किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है
    ..............aapki baton se sehmat hai

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  3. बहुत चीजों पर निर्भर करता है इसका उत्तर। बच्चे उतने ही होने चाहिये जिन पर समुचित ध्यान दिया जा सके।

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  4. बहुत से बातें हालातों पर निर्भर करती है ....और हालात बदलते रहतें हैं ...
    हर माँ-बाप अपनी सन्तान का सुख चाहता है ,,इसमें कोई शक नही !
    आप की अच्छी सोच के लिये ..
    शुभकामनायें!

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  5. हर माँ बाप अपने सन्तान को सुखी देखना चाहता है,,,,लेकिन परिस्थितियों के आगे बेबस हो जाता है,,,
    आपके अच्छे विचार प्रसंसनीय है,,,

    RECENT POST समय ठहर उस क्षण,है जाता

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  6. कोई भी फैसला एक नहीं बहुत सी बातों पर निर्भर होता है, हालातों पर निर्भर होता है.ऐसा कोई नहीं कहता कि आँख कान बंद करके माता पिता की बात मानो.बल्कि कहा जाता है बच्चा जितनी जल्दी अपने फैसले लेने काबिल हो जाये अच्छा है.हाँ खुले दिमाग और दिल से बड़ों की बात सुननी जरुर चाहिए.

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  8. नितांत व्यैक्तिक निर्णयों में किसी बड़े बुजुर्ग की सलाह लेना तो ठीक लेकिन बाद में उनको इस निर्णय के लिए उत्तरदाई ठहराना उचित प्रतीत नहीं होता . संतानोत्पति का निर्णय बुजुर्ग से ज्यादा दंपत्ति का कार्यक्षेत्र है . वैसे भी अगर दंपत्ति का स्वास्थ्य और और अन्य कारक सामान्य हो तो पछतावा दूर किया जा सकता है .

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  9. :-))).....अगर आप समझ जाये तो ये मुस्कान सब बता देगी :-)

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  10. बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
    और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  11. मुझे कुछ विसंगतियां लग रही हैं। शादी के बाद भूल का नतीज़ा समझ में नहीं। शादी के बाद जो होता है वह वैध है। उसकी पहली संतान है तो दूसरी में कम उम्र की बात भी आड़े नहीं आती। इसलिए मां के सुझाव देने का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। अगर उसे कोई मेडिकल प्रॉबलम थी, तो यह सुझाव डॉक्टर का होना चाहिए। इसलिए जिस आधार पर यह समस्या टिकी है तर्क संगत नहीं लगता।

    रही बात बच्चे को अकेले होने की, तो उसे परेण्ट्स को समझाना चाहिए। ऐसे कई मां-बाप हैं जो सिर्फ़ एक संतान का लक्ष्य रखते हैं। बच्चे को संगति देने के लिए घर परिवार के किसी बच्चे को लाया जा सकता है। कोई बच्चा गोद लिया जा सकता है। किसी मनोविज्ञानी से बच्चे की काउंसलिंग कराई जा सकती है।

    अब आपके मूल प्रश्न पर आऊं -- तो निर्णय लेने का अधिकार सबको बचपन से ही मिलना चाहिए, ताकि एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास हो। हां माता-पिता, समय-समय पर उचित सलाह अपने अनुभव के आधार पर देते रहें।
    और अंत में ... वही जो आशीष जी ने लिखा है ... मेरी टिप्पणी का एक्सटेन्शन समझें।

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  12. आपकी बात से बिल्‍कुल सहमत है ... सार्थकता लिए सशक्‍त लेखन

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  13. मुझे एक ही बेटा है और उसे कभी अकेलापन महसूस ना हो ....... मैं हमेशा उसके साथ साए कि तरह लगी रही ... जब वो घर में अकेला होता था ........... मेरे साथ वो सब बात शेयर करे इसके लिए ,उसे हमेशा प्रोत्साहित करती थी .... 12th तक ही संभालना होता है ........ कल क्या हो गया ,इस पर तो अभी कुछ नहीं किया जा सकता ......

    आप को एक राज की बात बताउं..... मेरा बेटा जब भी exam देकर आता ... मैं उससे कभी भी ये नहीं पूछती की पेपर कैसे हुए .... हमेशा यही बोली ,कल के पेपर की तैयारी करो .....
    *बीती ताहि बिसार के ले आगे की सुध & keep patience,cool mind* उसके लिए मेरा मूलमंत्र था ........

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  14. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल २५/९/१२ मंगलवार को चर्चाकारा राजेश कुमारी के द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है

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  15. पल्लवी ,

    आपकी आज की पोस्ट निर्णय यानि कि किसी बात पर फैसला लेने पर आधारित है ... और वो भी किसी लड़की के द्वारा ...
    लड़की की ज़िंदगी भी दो भागों में बंटी हुई होती है ... शादी से पहले और शादी के बाद ..... विवाह से पहले ज़्यादातर जीवन से जुड़े फैसले माँ - बाप करते हैं , लेकिन ऐसा भी नहीं कि बच्चे आँख कान बंद कर सब फैसले मान ही लें ... बच्चों की इच्छा को महत्त्व देते हुये माता - पिता को उचित सलाह देनी चाहिए .... हाँ यदि यह लगे कि बच्चा निश्चित तौर पर गलत है तो उसे समझाना चाहिए ..... मैं नहीं समझती हूँ कि आज के जमाने में कोई भी लड़की या लड़का चुपचाप बिना अपनी बात रखे हर बात मान ले .... हांलाकि हर माँ - बाप अपने बच्चे की भलाई के लिए ही सोचेंगे इसमें दो राय नहीं है ।

    विवाह के बाद की ज़िंदगी के फैसले ..... जैसा कि आपने कहानी के माध्यम से कहा ...विवाह के बाद की ज़िंदगी के फैसले पति - पत्नी को मिल कर करने चाहिए ....

    लेकिन एक संतान के बाद उसकी ज़िंदगी में दो और संतानों का मौका आया मगर वह दोनों ही संताने उसके जीवन में आ ना सकी। क्यूंकि दोनों ही बिना सोचे समझे हो जाने वाली भूल का नतीजा थी।

    यहाँ शायद आप प्लानिंग की भूल की बात करना चाह रही हैं ...विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि आप सब कुछ प्लान कर सकती हैं .... पर फिर भी कहीं न कहीं प्लानिंग भी धोखा दे जाती है .... इस स्थिति में माँ के कहने पर गर्भपात कराना मेरी समझ से बाहर कि बात है .... इस विषय पर पति और पत्नी के बीच ही निर्णय लिया जाना चाहिए .... स्वास्थ संबंधी यदि कोई कष्ट है तो उसके लिए डॉक्टर ही पति - पत्नी को कंविन्स करेगा .... न कि माँ । यहाँ मैं उस लड़की से सहमत नहीं हूँ कि माँ ने निर्णय लिया और उसने मान लिया .... यह उसका और उसके पति का निजी निर्णय होना चाहिए था ..... वैसे आज के जमाने में लड़कियां इतनी सक्षम हैं कि अपने निर्णय स्वयं ले सकें .....आपको भले ही लड़की की गलती नहीं लग रही पर मुझे लगता है कि उसमें ही आत्मविश्वास की कमी थी ... और होती भी क्यों नहीं जब ज़िंदगी में कभी भी कोई फैसला खुद लिया ही नहीं ।

    वैसे इस पोस्ट से आप क्या संदेश देना चाह रही हैं ?

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  16. बहुत उलझे हुए विचार हैं। बड़ों का कहना मानना या नहीं मानना, इस कहानी के संदर्भ में ठीक नहीं है। कुछ बेटियां अपनी माँ के विचारों को आजीवन अपनाती हैं यह सत्‍य है लेकिन इसमें बड़ों की बात मानने या नही मानने के संस्‍कार की बात कहीं नहीं आती है। एक संतान होना या नहीं होना, आज के समाज का बहुत बड़ा विषय नहीं है। मेरे बच्‍चों की भी एक-एक ही संतान है, वे खुश हैं।

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  17. बिलकुल आपकी बात से सहमत हूँ मगर पूर्णतः नहीं क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है कि 12th के बाद बच्चा भले ही खुद को अकेला महसूस ना करे मगर teen age आने तक उसे अकेलापन महसूस होता ही है क्यूंकि आप लाख अपने बच्चे के साथ समय बितालें मगर उसके भाई बहनों की जगह या पक्के दोस्त की जगह आप कभी नहीं ले सकते जिसके साथ वह अपने मन की हर एक छोटी बड़ी बात share कर सके यह एक आमतौर पर देखा जाने वाला सत्य है। उसी आधार पर मैंने यह पोस्ट लिखी थी।

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  18. आपकी बात भी एकदम ठीक है आंटी आज के ज़माने में ऐसे बच्चे शायद ही कहीं देखने को मिले जो अपने माता-पिता की हर बात मानते हों वो भी अपना मत रखे बिना। मगर यदि मैं इस कहानी की बात करूँ तो आज भी कुछ परिवार ऐसे हैं जहां केवल माता या पिता किसी एक की ही ज्यादा चलती है जिसके कारण बच्चे बचपन से ही उनकी बातें आँख बंद करके सुनते चले आते है और ऐसे माहौल में उन्हें कभी अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद करने का मौका ही नहीं मिल पाता नतीजा उनकी ज़िंदगी के सभी फैसले उनके माता-पिता ही लिया करते हैं। इस कहानी में भी वही हुआ लेकिन सोचने वाली बात यह थी कि ऐसा नहीं था की उस लड़की ने केवल माँ के कहने पर आँख बंद करके अकेले ही यह फैसला ले लिया था बल्कि उसने अपने पति से भी पूछा था मगर उसका पति भी आगे नहीं आया तो उसे उसकी माँ की बात ही सही लगी। इसलिए मुझे ऐसा लगा कि इस पूरी कहानी में केवल लड़की को ही इस बात का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
    रही बात संदेश की तो मैंने केवल यही संदेश देना चाह है कि शादी के बाद संतान से संबन्धित फैसला लेने का अधिकार केवल पति पत्नी को है उनके मामले में न तो किसी और को बोलना चाहिए और ना ही उन दंपत्ति को किसी और की बात सुननी चाहिए यह उनका निजी मामला है इसका "निर्णय" केवल उन्हें ही लेना चाहिए।

    हालांकि आज कल की लड़कियाँ इतनी मॉडर्न और बोल्ड हो चुकी हैं कि वो ना तो अपनी माँ की और ना ही अपने पति की बात को तवज्जो देतीं हैं। वो अपने फैसले खुद ही लेती हैं चाहे वो सही हों या फिर गलत।

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  19. विचारों को अपनाया जाना भी तो एक तरह से बात मनाने जैसी ही बात है ना कुछ तो ऐसे भी लोग होते हैं जो आँख बंद करके वही करते हैं जो उनकी माँ करती या कहती चली आरही है फिर चाहे वो गलत हो या सही रही बात एक संतान के होने की तो आपकी बात बिलकुल ठीक है कि एक ही संतान होने से माता-पिता को कोई फर्क नहीं पड़ता वह सदा ही खुश रहते हैं मेरा भी एक ही बेटा है मगर यहाँ मेरे कहने का तात्पर्य यह था कि एक ही संतान होने से माता पिता को फर्क नहीं पड़ता बल्कि उस बच्चे को फर्क पड़ता है जो अकेला है। हाँ ऐसा ज़रूर हो सकता है कि एक सीमित आयु तक बच्चे को अकेलापन महसूस हो और आगे जाकर जब वो समझदार हो जाये तब उसे ऐसा ना लगे मगर बचपन में उसे अपने भाई या बहन की थोड़ी बहुत कमी तो महसूस होती ही है। भले ही चाहे वह अपनी इस भावना को पूरी तरह या ठीक तरह से व्यक्त ना कर पाये मगर कभी-कभी यदि ध्यान दिया जाये तो आप उसके व्यवहार में यह कमी महसूस होने वाली बात देख सकते हैं।

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  20. सुलझे और उलझे भावों की मिली जुली पोस्ट ...विचार अपने अपने है ...और अनुभव भी ||

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  21. जिन संतानों की हत्या की गई उनके प्रति अपराधबोध अचेतन मन में कार्य करता है और जीवन को प्रभावित करता है. तीन संतानें हो कर बाद में दो किसी अन्य कारण से कम हो जातीं तो दंपति क्या कर लेते. अब उनकी एक मात्र संतान को कई अभाव खलते हैं. अभाव तो रहते हैं. उनका नाम बदल जाता है. वैसे भी अब भारत में एक संतान पैदा करने की परंपरा बनती जा रही है. बेहतर होगा कि अब बच्चे के अभावों के प्रति उसकी संवेदनशीलता को सलीके से टैकल किया जाए क्योंकि बीती बातों पर अपने मन को ठहरा देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है.
    वाँछित संतान की परिभाषा इस प्रकार करना चाहता हूँ कि संतान वही है जिसे संतान प्राप्ति के भाव से उत्पन्न किया जाए. इसके अतिरिक्त अन्य संतानों पर अनचाही होने का संकट बना रहता है.

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  22. सार्थकता लिए सशक्‍त लेखन....

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  23. किसी भी बात को कभी भी सर्वथा सही अथवा गलत नहीं कहा जा सकता . ये तो पूरी तरह से परिस्थितियों पर निर्भर होता है . पर हाँ बच्चों में इतनी समझ तो विकसित करनी ही चाहिए कि वो सार्थक आकलन कर सकें .....

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  24. एक सीमा तक बड़ों की बात मानना ठीक है...पर व्यस्क होने के बाद भी सही-गलत का फैसला ना कर सके...अपने मन के अनुसार निर्णय ना ले सके..यह ठीक नहीं.
    फिर उसके व्यक्तित्व का विकास ही नहीं हुआ . व्यस्क होने के बाद किसी भी निर्णय की जिम्मेअदारी खुद लेनी चाहिए और अपने बड़ों से असहमति हो तो उन्हें नम्रता से अपने पक्ष से अवगत करवाना चाहिए.

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  25. आपकी बात बहुत ही विचारणीय है पल्लवी जी.
    एक पुस्तक पढ़ी थी 'I am ok you are ok'.

    उसमें मानव व्यक्तित्व के तीन पार्ट बताये गए हैं.
    P -Parent पार्ट जो व्यक्ति अपने मान-बाप,बड़ों,
    या समाज से सीखता है,यह करो यह न करो
    ज्यूँ का त्यूं अपना लेता है बिना सोचे समझे

    A - Adult पार्ट जो व्यक्ति स्वयं के विद्या अर्जन
    अनुभव व matured सोच से विकसित करता है.

    C - Child पार्ट जो व्यक्ति में उसके emotions
    से बना होता है.कोई तर्क नही बस बच्चों की
    तरह भावुकता से परिपूर्ण.

    एक समझदार और अच्छे व्यक्तित्व में उपरोक्त तीनों
    का अच्छा balance होना चाहिये और ऐसे किसी भी
    निर्णय में adult part को ही सर्वोपरि होना चाहिये.

    आपकी सुन्दर सार्थक पोस्ट के लिए हार्दिक आभार.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईये और अपने अनुभव शेयर कीजियेगा.

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