Thursday, 5 April 2012

खबरें और उनका प्रभाव...



खबरों के नाम पर आजकल पाता नहीं क्या परोसा जा रहा है हमारे सामने, कितना सच कितना झूठ...कुछ खबरें ऐसी होती हैं जिनका वाकई हमारे ऊपर प्रभाव पड़ना चाहिए, मगर पढ़ता नहीं है। शायद इसलिए कि  अब वह एक दिन की खबर नहीं, बल्कि रोज़ मररा की जीवन शैली की एक आम बात बन चुकी है। इसलिए अब हम पर उन खबरों का कोई असर नहीं होता। जब भी कोई हिन्दी समाचार पत्र उठाकर पढ़ो तो सबसे पहले दिमाग में यही आता है कि आख़िर कहाँ जा रहे हैं हम एक तरफ देश की उन्नति और प्रगति की बातें करते हैं। जिसे देखो मुझे गर्व है अपने हिन्दुस्तानी होने पर, का नारा लागते अपने आप में बड़ा गर्व महसूस करते दिखाई देता है। मगर वास्तविकता भी क्या यही है ? आज तक हमने क्या खोया क्या पाया आज यदि गौर करके देखो तो मुझे तो यह महसूस होता है, कि हमने जितना पाया शायद कहीं ना कहीं उसे ज्यादा ही खोया है। क्यूंकि जो स्थिति आज हमारे देश की है उसे देखते हुए तो यही लगता है कि कम से कम ऐसे आज़ाद देश का सपना तो नहीं देखा होगा हमारे वीर शहीदों ,क्रांतिकारियों और देश भक्तों ने, जहां मासूम ज़िंदगियाँ तक महफूज़ नहीं है, तो औरों कि बात ही क्या।
  
यूं तो सभी समाचार पत्रों में लगभग रोज़ ही इस तरह कि खबरें आती है और इसके अतिरिक्त आता ही क्या है। मगर फिर फिर भी आज का समाचार पत्र पढ़कर मन खिन्न सा होगया। हर पृष्ट पर टूटते घर और गरीबी मजबूरी,लाचारी के कारण बर्बाद होता मासूम बचपन ,या फिर दर-दर कि ठोकरें खाने को मजबूर बुढ़ापा इसके आलाव जैसे और कोई समाचार ही नहीं था कहीं, अब यहाँ यह स्वाभाविक ही है कि इन सब खबरों को पाठनिये बनाने के लिए निश्चित ही इन खबरों में और भी ज्यादा मिर्च मसाला लगाकर छापा गया होगा। इसमें कोई संदेह नहीं है ,मगर कहीं न कहीं यह सब खबरें अपने आप में थोड़ी बहुत सच्चाई भी तो रखती ही होंगी। आखिर बिना आग के धुआँ तो निकाल नहीं सकता,तो फिर यही बात उभर कर सामने बार-बार आती है कि देश के छोटे-छोटे शहरों में आम जन जीवन का यह हाल है तो महा नगरों कि बात ही क्या ....


एक खबर थी मात्र 10 रूपय के चक्कर में मासूम ने खो दिये अपने पैर, क्यूँ क्यूंकि उसके पिता प्लाम्बर का काम करते हैं और वह बच्चा आपने पिता की सहायता करने के लिए पानी के टेंकारों का पाइप लागने और खोलने का काम किया करता था जिसके लिए उसे रोज़ 10 रूपय मजदूरी मिला करती थी। एक दिन वह पाइप खोल रहा था, कि गलती से ड्राईवर ने वह पानी का टेनकर वाला ट्रक चला दिया जिसके कारण उस मासूम के पैर उस टेनकर के नीचे आ गए और कुचल गये। उसका एक ऑपरेशन हो चुका है और दो, अब भी होने बाकी हैं। उसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि वह ठीक हो ही जाएगा। तो वही दूसरी ओर एक खबर थी कि देह व्यपार के लिए मात्र 67 हजार में बेंच दिया गया एक मासूम बच्ची को, तो कहीं एक बुजुर्ग महिला को उसके ही बहू बेटों ने पिता की मृत्यू के बाद अपनी ही माँ के साथ मार पीटकर घर से बाहर निकाल दिया।  

मैं जानती हूँ यह सभी खबरें बेशक आपको बहुत ही आम लग रही होंगी ,हैं भी...आज कल रोज ही तो सभी समाचार पत्रों में ऐसी ही खबरें तो छपा करती हैं। इसमें भला क्या नई बात है ? वाकई इसमें कोई नयी बात नहीं है किन्तु सवाल यही उठता है, कि आख़िर कहाँ जा रहे हैं हम ? यह तो आम जन जीवन की बात है, हमने तो बेचारे मासूम बेज़ुबान जानवरों को भी नहीं बक्षा है। तभी तो वह भी मजबूर होकर अपना जंगल छोड़ हमारे नगरों में खुले आम घूमने और अपने जीवन यापन हेतु आतंक फैलाने के लिए मजबूर हैं और हम हमेशा की तरह अपनी करनी का घड़ा दूसरों के माथे फोड़ने के लिए तैयार रहते हैं। तभी तो ऐसी स्थिति में हम वनकर्मी या यूं कहें कि वन विभाग के कार्यकर्ताओं को गालियां देने में कोई कसर बाकी नहीं रखते,कि उनकी लापरवाही के कारण जंगली जानवरों के यूं खुले आम बाहर घूमने कि वजह से ही आम आदमी को जानमाल का खतरा है। मगर कोई यह नहीं सोचता की वही आम आदमी किस कदर जंगलों और पेड़ों को अपने मतलब के लिए काट रहा है। 


"करे कोई भरे कोई"वाली कहावत को पूर्णतः चित्रार्थ करती हैं यह खबरें हर कोई आज भ्रष्टाचार मिटाओ ,महंगाई हटाओ जैसे नारे लागते हुआ मिलता है। जिसे देखो सरकार की बुराई करता नज़र आता है। बेशक सही भी है, जब सरकार ही भ्रष्ट होगी तो आम जनता का यही हाल होना ही है। मगर उस सबके बावजूद भी लोग, "आइ हेट पॉलिटिक्स" कहकर इन सब मुद्दों से कन्नी काट जाते हैं। क्यूँ? क्यूंकि आज हर कोई चाहता है की भगत सिंह फिर पैदा हो मगर पड़ोसी के घर में, और जो लोग कुछ कर गुजरने का जज़्बा यदि रखते भी हैं तो उनको राजनीतिक सहयोग तो भ्रेष्टाचार के चलते, मिलने से रहा, उल्टा दवाब ही बना रहता है कि यदि वो देश के लिए कुछ करना भी चाहें तो कर नहीं पाते। क्यूंकि अपना परिवार अपनी जरूरतें इंसान को कहीं न कहीं मजबूर कर ही देती हैं। फिर देश के बारे में कौन सोचता है और कोई कुछ कहे तो हमने ही ठेका लिया है क्या और भी तो लोग हैं पहले वो सोचें फिर हमारे पास आना कहकर लोग अपनी ही बातों से मुकर जाते हैं। ऐसे ही लोग नेता कहलाते है। जबकि सबको पाता है यदि कहीं भी किसी भी विषय में सुधार लाना है तो सबसे पहले शुरुवात अपने आपसे ही करनी होगी, अपने घर से ही करनी होगी, मगर करता कोई नहीं, क्यूँ ?


हम सदा राजनीति और नेताओं को कोसकर भला बुरा कहकर अपने दिल कि भड़ास निकाल कर चुप हो जाते हैं मगर उस सबसे होता क्या है ??? कुछ भी नहीं, ना वो ही सुधारने का नाम लेते है और ना हम ,मैं कहती हूँ, राजनीतिक मामले तो दुर कि बातें हैं। मगर हमारे आस पास घट रही,छोटी-छोटी बातों से तो हम सीख लेकर उसमें परिवर्तन और सुधार ला सकते हैं ना, तो फिर हर बात के लिए सरकार का मुंह देखकर गालियां क्यूँ देते नजर आते हैं। जैसे शिक्षा कि ही बात ले लीजिये, आज कि तारीख में भी नाजाने कितने ऐसे लोग हैं। जो पढ़ना चाहते हैं मगर आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के कारण पढ़ नहीं पाते। क्या हम आप जैसे लोग ऐसे लोगों को पढ़ने का उत्साह देते हुए पढ़ा नहीं सकते, माना कि इन लोगों में भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो मुफ़्त में भी पढ़ना ही नहीं चाहते उन्हें तो केवल पैसा कमाना होता है ,मगर उतनी ही तादाद में ऐसे लोग और परिवार भी हैं जो वाकई पढना चाहते हैं, और अपने बच्चों को पढ़ना चाहते है मगर जैसा कि मैंने पहले भी कहा आर्थिक स्थिति ठीक न होने कारण वह लोग बाल मजदूरी करने और करवाने के लिए मजबूर हैं। ज्यादा दूर क्यूँ जाये अपने घर में काम करने आने वाली बाई के बच्चों की ही बात ले लीजिए। बेशक उनके बच्चे स्कूल जाते हैं पढ़ते हैं और कभी कभी किसी मजबूरी के चलते अपनी माँ की जगह आपके घर में काम करने भी आते हैं। 


आपने भी देखा होगा उनमें से अधिकतर बच्चे किसी न किसी विषय में कमजोर भी होते हैं और उनमें से ही क्यूँ आपके अपने बच्चे भी किसी न किसी विषय में कमजोर होते ही हैं, जिसको ठीक करने के लिए आप आपने बच्चों की तिउषन लगाते हैं ताकि आपका बच्चा उस विषय में भी कमजोर न रहे। मगर उनके पास इतना पैसा नहीं होता, कि वो उस विषय की टीयूषन लगाकर अपने बच्चों को पढ़ा सकें तो क्या आप उनको मुफ़्त में वो विषय पढ़कर उनकी मदद नहीं कर सकते ? कर सकते हैं। मगर आज की तारीख में कोई मुफ़्त में कुछ करना ही कहाँ चाहता, सबको पैसा जो बनाना होता है। ऐसे ना जाने और कितने छोटे बड़े काम है, जो सामाज कल्याण के नाम पर हम और आप बड़ी आसानी से बिना किसी झंझट के कर सकते हैं। यह शिक्षा देना तो मात्र एक उदाहरण था। 

मैं जानती हूँ आज आपको मेरी बातें भाषण से कम नहीं लग रही होंगी साथ ही यह आलेख पढ़ते हुए आप सभी के दिमाग में यह खयाल भी ज़रूर आरहा होगा, कि कहना बहुत आसान हैं ज़रा खुद तो कर के देखो फिर भाषण देना, तो मैं आप सबको यह ज़रूर बताना चाहूंगी मैंने  खुद यह कार्य किया है। तभी बोल रही हूँ। जब में दिल्ली में रहा करती थी मेरे घर काम पर आने वाली बाई का एक बच्चा जो की अँग्रेजी में कमजोर था मैंने उसे मुफ़्त में पढ़या है और मैंने उससे तब यह भी कहा था कि और जो तुम्हारे ऐसे दोस्त हों जिन्हें किसी विषय में किसी तरह की कोई परेशानी हो तो मेरे पास भेजना यदि संभव हुआ तो मैं ज़रूर पढ़ा दूंगी। 

खैर यह बात मैंने अपनी तारीफ करने के लिए नहीं लिखी है। बल्कि मेरे कहने का तात्पर्य तो बस इतना है, कि जब हम अपने आस पास हो रही चीजों में सुधार लाकर समाज कल्याण के लिए बिना सरकारी मदद या सहायता के इतना कुछ कर सकते है, तो फिर करते क्यूँ नहीं क्यूँ सिर्फ सरकार के नाम पर गालियां देकर ही अपनी भड़ास निकाल नकार चुप हो जाते हैं। यदि आपको याद हो तो ऐसी ही एक पोस्ट और भी लिखी थी मैंने जिसमें भूखे गरीब बच्चों को खाना पहुंचानी वाली संस्था का ज़िक्र किया था, ऐसी नजाने कितनी आंगिनत बाते हैं जिसके आधार पर आप समाज सेवा कर सकते हैं। यह तो मात्र उदाहरण हैं।

अन्तः बस इतना ही कहना चाहूंगी कि एक बार इस विषय पर सोचकर ज़रूर देखिएगा हो सकता है आपका एक प्रयास किसी कि ज़िंदगी बदल दे यकीन मानिये ऐसे कार्यों को करने के बाद आपके दिल और आपकी अंतर आत्मा को जो सुकून मिलगा ना वो आप लाख पूजा पाठ करवालें या स्वयं करलें तभी  आपको नहीं मिल सकता। साथ ही जो एक छोटी सी मदद और सहायता के बदले में हजारों लाखों दुआएँ मिलेगी सौ अलग और दुआओं से बड़ा धन मेरी समझ से तो इस दुनिया में और कोई नहीं... जय हिन्द          


                    

               

24 comments:

  1. यही कारण है कि समाचारपत्र धीरे धीरे पढ़ना कम होता जा रहा है।

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  2. समाचारपत्र ही क्या सारी मिडिया का यही हाल है.और हम सुधरे तो जग सुधरेगा ..सही कहा.

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  3. समाचार पत्रों के कई पन्ने ऐसी ख़बरों से भरे पड़े रहते हैं । बेशक बुरी भी लगती हैं । लेकिन अख़बार में न आयें तो पता कैसे चलेगा । मिडिया का रोल बहुत सशक्त है । ज़रुरत है जिम्मेदार पत्रकारिता की ।
    हालाँकि वर्तमान परिवेश में पूर्णतया निष्पक्ष की अपेक्षा रखना व्यर्थ है ।

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  4. आज जब पत्रकारिता व्यवसाय हो गया है तो निष्पक्षता की आशा करना व्यर्थ है..जो कुछ करना है हम लोगों को ही करना होगा...बहुत सार्थक आलेख..

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  5. वर्तमान परिवेश में अखवारों से पूर्णतया निष्पक्षता की अपेक्षा रखना व्यर्थ है ।
    मसाले दार खबरों को बचने का व्यवसाय बबन गया है
    वाह!!!!!!बहुत अच्छी प्रस्तुति,..

    MY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...

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  6. समाज में आई विकृतियों से भला पत्रकारिता एवं समाचार पत्र कैसे अछूते रह सकते हैं। वैसे भी समाचार पत्र समाज का आइना होता है। वह वही सब कुछ दिखाता है जो समाज में घटित होता है। यह तो देखने या पढ़ने वालों का नजरिया है कि वो उसको किस अंदाज में लेते हैं। मामला गिलासा आधा खाली या आधा भरा होने जैसा ही है।

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  7. टोटली अग्री!!!

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  8. दुनिया में अच्‍छा और बुरा साथ-साथ ही होता है। बस आवश्‍यकता है कि हम कितने अच्‍छे के साथ खड़े हैं। भाड में जब चना सिकता है तब अच्‍छे और फूले चने भाड से बाहर उछलकर चले जाते हैं और ठोड चने नीचे रह जाते हैं। इस देश के साथ भी यही हो रहा है। जबकि दूसरे देशों में अच्‍छे और बुरे सब वहीं हैं, इसलिए वे विकास कर पा रहे हैं।

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  9. एक बढ़िया लेख के लिए आभार !
    शुभकामनायें आपको !

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  10. वाह!!!!!!बहुत सुंदर लेख,अच्छी प्रस्तुति........

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....

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  11. bahut hi achha likha h aapne salam karta hoon aapki soch ko kash ese hr koi samjhe....

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  12. bahut sarthak lekh likha hai aapne .aaj sab aapna kartavya bhool gaye hai unhe to bus publicity chahiye .kisi bhi kimat per ..........
    sadar

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  13. आपने बिल्कुल सही लिखा है। यह काम मैंने कई जगह, कई बार किया है। एक अनुभव थोड़ा शेयर करना चाहूंगा। तब बंगाल में मेरी पहली पोस्टिंग हुई थी। एक औद्योगिक कर्मचारी और नेता अपने बेटे की नौकरी के लिए पैरवी करने आया। मैंने कहा कि उसे परिक्षा देकर कम्पीट करना होगा। बोला मैथ में कमज़ोर है। मैंने कहा उसे मैथ मैं पढ़ा दूंगा। उसने बेटे को भेजा। वह लड़का बंगला मीडियम का स्टूडेंट हा और उसकी किताबें बंगला में। पहले मैंने अपनी बांगला ठीक की, उसे पढया। वह पहले १२ वीं पास किया, फिर कम्पीट किया और नौकरी प्राप्त की।

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  14. बहुत सुंदर सार्थक लेख अच्छा लगा,...आभार

    RECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....

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  15. सुंदर सार्थक आलेख ....सच में अपने स्टार पर ही हम थोड़ा थोड़ा समाज सेवा करते चलें ...वही बहुत है ...
    शुभकामनायें ...

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  16. बिल्कुल व्यवहारिक बातें, जरा सी सोच बदलने पर, छोटे-छोटे सहयोग से बहुत कुछ किया जा सकता है.

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  17. आपकी बात बिलकुल ठीक है .कमज़ोर छात्राओं को मैं भी सहायता देती रही हूँ ,लड़कियों केमामले में तो माता-पिता भी उदासीन हो जाते हैं .बच्चों की पुस्तकें और पढ़ाई के सामान से भी हम अल्प प्रयास में ज़रूरतमंदों की सहायता कर सकते हैं-अगरअपनी कामवाली और उसके बच्चों को ही साक्षर कर दें, अपने आस-पास को थोड़ा ठीक कर लें तो
    कितना अच्छा रहे !

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  18. हम किसी के काम आ सकें, तभी हमारा जीना सार्थक है।
    अच्छा लेखन।

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  19. hmm ...vaise apka lekh padhane ke baad bhi main kahungi ki politics mujhe pasand nahin magar haan kisi ki madad karne me mujhe koi burai nahin dikhati isliye jis bhi star par hota hai madad karti hoon fir bhool jati hoon..apni ki hui neki bhi bhala yaad rakhane ki cheej hoti hai...!!!! :)
    akhbaaron me kuchh log aaj bhi hai jo sach likhate hain magar "boss" bika hua ho to imandaar patrakaar kya karen...!

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  20. बहुत सही कहा है आपने इस आलेख में आपकी बातों से पूर्णत: सहमत हूं ... विचारणीय प्रस्‍तुति ।

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  21. मैंने अब समाचार-पत्र पढ़ना लगभग बंद कर दिया है. इससे मन की शांति में वद्धि होती है. थकान कम होती है. आपने जो सुझाव दिया है वह विचारणीय हैं.

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