Wednesday, 13 July 2011

मनोदशा



मनोदशा अर्थात मन की दशा, मन की दशा क्या होती है, यह कहना थोड़ा मुश्किल है। क्यूंकि मन तो चंचल होता है, पल-पल में बदलता रहता है, मन पर काबू पाना बहुत ही मुश्किल बात है। किन्तु नामुमकिन नहीं, परंतु मन की कुछ बातों पर तो आप काबू पा सकते हैं। मगर हर बार, हर बात में मन पर काबू पा सकना या पा लेना यह एक आम इंसान के लिए मुमकिन नहीं और यहाँ मुझे एक गीत की एक लाइन याद आ रही है। जैसा कि आप सभी जानते हैं मेरे हर लेख में कोई न कोई फ़िल्मी गीत जरूर जुड़ जाता है। J पता नहीं क्यूँ जब भी मैं कुछ लिखने जाती हूँ उस पर आधारित कोई न कोई फ़िल्मी गीत मेरे ज़हन में आ ही जाता है।
 जीत लो मन को पढ़ कर गीता मन ही हारा तो क्या जीता, तो क्या जीता हरे कृष्ण हरे राम
कहने का मतब यह है कि गीता में भी कहा गया है कि अगर जीवन में सफलता पानी है और मोह माया से छुटकारा पाना है, तो सब से पहले अपने मन को जीत लो फिर सब कुछ तुम्हारे हाथ होगा। अर्थात मन के हारे, हार है और मन के जीते जीत
खैर यह तो थी गीता की बात हम तो बात कर रहे थे, साधारण परिस्थिति में मनोदशा की बात  आपने देखा होगा कि जब कभी हम कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेने जाते है। तो हमारा मन अकसर दो भागों में बंट जाता है और हमको निर्णय लेनें में बहुत असुविधा महसूस होती है, कि क्या सही है क्या गलत, दिल कुछ और कहता है, दिमाग कुछ और, कहने वाले कहते हैं ऐसे हालात में हमको हमेशा अपने मन की सुनना चाहिए, मगर कुछ लोग यह भी कहते हैं कई बार दिल से लिए फ़ैसले भी गलत हो सकते है क्यूंकि दिल भावनाओं से बंधा होता है और भगवान ने खुद इंसान को दिमाग का दर्जा दिल से ऊपर का दिया है। मगर क्या करें
दिल है कि मानता नहीं
ऐसे ही आपने कई बार यह भी देखा होगा कि जब हम कोई निर्णय लेने वाले होते हैं या लेने के विषय मे हनता से सोच रहे होते है, तो उस विषय के हर बिन्दु पर गौर किया करते हैं कि उस के क्या परिणाम हो सकते है और बहुत सोचने समझने के बाद जब हम किसी नतीजे पर पहुँचते हैं, तो मन मे एक बार आता है, अब जो होगा सो देखा जाएगा और हम फैसला ले डालते है। मगर फिर कुछ दिनों बाद हमको ऐसा क्यूँ लगता है कि काश ऐसा हो पता तो कितना अच्छा होता। मतलब हमको हमारे द्वारा लिए गये निर्णय पर ही मलाल होने लगता है और यह जानते हुये भी कि अब वो निर्णय बदला नहीं जा सकता, पर फिर भी हमारा मन है कि हमको अंदर से एहसास कराता रहता है कि बदल सकता तुम्हारा निर्णय तो शायद ज्यादा अच्छा होता। क्यूँकि कभी-कभी हमारा मन स्वार्थी भी हो जाया करता है।
कुछ दिनों पहले की ही बात है। जब हम ने इंडिया आने के लिए टिकिट बुक की थी, तब सारी स्थिति को देख परख कर कि इतने दिनों में कब कहना रहना संभव हो सकेगा यह सब सोच कर हमने सभी (प्लेन) हवाई जहाज और ट्रेन के टिकिट बुक किये थे। मगर उस के बावजूद भी कुछ दिनों बाद मुझे लगने लगा था, कि काश मैं अपने मायके में थोड़े और ज्यादा दिन रुक पाती तो अच्छा होता, जबकि मुझे खुद पता था कि ऐसा होना संभव नहीं है। तभी तो जो सोच कर निर्णय लिया था वो इसलिए लिया था कि बाद में ऐसा कोई पछतावा न हो, मगर मन का क्या है वो तो कभी पूर्णरूप से संतुष्ट होता ही नहीं, ना कभी हुआ है, और ना ही कभी होगा। इसे ही तो कहते है न मन का स्वार्थी होना J
अब मैं आप को एक और मनोदशा से अवगत करती हूँ। वो है (करेंसी) अर्थात मुद्रा को लेकर उत्पन्न होने वाली मनोदशा आप को शायद पता हो, जब कोई भी इंसान नया-नया इंडिया से यहाँ आता है मतलब केवल यहीं नहीं बल्कि इंडिया से बाहर कभी भी, कहीं भी जाता है, तो उस देश में पैसे को लेकर उसकी मनोदशा क्या होती है। जब भी वो कुछ खरीदने की द्रष्टी से बाजार जाता है, तो पूरे समय उसका दिमाग इस ही उधेड़ बुन में लगा रहता है कि यदि यह चीज यहाँ (1) एक पाउंड की है, तो इंडियन रुपयों के हिसाब से कितने की हुई। फिर चाहे वो चीज उसके लिए कितनी भी साधारण या कितनी भी महत्वपूर्ण क्यूँ न हो, हर छोटी बड़ी चीज में उसका मन इस ही बात को लेकर उलझा रहता है। यहाँ तक की जब कोई और अपनी खरीदी हुई किसी चीज के बारे में बात करें  या बताएं, तब भी सामने वाले का दिमाग तुरंत उस चीज के मूल्य को भारतीय रुपयों में बदल कर देखना शुरू कर देता है।
खैर जो लोग यहाँ नए-नए आयें है, उनका ऐसा करना तो समझ में आता है। हम भी किया करते थे, जब हम यहाँ नए-नए आये थे। मगर अब इतने साल गुजर जाने के बाद अब हमको ऐसा कुछ नहीं लगता जो सामान जितने का है, उसे  हम यहां की (करेंसी) अर्थात मुद्रा  के हिसाब से ही देखते है और लेते है। मगर आश्चर्य तो तब होता है, जब हम उन लोगों को देखते है, जो हम से भी पहले से यहाँ रह रहें हैं, वो लोग आज भी इस उधेड़बुन से नहीं निकल पाये हैं। बल्कि अगर मैं अपनी बात करूँ और सच कहूँ तो मेरे साथ तो अब उल्टा ही हो गया है। अब जब मैं इंडिया आकर कुछ ख़रीदती हूँ तो अब उस चीज के मूल्य को मैं पाउंड की नज़र से देखने लगी हूँ J यह भी तो एक प्रकार की मनोदशा ही है। है ना J
अंतत बस इतना ही कि आज शायद मैं अपने इन अनुभवों से आप सभी को मनोदशा अर्थात मन की दशा का अर्थ समझा पाई हूँ या शायद नहीं भी, मगर मेरे हिसाब से और मेरे विचार से मन की  दशा पर आज तक न कोई काबू कर पाया है और न ही कभी कर पाएगा जिस दिन जिस किसी ने भी मन की इस परिस्थिति पर काबू पा लिया उस दिन वो इंसान, इंसान रह कर भगवान बन जाएगा। क्यूंकि इंसान तो भावनाओं से मिलकर बना है और यह भावनाएं ही हैं जो इंसान को जानवर से अलग करती हैं। तो जहां भावनायेँ होगी वहाँ स्वार्थ भी होगा और जहां स्वार्थ होगा वहाँ कभी मन पर काबू किया ही नहीं जा सकेगा। ऐसा मेरा मत है। जय हिन्द....                     

11 comments:

  1. यह अपनी अपनी समझ है आपका जय हिंद लिखना अच्छा लगा जय हिंद

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  2. यह कहना भी बहुत मुश्किल है कि मन पर काबू करके कोई ईश्वर या भगवान सकता है. सच्चाई यह है कि ऋषि, मुनि, योगी, साधक, कब गिर जाएँ इसका कोई ठिकाना नहीं. मन की हालत कभी एक जैसी नहीं रहती. बूढ़े-बूढ़े लोगों को भी ऐसे विचार आ जाते हैं जिन्हें वे नहीं चाहते. इस लिए व्यक्ति सादगी से जितना जी पाए उसके लिए अपने आसपास के लोगों और वातावरण को धन्यवाद दे. जय हिंद.

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  3. maaf karna par aap jo likhti hai usko apne me Grahan kare to sahi hoga.agar aapko desh se prem hai to India kyon nahi aajati permenant??

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  4. (@रागिनी जी),सब से पहले तो आप का हार्दिक धन्यवाद की आप मेरे ब्लॉग पर आयीं और आप ने मेरा ब्लॉग पढ़ कर उस पर अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये। जहां तक मेरे लिखे हुए को अपने आप में ग्रहण करने का सवाल है। तो मैं आप को बताना चाहती हूँ कि मैं जो भी लिखती हूँ, वो खुद में ग्रहण करने के बाद ही लिखती हूँ, इसलिए मेरे ब्लॉग का नाम ही(मेरे अनुभव)है,और रही बात मेरे इंडिया आने की तो वो मेरे वश में नहीं है। यदि होता तो आप को यह कहने के जरूरत ही नहीं पड़ती धन्यवाद....

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  5. सही बात है...करेंसी वाली बात से तो मैं बहुत ज्यादा रिलेट करता हूँ...
    मेरे दोस्त जब कभी कुछ चीज़ों या फिर खाने पीने का दाम बताते हैं तो हम ये जरुर देखते हैं की भई, इंडिया में उसका कितना पैसा होगा...
    वैसे मेरा पुराना काम भी तो करेंसी से ही सम्बंधित था..

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  6. और हाँ,मन पे काबू कर पाना संभव कम ही होता है..

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  7. Now this is interesting.....Mujhe to pata hi tha bhabhiji Aap bhi blog likhtey ho....Maja aa gaya....
    Keep it up Bhabhi :) :)

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  8. hum ya jo log yaha hai vo apni khushi se nahi hai ,vo yaha apne kaam ke silasile mai ya hai koi apne Desh se dura raha kar khush nahi rahta hai par kaam bhi jaruri hai isliye hum yaha hai .Or baat hai Maan ki vo chanchl hai usako koi nahi roka sakta hai .Apne bahota acha likhaya mai hum vahi sochate hai jo aap sochati hai chijo ke bare mai .hum aagar ye sa sochte to kya apne desh vapas aajaye to ye kahna galata hai.
    thnx itana acha likhane ke liye

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  9. बहुत सुन्दर पोस्ट. जब हम विदेश जाते हैं तो यहाँ की मुद्रा को विदेशी मुद्रा में परिवर्तित कराते हैं. विदेश जाकर जब भी कुछ खर्च करते हैं तो यह स्वाभाविक है की हम उस कीमत को भारतीय मुद्रा के दृष्टिकोण से ही देखते हैं. अब जो विदेश में बसे हैं उनकी आय ही स्थानीय मुद्रा में हो रही होती है इसलिए भारतीय मुद्रा से उनका कोई लेना देना नहीं रहता. एक छोटा सा उदहारण, सिंगापूर में चाय एक डोल्लर की आती है. घूमने गए भारतीय के लिए वह महँगी लगेगी परन्तु एक सिंगापूर का व्यक्ति जिसका वेतन वहां के मानकों के आधार पर मिल रही है, उसके लिए कोई मायने नहीं रखता. आपने जो बात कही वह अपवाद लगता है.

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