Saturday 11 December 2010

Surat Visit (its happens only in India)...

यूँ तो यह बात बहुत पुरानी है जब हम मनीष की नौकरी के सिलसिले में सूरत गये थे, तब हालात कुछ ऐसे थे कि मनीष ने अर्थात मेरे पतिदेव ने साइबर-कैफे के प्रोजेक्ट के लिए काम करने को राज़ी थे. वहां हम करीब पंद्रह दिन के लिए रुके थे कम्पनी वालों ने रहने के लिए होटल दिया था. मुझे इस ट्रिप में काफी हद तक गुजराती संस्क्रती को करीब से जानने का मौका मिला था, इसके पहले मैं गुजरात में कहीं और नहीं गयी थी और जितना जो कुछ जाना था वो टीवी के माध्यम से ही जाना था. मुझे तो वह शहर इतना पसंद आ गया था कि मैंने तो वहीँ रहने का मन भी बना लिया था, मगर मन का सोचा हमेशा सच ही हो जाये ऐसा बहुत कम ही होता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था और क्या हुआ था यह मैं अभी आप को आगे बताती हूँ.

जिस दिन यह समाचार मिला कि उस प्रोजेक्ट के लिए सूरत जाना है और पंद्रह दिन वहीँ रहना होगा उस दिन पहले तो सब यही सोचते रहे कि मनीष अकेले जायेंगे या मैं भी साथ जाऊगी. फिर मनीष खुद ही बोले, कि जब मौका मिला है तो घूम ही लो. यह सोच कर हमने जाने का निर्णय लिया. ट्रेन में यात्रा के दोरान हमारी दोस्ती एक सज्जन से हुई जो कि किसी बैंक में कार्यरत  थे, बैंक का नाम अभी मुझे याद नहीं मगर उस यात्रा के दौरान ही उनसे हमारी काफी गहरी मित्रता हो गयी थी उन्होंने हमें अपने घर भी बुलाया था क्यूंकि जिस जगह हम रुके थे वहां से उनका घर नजदीक ही था. उस दिन मैंने रास्ते में खाने लिए अपने साथ पूड़ी और आलू की सब्जी बनाकर रखी थी, अब हुआ यह कि गर्मियौं के दिन होने कि वजह से रात के खाने के बाद बची हुए सब्जी ख़राब हो गयी मगर पूड़ियाँ  बहुत सारी बच गयी थी खैर ...

बड़े ही मज़े के दिन थे वो भी जब हर छोटी-छोटी बात के अनुभव पहली बार हो रहे थे, मुझे शुरू के दिनों में कंपनी ने रुकने के लिए होटल दिया था हम लोग वहां पहुंचे तब शाम के चार बजे थे और बहुत ज़ोरों की भूख लग रही थी, तब मनीष ने होटल के लड़के से बोला कि जब तक हम लोग नहा धोकर फ्रेश होते हैं. तुम कुछ खाने के लिए ले आओ, तो वह बोला इस वक़्त खाना नहीं मिलेगा. तब मनीष बोले अच्छा आस-पास से ही कुछ ले आओ, तब उसने बोला टाइम ऐसा है साहब कि सिर्फ आमलेट के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा. उस वक़्त भूख इतनी ज़ोरों की लगी हुई थी कि मनीष बोले अच्छा जा यार तू वही ले आ, पूड़ी हमारे पास हैं. वो गया और आमलेट लेकर आया, वो मेरे लिए पहला मौका था जब मैने पूड़ी के साथ आमलेट खाया था, वह इतना अच्छा और स्वादिष्ट लगा था मुझे कि आज भी मुझे वो स्वाद याद है मगर फिर उस के बाद न जाने कितनी बार कोशिश कि मैंने पूड़ी के साथ आमलेट खाने की मगर वो स्वाद नहीं मिला जो उस दिन मिला था क्यूंकि उसके पीछे कारण था उस वक़्त बहुत ज़ोरों की भूख लगी हुई थी. उस वक्त तो ऐसा लगा था कि दो आमलेट भी कम हैं, खाने के बाद हम लोग शाम को मनीष के ऑफिस गये देखने के लिए कि कहाँ है और कैसा है यह सोच कर कि एक पंथ दो काज हो जाएंगे और हुए भी. इस बहाने थोडा बहुत सूरत घूमने का अर्थात आस-पास की जगह देखने का मौका भी मिल गया था. उसके बाद हमने रात का खाना भी बाहर ही खाया जो कि बड़ा अजीब लग रहा था, सब चीज़ें मीठी-मीठी, दाल में भी मिठास और कढ़ी भी मीठी और मैं ज़रा कुछ ज्यादा ही तीखा पसंद करने वालों में से हूँ इसलिए इस बात का सामना करना कि सब कुछ मीठा-मीठा ही मिलेगा मेरे लिए बहुत कठिन हो रहा था उस रात मुझसे मिठास के कारण ढंग से खाना खाया ही नहीं गया.
फिर अगली सुबह मनीष को ऑफिस जाना था वो तो रोज़ के नियम की तरह उठे, तैयार हुए और चले गए, मगर मैं क्या करती तब तो मन्नू भी  नहीं था. सिवाये बोर होने के और इस दौरान मेरे पास कुछ करने के लिये नहीं था इसलिये मैंने स्टेशन से जितनी magzines खरीदी थी सब पढ़ डाली, मैंने एक-एक पन्ना ऐसे पढ़ लिया था  कि कुछ भी  न था उन किताबों में जो मैंने ना पढ़ा हो. सिवाय किताबें पढने और टीवी देखने के आलावा मेरे पास और कुछ करने के लिए होता ही नहीं था, फिर धीरे-धीरे थोडा routine बना. मनीष के ऑफिस जाने के बाद में थोड़ी देर टीवी देखती फिर किताब पड़ती और फिर नहाकर तैयार हो जाती,  फिर जब दोपहर के खाने का वक़्त होता तो मनीष बाहर से ही खाना पैक करवा कर लाया करते थे और हम साथ बैठ कर कमरे मे ही खाना खाया करते थे फिर मनीष ऑफिस चले जाते और मेरा बोरे होने का सिलसिला फिर शुरू हो जाया करता था. मनीष के लौटने तक सो-सो कर टाइम पास करना पड़ता था. शाम को फिर जब वो होटल आते तो हर शाम हम रात का खाना खाने के लिए  बाहर जाया करते थे. खाने का खाना और घूमने का घूमना, यूँ ही दिन बीत रहे थे मुझे वहां कि रास्ते में बिकने वाली चाय बहुत पसंद आई थी वैसे में चाय के शौक़ीन लोगों में से नहीं हूँ किन्तु मुझे वहां कि चाय इतनी पसंद आई थी कि में एक ही बार में दो-दो कप पी जाया करती थी. उस वक़्त उस एक चाय के दाम ५ रूपए  हुआ करते थे. फिर एक दिन वह सज्जन जो कि हमको ट्रेन में मिले थे वह अपने पूरे परिवार के साथ हमसे मिलने हमारे होटल में आये थे, यह देखकर मुझे अच्छा तो बहुत लगा था मगर आश्चर्य  भी बहुत हुआ था. मुझे यह लग रहा था कि कैसे ट्रेन की ज़रा देर कि पहचान में उनको हम पर इतना यकीन होगया और उनको कैसे याद रह गया कि वो हमसे मिले थे. इतनी आसानी से उन्होंने कैसे हम पर यकीन कर लिया और हम उन पर कैसे यकीन कर लें, क्यूंकि आज कल की दुनिया में लोग अपनों पर भी पूरी तरह विश्वास नहीं करते, यह तो हमारे लिये फिर भी पूर्ण रूप से अनजान थे  और हम उनके लिये. किन्तु फिर भी दुनिया में सब बुरे नहीं होते उनकी तरह कुछ लोग अच्छे भी होते है  कि वह हम से मिलने हमारे होटल तक आगये और हमको घर पर खाने के लिए न्योता भी दिया.

खैर फिर हमने भी उनके घर जाने का सोचा कि वो इस अनजान शहर में हमसे मिलने आये हमारा इतना ख्याल रखा तो हमको भी जाना चाहिये, मगर खाली हाथ जाना ठीक नहीं लग रहा था इसलिए फिर हमने  pastries लीं और हम उनके घर गये तब मैंने पहली बार open kitchen plan का system देखा था कि क्या और कैसी होता है. उस के बाद फिर एक दिन हमने सूरत का लोकल बाज़ार घूमने का सोचा, उस दिन बहुत अच्छा लगा था. तब उस शहर को और भी करीब से जाना था मैंने वहां से  बहुत सारी चीज़े भी खरीदी थी जैसे फरसान, ढोकला, थेपले इत्यादि लीया और ऐसे ही एक दिन हमने होटल के कमरे पर गुजराती थाली मंगवाई थी और जब वो लेकर आया तो हमने उसे देखते हुए कहा बस एक ही बहुत है. उसके बाद तो हमने तौबा कर ली थी कि थाली तो कभी भूल कर भी नहीं मंगवाना है क्यूंकि उस एक थाली में इतने सारे पकवान थे  कि सात जन्मो के भूखे इन्सान के लिए भी वो एक थाली खा पाना मुश्किल होता. मैं जानती हूँ आप यहाँ सोच रहे होगे कि सब कि diet एक सी नही होती है कि हम लोगों का एक थाली में हो गया था तो सब का हो ही जाये.  मगर सच मानीये उस एक थाली में भोजन की मात्रा एक साधारण मात्रा में खाने वाले इन्सान के हिसाब से बहुत ज्यादा थी हम लोगों ने तो एक ही में खाया था फिर भी बच गया था एक थाली भी हम दो लोग मिलकर पूरी ख़त्म नहीं कर पाये थे .....

इसी तरह दिन गुज़र रहे थे कि मनीष के बॉस ने बोला अब होटल से किराये के घर में शिफ्ट होना पड़ेगा हालांकि हम को उस घर के लिए उन दिनों पैसा नहीं देना पड़ा था क्यूंकि मनीष ने सूरत आने से पहले ही बोल दिया था कि वो वहां पंद्रह दिन काम करके देखेगे  यदि अच्छा लगा तो ही join  करेंगे वरना नहीं और जब हम उस घर में पहुंचे  तब वहां किसी भी तरह कि कोई सुविधा नहीं थी. सिर्फ लोहे के दो पलंग पड़े हुए थे वो भी बिना बिस्तरों के, फिर उनके ऑफिस का एक आदमी किराये का बिस्तर लेकर आया और हम सो पाये. सुबह उठे तो देखा बाथरूम में बाल्टी तक नहीं थी. हाथ मुंह धोने के लिए तब किसी तरह पड़ोसियों से एक बाल्टी और एक मग माँगा था, वह एक पारसी परिवार था और उन्हें यह लगा था उस वक़्त कि हम लोग अभी-अभी नए-नए रहने के लिए आये हैं इसलिए उन्होंने हमारी इतनी मदद करदी थी वरना शायद यदि उन्हें यह पता होता कि हम लोग उस घर में दो ही दिन के मेहमान है तो नहीं करते. जरुरी नहीं है किन्तु ऐसा हो भी सकता था  मगर उन्होंने हमारी सहायता की यही बहुत था, इस बात पर मुझे वो हिन्दी फिल्म के एक गीत कि कुछ पंक्तियाँ याद आरही हैं ''Its happens only in India ....''

हमारे घर के सामने एक छोटा सा मंदिर भी था जहाँ से रोज़ सुबह शाम आरती की आवाज़ आया करती थी, सुबह-सुबह मंदिर जाने की चहल पहल से ही हमारी  नींद खुला करती थी. हालांकि हम वहां बस दो या तीन दिन ही रुके थे, मगर मेरे मन में वो शहर बस गया था. मगर जैसा कि मैंने आप को शुरू में ही बताया था अपने मन का सोचा हमेशा कहाँ पूरा होता है. मनीष को वो Job नहीं जमी और पंद्रह दिन बाद हमने वापस  जाने का फैसला लिया. जाते वक़्त हम रास्ते के लिए खाना पैक करवा ही रहे थे कि हमारी ट्रेन छूट गयी और जाती हुई ट्रेन उस वक़्त ऐसी लगती है मानो सब कुछ छूट गया हो और दो पल के लिए कुछ समझ में नहीं आता है क्या करें क्या ना करें और वैसा ही  कुछ मनीष को भी लगा था. उस वक़्त यह देख कर मुझे तो कुछ ज्यादा बुरा नहीं लगा मगर मनीष बहुत ज्यादा परेशान  हो गये  थे तब मैंने उनको समझाया था कि चिंता मत करो, ठन्डे दिमाग से सोचो कि अब क्या करना है अब गयी हुए ट्रेन तो वापस आ नहीं सकती ना  इसलिए चिंता छोड़ो और टीटी से बात करो. उनको कुछ समझ नहीं आरहा था कि क्या करें क्या ना करें क्यूँ कि उस वक़्त resevation मिलना बहुत मुश्किल था, मनीष ने टीटी से बात कि मगर तब भी जगह नहीं मिली, तब पहला टिकट कैंसल कराया फिर दूसरी ट्रेन में वेटिंग टिकट मिला. बदकिस्मती देखिये कि वोह भी confirm नहीं हुआ और हमको नीचे कम्बल बिछा कर सोते हुए आना पड़ा था. उस वक़्त मनीष को बहुत बुरा लग रहा था कि उनके होते हुए मुझे इस तरह यात्रा करनी पड़ रही है क्यूंकि इस के पहले मैंने कभी ऐसी यात्रा नहीं की थी, मेरे लिए यह  मेरी ज़िन्दगी का एक और ऐसा अनुभव था जो मुझे पहले कभी नहीं हुआ था. मैं तो नीचे बैठने तक के बारे में नहीं सोच सकती थी और सोना तो मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी, मगर वो कहते  है ना कि "जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये'' बस इसी कहावत को सच मानते हुए उस वक़्त हमने वो यात्रा की और उस नए अनुभव का मजा उठाया और इस तरह हमारा सूरत का सफ़र पूरा हुआ.

अंततः इतना ही कि आप की ज़िन्दगी में भी जब कभी किसी यात्रा के दौरान ऐसे छोटे-मोटे पल आयें  तो परेशान न हों बल्कि उनको एक नया अनुभव मानते हुए उसका मज़ा लें, तो आप को भी अपनी यात्रा सुखद तो महसूस होगी ही  साथ ही हमेशा के लिए यादगार भी बन जायेगी जैसे मेरे लिये मेरे यह यात्रा बन गयी थी.

Sunday 14 November 2010

Italy Visit...

आज मैं बात करुँगी आप से अपने Italy Tour  की, कुछ कहने से पहले या लिखने से पहले मुझे याद एक हिन्दी फिल्म के गाने की कुछ पंक्तियाँ आ रही हैं
लन्दन देखा, पेरिस देखा और देखा जापान

सारे जहाँ में कहीं नहीं है दूसरा हिन्दुस्तान

किन्तु मैंने अभी जापान नहीं देखा है वो देखना बाकि है. :) हाँ लन्दन, पेरिस और इटली ज़रूर देख लिया है और उस के आधार पर मैं इतना भी जरुर कह सकती हूँ कि दूसरा हिन्दुस्तान भले ही कहीं नहीं हो, मगर तब भी दुनिया बहुत खुबसूरत है. हर जगह अपने आप में, अपने यहाँ की सभ्यता और इतिहास को इतनी खूबसूरती से संभाले हुए है कि देखने को  मन करता है और देख कर मन में अपने आप ही उस वक़्त की कल्पना भी बनने लगती है जब का वो इतिहास है। यूँ तो आप सभी ने मेरे सब से पहले लेख में पढ़ा ही होगा की मैंने Europe के ४ देशों की कुछ खास जगहों को घूमा है जैसे Switzerland (Zurich, Geneva, Bern, Interlaken, Jungfrau) , France (Paris), Italy (Vanice, Rome, Florence, Pisa)। हालांकि इन सभी जगहों की आपस में कोई तुलना नहीं की जा सकती मगर इतना जरुर कहा जा सकता है कि हर एक जगह बहुत खूबसूरत है और दुनियाँ में देखने लायक सिर्फ बुराइयां ही नहीं है खूबसूरती भी बहुत है।

जब मैं वहाँ (इटली) गई तो मुझे समय का जैसे पता ही नहीं चला, कि ६ दिन कैसे बीत गये।  मगर हाँ मेरा बेटा जरुर थोडा बोर हो गया इस ट्रिप में, क्यूँकी वहाँ उसके मतलब का कुछ नहीं था,  जैसे की पेरिस में Disneyland था, यहाँ बच्चों से समन्धित ऐसा कोई स्थान नहीं  था। खैर ये तो रही बच्चों की बातें, जब हम वेनिस पहुंचे तो वहाँ पहुँच कर हमको पता चला कि हमको हमारे होटल तक पहुँचने के लिये water taxi या water bus करना होगा ये दो नाम सुनकर ही बहुत अजीब लगे थे मगर जब देखा तो वो एक छोटा Cruise का रूप था जिसको वहाँ के लोग water bus के नाम से पुकार रहे थे। मगर इस सब के बावजूद जब हम हमारे होटल पहुंचे तब वहाँ के Museum  के बारे पढ़ा और सुना। वहाँ का Museum  बहुत अच्छा था इसलिए वहाँ घूमने भी बहुत मज़ा आया।





सफ़र की थकान के बावजूद भी हमने उस दिन खूब घूमा और अगले दिन (Gandole) गंडोले की भी यात्रा की गंडोला बोले तो एक तरह की नाव है जिस के ज़रिये वेनिस घुमा जाता है क्यूँकि वह पूरा शहर ही पानी में बसा हुआ है। वहाँ के घर की नींव पानी के अंदर (१० मीटर ) नीचे बनी हुई है और उसके बाद पानी के उपर रहने का स्थान शुरू होता है तभी वहाँ के लोग नीचे वाले हिस्सों में न रह कर पहले मंजिल से रहना शुरू करते हैं नीचे सभी का store room बना हुआ है पानी में बसा होने के कारण उस शहर की एक अद्भुत खूबसूरती है मगर जितना खुबसूरत है उतना ही महंगा भी बहुत है आधे घंटे गंडोले से घुमने का सफ़र हमको 100 Euro का पड़ा और होटल में रहने से, वहाँ खाने पीने तक सभी कुछ बहुत महंगा लगा। खैर... जब सोच ही लिया था कि घूमने जाना है तो क्या सस्ता और क्या महंगा। अगर में ४ जगहों को तुलना करके बोलूं तो मुझे वेनिस, पीसा और रोम बहुत ही अच्छी जगह लगीं। मगर सभी जगह बस एक ही दिक्कत का सामना करना पड़ा वो था खाने की समस्या। वहाँ कहीं दूर-दूर तक भारतीय खाने का नाम नहीं था जबकि पेरिस में ऐसा नहीं था, वहाँ काफी सारे भारतीय रेस्तरां थे मगर यहाँ एक था पर हम जहाँ रुके थे वहाँ से काफी दूर था। तो रोज़-रोज़ वही पिज्जा बर्गर खा कर काम चलाना पढ़ रहा था।


वहाँ से वापस आने के बाद तो ये हाल है कि मुझे अब तो पिज्जा और बर्गर के नाम से भी उबकाई आती है  मगर भला हो Mcdonald वालों का, कि उनका रेस्तरां हर जगह उपलब्ध हो जाता है तो कम से कम खाने को एक सा स्वाद तो मिलता है वरना हम जैसे भारतीय लोगों का तो पता नहीं क्या हो। इन दिनों हम लोगो ने विदेशों में अच्छे-से-अच्छा और बुरा से बुरा खाना खाया है। अब इतनी जगह घूमने के बाद पता चली है असली हिन्दुस्तानी खाने की कीमत क्या होती है। घर के बने सादे खाने की कीमत कितना मायने रखती है, वही खाना जब न मिले तब वहाँ से वापस आने के बाद जब मैंने  घर में दाल, चावल, रोटी, सब्जी बना कर  खाई, तो हमको ऐसा लगा था मानो खाने के मामले में स्वर्ग मिल गया हो। जगह की खूबसूरती अपनी जगह है और खाने के अहमियत अपनी जगह। मगर मेरे लिये इन सभी जगहों पर  घूमना हमेशा के लिये यादगार बन जाने वाला सफ़र रहा है इसलिए मैंने हर जगह से उस स्थान से समन्धित वस्तुएं भी खरीदी हैं ताकि आगे भी याद के तौर पर वो मेरे पास रहें और मुझे इस यात्रा की याद दिला सके। फोटोग्राफ्स के मामले में मुझे रोम और पीसा के फोटो सब से ज्यादा अच्छे लगे। दोनों ही दिन मौसम खुला हुआ था और दोनों जगह भी बहुत अच्छी हैं।





पिसा के टेढ़ी मीनार विश्व के सात (७) अजूबों में से एक है और हकीकत में भी उसे देख कर लगता है कि वो सच में अपने आप में एक अजूबा ही है ८ माले की मंजिल और इतनी टेढ़ी बनी हुई है और लोग उस पर चढ़-चढ़ कर देखते भी हैं तो लगता है इतने लोग चढ़ेंगे तो कहीं गिर ही न जाये। पीसा की मीनार पूरी संगमरमर की बनी हुई है और आप टिकट लेकर ऊपर तक जा सकते हैं, लेकिन ऊपर जाने के लिये २९६ सीढ़ी चढ़नी पड़ती हैं। मैं तो ऊपर नहीं गयी क्यूंकि ८ साल से छोटे बच्चों का जाना मना है तो मुझे मन्नू के साथ नीचे रुकना पड़ा। लेकिन मेरे पतिदेव ऊपर तक गये थे और उन्होंने बताया कि ऊपर से इतना अच्छा दिखता है और डर भी लगता है कि गलती से भी गिर गये तो हड्डी भी नहीं बचेगी  :)...






हाँ मगर रोम में जाने के बाद एक एहसास जरूर होता है कि इन अंग्रेजों ने हमरे देश की खूबसूरती को तो नष्ट कर दिया मगर खुद के देशों में अपनी खुद की सभ्यता और संस्कृति को बहुत संभाल कर और सजो कर रखा है वो देख कर अच्छा भी लगता है और गुस्सा भी बहुत आता है इन अंग्रेजों पर मगर खैर किया भी क्या जा सकता है अब ...अगर सूक्ष्म रूप में कहूँ तो पूरे इटली में ईसामसीह के जन्म से लेकर उनके सूली पर चढ़ाये जाने तक और उसके बाद उनको उतार ने से लेकर Good Friday की कहानी ही सभी पेंटिंग्स में नज़र आती है मगर ताज्जुब की बात यह है कि इन  सभी चीज़ों को अंग्रजों ने संग्रहालय (Museum) और गिरजाघरों (Churches)के माध्यम से इस कदर संभाल कर रखा  है और लोगों के सामने प्रस्तुत किया है कि हर जगह से इन सभी स्थानों को देखने के लिये लाखों करोड़ों सैलानी आते हैं  जिन में सब से ज़यादा Chinese होते हैं,  इनका  १५-१६ लोगों का एक-एक समूह होता है और किसी hall  में बैठ जाओ और पत्थर  फेंको तो इन चिन्कियौं को ही जाके लगेगा, ऐसा वाला हिसाब होता है. इन लोगों को देख कर लगता है कि इन के पास बहुत पैसा है यूरोप के हर देश में यह लोग बड़ी तादाद में घूमते फिरते नज़र आते हैं जबकि Europe UK से भी महँगी जगह है. यह तो थी रोम, पिसा और वेनिस की बातें.





अब बात करते हैं Florence की जो कि मशहूर है एक मशहूर मूर्तिकार माइकल एंजेलो  (Micheal Angelo) के लिये जिसका पूरा बचपन Florence में बीता, उसके द्वारा बनाई गयी अनगिनत मूर्तियाँ वहाँ के संग्रहालयों में लगी हुई है, ख़ास कर डेविड की मूर्ती  और Leonardo da Vinci ने भी अपनी पहली पेंटिंग वहीँ बनायी थी। Florence शहर देखने में बहुत छोटा सा है कि पैदल ही शहर की अधिकतर जगहों पर घूमा जा सकता है। सुनने में फ्लोरेंस का नाम ऐसा लगता है कि शायद वहाँ ऐसा कुछ खास नहीं होगा। हमको भी इटली जाने के पहले ऐसा ही लग रहा था  मगर वहाँ पहुँचने के बाद हमने जाना वहाँ की खासियत क्या है।


क्या आप जानते हैं रोम से पहले इटली की राजधानी फ्लोरेंस ही हुआ करता था, हमारे गाइड ने हमे बताया था कि एक समय में फ्लोरेंस बहुत ही अमीर शहर हुआ करता था, खास कर कला के क्षेत्र में बहुत आगे था, जो कि वहाँ की पेंटिंग्स में साफ़ देखा जा सकता है। यहाँ तक के दुनिया भर के नामी गिरामी कलाकार वहाँ कला की शिक्षा प्राप्त करने वहाँ जाया करते थे।




Uffizi  संग्रहालय में एक से एक पेंटिंग्स देखने को मिलती हैं खासकर वीनस का जन्म की पेंटिंग, उसके अलावा बहुत सारी मूर्तियाँ भी हैं. संग्रहालय घूमने के लिये गाइड लेना, मुझे अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारने जैसा लगा. मगर यह ज़रूरी नहीं कि आप को भी ऐसा ही लगे, मुझे ऐसा इसलिए लगा क्यूँकि गाइड हर एक पेंटिंग के बारे में इतना विस्तार से बताता है की आप बजाय उसमें रूचि लेने के, बोर  होने लग जाते हैं.  लेकिन वहाँ के संग्रहालय में जो चीज़ें रखी हुए हैं वो ज्यादातर ऐसी हैं जो सिवाई वहाँ के पूरी दुनिया में और कहीं नहीं है जैसे वहाँ रखे हुए कुछ म्यूजिक उपकरण  जिस में से एक वोएलिन  टाइप का था जिसके तार आज तक नहीं बदले गये और उनमें आज भी वैसे ही ध्वनी निकलती है जैसे कि तब निकला कारती थी





और एक था वहाँ रखा पियानो जिसकी खासियत यह थी कि उसका पिछला हिस्सा जो कि सामान्यता फ्लैट होता है, मगर वहाँ रखे हुए पियानो का पिछला हिस्सा खड़ा था और यह सब ऐसी चीज़ें हैं जो दुनियां में और कहीं नहीं है इसलिए शायद वहाँ फोटो लेनी की  मनाही है ऐसे ही कुछ वहाँ लगी हुए पेंटिंग्स की भी खासियते हैं जैसे उदहारण  के लिये मैं आप को बताऊँ Florence के एक संग्रहालय में Mother Mary की एक  पेंटिंग लगी है  वो सिर्फ इसलिये मशहूर है कि उसमें  Mother Mary के थोड़े से दांत देखाए गये हैं और breast  भी जो की एक पारदर्शी पहनावे के ज़रिये दर्शाने की कोशिश की गयी है और कुछ एक पेंटिंग  इसलिए मशहूर हैं कि उनमें असली सोने का उपयोग किया गया है. वो ज़रूर देखने में बहुत अद्भुद लगता है  जिस तरीके से उसमे सोने का  इस्तेमाल किया गया है और जैसा कि मैंने आप को पहले भी बताया है कि फ्लोरेंस कला के क्षेत्र में बहुत ही मशहूर शहर रहा था  और वहाँ के लोगों के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी इसलिए वहाँ की पेंटिंग्स तक में सोने का काम है और इतना ही नहीं वहाँ उस ज़माने में पहले सोने का काम पेंटिंग्स में ही नहीं, कपड़ों में भी किया जाता था इसलिए यहाँ माइकल एंजेलो और Leonardo da Vinci जैसे प्रख्यात कलाकारो ने अपनी कला की शुरुवात यहीं से की थी.  मगर इन सब का फोटो लेना मना है यही नहीं वहाँ अधिकतर संग्रहालयों में फोटो लेना मना है, जबकि पेरिस में ऐसा कुछ कहीं नहीं था तो इस सब के आधार पर मैं कह सकती हूँ कि Venice में गंडोला, Florence में संग्रहालय, Pisa में मीनार और Rome में Collesum और St. Peter  Basalica Church देखने लायक जगह हैं जिनहें देखने लोग दुनिया भर से आते हैं. यदि आप ने English फिल्म Gladiator देखी है





तो आप को Collesum के बारे में कुछ भी बताने की ज़रूरत ही नहीं है और यदि नहीं, तो एक बार देख लीजिये.  उससे आप को ज्यादा अच्छे से समझ में आ जायेगा कि Collesum क्या है और कैसा हुआ करता था. उस ज़माने में फिल्म को देखने के बाद जब आप असली जगह को देखते हैं तो दिमाग में वही खूनी खेल की तस्वीरें उमड़ती हैं कि कैसे उस ज़माने कि लोग यहाँ वो हैवानियत का खेल कितनी आसानी से अपने मनोरंजन के लिये खेला करते थे.





मैं फिल्मों की बहुत शौकीन हूँ इसलिए मेरी हर बात किसी न किसी फिल्म से जुड़ जाती है जैसे Venice में Gandole की यात्रा करते वक़्त मुझे वो गाना याद आ रहा था  ''दो लफ्फ्जों की है ये कहानी, या है मुहोब्बत या है जवानी ''फिल्म क नाम था The Great Gambler  और जहाँ तक बात है St. Peter Basalica church की तो वो भी आप शायद जानते ही हों कि ये दुनिया का सब से बडा  church है और pope भी यहाँ बैठते हैं. यह हमारे यहाँ के तीर्थ स्थानों जैसी जगह है. यहाँ के लोगों के लिये इसलिए शायद यह एक ही होने के कारण इतना मशहूर है और इतना भव्य है कि देखते ही बनता है इसके अंदर जो कलाकारी की गयी है जो संगमरमर लगाया हुआ है जो मूर्तियाँ लगी हुए हैं उनको तो बस एक बार देखो तो देखते ही रहो. पोप वहाँ खुद आकार Prayer करते हैं और करवाते हैं पोप से मिलने की इजाजत नहीं होती किसी को अब तक वहाँ जितने भी पोप हुए हैं सभी के इतिहास भी वहाँ मौजूद है सुना है कि वहाँ लगा marble यानि संगमरमर Collesum से ही लाकर लगाया गया है.


आज की तारिख में रोम सबसे ज्यादा अमीर शहरों में से एक है क्यूंकि दुनिया भर के  चर्च  से जो भी donation  जमा होता है उसका कुछ हिस्सा यहाँ आता है अब तो खैर यह एक प्रख्यात शहर बन गया है मगर एक समय में यह एक Vatican City एक देश हुआ करता था जिसमें मात्र 550 लोगों की ही जनसंख्या  हुआ करती थी मगर अब यह Vatican city रोम का ही एक हिस्सा है.


अन्तः बस इतना ही कहना चाहूंगी कि अगर घूम सकें तो दुनिया ज़रूर घूमिये, दुनिया बहुत खूबसूरत है इसमें जितनी बदसूरती है आज  आतंकवाद भ्रष्टाचार के चलते उतनी ही खूबसूरती  भी है इन जगहों के होते... जय हिंद

Tuesday 26 October 2010

Education

Education अर्थात शिक्षा जिसका अर्थ होता है साक्षरता. जिसके माध्यम से हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि क्या सही है और क्या ग़लत. जिसके आधार पर हमको अपनी ज़िन्दगी की कठिन अवसरो में फैसला करने में आसानी होती है. शिक्षा हमारे जीवन का एक ऐसा अनिवार्य पहलू है जिसके बारे में जितना कहा जाये उतना ही कम होगा और इसलिए मैं समझती हूँ कि हर व्यक्ति का साक्षर होना बहुत ज़रूरी है, क्यूंकि शिक्षा  ना  केवल आप को अपनी जीवन के सही फैसले करने में सक्षम बनाती है बल्कि आप को ज़िन्दगी में कामयाबी भी दिलाती है इसलिए आज कल हमारे देश में भी साक्षरता पर ध्यान दिया जा रहा है और सरकार  भी लोगों को साक्षर होने के लिए प्रोत्साहित कर रही है जिसके चलते सरकारी स्कूल में किताबें और शिक्षा सम्बन्धी हर चीज़ मोहैया कराई जाती है और जिन लोगों के पास खाना नहीं है पढाई के लिए पैसे नहीं है उन सभी बच्चों को स्कूल में ही भोजन भी उबलब्ध कराया जाता है और मैं भी यह मानती हूँ कि एक प्रगतिशील देश की रफ़्तार को और बढाने के लिए जितने ज्यादा से ज्यादा लोग साक्षर होंगे उतने ही तेजी के साथ हमारा देश आगे बढेगा.

जैसा कि मैं आप सभी को अपने पहले लेख से अब तक के लेख तक यह बता चुकी हूँ कि मैं जो भी लिखती हूँ वो मेरे अनुभव हैं यह भी एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है बात करने का, मैंने एक बहुत बड़ा अंतर महसूस किया, यहाँ की शिक्षा और अपने यहाँ यानि (भारत) की शिक्षा प्रणाली में और यहाँ में यह भी बताना चाहूंगी कि यह अंतर मुझे महसूस हूआ, यहाँ आने के करीब ढाई साल बाद जब मेरा बेटा (मन्नू) year 1 में पढने लगा. Year one मतलब भारत  के हिसाब से class 1st . वरना उसके पहले तो मुझे लगता था कि यहाँ रहकर मेरा बेटा कुछ नहीं सीखेगा और भारत के बच्चों के मुकाबले सब से पीछे रहेगा और सही कहूँ तो आज भी मुझे कभी-कभी यही लगता है, क्यूंकि यहाँ कि जो शिक्षा प्रणाली है वो हमारे यहाँ से बहुत अलग है. हमारे यहाँ पढाई पर जितना जोर दिया जाता है उतना यहाँ नहीं दिया जाता या यूँ कहो के उसके  मुकाबले में तो यहाँ दिया ही नहीं जाता है. यहाँ बच्चों पर पढाई का ज़रा भी दबाब नहीं है, यहाँ के स्कूल शिक्षिका का कहना है कि जितना आप के बच्चे ने स्कूल में पढ़ लिया उतना काफी  है. उसे अलग से घर पर सिर्फ किताब पढ़ने में मदद करें और बहुत ज्यादा ध्यान देने की ज़रूर नहीं है, मगर हमारे यहाँ उल्टा होता है वहां के शिक्षक बोलते हैं सिर्फ स्कूल की पढाई काफी नहीं है आप को घर में भी बच्चे को पढ़ाना चाहिए, और सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि पढ़ाने के तरीके में भी बहुत बड़ा अंतर है. जो मुझे महसूस हुआ यहाँ पढाई को creativity के आधार  पर पढाया जाता है और हमारे यहाँ रट वाया जाता है

जैसे एक उदहारण के तौर पर में आप को बताऊँ यहाँ भूगोल (geography ) ऐसे नहीं पढाई जाती  कि बस हाथ में नक्शा  (map) थमा दिया और बोल दिया कि रट लो कितने पहाड़ और कितनी नदियाँ है या फिर कितने राज्य हैं या ऐसा कुछ. बल्कि यहाँ बच्चों को उनकी कक्षा अध्यापिका खुद स्कूल से किसी एक जगह पर ले जाती है और बच्चों से यह कहा जाता है कि आप लोग ध्यान से देखो की यहाँ से वहां तक के रास्ते  में आपने क्या-क्या देखा और क्या आप यहाँ अकेले आ सकते हो या उस Map  में बता सकते हो, कि हम कहाँ  से चले थे और किस रास्ते से यहाँ तक पहुंचे हैं, ऐसा करने से बच्चों को भी मज़ा आता है क्यूंकि उनको अपनी अध्यापिका के साथ अपनी कक्षा से बाहर जाने को मिलता है, साथ ही अपने दोस्तों के साथ कुछ नया और रोचक तरीके से सीखने को मिलता है.  यह तो सिर्फ एक विषय भूगोल (geography ) के बारे में उदहारण था आप के लिए...

किन्तु मेरे कहने का तात्पर्य यह था की यहाँ बच्चो को पढाई में मज़ा आये उस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है, बनिस्बत इस के कि वो कितना पढ़ते हैं ज्यादा या कम वो उतना मायने नहीं रखता. वो पढाई को कितना enjoy करते है वो देखा जाता है यहाँ, किन्तु में यहाँ यह भी कहना चाहूंगी कि यह तरीका सही है. मगर तब तक, जब तक आप यहाँ है. यदि आप को UK छोड़ कर वापस भारत लौटना है तो यहाँ की शिक्षा पद्धति की यह तारिफ शायद आप के बच्चे के लिए उपयुत नहीं, क्यूंकि पढाई का बच्चे पर यहाँ तो जरा भी दवाब नहीं, मगर भारत में दुगना है जिस के कारण आप का बच्चा शायद वहां के माहौल में तालमेल बिठाने में खुद को कमज़ोर महसूस कर सकता है. यही नहीं पढाई को और भी ज्यादा रोचक बनाने के लिए यहाँ हर कक्षा में बच्चों से खाने पीने की चीज़ें भी बन वाई जाती है जैसे cookies,biscuit ,pan cakes इत्यादि. यहाँ भी वो सारे विषय होते  हैं जो इंडिया में  पहली कक्षा के छात्र के होते है वही english , maths , science geography etc etc ....मगर बस यहाँ पढ़ाने का ढंग बहुत अलग है जिस के कारण यहाँ बच्चा पढाई से ऊबता नहीं है और ना ही पढाई का दवाब महसूस करता है, मगर हमारे यहाँ की शिक्षा प्रणाली ठीक उल्टी है. माना की हमारे यहाँ के बच्चे पूरी दुनिया में पढाई के  मामले में सब से आगे हैं....मगर इसका मतलब यह नहीं कि उन नन्हे -नन्हे बच्चों को पढाई के बोज़ तले  इतना दवाब डाला जाये की वो अपना बचपन ही भूल जाएँ और यही होता है आज कल इंडिया में छोटे-छोटे मासूम बच्चों के बसते का भार उनकी उम्र से ज्यादा होता है. हमेशा किसी न किसी परीक्षा कि तैयारी में लगे बच्चे अपने बचपन को वैसे enjoy कर ही नहीं पाते जैसे करना उनका हक बनता है. हर महीने test फिर 3rd monthly फिर 6th Monthly फिर pre -board और फिर Final exams और इतना ही नहीं इस सब के आलावा गर्मियों की एक महीने की छुटी के बाद फिर स्कूल खुल जाना और पढाई शुरू हो जाना. यहाँ तक कि छुटियाँ भी सिर्फ home work में बिताना होती है तो ऐसे में बच्चा अपना बचपन जीये  कब, बचपन से लेकर जवानी तक हमारे यहाँ बच्चों को बचपन जीने का अवसर ही नहीं मिलता और ऐसा सिर्फ मेरा ही मानना नहीं है बल्कि यहाँ रहने वाले सभी भारतीयों का भी कहना यही है, कि भारत की शिक्षा प्रणाली ने भारत के बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है और बहुत हद तक यह बात एक दम सच है ...

इस का मतलब यह नहीं है कि मैं वहां कि पढाई के खिलाफ हूँ या मुझे पसंद नहीं है मैं तो खुद चाहती हूँ कि मेरे बच्चे की बची हुई पढाई अब भारत मैंने हो इसलिए नहीं कि वहां कि पढाई तेज़ है और यहाँ के धीमी बल्कि इसलिए क्यूंकि मेरा मानना यह है कि पढाई जहाँ कि भी हो बस वहीँ की पूरी हो, यह नहीं कि आधी यहाँ की और आधी वहां की. ऐसे में बच्चा और भी ज्यादा पिस जाता है और खुद को adjust नहीं कर पाता, उसके लिए बहुत मुश्किल हो जाता है नयी शिक्षा प्रणाली के हिसाब से खुद को ढालना. यहाँ रहकर जा चुके लोगों से भी हमने बात की है तो उनका कहना भी यही है कि यदि हमको भारत वापस लौटना है तो हमको मन्नू कि पढाई को लेकर सोचना होगा ज्यादा से ज्यादा मन्नू सात (७) वर्ष का होने तक हम यहाँ रहने का सोच सकते हैं उसके बाद नहीं, क्यूंकि यदि हमने उसके बाद देर की तो मन्नू के लिए वहां के स्कूल की शिक्षा पद्धति में खुद को ढालना कठिन हो जायेगा. मतलब यह कि उस स्तर कि पढाई के हिसाब से खुद को adjust करना उसके लिए बहुत कठिन हो जायेगा. सोच तो हम भी रहे ही हैं कि उसके सात वर्ष पूरे होने तक वापस अपने देश भारत लौट जाएँ अब देखिये आगे क्या होता है. यहाँ मैंने play group और school के बारे में अनुभवों को लिखा है.


1 Play group
Play group और nursery के लिए सरकारी और प्राइवेट दोनों ही प्रकार के स्कूल हैं, कुछ प्राइवेट स्कूल क्रेच जैसा भी काम करते हैं हांलांकि उनकी फीस ज्यादा होती है और तीन साल से बड़े बच्चों के लिए सरकार ढाई घंटे की शिक्षा का खर्चा सरकार उठाती है. सामान्यतः सभी प्राइवेट स्कूल में पांच-पांच घंटे के दो session होते हैं और एक session कि fees 18 से 30 pound के बीच होती है वो अलग-अलग स्कूल की सुविधाओं पर निभर करता है. यहाँ पर मैं आप को एक बात और बताना चाहूंगी कि यहाँ के प्राइवेट स्कूल में छोटे बच्चों को टेबल मैनर्स से लेकर साधारण चाल चलन तक के सभी तरीके सिखाये जाते हैं. कि कैसे कांटे और छुरी से खाया जाता है कैसे नैपकिन का उपयोग किया जाता है यहाँ तक कि बच्चे का खाना भी स्कूल वाले खुद ही बना कर परोसते हैं.
हाँ यह बात अलग है कि यदि आपके बच्चे को वहां का खाना पीना पसंद न आये तो आप उसको घर से भी टिफिन दे सकते हैं. यह मैं यहाँ इसलिए बता रही हूँ क्यूंकि साधारण तौर पर भारतीय बच्चे को यहाँ का खाना पीना उस दौरान पसंद नहीं आता है और यही नहीं पांच साल तक के सभी बच्चों को 250ML Milk भी मुफ्त दिया जाता है. कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि यहाँ pre-school या यूँ कहिये कि play group दोनों के लिए ही सरकार किसी भी तरह का कोई दवाब नहीं डालती है. यदि आप भेजते हो अपने बच्चे को तो बहुत अच्छी बात है उल्टा सरकार उसके लिए शिक्षा संबंधी खर्चा भी उठाती है. तो यह तो थी प्राइवेट स्कूलों या play -group की बात, अब बात आती है proper स्कूल की, जो कि शुरू होता है reception class से यहाँ KG1 एवं KG2 को एक साथ जोड़ कर, एक ही साल का करके उससे reception का नाम दिया गया है इसके बाद ही शुरू होता है Year 1 जिसको अपने यहाँ यानि भारत में पहली कक्षा बोलते हैं.


स्कूल ( school )
यहाँ पर ज्यादातर सरकारी स्कूल ही हैं और क्यूंकि पढाई का स्तर एक जैसा ही है तो लोग इस Race में नहीं रहते कि उन्हें किसी ख़ास स्कूल में admission करवाना है अपने बच्चे का चाहे वो पंद्रह किलोमीटर दूर ही क्यूँ ना हो हालाकि admission के टाइम पर आप तीन स्कूलों के नाम दे सकते हैं और admission प्रोसेस के दोरान आप के द्वारा चुने गए तीनो स्कूल, बच्चे के माता पिता को स्कूल को देखने के लिए आमंत्रित करते हैं ताकि आप को स्कूल चुनने में आसानी रहे और आप को स्कूल सम्बन्धी जानकारी पूर्ण रूप से प्राप्त हो सके कि कितना बड़ा स्कूल है, कैसा है, कितनी दूर है इत्यादी ...
बाकी तो यहाँ पढाई का स्तर क्या है और कैसा है वह मैं आप को उसका पूर्ण विवरण पहले ही दे चुकी हूँ. इससे आप को समझ में आ ही गया होगा कि क्या फर्क है हमारे यहाँ कि शिक्षा प्रणाली और यहाँ कि शिक्षा प्रणाली में यह सब देख कर ख्याल आता है कि क्यूँ हमारे यहाँ के सरकारी स्कूल यहाँ के जैसे सरकारी स्कूलों की तरह नहीं हो सकते हैं. तो बस दो ही चीज़ें जहन में आती हैं वो यह कि एक तो सबसे बड़ा और एकमात्र  कारण है पैसा, अर्थात हमारे यहाँ के सभी अविभावक अपने बच्चों को केवल प्राइवेट स्कूल में ही भेजना चाहते है क्यूंकि एक तो पडोसी के बच्चे से तुलना और हमारे यहाँ प्राइवेट स्कूल का स्तर इतना उठा दिया गया है कि लोग सरकारी स्कूल को निम्न द्रष्टि से देखने लगे हैं. फिर भले ही प्राइवेट स्कूल की फीस देने में अभिभावकों कि पूरी तनख्वा ही क्यूँ ना चली जाये. वो अपने बच्चे को अच्छे-से-अच्छे नामी गिरामी स्कूल में ही भेजना पसंद करते हैं क्यूंकि सरकारी स्कूल को लेकर भारत में हमारी मानसकिता ही ऐसी बन गयी है कि उसका स्तर अच्छा नहीं होता क्यूंकि वहां के शिक्षकों की आये दिन duty कभी चुनाव में लगती रहती है या फिर किसी न किसी शिविर में लगी होती है ऐसे में उनके पास समय ही कहाँ कि वो अपनी कक्षा के विद्यार्थियों पर ध्यान दे सकें, दूसरा सरकारी स्कूल कि फीस बहुत ही कम होती है इसलिए वहां हर तबके के लोग अपने बच्चे को दाखिला दिला देते हैं जिस के कारण हम जैसे मध्यम वर्गीय परिवार को लगता है कि उन बच्चों के साथ रहने से हमारा बच्चा भी बिगड़ जायेगा या यूँ कहिये कि उनके तौर तरीके सीख जायेगा, जिसको आम तौर पर हम अच्छा नहीं मानते. जबकि यह बात पूर्ण रूप से सच नहीं है ऐसा प्राइवेट स्कूल में भी होता है मगर हमारी मानसिकता ही ऐसी बन गयी है कि मैं खुद अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में भेजना पसंद नहीं करुँगी हालाकि मैंने खुद भी दो साल वहां पढ़ा है और मुझे ऐसा कोई ख़राब अनुभव भी नहीं हुआ. यहाँ पढने वाले सभी बच्चे एक से होते हैं मगर तब भी मुझे नहीं लगता कि मैं खुद कभी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में भेज पाऊँगी क्यूँकि मानसिकता तो मेरी भी वही है ना. यहाँ मुझे वो कहावत याद आती है जो काफी हद तक सही भी है  कि ''एक गन्दी मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती  है''

बस इतना ही कहना चाहूंगी कि आप अपने बच्चों को ज़रूर पढ़ाइये और हो सके तो, किसी एक व्यक्ति को साक्षर बनाने का प्रयत्न  भी ज़रूर कीजिये क्यूंकि साक्षरता ही एक ऐसा हथियार है जो हमारे देश को काफी हद तक गरीबी को कम कर सकता है. यहाँ मुझे एक साक्षरता पर आधारित विज्ञापन याद आरहा है जिसकी पंक्ति कुछ इस तरह थी
पढ़ना लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों 
पढ़ना लिखना सीखो ओ भूख से लड़ने वालों 
क, ख, ग, को पहचानो,  अलिब को पढ़ना सीखो 
अ, आ, इ, ई को हथियार बना कर लड़ना सीखो

Saturday 16 October 2010

दोस्तों शायद ज़िन्दगी बदल रही है

यूँ तो यह विषय भी अब बहुत पुराना हो चुका है और बहुत से लेखक इस विषय पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं लेकिन फिर भी में एक बार फिर इस विषय पर अपने विचारों से थोड़ी सी  रौशनी और डालना चाहूंगी. आज कल कि भाग दौड़ वाली ज़िन्दगी में सचमुच ऐसा ही लगता है कि शायद ज़िन्दगी बदल रही है अगर इस बात पर गहनता से सोचो तो लगता है कि सच में हम कल क्या थे और आज क्या हो गये हैं यह वक़्त का तकाजा है या हमारी अपनी करनी, यह कहना तो कठिन है. मगर जरा आप अपनी ज़िन्दगी में पीछे मुड़ कर देखिये तो शायद आप को एहसास होगा कि कल से लेकर आज तक हमारी ज़िन्दगी कितनी बदल गयी है. इस बात को यदि आप लोगों के समक्ष रख कर बात करेंगे तो हर कोई यही कहेगा कि यह वक़्त का तकाजा है वक़्त बदलता है तो हमें भी उसके साथ बदलना ही पड़ता है. वरना वक़्त हमें कहीं का नहीं छोड़ता इस बात पर मुझे एक हिन्दी फिल्म का संवाद याद आ रहा है कि ''वक़्त कभी नहीं बदलता सिर्फ गुज़रता है अगर कुछ बदलता है तो वह है इन्सान'' और यदि इस बात पर गहनता से विचार किया  जाये तो यह बात अपने आप में एक बहुत गहरे अर्थ को छुपाये  हुये है में इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ सच में वक़्त नहीं बदलता, अगर कुछ बदलता है तो वो है इन्सान. आप खुद ही देखलो कि जब हम स्कूल जाया करते थे तब दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी. मुझे आज भी याद है वो मेरे घर से मेरे स्कूल का रास्ता, वहाँ क्या-क्या नहीं था,  चाट की दुकाने, बर्फ के गोले, क्या नहीं था वहाँ. मगर आज देखो तो क्या है वहाँ मोबाइल शॉप, वीडियो पार्लर, साइबर कैफे. फिर भी सब सूना है. शायद दुनिया सिमट रही है. इसी तरह जब हम छोटे थे तो शाम बहुत लम्बी हुआ करती थी हम घंटो स्कूल से आने के बाद भी अपने उन्ही दोस्तों के साथ समय बिताया करते थे, वो बचपन के खेल, वो खेलने जाने का उतवाला पन,  वो शाम होते ही दोस्तों का इंतज़ार, कि कब कोई आकर पुकारे और हम खेलने के लिये दौड़ जाएँ. वो शाम को खेल कर थक कर चूर हो जाना. मगर अब शायद शाम ही नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाया करती है'' शायद वक़्त सिमट रहा है'' .....

जब हम छोटे थे तब शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी, दिन भर दोस्तों के साथ खेलना वो दोस्तों के घर का खाना और घर वापस आकार मम्मी कि डांट खाना. वो लड़कों कि बातें, वो साथ हँसना हँसाना और कभी-कभी साथ में रोना भी, वैसे तो अब भी मेरे कई दोस्त है मगर दोस्ती का तरीका ही बदल गया है. कभी रास्ते में मिल जाते है तो बस hello hi हो जाती है और सब अपने-अपने रास्ते निकल जाते है. होली दीवाली, जन्मदिन या नए साल पर SMS आजाते है शायद रिश्ते बदल रहे है..... यह सारी बातें अपने आप में कितनी सच मालूम होती है आज यही तो है हमारी ज़िन्दगी, जिसमें न हमारे पास अपने खुद के लिये समय है और न ही हमारे अपनों के लिये कोई वक़्त, मगर फिर भी हम यही कहते हैं कि वक़्त बदल गया है. माना कि बचपन गुजर गया है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपने उन दोस्तों को ही भूल जाएँ जिनके साथ हमने कभी दोस्ती की कभी न टूटने वाली कसमे खाई थी. अपना उस वक़्त का हर सुख दुःख बांटा था, उसे ही भूल जाये. आज कहाँ गया वो सब जिसे बस अब हम केवल याद किया करते हैं.

जब हम छोटे थे तब शायद खेल भी अजीब हुआ करते थे जो हकीकत से बहुत अनजान और मासूम हुआ करते थे वो घर-घर खेलना, वो मम्मी पापा बनना, लंगडी  खेलना, वो पोशम्पा भाई पोशम्पा खेलना, वो लुका छुपी.  मगर अब तो इन खेलों का स्थान  भी बदल गया है अब इन खेलों कि जगह इन्टरनेट और विडियो गेम्स ने लेली है. बच्चों की ज़िन्दगी में अब इन खेलों ने जहाँ अपना स्थान बना लिया है, वहीँ हम बड़ों को अपने ऑफिस से फुर्सत ही नहीं मिलती, कि हम अपने ज़माने के इन खेलों के बारे में उनसे बात भी कर सके, खेलना तो दूर की बात है. जब में इन बातों को गहराई से सोचती हूँ तो ना जाने कितने अनगिनत सवाल मेरे मन में उठते है, जिनका जवाब मुझे कभी मिला ही नहीं या यूँ कहना ज्यादा ठीक होगा शायद जवाब मिला तो मगर वो सही है या नहीं. उस का फैसला में आज तक नहीं कर सकी क्यूँ हम लोग आज अपनी ज़िन्दगी में इतना सिकुड़ कर रहे गये हैं ? क्यूँ हर वक़्त हम अपनी personal Life का राग अलापा करते है, कहाँ गयी वो सारी बातें जो हम अपने दोस्तों से घंटों किया करते थे, कहाँ गया वो जज्बा जब कोई अच्छे बुरे, ऊंच नीच, झूठे मीठे  का कोई भेद नहीं होता था हमारे मन में होती थी तो बस दोस्ती कि भावना. तब तो हम सब दोस्तों के हाथों छुड़ा-छुड़ा कर खा लिया करते थे और अब hygiene - hygiene गाया करते है. पहले तो हारे थके खेलने के बाद कहीं भी रोड पर पानी मिल जाये तो पी लिया करते थे और अब mineral water का गाना गाते है. हर कोई अपनी निजी ज़िन्दगी का  गाना गाते हैं, अब हमारी अपनी ज़िन्दगी इतनी सिकुड़ गयी है कि अब उसमें हमारे दोस्तों के लिये जगह नहीं बची है. अब एक छोटे से खेल लूडो को ही ले लीजिये, हमारे ज़माने के खेल अष्ट चंगा पै...कि जगह लूडो ने लेली है सारे वही नियम, बस स्वरुप बदल गया है. ज़रा सोचिये क्या हमने खुद कभी अपने बच्चो को बताया है कि इस खेल का स्वरुप पहले क्या हुआ करता था और आज क्या है. खेल वही है लेकिन स्वरुप और खेलने वाले दोनों ही बदल गये. क्या इसे भी आप वक़्त का तकाजा कहेगे शायद ज़िन्दगी बदल रही है..... आज की ज़िन्दगी में ज़िन्दगी का लम्हा बहुत छोटा सा है, आने वाले कल की कोई बुनियाद नहीं है आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है और हम ...अपनी इन तमन्नाओं से भरी इस ज़िन्दगी में बस भागे चले जा रहे हैं. जबकि आज हमें खुद क्या चाहिये शायद हम खुद भी नहीं जानते कहते है. एक सफल ज़िन्दगी का अर्थ होता है घर, गाड़ी, नौकर-चाकर और इसे हम खुशहाल ज़िन्दगी का नाम देते है. क्या बस यही है एक सफल ज़िन्दगी की परिभाषा है. क्या हमको इस से ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए  और अगर यही सच है तो फिर हम किस दौड़ में शामिल है और कहाँ भाग रहे है  और क्या है हमारी मंजिल.

क्यूँकि आज के इस आधुनिक युग में घर, गाड़ी और एक सामान्य ज़िन्दगी गुजारने के लायक पैसा तो हर कोई कमा  ही लेता है, किन्तु तब भी आज किसी की ज़िन्दगी में न वक़्त है, न सुख है, न चैन है और ना ही कोई अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट है. आखिर क्यूँ हम ज़िन्दगी जी रहे हैं क्या सच में हम ज़िन्दगी जी रहे हैं ? या काट रहे हैं? यहाँ मुझे वो बात याद आती है जो कि शायद ज़िन्दगी का सब से बड़ा सच है जो कि अकसर कब्रिस्तान के बाहर लिखा होता है ''कि मंजिल तो यही थी मगर ज़िन्दगी गुज़र गयी मेरे यहाँ आते-आते''.

अंत में बस इस विषय में आप सभी से केवल इतना ही कहना चाहूगी की दोस्तों ज़िन्दगी शायद नहीं, यक़ीनन बदल गयी है इस लिये मेरा आप सब भी से अनुरोध है कि जिंदगी को जियो, काटो नहीं....और अपने आने वाली नई पीढ़ी को भी जीवन जीना सीखाईये, काटना नहीं. क्यूंकि जीना इसका नाम है यहाँ मुझे एक पुरानी हिन्दी फिल्म के एक गीत कि कुछ पंक्तियाँ याद आरही है कि ''किसी कि मुस्कुराहटों पे हो फ़िदा, किसी का दर्द मिल सके तो ले उठा ,किसी  के  वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है '' जय हिंद ....

Saturday 9 October 2010

Common Wealth Games (CWG) and Media

News channels और आप या हम वैसे देखा जाये तो यह विषय बहुत पुराना हो चुका है हजारों लाखों लोग इस विषय पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं और मैं अपने विचार व्यक्त करने की कोशिश कर रही हूँ वैसे इस बारे में  मेरा अपना कोई निजी अनुभव नहीं है किन्तु फिर भी मुझे लगा कि शायद में इस विषय पर लिख सकती हूँ इस सिलसिले में आप को यहाँ बताना चाहूंगी कि इस विषय पर आधारित फिल्म (रण) मुझे बेहद पसंद आयी थी उस में जो भी कुछ दिखाने कि कोशिश की गयी थी उस से मैं काफी हद तक सहमत हूँ, मगर इस सब के बावजूद में यह मानती हूँ कि मीडिया ही एक ऐसा जरिया है आज कल जो हमारे देश को और अन्य देशों कि नज़रों में बहुत बढ़ा भी सकता है और बहुत हद तक गिरा भी सकता है. या यूँ कहा जाये की मीडिया देश का आईना है तो गलत नहीं होगा.

मगर में यहाँ थोड़ी रोशिनी डालना चाहूंगी आज कल चल रहे ताज़ा topic CWG के उपर,  आज कल हर  न्यूज़ चैनल लगा है इसी विषय को लेकर अपनी-अपनी राय देने और अपने-अपने news channel के जरिये एक ही बात को  घुमा फिराकर एक अलग ढंग से पेश करने.  मगर मेरा प्रश्न यह है कि किसी भी news channel का असली काम क्या है मेरे हिसाब से इस बात का उतर यह होना चाहिये कि हम तक किसी भी समाचार को सही ढंग से पहुँचाना  अर्थात न कि उसको बढ़ा चढ़ा कर एक मसालेदार समाचार बना कर पेश करना. जैसा कि आज कल CWG के विषय को लेकर हो रहा है और उस बारे में जान कर सुन कर पढ़ कर मुझे बेहद अफसोस के साथ कहना पढ़ रहा है कि हमारे यहाँ के सभी न्यूज़ चैनल बर्बाद हैं. यहाँ में किसी तरह कि कोई तुलना नहीं कर रही हूँ कि यहाँ के अच्छे है या वहां के ख़राब मगर इतना तब भी यह ज़रूर कहूँगी कि हमारे यहाँ के सभी न्यूज़ चैनल बर्बाद है.
जो खुद अपने ही हाथों से अपने देश कि इज्जत डुबोने में लगे हुये हैं. मैं यह नहीं कहती कि वो सिर्फ हमेशा दूसरे देशों की ख़बरों को ही उजागर करे और अपने देशों कि ख़बरों को नहीं मगर मेरा मानना यह है कि न्यूज़ चैनल आज के दौर में हर एक देश के आईने कि तरह काम करते हैं  और उस आईने में वो खुद के देश की छवि को ही ख़राब ढंग से दिखाना शुरू कर देंगे तो अन्य देश के लोगों को तो खुलेआम ऊँगली उठाने का परिहास करने का मौका मिलेगा ही ना.

माना कि सभी समाचार पत्रों का और news channels का काम ही यही है कि समाचार चाहे जहाँ का भी उस के अंतर्गत सच पूर्ण रूप से सामने लाने का प्रयास होना चाहीये. वह भी बिना किसी भेद भाव के, मगर ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है आज कल यहाँ (UK) के अख़बारों में CWG से जुडी सभी खबरे नकारात्मक रूप से छापी जा रही है जिसके कारण हमारे देश कि बहुत छवि ख़राब हो रही है और इस वजह से जो लोग CWG  खेलों के प्रति उत्सुकता या जोश रखते भी हैं उस विषय में जानने  के लिये ,पढने के लिये, उनका उत्साह भी कम हो जाता है. ऐसे में ख्याल आता है एक यही मीडिया ही है जो हमारे देश की नाक बचा सकता है और यहाँ के लोगों में जो उत्साह football world cup के दौरान हुआ करता है उस जोश को जगा सकता है. मगर हो उलटता ही रहा है यही मीडिया आज हमारे देश कि इज्जत बचाने के बदले खुद अपने हाथों हमारे देश कि इज्जत लुटाने  में लगा है वहां की अव्यवस्था  को लेकर यहाँ के अख़बारों में रोज़ ही फोटो समेत आलोचनाएँ छप रही हैं जिसके चलते आम लोगों के नज़रों में  भारत की छवि बहुत बिगड़ रही है जो कि हम भारतीय लोग के लिये बहुत ही शर्मनाक बात है

मेरा ऐसा मानना है कि यहाँ हमारे यहाँ के सभी news channels को मुख्य भूमिका निभाते हुए CWG खेलों के प्रति लोगों को वहां कि अव्यवस्था के साथ जो भी अच्छे इंतजाम हैं, उन पहलूओं को भी उजागर करना चाहिये जिससे की  लोगों को वहां के नकारात्मक बिन्दुओ के अलावा वहां होने वाले कुछ सकारात्मक बिंदु भी दिखाई दें सकें जैसे इतने सालों बाद हमारे देश में इतने बड़े स्तर पर CWG खेलों का होना ही अपने आप में एक बहुत बड़ी एवं महत्वपूर्ण बात है और उससे जुडी कुछ अच्छी तस्वीरें जैसे stadiums का फोटो या और उस से जुडी अन्य और  तस्वीरें ताकि विदेशी खेल प्रेमियौं  का इस हद तक उत्साहवर्धन हो सके कि वो इन खेलों को देखने भारत जाने के लिये आतुर हो जाएँ. वैसे  मै यहाँ यह भी कहना चाहूगी कि जैसा यहाँ football world cup के दौरान हुआ था कि जब तक विश्व कप शुरू नहीं हुआ था उसके पहले वहां के अर्थार्थ Africa के stadium के बारे में मीडिया ने कहीं कोई किसी तरह कि जानकारी नहीं दी थी कि वहाँ किस तरह कि तैयारियों हो रही हैं या बाकि है या चल रही हैं. सीधा खेल का प्रसारण ही किया गया था या जब कभी इस विषय में कोई समाचार पढने या सुने को मिलता भी था. तो वो पूरी तरह से अच्छा हुआ करता था न कि हमारे यहाँ कि तरह सिर्फ बुराईयाँ ही दिखाई जाती थी जैसे आज कल दिखाई जा रही हैं और छापी जा रही हैं कहने का मतलब यह कि जब उन लोगो ने पहले से नहीं गाया तो हमारे यहाँ वाले क्यूँ खुद गागा कर सबको अपनी कमज़ोरियाँ खुद ही बता रहे हैं और अगर मामला प्रचार का है तो अच्छी बातों के ज़रिये भी तो प्रचार किया जा सकता है फिर क्यूँ यह सभी news  chennels  अपने देश की बदनामी आप करने में लगे हुए हैं.

लेकिन CWG के भव्य उदघाटन ने होने वाली सभी आलोचनाओ को ग़लत साबित कर दिया और यह सभी News channels ने भी उसे बहुत सराहा कि जितनी वहाँ की बद इन्तजामी को लेकर पहले बुराईयाँ की गयी थी वो सभी लगभग निर्थक साबित हुई और यहाँ के लोगों ने भी उसे बहुत सराहा और पसंद किया. लोगों को जानने का मौका मिला कि जो तस्वीर उनके सामने पहले पेश की गयी थी वो पूर्ण रूप से सही नहीं थी. जैसा मैंने पहले कहा कि उस छवि को बदलने में भी मीडिया का ही हाथ है.
लेकिन सवाल है यही चीज़ पहले भी दिखाना चाहिये था कि ज्यादातर इंतज़ाम बहुत अच्छे हैं और कुछ इंतज़ाम में ये कमियाँ हैं. लेकिन मीडिया का सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ TRP पर है और कोई भी छोटी सी छोटी खबर को मसालेदार बना कर पेश करना ही मुख्य उद्देश्य बन गया है. जबकि उनको ये भी समझने कि जरूरत है उनकी किस खबर से क्या असर होगा.

अंत इतना ही कहना चाहूंगी इन सभी मीडिया वालों से सही ख़बरों के दोनों पहलूओं को पूर्ण रूप से जनता के सामने प्रसारित करें ताकि आम जनता के मन में उस समाचार के प्रति सिर्फ एक ही सोच न बने बल्कि वो उन दोनों पहलूओं पर विचार करके अपना मत रख सकें और जान सकें कि क्या सही है और क्या ग़लत या फिर ऐसा कहना ज्यादा ठीक होगा कि क्या सच है और क्या झूठ.... जय हिंद






Friday 1 October 2010

Festivals (त्योहार)

त्योहार जो अपने आप में ही एक ऐसा अर्थ छुपाये होते है जिसका मतलब होता है ख़ुशी, क्यूंकि त्योहार का मकसद ही तभी पूरा होता है जब आप के दिल में ख़ुशी हो, उत्साह हो, फिर चाहे उस दिन या उस वक़्त कोई त्योहार हो या ना हो. मगर जब आप किसी भी कारण से बहुत खुश होते हो, तो आप को अपने आप में ही इतना अच्छा लगता है कि आप उस दिन को खुद-ब-खुद त्योहार के जैसा महसूस करने लगते हो...ये तो रही मेरे हिसाब से त्यौहार की परिभाषा  और यदि मैं बात करूँ साधारण शब्दों में त्योहार के मतलब की, तो वो तो आप सब जानते ही हैं कि हर  एक प्रांत में अलग-अलग धर्म  में अपने-अपने धर्म और सभ्यता के हिसाब से त्योहार मनाये जाते हैं जैसे हिन्दू दीपावली, दशहरा, होली, राखी  इत्यादि, मुसलमानों में रमजान, ईद, मुहर्रम इत्यादि, वैसे ही सिखों में गुरुनानक जयंती, लोहड़ी, बैसाखी इत्यादि और इसाईयौं में क्रिसमस, ईस्टर , गुड फ्रायडे इत्यादि.

 यहाँ(UK) आने से पहले मुझे नहीं पता था कि इसाईयौं का एक त्योहार और भी होता है, वो है Halloween जिसके अंतरगत यह लोग कद्दू(Pumpkin) को मुखोटे के रूप में काट कर उसके अन्दर बल्ब लगा कर डरावना बनाते है और भी अलग-अलग ढंग से डरावनी वेश भूषा में घूमते फिरते हैं. वैसे अगर में बात करूँ त्योहार मनाने के अलग-अलग ढंग को लेकर तो यहाँ का मुख्य आकर्षण है शोपिंग.त्योहार चाहे जो भी हो ये लोग खरीदारी बहुत करते हैं,

यहाँ तक की Haloween जैसे त्योहार पर भी बाज़ार तरह-तरह की डरावनी वेशभूषा  से भरा होता है वैसे ही कपडे, उसी रूप में साज सज्जा का सामान और खाने पीने की भी अधिकतम सामग्री भूत प्रेत से प्रेरित होकर बनाई जाती है जैसे :- ग्लास रखने का स्टैंड कंकाल के हाथ के रूप में होगा.... रबर के कटे हुए हाथ पैर तरह-तरह की डरावनी आवाज़ वाले म्यूजिक सिस्टम इत्यादि....ठीक वैसे ही ईस्टर पर हर चीज़ अंडे के रूप में बिकती है खास कर Choclates और खरगोश के रूप में भी. छोटी-छोटी Choclates अंडे के रूप की जो बाहर से देखने में भी अंडे जैसी और अंदर से भी उनमे क्रीम भरा होता है.  कच्चे अंडे के समान और इतनी मीठी की मिठास की भी हद हो जाये. Halloween और Easter वाले दिन सभी बच्चों को स्कूल में भी रंग बिरंगे कपड़ों में बुलाया जाता है जैसे  halloween वाले दिन भूत बनकर या कोई भी डरावना पात्र बनकर जाना होता है जिसको बच्चे बहुत Enjoy  करते हैं और Easter पर खरगोश बनकर उस दिन भी बच्चों को बड़ा मज़ा आता है. इन दो त्योहारों पर विशेष कर स्कूल में Fancy Dress प्रतियोगिता भी रखी जाती है.

मगर इस सब के बावजूद भी मैं यहाँ इतना ज़रूर कहना चाहूंगी कि त्योहार का जो मज़ा हमारे भारत में आता है वो कही और नहीं, उसका एकमात्र कारण यह है की यहाँ सामाजिक जीवन(Social life ) सिर्फ Bar  और Parties तक ही सीमित है. त्यौहार चाहे जो भी हो ना कोई किसी के घर आता है, ना जाता है और हमारे यहाँ कितना भी छोटा से छोटा त्यौहार क्यूँ ना हो, चार पांच दिन पहले से ही उस त्यौहार से समन्धित चहल-पहल दिखाई देना शुरू हो जाती है. भारत में त्यौहार कोई भी हो कैसे मनाया जाता है यह तो आप सब को पहले ही पता है इसलिए मैं उस विषये मैं कुछ नहीं कहूगी मैं बात करुँगी यहाँ सिर्फ और सिर्फ क्रिसमस कि हमारे यहाँ मनाया जाने वाला क्रिसमस और यहाँ मनाया जाने वाला क्रिसमस.

हर एक धर्म वाला पूरी दुनिया में कहीं भी हो, वो अपना त्योहार मनाता ही है..... मगर यहाँ(UK)  त्योहार मानने का तरीका बहुत अलग है , यहाँ तो त्यौहार कोई सा भी हो हिन्दुस्तानियौं का या अग्रेजों का, पता ही नहीं चलता है कि कब आया और कब चला गया, बस कुछ दिन बाज़ारों में रोनक  दिखती है फिर सब गायब हो जाता है. हमारे यहाँ भी काफी हद तक ऐसा ही होता है किन्तु हमारे यहाँ धार्मिक प्रवर्ती शायद कुछ ज्यादा ही है जिसके कारण घरों में भी उस त्योहार से सम्बंधित तैयारियां शरू हो जाती है जिनके कारण गली मौहल्ले में भी उस त्यौहार का आभास होने लगता है जैसे होली के लिए रंग एवं पिचकारियाँ  तो बाज़ार में कुछ दिन पहले ही आना शुरू होते हें मगर घरों में तरह तरह के पकवान बनना शुरु हो जाते हैं जैसे गुजिया, पपडिया, मिठाईयाँ. . मगर यहाँ इन के यहाँ ऐसा नहीं होता यहाँ बस बाज़ारों में ही आप को पता चलता है कि कौन सा त्योहार आने वाला है घरों में उस त्योहार से सम्बंधित कोई तैयारी देखने को नहीं मिलती.  उसका भी एक और महत्वपूर्ण कारण है छोटे बाज़ार जो यहाँ नहीं होते या यूँ कहना ज्यादा ठीक होगा कि बहुत कम होते हें ज्यादातर बड़ी दुकाने या shoping mall ही होते हें इस वजह से भी यहाँ त्योहार का वो महौल नहीं बन पाता जो अपने भारत में बहुत आसानी से बन जाता है. अब बात आती है भारत में मनाये जाने वाले क्रिसमस कि वहां भी क्रिसमस के दिन लोग घरों में केक बनाते है, दिवाली के दिन की तरह नई चीज़े खरीदते है. मगर मुझे जो फर्क महसूस हुआ वो यह कि वहां सभी लोग चाहे वो खुद christian  हो या न हो, क्रिसमस के दिन अपने सभी christian दोस्तों से मिलने जाया करते हैं और सभी एक साथ मिलकर मानते है, ऐसा कम ही देखने को मिलता है वह लोग केवल अपने परिवार के लोगों के साथ मिलकर मना रहे हो और इतना ही नहीं वह लोग अगले दिन अपने आस पड़ोस में केक प्रसाद के रूप में देकर भी अपने त्यौहार कि खुशियौं को सब के साथ बाँट कर मनाया करते है. मगर यहाँ ऐसा नहीं होता  और तो और यहाँ क्रिसमस तक का पता नहीं चलता बाज़ार ज़रूर भरे होते है, तरह-तरह की खाने पीने की सामग्री से, कपड़ों से, Gift items से, मगर क्रिसमस वाले दिन मौहल्ले तक की सड़कें खाली सुनसान और वीरान दिखाई पड़ती हैं. एक परिंदा भी दिखाई  नहीं देता.

और जैसा कि मैंने आप को पहले कहा  है कि मैं बात करुँगी यहाँ सिर्फ क्रिसमस कि क्यूंकि इन के यहाँ सामूहिक परिवार का चलन ना होने के कारण यह लोग क्रिसमस पर सामूहिक/पारिवारिक dinner  करना ही त्योहार मानने जैसा मानते हें. सुबह सब चर्च चले जाते है और शाम को अपने दोस्तों और परिवार के साथ,  केक काटते हैं. वह क्रिसमस केक ही इनके यहाँ की मुख्य  मिठाई या यूँ कहीं कि भोग की तरह होता है उसके बिना क्रिसमस मनाना जैसे हमारे यहाँ बिना भोग के पूजा करने जैसा है इस के अलावा दो और महत्वपूर्ण चीज़ें और भी हैं जिनके बिना क्रिसमस अधूरा सा माना जाता है यहाँ और वह है पीने में Wine और खाने में टर्की (Turkey) अवश्य होना चाहिये. क्रिसमस वाले दिन लगभग सभी घरों में यह तीन चीज़े मुख्य रूप से होती हैं और टर्की का होना तो इतना अनिवार्य है कि उससे यह पता लगता है कि कौन कितना अमीर है. जिसके घर में जितने बड़ा (ज्यादा किलो) का टर्की बनेगा वह परिवार उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा. 
उन दिनों यहाँ बाज़ारों में टर्की इतना ज्यादा बिकता है, कि कई बार तो उसकी कमी हो जाती है.  यह लोग अपने लोगों के आलावा और दूसरे घर्म के लोगों से मिलने जुलने में भी ज्यादा विश्वास नहीं रखते, ना ही ज्यादा मिलना जुलना पसंद करते हैं. अपने यहाँ जैसा नहीं कि जो मिला आपने उसको शुभकामनाएं देकर wish कर दिया, बिना ये सोचे समझे कि वो हिन्दू है या मुसलमान या फिर कोई और धर्म को मानने वाला. जैसे अपने यहाँ जब ईद होती है तो हर कोई एक दुसरे को ईद मुबारक बोलता है चाहे फिर वो कोई भी संप्रदाय का ही क्यूँ  ना हो, मगर इनके  यहाँ ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है यह लोग बस अपनी Comunnity में ही रहना ज्यादा पसंद करते हैं.

अगले दिन पूरा बाज़ार ऐसा बंद होता है मानो करफ्यू लगा हो यहाँ में एक बात और बताना चाहूंगी कि हमारे यहाँ भी दिवाली के बाद ऐसा ही होता है, यदि आप दिवाली के अगले दिन बाज़ार जाओ तो आप को वहां भी सब बंद ही मिलगा. किन्तु फिर भी लोगों की बहुत चहल पहले दिखाई पड़ती है मगर यहाँ तो करफ्यू सा जान पड़ता है. सब मिलाकार  बस यह कहा जा सकता है कि यहाँ त्यौहार मानाने का मुख्य आकर्षण या यूँ कहो की तरीका बस एकमात्र shopping ही है, हर एक त्यौहार पर बस खरीद  फ़रोख्त करके ही  यह लोग यह मान लेते हैं कि उन्होंने त्यौहार मना लिया. खास कर क्रिसमस के बाद जो boxing day के नाम से प्रचलित दिन है यहाँ उस दिन बाज़ार के सभी दुकानों में Sale लगती है और हर एक तरह का सामान मिलता है जिसके लिए लोग रात-रात भर कतार में खड़े रह कर खरीदा फरोखी करते है क्यूँ उन दिन यहाँ भी हमारे यहाँ कि तरह हर चीज़ पर खूब छूट (sale )चलती है मगर तभी यह लोग बाहर मस्ती नहीं कर पाते हमारे इंडिया कि तरह इनका यह त्योहार आता ही भरपूर सार्दियौं  में हैं और यहाँ तो क्या दुनिया में अधिकतर जगहों पर इस मौसम  में बर्फ गिरा करती है तो कोई भला चाहे भी तो कैसे मज़े करे बाहर... मगर इनके यहाँ तो त्यौहार में भी दस तरह के Restrictions हैं बोले तो पाबंदियां, अब चाहे वो क्रिसमस हो या दीवाली आप को यदि फटाके चलाने है तो उसका एक निश्चित समय,एक निश्चित स्थान  होगा और एक निश्चित समय भी तय होगा आप को उस स्थान पर जाकर ही फटाके चलाने होंगे और जो समय तय है, उस समय तक ही आप फटाके फोड़ सकते हो उसे ज्यादा नहीं क्यूँ.... ताकि दूसरों को आपके फटाकों की आवाज़ से disturb (परेशानी) ना हो...यह बात अपनी जगह एक हद तक सही भी है मगर मेरे हिसाब से यह हर एक व्यक्ति की अपनी-अपनी सोच पर निर्भर करता है कि किसको क्या पसंद आता है जैसे अगर मैं अपनी ही बात करूँ तो मुझे यह पाबंदियां ज़रा भी पसंद नहीं क्यूंकि त्यौहार साल में एक ही बार आता है खैर यह मेरा नजरिया है.

 बाज़ार के आधार पर में कहूँ तो दीवाली पर बस यहाँ के  बाज़ारों में एक मात्र चीज़ फटके ही हैं जो देखने को मिलते हैं जिससे लगता है कि हाँ दिवाली आने वाली है वरना उसका भी पता ही ना चले की कब आई और कब चली गयी, मगर कम से कम यहाँ दिवाली पर फटाके तो मिल जाते है वही बहुत है.  इसलिए ऐसे में नॉन कम्युनिटी के लोगों के त्योहार का ख्याल रखते हुए उन्हें यह महसूस न होने देना कि वो अपने वतन से दूर है अपने आप में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है

इस मामले में मुझे अपना भारत मस्त लगता है चाहे जो करो जितना मर्ज़ी हो करो कोई रोकने टोकने वाला नहीं भरपूर मज़ा  लो अपने त्योहार का बिना किसी के डर के जैसे चाहो वेसे मनाओ जितना मन करे जितनी देर तक मन करे फटके फोड़ो मस्ती करो और सही मायने में तो त्यौहार का मज़ा ही तभी आता है. एक वही तो दिन होता है खुल के जीने का जिसमें लोग अपने निजी जीवन की सारी परिशानियौं को भूल कर जीवन का आनंद उठाते हैं और उसमें यदि कोई किसी प्रकार की पाबंदी लगा दे तो त्यौहार का सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाये,  इसलिए'' EAST AUR WEST INDIA IS THE BEST ''. भारत से बाहर आने के बाद पता लगा कि हमें भारत में कितनी आजादी दे रखी है.  खैर मैंने तो बस इस लेख  के माध्यम से दोनों जगहों में मनाये जाने वाले त्योहारों के तरीके में जो अंतर है उससे बताने के कोशिश की है.........

मैं यहाँ इस विषय पर इतना ही कहना चाहूंगी कि त्यौहार चाहे किसी भी मज़हब का क्यूँ ना हो ख़ुशी ही देता है और जीवन कि कठिनाइयों  से उबर कर एक नया जीवन जीने का उत्साह भी जगाता है, नया जीवन अर्थात पुरानी परेशानियों को भूल कर, पुराने दुखों को भूल कर, एक नई शुरुआत करने का अवसर भरपूर उमंग के साथ जीवन को नए सिरे से शुरू करने की प्रेरणा देता है. कोई भी त्यौहार आने वाली नई पीढ़ी को संस्कार सीखाता है, इसलिए मैं यह मानती हूँ कि धर्म चाहे जो भी हो अच्छी ही बातें सिखाता है ,और त्योहार चाहे कोई भी हो खुशियाँ ही लाता है इसलिए हर त्यौहार को पूरी उमंग के साथ मनाईये  और उसका भरपूर आनंद उठाइए और आपसी  मतभेदों को भूल कर खूब हँसीये हंसाइये और  जीवन का मज़ा लीजिये फिर चाहे वो दिवाली के पटाखे हों या ईद कि सिवैयां या फिर बैसाखी कि मस्ती हो या क्रिसमस का केक खूब खाईये और खूब खुशीयाँ मानिए  फिर देखिये आप का जीवन भी कैसे खुशियौं से भर जाता है ....क्यूंकि ''राम रहीम एक हैं एक हैं काशी काबा'' .....जय हिंद

Sunday 26 September 2010

Temples (मंदिर)

मंदिर एक ऐसा शब्द है जिसका नाम सुनते ही या पढ़ते ही आप के मन में श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है, श्रद्धा जो आप के अंतरमन से उत्पन्न होती है और होनी भी चाहिये. यदि ऐसा नहीं होता तो उस श्रद्धा के कोई मायने नहीं रह जाते, वो महज़ एक दिखावा बनकर रहे जाती है और इसलिए मेरा आप सभी पाठको से निवेदन है  कि यदि आप को भी ऐसा लगता है कि आप के मन में भगवान के प्रति कोई श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो रही है तो मंदिर जाने का दिखावा मत कीजिये, अर्थात हमेशा वही काम कीजिये जिसके  लिए आप अन्दर से तैयार हों  यानी सच्चे मन से आप उस काम को करने के लिए तयार हों तभी करिए फिर चाहे वो पूजा हो या अन्य कोई और कार्य.

जब यहाँ(UK) पहली बार मंदिर जाने का मौका आया तो मुझे लगा था, कि मंदिर तो सभी जगह के एक जैसे ही होते है उसमें क्या India या UK मगर यहाँ के मंदिरों में जाने के बाद मुझे एक अलग ही अनुभूति का अनुभव हुआ, मैं यह  सोच कर गई थी कि भारत के मंदिरों में जैसा माहौल होता है वैसा ही यहाँ भी कुछ होगा. पहले भी मैं रोज़ मंदिर जाने वालों में से नहीं थी. मगर हाँ इतना जरुर है कि मुझे मंदिर जाना हमेशा से अच्छा लगता था वहां का माहौल, मंदिर की घंटियाँ, पंडित जी का जाप, आरती, प्रसाद, इन सबसे बहुत अच्छे और पवित्र भाव मन में उत्पन्न होते थे. बचपन में जब हम अपनी नानी के घर जाया करते थे तो हमारी मम्मी और मौसी हम सब भाई बहिनों को एक साथ मंदिर ले जाया करती थी और प्रसाद के लालच में हम लोग भी हमेशा तैयार रहा करते थे,


खैर.... ये तो थी बचपन की बात और मैं बात कर रही हूँ यहाँ London के मंदिर के विषय में.  यहाँ आने के बाद मैंने सब से पहला मंदिर जो देखा वो था Neasden (london) का स्वामीनारायण मंदिर, जो कि बहुत ही भव्य मंदिर है और उतना ही विशाल और सुंदर भी, मगर वहां जाने पर मेरे मन में वो श्रद्धा के भाव उत्पन्न नहीं हुए जो भारत के मंदिर में हुआ करते हैं. शायद इसलिए कि मेरे मन पर उस वक़्त भारत के मंदिरों कि छवि बनी हुए थी मगर यहाँ LONDON के इस मंदिर ने अंग्रेज़ी कि उस कहावत को सच साबित किया है की Something is better then nothing जहाँ दूर-दूर तक मंदिर के बारे में सोचा भी ना हो वहां इतना भव्य मंदिर का मिलना या होना सच  में अपने आप में एक बहुत महत्वपूर्ण बात है और जैसा कि हम जानते हैं, आज के ज्यादातर हिंदी धारावाहिकों के चलते लोगों के मन में गुजराती समाज कि छवि ही ऐसी बन गयी है वो अन्य समाजों कि तुलना में पैसे वाली society है तो यहाँ भी वही बात देखने को मिली. यहाँ london का स्वामीनारायण मंदिर हो या crawley का apple tree center संस्था के द्वारा बनाया गया मंदिर हो.  दोनों ही गुजराती समाज द्वारा बनवाये गए मंदिर है जो कि यहाँ आपको अपने वतन से दूर होने के बावजूद भी आप को धार्मिक स्थल पर पास होने का एहसास दिलाते हैं. जैसे हर एक त्यौहार पर उस मंदिर में सभी हिन्दू जाति के लोग एक साथ होकर पूजा करते है और छोटे मोटे कार्यक्रम करके त्यौहार का मज़ा उठाते है. जैसे नवरात्रि  पर गरबा जिसके बिना शायद नवरार्त्री का मज़ा ही नहीं आता, उसका भी आयोजान मंदिर में किया जाता है और लोग वहां जाके अपने उस इच्छा को पूरा कर लेते है भले ही वो मंदिर के हॉल में ही क्यूँ न हो मगर बहुत अच्छा लगता है कि चलो उतने बड़े स्तर पर न सही मगर कुछ तो है जो आप को महसूस करता है कि आज कोई त्यौहार है  और सिर्फ इतना ही नहीं दीपावली पर Prince Charles खुद भी आते हैं london के स्वामी नारायण मंदिर में पूजा के लिए. अंग्रेजों के देश में पहले ही हिन्दुस्तानियौं का इतना बड़ा मंदिर होना उस पर इतने बड़े त्यौहार दीपावली का इतना भव्य आयोजन होना और उस पर भी यहाँ के रोयल फॅमिली का उसमें शामिल होना.  उन के देश मैं अपने त्यौहार की महत्ता को और भी ज्यादा बढ़ा देता है और यह अपने आप मैं एक बहुत ही बड़ी और महत्वपूर्ण बात है.

अब में आप को बताऊँ Crawley के मंदिर का मेरा अपना अनुभव मैं यहाँ UK में सिर्फ दो ही बार मंदिर गयी हूँ.  यहाँ एक और मंदिर है जो की गुजराती संस्था द्वारा बनाया गया है और उसके सभी सदस्य ज्यादातर गुजराती ही हैं. जब हम पहली बार उस मंदिर में गए तो वहां के मंदिर कि खूबसूरती और वहां विराजे भगवान् जी कि खुबसूरत मूर्तियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया था. मगर वहां जिस तरीके से लोग व्यवहार कर रहे थे और जिस तरीके से वहां के पंडित जी ने पूजा अर्चना और आरती की तो लगा ही नहीं कि हम मंदिर में खड़े हैं. सब कुछ बनावटी महसूस हो रहा था, हालांकि यह हो सकता है कि गुजराती समाज में भारत मैंने भी इसी तरह से पूजा अर्चना की जाती हो, मगर जब यहाँ देखा तो सब औपचारिकता लगी. न पूजा में मज़ा आया, न आरती में कोई श्रद्धा आई. अर्थात मन के अंदर से जो भगवान् जी के प्रति आदर श्रद्धा और भक्ति के भाव आना चाहिये, वो ज़रा भी नहीं आये जैसे भारत के मंदिरों में जाने से आते हैं. अब पता नहीं ये मेरे साथ ही हुआ या फिर यहाँ रहने वाले सभी भारतीय हिन्दुओं के साथ भी होता है. इससे तो अच्छा मुझे अपने घर में ही स्वयं पूजा करना ज्यादा अच्छा लगता है. पहले तो एक छोटी सी जगह में बना मंदिर था, Crawley का  यह मंदिर तो बहुत बाद में बना है यूँ कहिये कि अभी-अभी ही बना है.
 अंतत  इतना ही कहूँगी कि यदि आप पहली बार UK या अन्य किसी भी और दूसरे देश में जा रहे हैं और आप बहुत ही ज्यादा धार्मिक प्रवत्ति के इन्सान है तो भारत के मदिरों की छवि लेकर मत जाइयेगा बस अपने अंतरमन की श्रद्धा  और भक्ति से पूजा अर्चना करियेगा वरना शायद आप कि धार्मिक भावना  को ठेस  भी पहुँच सकती है.

Tuesday 21 September 2010

Village visit...

गाँव एक ऐसा शब्द है जिसको सुनते ही ज्यादातर भारतवासीयों को अपनत्व की भावना उत्पन्न होने लगती है, आँखों के सामने वहां के सारे चित्र दिखाई देने लगते है बिलकुल एक चलचित्र कि तरह, जैसे भारत से बाहर रह कर हम भारत को बहुत याद करते हैं ठीक वैसे ही भारतवासी भारत में रहे कर खुद के गाँव को बहुत याद किया करते हैं, बच्चों के दादा दादी, अपने नाती पोतों को अपने-अपने गाँव के किस्से  सुनाया करते हैं कि उन्होंने कितने  मज़े किये हैं अपने गाँव में और उनकी कितनी सारी यादें जुडी हैं उनके अपने गाँव से और आज कि युवा पीढी (young generation ) उसने तो गाँव नाम कि चीज़ सिर्फ फिल्मों में ही देखी है, जैसा सुहाने गावँ का नक्शा उसमें खिंचा जाता है उससे बच्चे यही समझते हैं कि सच में हर गाँव ऐसा ही होता होगा, यहाँ तक कि मुझे भी ऐसा ही लगता था और अगर सच कहूँ तो शायद पंजाब के गाँव ऐसे ही होते भी होंगे लेकिन मैंने जो गाँव अपनी ज़िन्दगी में पहली बार देखा था वो था राजस्थान राज्य  के झालावाड जिले का एक छोटा सा गाँव जिसका नाम था "डग" जो कि.....इंदौर से कुछ 200 km दूर है.



वहां मैं अपनी मौसी और अपने बड़े भाई के साथ गयी थी और मेरे साथ मन्नू भी था, वहां जाकर पहली बार मैंने जाना कि खेत क्या होते हैं, कैसे दिखते हैं, वहां मैंने पहली बार लहसुन का खेत देखा और जो कुछ भी मैंने वहां देखा सब एक तरह से पहली बार ही देखा था, सिवाय एक कुंए के. वहां पास ही में एक खुली प्याऊ जैसी थी जिसमें जानवरों के पीने के लिए पानी भरा जाता था, वो भी मैंने पहली बार ही देखा था. वो मेरे लिए एक बहुत ही अच्छा और यादगार अनुभव है, वहां मैंने पहली बार मिट्टी में गड्ढा करके बाटी बनाते देखी और खेत में बैठ कर खाने का मज़ा और स्वाद तो मुझे आज तक याद है, तब मुझे मेरे भाई साहब ने ताज़े ताज़े खोद कर  निकले हुए लहसुन को आग में भून कर खिलाया था खाने के साथ, तब उस वक़्त मुझे वो बहुत अच्छा लगा था मगर उसके बाद से आज तक फिर वो स्वाद  मुझे कभी नहीं मिला जो उस दौरान मिला था. फिर मेरे मौसी मुझे भिन्डी और फलियौं(French beans ) के खेत में लेकर गयी थीं वहां मैंने पहली बार अपने हाथों से सब्जियां तोड़ीं, मन्नू को भी बहुत मज़ा आरहा था.

उस दिन बहुत मज़े और  मस्ती की थी हम ने. यहाँ तक के आम के पेड़ों से कैरियां तोड़ी थीं और हम आस पास कि बहुत सारी जगह भी घुमने गय थे. जैसे वो गुरु चेला कि समाधी जिससे एक कहानी जुडी है कि वो समाधियाँ पहले दो अलग स्थानो पर थोड़ी दूरी पर बनाई गयी थी, मगर अब धीरे-धीरे पास आती जा रही हैं. ऐसा कुछ मगर अभी पूर्ण रूप से मुझे भी याद नहीं है. खैर उस बारे  में फिर कभी ...वहां पास में एक देवी का मंदिर भी हैं वहां भी गए थे हम और वहीँ एक चमत्कारी हनुमान मंदिर भी  है. हम वहां थोडा ऊपर वहां भी गए थे,  इतने करीब से मन्नू ने शायद पहली बार हकीकत में बंदर और मोर देखा था, हम सब ने उसका फोटो खीचने के लिए तो बहुत जतन  किये थे, हमारे साथ एक और शख्स थे जिनका नाम था पार्थो दादा, वो तो मोर के पीछे मेरा cell फ़ोन लेकर काफी दूर तक गए थे, मगर जैसा फोटो वो खींचना चाहते थे वैसा नहीं खिंच पाए थे. वहां जाने पर एक अरसे बाद में छत पर सोई थी वो रात को छत पर लेटे-लेटे चाँद को देखते हुए सोना और सुबह -सुबह चिड़ियों कि चहचहाने से उठना, उसके बाद पोहा और गाँव के बाज़ार में बनी जलेबी का नाश्ता, जिस पर हल्की सी धूल कि परत भी थी. मगर  बिना कुछ देखे बिना खा लिया, गावं का स्वाद पूरी तरह लेने के लिए. पूरी तरह उन सारे अनुभवों का लुफ्त उठाया, यहाँ तक कि मैंने वो १ रुपये वाली रंगीन ice cream भी खाई और मन्नू को भी खिलाई, तब यह जान कर बहुत अजीब लगा था कि अब भी १ रूपये में कुछ मिलता है  जिसमें मुंह से लेकर हाथ पैर तक सब रंगीन हो जाता है. बिना यह सोचे समझे कि वो किस पानी से बनी है या कब की बनी है मन्नू ने भी बहुत Enjoy की थी वो ट्रिप या यूँ कहो कि सही मायने में उसने ही सब से ज्यादा आनंद उठाया था. खेत में घूमते वक़्त उसके पैरों में कई बार बहुत सारे कांटे भी चुभे, जिन्हे देखकर मुझे बहुत दर्द हुआ क्यूंकि उन नन्हे पैरों ने कभी जाना ही नहीं था कि कांटे क्या होते हैं.

इसलिए शायद मुझे दर्द हुआ था मगर उसे ज्यादा नहीं, क्यूंकि उसे तो मज़ा आरहा था अपने मामाजी के साथ मस्ती करने में उसे इन सब चीज़ों की कोई परवाह ही नहीं थी और मैंने भी उसे पूरी तरह उसे फ्री छोड़ दिया था.  इससे  मुझे मेरी मौसी की कही हुई एक बात याद आती है, खास कर जब भी मैं गर्मियौं में चाय पीती हूँ तब, बात उस वक़्त कि है जब हम सब लोग खेत में बैठ कर खाना खा  रहे, तब आंधी आई थी और सभी की पत्तलों में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी मिल गई थी तब सबने कहा था कोई बात नहीं, कभी कभी खाने के साथ अपनी मिटटी का भी स्वाद ले लेना चाहिये और उस के बाद जब एक नींद लेने के लिए वहीँ खेत में चटाई  डाल के सोये, पता नहीं कब नींद आ गयी थी, जब कि वहां इतनी ज्यादा सड़ी गर्मी थी कि सारे कपडे पसीने से भर गये थे, तब भी बहुत सुकून की नींद आई थी. उस के बाद वहां जब में उठी तो मौसी ने मेरे भैया से चाय लाने  के लिए कहा, उस पल मुझे ऐसा लगा कि यार इतनी सड़ी गर्मी भरी दोपहर में चिलचिलाती धूप में मौसी चाय के पीने के बारे में सोच भी कैसे सकती हैं. और मैंने उनको बोला भी था कि इस टाइम चाय, तो वो बोलीं हाँ यही सही वक़्त है चाय का, ठंडा पीने का नहीं. क्यूंकि जैसे ''जहर को जहर काटता है वेसे ही गर्मी को गर्मी मारती है'' ऐसे में अगर तुमने ठंडा पिया तो (लू) लग जाएगी और चाय पीने तो कुछ नहीं होगा और फिर उसके बाद सब ने गरम-गरम चाय पी और फिर शाम को वहां से वापस इंदौर के लिए रवाना हुए, रास्ते में खूब चाट भी खाई और उज्जैन में Ice cream भी.



 अन्तः मैं इतना ही कहना चाहूंगी अपने सभी पाठकों से कि आप भी अपने बच्चों को अपने गाँव ज़रूर लेकर जाइये, आपका अपना ना  भी हो तो भी ज़रूर लेकर जाइये और उन्हें अपनी मिटटी से मिलवाइये. उनको बताइए  कि क्यूँ भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है और कैसा लगता है अपने गाँव कि मिट्टी से मिलकर, उसे जुड़ कर. वहां कि यादों में खो कर उस मिट्टी के सहारे अपने देश से जुडी भावना को महसूस करके. एक किसान कैसे और कितनी मेहनत  करता है जिसके बाद आप को खाना मिलता है और अपने बच्चों को गावं से जुडी सभी जानकारियाँ दीजिये.  ताकि आगे चल कर वो समझ सके अपने देश कि अहमियत को और एक किसान की महनत को भी और अपने संस्कारों को भी ......

इस यादगार यात्रा के कुछ फोटो Mannu In DAG

Saturday 18 September 2010

Transfer (स्थानांतरण)

अब अपने इस अनुभव के बारे में, मै आप से क्या कहूं ये भी मेरे लिए एक ऐसा विषय है कि जितना भी लिखूं मुझे शायद वो कम ही लगेगा वैसे तो (स्थानांतरण) शब्द ऐसा है जिसको सुनकर हमेशा ऐसा लगता है जैसे साधारण भाषा में सरकारी नौकरी वाले लोगों का हुआ करता है ,मेरा भी अनुभव कुछ ऐसा ही है मगर फर्क इतना है कि मेरे पतिदेव की नौकरी सरकारी नहीं रही है कभी मगर फिर भी हम लोगों के स्थानांतरण बहुत हुए हैं. यहाँ में शुरुवात करना चाहूंगी अपने स्कूल के दिनों से जब में स्कूल में पढ़ा करती थी और मेरे किसी भी सहेली के पापा का जब भी स्थानांतरण हुआ करता था और मेरी वो सहेली जब स्कूल छोड़ कर जाया करती थी तो मन ही मन बहुत बुरा भी लगता था और बहुत Excitement भी बहुत होता था, कि सब कुछ नया मिलेगा उसे, नया घर, नई जगह,  नए लोग, नया स्कूल, नए दोस्त सब कुछ कितना अच्छा लगेगा उसे और तब मन में बहुत ख्याल आता था की मेरे पापा का कभी कोई स्थानांतरण क्यूँ नहीं होता, जब कि मेरे case में तो बात यह थी कि मेरे पापा के तो पहले ही बहुत सारे स्थानांतरण हो चुके थे और हम लोगों कि पढाई के कारण पापा ने खुद ही स्थानांतरण लेना बंद कर दिया था मेरे पापा Veterinary Dr हैं और जब कि में बात कर रही हूँ अपने स्कूल days कि तो तब तो मेरे पापा ने hospital से अपना तबादला lab में करा लिया था ताकि उनको Tour पर भी न जाना पड़े क्यूँ मेरी पढाई शुरू होने से पहले पापा hospital में थे और तब उस के कारण उनको बहुत सारी जगह पर जाना पड़ा था, स्थानांतरण के कारण. पहले पचमढ़ी,  फिर खिलचीपुर, फिर अब्दुल्लागंज  और फिर भोपाल. मेरा जन्म स्थान भोपाल ही है उस के बाद पापा ने तय किया की बस अब और नहीं. इसलिए उन्होंने अपना तबादला hospital से Lab में करवा लिया था. खैर में तो बात कर रही थी मेरे अनुभवों की....


मेरा सब से पहला अनुभव था शादी, यहाँ आप को हंसी आए शायद पढ़ कर, मगर यह सच है जो हर लड़की के ज़िन्दगी का एक तरह का स्थानांतरण जैसा ही अनुभव होता है जिनकी शादी एक ही शहर में होती है उनका अनुभव कैसा और क्या होता हैं वो में नहीं बता सकती मगर हाँ जिनकी शादी अपने शहर से बाहर होती है उन सभी लड़कीयों के लिए यह एक तरह का स्थानांतरण ही होता है कम से कम मेरी समझ तो यही कहती है, हो सकता है आप सभी पढने वाले लोगों मेरे इस बात से सहमत ना हो......मगर मुझे तो ऐसा ही लगा था मेरे शादी के बाद नए लोग, नए रिश्ते,  नई जगह, सारा का सारा वातावरण एक दम नया, खाना पीना पहनना ओढना, सभी कुछ पूर्ण रूप से नया  ही अनुभव था इसलिए मैंने पहले भी कहा और अब एक बार और कह रही हूँ कि ये मेरे हिसाब से सभी लड़कियों की ज़िन्दगी का एक तरह का स्थानांतरण ही होता है. 


इस से जुदा मेरा दूसरा अनुभव जब हम लोग दिल्ली छोड़ करा गाज़ियाबाद की एक सोसाइटी Shipra suncity में जाके रहना पड़ा हालांकि हम लोग वहां केवल आठ (८) महीने ही रहना पड़ा. शुरू-शुरू में तो ऐसा लगा था मानो किसी शहर से उठा कर किसी गाँव में रहने के लिए बोल दीया हो. मगर धीरे-धीरे वहां अच्छा लगने लगा था, क्यूंकि वहां भी हमको पडोसी बहुत ही अच्छे मिले थे आज भी हमारी उनसे दोस्ती है और यहाँ इतनी दूर लन्दन में होने के बावजूद भी मैं उनको के बार बहुत miss किया करती हूँ तो फ़ोन पर बात कर लिया करती हूँ. मगर वो जो अनुभव था उस दिन का जब हम लोगों ने नई दिल्ली वाला अर्जुन नगर का घर छोड़ा था, उफ़ इतना सारा सामान सारा का सारा खुद पैक करना और भिजवाना. क्या रखो क्या छोड़ो कुछ समझ नहीं आ रहा था. बड़ी मुश्किलों से किसी तरह सारा सामान पैक करके भिजवाया था और जब हम वहां पहुंचे तो सोने पे सुहागा, हम सारे दिन के थके हारे हुए थे,  ऊपर से नए मकान में जब हम पहुंचे तो न तो वहां कोई लाइट के व्यवस्था थी और नहीं कोई पंखा इत्यादी, हमारा गर्मी और मच्छरों से बुरा हाल था,  ऊपर से सारा सामान भी पैक, तो ये भी नहीं पता की  कहाँ क्या रखा था क्या नहीं, वो तो ये अच्छा था की मनीष के एक दोस्त श्री मुकुट बिहारी जी वहां पहले से रहा करते थे तो उनकी महरबानी से, हमलोगों ने रात का खाना तो उनके घर में ही हो गया था. बस सोने की समस्या रह गई थी और वो एक रात हम लोगों कैसे निकाली थी, हम लोग ही जानते है और कभी भूल भी नहीं सकते. नया मकान होने के वजह से दुगने मच्छर और ऊपर से दुगनी गर्मी. हम लोगो ने पता नहीं उस रात कितनी कछुआ छाप अगरबत्तियां जला डालीं और जेट mats भी जला डालीं मगर मच्छरों से पीछा  न छुड़ा सके. फिर हार कर आधी रात को मनीष उठे, उन्होंने कूलर में पानी भर कर चलाया, तब कहीं जाके हम लोग वो एक रात निकाल पाए. उस रात हमारे उस नए घर में मात्र एक बल्ब  लग कर दिया था हमारे मकान मालिक ने, उस एक बल्ब के सहारे पूरी रात हम ने कैसे निकाली. उफ़.....

वहां आठ महीने बाद जब मनीष का selection cognizant में हो गया तो फिर न्यूज़ मिली कि हमको अब पूना शिफ्ट होना होगा,  तब भी मनीष तो बहुत खुश थे, मगर मेरा मन दो भागो में बंट गया था. पूना जाने के खुशी तो थी मगर घर छोड़ने का ज़रा भी मन नहीं था.  उन आठ महीनो में ही उस घर से ऐसी मधुर यादें जुड़ गयी थी,  कि उस आधार पर तो वहां से जाने का ज़रा भी मन नहीं हो रहा था मेरा कि मैं वो घर छोडूं ...मगर अपना सोचा हुआ हमेशा हो ही जाये ऐसा कम ही होता है और यहाँ ऐसी स्थिति में मुझे मेरे मन को वो कहावत समझनी पड़ी कि ''जाही विधि रखे राम ताही विधि रहिये'' मगर इस बार स्थानांतरण के समय समस्या और भी गंभीर लग रही थी कि इतना सारा सामान कैसे पूना पहुंचेगा. मन्नू भी बहुत छोटा था उस वक्त, उस के रहते कैसे सारा सामान पैक होगा.  हम दोनो में से किसी एक को ही लगना  पड़ेगा और एक को मन्नू को संभालना होगा और जो एक लगेगा पैकिंग में वो बहुत थक जायेगा. तब हमने तय किया कि इस बार हम खुद सामान पैक नहीं करेगे और फिर हमने Movers & Packers वालों को बुलाकार सारा सामान पैक करवाया और हमारे जाने से  एक दिन पहले ही सारा सामान पूना के लिए भेज दिया अब समस्या खडी हूई कि रात कहाँ और कैसे गुज़ारेगे हम. उस रात खाना तो हमने बाहर खा लिया था मस्त सर्दियौं के दिन थे, वो दिल्ली की कड़ाके वाली सर्दी थी उस रात 2-3 डिग्री temperature था. वो तो भला हो हमारे पड़ोसी 'वरुण मंगल' का जिन्होंने ने हमारे ऐसे समय में बहुत मदद की हमको सोने के लिए बिस्तर दिया. सर्दी से बचने के लिए heater दिया, कम्बल दिए. उस सब के लिए, आज भी उस मदद का सोच कर अच्छा ही निकलता है उन के लिए, जब सामान पैक हो रहा था तब हम ने मन्नू को उनके घर ही सुला दिया था. तब कहीं जाके हम दोनों मिल करा सामान पैक करवा पाए थे.  फिर अगले दिन हमारी फ्लाईट  थी Delhi to Pune तो उन्होंने हमको सुबह चाय नाश्ता भी करवाया, उनके उस मदद के लिए हम आज भी उनके शुक्रगुज़ार हैं. वो मेरी पहली  हवाई यात्रा थी, बहुत मज़ा आया था मुझे, उसमें मैंने बहुत मस्ती और एन्जॉय  किया था. उसके बाद हम पूना पहुंचे, वहां शुरू में हमको होटल में रुके थे करीब पन्द्रह दिन. शुरू में तो सब बहुत अच्छा लग रहा था मगर पन्द्रह दिन होटल का खाना खा-खा कर इतना बुरा हाल हो चुका था कि भूख लगना ही बंद हो गयी थी. मन ही नहीं होता था ज़रा भी, तब मुझे पता चला कि मेरी एक ममेरी बहन वहीँ रहती हैं, तब हम ने उन से contact किया, एक दिन उनका घर जाके खाना भी खाया, तो ऐसा लगा था मानो खाने के मामले में जन्नत मिल गई हो और इस दिन का एक मजेदार किस्सा और भी  है, हुआ ये था उस दिन कि जब हम को दीदी ने खाने पर बुलाया था न तब मैंने सोचा कि चलो मैं दीदी की मदद करवा देती हूँ खाना परोसने मैं, तो मैंने दीदी से पूछा कि बताइए कि कहाँ क्या रखा है में परोस देती हूँ. अब यहाँ मजेदार बात यह है कि दिल्ली में तो हमको आदत थी पंजाबी खान पान की और पूना में तो सारा का सारा culture ही बदल चुका था, तो स्वाभाविक है की खानपान भी पूर्ण रूप से अलग ही होना था और ऐसे में हुआ यह कि जब दीदी ने बोला परांठे परोसने के लिए तो मैंने उनसे पूछा कि हैं कहाँ हैं परांठे, तो दीदी ने कहा वहीँ तो है उसी में ही, तो मैंने उत्तर दिया कहाँ हैं इस में तो मुझे सिर्फ घी लगी रोटियां ही दिख रही हैं. बस मेरे इतना कहेने कि डर थी के दीदी ने तुरत कहा यार ऐसा मत बोल तू, वो घी लगी रोटियां नहीं परांठे ही हैं.....फिर तो सब लोग जो हँसे थे कि क्या बोलूं में खैर ...यह तो था पूना का अनुभव



फिर बारी आगई एक साल बाद पूना छोड़ने के बारी अब तो पूना ही क्या हमको देश छोड़ना था इसलिए इस अवसर पर मेरे और मनीष के परिवार आकर हमारे साथ रहे पूरे दो महीने और आखिर उसके बाद वो दिन आ ही गया जब हमको पूना छोड़ कर London के लिए निकल ना था, तब भी हमने यही तय किया कि mover and packers वालों से ही सामान Pack करवा कर जबलपुर भिजवा देंगे और हमने किया भी यही, जिस दिन हमने उनको बुलाया था उस ही दिन हमको पूना छोड़ कर  मुंबई के लिए निकलना था. शाम को इधर सामान जबलपुर गया और उधर हम लोग टेक्सी से मुंबई निकल गए. मुंबई की वो शाम भी में कभी नहीं भूल सकती उस दिन हम लोग निमिष भईया के घर रुके थे. इतनी मस्ती हुए थी उस रात के हमेशा याद रहेगी मुझे उनके सारे दोस्तों से मिलकर लगा ही नहीं मुझे कि मैं पहली बार मिली हूँ सब से. सबने इतना ध्यान रखा मेरा, कि जितनी तारीफ़ करूँ कम है हम सब लोगो ने उस दिन साथ मिलकर खाना बनाया था रोटियां बस बाहर से मंगवाई गयीं थी, फिर रात को ice -cream खाना, समुंदर के किनारे मस्ती करना बहुत अच्छा लगा था और उस मस्ती के बाद से तो मन्नू को भी निमिष मामा के साथ बहुत मज़ा आ रहा था फिर देर रात २ बजे तक गप्पे मारना, समय का पता ही नहीं चल रहा था किसी को, वो तो सुबह flight की मजबूरी थी वरना शायद उस रात कोई सोता ही नहीं, सब को मन मार कर सोना पड़ा था उस रात खैर ...अगले दिन हम Filght पकड़ कर London पहुंचे वहां का किस्सा तो और भी दिलचस्प  लगे शायद आप को, जिस रात हम वहां पहुँच उस वक़्त वहां भी तेज़ बारिश, कड़ाके की ठण्ड, सर्द हवाएं, सब एक साथ चल रहा था. कुल मिला कर मौसम  के मिजाज़ बहुत ख़राब थे, ऐसी हालत में हमको उस व्यक्ति का घर ढूँढना था, जिस के पास हमारे घर(गेस्ट हाउस) की चाबी थी और नए-नए इंडिया से आने के कारण हमको जरूरत से ज्यादा ही ठण्ड लग रही थी, तभी मनीष हमको यानि मुझे और मन्नू को हमारे ही घर कि bulding के सामने खड़ा करके चले गए उस व्यक्ति का घर ढूँढने,  जिस के पास हमारे घर की चाबियाँ थी. अब दिक्कत ये थी कि मनीष के पास ना तो UK सिम थी और न ही खुले पैसे की वो उस व्यक्ति को कॉल करके बुला सकें, उस के लिए हम दोनो को वहीँ अनजाने देश की उस सुनसान बरसाती हवा के साथ पड़ती कड़ाके की ठण्ड में छोड़ कर, पहले असद(departmental  store) जाना पडा जो की हमारे घर के ठीक सामने ही था. मगर मुझे उसकी जानकारी नहीं थी उस वक़्त पहले वो वहां गए फिर उस व्यक्ति को call किया उस का नाम वरुण था ..और उतनी देर में मन्नू को लिए ठण्ड में बाहर ही खडी और मन्नू ठण्ड के मारे मुझसे चिपका जा रहा था, यह बोल-बोल कर के मम्मा ठण्ड लगी. वो तो भला हो उस पडोसी का जिसने मुझे और मन्नू को यूँ सुनसान सड़क पर अकेला खड़ा देख कर हमारे बिल्डिंग का दरवाज़ा खोल दिया फिर मैंने उससे बताया कि हमारा घर भी इस बिल्डिंग में है मगर मेरे पास चाबी नहीं है और मेरे पतिदेव वही लेने गए हैं. उसने यह सुन कर हमारे लिए बिल्डिंग का दरवाज़ा भी खोल दिया और मेरा सामान भी बिल्डिंग के अंदर रखवा लिया.  थोड़ी देर बाद मनीष वरुण के साथ वहां पहुंचे और तब जाके हम अपने फ्लैट में पहुंचे और मैंने चैन की साँस  ली. दो महीने वहां रहने के बाद हम लोग Bournmouth पहुंचे  वहां भी काफी समय company guest house में रहने के बाद जाके हम को एक घर मिला और हम वहां शिफ्ट हुए,  फिर डेढ़ साल वहां रहने के बाद मनीष का प्रोजेक्ट फिर change  हुआ और हमको वहां से यहाँ Crawley शिफ्ट होना पड़ा. बताने के अनुभव तो इन दो जगहों के भी बहुत अच्छे-अच्छे हैं मगर यदि मैंने बताना शुरू किया तो फिर बहुत ही लम्बी कहानी हो जायेगी इसलिए फिलहाल इस विषय को में यहीं समाप्त करती हूँ और उम्मीद करती हूँ आपको मेरे यह स्थानांतरण के अनुभव भी पसंद आये होंगे और जो यदि न भी आये हों तो भी आपने अपने विचार मुझसे ज़रूर बांटीयेगा ...comments लिख कर.

Saturday 11 September 2010

Social Welfare in UK

अब इस के बारे में क्या कहूँ ,इस विषय पर बोलने को या लिखने को इतना कुछ है कि जितना भी लिखो उतना कम है. मुझे तो यही  नहीं समझ में आ रहा है कि कहाँ से शुरू करूँ. SOCIAL WELFARE क्या है - ये एक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें UK की सरकार उन सभी नौकरीपेशा लोगों से उनकी आय का 11 प्रतिशत National Insurance ( NI ) टैक्स लेती है और वही पैसा कुछ माध्ह्यमों से लोगों की सुविधाओं के रूप में उपलब्ध कराती है.


1. NHS (नेशनल हेल्थ सर्विस)
इसके अंतर्गत चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं में अंतर देखा जाये तो यह एक बहुत बड़ा अंतर है. हमारे देश में और यहाँ UK  में, जैसे यहाँ पर एक गर्भवती स्त्री को एक साल तक यानि कि  जब तक उसकी प्रसूति हो नहीं जाती तब तक पूरी चिकित्सा मुफ्त है उसकी सारी दवाइयों से लेकर जितनी भी चिकित्सा सम्बन्धी जरूरतें हैं वो सभी एकदम मुफ्त हैं यहाँ और अपने देश में (भारत) में उतना ही ज्यादा खर्चा  होता है.  कहने का मतलब यह है की चाहे वो  गर्भावस्था  हो या किसी  को किसी प्रकार का कोई रोग हो या अन्य कोई भी शारीरिक चिकित्सा हो या मानसिक  चिकित्सा हमारे यहाँ लोग डॉ. के  नाम से घबराते है  इसलिए नहीं कि वो इलाज कैसे करवाएगा,  अच्छा भी होगा या नहीं  बल्कि इसलिए की पता नहीं वो कितना पैसा लेगा.  कितना खर्चा होगा, रोग ठीक होगा  या नहीं वो नहीं सोचता कोई, बल्कि सब से पहले अगर लोगों के दिमाग में कोई बात आती है तो सिर्फ यही के खर्चा  कितना होगा इस रोग की चिकित्सा में, हम उठा भी पायेंगे या नहीं, खास कर एक आम आदमी तो इस बारे में सोच कर ही  रह जाता है और अपने रोग के साथ समझोता कर के ही अपनी पूरी ज़िन्दगी उस रोग से लड़ते-लड़ते खुद ही गुज़र जाता है.  मगर यहाँ ऐसा ज़रा भी नहीं है यहाँ तो सरकार  ने इतनी सुविधाएँ दे रखी हैं की जितना भी बोलो इस विषय में या जितनी भी उसकी तारीफ करो वो उतनी ही  कम है. जैसे मैंने पहले भी बताया यहाँ गर्भवती स्त्री को पूरे नौ महीने तक चिकित्सा सम्बन्धी कोई खर्चा नहीं उठाना पड़ता, उसका सारा इलाज मुफ्त किया जाता है यहाँ तक के प्रसूति भी, चाहे नोर्मल हो या ऑपरेशन से. सभी व्यस्को को डॉ. की कोई फीस नहीं देनी पड़ती बस दवाई के लिए मेडिकल स्टोर पर Prescription की तय फीस देनी पड़ती है. कोई भी दवा हो, एक ही फीस देनी पड़ती है और तो और जो लोग रिटायर्ड है, या अपंग है,या फिर मिलिट्री से हैं, उनको भी मेडिकल सम्बन्धी सारी चिकित्सा एकदम मुफ्त है TOTALY FREE. अब बात करे बच्चो की तो सोलह (१६) साल तक के सभी बच्चों की सारी चिकित्सा भी मुफ्त है किसी प्रकार की कोई फीस नहीं है ना. डॉ. को दिखाने की ना हीं दवाईयों का कोई खर्चा, सब फ्री है. यहाँ पर यदि सब से महंगा इलाज देखा जाये तो वो है आंख का और दांतों का, मगर यहाँ उसके लिए भी कुछ तयशुदा कायदे  कानून है जैसे बच्चो के लिए आँख और दांतों का इलाज भी फ्री है. हमारे यहाँ के तरह नहीं है कि यदि डॉ. मशहूर है तो उसकी फीस ज्यादा होगी और नहीं तो कम होगी या जिसका जितना मन करेगा वो उतना पैसा बतायेगा अपने मरीज़ को, सरकार का कोई क़ानून ही नहीं है कोन कितनी फीस लेगा. जबकि  यहाँ सब पहले से ही तय  है.  इस विषय  में यानि की  इस रोग की या इस समस्या कि चिकित्सा में इतना खर्चा  आता है तो उतना  ही आयेगा, फिर आप चाहे जहाँ जाके दिखा लो यानि की किसी भी और डॉ को दिखा लो, वो भी उतनी  ही फीस बतायेगा जितना की पहले वाले डॉ. ने आप को बताया होगा, यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी यहाँ की. जैसे :- मैं यदि खुद के एक अनुभव के बारे में आप को बताऊँ, मुझे अपने एक दांत में समस्या हो गई  थी और मुझे ये पता था के जब भी मैं इस समस्या को दिखाने जाउंगी डॉ. के पास, वो मुझे ROOT CANAL का ही  सुझाव देगा मगर मेरा यहाँ कोई REGISTRATION नहीं था जो के यहाँ दांत की चिकित्सा के लिए होना अनिवार्य  है, तब जब समस्या इतनी बढ़ गई कि सहना मुश्किल हो गया तब  मैंने अपना REGISTRATION  यहाँ के एक  DENTAL CLINIC में करवाया और करवाने से पहले  दो चार जगहों पर पता भी किया  कि क्या तरीका है. कहने का मतलब यह की  हर चीज़ के FIXED RATES हैं यहाँ, और मैंने डॉ को दिखाया और जैसा मैंने आपको पहले भी कहा कि उसने मुझे वही ROOT CANAL का सुझाव दिया उसके भी दाम निश्चित थे कि ROUTE CANAL + गोल्ड / सेरामिक CAPING की फीस £198. अब ऐसा नहीं था कि  उन्होंने ही इतना लिया हो बल्कि पूरे UK में कहीं भी, किसी भी जगह आप चले जाओ, आप को इतनी ही फीस देना होगी.  ऐसा नहीं होगा की कहीं और का डॉ. बहुत अच्छा है या बहुत मशहूर है तो वहां ज्यादा पैसा लगेगा आपका.  यहाँ में एक बात और कहना चाहूगी जोकि मुझे पसंद आया  और जिससे  मेरे पतिदेव भी सहमत हैं की यहाँ के डॉ अपने मरीजों को पूरी तरह समय देते है उनकी पूरी बात सुनते है फिर चाहे कितना भी समय क्यूँ न लगे उनको एक मरीज़ को देखने में. मगर हमारे यहाँ सभी डॉ ऐसा नहीं करते, बस शायद कुछ ही डॉ. ऐसा  करते हैं. जिस डॉ के पास ज्यादा मरीजों की लम्बी कतार हो वो तो अपने मरीज़ की पूरी बात को ज़रा भी नहीं सुनता. यह मेरा ही नहीं मनीष का भी अनुभव है जब उन्होंने अपने दांत का इलाज भारत में BHOPAL में करवाया था तब उनको वहां के सब से मशहूर डॉ अग्रवाल जो की एक बहुत ही बढ़िया दाँतों के डॉ माने जाते है उनको दिखाया था और उनका अनुभव यह रहा, उसके बाद की वो डॉ ऐसा है जो अपने मरीज़ कि बात तक नहीं सुनता कि  उसको समस्या कहाँ है और कितनी है बस ज़रा देखता है वो और अपने JUNIORS को बोल देता है की ऐसा करदो वेसा कर दो...जिस के कारण मरीज़ को ज़रा भी वो  मानसिक संतुष्टी नहीं मिल पाती जो की उसको मिलनी चाहिये  ..मगर ऐसा यहाँ नहीं होता ,और यहाँ तो एक बार NHS में REGISTRATION के बाद बाकि सारे इलाज मुफ्त में ही होते हैं बस केवल PRESCRIPTION  का खर्चा  होता है ,और वो भी सिर्फ बड़ों के लिए, बच्चों के  लिए तो वो भी मुफ्त है और कुछ खास बीमारियों के लिए आपके डॉ की अनुमति से आपका Excemption Card बन सकता है जिससे आपको Prescription का चार्ज भी नहीं लगता , कुछ बिमारियों के नाम हैं  Thyriod , Diebeties ... इत्यादी.


2 . Pensions
मगर यहाँ यही नहीं और भी कई  चीज़ों में लोगों को बहुत सी  सुविधाएँ उपलब्ध है जिसके कारण यहाँ के लोगों की ज़िन्दगी ज्यादा आसान लगती है हमारे देश में रहेने वाले नागरिकों के बनिस्बत  अब जैसे PENSION को ही ले लो हमारे यहाँ सिर्फ और सिर्फ जिसके पास सरकारी नौकरी है उसे PENSION मिला करती. मगर यहाँ ऐसा नहीं है यहाँ तो एक मामूली से TAXI DRIVER को भी PENSION मिलती है अब यहाँ CRAWLEY की ही बात ले लो यहाँ PAKISTAN से आये ज्यादा तर लोग Taxi  ही चलाते हैं और आराम से अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं खैर ये तो बात उनकी है जो बाहर से आये हैं  खैर....हम भी कहाँ से कहाँ आगये बात कर रहे थे welfare की और आगये Emotions पर  तो बात उनकी कर रही थी जो की यहीं के  है उनको सरकार  PENSION देती है ,जो लोग MILITRY से रिटायर्ड है उनको भी सरकार  PENSION देती  है जो लोग विकलांग है उनको भी और जो स्वाभाविक रूप से भी अपनी नोकरी से रिटायर्ड है उनको भी PENSION मिलती है यह सारी सुविधाएँ देख कर लगता है की यह सब हमारे देश में भी होना चाहिये पूरे तौर  पर न सही मगर कुछ तो होना ही चाहिये यह तो सब बड़े-बड़े उद्धरण थे जो मैंने आप को बताये


3. Tax Credits
यहाँ पर जो लोग किसी भी कारण बेरोजगार हैं तो उन्हें टैक्स क्रेडिट के तहत उनको अपना खर्चा चलाने के लिए सरकार हफ्ते के हिसाब से कुछ खर्चा देती है हालाँकि उसके भी कुछ कायदे क़ानून हैं जिनका मैं पूरा व्याख्यान नहीं करना चाहती. बच्चों को पालने के लिए भी सरकार खर्चा देती है. लेकिन ये सब फायदे हम को नहीं मिल सकते जब तक हमारे पासपोर्ट पर "No Recourse to Public Fund " लिखा है. यानी आपका पासपोर्ट जब तक British पासपोर्ट नहीं हो जाता.  

Wednesday 8 September 2010

My European countries experience

आज भी कभी जब मैं अपने मस्ती वाले या enjoyable days को याद करती हूँ तो सब से पहले मेरे दिमाग में चार  जगहों का नाम आता है. गोवा (भारत), यहाँ (UK), Switzerland और Paris (European countries).

अब अगर मैं गोवा की बात करूं तो क्या कहूँ वहां तो मैं honeymoon पर गई थी अब ये पढ़ कर तो आप सभी पढने वाले समझ ही गए होंगे कि वहां मुझे कितना मज़ा आया होगा, हमने बहुत सारी मस्ती की थी, दुनियादारी से परे खुल कर बिना किसी चिंता के बिलकुल आजाद पंछी के ज़िन्दगी गुजारी थी हमने वहां, कहने को वो केवल एक हफ्ता ही था मगर ज़िन्दगी के वो सबसे खुबसूरत दिन थे मेरे लिए, जिन्हें अगर मैं अपनी ज़िन्दगी की पुस्तक में लिखना चाहूं तो उसे सुनहरी अक्षरों से लिखना पसंद करुँगी आज भी जब वो दिन हम याद करते हैं तो ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो वहां का हर एक लम्हा जेसे हमारे लिए कीमती मोती या यूँ कहिये की हीरों के जैसा है. उन दिन को एक एक लम्हा हमारी ज़िन्दगी में आज भी महकता है और हमेशा महकता रहेगा वहां का हर एक लम्हा हमारे लिए एक महकते फूल की तरह है जिसकी खुशबू आज भी उत्तनी ही ताज़ा है जित्तनी के उन दिनों हुआ करती थी वो समंदर के किनारे की मस्ती वो बेधडक बिना मोटापे की परवाह किये चिकन खाना, Pastries खाना, वो रोज़ रोज मिलने वाले गुलाब के फूल का इंतज़ार, वो दिन की मस्ती वो रातों के खुमारी.... अगर मुझसे कोई पूछे की में अपनी अभी तक की ज़िन्दगी मैं से भी यदि अपने ज़िन्दगी के किसी एक हिस्से को असल में ज़िन्दगी का नाम देना चाहूं तो किसे दूंगी तो मेरा जवाब होगा GOA Golden days of my life ....खैर ये तो थी गोवा के बातें.

अब मैं शेयर करना चाहूंगी यहाँ अपने EUROPE के अनुभवों को, यहाँ आकर मैंने सब से पहली जगह देखी वो तो SWITZERLAND दिनांक १६-दिसम्बर २००७ भरी सर्दियौं मैं बर्फीली वादियौं में घूमने का एक अपना अलग ही अनुभव था वो, तब शायद ज़िन्दगी में मैंने पहली बार इतने गरम कपडे पहने होगे मगर सर्दी क्या होती है और किस हद्द तक हो सकती है. इस का पता मुझे -१३ डिग्री centigrade तापमान मे जाकर अहसास हुआ, ऐसा सर घुमा था मेरा कि आज भी याद है मुझे चक्कर आ गया था और मैं बर्फीले रास्ते पर से फिसल गई थी मैंने तभी अपने हाथ खड़े कर दिये थे कि मैं और आगे नहीं जा सकती... तब इन्होने मुझसे कहा तुम अंदर जाके restaurant में बेठो हम आते हैं और वहां जाने के बाद मैंने दो कप काफी पी और दो हॉट एंड चिली सूप भी पी डाले. पता भी नहीं किया कि उसमें क्या था क्या नहीं. उस वक़्त तो बस एसा लग रहा था कहीं से भी कैसे भी कुछ ऐसा मिल जाये जो शरीर को गर्मी दे सके, ऐसा ही एक बार तब भी हुआ था जब हमने GENEVA लैंड किया था और वहां भी कड़ाके की ठण्ड थी और सर्द हवाएं चल रहीं थी. झील के किनारे जो स्टील की रेलिंग लगी तो वो भी कम्पन से बज रही थी. लोग ऊनी टोपे पहने होने के बावजूद भी अपने दोनों हाथों से अपने कानो को ढके हुए निकल रहे थे मगर हम लोग इतनी कड़ाके के सर्दी मे भी फोटो खीचने और खिचवाने में लगे थे तभी जब ऐसा महसूस हुआ की अब ठण्ड बहुत जायदा बढ़ गई है तब कहीं जाके बड़ी मुश्किल से एक काफी शॉप मिली और हमने वहां जाके काफी ली और अपने पास रखे Egg sandwich खाए वहीँ हमको एक और हिन्दुस्तानी परिवार भी मिला जो कि Amsterdam  से आया था, जल्द ही हमारी दोस्ती भी हो गयी  और हमने उनके साथ भी अपनी sandwiches बाँट कर खायी. बहुत अच्छा लगा परदेस मे किसी हिन्दुस्तानी परिवार से मिलना. वहां हमने चार cities घूमी INTERLAKEN ,  BERN , ZURICH AND GENEVA . INTERLAKEN में हमको बहुत आसानी से हिन्दुस्तानी खाना मिल गया था मगर बाकि जगहों पर थोड़ी परेशानी का सामना करना पड़ा था क्यूंकि मन्नू (मेरा बेटा) छोटा था तो वो पिज्जा बर्गर जैसा कुछ भी नहीं खा पता था. मगर हाँ यहाँ मैं BERN मे खाए गए पिज्जा का स्वाद कभी नहीं भूल सकती उस दिन भी कड़ाके की ठण्ड थी, यहाँ तक कि बर्फ गिरना भी शुरू होगयी  थी और भूख से भी बुरा हाल हो रहा था तब हम वही के एक restaurant मे गए और पिज्जा मंगवाया और मिर्च के तेल के साथ उसने वो पिज्जा हमको खिलाया वैसा पिज्जा मैंने आज तक फिर कभी नहीं खाया. पिज्जा खाने का भी एक अलग सा ही अनुभव था वो मेरा. आज भी जब कभी मैं कोई भी पिज्जा मंगवाती हूँ या खाती हूँ तो एक बार BERN के उस restaurant Pizzeria को एक बार ज़रूर याद करती हूँ.

कुछ ऐसा ही मजेदार किस्सा हुआ था पहले दिन भी कहने को मजेदार था मगर अंदर से मैं थोडा डर गई थी वेसे तो ये बात सब से पहले बताने वाली है मगर मैं ही सब से आखिर में बता रही हूँ हम लोगों को Interlaken पर उतरना था. मैं और मन्नू हम दोनों तो उतर गए मगर मनीष (पतिदेव) नहीं उतर पाए और ट्रेन आगे निकल गई. उस वक़्त उन दिनों मेरे पास अपना खुद का मोबाइल भी नहीं हुआ करता था कि मनीष हम से संपर्क कर सकें. और तो और मनीष का मोबाइल मेरे पास था अब मुझे ये लगने लगा था कि मैं उनसे contact कैसे करूं.  उपर से मन्नू ने अपने पापा को न पाकर जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया. पहले तो मुझे इतनी घबराहट नहीं हुए थी मगर मन्नू के रोने से मैं बहुत घबरा गए थी कि क्या करूँ क्या न करूँ, कुछ समझ मैं नहीं आ रहा था और वो कहते है न विनाशकाले विपरीत बुद्धी ...बस इतना ही बहुत है कुछ ग़लत नहीं हुआ. मगर उस वक़्त मेरे दिमाग ने काम करना बिलकुल बंद कर दिया था और जो करता भी तो मन्नू के रोने ने मेरे हाथ पैर फुला दिए थे. तभी  मनीष ने किसी और के मोबाइल से मुझे कॉल करके बताया कि वो अगले स्टेशन पर उतर गए हैं और १० मिनिट में आ रहे हैं. तब कहीं जाके मेरी  जान मे जान आई ...क्योंके वहां सब से बड़ी अड़चन थी भाषा की, वहां इंग्लिश कम ही लोग जानते हैं ये सोच कर मैं और भी घबरा गयी थी ..खैर ये सब हुआ और उसके १० मिनिट बाद ही मनीष आगये और सब ठीक हो गया. ५ दिन हम लोगों ने खूब मस्ती की और "दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे" से प्रेरित होकर वो गाय के गले में बाँधने वाली घंटी भी खरीदी...सच कहते हैं लोग, धरती पैर स्वर्ग है SWITZERLAND . जित्तना खूबसूरत सर्दियों मे है उतना ही गर्मियों मैं भी ...ऊपर से हम लोग Christmas के आस पास वहां थे  तो वहां के रोनक्  और भी ज़यादा देखने लायक थी. बर्फ् से ढकी सजीली सड़कें चारों तरफ रौशनी ही रौशनी भरे हुए सजीले मार्केट. फुल ऑफ गिफ्ट आईटम्स, chocolates तो वहां खुली मिलती है ठेलों पर. बिलकुल हमारे हिंदुस्तान की तरह और तौल कर मिलती हैं.  हमलोग वहां से सबके लिए वही लाये थे, उपहार के रूप में देने के लिए और अच्छी बात तो ये है कि सबको पसंद भी बहुत आई  थी.

अब बात आती है PARIS की. यहाँ जाने का हमारा प्रोग्राम दो बार पहले भी बना, एक बार तो बस सोच कर ही रह गए थे दूसरी बार मनीष के दो colleague परिवार के सांथ जाने का प्रोग्राम बना मगर वो लोग तो गए,  हम नहीं जा पाए क्यूँकी मेरे नवरात्री का उपवास आ रहा  था बीच में, तो वहां फिर खाने पीने की समस्या हो जाती इसलिए हम लोगों ने मना कर दिया था कि हम नहीं जा पायेंगे. तब तक तो हम लोगों को Schengen वीसा भी नहीं मिला था ...उसके बाद इस बार जाके finally प्रोग्राम बना और हम लोग ७- अगस्त -२०१० को जापाये. पहले की बात करूँ तो में यह कह सकती हूँ की मन्नू को शायद पहले इतना मज़ा नहीं आता जितना की उसने इस ट्रिप में मस्ती की और वो बहुत उत्साहित भी था, EURO STAR TRAIN  को लेकर और DISNEY LAND के नाम से.
उसे अगर कुछ घूमना था PARIS में तो वो बस एक मात्र DISNEY LAND ही था और दूसरा इस ट्रेन का आकर्षण भी उसे बहुत बेसब्री से इंतज़ार था कि कब ट्रेन पानी में से निकलेगी मगर कब निकल गई हमको ही पता नहीं चला तो उसे कहाँ से चलता ..उसके दिमाग में शायद ये कल्पना थी कि जब वो ट्रेन से बाहर देखेगा तो उससे पानी दिखेगा. जैसे कि  अक्सर बच्चों कि कल्पनाये हुआ करती हैं ,मगर न तो उसको उसकी कल्पना के अनुसार ही कुछ मिला और न हमको ही ऐसा कुछ महसूस हुआ. इस ट्रेन का अनुभव कुछ वैसा ही रहा जैसे वो कहावत है "ना नाम बड़े और दर्शन छोटे". बस बिलकुल वेसे ही कुछ अलग या खास महसूस नहीं हुआ की ये इतनी FAST ट्रेन है तो कुछ अलग सा लगे, और मज़े कि बात तो ये लगी थी जब हम  वहां पहुचे तो वहां के स्टेशन(Gare Du Nord ) के पास वाली रोड पर ऐसा लगा ही नहीं के हम लोग PARIS में खड़े हैं. ऐसा लगा था मानो हम दक्षिण भारत में ही खड़े हों चारों तरफ केवल South INDIAN MARKET और INDIAN FASHION , यहाँ तक के साड़ियाँ भी मिल रही थीं. हमने वहां के खूब फोटो खींचे और वहीँ एक SOUTH INDIAN रेस्तोरेंट में खाना खाया और उसके बाद ट्रेन पकड़ी अपने होटल के लिए. इसके बाद मन्नू को वहां पहुँचते -पहुँचते तक EIFFEL TOWER का भी आकर्षण बहुत हो गया था क्यूंकि उसने  ट्रेन से EIFFEL TOWER देखा तो उसे बहुत मज़ा आया और बहुत उत्साहित भी हुआ, कि उसने सब से पहले इतनी दूर से ही देख लिया ..वेसे अगर सही मायने में कहो तो PARIS का एक मुख्य आकर्षण है EIFFEL TOWER,
दूसरा LOUVRE MUSEUM  और तीसरा DISNEY LAND . ये तीन ही जगह सब से जादा खास हैं. PARIS में वेसे देखने को बहुत कुछ है और ३ दिनो में लगभग हमने सभी कुछ घूम भी लिया था बस हमारा कुछ  छूटा था तो वो था बोट का NIGHT TRIP जो की वहां कि एक खास आकर्षण कि श्रेणी में आता है. वहां पहुँचते से ही हम लोगों ने घूमना शुरू कर दिया था. वैसे तो आम तोर पर काम चल गया मगर वहां एक बात जो पसंद नहीं आयी हमको वो तो "भाषा" यानि कि वहां सैलानियौं के लिए भी कहीं इंग्लिश में कुछ नहीं लिखा था हर जगह सब कुछ बस फ्रेच भाषा मैंने ही था तो कहीं -कहीं थोड़ी बहुत दिक्कत का सामना  करना पडा, और ये बात मुझे कुछ ज्यादा ही महसूस हुई क्यूँकि जब हम वापस लौट कर CRAWLEY आये यानि (UK ) आये तो ऐसा लगा मानो अपने ही देश में वापस आये हों जो की मुझे आज से पहले कभी नहीं लगता था (UK) में ये एहसास मुझे हमेशा भारत जाने पर ही महसूस हुआ करता था, अपना देश अपनी मिटटी वाला एहसास वो मुझे FRANCE से वापस आने के बाद हुआ, UK में ये मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात लगी मुझे अपने आप मैं. खैर जो भी हो हम ने खूब मस्ती की और घुमने का भरपूर लुफ्त भी उठाया.

मन्नू को भी DISNEY LAND बहुत पसंद आया उसका तो मन ही नहीं हो रहा था, वहां से वापस आने का Incidence मुझे आज भी याद है उसने कहा था, हमसे की जब सारे कार्टून्स सोने जाएंगे तब हम घर चलेंगे माँ ...और वहां से आने के बाद भी कई बार उसने कहा था, मुझे DISNEY LAND की याद आ रही है, मुझे वहां वापस जाना है और EIFFEL TOWER का भी कम उत्त्साह नहीं था. उसने ५-६ Keyrings भी लिए जिसमें EIFFEL TOWER के MINIATURE रेप्लिका लगे हुए थे हम लोगो ने भी सब से ज्यादा Effiel  Tower ही ENJOY किया था क्यूंकि वो हमारे होटल के बहुत करीब था, इतना कि बस ५ मिनट का रास्ता. तो लगभग रोज़ ही देखा करते थे हम. दूसरा हमको सब से ज़यादा कुछ पसंद आया तो वो था LOUVERE MUSEUM वो तो इतना बड़ा है कि एक दिन में घूम पाना तो संभव ही नहीं है.  वहां का हर एक section अपने आप में अद्भुत है चाहे वो चित्रकारी का हो, या फिर मूर्ति कला सभी कुछ अपने आप में बहुत अद्भुत है. वहीँ उसके अंदर एक NAPOLEON का महल भी है . उसमें जो राजसी चमक देखने को मिलती है आज भी वैसे ही है. इतने सालों बाद जैसे वहां के लोगों ने उसे संभाल कर रखा हुआ है वो सच में देखने लायक है. जिसे देख कर आज भी लोगों के आंखें चोधिया जाती हैं और सच में महसूस होता है की सच में ऐसा होता है महल. मगर इसका मतलब ये हर्गिज़ नहीं की भारत में ये सब देखने को नहीं मिलता. असल मैं मैंने नहीं देखा इसलिए मुझे यहाँ का ज्यादा अच्छा लगा. भारत में भी ये सब होगा मैंने नहीं देखा है की वहां कैसा है, क्या है मगर हाँ यहाँ के जैसी  देखभाल वहां भी है या नहीं ये में नहीं कह सकती. मगर हाँ इतना ज़रूर कह सकती हूँ की  एहसास ज़रूर एक सा है जो वहां की राजा या रानी के सामान को देखकर लगा यानि जो दिमाग में एक कल्पना बनती है, कि रानी ऐसी लगती होगी, वैसा राजा लगता होगा. जब वो लोग इन चीज़ों को इस्तेमाल करते होंगे. वो एहसास एक से हैं क्यौंकी मैंने भारत में ऐतहासिक जगहों के नाम पर GWALIOR का किला और दिल्ली की जगहों को ही घूमा है और वहां भी वो सब देखकर मुझे ऐसा ही महसूस हुआ था. ऐसी ही कुछ कल्पनाये बनी थी मन में.... खैर मुझे अपने बिंदु से भटकना नहीं चाहिये, मैं बात कर रही थी तो PARIS की वेसे तो हमको यहाँ जितने  भी हिन्दुस्तानी परिवार जो कि हम से पहले Paris  घूम कर आ चुके हैं उन्होंने पहले ही काफी कुछ बता दिया था मगर फिर भी थोडा तो आश्चर्य लगता ही है. कि ऐसी जगह जहाँ कोई  इंग्लिश नहीं समझ  रहा हो और आप को सुने मिले ''रस्ते का माल सस्ते में, १ EURO में ५ कीरिंग लेलो'' तो आप बहुत ही अचंभित तरीके से प्रतिक्रिया करते हो वेसे ही जब किसी नीग्रो के मुंह से नमस्ते सुनो तो भी बहुत अजीब लगता है या यूँ कहो कि मुझे लगा,  क्यूंकि मैंने आज तक अंग्रेजों के मुंह से तो बहुत हिंदी सुनी थी मगर कभी किसी नीग्रो के मुंह से नहीं और ऐसे में जब वो आप से बोले "नमस्ते कैसे हैं आप, सब चंगा" तो बहुत ही अजीब लगता है. मुझे तो लगा......सबको लगता है या नहीं वो मुझे पता नहीं ...मगर इस ट्रिप का भी अपना एक अलग ही मज़ा था अपना एक अलग सा अनुभव जो मुझे हमेशा याद रहेगा ... वहां हमने जितना पिज्जा और बर्गर खाया था उतना पहले कभी नहीं खाया. वापस आने के बाद तो जैसे इन चीज़ों से नफरत सी होगी थी, मन ही नहीं करता था. बहुत दिनों तक इन चीज़ों की तरफ देखने तक का, हम तो हम मन्नू का मन  भी नहीं जबकि उसको पिज्जा बेहद पसंद है मगर वो भी यहाँ आने क बाद साफ़ मना कर देता था की वो नहीं खाना. सादा खाना चाहिये. वो ४ दिन कैसे निकल गए पता ही नहीं चले और अब बस यादें -यादें रहे जाती हैं ....